________________ द्वितीय अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 92 तीनों लोकों पर विभिन्न दृष्टियों से चिन्तन करना ध्यान की एक विलक्षण पद्धति रही है। इसी सूत्र में बताया गया-भगवान् महावीर अपने साधना काल में ऊर्ध्वलोक में, अधोलोक में तथा तिर्यगलोक में (वहाँ स्थित तत्त्वों पर) ध्यान केन्द्रित करके समाधि भाव में लीन हो जाते थे / ' 'लोक-भावना' में भी तीनों लोकों के स्वरूप का चिन्तन तथा वहां स्थित पदार्थों पर ध्यान केन्द्रित कर एकाग्र होने की साधना की जाती है / 4. (2) अनुपरिवर्तन का बोध---काम-भोग के प्रासेवन से काम वासना कभी भी शांत व तृप्न नहीं हो सकती, बल्कि अग्नि में घी डालने की भांति विषयाग्नि अधिक प्रज्वलित होती है। कामी बार-बार काम (विषय) के पीछे दौड़ता है, और अन्त में हाथ लगती है अशांति ! अतृप्ति !! इस अनुपरिवर्तन का बोध, साधक को जब होता है तो वह काम के पीछे दौड़ना छोड़कर काम को अकाम (वैराग्य) से शांत करने में प्रयत्नशील हो जाता है। 5. (3) संधि-दर्शन-टीकाकार ने संधि का अर्थ-'अवसर' किया है। यह मनुष्य-जन्म ज्ञानादि की प्राप्ति का, प्रात्म-विकास करने का, तथा अनन्त आत्म-वैभव प्राप्त करने का स्वणिम अवसर है। यह सुवर्ण-संधि है, इसे जानकर वह काम-विस्क्त होता है और 'कामविजय' की ओर बढ़ता है। 'संधि-दर्शन' का एक अर्थ यह भी किया गया है-शरीर की संधियों (जोड़ों) का स्वरूप-दर्शन कर शरीर के प्रति राग-रहित होना। शरीर को मात्र अस्थि-कंकाल (हड्डियों का ढाँचा मात्र) समझना उसके प्रति आसक्ति को कम करता है। शरीर में एक सौ अस्सी संधियाँ मानी गई हैं। इनमें चौदह महासंधियाँ हैं उन पर विचार करना भी संधि-दर्शन है। ___ इस प्रकार काम-विरक्ति के पालम्बनभूत उक्त पांच विषयों का वर्णन दोनों सूत्रों में हुआ है। 'बद्ध पडिमोयए' से तात्पर्य है, जो साधक स्वयं काम-वासना से मुक्त है, वह दूदरां को (बद्धों) को मुक्त कर सकता है / देह की असारता का बोध 92. जहा अंतो तहा बाहि, जहा बाहि तहा अंतो। अंतो अंतो पूतिदेहंतराणि पासति पुढो वि सवंताई। पंडिते पडिलेहाए। से मतिमं परिण्णाय मा य हु लालं पच्चासी। मा तेसु तिरिच्छमपाणमावातए / __92 (यह देह ) जैसा भीतर है, वैसा बाहर है, जैसा बाहर है वैसा भीतर है। 1. अध्ययन 9 / सूत्रांक 320 गा० १०७-उड्ढे अधेप शिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिण्णे।" 2. आचा० शीला० टीका पत्रांक 124 3. देखें-पायारो-पृष्ठ 114 / / 4. (क) पुढो वोसक्ताई---चूणि में पाठान्तर है। (ख) पृथगपि प्रत्येकमपि, अपि शब्दात् कुष्ठाद्यवस्थायां योगपद्यनापि जवन्ति-टीका पत्र 125 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org