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________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रयम उद्देशक : सूत्र 132-133 123 विवेचन-इन दो सूत्रों में अहिंसा के तत्त्व का सम्यक् निरूपण, अहिंसा की त्रैकालिक एवं सार्वभौमिक मान्यता, सार्वजनीनता एवं इसकी सत्य-तथ्यता का प्रतिपादन किया गया है। साथ ही अहिंसा व्रत को स्वीकार करने वाले साधक को कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे सावधान रहकर अहिसा के आचरण के लिए पराक्रम करना चाहिए ? यह भी बता दिया गया है / यही अहिंसा धर्म के सम्बन्ध में सम्यग्वाद का प्ररूपण है। ___ 'से बेमि' इन पदों द्वारा गणधर, तीर्थंकर भगवान महावीर द्वारा ज्ञात, अतीत-अनागतवर्तमान तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित, अनुभूत, केवलज्ञान द्वारा दृष्ट अहिंसा धर्म की सार्वभौमिकता की घोषणा करते हैं।' आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण में थोड़ा-थोड़ा अन्तर है / दूसरों के द्वारा प्रश्न किये जाने पर उसका उत्तर देना पाख्यान-कथन है, देव-मनुष्यादि की परिषद् में बोलना-- भाषण कहलाता है, शिष्यों की शंका का समाधान करने के लिए कहना 'प्रज्ञापन' है, तात्त्विक दृष्टि से किसी तत्त्व या पदार्थ का निरूपण करना 'प्ररूपण' है। प्राण, भूत, जीव और सत्व वैसे तो एकार्थक माने गए हैं, जैसे कि आचार्य जिनदास कहते हैं ... एगटिठता वा एते'; किन्तु इन शब्दों के कुछ विशेष अर्थ भी स्वीकार किये गये हैं। हतध्वा' से लेकर 'उद्देवेयवा' तक हिंसा के ही विविध प्रकार बताये गये हैं। इनका अर्थ पृथक्-पृथक् इस प्रकार है 'हंतवा' -- डंडा चाबुक आदि से मारना-पीटना / 'अज्जावेतत्वा'- बलात् काम लेना, जबरन अादेश का पालन कराना, शासित करना / 'परिघेत्तत्वा'- बंधक या गुलाम बनाकर अपने कब्जे में रखना। दास-दासी ग्रादि रूप में रखना। 'परितावेयवा'५ --परिताप देना, सताना, हैरान करना, व्यथित करना। उद्देवेयव्या--प्राणों से रहित करना, मार डालना / 1. अतीत के तीर्थकर अनन्त हैं, क्योंकि काल अनादि होता है। भविष्य के भी अनन्त हैं. क्योंकि अागामी काल भी अनन्त है, वर्तमान में कम से कम (जघन्य) 20 तीर्थकर हैं जो पांच महाविदेहों में से प्रत्येक में चार-चार के हिसाब से हैं। अधिक से अधिक (उत्कृष्ट) 170 तीर्थंकर हो सकते हैं। महाविदेह क्षेत्र 5 हैं, उनमें प्रत्येक में 32-32 तीर्थकर होते हैं, अतः 32 x 5 = 160 तीर्थकर हुए / 5 भरत क्षेत्रों में पांच और 5 ऐरावत क्षेत्रों में पांच---यों कुल मिलाकर एक साथ 170 तीर्थकर हो सकते हैं। कुछ प्राचार्यों का कहना है कि मेरु पर्वत से पूर्व और अपर महाविदेह में एक-एक तीर्थकर होते है, यों 5 महाविदेहों में 10 तीर्थंकर विद्यमान होते हैं / जैसा कि एक आचार्य ने कहा है सत्तरसयमुक्कोसं, इअरे दस समयखेतजिणमाणं / चोत्तीस पढमदीवे अणतरऽद्ध य ते दुगुणा / / -आचा० वृत्ति पत्र 162 2. प्राचा. शीला टीका पत्रांक 162 / ३.देखिए प्रथम अध्ययन सूत्रांक 49 का विवेचन / 4. प्राचा० नियुक्ति गा० 225, 226 तथा प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 162 / 5. परितापना के विविध प्रकारों के चिन्तन के लिए ऐपिथिक (इरियावहिया) सूत्र में पठित 'अमिहया' से लेकर 'जीवियाओ ववरोविया' तक का पाठ देखें। -श्रमणसूत्र (उपा० अमरमुनि) पृ० 54 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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