________________ 274 . माचाररांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध कर चुका है, उसके मन में ऐसा अध्यवसाय नहीं होता कि मैं दूसरे वस्त्र की याचना करूंगा। 221. (यदि उसका वस्त्र अत्यन्त फट गया हो तो) वह यथा-एषणीय (अपनी कल्पमर्यादानुसार ग्रहणीय) वस्त्र को याचना करे। यहाँ से लेकर आगे 'ग्रीष्म ऋतु आ गई है, तक का वर्णन [चतुर्थ उद्देशक के सूत्र 214 की तरह] समझ लेना चाहिए। भिक्षु यह जान जाए कि अब ग्रीष्म ऋतु आ गयी है, तब वह यथापरिजीर्ण वस्त्रों का परित्याग करे। यथापरिजोर्ण वस्त्रों का परित्याग करके वह (या तो) एक शाटक (आच्छादन पट) में ही रहे. (अथवा) वह अचेल (वस्त्ररहित) हो जाए। वह लाघवता का सब तरह से विचार करता हुआ (वस्त्र का परित्याग करे)। वस्त्र-विमोक्ष करने वाले मुनि को सहज ही तप (उपकरण-अवमौदर्य एवं कायक्लेश) प्राप्त हो जाता है। __भगवान् ने जिस प्रकार से उस (वस्त्र-विमोक्ष) का निरूपण किया है, उसे उसो रूप में निकट से जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना (उसमें निहित) सम्यक्त्व या समत्व को भलीभाँति जानकर आचरण में लाए। विवेचन--सूत्र 220 एव 221 में उपधि-विमोक्ष के तृतीयकल्प का निरूपण किया गया है। पिछले द्वितीय कल्प में दो वस्त्रों को रखने का विधान था, इसमें भिक्ष एक वस्त्र रखने की प्रतिज्ञा करता है। ऐसी प्रतिज्ञा करने वाला मुनि सिर्फ एक वस्त्र में रहता है। शेष वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। उपधि-विमोक्ष के सन्दर्भ में वस्त्र-विमोक्ष का उत्तरोत्तर दृढ़तर अभ्यास करना ही इस प्रतिज्ञा का उद्देश्य है। प्रात्मा के पूर्ण विकास के लिए ऐसी प्रतिज्ञा सोपान रूप है। वस्त्रपात्रादि उपधि की आवश्यकता शीत आदि से शरीर की सुरक्षा के लिए है, अगर साधक शीतादि परीषहों को सहने में सक्षम हो जाता है तो उसे वस्त्रादि रखने की आवश्यकता नहीं रहती। उपधि जितनी कम होगी, उतना ही आत्मचिंतन बढ़ेगा, जीवन में लाघव भाव का अनुभव करेगा, तप की भी सहज ही उपलब्धि होगी। पर-सहाय-विमोन : एकत्व अनुप्रेक्षा के रूप में 222. जस्स गं भिवखुस्स एवं भवति–एगो अहमंसि, ण मे अस्थि कोइ, ण वाहमति कस्सइ / एवं से एगागिणमेव अप्पाणां समभिजाणेज्जा लाघवयं आगममाणे। तवे से अभिसमण्णागते भवति / जहेणं भगवता पवेदितं तमेव अभिसमेच्चा सवतो सवताए सम्मत्तमेव समभिजाणिया / 1. प्राचारांग (ग्रा० श्री अात्माराम जी म० कृत टीका) पृ० 594 / 2. इसके बदले ‘एगाजियमेव अप्पाणं' पाठ भी है। चूणिकार ने इसका अर्थ किया है- 'एमाणियं __ अब्बितियं एगमेव अपाण'- अद्वितीय अकेले ही आत्मा को ..." / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org