________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र 792 421 उपसंहार 762. इच्चेतेहि महन्वतेहिं पणवीसाहि य भावणाहिं संपन्ने अणगारे अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं सम्मं काएण फासित्ता पालित्ता तीरित्ता किट्टित्ता आणाए आराहिता यावि भवति। 762. इन (पूर्वोक्त) पांच महाब्रतों और उनकी पच्चीस भावनाओं से सम्पन्न अनगार यथाश्रत, यथाकल्प, और यथामार्ग इनका काया से सम्यक प्रकार से स्पर्श कर, पालन कर, इन्हें पार लगाकर, इनके महत्त्व का कीर्तन करके भगवान् की आज्ञा के अनुसार इनका आराधक बन जाता है। __ -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन--पंचमहावतों का सम्यक् आराधक अनगार : कब और कैसे ? प्रस्तुत सूत्र में साधक भगवान् की आज्ञा के अनुसार पंच महाव्रतों का आराधक कब और कैसे बन सकता है ? इसका संक्षेप में संकेत दिया है। आराधक बनने का संक्षिप्त रूप इस प्रकार है-(१) पच्चीस भावनाओं से युक्त पंच महाव्रत हों, (2) शास्त्रानुसार चले, (3) कल्प (आचार-मर्यादा) के अनुसार चले, (4) मोक्ष-मार्गानुसार चले, (5) काया में सम्यक् स्पर्श (आचरण) करे, (6) किसी भी मूल्य पर महाब्रतों का पालन-रक्षण करे, (7) स्वीकृत ब्रत को पार लगाए (8) इनके महत्व का श्रद्धा पूर्वक कीर्तन करे / निष्कर्षः प्रस्तुत पन्द्रहवें अध्ययन में सर्वप्रथम प्रभु महावीर की पावन जीवन गाथाएं संक्षेप में दी गई हैं / पश्चात् प्रभु महावीर द्वारा उपदिष्ट श्रमण-धर्म का स्वरूप बताने वाले पाँच महाव्रत तथा उनकी पचीस भावनाओं का वर्णन है। पांच महाव्रतों का वर्णन इसी क्रम से दशवैकालिक अध्ययन 4 में, तथा प्रश्नव्याकरण संवर द्वार में भी है। पचीस भावनाओं के क्रम तथा वर्णन में अन्य सूत्रों से इसमें कुछ अन्तर है। यह टिप्पणों में यथास्थान सूचित कर दिया गया है / वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने भावनाओं का जो क्रम निर्दिष्ट किया है, वह वर्तमान में हस्तलिखित प्रतियों में उपलब्ध है, किंतु लगता है आचारांग चूर्णिकार के समक्ष कुछ प्राचीन पाठ-परम्परा रही है, और वह कुछ विस्तृत भी है / चूर्णिकार सम्मत पाठ वर्तमान में आचारांग को प्रतियों में नहीं मिलता, कितु आवश्यक चूणि में उसके समान बहुलांश पाठ मिलता है, जो टिप्पण में यथास्थान दिये हैं। सार यही है कि श्रमण पांच महाव्रतों का सम्यक्, निर्दोष और उत्कृष्ट भावनाओं के साथ पालन करें। इसी में उसके श्रमण-धर्म की कृतकृत्यता है / // पंचदशमध्ययनं समाप्तम् / / // तृतीय चूला संपूर्ण // 3. जे सद्द-रूव रस-गंध-मागते, फासे य स पप्प भणुण्णपावए / गेधि पदोसन करेति पँडिते, से होति दंते विरते अकिंचणे // 5 // --आव० 0 प्रति० पृ० 147 4. मनोज्ञामनोज्ञन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि च / " -तरवार्थ सर्वार्थसिद्धि अ०७१ सू० 8 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org