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अनगार
इदं सुरुचयो जिनप्रवचनाम्बुषेरुद्धृतं, सदा य उपयुञ्जते श्रमणधर्मसारामृतम् । शिवास्पदमुपासितक्रमयमाः शिवाशाधरैः,
समाधिविधुतांहप्तः कतिपयैवैर्यान्ति ते ॥ १..॥ ऊपर जिस अनगारधर्मका इस ग्रंथमें वर्णन किया गया है वह अपूर्व अमृतके समान है, जो कि श्री जिनेन्द्र भगवान्के प्ररूपित आगमरूपी समुद्रसे उद्धृत किया गया है। जो निर्मल सम्यक्त्वके धारण करनेवाले इस धर्मके अन्तस्तत्वका सुधाके समान सदा सेवन किया करते हैं, अतएव जिनके चरणयुगलकी इन्द्रदिक मी आराधना किया करते हैं, अथवा आत्मिक क्षेप-साक्षात् मोक्षकी आकांक्षा धारण करनेवाले मुनिगण और अन्य महान् पुरुष जिनके क्रम-आनुपूर्वी और यम-संयमकी उपासना किया करते हैं, जिन्होने समाधि-धर्मध्यान अथवा शु. क्लध्यानके द्वारा शुभ और अशुम कोंका अपनी आत्मासे पृथक्करण करदिया है, वे भव्यात्मा कुछ ही मवमें-कम से कम दो तीन या ज्यादेसे ज्यादे सात आठ मवमें शास्त्रतिक शिवसुखका सम्पादन किया करते है।
केवल शिवसुख-मोक्षकाही अभिप्राय रखका जिपने भन्यो-मुनियों अथवा देवोंकी तृप्ति के लिये जिनभगवान् के आगमरूपी क्षीर समुद्रका मंथन करके इस धर्मामृतको उध्दत किया है वे श्रीमान् आशाधर सदा जयवंते रहो । एवं वे मव्यात्मा हरदेव भी इस ग्रंथको वृद्धिंगत करते हुए सदा आनंदित रहे कि जिनके उपयोग के लिये उन्ही श्रीमान् आधाधरने इस टीकारूपी शक्तिकी सुखपूर्वक रचना की है।
इस तरह श्री आशाधर विरचित धर्मामृत ग्रंथके अनगार धर्म नामक पूर्व मागकी भव्यमदचंद्रिका नामकी स्वोपज्ञ टीकामें नित्य नैमित्तिक क्रियाओंका जिसमें वर्णन किया गया है ऐसा नौवो अपाय पूर्ण हुआ। इस प्रकार धर्मामृत ग्रंथके अनगार धर्मामृत नामक पूर्वार्षको टोका पूर्ण हुई।
मद्रम् ।
अध्याय