________________
अनगार
१३.
भक्त्या युङ्क्ते क्रिया यो यतिस्थ परमः श्रावकोन्योथ शक्त्या। स श्रेय:पवित्रमाप्रत्रिदशनासुखः साधुयोगोज्झिताङ्गो,
भव्यः प्रक्षीणकर्मा व्रजति कतिपयैर्जन्मभिर्जन्मपारम् ॥ ९९ ॥ पूर्वोक्त रीति इस अध्यायमें जिन नित्य और नैमित्तिक क्रियाओंका वर्णन किया गया है वे सब सत्यभूत कृतिकर्म नामके अङ्गबाह्य श्रुतमें अच्छी तरह बताई हैं। उसीके आधारसे यहांपर भी ये बताई गई है। अत एव सर्वथा प्रमाणभूत है । जो संयमी साधु अथवा उत्तम श्रावक-दशवीं ग्यारहवीं प्रतिमाका धारक देशसंवमी, यद्वा मध्यम-सातवीं आदि प्रतिमाका धारक, अथवा जयन्प-छही प्रतिमा तकके व्रतोंको धारण करनेदाला श्रावक भक्तिपूर्वक और शक्तिके अनुसार इन नित्य नैमित्तिक क्रियाओंका मले प्रकार पालन करता है वह भव्यात्मा आयुके अंत में समाधिपूर्वक शरीरका अच्छी तरह त्याग करके संचित महान् पुण्य कर्मके उदयसे देवगति अथवा मनुष्यगति के प्रधानभूत आम्युदयिक सुखाको मोगता है और परंपरासे ज्ञानावरणादि सम्पूर्ण काँको निरवशेषतया निर्माण करके कमसे कम दो तीन भव में और ज्यादेसे ज्यादे सात आठ भवमें ही संपारका अंत कर शास्वतिक शिवसुखका अनुभव किया करता है। जैसा कि कहा भी है कि
आराहिऊण केई चउब्धिहाराहणाए संसार, उव्वरियसेसपुण्णा सव्वत्थणिवासिणो हुंति ॥ जेसिं होज्ज जहण्णा चउन्विहाराहणा हु खवयाणं ।
सत्तभंवे गंतु तेविय पावंति णिव्याणं ।। इस ग्रंथमें जिस मुनिधर्मका वर्णन किया गया है वह जिन भगवान्के प्ररूपित आगमसे उद्धत करके ही किया है। अत एव वह सर्वात्मना प्रमाण है और श्रद्धेय है। मुमुक्षुओंको उसका निरंतर यथावत् पालन करना चाहिये । ऐसा करनेसे ही उन्हे संसारके सर्वोत्कृष्ट अभ्युदय तथा परम निम्श्रेयस पदकी प्राप्ति हो सकती है। इसी बात को ग्रंथकर्ण ग्रंयके अंतमें आना और ग्रंथका नाम प्रकट करते हुए बताते हैं:
अध्याय