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बनगार
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प्रायः जिस किसी भी स्वार्थमें शीघ्र ही अनिष्ट प्रवृत्ति करने लगता है उसी अपत्यवर्गका नियमतः पालन करने केलिये जिसका आग्रह प्रदीप्त हो उठा है ऐसे इस गतवयस्क-यौवन पारकर मध्य वयको प्राप्त हुए मनुष्यको बढती जाने वाली धनकी लिप्सासे न्यायकी तो बात ही क्या, स्वामिद्रोह मित्रद्रोह विश्वासघात चोरी आदि सैकड़ों अन्यायोंको भी करके किये गये कृषि पशुपालन आदि आजीविकाके उपाय दग्ध कर देते हैं।
कृषि पशुपालन और वाणिज्य इनसे दोनो भवोंकी भ्रष्टता होती है। यह दिखाते हैं:
यत्संभूय कृषीवलैः सह पशुप्रायैः खरं खिद्यते, यद्यापत्तिमयान् पशूनवति तदेहं विशन् योगिवत् । यन्मुष्णाति बसून्यसूनिव ठककरो गुरूणामपि,
भ्रान्तस्तेन पशूयते विधुरितो लोकद्वयश्रेयसः ॥ ७२ ॥ क्योंकि कृषिकर्म करनेमें यह गतवयस्क पुरुष उन किसानोंफे साथ मिलकर तीन खेद-परिश्रमको प्राप्त होता है जो बिलकुल पशुके समान हैं। क्योंक उनकी आहारादि संज्ञाएं पशुओंके ही सदृश हुआ करती हैं. इसी प्रकार पशुपालन करते समय जिस प्रकार आरब्धयोगवाला कोई योगी परपुरष प्रवेश किया करता है उसी तरह यह भी विविध प्रकारकी आपत्तियोंसे पूर्ण पशुओंकी, उनके शरीरमें घुस कर, रक्षा किया करता है ! एवं वाणि ज्यमें प्रवृत्त होकर ठगोंके समान क्रूरता धारण कर, औरोंकी तो बात क्या, गुरुओं-दीक्षा-चार्य माता पिता आदिकेभी, प्राणोंके समान धनका अपहरण करलेता है ! अत एव कृषि पशुपालन और वाणिज्य ये तीनो ही कर्म ,विपर्यस्त है बुद्धि जिसकी ऐसे इस गतवयस्क पुरुषको इस लोक और परलोक दोनो ही भवके कल्याणोंसे वियुक्त कर देते हैं और वह पशुके समान आचरण करने लगता है।
जो पुरुष धनमें लुब्ध होकर देशान्तरोंमें जाकर वाणिज्य करते हैं उनकी निन्दा करते हैं:
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बध्याय