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________________ परिशिष्ट : 1 'जाव' शब्द संकेतिक सूत्रसूचना 1 प्राचीनकाल में प्रागम तथा श्रुत ज्ञान प्रायः कण्ठस्थ रखा जाता था। स्मृति-दोबल्य के कारण प्रागम ज्ञान लुप्त होता देखकर वीरनिर्वाण संवत् 900 के लगभग प्रागम लिखने की परिपाटी प्रारम्भ हुई। लिपि-सुगमता की दृष्टि से सूत्रों में पाये बहुत-से समान पद जो बार-बार आते थे, उन्हें संकेत द्वारा संक्षिप्त कर दिया गया था। इससे पाठ लिखने में बहुत-सी पुनरावृत्तियों से बचा जाता था। इस प्रकार के संक्षिप्त संकेत भागमों में प्रायः तीन प्रकार के मिलते हैं 1. वष्णो वर्षक; (अमुक के अनुसार इसका वर्णन समझे) भगवती, ज्ञाता, उपासकदशा प्रादि अंग व उपांग प्रादि आगमों में इस संकेत का काफी प्रयोग हुआ है। उववाई सूत्र में बहुत-से वर्णनक हैं, जिनका संकेत अन्य सूत्रों में मिलता है / 2. जाव-(यावत्) एक पद से दूसरे पद के बीच के दो, तीन, चार प्रादि अनेक पद बार-बार न दुहराकर 'जाद' शब्द द्वारा सूचित करने की परिपाटी प्राचारांग आदि सूत्रों में मिलती है / जैसे---सूत्र 224 में पूर्ण पाठ है'अप्पंडे अप्पापणे, अप्पबीए, अप्पहरिए, अप्पोसे, अप्पोदए, अप्पुत्तिग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा-संताणए' आगे जहां इसी भाव को स्पष्ट करना है वहाँ सूत्र 228 तथा 412, 455, 570 आदि में 'अप्पंडे जाव' के द्वारा संक्षिप्त कर संकेत मात्र कर दिया गया है। इसी प्रकार 'जाव' पद से अन्यत्र भी समझना चाहिए। हमने प्राय: टिप्पणी में 'जाव' पद से अभीष्ट सूत्र की संख्या सूचित करने का ध्यान रखा है। कहीं विस्तृत पाठ का बोध भी 'जाव' से किया गया है। जैसे सूत्र 217 में 'अहेस णिज्जाई वत्थाई जाएज्जा जाव' यहाँ पर सूत्र 214 के 'अहेसणिज्जाई वत्थाई जाएज्जा, अहापरिगहियाई वत्थाई धारेज्जा, णो धोएज्जा, गो रएज्जा, णो धोत-रत्ताई वत्याई धारेज्जा, अपलिउंचमाणे गामंतरेस, प्रोमचेलिए।' इस समग्र पाठ का 'जाव' पद द्वारा बोध कराया है। इस प्रकार अनेक स्थानों पर स्वयं समझ लेना चाहिए। जाव-कहीं पर भिन्न पदों का व कहीं विभिन्न क्रियाओं का सूचक है, जैसे सूत्र 205 में 'परक्कमेज्ज जाव' सूत्र 204 के अनुसार 'परक्कमेज्ज वा, चिट्ठज्जा वा, णिसीएम्न वा, तयटेज वा' चार क्रियाओं का बोधक है। 3. अंक-संकेत-संक्षिप्तीकरण की यह भी एक शैली है। जहाँ दो, तीन, चार या अधिक समान पदों का बोध कराना हो, वहाँ अंक 2, 3, 4, 6 प्रादि अंकों द्वारा संकेत किया गया है। जैसे(क) सूत्र 324 में से भिक्खू वा भिक्खुणी वा For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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