________________ 168 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध वा णूमाणि वा वलयाणि वा गहणाणि वा गहणविदुग्गाणि वा वणाणि वा वणविदुग्गाणि वा पव्वताणि वा पवितविदुग्गाणि वा अगडाणि वा तलागाणि वा दहाणि वा णदीओ वा वावीओ वा पोक्खरणीओ वा दोहियाओ वा गुंजालियाओ वा सराणि वा सरपंतियाणि वा ; सरसरपंतियाणि वा णो बाहाओ पगिज्झिय 2 जाव णिज्झाएज्जा / केवलो बूया--आयाणमेयं / जे तत्थ मिगा वा पसुया' वा पक्खी वा सरीसिवा वा सोहा वा जलचरा वा थलचरा वा खहचरा वा सत्ता ते उत्तसेज्ज वा, वित्तसेज्ज वा, वाडं वा सरणं वा कंखेज्जा, चारे ति में अयं समणे / ___अह भिक्खूणं पुन्बोदिट्ठा 4 जं णो बाहाओ पगिझिय 2 जाव णिज्झाएज्जा। ततो संजयामेव आयरिय-उवज्झाहि सद्धि गामाणु गामं दूइज्जेज्जा / 504. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भिक्षु या भिक्षुणी मार्ग में आने वाले उन्नत भू साहातो य लगति, वणं =एगरुक्खजाइयं वा, वण्णदुग्गं नामाजातीहि रुक्खेहि, पव्वतो-एव पव्वतो पन्वयाणि वा (मागधभासाए णपुंसगवतणय )पुन्वयदुग्गाई-बहू पव्वता, अगड-तलाग-दहा अणेगसंठिता, णदी--पउरपाणिया, वावी-बदा मल्लगमूला व, पुक्खरिणी-चउरसा, सरपंतिया-पतियाए ठिता. सरसरपंतिया-पाणियस्स इमम्मि भरिते इमा वि भरिज्जति, परिवाडीए पाणियं गच्छति / --- अर्थात् कच्छाणि= जैसे नदी के नीचे भाग कच्छ होते हैं, दवियं-स्वर्ण के चक्रों से युक्त गृह, वलयं =नदी से वेष्टित नगर, म = भूमिगृह, गहणं - गंभीर-गहरा जिसमें चक्रवर्ती की सेना ऊपर तक समा जाए। वर्ग:= जिसमें एक जाति के वृक्ष हों, वणदुग्गं वह, जिसमें नाना जाति के वृक्ष हों, पब्वयाणि वा-- पर्वत शब्द का बहुवचन, (मागधी भाषा में नपुंसकलिंग हो जाता है)पन्वयम्गाइ=बहुत से पर्वतों के कारण दुर्गम, अगड-तलाग-दहा -- कुंआ, तालाब झील-ये विभिन्न आकार वाले जलाशय हैं। नदी--- जिसमें प्रचुर पानी हो, वावी- गोलाकार वापी अथवा सकोरे का आकार जिसके मूल में हो, पुक्खरिणी चौकोन बावड़ी, सरपंतिया=पंक्तिबद्ध सरोवर, सरसरपंतिया--एक के बाद एक, अनेक सरोबरों की पंक्तियां, एक के भर जाने पर दूसरा भी भर जाता है, अनक्रम से पानी क के बाद दूसरे में जाता है। 1. 'पसुया वा' के स्थान पर पाठान्तर है-'परवा', 'पसयाणि वा' / अर्थ एक-सा है। 2. 'खहचरा' के स्थान पर पाठान्तर है-खचरा' अर्थ समान है। 3. उत्तसेज्ज वा वित्तसेज्ज वा आदि पदों का भावार्थ चणिकार ने इस प्रकार दिया है--'उत्तसणं ईषत, वित्तसणं अणेगप्रकार, वार्ड नस्सति, सरणं मातापितिमुलं गच्छति जवा जस्स सरणं, जहा मियाणं गहणं दिसा ब सरणं, पक्खीणं आगास सिरिसवाणं बिलं / अंतराइयं अधिगरणादयो दोसा।'- अर्थात्-उत्तसणं थोड़ा त्रास. वित्तसणं =अनेक प्रकार का त्रास, वार्ड-बाड नष्ट कर देते हैं। सरणं-माता-पिता का मूल शरण होता है, अथवा जिसमें जिसका जन्म होता है, वही उसका शरण होता है। उसी की शरण में वह जाता है। जैसे-हरिणों का शरण महन बन या दिशाएँ है। पक्षियों का आकाश है, साँपों का शरण बिल है। अंतराइयं जो अधिकरण आदि दोष के कारण होता है। 4. यहाँ जाव शब्द सू० 504 के अनसार पगिज्सिय' से लेकर णिसाएज्जा' तक के पाठ का सूचक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org