________________ वस्त्रैषणा : पंचम अध्ययन प्राथमिक * आचारांग सूत्र (द्वितीय श्रु तस्कन्ध) के पंचम अध्ययन का नाम 'वस्त्रैषणा' है। * जब तक वस्त्र-रहित (अचेलक) साधना की भूमिका पर साधक नहीं पहुंच जाता, तब तक वह अपने संयम के निर्वाह एवं लज्जा-निवारण' के लिये वस्त्र-ग्रहण या धारण करता है, किन्तु वह जो भी वस्त्र-धारण करता है, उस पर उसकी ममता- मूर्छा नहीं होनी चाहिए। 2- चूर्णिकार के मतानुसार भाव-वस्त्र (अष्टादशसहस्रशीलांग = संयम) के रक्षणार्थ तथा शीत-दंश-मशक आदि से परित्राण के लिए द्रव्यवस्त्र रखने का प्रतिपादन किया गया है। अतः वस्त्र ग्रहण-धारण जिस साधु को अभीष्ट हो, उसे विविध एषणा (गवेषणा; ग्रह]षणा; परिभोगैषणा) का ध्यान रखना आवश्यक है, अन्यथा वस्त्र का ग्रहण एवं धारण भी अनेक दोषों से लिप्त हो जाएगा। र इन्हीं उद्देश्यों के विशद स्पष्टीकरण के लिए 'वस्त्रैषणा अध्ययन' प्रतिपादित किया गया है। - वस्त्र दो प्रकार के होते हैं-भाव-वस्त्र और द्रव्य-वस्त्र / भाव-वस्त्र अठारह हजार शीलांक हैं अथवा दिशाएं या आकाश भाव-वस्त्र हैं। 25 द्रक्ष्य-वस्त्र तीन प्रकार का होता है-१. एकेन्द्रियनिष्पन्न (कपास. अर्कतूल, तिरीड़ वृक्ष की छाल, अलसी, सन (पटसन) आदि से निर्मित), 2. विकलेन्द्रिय निष्पन्न (चीनांशुक, रेशमीवस्त्र आदि), और 3. पंचेन्द्रियनिष्पन्न (ऊनीवस्त्र, कंबल आदि)। " इस अध्ययन में वस्त्र किस प्रकार के, कैसे, कितने-कितने प्रमाण में, कितने मूल्य तक 1. 'तं पि संजम-लज्जट्ठा धारंति परिहरंति य।' –दशवै० अ०६ मा० 20 2. भाववत्थ संरक्षणार्थ दब्ववत्थेसणाहिगारो। सीद-दंस-मसगादीणं च परित्राणार्थ / --आ० चू० मू० पा० टि० 201 3. आचारांग वृत्ति पत्रांक 362 / 4. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 362 / (ख) आचारांम नियुक्ति गा० 315 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org