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________________ आचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध यह दुःख आरम्भज-प्राणि-हिंसाजनित है, यह जानकर (तू निरारम्भ होकर अप्रमत्त भाव से प्रात्महित में प्रवृत्त रह)। माया और प्रमाद के वश हुआ मनुष्य (अथवा मायी प्रमादवश) बार-बार जन्म लेता है गर्भ में आता है। शब्द और रूप आदि के प्रति जो उपेक्षा करता है-राग-द्वेष नहीं करता है, वह ऋजु (आर्जव-धर्मशील संयमी) होता है, वह मार (मृत्यु या काम) के प्रति सदा आशंकित (सतर्क) रहता है और मृत्यु (मृत्यु के भय) से मुक्त हो जाता है। 109. जो काम-भोगों के प्रति अप्रमत्त है, पाप कर्मों से उपरत-मन-वचनकाया से विरत है, वह पुरुष वीर और आत्मगुप्त (आत्मा को सुरक्षित रखने वाला) होता है और जो (अपने आप में सुरक्षित होता है) वह खेदज्ञ (इन काम-भोगों से प्राणियों को तथा स्वयं को होने वाले खेद का ज्ञाता) होता है, अथवा वह क्षेत्रज्ञ (अन्तरात्मा को जानने वाला) होता है। जो (शब्दादि विषयों की) विभिन्न पर्यायसमूह के निमित्त से होने वाले शस्त्र (असंयम, आसक्ति रूप) के खेद (अन्तस्-हार्द) को जानता है, वह अशस्त्र (संयम-अनासक्ति रूप) के खेद (अन्तस्) को जानता है, वह (विषयों के विभिन्न) पर्यायों से होने वाले शस्त्र (असंयम) के खेद (अन्तस्) को जानता है / विवेचन - इन सूत्रों में साधक को वृद्धत्व, मृत्यु अादि विभिन्न दुःखों से प्रातुर प्राणी की दशा एवं उसके कारणों और परिणामों पर गम्भीरता से विचार करने का निर्देश दिया गया है। साथ ही यह भी बताया है कि शब्द-रूपादि कामों के प्रति अनासक्त रहने वाला सरलात्मा मुनि मृत्यु के भय से विमुक्त हो जाता है। यहाँ वृत्तिकार ने एक शंका उठाई है-देवता 'निर्जर' और 'अमर' कहलाते हैं, वे तो मोहमूढ़ नहीं होते होंगे और धर्म को भलीभाँति जान लेते होंगे? इसका समाधान इस प्रकार किया गया है कि "देवता निर्जर कहलाते हैं, पर उनमें भी जरा का सद्भाव है, क्योंकि च्यवनकाल से पूर्व उनके भी लेश्या, बल, सुख, प्रभुत्व, वर्ण आदि क्षीण होने लगते हैं। यह एक तरह से जरावस्था ही है। और मृत्यु तो देवों की भी होती है, गोक, भय आदि दुःख भी उनके पीछे लगे हैं / इसलिए देव भी मोह-मूढ़ बन रहते हैं।'' प्राशय यह है कि जहाँ शब्द. 1. जैसा कि भगवतीसूत्र में प्रश्नोत्तर है- "देवाणं भंते ! सम्बे समवण्णा ? नो इणढे समठे। से केणठेण भंते ! एवं युच्चइ ? गोयमा ! देवा दुविहा-पुत्वोववण्णगा य पच्छोववण्णगा य / तत्य णं जे ते पुन्वोदण्णगा ते णं अविसुद्धवष्णयरा, जे ण पच्छोववण्णगा ते ण विसुद्धयण्णयरा / प्रश्न--भंते ! सभी देव समान वर्ण वाले होते हैं ? उत्तर-यह कथन सम्भव नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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