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________________ 338 भावारांम सूम-प्रथम श्रुतत्कन्ध (2) दीर्घदर्शी साधक ऊर्ध्वगति, अधोगति और तिर्यम् (मध्य) गति के हेतु बनने काले भावों को तीनों लोकों के दर्शन से जान लेता है। (3) आँखों को अनिमेष विस्फारित करके ऊवं, अधो और मध्य लोक के बिन्दु पर स्थिर (नाटक) करने से तीनों लोकों को. जाना जा सकता है। (4) लोक का ऊर्ध्व, अधो और मध्यभाग विषय-वासना में आसक्त होकर सोक से पीड़ित है, इस प्रकार दीर्घदर्शी त्रिलोक-दर्शन करता है। (5) लोक का एक अर्थ है-भोग्य वस्तु या विषय / शरीर भोग्यवस्तु है, उसके तीन भाग करके त्रिलोक-दर्शन करने से चित्त कामवासना से मुक्त होता है / नाभि से नीचे अधोभाग, नाभि से ऊपर ऊर्ध्वभाग और नाभिस्थान तिर्यग्भाग / ' भगवान अकषायीं, अनासक्त, शब्द और रूप आदि में अमूच्छित एवं मात्मसमाधि (तपःसमाधि या निर्वाणसमाधि) में स्थित होकर ध्यान करते थे। वे ध्यान के लिए समय, स्थान या वातावरण का आग्रह नहीं रखते थे। जपमा सई विकुवित्वा-छद्मस्थ अवस्था तब तक कहलाती है, जब तक ज्ञानावरणीय प्रादि चार घातिकर्म सर्वथा क्षीण न हों। प्रमाद के पाँच भेद. मुख्य हैं-मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विक्रया / इस पंक्ति का अर्थ वृत्तिकार करते हैं--भगवान ने करायादि प्रमादों का सेवन नहीं किया / चूर्णिकार ने अर्थ किया है -भगवान ने छद्मस्थ दशा में अस्थिक ग्राम में एक बार अन्तर्मुहूर्त को छोड़कर निद्रा प्रमाद का सेवन नहीं किया। इस पंक्ति का तात्पर्य यह है कि भगवान अपनी साधना में सर्वत्र प्रतिपल अप्रमत्त रहते थे। / / चतुर्थ उद्देशक समाप्त / / / ओहाणसुयं समत्तं / नवममध्ययनं समाप्तम् / / // आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कंध समाप्त // 1. प्रायारो (मुनि नथमल जी) पृ० 113 के प्राधार पर / 2. (क) आचा० शीला टीका पत्रांक 315 / (ख) प्राचारांग चूणि मूल पाठ टिप्पण सू० 321 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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