________________ प्रथम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 350 भोच्चा पिच्चा पडिग्गहं च संलिहिय संमज्जिय ततो पच्छा भिक्खूहि सद्धि गाहावतिकुलं पिंडवात-पडियाए पविसिस्सामि वा णिक्खमिस्सामि वा / माइट्ठाणं संफासे / णो एवं करेज्जा। से तत्थ भिक्खूहि सद्धि कालेण अणुपविसित्ता तस्थितरातियहि कुलेहि सामुदाणियं एसितं वेसितं पिंडवातं पडिगाहेता आहारं आहारज्जा। 350. जंघादि बल क्षीण होने से एक ही क्षेत्र में स्थिरवास करने वाले अथवा मासकल्प विहार करने वाले कोई भिक्षु, अतिथि रूप से अपने पास आए हुए, ग्रामानुग्राम विचरण करने वाले साधुओं से कहते हैं पूज्यवरों ! यह गांव बहुत छोटा है, बहुत बड़ा नहीं है, उसमें भी कुछ घर सूतक आदि के कारण रुके हुए हैं। इसलिए आप भिक्षाचरी के लिए बाहर (दूसरे) गांवों में पधारें। मान लो, इस गांव में स्थिरवासी मुनियों में से किसी मुनि के पूर्व-परिचित (माता-पिता आदि कुटुम्बीजन) अथवा पश्चात्परिचित (श्वसुर-कुल के लोग) रहते हैं, जैसे कि-गृहपति, गृहपत्नियां, गृहपति के पुत्र एवं पुत्रियाँ, पुत्रवधुएं, धायमाताएं, दास-दासी, नौकर-नौकरानियाँ वह साधु यह सोचे कि जो मेरे पूर्व-परिचित और पश्चात्-परिचित घर हैं, वैसे घरों में अतिथि साधुओं द्वारा भिक्षाचरी करने से पहले ही में भिक्षार्थ प्रवेश करूंगा और इन कुलों से अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लूँगा जैसे कि--"शोली के ओदन आदि, स्वादिष्ट आहार. दूध, दही, नवनीत, घृत, गुड़, तेल, मधु, मछ' या मांस अथवा जलेबी, गुड़राब, मालपुए, शिखरिणी नामक मिठाई, आदि / उस आहार को मैं पहले ही खा-पीकर पात्रों को धो-पोंछकर साफ कर लूंगा। इसके पश्चात् आगन्तुक भिक्षुओं के साथ आहार-प्राप्ति के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करूंगा और वहाँ से निकलूंगा।" इस प्रकार का व्यवहार करने वाला साधु माया-कपट का स्पर्श (सेवन) करता है / साधु को ऐसा नहीं करना चाहिए। उस (स्थिरवासी) साधु को भिक्षा के समय उन भिक्षुओं के साथ ही उसी गाँव में विभिन्न उच्च-नीच और मध्यम कुलों से सामुदानिक भिक्षा से प्राप्त एषणीय, वेष से उपलब्ध (घात्री आदि दोष से रहित) निर्दोष आहार को लेकर उन अतिथि साधुओं के साथ ही आहार करना चाहिए। 1. चूर्णि में इसकी व्याख्या यों की गयी है-'तं भोच्चा पच्छा साहुणो हिंडावेति' जो आहार मिला उसका उपभोग करके फिर आगुन्तक साधुओं को भिक्षा के लिए धुमाता हैं। 2. इसके स्थान पर पाठान्तर मिलते हैं--'तस्थितरातिरेहि तस्मितरेतरहिं अर्थ समान है। 3. यहाँ 'मद्य' शब्द कई प्रकार के स्वादिष्ट पेय तथा 'मांस' शब्द बहुत मदे वाली अनेक वनस्पतियों का सामूहिक वाचक हो सकता है, जो कि गृहस्थ के भोज्य-पदार्थों में सामान्यतया सम्मिलित रहती है। टीकाकार ने 'मद्य' और 'मांस' शब्दों की व्याख्या छेदशास्त्रानुसार करने की सूचना की है। साथ ही कहा है-अथवा कोई अतिशय प्रमादी साधु अतिलोलुपता के कारण मास मद्य भी स्वीकार कर ले। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org