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योग्य है, अन्यथा नहीं, इस भाव या प्रतिज्ञाका बोधन करानेकेलिये मुनिजन खडे होकर और अपने हाथोंसे भोजन करते हैं, यह पहला प्रयोजन | इसीके साथ दूसरा प्रयोजन यह भी है कि “ मैं बैठकर या पात्रके द्वारा अथवा अन्य व्यक्ति के हाथ से भोजन न करूंगा" इस प्रतिज्ञाका निर्वाह होता है। तीसरा प्रयोजन यह है कि भी जनकी शुद्धि पलती है। क्योंकि इसके लिये अपना हाथ सबसे अधिक शुद्ध हुआ करता है और अपने हाथ में रक्खे हुए भोजनका दृष्टि पूर्वक बहुत अच्छी तरह शेधिन किया जा सकता है। चौथा प्रयोजन दोषोंकी निवृत्ति है । अर्थात-अपने हाथसे भोजन करने कदाचित् अन्तराय आजाय तो अधिक भोजन का त्याग नहीं करना पडता । अन्यथा बहुतसी मोज्य सामग्रीसे मरी हुई सबकी सब थाली छोडनी पडेगी। और ऐसा होनेपर अवद्यदोष उपस्थित होंगे। पांचवां प्रयोजन संयमकी सिद्धि है। अर्थात इन्द्रियोंकी लोलुपताका कर्षण होकर और सूक्ष्म जीवोंकी या अपने चेतना प्राणकी रक्षा होकर इन्द्रिय संयम और प्राण संपमका पालन होता है । इन कारणांस ही खडे होकर और अपने हाथोंसे ही भोजन करनेका विधान किया गया है। यही बात औरों ने भी कही है, यथा:
यावन्मे स्थितिमोजनेस्ति दृढता पाण्योश्च संयोजने, भुञ्ज तापदईरहाम्यथ विधावेषा प्रतिज्ञा यते। कायेप्यस्पृहचेतसोन्यविधिषु प्रोल्लासिनः सन्मते.
ने बतेन दिवि स्वितिर्न नरके संपद्यते तद्विना । खडे होकर भोजन करनेकी विशेष विधि बताते हैं:
प्रक्षाल्य करौ मौनेनान्यत्रार्थाद् व्रजेद्यदैवाद्यात् ।
चतुरंगुलान्तरसमक्रमः सहाञ्जलिपुटस्तदेव भवेत् ॥ १४॥ भोजन के स्थानपर यदि कोडी आदि तुच्छ जीव जंतु चलते फिरते अधिक नजर पडें, या ऐसा ही कोई दूसरा निमित्त उपस्थित हो जाय तो संयमियों को हाथ धोकर वहांसे दूसरी जगहकेलिये आहारार्थ मौनपूर्वक चलेजाना चाहिये । इसके सिवाय जिस समय वे अनगार ऋषि भोजन करें उसी समय उनको अपने दोनों पैर
अन्याय
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