________________ 44 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध उपस्थित होने पर मांसादि दोषों के परिहार में समर्थ प्राज्ञ गीतार्थ साधु के लिए उस संखडि में जाने का (अपवाद रूप में) विधान है। आचार्य शीलांक के इस समाधान से ऐसा प्रतीत होता है कि यह उत्तरार्ध का विधान किसी कठिन परिस्थिति में फंसे हुए श्रमण की तात्कालिक समस्या के समाधान स्वरूप है। वास्तव में इस प्रकार के भोज (संखडि) में जाना श्रमण का विधि-मार्ग नहीं है, किन्तु अपवादमार्ग के रूप में ही यह कथन है। इसका आसेवन श्रमण के स्व-विवेक पर निर्भर है / इस बात की पुष्टि निशीथ सूत्र की चूणि भी करती है।' 'मंसादिय' आदि शब्दों की व्याख्या वृत्तिकार के अनुसार इस प्रकार हैमंसावियं-जिस संखडि में मांस ही आदि में (प्रधानतया) हो, मच्छावियं जिस संखडि में मत्स्य ही आदि (प्रारम्भ) में (प्रधानतया) हो / 'मसखलं वा मच्छखलं वा–संखडि के निमित्त मांस या मत्स्य काट-काटकर सुखाया जाता हो, उसका ढेर मांसखल तथा मत्स्यखल कहलाता है / आहेणं-विवाह के बाद नववधूप्रवेश के उपलक्ष्य में दिया जाने वाला भोज, पहेणं-पितृगृह में वधू के प्रवेश पर दिया जाने वाला भोज, हिंगोलं-मृतक भोज, संमेलं परिजनों के सम्मान में दिया जाने वाला प्रीतिभोज (दावत) या गोठ। गो-दोहन वेला में भिक्षार्य प्रवेश निषेध ___346. से भिक्खू वा 2 गाहावति जाव पविसित्त कामे से ज्जं पुण जाणेज्जा, खोरिणीओ गावोओ खीरिज्जमाणीओ पेहाए असणं वा 4 उवखडिज्जमाणं पेहाए, पुरा अप्पतहिते। सेवं गच्चा जो गाहावतिकुलं पिंडवायपडियाए णिक्खमेज्ज वा पक्सिज्ज वा। से तमायाए एगंतमवक्कमेज्जा, एगंतमवक्कमित्ता अणावायमसंलोए चिट्टज्जा / अह पुण एवं जाणेज्जा, खोरिणोओ गावीओ खीरियाओ पेहाए, असणं वा 4 उवक्खडितं पेहाए, पुरा पहिते। सेवं णच्चा ततो संजयामेव गाहायतिकुलं पिंडवातपडियाए णिक्खमेज्ज वा पविसेज्ज वा। ___346. गोदोहन-वेला में आहारार्थ गृह प्रवेश निषिद्ध या विहित ? भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करना चाहते हों; (यदि उस समय) यह जान जाएं कि अभी दुधारू गायों को दुहा जा रहा है तथा अशनादि आहार अभी तैयार किया जा रहा है, या हो 1. देखिए इसी सूत्र के मूल पाठ टिप्पण 1, पृ० 41 पर / 2. टीका पत्र 334 / 3. चूर्णिकार ने इसका भावार्थ इस प्रकार दिया है-'उवक्खारिज्जमाणे संजतट ठाए–अर्थात् संयमी साधु के लिये तैयार किये जाते हुए... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org