________________ प्रथम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 33-34 ..' अशस्त्र-शब्द 'संयम' के अर्थ में प्रयुक्त है। असंयम को भाव-शस्त्र बताया है, अतः उसका विरोधी संयम-प्र-शस्त्र अर्थात् जीव मात्र का रक्षक/बन्धु/मित्र है। प्रकारान्तर से इस कथन का भाव है-जो हिसा को जानता है, वही अहिंसा को जानता है, जो अहिंसा को जानता है वही हिंसा को भी जानता है। अग्निकायिक-जीव-हिंसा-निषेध 33. वीरेहि एवं भभिभूय दि8 संजतेहि सया जतेहि सदा अप्पमहि / जे पमत्ते गुणट्टिते से हु दंडे पवुच्चति / तं परिणाय मेहावी इवाणों णो जमहं पुवमकासी पमादेणं / 33. वीरों (आत्मज्ञानियों) ने, ज्ञान-दर्शनावरण आदि कर्मों को विजय कर नष्ट कर यह (संयम का पूर्ण स्वरूप) देखा है / वे वीर संयमी, सदा यतनाशील और सदा अप्रमत्त रहने वाले थे। जो प्रमत्त है, गुणों (अग्नि के रॉधना-पकाना आदि गुणों) का अर्थी है, वह दण्ड/हिंसक कहलाता है। यह जानकर मेधावी पुरुष (संकल्प करे)---अब मैं वह (हिंसा) नहीं करूंगा, जो मैंने प्रमाद के वश होकर पहले किया था। विवेचन---इस सूत्र में वीर अादि विशेषण सम्पूर्ण प्रात्म-ज्ञान (केवल ज्ञान) प्राप्त करने की प्रक्रिया के सूचक है। वीर-पराक्रमी–साधना में आने वाले समस्त विघ्नों पर विजय पाना / संयम-इन्द्रिय और मन को विवेक द्वारा. निगृहीत करना। यम-क्रोध आदि कषायों की विजय करना। अप्रमत्तता-स्व-रूप की स्मृति रखना। सदा जागरूक और विषयोन्मुखी प्रवृत्तियों से विमुख रहना। इस प्रक्रिया द्वारा (आत्म-दर्शन) केवलज्ञान प्राप्त होता है। उन केवली भगवान ने जीव हिंसा के स्वरूप को देखकर अ-शस्त्र--संयम का उपदेश किया है। ___मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा-ये पाँच प्रमाद हैं। मनुष्य जब इनमें आसक्त होता है तभी वह अग्नि के गुणों उपयोगों--राधना, पकाना, प्रकाश, ताप आदि को वांछा करता है / और तब वह स्वयं जीवों का दण्ड (हिंसक) बन जाता है। हिंसा के स्वरूप का ज्ञान होने पर बुद्धिमान मनुष्य उसको त्यागने का संकल्प करता है / मन में दृढ़ निश्चय कर अहिंसा की साधना पर बढ़ता है और पूर्व-कृत हिंसा प्रादि के लिए पश्चात्ताप करता है-यह सूत्र के अन्तिम पद में बताया है / 34. लज्जमाणा पुढो पास / 'अणगारा मो' त्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि अगणिकम्मसमारंभेणं अगणिसत्यं समारंभमाणे अण्णे वगरूवे पाणे विहिसति / 1 भावे य असंजमो सत्थ----नियुक्ति गाथा 96 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org