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________________ चतुर्दश अध्ययन : सूत्र 730-32 356 वहीं अन्योन्यक्रिया होती है। इसप्रकार की अन्योन्यक्रिया अकल्पनीय या अनाचरणीय गच्छ-निर्गत प्रतिमाप्रतिपन्न साधुओं और जिन (वीतराग) केवली साधुओं के लिए है। इसलिए यह अन्योन्यक्रिया गच्छनिर्गत साधुओं के उद्देश्य से निषिद्ध है। गच्छगत-स्थविरों को कारण होने पर कल्पनीय है। फिर भी उन्हें इस विषय में यतना करनी चाहिए।' गच्छनिर्गत प्रतिमाप्रतिपन्न, जिनकल्पी साधुओं के लिए इससे कोई प्रयोजन नहीं है। स्थविरकल्पी साधुओं के लिए विभूषा की दृष्टि से, अथवा वृद्धत्व, अशक्ति, रुग्णता आदि कारणों के अभाव में, शौक से या बड़प्पन-प्रर्शन की दृष्टि से चरण-सम्मार्जनादि सभी का नियमतः निषेध है, कारणवश अपनी बुद्धि में यतनापूर्वक विचार कर लेना चाहिए। निशीथ उ० 4 की चणि में स्पष्ट उल्लेख है कि 'जे भिक्खू अण्णमण्णस्स पाए आमज्जइ वा पमज्जइ वा' इत्यादि 41 सूत्रों का परक्रिया सप्तक अध्ययनवत् उच्चारण करना चाहिए। निशीथ (15) में विभूसावडियाए' पाठ है, अतः सर्वत्र विभूषा की दृष्टि से इन सबका निषेध समझना चाहिए। इन 41 सूत्रों को संक्षेप में इस प्रकार विभक्त किया जा सकता है-(१) पाद-परिकर्मरूप, (2) काय-परिकर्मरूप, (3) वण-परिकर्मरूप, (4) गंडादिपरिकर्मरूप, (5) मलनिष्कासनरूप, (6) केश-रोमपरिकर्मरूप, (7) लीख-यूकानिष्कासनरूप, (8) अंक-पर्यकस्थित पादपरिकर्मरूप. (6) अंक-पर्यंक स्थित-कायपरिकर्मरूप, (10) अंक-पर्यक स्थित व्रण परिकर्मरूप, (11) अंक-पर्यंक स्थित गंडादि परिकर्मरूप, (12) अंक-पर्यक स्थित मलनिष्कासन रूप, (13) अंक-पर्यकस्थित केश-रोमकतनादिपरिकर्मरूप, (14) अंक-पर्यकस्थित लीख-यूकानिष्कासनरूप, (15) अंक-पर्यकस्थित आभरणपरिधानरूप, (16) आराम, उद्यानादि में ले जाकर पादपरिकर्मरूप, (17) शुद्ध या अशुद्ध मंत्रादि बल से, सचित्त कंद आदि उखड़वा कर उनके द्वारा चिकित्सा रूप अन्योन्य परिचर्या रूप। ॥अन्योन्यक्रिया चौदहवां अध्ययन, सप्तम सप्तिका समाप्त / // द्वितीय चूला सम्पूर्ण // 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 817, आचा० चूणि मू. पा. टि. पु० 258 / देखें पृष्ठ 357 का टिप्पण संख्या 7 (ब)। 2. (क) वही पत्रांक 47 के आधार पर / (ख) निशीथ उ० चूणि 4, पृ० 262-267 / (ग) आचारांग चूणि मू० पा० टि० पृ० 258 - "विभूसा वडियाए विनियमा गमो सो चेव / 3. निशीथ उ० 15 चूर्णि। 4. आयार चूला (मुनिश्री नथमलजी द्वारा सम्पादित) पृ० 224 से 230 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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