________________ 124 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्य ___ यह अहिंसा धर्म किंचित् हिंसादि से मिश्रित या पापानुबन्धयुक्त नहीं है, इसे द्योतित करने हेतु 'शुद्ध' विशेषण का प्रयोग किया गया है। यह त्रैकालिक और सार्वदेशिक, सदा सर्वत्र विद्यमान होने से इसे 'नित्य' कहा है, क्योंकि पंचमहाविदेह में तो यह सदा रहता है। शाश्वत इसलिए कहा है कि यह शाश्वत-सिद्धगति का कारण है / ' भ० महावीर ने प्रत्येक प्रात्मा में ज्ञानादि अनन्त क्षमताओं का निरूपण करके सबको स्वतन्त्र रूप से सत्य की खोज करने की प्रेरणा दी–अप्पणा सच्चमेसेज्जा'-यह कहकर / यही कारण है कि उन्होंने किसी पर अहिंसा धर्म के विचार थोपे नहीं, यह नहीं कहा कि "मैं कहता हूँ, इसलिए स्वीकार कर लो।" बल्कि भूत, भविष्य, वर्तमान के सभी तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित है, इसलिए यह अहिंसाधर्म सार्वभौमिक है, सर्वजन- ग्राह्य है, व्यवहार्य है, सर्वज्ञों ने केवलज्ञान के प्रकाश में इसे देखा है, अनुभव किया है, लघुकर्मी भव्य जीवों ने इसे सुना है, अभीष्ट माना है। जीवन में आचरित है, इसके शुभ-परिणाम भी जाने-देखे गए हैं, इस प्रकार अहिंसा धर्म की महत्ता एवं उपयोगिता बताने के लिए ही 'उठ्ठिएसु' से लेकर इस उद्देशक के अन्तिम वाक्य तक के सूत्रों द्वारा उल्लेख किया गया है। ताकि साधक की दृष्टि, मति, गति, निष्ठा और श्रद्धा अहिंसाधर्म में स्थिर हो जाए। "विट्ठहि णिन्वेयं गच्छेज्जा' का आशय यह है कि इष्ट या अनिष्ट रूप जो कि दृष्ट हैंशब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श हैं, उनमें निर्वेद-वैराग्य धारण करे / इष्ट के प्रति राग और अनिष्ट के प्रति द्वेष/घणा न करे। 'लोषणा' से तात्पर्य है-सामान्यतया इष्ट विषयों के संयोग और अनिष्ट के वियोग की लालसा। यह प्रवृत्ति प्रायः सभी प्राणियों में रहती है, इसलिए साधक के लिए इस लोकैषणा का अनुसरण करने का निषेध किया गया है। // प्रथम उद्देशक समाप्त // बीओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक सम्यगज्ञान : आस्रव-परिस्रव चर्चा 134. जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा / जे अणासवा ते अपरिस्सवा, जे अपरिस्सवा ते अणासवा / 1. आचा० शीला टीका पत्रांक 163 / 3. प्राचा. शीला० टीका पत्रांक 162 / 2. आचा० शीला टीका पत्रांक 163 / 4. आचा० शीला टीका पत्रांक 163 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org