SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 345
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टम अध्ययन : अष्टम उद्दश्क : सूत्र 230-231 ___'भारम्भाओ तिउट्टा'-इस वाक्य में प्रारम्भ शब्द हिसा अर्थ में नहीं है, किन्तु शरीर धारण करने के लिए आहार-पानी के अन्वेषण आदि की जो प्रवृत्तियां हैं, उन्हें भी प्रारम्भ शब्द से सूचित किया है / साधक उनसे सम्बन्ध तोड़ देता है, यानी अलग रहता है / हिंसात्मक प्रारम्भ का त्याग तो मुनि पहले से ही कर चुका होता है, इस समय तो वह संलेखना-- संथारा की साधना में संलग्न है, इसलिए पाहारादि की प्रवृत्तियों से विमुक्त होना प्रारम्भ से मुक्ति है। यदि वह आहारादि को खटपट में पड़ेगा तो वह अधिकाधिक प्रात्मचिन्तन नहीं कर सकेगा।'-- यहाँ चूर्णिकार कम्मुणाओ तिउट्टई' ऐसा पाठान्तर मानकर अथ करते हैं, अष्ट विध कर्मों को तोड़ता है-तोड़ना प्रारम्भ कर देता है। 'अह मिक्यु गिलाएज्जा...'-त्तिकार ने इस सूत्रपंक्ति के दो फलितार्थ प्रस्तुत किए हैं--- (1) संलेखना-साधना में स्थित भिक्ष को आहार में कमी कर देने से कदाचित् पाहार के बिना मूर्छा-चक्कर आदि ग्लानि होने लगे तो संलेखना-क्रम को छोड़कर विकृष्ट तप न करके आहार सेवन करना चाहिए / (2) अथवा साहार करने से अगर ग्लानि---अरुचि होती हो तो भिक्षु को आहार के समीप ही नहीं जाना चाहिए / अर्थात् यह नहीं सोचना चाहिए कि 'कुछ दिन संलेखना क्रम तोड़कर आहार कर लू; फिर शेष संलेखना क्रम पूर्ण कर लूगा', अपितु आहार करने के विचार को ही पास में नहीं फटकने देना चाहिए। ___ कि चुवक्कम जापे '-यह गाथा भी संलेखना काल में सावधानी के लिए है / इसका तात्पर्य यह है कि संलेखना काल के बीच में ही यदि आयुष्य के पुदगल सहसा क्षीण होते मालूम दें तो विचक्षण साधक को उसी समय बोच में ही संलेखना क्रम छोड़ कर भक्तप्रत्याख्यान आदि अनशन स्वीकार कर लेना चाहिए / भक्तप्रत्याख्यान की विधि पहले बताई जा चुको है। इसका नाम भक्तपरिज्ञा भी है।' लेखना काल पूर्ण होने के बाद-सूत्र 235 से भक्तप्रत्याख्यान आदि में से किसी एक अनशन को ग्रहण करने का विधान प्रारम्भ हो जाता है। संलेखनाकाल पूर्ण हो जाने के बाद साधक को गाँव में या गाँव से बाहर स्थण्डिलभूमि का प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके जीवजन्तुरहित निरवद्य स्थान में घास का संथारा-बिछौना बिछाकर पूर्वोत्त विधि से अनशन का संकल्प कर लेना चाहिए। भक्त प्रत्यास्यान को स्वीकार कर लेने के बाद जो भी अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग या परीषह प्रायें उन्हें समभावपूर्वक सहना चाहिए। गृहस्थाश्रमपक्षीय या साधुसंघीय पारिवारिक जनों के प्रति मोहवश प्रार्तध्यान न करना चाहिए, न ही किसी पीड़ा देने वाले मनुष्य या जलचर, स्थलचर, खेचर, उरपरिसर्प, भजपरिसर्प आदि प्राणी से घबरा कर रौद्रध्यान करना चाहिए। डांस, मच्छर ग्रादि या सांप, बिच्छू आदि कोई प्राणी शरीर पर आक्रमण कर रहा हो, उस समय भी विचलित न होना चाहिए, न स्थान बदलना चाहिए। 1. प्राचा. शीला टीका पत्रांक 289 / 2. आचा० शीला टोका पत्रांक 61. / 3. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 290 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy