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________________ पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 556-560 243 प्रावारक महंगे होने के अतिरिक्त ये बीच-बीच में छूछे, छिद्रवाले या पोले होते हैं, जिनमें जीव घुस जाते हैं, जिनके मरने की आशंका रहती है तथा प्रतिलेखन भी ठीक से नहीं हो सकता, इन सब दोषों के कारण ये वस्त्र अग्राह्य कोटि में गिनाये हैं।' वस्त्रंषणा की चार प्रतिमाएं __ 556. इच्चेयाइं आययणाई उवातिकम्म अह भिक्खू जाणेज्जा चहि पडिमाहि' वत्थं एसित्तए। [1] तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा-से भिक्खू वा 2 उद्दिसिय 2 वत्थं जाएज्जा, तंजहाजंगियं वा भंगियं वा साणयं वा पोत्तगं वा खोमियं वा तूलकडं वा, तहप्पगारं वत्थं सयं वा गं जाएज्जा परो वा से देज्जा, फासुयं एसणिज्जं लाभे संते जाव पडिगाहेज्जा। [2] अहावरा दोच्चा पडिमा-से भिक्खू वा 2 पेहाए 2 वत्थं जाएज्जा, तंजहा-गाहावती वा जाव कम्मकरी वा, से पुग्वामेव आलोएज्जा–आउसो ति वा भइणी ति वा दाहिसि मे एत्तो अण्णतरं वत्थं ? तहप्पगारं वत्थं सयं वा गं जाएज्जा परो वा से देज्जा, फासुयं एसणिज्जं लाभे संते जाव पडिगाहेज्जा। दोच्चा पडिमा। [3] अहावरा तच्चा पडिमा-से भिक्खू वा 2 सेज्ज पुण वत्थं जाणेज्जा, तंजहा-अंतरिज्जगं वा उत्तरिज्जगं वा, तहप्पगारं वत्थं सयं वा णं जाएज्जा जाव पडिगाहेज्जा / तच्चा पडिमा। [4] अहावरा चउत्था पडिमा से भिक्खू वा 2 उझियधम्मियं वत्थं जाएज्जा जं घऽण्णे बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणोमगा णावकखंति, तहप्पगारं उज्झियधम्मियं वत्थं सयं वा गं जाएज्जा परो वा से वेज्जा, फासुर्य जाब पडिगाहेज्जा / चउत्था पडिमा। 560. इच्चेताणं चउण्हं पडिमाणं जहा पिंडेसणाए। 1. आचारांग चूणि मू० पा० टि० पृ० 202 कोयव-कबलपावारावीणि सुसि दोसाय ण गुण्हीयात् / चणि (आचा) में इस पाठ की व्याख्या इस प्रकार मिलती है...--'चउरो पडिभा-उद्दिसिय जंगियमादी / बितियं पेहाए पुच्छिते भणति-एरिसं / अहवा पेहाए उक्खेव निक्खेव निद्देसं बीयाण उवरि / ततियाए अंतरिज्जगं साडतो, उत्त रिज्जगं पंगुरणं / अहवा अंतरिज्जग हेट्टियपत्थरणं, उत्तरिज्जगं पन्छाओ। उज्झियम्मियं चउम्विधं दव्वादि आलावगसिद्ध ।'–अर्थात्-चार प्रतिमाएँ हैं-(१) जंगीय आदि चारों में से किसी भी एक प्रकार के वस्त्र को उद्देश्य करके ग्रहण करने का संकल्प / (2) दूसरी प्रतिमा-प्रेक्षापूर्वक निश्चित करना, पूछने पर कहना-ऐसा वस्त्र / बीजों पर उत्क्षेप या निक्षेप का निर्देश भी इसके साथ है। (3) तृतीय प्रतिमा में अन्तरीयक वस्त्र, चादर और उत्तरीयक ऊपर लपेटने का, अथवा अन्तरीयक तीचे बिछाने का, उत्तरीयक प्रच्छादन पट / (4) उज्झितधार्मिक के द्रव्यादि चतुर्विध आलापक हैं। (वृहत्कल्प सूत्र वृत्ति पृ० 180 और निशीथ चूर्णि उ० 5 (पृ० 568) में भी इसका उल्लेख है।) 3. 'जाव' शब्द से यहाँ 'लामे संते से लेकर 'पडिमाहेज्जा' तक का पाठ सू० 406 के अनुसार है। 4. जाव शब्द से यहां इसी सूत्र के [2] विभाग में उल्लिखित समझना चाहिए। 5. यहाँ 'जाव' शब्द से 'फासुस' से लेकर 'पडिगाहेज्जा' तक का पाठ सू० 406 के अनुसार समझें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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