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________________ द्वितीय अध्ययन :द्वितीय उद्देशक : सूत्र 438-41 याई भवंति, तंजहा-आएसणाणि वा' जाव गिहाणि वा, जे भयंतारो तहप्पगाराई आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा उवागच्छंति, 2 [त्ता] इयराइयरेहिं पाहुडेहिं [वटुंति, ?] अयमाउसो! महावज्जकिरिया यावि भवति / ___ 438. इह खलु पाईणं वा 4 जाव त रोयमाहि बहवे समणजाते समुद्दिस्स तत्थ 2 अगारोहिं अगाराई चेतिताई भवंति, तंजहा-आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा, जे + भयंतारो तहप्पगाराई आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा उवागच्छंति, 2 [त्ता] इतरातितरेहि पाहुडेहि विट्ठति, ? | अयमाउसो ! सावज्जकिरिया यावि भवति / ___ 440. इह खलु पाईणं वा 4 जाव तं रोयमाणेहि एगं समणजातं समुद्दिस्स तत्थ 2 अगारोहि अगाराइं चेतिताइं भवंति, तंजहा-आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा महता पुढविकायसमारंभणं' जाव महता तसकायसमारंभेणं महता संरंभेणं महता समारंभेणं महता आरंभेणं महता विस्वरूबेहिं पावकम्मकिच्चेहि, तंजहा-छावणतो लेवणतो संथार-दुवार-पिहणतो, सोतोदगए' वा परिवियपुब्वे भवति, अगणिकाए वा उज्जालियपुब्वे भवति, जे भयंतारो तहप्पगाराई आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा उवागच्छंति इतराइतरेहिं पाहु.ह दुपक्वं ते कम्म सेवंति, अयमाउसो ! महासावज्जकिरिया यावि भवति / 441. इह खलु पाईणं वा 4 जाव तं रोयमाणेहि अप्पणो सयट्ठाए तत्थ 2 अगारोहिं अगाराइं चेतियाइं भवंति, तंजहा-आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा महता पुढविकायसमा 1. यहाँ 'जाव' शब्द से 'आएसणाणि वा' मे लेकर 'गिहाणि वा' तक का समग्र पाठ सूत्र 435 के अनुसार समझें। + इस चिन्ह के अन्तर्गत जो पाठ है, वह किसी किसी प्रति में नहीं है। 2. यहाँ 'जाव' शब्द से पाईणं वा से लेकर 'तं रोयमाहि' तक का समग्र पाठ सू० 435 के अनुसार समझें। इन पंक्तियों के स्थान पर पाठान्तर है--..."समारंभेणं एवं आउ-तेउ-बाउ-वणस्सइ, महया तस। महया संरभेण महया आरंभेण, महया आरंभ-समार भणं, महासरंभेणं महया आरंभेणं महया समा रंभेणं / ' 4. यहां जाव शब्द से 'आउकाय .....तेउकाय .....वाउकाय....."वणस्स इकाय समारंभेणं" आदि पाठ समझना चाहिए। सोतोदगए के स्थान पर पाठान्तर है--'सीतोदगए', 'सौतोदगघडे', 'सीओबएण बा। चूणिकार इसका तात्पर्य समझाते हैं—'सोतोदगघडे---अभंतरतो संग्णिक्खित्तो, अगणिकायं वा उज्जालेंति, पाउया वा'---- --अर्थात ठंडे सचित्त पानी के घड़े अन्दर रख दिए हैं, अग्नि जलाता है या प्रकाश करता है। 6. पाईणं वा के बाद '4' का चिन्ह शेष तीन दिशाओं का सूचक है। 9. 'आएसणाणि' से लेकर 'गिहाणि' तक का पाठ सूत्र 435 के अनुसार 'जाव' शब्द से समझें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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