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________________ आचारांग सूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध 85. भगवान् महावीर ने कहा है-महामोह ( विषय/स्त्रियों ) में अप्रमत्त रहे / अर्थात् विषयों के प्रति अनासक्त रहे / बुद्धिमान् पुरुष को प्रमाद से बचना चाहिए / शान्ति' (मोक्ष) और मरण (संसार) को देखने समझने वाला (प्रमाद न करे) यह शरीर भंगुरधर्मा-नाशवान है, यह देखने वाला (प्रमाद न करे) / / ये भोग (तेरी अतृप्ति की प्यास बुझाने में) समर्थ नहीं है / यह देख / तुझे इन भोगों से क्या प्रयोजन है ? हे मुनि ! यह देख, ये भोग महान् भयरूप हैं। भोगों के लिए किसी प्राणी की हिंसा न कर / मिक्षाचरी में समभाव 86. एस वीरे पसंसिते जे ण णिविज्जति आदाणाए। ण मे देति ण कुप्पेज्जा, थोवं लधुण खिसए। पडिसेहितो परिणमेज्जा। एतं मोणं समणुवासेज्जासि त्ति बेमि / ॥चउत्थो उद्देसओ समत्तो। 86. वह वीर प्रशंसनीय होता है, जो संयम से उद्विग्न नहीं होता अर्थात् जो संयम में सतत लीन रहता है / ___ 'यह मुझे भिक्षा नहीं देता' ऐसा सोचकर कुपित नहीं होना चाहिए। थोड़ी भिक्षा मिलने पर दाता की निंदा नहीं करना चाहिए / गृहस्वामी दाता द्वारा प्रतिबंध करने पर-निषेध करने पर शान्त भाव से वापस लौट जाये / __ मुनि इस मौन (मुनिधर्म) का भलीभाँति पालन करे / विवेचन-यहाँ भोग-निवृत्ति के प्रसंग में भिक्षा-विधि का वर्णन आया है / टीकाकार प्राचार्य की दृष्टि में इसकी संगति इस प्रकार है-जुनि संसार त्याग कर भिक्षावृत्ति से जीवनयापन करता है। उसकी भिक्षा त्याग का साधन है, किन्तु यदि वही भिक्षा, आसक्ति, उद्वेग तथा क्रोध आदि अावेशों के साथ ग्रहण की जाये तो, भोग बन जातो है / श्रमण की भिक्षावृत्ति 'भोग न बने इसलिए यहाँ भिक्षाचर्या में मन को शांत, प्रसन्न और संतुलित रखने का उपदेश किया गया है। // चतुर्थ उद्देशक समाप्त / / 1. 'संतिमरण' का एक अर्थ यह भी है कि शान्ति-पूर्वक मृत्यु की प्रतीक्षा करता हुआ नाशवान शरीर का विचार करे। 2. कामदशावस्थात्मक महद् भयं-टीका पत्रांक-११६॥ 1 / 3. यहाँ पठान्तर है-'पडिलाभिते परिणमे'-चूणि / पडिलाभिग्रो परिणमेज्जा-शीलांक टीका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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