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________________ छठा अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 603-4 275 603. साधु या साध्वी गृहस्थ के यहाँ आहार-पानी के लिए गये हों और गृहस्थ घर के भीतर से अपने पात्र में सचित्त (शीतल) जल ला कर उसमें से निकाल कर साधु को देने लगे, तो साधु उसप्रकार के पर हस्तगत एवं पर-पात्रगत शोतल, (सचित्त) जल को अप्रासुक और अनेषणीय जान कर अपने पात्र में ग्रहण न करे / कदाचित् असावधानी से वह जल (अपने पात्र में) ले लिया हो तो शीघ्र दाता के जल पात्र में उड़ेल दे। यदि गृहस्थ उस पानी को वापस न ले तो फिर वह जलयुक्त पात्र को लेकर किसी स्निग्ध भूमि में या अन्य किसी योग्य स्थान में उस जल का विधिपूर्वक परिष्ठापन कर दे। उस जल से स्निग्ध पात्र को एकान्त निर्दोष स्थान में रख दे। 604. वह साधु या साध्वी जल मे आद्र और स्निग्ध पात्र को जब तक उसमें से बूंदें टपकती रहें, और वह गीला रहे, तब तक न तो पोंछे और न ही धूप में सुखाए / जब वह यह जान ले कि मेरा पात्र अब निर्गतजल (जल-रहित) और स्नेह-रहित हो गया है, तब वह उस प्रकार के पात्र को यतनापूर्वक पोंछ सकता है और धूप में सूखा सकता है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में सर्वप्रथम गृहस्थ के हाथ और बर्तन से अपने पात्र में सचित्त जल ग्रहण करने का निषेध है, तत्पश्चात् असावधानी से सचित्त जल पात्र में ले लिया गया हो तो उस पात्र को पोंछने और सुखाने आदि की विधि बताई गई है।' चूर्णिकार इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण करते हैं-... "सचित्त जल हिलाकर निकाल कर देने लगे तो वैसा...."पर-हस्तगत पात्र ग्रहण न करे / भूल से वैसा सचित्त जल संसृष्ट पात्र ग्रहण कर लेने पर यदि वहो गहस्थ उस जल को स्वयं वापस ले लेता है तो सबसे अच्छा: अन्यथा वह उस उदक को दूसरी जगह अन्य भाजन में डाल दे। 'परिभाएत्ता' आदि पदों का अर्थ :-परिभाएत्ता = विभाग करके, चूर्णिकार के अनुसारहिलाकर / 'पोह१ = निकाल कर। जलग्रहण-परक या पात्र ग्रहण-परक-चूर्णिकार इस सूत्र को पात्र षणा-अध्ययन होने से पात्र-ग्रहण विषयक मानते हैं, किन्तु वृत्तिकार इस की पानक-ग्रहण विषयक व्याख्या करते हैंगृहस्थ के घर में प्रविष्ट भिक्षु प्रासुक पानी की याचना करे इस पर कदाचित् वह गृहस्थ असावधानी से, भ्रान्ति से या धर्म-द्वेषवश (प्रतिकूलता वश) अथवा अनुकम्पावश विचार करके घर के भीतर पड़ा हुआ दूसरा अपना बर्तन ला कर, उसमें से कुछ हिस्सा रख कर, पानी निकाल कर देने लगे तो साधु उस प्रकार के पर-हस्तगत, पर-पात्रगत सचित्त जल को अप्रासुक 1. आचारांग मूल पाठ एवं वत्ति पत्रांक 400 के आधार पर 2. आचारांग चूणि मू. पा. ठि. पृ. २१६-"परियाभाएत्त ति छुभित्तु पडिगह परहत्थगयं ण मेण्हेज्जा। आहृच्च गहिते गिहत्थो एस चेव उदए जति परिसाहरति, लठ्ठ / अण्णत्थ वा उदए (उएझइ?) अन्ने हिं भायणे पक्खिवति' 3. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 400. (ख) आचारांग चूणि मू. पा. ठि. पृ. 21. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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