________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध वा अण्णयरेसु वा तहप्पगारेसु पत्तोवएसु' वा पुप्फोवएसु वा फलोवएसु वा बोओवएसु वा हरितोवएसु वा णो उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा। 667. से भिक्खू वा 2 सपाततं वा परपाततं वा गहाय से तमायाए एगंतमवक्कमे, अणावाहंसि अप्पपाणंसि जाव मक्कडासंताणयंसि अहारामंसि वा उक्स्सयंसि ततो संजयामेव उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा, उच्चार-पासवणं वोसिरित्ता से तमायाए एगंतमवक्कमे, अणावाहंसि जाव मक्कडासंताणयंसि अहारामंसि वा झामथंडिलं सि वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि अचित्तंसि ततो संजयामेव उच्चार-पासवणं वोसिरेज्जा / 646. साधु या साध्वी ऐसी स्थण्डिल भूमि को जाने, जो कि अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है, तो उस प्रकार के स्थण्डिल पर मल-मूत्र विसर्जन न करे। 647. साधु या साध्वी ऐसे स्थण्डिल को जाने, जो प्राणी, बीज, यावत् मकड़ी के जालों से रहित है, तो उस प्रकार के स्थण्डिल पर मल-मूत्र विसर्जन कर सकता है। 648. साधु या साध्वी यह जाने कि किसी भावुक गृहस्थ ने निम्रन्थ निष्परिग्रही साधुओं को देने की प्रतिज्ञा से एक सार्मिक साधु के उद्देश्य से, या बहुत से सार्मिक साधुओं के उद्देश्य से आरम्भ-समारम्भ करके स्थण्डिल बनाया है, अथवा एक साधर्मिणी साध्वी के उद्देश्य से या बहुत-सी सार्धामणी साध्वियों के उद्देश्य से स्थण्डिल बनाया है, अथवा बहुत-से श्रमण ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र या भिखारियों को गिन-गिनकर उनके उद्देश्य से प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों का समारम्भ करके स्थण्डिल बनाया है तो इस प्रकार का स्थण्डिल पुरुषान्तर ...... उदिते मूरिद 1. 'पत्तोयएस' आदि के बदले चर्णिकार ने 'पत्तोबग' इत्यादि पाठ मानकर अर्थ किया है-पत्तोवगा तम्बोली, पुष्फोवगा-जहा पुन्नागा, फलोवगा--जहा कविट्ठादीणि, छाओवग हैं-वंजुल-दिस्क्खादि, उवयोगं गच्छतीति उवगा।' जिसके पत्ते उपयोग में आते हैं। इसी प्रकार पुष्प, फल, छाया आदि उपयोगी हो वह पत्रोवग आदि कहलाता है। निशीथ चूणि उ०३ में इसका स्पष्टीकरण किया गया है-राओ त्ति संझा वियालो त्ति संझावगमो। उत् प्राबल्येन बाधा उब्बाहा / अप्पणिज्जो सम्णामत्ताओ सगपायं भषणति, अप्पणिज्जस्स, अभावे परपाते वा जाइत्ता वोसिरइ।.... उदिते सूरिए परिवेति / ' --10 227-228 3. से त्तमायाए के बदले पाठान्तर है--से तमादाय' आदि वह उसे लेकर / 4. 'अणाबाहंसि' के बदले पाठान्तर है-अणावायंसि असंलोयंसि / किसी-किसी प्रति में अणावाहंसि पाठ नहीं है। "अणावाहंसि अनाबाधे इत्यर्थः / " अनाबाध स्थण्डिल में, अणावायंसि का अर्थ होता है-. अनापात, जहाँ किसी का आवागमन न हो / असंलोयंसि का अर्थ है जहाँ किसी की दृष्टि न पड़ती हो, कोई देखता न ही। 5. यहाँ 'वोसिरेज्ज' का अर्थ वृत्तिकार ने किया है-'उच्चारं प्रसवणं वा कुर्यात् प्रतिष्ठापयेदिति वा।' मल-मूत्र विसर्जन करे या उसे परठे / वह उसे लेकर प्रति में अण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org