SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 740
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 620 287 618. साधु या साध्वी ऐसे अवग्रह स्थान को जाने, जिसमें गृहस्वामी यावत् उसकी नौकरानियां परस्पर एक दूसरे पर आक्रोश करती हों, लड़ती-झगड़ती हों, तथा परस्पर एक दूसरे के शरीर पर तेल, घी आदि लगाते हों, इसीप्रकार स्नानादि, शीतल सचित्त या उष्ण जल मे गासिंचन आदि करते हों या नग्नस्थित हो इत्यादि वर्णन शय्याऽध्ययन के आलापकों की तरह यहाँ समझ लेना चाहिए / इतना ही विशेष है कि वहाँ वह वर्णन शय्या के विषय में है, यहाँ अवग्रह के विषय में है / अर्थात् -इस प्रकार के किसी भी स्थान को अवग्रह-अनुज्ञा ग्रहण नहीं करनी चाहिए। 616. साधु या साध्वी ऐसे अवग्रह-स्थान को जाने जिस में अश्लील चित्र आदि अंकित या आकीर्ण हों, ऐसा उपाश्रय प्रज्ञावान् साधु के निर्गमन-प्रवेश तथा वाचना से धर्मानुयोग चिन्तन तक (स्वाध्याय) के योग्य नहीं है / ऐसे उपाश्रय की अवग्रह-अनुज्ञा एक या अधिक बार ग्रहण नहीं करनी चाहिए। विवेचन-अन्याह-ग्रहण के अयोग्य स्थान--सूत्र 612 से 616 तक आठ सूत्रों से अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करने के लिए अयोग्य, अनुचित, अकल्पनीय, अशान्तिजनक एवं कर्मबन्धजनक स्थानों का शय्याऽध्ययन में उल्लिखित क्रम से उल्लेख किया है एवं उन स्थानों के अवग्रहयाचन का निषेध किया है।' इन सूत्रों का वक्तव्य एवं आशय स्पष्ट है / पहले वस्त्रषणापिण्डषणा-शय्या आदि अध्ययनों के सूत्र 353, 576, 577, 578, 420, 448, 446, 450, 451, 453, 453, 454 आदि सूत्रों में इसी प्रकार का वर्णन आ चुका है, और वहां उनका विवेचन भी किया जा चुका है। 620. एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणोए वा सामग्गियं जं सवट्ठोहि [समिते सहिते सदा जएज्जासि त्ति बेमि] / 620. यही (अवग्रह-अनुज्ञा-ग्रहण विवेक ही) वास्तव में साधु या साध्वी का समग्र आचार सर्वस्व है, जिसे सभी प्रयोजनों एवं ज्ञानादि से युक्त, एवं समितियों से समित होकर पालन करने के लिए वह सदा प्रयत्नशील रहे / ' ---ऐसा मैं कहता हूँ। // प्रथम उद्देशक समाप्त // 1. आचारांग मूलपाठ एवं वृत्ति पत्रांक 404 के आधार पर / 2. आवारांग (मूलपाठ टिप्पणी सहित) पृ० 221, 222 3. इसका विवेचन सु० 334 में किया जा नुका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy