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________________ 160 आचारांग सूत्र---द्वितीय श्रु तस्कन्ध विवेचन-नौकारोहण : धर्मसंकट और सहिष्णुता-पिछले आठ सूत्रों में नौकारोहण करने पश्चात् आने वाले धर्मसंकट और उससे पार होने की विधि का वर्णन किया गया है। नौकारूढ़ मुनि पर आने वाले धर्मसंकट इस प्रकार के हो सकते हैं--(१) नौकारूढ़ मुनि को मुनिधर्मोचित मर्यादा से विरुद्ध कार्य के लिए कहें, (2) मौन रहने पर वे उसे भला-बुरा कह कर पानी में फेंक देने का विचार करें, (3) मुनि उन्हें वैसा न करने को कुछ कहे-समझाए उससे पहले ही वे उसे जबरन पकड़ कर जल में फेंक दें। इन संकटों के समय मुनि को क्या करना चाहिए इसका विवेक शास्त्रकार ने इस प्रकार दिया है--(१) मुनि, धर्म-विरुद्ध कार्यों को स्वीकार न करे, चुपचाप बैठा रहे, (2) जल में फेंक देने की बात कानों में पड़ते ही मुनि अपने सारे शरीर पर वस्त्र लपेटने की क्रिया करे (3) मुनि के मना करने और समझाने पर भी जबर्दस्ती उसे जल में फेंक दें तो वह मन में जल-समाधि लेकर शीघ्र ही इस कष्ट से छुटकारा पाने का न तो हर्ष करे, न ही डूबने का दुःख करे, न ही फेंकने वालों के प्रति मन में दुर्भावना लाए, न मारने-पीटने के लिए उद्यत हो। समाधिपूर्वक जल में प्रवेश करे। जल प्रवेश के बाद मुनि क्या करे. क्या न करे? इसकी विधि सूत्र 487 से 461 तक पाँच सूत्रों में भली भांति बता दी है। अहिंसा, संयम, ईर्यापथप्रतिक्रमण और आत्मसाधना की दृष्टि से ये विधि-विधान अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।' 'पज्जेहि' आदि पदों के अर्थ---पज्जेहि पानी पिलाओ, परिणं परिज्ञा (निवेदन) या प्रार्थना 'भण्डभारिए = निर्जीव वस्तुओं की तरह निश्चेष्ट होने से भारभूत है। उब्वेढेज्ज= निरुपयोगी वस्त्रों को खोलकर निकाल दे, णिग्वेढेज्ज-उपयोगी वस्त्रों को शरीर पर अच्छी तरह बाँध कर लपेट ले, उपस वा करेज्जा=सिर पर कपड़े लपेट ले। (यह विधि स्थविरकल्पी के लिए हैं, जिनकल्पी के लिए उप्फेसीकरण का विधान है, यानी वह सिर आदि को बोने की तरह सिकोड़ कर नाटा कर ले / अभिक्कतकरफम्मा-ऋ र कर्म के लिए उद्यत, बलसाबलपूर्वक, विसोहेज-त्याग दे, संलिहेज्ज णिलिहेज्ज =न थोड़ा-सा घिसे, न अधिक घिसे / ईया-समिति विवेक 462. से भिक्खू वा 2 गामाणुगाम दूइज्जमाणे णो परेहि सद्धि परिजविय 2 गामाणगामं दूइज्जेज्जा / ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा। 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 376 के आधार पर 2. (क) वही, पत्रांक 376-380 (ख) आचारांग चूणि मूलपाठ टिप्पण पृ० 178-176-180 (ग) पाइअसद्दमहण्णवो 3. 'परेहि सदि परिजविय' का आशय चर्णिकार ने इस प्रकार व्यक्त किया-परे-मिहत्था अण्ण उत्थिता वा, परिजविय करतो, जातिधम्मं कहेंतो, संजम-आयविराहणा तेणएहि वा धेप्पेज्जा।" अर्थात्--पर यानी गृहस्थ या अन्यतीथिक / उनके साथ बकवास करने से अथवा जाति-धर्म कहने से। ऐसा करने से संयम और आत्मा की विराधना होती है, चोरों के द्वारा भी पकड़ लिया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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