________________ द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 443 146 वंस कडणोपण-छायण-लेवण-दुवारभूमीओ। परिकम्मविष्पमुक्का एसा मूलुत्तरगणेस // 2 // दुमिअ-धूपिअ-वासिअ-उज्जोविअ बलिकडा अ वत्ता य। सित्ता सम्मट्ठा वि अ बिसोहि-कोडोगया वसही / / 3 // मूलुत्तरगुणसुद्ध घी-पसु-पंडग-विवज्जियं बसहि / सेवेज्ज सम्वकालं, विवज्जऐ हुति दोसा उ // 4 // -पुट्ठी, बांस, दो धारण और चार मूल वल्लियां, इस सामग्री से स्वाभाविक रूप से गृहस्थ द्वारा अपने लिए बनायी हुई यह वसति (वासस्थान) मूल गुणों से विशुद्ध है। -तथा बांस चटाई, काष्ठ का हाता, छादन-लेपन, द्वार निर्माण, भूमि सम करना आदि परिकम्र्मों से विमुक्त जो वसति है, वह भी मूलोत्तरगुण-विशुद्ध है। गृहस्थ द्वारा अपने लिए सफेद की हुई, धुएं से काली, धूप से सुवासित, प्रकाश की हुई बलि की हुई, उपयोग में ली हुई, सींची हुई, घिस कर चिकनी की हुई वसति भी विशुद्धि की कोटि के अन्तर्गत है। साधु को सदा मूल और उत्तर गुणों से शुद्ध तथा स्त्री-पशु-नपुसक रहित वसति का सेवन (उपयोग) करना चाहिए, इससे विपरीत होने पर वह दोष युक्त हो जाती है।' शुद्ध-निर्दोष बसति के लिए सर्व प्रथम तीन बातें अपेक्षित हैं—१. प्रासुक 2. उंछ और 3. एषणीय / अर्थात-क्रमशः (1) आधाकर्मादिदोष से रहित, (2) छादनादि उत्तरगण-दोष से रहित और (3) मूलोत्तरगुण-रहित होनी चाहिए। इन तीनों के अतिरिक्त वह साधु की आवश्यक क्रियाओं के लिए उपयुक्त भी होनी चाहिए। इसीलिए निर्दोष एवं उपयुक्त वसति का मिलना दुर्लभ बताया है।' मुनि अन्धभक्ति के चक्कर में न आए-किसी सरल निष्कपट मुनि से उपाश्रय के दोषों को जानकर कोई अन्धभक्त (अति श्रद्धालु) गृहस्थ मुनि को उपाश्रय बनाकर भेंट देने के लिए चालाकी से अनेक प्रकार से उसकी निर्दोषता सिद्ध कर देता है यथा--(१) पहले हमने परिव्राजकों के लिए बनाया था, (उत्क्षिप्तपूर्वा) (2) या पहले हमने अपने लिए बनाया था, (निक्षिप्तपूर्वा) (3) पहले हमने अपने भाई-भतीजों को देने के लिए रखा था (परिभाइयपुव्वा) (4} हमने या दूसरों ने इसका उपयोग भी पहले कर लिया है, (परिभुत्तपुवा) (5) नापसंद होने के कारण बहुत पहले से हमने इसे छोड़ दिया है (परिट्ठवियपुवा)।"3 विचक्षण मुनि गृहस्थ के इस प्रकार के वाग्जाल में न फंसे, वह सम्यक् रूप से छानबीन करे, यही शास्त्रकार का आशय है। पिंडवातेसणाओ का तात्पर्य वृत्तिकार बताते हैं किसी गृहस्थ से आज्ञा लेकर उसके उपाश्रय में निवास करने पर वह (शय्यातर) साधु के लिए भक्तिवश आहार बनवाकर मुनि 1. आचारांगवृत्ति, पत्रांक 368 2. वही, पत्रांक 368 3. वही, पत्रांक 366 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org