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________________ प्रथम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 15 11 हेय-उपादेय बुद्धि का अभाव', अज्ञान, विपरीतबुद्धि, मूढ़ता, चित्त की व्याकुलता, मिथ्यात्व तथा कषायविषय आदि की अभिलाषा, यह सब मोह है। ये सब 'मोह' शब्द के विभिन्न अर्थ हैं / सत्य तत्व को अयथार्थ रूप में समझना दर्शनमोह, तथा विषयों को संगति (आसक्ति) चरित्रमोह है। धवला (81283 / 9) के अनुसार भाव ग्रन्थ के 14 भेद मोह में हो सम्मिलित हैं। उक्त सभी प्रकार के भाव, हिंसा के प्रबल कारग हैं, अतः स्वयं हिसा भी है / _ 'मार' शब्द मृत्यु के अर्थ में ही प्रायः प्रयुक्त हुआ है। बौद्ध ग्रन्थों में मृत्यु; काम का प्रतीक तथा क्लेश के अर्थ में 'मार शब्द का प्रयोग हुना है। ___ 'नरक' शब्द पापकमियों के यातनास्थान के अर्थ में ही आगमों में प्रयुक्त हना है / सुत्रकृतांगटोका में 'नरक' शब्द का अनेक प्रकार से विवेचन किया गया है। अशुभ रूप-रसगन्ध-शब्द-स्पर्श को भी नोकर्म द्रव्यनरक माना गया है / नरक प्रायोग्य कर्मों के उदय (अपेक्षा से कर्मोपार्जन की क्रिया) को भावनरक' बताया है। हिंसा को इसी दष्टि से नरक कहा गया हैं कि नरक के योग्य कर्मोपार्जन का वह सबमे प्रबल कारण है, इतना प्रबल, कि वह स्वयं नरक ही है / हिंसक की मनोदना भी नरक के समान क्रूर व अशुभतर होती है / 10 . पृथ्वोकायिक जीवों का वेदना-बोध १५-से बेमिअप्पेगे अंधमन्भे, अप्पेगे अंधमच्छे, अप्पेगे पादमब्मे, अप्पेगे पादमच्छ, अखेगे गुप्फमदभे, अप्पेगे गुप्फमच्छे, अप्पेगे जंघमन्भे, अप्पेगे जंघमच्छे, अप्पेगे जाणमब्भे, अप्पेये जाणुमच्छे, अप्पेगे ऊरमभे, अप्पेगे ऊरुमच्छे, अप्पेगे कडिमब्मे, अप्पेगे कडिमच्छे, अप्पेगे णाभिमन्भे, अप्पेगे णाभिमच्छे, अप्पेगे उदरभरभे, अप्पो उदरमच्छे, अप्पेगे परमले, अप्पे पासमच्छे, अप्पेगे पिहिमभे, अप्पेगे पिदुमच्छे अप्पेगे उरमन्भे, अप्पेगे उरमच्छ, अप्पेगे हिययमबभे, अप्पेगे हिय मच्छे, अप्येगे थणमब्भे, अप्पेगे थणमच्छे, अप्पेगे खंवमन्भे, अप्पेगे खंधमच्छे, अप्पेगे बाहुमन्भे, अप्पेगे बाहमच्छे, अप्पेगे हत्थबभे, अप्पेगे हत्थच्छे, अप्पेगे अंगुलिमन्भे अप्पेगे अंगुलिमच्छे, अप्पेगे जहमन्भे अप्पेगे णहमच्छ, अप्पेगे गीवमन्भे, अप्पेगे गीवमच्छे, अप्पेगे हणुयमन्भे, अप्पेगे हणुयमच्छे, अप्पेगे होटुमब्भे, अप्पेगे होटुमच्छे, अप्पेगे दंतमम्भे, अप्पेगे दंतमच्छे, अप्पेगे जिब्भभन्भे, अपेगे जिब्भमच्छे, 1. उत्तराध्ययन 3 // 2. वही। 3. विशेषावश्क (अभि. रा. मोह' शब्द) 4. ज्ञाता 18 5. सूत्रकृतांग 1, अ. 4 उ. 1 गा. 31 6. प्राचा० शी टीका 7. प्रवचनसार 85 8. प्रागम और त्रिपि० 667 1. (अ) पापकमिणां यातनास्थानेषु --सूत्र० वृति 21 (ख) राजवार्तिक 2050 / 2-3 10. सूत्रकृतांग, 11531 नरकषिभक्ति अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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