________________ आचारांग सूत्र--द्वितीय श्रु तस्कम्ध भिक्खुपडियाए छट्वेण वा दूसेण वा वालगेण वा अवोलियाण परिपोलियाण परिस्साइयाण' आहट्ट क्लएज्जा। तहप्पगारं पाणगजायं अफासुर्य लाभे संते णो पडिगाहेज्जा / 373. गृहस्थ के घर में पानी के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि इस प्रकार का पानक जाने, जैसे कि आम्रफल का पानी, अंबाडक (आम्रातक), फल का पानी, कपित्थ (कैथ) फल का पानी, बिजौरे का पानी, द्राक्षा का पानी, दाड़िम (अनार) का पानी, खजूर का पानी, नारियल (डाभ) का पानी, करीर (करील) का पानी, बेर का पानी, आँवले के फल का पानी, इमली का पानी, इसी प्रकार का अन्य पानी पानक) है, जो कि गुठली सहित है, छाल आदि के सहित है, या बीज सहित है, और कोई असंयत गृहस्थ साधु के निमित्त बाँस की छलनी से, वस्त्र से, गाय आदि के पूँछ के बालों से बनी छलनी से एक बार या बार-बार मसल कर, छानता है और (उसमें रहे हुए छाल, बीज, गुठली आदि को अलग करके) लाकर देने लगता है, तो साधु-साध्वी इस प्रकार के पानक (जल) को अप्रासुक और अनेषणीय मान कर मिलने पर भी न ले। विवेचन-आम्र आदि का पानक ग्राह्य या अग्राह्य ? आम आदि के फलों को धो कर, या उनका रस निकालते समय बार-बार हाथ लगाने से जो धोवन पानी तैयार होता है, उस पानी के रंग, स्वाद, गंध और स्पर्श में तो परिवर्तन हो जाता है, इसलिए वह प्रासुक होने के कारण ग्राह्य हो जाता है, किन्तु उस पानी में यदि इन फलों की गुठली, छिलके, पत्ते, बीज आदि पड़े हों, अथवा कोई भावुक गृहस्थ उस पानी में पड़े हुए गुठली आदि सचित्त पदार्थों को साधु के समक्ष या उसके निमित्त मसलकर तथा छलनी कपड़े आदि से छानकर सामने लाकर देने लगे तो वह प्रासुक पानक भी सचित्त संस्कृष्ट या आरम्भ-जनित होने से अप्रासुक एवं अग्राह्य हो जाता है। द्राक्षा, ऑवला, इमली एवं बेर आदि का कई पदार्थों को तो तत्काल निचोड़ कर पानक बनाया जाता है। वृत्तिकार कहते हैं कि ऐसा पानक (पानी) उद्गम (16 उद्गम) दोषों से दूषित होने के कारण अनेषणीय है / आधाकर्म आदि 16 उद्गम दोष दाता के द्वारा लगाए जाते हैं। इनको यथायोग्य समझ लेना चाहिए।' चाणकार ने इन तीनों क्रियाओं का अर्थ इस प्रकार किया है--- आवोलेती एक्कंसि, परिपोलेति बहसो, परिसएति गालेति / अर्थात एक बार मर्दन करने को 'आपील' बार-बार मदन करने को 'परिपील' और छानने को 'परिसए' कहते हैं। 2. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 346 के आधार पर। (ख) एषणा दोषों का वर्णन सूत्र, 324 पृष्ठ 8 पर देखें। (ग) तुलना कीजिए--"कविठू माउलिंग च, मूलगं मूलगत्तियं / आमं असत्थपरिणयं, मणसा वि न पत्थए // " -दसवै० // 223 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org