________________ पंचमं अज्झयणं 'वत्थेसणा' [पढमो उद्देसओ] बस्त्रं षणा : पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक प्राह्य-वस्त्रों का प्रकार व परिमाण 553. से भिक्खू वा 2 अभिकखेज्जा वत्थं एसित्तए / से ज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा, तंजहा-जंगियं' वा भंगियं वा साणयं वा पोसगं वा खोमियं वा तूलकडं बा, तहप्पगारं वत्थं जे णिग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे से एगं वत्थं धारेज्जा, णो बितियं / जा णिग्गंथी सा चत्तारि संघाडीओ धारेज्जा-एणं दूहत्यवित्थारं, दो तिहत्यवित्थाराओ, एगं चउहत्थवित्थारं। तहप्पगारेहि वत्येहि असंविज्जमाणेहि अह पच्छा एगमेगं संसीवेज्जा। 553. साधु या साध्वी वस्त्र की गवेषणा करना चाहते हैं, तो उहें जिन वस्त्रों के सम्बन्ध में जानना चाहिए। वे इस प्रकार हैं-(१) जांगमिक, (2) भांगिक, (3) सानिक, (4) पोत्रक (5) लोमिक और (6) तूलकृत। इन छह प्रकार के तथा इसी प्रकार के अन्य वस्त्र को भी मुनि ग्रहण कर सकता है / जो निम्रन्थ मुनि तरुण है. समय के उपद्रव से रहित है, बलवान, रोग-रहित और स्थिर संहनन (दृढशरीर) वाला है, वह एक ही वस्त्र धारण करे, दूसरा नहीं / (परन्तु) जो साध्वी है, वह चार संघाटिका-चादर धारण करे-उसमें एक दो हाथ प्रमाण विस्तृत, दो तीन हाथ प्रमाण और एक चार हाथ प्रमाण लम्बी होनी चाहिए। इस प्रकार के वस्त्रों के न मिलने पर वह एक वस्त्र को दूसरे के साथ सी ले। विवेचन–साधु के लिए ग्राह्य वस्त्रों के प्रकार और धारण की सीमा--प्रस्तुत सूत्र में वस्त्र के उन प्रकारों का तथा अलग-अलग कोटि के साधु साध्वियों के लिए उन वस्त्रों को धारण करने 1. 'जंगिय' आदि की व्याख्या चूणिकार के शब्दों में जंगमाज्जातं जंगियं, अमिलं == उट्ठीणं, भंगियं "अयसीमादी, सणवं-सणवागादि, स्थग (पत्तग?) तालसरिसं संघातिज्जति तालसूति वा, खोमियं थूलकडं कप्पति, सण्हं ण कप्पति / तूलकडं वा उण्णिय ओट्टियादि !" इसका भावार्थ विवेचन में दे दिया गया। चूणिकार के मतानुसार क्षौमिक (सूती) वस्त्र मोटा बुना हो तो कल्पता है, बारीक बुना हो तो नहीं / तूलकडं वा का अर्थ-अर्कतूलनिष्पन्न न करके ऊन, ऊँट के बाल आदि से बना कपड़ा किया गया है। 2. 'तहप्पगारेहिं वत्थेहिं असंविज्जमाणेहि' के बदले पाठान्तर है-एएहि अविज्जमाणेहिं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org