________________ अष्टम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 220-221 273 बढ़ता है। स्वावलम्बन का अभ्यास बढ़ता है, आत्मविश्वास की मात्रा में वृद्धि होती है, बड़े से बड़े परीषह, उपसर्ग, संकट एवं कष्ट से हंसते-हंसते खेलने का आनन्द आता है। ये प्रतिज्ञाएँ भक्तपरिज्ञा अनशन की तैयारी के लिए बहुत ही उपयोगी और सहायक हैं। ऐसा साधक आगे चलकर मृत्यु का भी सहर्ष वरण कर लेता है। उसकी वह मृत्यु भी कायर की मृत्यु नहीं प्रतिज्ञा-वीर की सी मृत्यु होती है। वह भी धर्म-पालन के लिए होती है। इसीलिए शास्त्रकार इस मृत्यु को संलेखनाकर्ता के काल-पर्याय के समान मानते हैं। इतना ही नहीं, इस मृत्यु को वे कर्म या संसार का सर्वथा अन्त करने वाली, मुक्ति-प्राप्ति में साधक मानते हैं।' भक्त-परिमा-अनशन-भक्त-परिज्ञा-अनशन का दूसरा नाम 'भक्तप्रत्याख्यान' भी है। इसके द्वारा समाधिमरण प्राप्त करने वाले भिक्षु के लिए शास्त्रों में विधि इस प्रकार बताई है कि वह जघन्य (कम से कम) 6 मास, मध्यम 4 वर्ष, उत्कृष्ट 12 वर्ष तक कषाय और शरीर की संलेखना एवं तप करे। इस प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के आचरण से कर्म-निर्जरा करे और प्रात्म-विकास के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त करे। // पंचम उद्देशक समाप्त // छट्ठो उद्देसओ षष्ठ उद्देशक एकवस्त्रधारी श्रमण का समाचार 220. जे भिक्खू एगेण वत्येण परिवसिते पायबितिएण तस्स णो एवं भवति-बितिय बत्थं जाइस्सामि। 221. से अहेसणिज्जं वत्थं जाएज्जा, अहापरिग्गहितं वत्थं धारेज्जा जाव' गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुष्णं वत्थं परिवेज्जा, अहापरिजुण्णं वत्थं परिवेत्ता अदुवा एगसाडे अदवा अचेले लावियं५ आगममाणे जाव' सम्मत्तमेव समभिजाणिया / 220. जो भिक्षु एक वस्त्र और दूसरा (एक) पात्र रखने की प्रतिज्ञा स्वीकार 1. आचा० शीला० टीका पत्रांक 282 / 2. (क) आचारांग (आ० श्री प्रात्मारामजी म. कृत टीका) पृष्ठ 592 / (ख) संलेखना के विषय में विस्तारपूर्वक जानने के इच्छुक देखें-'संलेखना : एक श्रष्ठ मृत्युकला' (लेखक : मालवकेशरी श्री सौभाग्यमल जी म०) प्रवर्तक पूज्य अम्बालालजी म. अभिनन्दन ग्रन्थ पृ० 404 / 3. जाच शब्द के अन्तर्गत यहाँ 214 सूत्रानुसार सारा पाठ समझ लेना चाहिए। 4. किसी-किसी प्रति में इसके बदले पाठान्तर है-'अहापरिजुगणं वत्थं परिठ्ठवेत्ता अचेले' अर्थात यथा परिजीर्ण वस्त्र का परित्याग करके अचेल हो जाए। 5. 'लावियं' के बदले किसी-किसी प्रति में 'लाघव' शब्द मिलता है। 6. यहाँ 'जाव' शब्द के अन्तर्गत 177 सूत्रानुसार सारा पाठ समझ लेना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org