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वनगार
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जिन्होने प्रति पक्षी वादियों को आक्षिप्त-पराजित नहीं किया है । तथा जिनके जिनवचनरूपी दीपकके ग्रहण करानपर भट्टारक देवभद्र विनयमद्र आदिकमेंसे ऐसे कौन हैं कि जो मोक्षमार्गमें अस्खलित रूपसे नहीं चलने लगे,-निरातचार चारित्रका आचरण नहीं करने लगे। इसी प्रकार जिनके पास काव्यरूपी अमृतका पान करके बालसरस्वती महाकवि मदन आदिमसे ऐसे कौन हैं कि जिन्होने सहृदय विद्वानों के बीच में प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं की है।
जिसके निरवद्य पद्योंसे मानों अमृतका पूर ही बहता है, जिससे स्यावाद विद्याका प्रसाद विशदरूपसे प्राप्त होता है, ऐसा प्रमेयरत्नाकर नामका इन्होंने एक तकग्रन्थ बनाया है। इसी प्रकार जिन आशाधरने केवल आत्म. कल्याणके लिये सिद्धिका है अंक-चिन्है जिसका ऐसा भरतेश्वराम्युदय नामका उत्तम काव्य बनाया और उसकी टीका भी बनाई जो कि विद्य-न्याय व्याकरण सिद्धान्तके जाननेवाले कवीन्द्रों को प्रमुदित करने वाला है। तया जिनागमका सार भूत, स्वयंकी बनाई हुई ज्ञानदीपिका नामकी टीकासे रमणीय, धर्मामृत नामका शास्त्र बनाकर मुमु. क्षु विद्वानोके आनन्दसे परिपूर्ण हृदयमें विराजमान किया। नेमीश्वरके नामका अनुवर्तन करने वाला राजीमती विलम्म-अर्थात् नेमीश्वर राजीमती विप्रलम्म नामका खण्डकाव्य बनाया और उसकी स्वयं टोका भी बनाई। पिताकी आज्ञानुसार अध्यात्मरहस्य नामका शास्त्र भी बनाया जो कि प्रसत्तिगुणसे युक्त रहने के कारण साटिति अर्थका बोधन करता है और अर्थतः गम्भीर है-जिसका अर्थ समझने में दूसरे शास्त्रों की अपेक्षा पडती है, तथा जो आरब्धयोगियों को अत्यंत प्रिय है । मूल चार भगवती आराधना इष्टोपदेश आराधनासार भूपालचतुर्विशतिका आदि ग्रंथों के ऊपर टीका बनाई है और अमरकोषके ऊपरभी क्रिया कलाप नामकी विशिष्ट टीका रची है। रुद्रट आचार्यके काव्यालंकार की टीका की और अरहतो-अनन्त तीर्थंकरों का स्तवन रूप सटीक सहस्रनाम बनाया। जिनमगवान्की प्रतिमाकी प्रतिष्ठाकी विधि बतानेवाला जिनयज्ञकल्प नामका प्रतिष्ठाशन बनाया और उसकी जिनयज्ञकरपदीपिका नामकी टीका भी बनाई । इसी प्रकार त्रिषष्ठिम्मृति नामका सटीक संक्षिप्तशास्त्र भी बनाया जिसमें कि वेसठ शलाका पुरुषोंका विषय बताया गया है । जिनमगवान्का
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१-प्रत्येक सर्गके अंतमें सिद्धि यह शब्द आता है। .