________________ आचारांग (प्रथम श्रुतस्कंध) पर मनीषी विद्वानों के अभिप्राय ....आचारांग सूत्र मिला / सम्पादक श्रीचन्द सुराना धन्यवादाह हैं, कि इतने कम समय में उन्होंने आचारांग का अनुवाद-विवेचन प्रस्तुत कर दिया / इसकी विशेषता जो देखी गई, वह यह है कि उन्होंने चूर्णि और टीका का पूरा उपयोग करके ही नहीं, किन्तु आकयक निर्देश देकर विवेचन को समृद्ध बनाया है। पूज्य देवेन्द्रमुनि जी की प्रस्तावना मैंने शब्दशः पढ़ी। इनका विशाल अध्ययन और विवेचन-शक्ति पूरी तरह से प्रस्तावना में स्पष्ट दिखाई देती है। आशा करता हूं कि आचारांग का यह संस्करण केवल स्थानकवासी समाज में ही नहीं, किन्तु समय जैन-जेनेतर जिज्ञासुओं की श्रद्धा का भाजन बनेगा। पूज्य युवाचार्य जी महाराज ने अपने संयोजकत्व में आप (भारिल्ल जी) सबका सहयोग लेकर एक उत्तम कार्य किया है उसके लिए उन्हें जितना धन्यवाद दें, कम है। -दलसुख भाई मानर्वाणया, महमदाबाद o आचारांग प्रथम श्रुतस्कंध का विवेचन देखा, प्रथम पृष्ठ उलट-पुलट कर जैसे ही आगे बढ़ा, मन उसी में रम गया / विवेचन हॉली बड़ी सुन्दर, सारपूर्ण और रोचक हैं / चूणि के आधार पर अनेक नये अर्थों का उद्घाटन, पाठान्तरों से ध्वनित होते भिन्नार्थ और उनका मूल के साथ हिन्दी भावार्थ प्रस्तुत करने की अभिनव योजना वस्तुतः श्रीचन्द जी सुराना की प्रतिभा व सम्पादन-कौशल का चमत्कार हैं। मनीषी प्रवर युवाचार्य श्री जी महाराज के प्रधान सम्पादकत्व में आगमों का सम्पादन, विवेचन, प्रकाशन स्थानकवासी जैन समाज के लिए ही नहीं, सम्पूर्ण प्राच्य विद्याप्रेमी तत्वजिज्ञासुओं के लिए प्रसन्नता का विषय है।.... -उपाध्याय पुष्करमुनि (उदयपुर) 0....आचारांग सूत्र के अभी तक जितने भी संस्करण दृष्टिगोचर हुए हैं उन सब की अपेक्षा प्रस्तुत सम्पादन (श्रीचन्द जी सुराना-कृत) अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण कहा जा सकता है। भाव, भाषा, शैली की दृष्टि से यह अत्यन्त प्रभावशाली है, किन्तु इसकी सर्वाधिक विशेषता है आचार-शास्त्र की गुरु-ग्रन्थियों को सुलझाने में विट्वान सम्पादक ने इसके प्राचीनतम व्याख्या ग्रंथों का आधार लेकर महत्वपूर्ण टिप्पण स्थान-स्थान पर अंकित किये हैं। प्रस्तुत संस्करण साधारणजन से लेकर विद्वज्जन तक ग्राह्य एवं संग्रहणीय है। इस सुन्दर सम्पादन के लिए इसके सम्पादक एवं विवेचक लब्ध-प्रतिष्ठ लेखक श्रीचन्द जी सुराना को मैं धन्यवाद देता हूं कि उन्होंने विशद दृष्टिकोण के साथ अपने गुरुतर दायित्व को पूरा करके आगम-प्रकाशन की परम्परा में अपना कीर्तिमान स्थापित किया है। मुझे आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि भविष्य में भी उनकी लेखनी से प्रसूत-सम्पादित आगम साधकों के लिए उपयोगी सिद्ध होंगे। -विजयमुनि शास्त्री, 23-6-80 0श्री आगम प्रकाशन समिति (व्यावर) द्वारा प्रकाशित आचारांग सूत के प्रथम श्रुतस्कंध को उलट-पुलट कर देखा, मुझे उसमें आँचन्द जी सुराना 'सरस' कं बॉद्धिक परिश्रम के प्रत्यक्ष दर्शन हुए। आचारांग (प्रथमश्रुतस्कंध) का स्थ जैन आगमों में बहुत महत्वपूर्ण है। उसकी भाषा अन्य आगमों की भाषा से कुछ भिन्न हैं, वर्णन हॉली भी कुछ है। छोटे-छोटे वाक्यों में गुम्फित अर्थ गाम्भीयं वस्तुतः विस्मय कर देने वाला है। पाठानुसारी अनुवाद तथा नाति-संक्षिप्त, नाति-विस्तृत विवेचन इस ग्रंथ की अपनी विशेषता है। पाठक को दार्शनिक एवं आध्यात्मिक विवेचन की दुरूहता का सामना भी नहीं करना पड़ता / वह आगम के सामान्य अर्थ का सहज सुधा-पान करता हुआ आगे बढ़ सकता है 'सरस' जी का यह अम जन-मानस को आगम ज्ञान की ओर उन्मुख करेगा, ऐसा विश्वास है। -कुनि बुद्धमल्ल 4-7-80 JBIRECIEationinteri आवरण पृष्ठ के मुद्रक : शैल प्रिन्टर्स, १८/२०३-ए, (निकट बसन्त सिनेमा) माईथान, आगरा-२८२००३ melbrary ore