SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 501
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 46 आचारांग सूत्र -द्वितीय श्रुतस्कन्ध विवेचन-रस लोलुपता और माया- इस सूत्र का आशय स्पष्ट है। प्राघूर्णक (पाहुने) साधुओं के साथ जो साधु स्वाद-लोलुपतावश माया करता है, वह साधु स्व-पर-वंचना तो करता ही है, आत्म-विराधना और भगवदाज्ञा का उल्लंघन भी करता है। शास्त्रकार की ऐसे मायिक साधु के लिए गम्भीर चेतावनी है ! आचारांग चूणि और निशीथ चूणि में इसका विशेष स्पष्टीकरण किया गया है।' 351. एयं खलु तस्स भिवस्खुस्स वा भिवखुणोए वा सामग्गियं / 351. यही संयमी साधु-साध्वी के ज्ञानादि आचार की समग्रता है।' // चतुर्थ उद्देशक समाप्त // पंचमो उद्देसओ पंचम उद्देशक अपिण्ड-ग्रहण-निषेध 352. से भिषखू वा 2 जाव पविट्ठे समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा, अग्गपिडं उविखप्पमाणं पेहाए, अग्गपिंड णिविखण्यमाणं पेहाए, अगपिडं हीरमाणं हाए, अपिंडं परिभाइज्ज. माणं पेहाए, अग्गपिडं परिभुज्जमाण पेहाए, अग्गपिडं परिविज्जमाणं पेहाए, पुरा असिणादि वा अवहारादि वा, पुरा जत्थऽण्णे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणोमगा खद्ध खद्ध उक्संकमंति, से हंता अहमवि खद्ध खद्ध उवसंकमामि / माइट्ठाणं संफासे / णो एवं करेज्जा / 352 : वह भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में भिक्षा के निमित्त प्रवेश करने पर यह जाने कि अग्रपिण्ड निकाला जाता हुआ दिखायी दे रहा है, अग्रपिण्ड रखा जाता दिखायी दे 1. देखिए आचारांग मूल पाठ टिप्पण पृ० 118 / 2. इसका विवेचन सूत्र 334 के अनुसार समझ लेना चाहिए। 3. किसी-किसी प्रति में 'अग्गपिंड और किसी प्रति में 'अग्गपिंड परिभाइज्जमाणं येहाए' पाठ नही है। 4. 'परि जमाणं' पाठान्तर कहीं-कहीं मिलता है / 5. 'असिणादि वा अवहारादिवा' के स्थान पर किन्हीं प्रतियों में 'असणादि वा अवहाराति वा' पाठ है / चणिकार इस पंक्ति का अर्थ यों करते हैं-'पुरा असणादी वा तत्थव भुजति, जहा बोडियसक्खा, अवहरति णाम उक्कढति' अर्थात् पहले जैसे अन्य बोटिकसदृश भिक्षु अग्रपिण्ड का उपभोग कर गये थे, वैसे ही निर्गन्थ खाता है / अवहरित का अर्थ है-निकालता है। चर्णिकार के शब्दों में व्याख्या--खख खरणाम बहवे अवसंकमंति तुरियं च, तत्य भिक्खू वि तहेव / अर्थात्---खद्ध खद्ध का अर्थ है--- बहुत से भिक्षुक जल्दी-जल्दी आ रहे हैं, वहाँ भिक्ष भी इसी प्रकार का विचार करता है-तो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy