________________ 186 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्छ ही साधक अनभिभूत होता है, वही निरवलम्बी (स्वाश्रयी) बनने में समर्थ होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में निरालम्बी की विशेषता बताते हुए कहा गया है "निरालम्बी के योग (मनवचन-काया के व्यापार) अात्मस्थित हो जाते हैं / वह स्वयं के लाभ में सन्तुष्ट रहता है, पर के द्वारा हुए लाभ में रुचि नहीं रखता, न दूसरे से होने वाले लाभ के लिए ताकता है, न दूसरे से अपेक्षा या स्पृहा रखता है, न दूसरे से होने वाले लाभ की प्राकांक्षा करता है। इस प्रकार पर से होने वाले लाभ के प्रति अरुचि, अप्रतीक्षा, अनपेक्षा, अस्पृहा या अनाकांक्षा रखने मे वह साधक द्वितीय सुखशय्या को प्राप्त करके विचरण करता है।' - वत्तिकार के अनुसार 'अभिभूय' का आशय है-'परीषह, उपसर्ग या घातिकर्मचतुष्टय को पराजित करके।' वस्तुतः साधना के बाधक तत्वों में परीषह, उपसर्ग (कष्ट) आदि भी हैं, घातिकर्म भी हैं,२ भौतिक सिद्धियाँ, यौगिक उपलब्धियाँ या लब्धियाँ भी बाधक हैं, उनका सहारा लेना आत्मा को पंगु और परावलम्बी बनाना है। इसी प्रकार दूसरे लोगों से अधिक सहायता की अपेक्षा रखना भी पर-मुखापेक्षिता है, इन्द्रिय-विषयों, मन के विकारों आदि का सहारा लेना भी उनके वशवर्ती होना है, इससे भी आत्मा पराश्रित और निर्बल होता है / निरवलम्बी अपनी ही उपलब्धियों में सन्तुष्ट रहता है। वह दूसरों पर या दूसरों से मिली हुई सहायता, प्रशंसा या प्रतिष्ठा पर निर्भर नहीं रहता। साधक को प्रात्म-निर्भर (स्व-अवलम्बी) बनना चाहिए। भगवान महावीर ने प्रत्येक साधक को धर्म और दर्शन के क्षेत्र में स्वतन्त्र चिन्तन का अवकाश दिया। उन्होंने दूसरे प्रवादों की परीक्षा करने की छूट दी। कहा-'मुनि अपने प्रवाद (दर्शन या वाद) को जानकर फिर दूसरे प्रवादों को जाने-परखे। परीक्षा के समय पूर्ण मध्यस्थता-निष्पक्षता एवं समत्वभावना रहनी चाहिए। स्व-पर-वाद का निष्पक्षता के साथ परीक्षण करने पर वीतराग के दर्शन की महत्ता स्वतः सिद्ध हो जाएगी। आसक्ति-त्याग के उपाय 174. उड्ढं सोता अहे सोता तिरियं सोता वियाहिता / एते सोया वियक्खाता जेहि संग ति पासहा // 12 // "आवट्टमेयं तु पेहाए एत्थ बिरमेज्ज बेदवी / 1. 'निरालंबणस्त य आयपट्ठिया जोगा भवन्ति / सएणं लाभेण संतुस्सइ, परलाम मो आसाएइ, नो तक्केइ, नो पीहेइ, नो पत्थेइ, नो अभिलसइ / परलाभ आणासाययाले, मतस्केमारणे, अपोहेमाले, अपत्थेमाले, अणमिलसमाणे, दुच्चं सुहसेज्ज उपसंपज्जिताणं विहरइ। --उत्तराध्यय नसूत्र 2934 2. आचा० शीला० टीका पत्रांक 206 / 3. (आयारो) पृष्ठ 223 / 4. आवट्टमेयं तु पेहाए' के बदले चूणि में 'अट्टमेयं तुबेहाए' पाठ मिलता है। अर्थ किया गया है-'राग दोसषसट्ट कम्मबंधगं उवेहेत्ता' - रागद्वेष के वश पीड़ित होने से हुए कर्मबन्ध का विचार करके-1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org