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________________ 72 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध बांध कर बनाया हुआ ऊँचा स्थान मंच या मचान कहलाता है, उस पर, मालंसि= छत पर या ऊपर की मंजिल पर / पासादसि-महल पर, हम्मियतलंसि . प्रासाद की छत पर / पयलेज्ज - फिसल जाएगा, पवडेज्ज = गिर पड़ेगा / लूसेज्ज-चोट लगेगी या टूट जाएगा। कोट्ठिग्मातो--- कोष्ठिका अन्न संग्रह रखने की मिट्टी-तृण-गोवर आदि की कोठी से, कोलेज्जातो- ऊपर से संकड़े और नीचे से चौड़े से भूमिघर से। उक्कज्जिय -शरीर ऊंचा करके झुक कर तथा कुबड़े होकर, अवउज्जिय = नीचे झुक कर, आहारिय-तिरछा-टेढ़ा होकर। उभिन्न-दोष युक्त आहार-निषेध 367. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा 4 मट्टिओलितं / तहप्पगारं असणं वा 4 जाव' लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। केवली बूया-आयाणमेयं / अस्संजए भिक्खुपडियाए मट्टिओलित्तं असणं वा उम्भिदमाणे पुढवीकार्य समारंभेज्जा, तह तेउ-वाउ-वणस्तति-तसकायं समारंभेज्जा, पुणरवि ओलिपमाणे पच्छाकम्मं करेज्जा / अह भिक्खूणं पुव्योवविट्ठा 4 जं तहप्पगारं मट्टिओलित्तं असणं वा 4 अफासुयं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। 367. गृहस्थ के घर में आहारार्थ प्रविष्ट साधु या साध्वी यह जाने कि वहाँ अशनादि चतुर्विध आहार मिट्टी से लीपे हुए मुख वाले बर्तन में रखा हुआ है तो इस प्रकार का आहार प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे / केवली भगवान् कहते हैं---यह कर्म आने का कारण है। क्योंकि असंयत गृहस्थ साधु को आहार देने के लिए मिट्टी से लीपे आहार के बर्तन का मुह उद्भेदन करता (खोलता) हुआ पृथ्वीकाय का समारम्भ करेगा, तथा अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और प्रसकाय तक का समारम्भ करेगा। शेष आहार की सुरक्षा के लिए फिर बर्तन को लिप्त करके वह पश्चात्कर्म करेगा। इसीलिए तीर्थकर भगवान् ने पहले से ही प्रतिपादित कर दिया है कि साधु-साध्वी की यह प्रतिज्ञा है, यह हेतु है, यह कारण है और यही उपदेश है कि वह मिट्टी से लिप्त बर्तन को खोल कर दिये जाने वाले अशनादि चतुर्विध आहार को अप्रासुक एवं अनेषणीय समझ कर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे / विवेचन-उभिन्न दोष युक्त आहार ग्रहण न करें इस सूत्र में उद्गम के 12 वें उद्भिन्न नामक दोष से युक्त आहार के ग्रहण करने का निषेध किया गया है। यहां तो सिर्फ 1. यहाँ 'जाव' शब्द सू०:२४ में पठित 'अफासुयं अणेसणिज्जं मण्णमाणे' तक के पाठ का सूचक 2. यहाँ 'पुव्योवदिट्ठा' से आगे '4' का अंक 'जं तहप्पगार' तक समग्र पाठ का सूचक है, सूत्र 367 के अनुसार। 3. टीका पत्र 344 के आधार पर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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