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________________ नि' हण-स्थल आचारांग अध्ययन उद्देशक नियूढ अध्ययन आचार चूला अध्ययन 1, 2, 5, 6,7 1,2,5,6,7 Sx प्रत्याख्यान पूर्व के तृतीय वस्तु का प्राचार नामक बीसवाँ प्राभूत / प्राचार-प्रकल्प (निशीथ) प्राचारांग नियुक्ति में केवल निर्युहण स्थल के अध्ययन और उद्देशकों का संकेत किया है। कहींकहीं पर चूर्णीकार' और वृत्तिकार' ने नि!हण सूत्रों का भी संकेत किया है / नियुक्ति, चणि और वृत्ति में जिन निर्देशों का सूचन किया गया है, उससे यह स्पष्ट है कि प्राचारचूला पाचारांग से उद्धृत नहीं है अपितु प्राचारांग के अति संक्षिप्त पाठ का विस्तार पूर्वक वर्णन है। प्रस्तुत तथ्य की पुष्टि प्राचार से भी होती है। आचाराग्र में जो अग्र शब्द आया है वह वहाँ पर उपकाराम के अर्थ में है। प्राचारांग चूर्णी में उपकाराग्र का अर्थ पूर्वोक्त का विस्तार और अनुक्त का प्रतिपादन करने वाला होता है। प्राचारान में प्राचारांग के जिस अर्थ का प्रतिपादन है, उस अर्थ का उसमें विस्तार तो है ही, साथ ही उसमें अप्रतिपादित अर्थ का भी प्रतिपादन किया गया है। इसीलिए उसको प्रचार में प्रथम स्थान दिया गया है। आचारांग के रचयिता आचारांग के प्रथम वाक्य से ही यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इस के अर्थ के प्ररूपक तीर्थकर महावीर थे और सूत्र के रचयिता पंचम गणधर सुधर्मा / यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि भगवान् अर्थ रूप में जब देशना प्रदान करते हैं तो प्रत्येक गणधर अपनी भाषा में सूत्रों का निर्माण करते हैं। भगवान् महावीर के ग्यारह मणधर थे और नौ गण थे / ग्यारह गणधरों में पाठवें और नौवें तथा दशवें और ग्यारहवें गणधरों की वाचनायें सम्मिलित थी. जिस के कारण नौ गण कहलाये। भगवान महावीर के समय इन्द्रभूति और सुधर्मा को छोड़कर शेष गणधरों का निर्वाण हो चुका था। भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात इन्द्रभूति गौतम को केवलज्ञान प्राप्त हो गया। जिसके कारण वर्तमान में जो अंगसाहित्य उपलब्ध है वह सुधर्मा स्वामी की देन है / प्राचारांग के दो श्रुतस्कन्ध हैं / प्रथम श्रुतस्कन्ध का नाम प्राचार या ब्रह्मचर्य तथा नव ब्रह्मचर्य ये नाम उपलब्ध होते हैं / ब्रह्मचर्य नाम तो है हो ! किन्तु नौ अध्ययन होने से नव ब्रह्मचर्य के नाम से भो वह प्रथम श्रुतस्कन्ध प्रसिद्ध है / विज्ञों की यह स्पष्ट मान्यता है कि प्रथम श्रुतस्कन्ध सुधर्मा स्वामी द्वारा . रचित ही है किन्तु द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रचयिता के सम्बन्ध में उनका कहना है कि वह स्थविरकृत है। 1. जैन अागम साहित्य : मनन और मीमांसा, पृष्ठ 52 टिप्पण 1 2. जैन पागम साहित्य : मनन और मीमांसा, पृष्ठ 52 टिप्पण 2 3. आचारांग नियुक्ति गाथा 286 4. प्राचारांग नियुक्ति गाथा 287 [30] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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