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________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 786-61 417 देति, मणुणामणुहि रसेहि णो सज्जेज्जा णो रज्जेज्जा जाव णो विणिग्यातमावज्जेज्जा केवली बूया- निगथे णं मणुण्णामणुप्णेहि रसेहि सज्जमाणे जाव विणिग्यायमावज्जमाणे संतिभेदा जाव भंसेज्जा। ण सक्का रसमणासातु जीहाविसयमागतं / रोग-दोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए // 133 // जोहातो जीवो मणुण्णामणुण्णाइं रसाइं अस्सादेति त्ति चउत्था भावणा। [5] अहावरा पंचमा भावणा-फासातो' जीवो मणुष्णामणुण्णाई फासाई पडिसंवेदेति, मणुण्णामणुग्णेहि फासेहि णो सज्जेजा, णो रज्जेजा, णो गिज्झज्जा, णो मुज्झेज्जा, णो अज्झो ववज्जेज्जा, गो विणिघातमावज्जेज्जा। केवली बूया-निग्गंथे गं मणुण्णामणुणेहि फासेहि सज्जमाणे जाव विणिघातमावज्जमाणे संतिभेदा संतिविभंगा संतिकेलिपण्णत्तातो धम्मातो भंसेज्जा। ण सक्का ण संवेदेतुं फासं विसयमागतं / राग-दोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए // 134 // फासातो जीवो मणुण्णामणुण्णाई फासाइं पडिसंवेदेति त्ति पंचमा भावणा। 761. एत्ताव ताव महन्वते सम्म काएण फासिते पालिते तीरिते किट्टिते अवट्टिते आणाए आराधिते यावि भवति / / पंचमं भंते ! महव्व यं परिग्गहातो बेरमणं / 786. इसके पश्चात् हे भगवन् ! मैं पांचवें महाव्रत को स्वीकार करता हूँ। पंचम महाव्रत के सन्दर्भ में मैं सब प्रकार के परिग्रह का त्याग करता हूँ। आज से मैं थोड़ा या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त किसी भी प्रकार के परिग्रह को स्वयं ग्रहण नहीं करूंगा, न दूसरों से ग्रहण कराऊंगा, और न परिग्रह ग्रहण करने वालों का अनुमोदन करूगा। इसके आगे का-'आत्मा से भूतकाल में परिगृहीत परिग्रह का व्युत्सर्ग करता हूँ', तक का सारा वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। 760. उस पंचम महाव्रत की पांच भावनाएं ये हैं (1) उन पांच भावनाओं में से प्रथम भावना यह है-श्रोत्र (कान) से यह जीव मनोज्ञ तथा अमनोज्ञ शब्दों को सुनता है, परन्तु वह उनमें आसक्त न हो, रागभाव न करे, गृद्ध न हो, मोहित न हो, अत्यन्त आसक्ति न करे, न राग-द्वेष करे। केवली भगवान् कहते हैं जो साधु मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्दों में आसक्त होता है, रागभाव करता है, गृद्ध हो जाता है, मोहित हो जाता है, अत्यधिक आसक्त हो जाता है, राग-द्वेष करता है वह शान्तिरूप चारित्र का नाश करता है, शान्ति को भंग करता है, शान्तिरूप केवलि प्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाता है / 1. किसी-किसी प्रति में 'फासातो जीवो' पाठ नहीं है। कहीं पाठान्तर है--फासाओ जीवो, फासातो मणुण्णामणुण्णाई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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