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बनगार
. पैरोंका विक्षेप न करके अर्थात् दूसरी जगह भोजन के लिये न जाकर उस एक ही स्थानपर भोजन करनेवाले मुनिके एकस्थान नामका उत्तर गुण समझना चाहिये । और जिनका स्थान नियत नहीं है अर्थात् जो अनेक स्थानोंपर संचार करके एक जगह भोजन करते हैं उनके एकभक्त नामका मूलगुण समझना चाहिये । केशोत्पाटन नामके मूलगुणका लक्षण और फल बताते हैं:
नैःसङ्गयाऽयाचनाऽहिंसादुःखाभ्यासाय नाग्न्यवत् ।
हस्तेनोत्पाटनं श्मश्रुमूर्धजानां यतेर्मतम् ॥ ९ ॥ अपने हाथसे अपनी दाढीके और अपने शिरके बालोंका उखाडकर दूर करना इसीको संयमी साधुओंका परमागम-सूत्रमें केशलुंचन नाम का मूलगुण माना है। नम्रताके समान इसके भी चार फल मुख्यतया बताये हैं। यथा-नि:सङ्गता, याचना, अहिंसा और दुःखाम्यास ।
भावार्थ-मोक्षका आराधन करनेवाले अपनी आत्माको पूर्ण तया स्वायत्त बनानेका ही प्रयत्न किया करते हैं। अत एव उनकी कोई भी क्रिया ऐसी नहीं होती जो उन्हें पराधीन अवस्थाकी तरफ उन्मुख कर दे। इसी लिये वे वस्त्रादिका रंचमात्र भी परिग्रह धारण नहीं किया करते । रुपया पैसाका सम्बन्ध भी उनसे दूर ही रहता है। यदि वे स्वयं केशोत्पाटन न करके नाई आदिसे हजामत बनवावें तो उसके लिये उन्हे पैसा आदिका परिग्रह भी रखना ही पडेगा। ऐसी अवस्थामें उनकी निःसङ्गता कायम नहीं रह सकती । यदि वे नाईसे यों ही प्रार्थना करें तो लघुता प्राप्त होती है तथा याचनाके पर्थ जानेपर मानभग और अयाचक वृत्तिमें वाधा आदि अनेक दोष उपस्थित होते हैं। अपने भक्त पुरुषोंसे यदि याचना की जाय तो भी ये दोष आवेंगे। यदि केशोंका उत्पाटन न करके उनको यों ही कायम रखकर जटा बढाली जाय तो उनमें अनन्त सूक्ष्म बादर सम्मूर्छन जीवोंकी उत्पत्ति
और हिंसा होती है। और केशको निकालनेके लिये अपने पास कैंची छुरा आदि अस्त्र रक्खे जाय तो भी हिंसा साधन पास में रखने से अपरिग्रहतामें अपूर्णता और मावहिंसादिमें प्रवृत्ति होती है। सो अहिंमा महाव्रतके पालन करने वाले करुणा की मूर्ति दिगम्बर संयमियोंके लिये कैसे उचित हो सकता है। इसके सिवाय स्वयं ही केशोंका
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