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________________ 274 आचारांग सूत्र-द्वितीय शु तस्कन्ध का तो भूलपाठ में स्पष्ट उल्लेख है, इन दोषों के अतिरिक्त और भी इन दोषों की संभावना रहती है--- (1) कदाचित् पात्र किसी कारण से फट गया हो, तो वह आहार-पानी लाने लायक नहीं रहेगा, (2) किसी धर्मद्वेषी ने साधुओं को बदनाम करने के लिए कोई शस्त्र, विष, या अन्य अकल्प्य, अग्राह्य वस्तु चुपके से रख दी हो, (3) कोई बिच्छ या सांप पात्र में घुस कर बैठ गया हो तो आहार लेते समय हठात् काट खाएगा, अथवा उसे देखे-भाले बिना अंधाधु धी में गर्म आहार या पानी लेने से वह आहार पानी भी विषाक्त हो जाएगा, जीव की विराधना तो होगी ही। (4) पात्र में कोई खट्टी चीज लगी रह गई तो दुध आदि पदार्थ लेते ही फट जाएगा। अतः साधु को उपाश्रय से निकलते समय, गृहस्थ के यहाँ प्रवेश करते समय और भोजन करना प्रारम्भ करने में पूर्व पात्र-प्रतिलेखन प्रमार्जन करना आवश्यक है।" सचित्त संसृष्ट पात्र को सुखाने की विधि 603. से भिक्खू वा 2 गाहावति जाव समाणे सिया से परो आहट्ट अंतो पडिग्गहगंसि सीओदगं परिभाएत्ता गोहट्ट, दलएज्जा, तहप्पगारं पडिग्गहगं परहत्थंसि वा परपायंसि वा अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा / से य आहच्च पडिग्गाहिए सिया, खिप्पामेव उदगंसि साहरेज्जा, सपडिग्गहमायाए व णं परिवेज्जा, ससणिद्धाए व णं भूमीए नियमेज्जा। 604. से भिक्खू वा 3 उदउल्लं वा ससणिद्ध वा पडिम्गहं णो आमज्जेज्ज वा जाव पयावेज्ज वा / अह पुणेवं जाणेज्जा विगदोदए मे पडिग्गहए छिण्ण-सिणेहे, तहप्पगारं पडिग्गहं ततो संजयामेव आमज्जेज्ज वा जाव पयावेज्ज वा। 1. आचारांग वृत्ति, मूलपाठ पत्रांक 400 2. इसके बदले पाठान्तर है-'सिया से खिप्पामेव उदगंसि आहरेज्जा'। अर्थ होता है---कदाचित् बह गृहस्थ शीघ्र ही अपने जल पात्र में उसे वापस डाल दे। 3. चूर्णिकार 'उद उल्लं वा ससणिद्धं वा' इस पाठ के बदले कोई दूसरा पाठ मानकर पात्रं षणाध्ययन की यही समाप्ति मानते हैं। वह पाठ इस प्रकार है-"उदउल्ल-ससणिद्ध पडिग्गहगं आमज्ज पमज्ज अंतो संलिहति, बाहिं गिल्लिहति, उव्वलेति, उव्वटेति, पत्ताविज्ज / इति पात्रं षणा समाप्ता।" ___ अर्थात्- जल से आई और सस्निग्ध पात्र को थोड़ा या बहुत प्रमार्जन करके अंदर से लेपरहित करता है, फिर बाहर से लेपरहित करता है, उपलेपन करता है, उद्वर्तन करता है, (जलरहित करता है) फिर थोड़ा या अधिक धूप में सूखाता है। इस प्रकार पात्र षणा समाप्त हुई। इस पाठ को देखते हुए किसी किसी प्रति में 'आमज्जेज्ज वा' के बाद पमज्जेज्ज वा' का पाठ माना है। 'आमज्जज्ज वा से 'पयावेज्ज वा' तक के पाठ को सूत्र 353 के अनुसार सूचित करने के लिए 'जाव' शब्द है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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