________________ सम्पादकीय आचारांग का महत्त्व : आचारांग सूत्र-जैन धर्म, दर्शन, तत्त्वज्ञान और आचार का सारभूत एवं मूल आधार माना गया है / आचार्य श्री भद्रबाहु ने आचारांग को जैनधर्म का 'वेद' बताते हुए कहा है-'आचारांग में मोक्ष के उपाय (चरण-करण या आचार) का प्रतिपादन किया गया है / यही(मोक्षोपाय आचार) जिनप्रवचन का सार है, अतः द्वादशांगी में इसका प्रथम स्थान है / तथा आचारांग का अध्ययन कर लेने पर श्रमण-धर्म का सम्यक् स्वरूप समझा जा सकता है / इसलिए गणी (आचार्य) होने वाले को सर्वप्रथम आचारधर होना अनिवार्य है।'' विभाग : आचारांग के दो विभाग-श्रु तस्कंध है। प्रथम श्रु तस्कंध को 'नव ब्रह्मचर्याध्ययन' कहा जाता है। जबकि द्वितीय श्रु तस्कंध को आचाराम या आचारचूला। प्रथमश्रु तस्कंध में सूत्र रूप में श्रमणआचार (अहिंसा-संयम-समभाव कषाय-विजय, अनासक्ति, विमोक्ष आदि) का वर्णन है। यहां ब्रह्मचर्य का अर्थ-श्रमणधर्म से है, श्रमणधर्म का प्रतिपादन करने वाले नौ अध्ययन (वर्तमान में आठ) प्रथम श्रु तस्कंध में हैं। द्वितीय श्रुतस्कंध/आचारचूला में श्रमणचर्या से सम्बन्धित -(भिक्षाचरी, गति, स्थानवस्त्र-पात्र आदि एषणा, भाषाविवेक, शब्दादि-विषय-विरति; महाब्रत आदि) वर्णन है / आचारान कर---अर्थ है-जैसे वृक्ष के मूल का विस्तार (अन) उसकी शाखा-प्रशाखाएं हैं, वैसे ही प्रथम श्रुतस्कंध-गत आचार-धर्म का विस्तार आचारांन—(उक्त का विस्तार व अनुक्त का प्रतिपादन करने वाला) है। आचार चूला का तात्पर्य है--पर्वत या प्रासाद पर जैसे शिखर अथवा चोटी होती है उसी प्रकार प्रथम श्रुतस्कंध की यह चूलारूप चोटी है / रचयिता : प्र० श्र० के प्रणेता पंचम गणधर भगवान सुधर्मा स्वामी है, यह सर्वमान्य तथ्य है, जबकि आचारचूला' को स्थविर-अथित माना गया है। 1. आचाराग नियुक्ति–एत्थ य मोक्खोवाओ एत्य य सारो परयणस्स! -गाथा; 6 तथा 10 2. समवायांग प्रकीर्णक समवाय, सूत्र ८६-दो सुयक्खंधा / 3. (क) वही, समवाय 6, सूत्र 3 / (ख) नियुक्ति गाथा 51. 4. आचा० नि० 286, तथा चूणि एवं वृत्ति—पृ० 318-316. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org