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________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध एत्थ पाणा संवुड्ढा, एत्थ पाणा अवक्ता, एस्थ पाणा अपरिणता, एत्थ पाणा अविद्वत्था', णो पडिगाहेज्जा। 382. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्ज पुण जाणेज्जा उच्छुमेरगं वा अंककरेलुयं' वा णिक्खारगं वा कसेरुगं वा सिंघाडगं वा पूतिआलुगं वा, अण्णतरं वा तहप्पगारं आमं असत्थपरिणयं जाव णो पडिगाहेज्जा। 383. से भिक्खू वा 2 [जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा उप्पलं वा उप्पलणालं वा भिसं वा भिसमुणाल वा पोक्खल वा पोक्खलथिभगं वा, अण्णतरं वा तहप्पगारं जाव णो पडिगाहेज्जा। 384. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्ज पुण जाणेज्जा अग्गबीयाणि वा मूलबीयाणि वा खंधबीयाणि वा पोरबीयाणि वा अग्गजायाणि वा मूलजायाणि वा खंधजायाणि वा पोरजायाणि वा गणत्थ तपकलिमत्थएण वा तक्कलिसोसेण वा पालिएरिमत्थएण वा खज्जूरिमत्थएण वा तालमत्थएण वा, अण्णतरं वा तहप्पगारं आमं असत्थपरिणयं जाव' णो पडिगाहज्जा / 1. चूर्णिकार के मतानुसार 'एत्य पाणा अणुप्पसूता से"एत्थ पाणा अविडत्या' तक के पाठ में केवल प्रारम्भ में 'एत्य पाणा' है, बाद में जाता संखुड्ढा आदि पाठों के साथ 'एत्य पाणा' पाठ नहीं है। चर्णिमान्य व्याख्या इस प्रकार है--एत्थ पाणा अणसुता / जाता। संवता। वक्ता जीवा, एत्थ तिस णस्थि। परिणया।-विवस्था / एत्य संजमविराहणा वलीकवागलेमादि दोसा। - इनमें प्राणी उत्पन्न होते हैं, जन्म लेते हैं, वृद्धि पाते हैं, जीव व्युत्क्रान्त होते हैं, परिणत और विध्वस्त होते हैं। प्रारम्भ के सिवाय बाद में क्रमशः तीनों के साथ 'एत्य' नहीं है / 2. अंककरेलुयं---आदि बनस्पति के अस्तित्व की साक्षी चूर्णिकार इस प्रकार देते हैं--'अंककरेलुगं वा लिखरग वा एते गोल्लविसए / कसेहग-सिंघाडग कोंकणेस / अर्थात अंककरेलुक और लिखरग गोल्लदेश में होते हैं और कसेरुक तथा सिंघाडग होते हैं कोंकण देश में / 3. (क) चूणिकार ने इसके स्थान पर 'पृक्तुलस्थिभगं' पाठ मान कर व्याख्या की है.-पुक्खलस्थिभग पुक्खरच्चिगा कच्छमओ / अर्थात-पुष्करास्तिभग पृष्कर (कमल) की जड़ में होता है. नदी या सरोवर के कच्छ (लट) के पास उत्पन्न होता है। (ख) तुलना कीजिएसे कितं जलरहा ?...."पोक्खले पोक्खलत्यिभए / ' -पण्णवणा पृ. 21 पं०१० 'पुक्खलत्ताए पुक्खलस्थिभगत्ताए। --सूय० 2/3/54 4. जाव के बाद समाणे तक का समग्र पाठ सू० 324 के अनुसार समझें / 5. तहप्पगारं के बाद नाव शब्द सू० 324 के अनुसार अफासुयं से लेकर णो परिगाहेज्जा तक के पाठ का सूचक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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