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________________ आमुख [ प्रथम संस्करण से ] जैन धर्म, दर्शन व संस्कृति का मूल आधार वीतराग सर्वज्ञ की वाणी है। सर्वज्ञ अर्थात प्रात्मद्रष्टा / सम्पूर्ण रूप से आत्मदर्शन करने वाले ही विश्व का समग्र दर्शन कर सकते हैं। जो समग्र को जानते हैं, वे ही तत्त्वज्ञान का यथार्थ निरूपण कर सकते हैं। परमहितकर नि:श्रेयस का यथार्थ उपदेश कर सकते हैं। सर्वज्ञों द्वारा कथित तत्त्वज्ञान, प्रात्मज्ञान तथा प्राचार-व्यवहार का सम्यक परिबोध-'श्रामम' शास्त्र या सूत्र के नाम से प्रसिद्ध है। तीर्थंकरों की वाणी मुक्त सुमनों की वृष्टि के समान होती है, महान प्रज्ञावान् गणधर उसे सूत्र रूप में ग्रथित करके व्यवस्थित 'अागम' का रूप देते हैं।' आज जिसे हम 'मागम' नाम से अभिहित करते हैं, प्राचीन समय में 'गणिपिटक' कहलाते थे'गणिपिटक' में समग्र द्वादशांगी का समावेश हो जाता है। पश्चाद्वर्ती काल में इसके अंग, उपांग, मूल, छेद आदि अनेक भेद किये गये। जब लिखने की परम्परा नहीं थी, तब प्रागमों को स्मृति के प्राधार पर या गुरु-परम्परा से सुरक्षित रखा जाता था। भगवान महावीर के बाद लगभग एक हजार वर्ष तक 'आगम' स्मृति-परम्परा पर ही चले आये थे / स्मृति-दुर्बलता, गुरु-परम्परा का विच्छेद तथा अन्य अनेक कारणों से धीरे-धीरे पागमज्ञान भी लुप्त होता गया। महासरोवर का जल सूखप्ता-सूखता गोष्पद मात्र ही रह गया। तब देवद्धिगणी क्षमा श्रमण ने श्रमणों का सम्मेलन बुलाकर, स्मृति-दोष से लुप्त होते आगम-ज्ञान को, जिनवाणी को सुरक्षित रखने के पवित्र-उद्देश्य से लिपिबद्ध करने का ऐतिहासिक प्रयास किया और जिनवाणी को पुस्तकारूढ़ करके पाने वाली पीढ़ी पर अवर्णनीय उपकार किया। यह जैनधर्म, दर्शन एवं संस्कृति की धारा को प्रवहमान रखने का अदभुत उपक्रम था। प्रागमों का यह प्रथम सम्पादन वीरनिर्वाण के 980 या 993 वर्ष पश्चात् सम्पन्न हुआ। पुस्तकारूढ़ होने के बाद जैन आगमों का स्वरूप मूल रूप में तो सुरक्षित हो गया, किन्तु कालदोष, बाहरी आक्रमण, आन्तरिक मतभेद, विग्रह, स्मृति-दुर्बलता एवं प्रमाद आदि कारणों से प्रागम-ज्ञान की शुद्धधारा, अर्थबोध की सम्यक् गुरु-परम्परा, धीरे-धीरे क्षीण होने से नहीं रुकी। प्रागमों के अनेक महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ, पद तथा गूढ़ अर्थ हिन्न-विच्छिन्न होते चले गए / जो प्रागम लिखे जाते थे, वे भी पूर्ण शुद्ध नहीं होते, उनका सम्यक् अर्थ-ज्ञान देने वाले भी विरले ही रहे। अन्य भी अनेक कारणों से प्रागम-ज्ञान की धारा संकुचित होती गयी। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में लोकाशाह ने एक क्रान्तिकारी प्रयत्न किया। प्रागमों के शुद्ध पौर यथार्थ अर्थ-ज्ञान को निरूपित करने का एक साहसिक उपक्रम पुनः चालू हुआ। किन्तु कुछ काल 1. 'अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गथंति गणहरा निउगं / ' - [1] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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