________________ पंचम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 584-86 दे। यह सब देख कर अन्य कोई साधु यदि जान-बूझकर (वस्त्र को हड़पने की नीयत से) वस्त्र की याचना करके दूसरे गांव जाकर उस वस्त्र को खराब करता है और सोचता है कि इस तरकीब मे वस्त्र मुझे मिल जाएगा तो ऐसा करनेवाला साधु मायाचार का सेवन करता है। साधु को ऐसा नहीं करना चाहिए / यही प्रस्तुत सूत्रद्वय का आशय है।' बस्त्र के लोभ तथा अपहरण-भय से मुक्ति 584. से भिक्खू वा 2 णो वण्णमंताई वत्थाई विवण्णाई करेज्जा, विवण्णाई वण्णमंताई ण करेज्जा, अण्णं वा वत्थं लभिस्सामि त्ति कट्ट नो अण्णमण्णस्स देज्जा, नो पामिच्चं कुज्जा, नो वस्थेण वत्थपरिणामं करेज्जा, नो परं उवसंकमित्तु एवं वदेज्जा-आउसंतो समणा! अभिकंससि वत्थं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ? थिरं वा णं संतं णो पलिछिदिय 2 परिवेज्जा, जहा मेयं वत्थं पावगं परो मण्णइ, परं च णं अदत्तहारो पडिपहे पेहाए तस्स वत्थस्स गिदाणाय णो तेसि भीओ उम्मग्गेणं गच्छेज्जा जाव अप्पुस्सुए' जाव ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा। 585. से भिक्खू वा 2 गामाणुगाम दूइज्जमाणे अंतरा से विहं सिया, से ज्जं पुण विहं जाणेज्जा-इमंसि खलु विहंसि बहवे आमोसगा वत्थपडियाए संपडिया' [ss] गच्छेज्जा, गो तेसि भीओ उम्मग्गेण गच्छेज्जा जाव गामाणुगामं दूइज्जज्जा। 586. से भिक्खू वा 2 गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से आमोसगा संपडिया [s] गच्छेज्जा, ते णं आमोसगा एवं वदेज्जा आउसंतो समणा ! आहरेतं वत्थं, देहि, णिक्खिवाहि, जहा रियाए, णाणत्तं वत्थपडियाए। 1. (क) आचारांग चूणि मू० पा० टिप० 210 (ख) आचारांग वत्ति पत्रांक 36. .. यहाँ 'अभिकखसि वत्थं ....' के बदले 'अभिकखसि मे वत्थं' तथा 'समभिकखसि बत्थं .......' पाठान्तर है। अर्थ प्राय: समान है। 3. 'जहा मेयं वत्यं' के बदले 'जहा वय वत्थं' पाठान्तर है। 4. चूणिकार के मतानुसार अदत्तहारी के आलापक ईर्याऽध्ययन की तरह हैं ---(अदत्तहारी आलाबगा जहा रियाए) यहीं वस्त्रषणाऽध्ययन समाप्त हो जाता है--(इति वस्त्रषणा परिसमाप्ता)। 5. अप्पुस्सुए के आगे ‘जाद' शब्द 'अप्पुस्सुए' से 'ततो संजयामेव' तक के पाठ का सूचक है, सू० 4-2 के अनुसार। 'संपडियाऽऽगच्छेज्जा' के बदले पाठान्तर हैं----संपिडि आगन्छेज्जा, संपिडियागच्छेज्जा / अर्थ एक समान है। 7. यहाँ 'जाव' शब्द से 'गच्छेज्जा' से 'गामाणुगाम' तक का समग्र पाठ सू० 515 के अनुसार समझें। 8. 'जहारियाए' शब्द 'णिक्खिवाहि के आगे समन पाठ का सूचक है, ईअिध्ययन के सू० 517 के अनुसार समझें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org