________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध धर्मवान् वह है--जो श्रुत-चारित्ररूप धर्म का अथवा साधना की दृष्टि से आत्मा के स्वभाव (धर्म) का ज्ञाता) है।' ब्राह्मवान् का अर्थ है---जो अठारह प्रकार के ब्रह्मचर्य से सम्पन्न है।' इस सूत्र का प्राशय यह है कि जो पुरुष शब्दादि विषयों को भलीभाँति जान लेता है, उनमें राग-द्वेष नहीं करता, वह प्रात्मवित्, ज्ञानवित्, वेदवित्, धर्मवित् एवं ब्रह्मवित् होता है। वस्तुत: शब्दादि विषयों की आसक्ति, आत्मा की अनुपलब्धि अर्थात् प्रात्म-स्वरूप के बोध के अभाव में होती है। जो इन पर आसक्ति नहीं रखता, वही प्रात्मा की भलीभाँति उपलब्धि कर लेता है / जो आत्मा को उपलब्ध कर लेता है, उसे ज्ञान-पागम, धर्म और ब्रह्म (आत्मा) का ज्ञान हो जाता है। 'जो प्रज्ञा से लोक को जानता है, वह मुनि कहलाता है', इस वाक्य का तात्पर्य है, जो साधक मति-श्रुतज्ञानजनित सद्-असद् विवेकशालिनी बुद्धि से प्राणिलोक या प्राणियों के प्राधारभूत लोक (क्षेत्र) को सम्यक् प्रकार से जानता है, वह मुनि कहलाता है / वृत्तिकार ने मुनि का निर्वचन इस प्रकार किया है-'जो जगत् की त्रिकालावस्था-गतिविधि का मनन करता है, जानता है, वह मुनि है' / 'ज्ञानी' के अर्थ में यहाँ 'मुनि' शब्द का प्रयोग हुआ है। ऋजु का अर्थ है-जो पदार्थों का यथार्थस्वरूप जानने के कारण सरलात्मा है, समस्त उपाधियों से या कपट से रहित होने से सरल गति-सरल मति है। आवर्त स्रोत का प्राशय है--जो भाव-यावरी का स्रोत-उद्गम है। जन्म-जरा-मृत्युरोग शोकादि दुःखरूप संसार को यहां भाव-आवर्त (भंवरजाल) कहा गया है। इसका उद्गम स्थल है-विषयासक्ति / 1. 'धर्मवित्' का व्युत्पत्त्यर्थ देखिये--'धर्म चेतनाचेतनद्रव्यस्वभावं श्रुतचारित्ररूप वा वेत्तीति धर्मवित्' "जो धर्म को-चेतन-अचेतन द्रव्य के स्वभाव को या श्रत-चारित्ररूप धर्म को जानता है, वह धर्मवित् है / ' -प्राचा० टीका० पत्रांक 139 2. (क) समवायांग 18 / (ख) दिवा कामरइसुहा तिविहं तिविहेण नवविहा विरई। ___ ओरालिया उ वि तहा तं बंभं अट्ठदसमेयं // अर्थात् -देव-सम्बन्धी भोगों का मन, वचन और काया से सेवन न करना, दूसरों से न कराना तथा करते हुए को भला न जानना, इस प्रकार नौ भेद हो जाते हैं / औदारिक अर्थात् मनुष्य, तियंञ्च सम्बन्धी भोगों के लिए भी इसी प्रकार नौ भेद हैं। कुल मिलाकर अठारह भेद हो जाते हैं। 3. देखे टिप्पण पृ० 85 –(प्रवचनसारोद्धार, द्वार 168 गाथा 1061) 4. रागद्वषयशाविद्ध, मिथ्यावर्शनदुस्तरम् / / जन्मावत जगत् क्षिप्त, प्रमावाद् साम्यते भृशम् / / अर्थात्-राग-द्वेष की प्रचण्ड तरंगों से घिरा हुना, मिथ्यादर्शन के कारण दुस्तर यह जगत् जन्ममरणादि रूप पावर्त-भंवरजाल में पड़ा है / प्रमाद उसे अत्यन्त परिभ्रमण कराता है। --आचाटीका पत्रांक 140 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org