________________ 292 माचारोग-प्रथम भूतस्कन्ध (प्रवज्या आदि के) क्रम से (चल रहे संयमी शरीर को) विमोक्ष का अवसर जानकर प्रारंभ (बाह्य प्रवृत्ति) से सम्बन्ध तोड़ लेते हैं / / 17 // 231. वह कषायों को कृश (मल्प) करके, अल्पाहारी बन कर परीषहों एवं दुर्वचनों को सहन करता है, यदि भिक्षु ग्लानि को प्राप्त होता है, तो वह माहार के पास ही न जाये (पाहार-सेवन न करे) // 18 // 232. (संलेखना एवं अनशन-साधना में स्थित श्रमण) न तो जीने की आकांक्षा करे, न मरने की अभिलाषा करे। जीवन और मरण दोनों में भी प्रासक्त न हो // 19 // 233. वह मध्यस्थ (सुख-दुःख में सम) और निर्जरा की भावना वाला भिक्षु समाधि का अनुपालन करे। वह (राग, द्वेष, कषाय आदि) आन्तरिक तथा (शरीर, उपकरण आदि) बाह्य पदार्थों का व्युत्सर्ग-त्याग करके शुद्ध अध्यात्म की एषणा (अन्वेषणा) करे // 20 // 234. (संलेखना-काल में भिक्षु को) यदि अपनी प्रायु के क्षेम (जीवन-यापन) में जरा-सा भी (किसी आतंक आदि का) उपक्रम (प्रारम्भ) जान पड़े तो उस संलेखना काल के मध्य में ही पण्डित भिक्षु शीघ्र (भक्त-प्रत्याख्यान आदि से) पण्डितमरण को अपना ले // 21 // 235. (संलेखन-साधक) ग्राम या वन में जाकर स्थण्डिलभूमि का प्रतिलेखन (अवलोकन) करे, उसे जीव-जन्तु रहित स्थान जानकर मुनि (वहीं) घास बिछा ले // 22 // 236. बह वहीं (उस घास के बिछौने पर) निराहार हो (त्रिविध या चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान) कर (शान्तभाव से) लेट जाये। उस समय परीषहों और उपसर्गों से प्राकान्त होने पर (समभावपूर्वक) सहन करे / मनुष्यकृत (अनुकूल प्रति - कूल) उपसर्गों से आक्रान्त होने पर भी मर्यादा का उल्लंघन न करे / / 23 / / 237. जो रेंगने वाले (चींटी आदि) प्राणी हैं, या जो(गिद्ध आदि) ऊपर आकाश में उड़ने वाले हैं, या (सर्प आदि) जो नीचे बिलों में रहते हैं, वे कदाचित् अनशनधारी मुनि के शरीर का मांस नोचें और रक्त पीएं तो मुनि न तो उन्हें मारे और न ही रजोहरणादि से प्रमार्जन (निवारण) करे // 24 // . .. 238. (वह मुनि ऐसा चिन्तन करे) ये प्राणी मेरे शरीर का विधात (नाश) कर रहे हैं, (मेरे ज्ञानादि आत्म-गुणों का नहीं, ऐसा विचार कर उन्हें न हटाए) और न ही उस स्थान से उठकर अन्यत्र जाए। प्रास्रवों (हिंसादि) से पृथक् हो जाने के कारण (अमृत से सिंचित की तरह) तृप्ति अनुभव करता हुआ (उन उपसर्गों को) सहन करे // 25 // 239. उस संलेखना-साधक की (शरीर उपकरणादि बाह्य और रागादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org