________________ 22 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध 35. तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता-इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदग-माणणपूयणाए जाती-मरण-मोयणाए दुक्खपडिघातहेतु से सयमेव अगणिसत्थं समारभति, अण्णेहि वा अगणिसत्थं समारभावेति, अण्णे वा अगणिसत्थं समारभमाणे समणु जाणति / . तं से अहिताए, तं से अबोधोए / 36. से तंसंबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्टाए / सोच्चा भगवतो अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसि णातं भवति-एस खलु गथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खल निरए / इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि अगणिकम्मसमारंभेणं अगणिसत्थं समारंभमाणे अण्णे कणेगरूवे पाणे विहिंसति / 37. से बेमि–संति पाणा पुढविणिस्सिता तणणिस्सिता पत्तणिस्सिता कमिस्सिता गोमयणिस्सिता कयवरणिस्सिता। . संति संपातिमा पाणा आहच्च संपयंति य / अगणि च खलु पुछा एगे संघातमावज्जति / जे तत्थ संघातमावज्जति ते तत्थ परियावज्जति / जे तत्थ परियावज्जति ते तत्थ उहायति / 34. तू देख ! संयमी पुरुष जीव-हिंसा में लज्जा/ग्लानि/संकोच का अनुभव करते हैं। और उनको भी देख, जो हम 'अनगार-गृहत्यागी साधु हैं'--यह कहते हुए भी अनेक प्रकार के शस्त्रों/उपकरणों से अग्निकाय की हिंसा करते हैं। अग्निकाय के जीवों की हिंसा करते हुए अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करते हैं। ___ 35. इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा/विवेक-ज्ञान का निरूपण किया है। कुछ मनुष्य, इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सन्मान, पूजा के लिए, जन्म-मरण और मोक्ष के निमित्त, तथा दुःखों का प्रतीकार करने के लिए, स्वयं अग्निकाय का समारंभ करते हैं / दूसरों से अग्निकाय का समारंभ करवाते हैं। अग्निकाय का समारंभ करने वालों (दूसरों) का अनुमोदन करते हैं। ..यह (हिंसा) उनके अहित के लिए होती है / यह उनकी प्रबोधि के लिए होती है। 36. वह (साधक) उसे (हिंसा के परिणाम को) भली भांति समझे और संयम-साधना में तत्पर हो जाये / तीर्थकर आदि प्रत्यक्ष ज्ञानी अथवा श्रुत-ज्ञानी मुनियों के निकट से सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो जाता है कि यह जीव-हिसा--प्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org