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पंडित आशाधरकृत
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अनुवादक-विद्यावारिधि पं. खूबचंदजी
कीमत ८ रुपया
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प्रकाशक:आकलुज निवासी नाथारंगजी गांधी के कुटुंब द्वारा स्थापित 'दि. - जैनोन्नति फंड' की सहायतासे
शेठ खुशालचंद पानाचंद गांधीके द्वारा सोलापूर
में प्रकाशित.
बंशीधर उदयराज पंडित, ." श्रीधर" प्रेस भवानीपेठ,
सोलापूर..
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عادی و
प्रस्तावना।
तरहवा शताब्दिके विद्वानों में महापण्डित आशधरजी अद्वितीय विद्वान होगये है। उनकी कति और कीतिको देखते हुए यह निश्चय होता है कि उस समयमें इनके समान उद्भट और सार्वविषयक विद्वान् दूसरा कोई न था। यद्यपि ये गृहस्थ थे फिर भी इनके धर्मोद्योतन स्थितीकरण अगाधज्ञान और उसके अपूर्व प्रमावको अनेक राजाओंके हृदय में अंकित करने तथा उनके द्वारा महनीयता प्राप्त करने आदि कार्योंको देखकर उन्हे आचा. यकल्प कहने में विरकुल संकोच नहीं होता । महावीर भगवान के इस शासन कालमें दूसरा कोई गृहस्थ जैन समाजमें आजतक भी इनके समान धर्मका प्रचार और इतना साहित्य निर्माण करनेवाला हुआ हो ऐसा हमको स्मरण नहीं होता। इन्होने अपने जीवनकाल में अपने ज्ञानातिशयके द्वारा सैकडौंको सन्मागेमें लगाया था और स्वयं उत्कृष्ट सदाचार का पालन कर अपनी आस्माके समान विन्ध्यवर्मा अर्जुनवर्मा आदि अनेक नरेखोंकी राज नीतिको भी धार्मिकतासे उद्दीपित कर दिया था । विन्ध्यवर्मा के सांधिविग्राहक मंत्री महाकवि विल्हण आशावरजी की विद्वत्तापर कितने मुग्ध थे और उनको अपने भाई के समान समझते थे यह उनके उल्लेखसे ही स्पष्ट होता है। कुछ शिलालेख आदिके वाक्योंसे ऐसा भी अनुमान होता है कि महापंडित आशावरजीके पिता-सल्लक्षणकी भी राज्यमान्यता कुछ कम न थी । उन्हे राजाका पद प्राप्त था । इसी प्रकार आशाधरजीके पुत्र छाइडके ऊपर मी महाराज अर्जुन वर्मा अत्यंत प्रसन्न थे । यह बात इस अनगारधर्मामृतके अंतमें दी हुई प्रशस्ति में ही सष्ट उल्लिखित
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अनगार
य मद्रादिक इनके
था, उन पं. आशादा
हज ही लक्ष्यमें आम
है। इससे ऐसा निश्चय होता है कि आशाधरजीके वंशमें केवल आशधरजीकी ही नहीं कि उनकी भूत भविष्यात की मिलाकर कई पीडियों में राजमान्यता निरवच्छित्ररूपसे चली थी।
तत्तजातिके अग्रणी सेठ महीचंद्र और सेठ हरदेव आदिने इनसे प्रार्थना की है, अषक जैन अजैन विद्वानोंने इनकी भूरि २ प्रशंसा की है, यतिपति मदन कीर्ति सरीखोंने इनको प्रज्ञापुंज पदकी मेट आण की है, विशण सरीखे महाकवि इनकी तुलनासे अपनेको धन्य समझते हैं, बालसरस्वती मदन और वादीन्द्र विशाल कीर्ति आदि बडे २ पदवीधर इनके शिष्य थे, भट्टारक देवभद्र और विनयमद्रादिक इनके कृतज्ञ थे, और सरस्वतीपुत्र यह जिनका सर्वमान्य पद था, उन पं. आशाधरजीकी प्रशस्त समाजमान्यता कितनी अधिक थी यह सहज ही लक्ष्यमें आ सकता है । राजमान्यताके साथ २ ही समाजमान्यता भी प्राप्त करना अत्यंत कठिन है। सोमदेव सूरीने एक जगहपर कहा है कि
प्रजाविलोपो नृपतीच्छ्याचेत्, प्रजेच्छया चाचरिते स्वनाशः ।
नमंत्रिणां वेधविधायिनीवत सुखं सदैवोभयतः समस्ति । अर्थात-राजनीतिके ग्रंथ वाचनेसे ही कोई राजनीतिका कार्य मंत्री आदिके पदको धारणकर नहीं कर सकता । यह कार्य अत्यंत दुधक्य है, क्योंकि वह राजा और प्रजा दोनोंके मध्यमें रहा करता है। यदि वह राजाकी इच्छानुसार कार्य करे तो प्रजाका लोप होता है, और प्रसकी इच्छानुसार करता है तो राजाके द्वाग उसका ही घात हो सकता है । अत एव चक्कीके पाटोंके बीचमें लगी हुई उस कीलीके समान उस व्यक्ति की अवस्था समझनी चाहिये कि जो जरा भारी होनेपर ऊपरसे और जरा भी हलकी होनेपर नीचेसे ठुका करती है। अस्तु । यह बात सिद्ध है कि महापण्डित आशाधरजी केवल ग्रंथोंका प्रवचन करनेवाले सर्वोत्कृष्ट अध्येता और अध्यापक ही न थे लोकदक्ष भी उतने ही ऊंचे दर्जेके थे । राजगुरुके भी गुरु का पद प्राप्त होना साधारण योग्यताका कार्य नहीं है।
महापण्डित आशापुरजी की विद्वचाको अनेक गुणोंकी तरह सदाचार और संयमने भी विभूषित कर रक्खाथा। सदाचारकी रक्षाका उन्हे कितना अधिक धान था यह बात उनके उल्लेख से विदित होती है. उन्होंने स्वयं इस बातको लिखा है कि हम तुर्कराज-यवनसम्राट् गजनीके सहाबुद्दीन गौरीने जब हमारी जन्मभूभिपर आक्रमण कर लिया तर
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सदाचारके नष्ट होने के मयसेही उसको-जन्मभूमि-मण्डलगढको छोडकर मालवाकी धारा नगरी में आकर रहे. जिसकोलिये लोक कहा करते हैं कि "जमनी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" उस स्वर्गापम अथवा माताके समान प्रिय जन्मभूमिका केवल सदाचारकेलिये परित्याग करदेना एकमात्र दृढ धार्मिक निष्ठाकाही कार्य है. आगममें लिखा है कि यदि चारित्रमें पति पडनेका प्रसङ्ग आवे-धार्मिक बाचरण नष्ट होता हुआ दिखाई दे तो मनुष्यको चाहिये कि समाधिपूर्वक मरणको प्राप्त होजाय परन्तु चारित्रको भग्न न होने दे । क्योंकि
नावश्यनाशिने हिंस्यो धर्मो देहाय कामदः ।
देहो नष्टः पुनर्लभ्यो धर्मस्त्वत्यन्तदुर्लभः ॥ किंतु यह आज्ञा निरुपाय अवस्थाकेलिये है, जैसा कि अभी हालही में केशरियानाथजी-धुलेवमें श्वेताम्बरों और उनके पक्ष के कुछ राजकर्मचारियोंद्वाग मारे जानेपर कुछ दिगम्बरोंने कर दिखाया है। परन्तु जातिक हो उसका उपाय करना चाहिये । जब कोई भी उपाय सफल होता हुआ दिखाई न दे तो सल्लेखना ही करना उचित है । तात्पर्य यह कि जिससे धर्माचरण सुरक्षित रह कर जीवन बच सके ऐसा ही उपाय करना चाहिये । यदि धर्माचरण नष्ट होकर प्राण बचते हों तो वह उपाय धार्मिकों को मान्य नहीं है । अत एव जब चारित्रमें क्षति परती हुई दिखाई दी तो पं. आशधरजीने जन्मभूमिमें रहना इस नीतिवाक्यके अनुसार धर्म और आत्मिक उअति तथा महचा प्राप्त करनेमें बाधक ही समझा कि
आलस्यं स्त्रीसेवा सरोगता जन्मभूमिवात्सल्यं ।
संतोषो भीरुत्वं षड् व्याघाता महत्त्वस्य ।। धारा नगरीको छोडकर महापंडित आशारजी अंतिम अवस्थामें नलकच्छपुरमें आकार रहे थे। इसका हेतु जिन धर्मका उदय करना लिखा है । यद्यपि जिन धर्म के उदयका अर्थ उसकी प्रभावना तथा अन्य धर्मात्मा
ओंके हृदय में उसकी दृढता तथा रद्दीप्ति आदि कर देना भी हो सकता है परन्तु उनकी अवस्था और अनेक वाक्य बतलाते है कि जिस समयमें उन्होंने इस टीका आदिकी रचना की है उस समयमें वे अवश्य ही गृहनिवृत्त होंगे, और केवल धर्म सेवन करनेफेलिये ही वे नलकच्छपुग्में आकर रहे होंगे। क्योंकि जिस समय वे नलकच्छ में जाकर रहे उस समय उनकी अवस्था युद्ध थी। इस टीकाकी रचनाके समय उनकी अवस्था ७० वर्ष से कम न होगी । क्योंकि
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बनगार
इनका जन्म विक्रम सं. १२३० के करीब हुआ था और इस टीकाकी समाप्ति वि. सं. १३०० में हुई है. फिर इन्होंने धारामें आनेके बाद मालवाके राज्यकी पांच पीढियां देखली थीं। इसके सिवाय निम्नलिखित वाक्योंसे उनके वैराग्य पूर्ण परिणाम भी प्रकट होते हैं।
प्रभो भवाङ्गभोगेषु निर्विण्णोदुःखभीरकः । एष विज्ञापयामि त्वां शरण्यं करुणार्णवम् ॥ सुखलालसया मोहात् भ्राम्यन्बहिरितस्ततः । सुखैकहेतो मापि स्तवं न ज्ञातवान् पुरा॥ अद्य मोहग्रहावेशशैथिल्यात्किंचिदुन्मुखः ।
अनन्तगुणमाम्यस्त्वां श्रुत्वा स्तोतुमुद्यतः ॥ अत एव अनुमान होता है कि इस टीकाकी रचना पूर्व ही वे गृहस्थाश्रमसे निवृत्त हो चुके होंगे। इस प्रकार महापण्डित आशाधरजाकी राजमान्यता समाजमान्यता कीर्ति सदाचार और विरक्ति आदि गुणोंकी अविरुद्ध प्रवृत्तिको देखकर आजकलके लोगोंको अनेक प्रकारकी शिक्षाएं लेनी चाहिये। खासकर उन लोगोंको कि जो राजमान्यता कीर्ति या आजीविका आदिके लिये सदाचार के क्षयकी अपेक्षा नहीं रखते
पं. आशाधरजीकी जाति मातापिता पुत्रकला आदिका नाम, जन्मभूमि, अधिकतर निवासस्थान और उनकी उपाधि आदिका ज्ञान उन्हीकी प्रशस्ति तथा कृतिको देखनेसे हो सकता है, अत एव इस विषय में अधिक कानेकी आवश्यकता नहीं है।
आशाधरजीकी विद्वत्ताका परिचय उनके ग्रंथही दे रहे है।" नहि कस्तुरिकामोदः शपथेन प्रतीयते ।" अतएव न्याय साहित्य कोष वैद्यक आचार अध्यात्म पुराण और कर्मकाण्ड आदि प्रत्येक विषयके उनके बनाये हुए इन्दतः प्रौढ और अर्थत: गम्भीर अद्वितीय ग्रन्थोके देखनेसे ही मालुम हो सकता है कि वे वास्तवमें सरस्वतीपत्र प्रज्ञापुंज और कलिकालदास थे । इसके सिवाय उन्होने अपने ज्ञान और कवित्वको बेलगाम नहीं बना दिया था। उन्होंने प्रत्येक विषयके लिखते समय गुरु और आगमकी आम्नायका ध्यान रक्खा है । इस ग्रंथों मी उन्होंने पद पदपर पूर्व विद्वानों और ऋषियोंके वाक्य उद्धृत किये हैं जिससे यह बात स्पष्ट होती है कि उनकी आत्मा आगम
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अवमार
के विरुद्ध एक अक्षर लिखनेसे भी कांपती थी और वे इस भयंकर पापसे अत्यंत भीत थे। इस ग्रंथके अंतमें जो उन्होंने श्री शान्तिनाथ भगवान से प्रार्थनाकीक" कविजन समीचीन विद्याके रसको प्रकट करने वाली ही कविता किया करें" उसका उन्होंने अक्षरशः पालन किया है और उसके द्वारा उन्होने आजकलके निरर्गल लेखनकि स्वामी तथा अपनी विद्यावानरीका घर घर नर्तन कराने वालोंके लिये आदर्श उपस्थित किया है। । यदि आशाधरजी विद्वानोंकेलिये भी दुर्गा अपने ग्रन्थोंकी टीका स्वयं न बनाते तो सचमुचमें इस का. लरात्रि के अन्दर उनके अर्थका मान होना असंभव नहीं तो दुःसाध्य अवश्य होजाता। अत एव जिस प्रकार अपनी अजरामर कृतिकति के रूपमें आज भी हमारे सामने उपास्थत महापण्डितः आशाधरजीकी हमको पूजा करनी चा. हिये उसी प्रकार जिन मव्यात्माओंने प्रार्थना करके इन ग्रंथोंको सनिबंध कराया है उन सेठ महीचन्द्र और सेठ हरदेव प्रभृति के प्रति भी कृतज्ञतावश भक्तिपुष्पांजलि अर्पण करनी चाहिये।
पण्डित आशाधरजीने जितने ग्रंथ बनाये हैं उनमेसे अनेक ग्रंथ अभी अनुपलब्ध हैं । उपलब्ध ग्रंथोमेसे यह अनगार धर्मामृतका टीका उनका अंतिम ग्रंथ मालुम होता है। इसके बाद उनोने कोई ग्रंथ बनाया या नही सो निश्चित जानने का कोई साधन नहीं है। अस्तु । इस ग्रंथकी महत्ता पाठकों को वांचने पर स्वयं मालुम होगी। परन्त इतना अवश्य कहेंगे कि इसका जैसा नाम हे यह ठीक पैसा ही है. आगम समुद्रका मंथन करके पंडित आशाधरजीने इस ग्रंथके रूपमें मुनिधर्मरूपी अमृतकी ही सृष्टि की है।
यद्यपि इस ग्रंथमें मुनिधर्मकी प्रधानतासे उसीका वर्णन किया है परन्तु अन्तका कुछ भाग ऐसा भी जिसमें गौणरूपसे षडावश्यक आदि श्रावकोंकी चयोका भी वर्णन किया है । तथा आदिका कुछ भाग जिसमें किधर्मका फल बताया है और उसके बाद जहां पुण्यफलकी भी तुच्छता या निंदा प्रकट की है वह भी श्रावकोलिये उपयोगी है । इसके सिवाय मुनिधर्मका स्वरूप भी श्रावकों को जानना आवश्यक है । अत एव इससे केवल निर्माणसाधुओंको ही नहीं श्रावकों को मी लाम होगा ऐसा समझकर हमने इसको हिंदी भाषा अनुवादित किया है।
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बनमार
अमृतचन्द्र प्राचार्य ने कहा है कि
यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्वधर्ममल्पमतिः ।
तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ॥ - इसीके अनुसार पंडित बाशावरजीने धर्मामृत ग्रंथकी रचना की है। परन्तु उसकी टीका रचनाका काल उससे विपरीत है। अर्थात् सामारधर्मामत जो कि इस ग्रंथका उत्तरार्ध है उसकी टीका इस अनगार धर्मामृतपूर्वाधकी टीकासे १ वर्ष पहले बनचुकी है । दैवयोगसे उसके हिन्दी अनुवादमें भी यही घटना बनी है। सागार 'धर्मामृतका अनुवाद पं लालारामजीके द्वारा पहले हो चुका है और कई वर्ष हुए वह प्रकाशमें भी आ चुका है। उसके बाद बाज अनगार धर्मामृत मन अस्प बुद्धि के द्वारा अनूदित होकर पाठकोंके करकमलों में अर्पित होता है। आशाकि सहृदय समक्षु विद्वान इससे लाभ उठावेंगे।
यद्यपि इसके अनुवादका विचार और प्रारम्भ कई वर्ष हुए तभी हमने किया था परन्तु अनेक विन के वश पूर्ण नहीं किया जा सकाथा । अस्तु । आज इसको पूर्ण करते हुए हम श्रीजिनेन्द्र भगवान्के चरणों में भक्तिपुः प्पांजलिका अर्पण करते है। और यह अनुवाद सोलापारिवासी द्वितीयप्रतिमापारी श्रीमान सेठ रावजी सखाराम दोषीकी प्रेरणा और श्रीयुत सेठ खुशालचंदजी गांधी (नाथारंगजीवाले) द्वारा श्री नाथारंगजी जेनोमतिफंड की सहायतासे प्रकाशित होता है अत एव उक्त दोनोंती मन्यात्मों के प्रति पुनः२ कृतज्ञता प्रकाशित करते हैं। अंतमें पाठकोंकी सेवामें भी निवेदन है कि अस्पज्ञताके कारण यदि हमसे कहीं अर्थविपर्यास या लिखनेमें स्खलन होगया हो तो क्षमा करें और उसका संशोधन करनेकी कृपा करें।
सोलापुर
प्रार्थी
ता.१-६-२७
खूबचंद.
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अध्यायसूची.
प्रथम अध्याय.
पृष्ट १ से मंगलाचरण, ग्रंथप्रतिज्ञा, धर्मकी महिमा, स्वच्छंद प्रवृत्तिकी निंदा, रत्नत्रयका संक्षिप्त स्वरूप
इस अभ्यायमें बताया है। द्वितीय अध्याय.
सम्पदर्शनका वर्णन, मिथ्यात्वका स्वरूप, मिथ्यात्व व सम्पक्त्वकी सामग्री, द्रव्य व तत्वोंका स्वरूप, सम्यक्त्वकी महिमा, सम्यक्त्व के अतीचार, आठ मद, अनायतन सेवाका निषेध, आठ बंग, इतने विषयों का वर्णन है।
२४१ से. सम्यखानकी आराधना, ज्ञानके पांच भेद, श्रुवज्ञानका विशद स्वरूप व मेद-लक्षण, ज्ञानके
विनय, स्वाध्यायकी आवश्यकता, इस अध्यायमें ये विषय । चतुर्थ अध्याय.
२७५ से. नाविकी आराधना, दयाकी महिमा व स्वरूप, हिंसाका विशेष वर्णन, जीवों के मेद, हिंसादि पाँच पापोंका स्वरूप, पांच व्रतोंका स्वरूप, ब्रतोंके अतीचार, कामका विशेष स्वरूप, प्रत्येक बकी भावना, गुप्तियों का स्वरूप, सामायिक संयमका स्वरूप, ये बातें इस अध्यायमें कहीं हैं।
तृतीय अध्याय.
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पंचम अध्याय.
५२१ से. ___पिंडशुद्धि अर्थात् थाहारशुद्धिका वर्णन, बाहारसंबंधी उद्गमादिक दोष, बक्षीस अंतराय-यह
वर्णन है। छठा अध्याय.
दश धर्म, क्रोधादि कार्योंसे होनेवाली हानि, मिधादि आठ शुद्धि, बारह अनुप्रथा, बाईस पर
पहों का वर्णन किया है। सातवां अध्याय...
५९ से. तपका वर्णन, सानादिके विनय, सल्लेखना का सरूप है। आठवां अध्याय.
७३१ से. ___ आवश्यकों का वर्णन, आसनोंके मेद, वंदनादिके दोष इत्यादि वर्णन है। नवम अध्याय.
८. से. भ्यान तथा स्वाध्यायके समयादिका वर्णन, नित्य तथा आष्टानिकादि नैमित्रिक क्रियाओंका के स्वरूप, भूमिशयनादि मूल गुणोंका स्वरूप यह नौवें अध्यायमें कहा है।
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गांधीनाथारंगजी-जैन ग्रंथमालाद्वारा प्रकाशित ग्रंथसूची।
१ असहस्री-आचार्यविद्यानंदिकृत महान् न्यायग्रंथ । मू. ३) २ श्लोकवार्तिक-भाचार्य विद्यानंदिकृत तत्वार्थसूत्रकी सबसे बडी टीका । मू.१Jलागतमात्र, ३ पार्श्वभ्युदय-भगवजिनसेनाचार्यकृत, मेघदूतकाव्यकी समस्यापूर्तिरूप, सटीक । मु.॥
विश्वलोचनकोष-आचार्य श्रीधरसेनकृत मूल तथा हिंदी अर्थ सहित । मू० ११) ५ जैनेंद्रप्रक्रिया-(पूर्वार्ध ) पं. वंशीधरजी-न्यायतीर्षकृत । मू०१०). ६ पंचाध्यायी-किंमत ॥) ७ जैनसिद्धांत प्रवेशिका [ मराठी ] किंमत || ८ हरिवंश पुराण [ मराठी ] किंमत २॥ ९ महापुराणामृत [ मराठी ] किंमत
मिलनेका पता
सेठ नाथारंगजी गांधी
चाटीगल्ली-सोलापुर.
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SAMITION
Milin
महापाण्डित श्री आशाधर कृत
अनगारधामृत
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की
हिंदी टीका.
(प्रथम अध्याय.)
-onशास्त्रके प्रारम्भमें आप्तकी स्तुति करना आवश्यक है। क्योंकि
नास्तिकत्वपरीहारः शिष्टाचारप्रपालनम् ।
पुण्यावाप्तिश्च निर्विघ्नं शास्त्रादावाप्तसंस्तवात् ।। शास्त्रकी आदिमें आप्तकी स्तुति करनेसे नास्तिकताका परिहार, शिष्टाचारका पालन, पुण्यकी प्राप्ति और विनोंका अभाव अथवा निर्विघ्नतया पुण्यकी प्राप्ति होती है। अतएव श्रीमान् महापण्डित आशाधरजी परम आराध्य सिद्धभगवान, अहंत परमेष्ठी, परम आगम और उसके कर्ता व्याख्याता तथा देशना-उपदेश, इनका अपनी इष्टसिद्धिकेलिये क्रमसे और विनयसे स्मरण तथा स्तवन करते हैं:
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हेतुद्वैतबलादुदीर्णसुदृशः सर्वसहाः सर्वश,स्त्यक्त्वा सङ्गमजस्रसुश्रुतपराः संयम्य साक्षं मनः । ध्यात्वा वे शमिनः स्वयं स्वममलं निर्मूल्य कर्माखिलं, ये शर्मप्रगुणैश्चकासति गुणैस्ते भान्तु सिद्धा मयि ॥१॥
अनगार
धर्म
दोनो हेतुओंके बलसे उद्गत है सम्यग्दर्शन जिनका, और जो समस्त परीषहों व उपसगोंको जीतकर तथा परिग्रहका सर्वथा त्याग कर निरंतर समीचीन श्रुतके अभ्यासमें तत्पर रह इन्द्रियों व मनका निरोध कर तृष्णारहित हो अपनी आत्मामें अपने निर्मल आत्मस्वरूपका ही ध्यान कर जो जीव समस्त कर्मोंका मूलोच्छेदन कर, सुख ही है प्रधान स्वरूप जिनका ऐसे सिद्ध पदको, प्राप्त करलेते हैं; और अपने उन गुणोंके द्वारा नित्य ही प्रकाशमान रहते हैं वे मेरी आत्मामें प्रकाशित हों।..
भावार्थ-'हिनोति इति हेतुः' इस निरुक्तिके अनुसार जो कार्यको कारकपनेसे और ज्ञाप्यको ज्ञापकपने-' से व्याप्त करता है उसको हेतु कहते हैं । इसीलिये हेतु दो प्रकारका होता है; एक कारकहेतु दूसरा ज्ञापक हेतु । किंतु यहांपर केवल कारकहेतुको ही ग्रहण करना चाहिये। क्योंकि सम्यग्दर्शनादिके साथ जो उदीर्ण आदि पद दिया है उससे उनके कार्यरूप बतानेका ही प्रयोजन [ अभिप्राय ] है।
कारक हेतु भी दो प्रकारका होता है; एक अंतरंग दूसरा बाह्य । इन दोनो हेतुओंकी सामर्थ्यसे जिन जीवोंके सम्यग्दर्शन प्रगट होगया है और उसके बाद क्रमसे जिन्होंने परिग्रहका त्याग कर निरंतर समीचीन श्रुतका अभ्यास किया है और उसके बाद इंद्रिय व मनका निरोध कर जिन्होंने शुद्धात्माका ध्यान किया है वे जीव अंतमें समस्त कर्मोको निर्मूल कर सुखमय सिद्ध अवस्था प्राप्त करलेते हैं। इन्हीको
अध्याय
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अनगार
अध्याय
१
पूर्ण परमात्मा कहते हैं। और ये ही सब जीवोंके लिये ध्येय हैं । अत एव ग्रंथकार उनकी स्तुति करते भावना प्रकट करते हैं कि वे सिद्ध भगवान् मेरी आत्मामें प्रकाशित हों मुझे भी वह परमात्म अवस्था प्राप्त हो ।
यद्यपि यहांपर अंतर और बाह्य कारणोंकी सामर्थ्यका सम्बन्ध सम्यग्दर्शनकी प्रकटताके साथ ही दिखाया है; फिर भी उसके अनंतर निर्दिष्ट और उसके उत्पन्न होजानेपर ही उत्पन्न होनेवाले परिब्रहत्यागादि कार्यों के साथ भी उसका सम्बन्ध लगालेना चाहिये। क्योंकि वह शब्द आदिदीपक है. और इसके सिवाय एक बात यह भी है कि, सभी कार्यों की उत्पत्ति अंतरंग और बाह्य दोनो कारणोंके ऊपर ही निर्भर है । इन दोनो कारणों के बिना कोई भी कार्य सिद्ध नहीं हो सकता । सम्यक्त्वके अंतरंग कारण - निकटभव्यता आदि और बाह्य कारण उपदेश आदिक हैं । जैसा कि आयममें भी कहा है । यथाः -
आसन्नभव्यताकर्महानि संज्ञित्वशुद्ध परिणामाः । सम्यक्त्वहेतुरान्तर्बाह्योप्युपदेशकादिश्च ॥
· निकट भव्यता, कर्महानि, संशित्व और शुद्ध परिणाम ये सम्यग्दर्शनके अंतरंग कारण हैं। और बाह्य कारण उपदेशादिक हैं। यहांपर सम्यग्दर्शनके ही अंतरंग और बाह्य कारण बताये हैं । किंतु इसी तरह परिग्रहत्यागादिकके भी दोनो कारण होते हैं; जो कि आगमके अनुसार दूसरे ग्रंथोंसे समझ लेने चाहिये । सम्यग्दर्शनमें जो दर्शन - शब्द है वह यद्यपि दृश् धातुसे बना है जिसका कि अर्थ देखना होता है। फिर भी यहां पर उसका अर्थ श्रद्धान ही करना चाहिये । क्योंकि, प्रकरण के अनुसार धातुओंके अनेक अर्थ हुआ करते हैं । यथा:
निपाताश्रोपसर्गाच घातवश्वेति ते त्रयः ।
अनेकार्थाः स्मृताः सद्भिः पाठस्तेषां निदर्शनम् ॥
निपात उपसर्ग और धातु इन तीनोंके अनेक अर्थ होते हैं। किंतु कहांपर किसका क्या अर्थ होना चाहिये !
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धर्म
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अनगार
इसके लिये आम्नाय ही प्रमाण है। अतः प्रकरणके अनुसार ही उनका अर्थ हुआ करता है । पाठोंमें जो इनके अर्थ लिखे हैं वे केवल दिग्दर्शन करानेकेलिये अथवा उदाहरण मात्र समझने चाहिये ।
पदार्थोंके स्वरूपसे विपरीत स्वरूपका आभनिवेश-आग्रह न करना किंतु पर या अपर सभी वस्तुओंका, जिस स्वरूपमें वे अवस्थित हों उसी स्वरूपके अनुसार उनका, श्रद्धान करना इसको दर्शन कहते हैं। इसके साथ जो सु-शब्द दिया है उसके दो अर्थ होते हैं । एक प्रशंसा; दूसरा पूर्णता । क्योंकि यह दर्शन अपनेसे नीचे के स्थानोंकी अपेक्षा शंकादि दोषोंसे रहित होनेके कारण प्रशस्त, और अपनेसे ऊपरके स्थानोंकी अपेक्षा अधिक निश्चल क्षायिकरूप होनेके कारण संपूर्ण कहा जाता है। सूत्रकार--उमास्वामी महाराजने भी सम्यग्दर्शनका ऐसा ही लक्षण कहा है। यथा-" तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् " इसका भी यही अर्थ है कि- आत्माके, ऐसी आत्माके कि जिसके दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम क्षय या क्षयोपशम होजानेसे वह कारणभूत शक्तिविशेष प्रकट होगई है, तत्त्वार्थके श्रद्धानरूप उस परिणामको सम्यग्दर्शन कहते हैं, जो कि ज्ञानको समीचीन ज्ञान कहानेकेलिये कारण है।
अपने अपने निमित्तके पाते ही आ उपखित होनेवाले उन परीपहों व उपसगाँसे जो आविर्भूत नहीं होतेजीते नहीं जासकते; जिनको कि सहनेकेलिये आगममें उपदेश दिया गया है, किंतु धृति आदि भावनाके बलसे अथवा महान् पराक्रम और वज्रतुल्य शरीरसे युक्त रहनेके कारण जो उन्हें सहते हैं उनको सर्वसह कहते हैं। इस प्रकारके सर्वसह और उक्त सम्यग्दर्शनक धारण करनेवाले ही भव्यात्मा सिद्ध अवस्थाको प्राप्त करनेकेलिये सङ्ग -परिग्रहके सर्वशः त्यागादि करनेमें प्रवृत्त हो सकते हैं।
संग-परिग्रह बाह्य और आभ्यंतरके मेदसे दो प्रकारका है । इसका सामान्य और विशेष लक्षण आगे कहेंगे । फिर भी निरुक्तिके अनुसार यहांपर इतना अर्थ अवश्य समझलेना चाहिये कि यह जीव अपनी चेष्टा या उपयोगरूप प्रवृत्तिके द्वारा “ मेरा" और "मैं" इस तरहके ममकार और अहंकारसे जिन वि
अध्याय
और विशेष लक्षण ।
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अनगार
षयोंमें आसक्त होता है उन विषयोंको और उस आसक्तिको संग कहते हैं । सर्वशः इस शब्दमें सर्व-शब्दसे जो शस्प्रत्यय की गई है वह प्रशंसार्थक है । इससे परिग्रहके त्यागकी प्रशस्तता प्रगट की गई है। क्योंकि जितने भी मोक्षके माननेवाले हैं वे सभी समस्त परिग्रहके त्यागको मोक्षका कारण अवश्य मानते हैं। क्योंकि इसके विना उसकी सिद्धि नहीं हो सकती । इस कथनसे संक्षेपरुचिवाले शिष्योंकी अपेक्षासे यहांपर सम्यक्त्वाराधना तथा चारित्राराधनाका भी वर्णन करादिया गया; ऐसा भी समझलेना चाहिये । क्योंकि दर्शनका ज्ञानके साथ और चारित्रका तपके साथ अविनाभाव है। और इसलिये समस्त परिग्रहके त्यागमें उक्त दोनो आराधनाओंका अंतर्भाव होजाता है। - इस प्रकार उक्त सम्यग्दर्शनका लाभ करनेवाला भव्यात्मा पारग्रहका सर्वशः त्याग करनेपर सिद्धावस्था प्राप्त करनेकी इच्छासे समीचीन श्रुतका अभ्यास करने में निरंतर तत्पर रहता है। सामान्यसे अस्पष्ट तर्कण-ऊहापोहरूप ज्ञानविशेषको श्रुत कहते हैं। जो श्रुत अपनी आत्माके स्वरूपकी तरफ उन्मुख रहा करता है वही प्रशस्त समझा जाता है । इसी प्रशस्त श्रुतके अभ्यासमें उक्त सम्यग्दृष्टी तथा परिग्रहका त्यागी निरंतर रत रहा करता है । श्रुत शब्द श्रु धातुसे बना है। जिसका कि अर्थ सुनना होता है। फिर भी जिस प्रकार सम्यग्दर्शनमें दृश् धातुका श्रद्धान अर्थ किया था उसी प्रकार यहां भी श्रुधातुका ज्ञानविशेष ही अर्थ करना चाहिये। जिसमें श्रुतज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमसे ऊहापोह करनेकी शक्ति प्रकट होगई है और निसमें साक्षात् अथवा परंपरासे लगे हुए मतिज्ञान विशेषणने अतिशय उत्पन्न कर दिया है उस आत्माके अस्पष्टतया नाना पदाथोंके प्ररूपण करसकनेवाले ज्ञानरूप परिणामविशेषको श्रुत कहते हैं । कहा भी
अध्याय
“मतिपूर्व शब्दयोजनसहितमूहनं श्रुतमिति तच्छ्रुतम् ।” शव्हके सम्बंधसे होनेवाले मतिपूर्वक तर्कण--विचारको श्रुत कहते हैं । यथा--
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अनगार
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एको मे सासदो जादा गाणदसणलक्षणो। सेसा मे बाहिरा भावा सब्बे संजोगलक्खणा। संजोगमूळ जौवेण पत्ता दुःखपरंपरा ।
' वम्हा संजोगसंबंध सव्वं तिविहेण बोस्सरे ॥ “मेरा यह एक शास्वत आत्मा ही ज्ञानदर्शनलक्षणवाला या ज्ञानदर्शनस्वरूप है और बाकीके जितने ये बाह्य भाव-पदार्थ हैं उन सबसे मेरा केवल संयोग ही है। आज तक इस जीवने जो दुःखपरंपरा प्राप्त की है उसका मूल यही संयोग है। अत एव मैं मन वचन और काय इन तीनोही के द्वारा इस समस्त संयोगको ही छोडता हूं।"
इन शब्दोंका ज्ञान होजानेपर जो विशेष उहापोहरूप तर्कणा होती है उसीको श्रुतज्ञान कहते हैं।
श्रुत शब्दके साथ जो पर-शब्दका प्रयोग किया है वह प्रधान अर्थमें है। जैसा कि ऊपर भी दिखाया गया है। इस प्रधानार्थक पर-शब्दके प्रयोगसे यह बात भी समझलेनी चाहिये कि जो स्वार्थ-ज्ञानात्मक श्रुतज्ञानकी भावनामें सदा लीन रहते हैं वे भी कदाचित् अनादिकालीन वासनाके वशसे परार्थ शब्दात्मक श्रुतज्ञानमें तत्पर होजाया करते हैं। परार्थ श्रुतज्ञानकी अपेक्षा श्रुत शब्दका अर्थ, " श्रूयते-श्रुतम्" इस निरुक्तिके अनुसार जो सुना जाय उसको श्रुत कहते हैं, ऐसा होता है। इससे श्रुत-शब्द शब्दप्रधान होजाता है । यहांपर इस अपेक्षा श्रुत-शब्दके साथ जो "सु" शब्द लगा है उसका प्रयोजन शब्दात्मक श्रुतज्ञानकी प्रशंसा दिखानेका है । शब्द वे ही प्रशंसनीय हैं कि जिनके द्वारा शुद्ध और चिदानन्दस्वरूप आत्माका प्रतिपादन किया जाय, या उसके विषयमें प्रश्नादि किये जाय । क्योंकि मोक्षकी इच्छा रखनेवालोंको ऐसा ही श्रुत अभिमत हो सकता है। और इसका नाम "सुश्रुत है । कहा भी है कि
तद् ब्रूयात्तत्परान् पृच्छेत्तदिच्छेत्तत्परो भवेत् । येनाविद्यात्मक रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् । इति ।
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अविद्याभिदुरं ज्योतिः परं ज्ञानमयं महत् ।
तत्पृष्टव्यं तदेष्टव्यं तद् दृष्टव्यं मुमुक्षुभिः ॥ इति च । शुद्ध चिदानन्दस्वरूप आत्माका ही वर्णन करना चाहिये, और इस विषयके प्राप्त करनेवालों अथवा अभिज्ञोंसे उसे पूछना चाहिये, और इसीकी इच्छा करनी चाहिये, तथा वैसा ही होना भी चाहिये । जिससे कि तू अज्ञानमय अवस्थाको छोडकर ज्ञानमय अवस्थाको प्राप्त हो ।
महान् ज्ञानमय ज्योति ही एक ऐसी चीज है जो कि अविद्यारूपी अंधकारका भेदन करनेमें अतिदक्ष है। अतएव मुमुक्षुओंको वही देखनी चाहिये । इसीको ज्ञानाराधना कहते हैं। क्योंकि निरंतर समीचीन श्रुत में तत्पर रहनेका ही नाम ज्ञानाराधना है।
इस प्रकार ज्ञानका आराधन करनेवाला पहले संयमको धारण करता है, पछि दूसरा काम करता है। स्पर्शनादिक इन्द्रियों व उनके साथ प्रवर्त्तमान मनको अपने अपने विषयसे रोकनेको संयम कहते हैं । अपने अपने आवरण [ जैसे स्पर्शनेन्द्रियावरण रसनेन्द्रियावरण इत्यादि] कर्मका और वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम होनेपर आत्मा अपनी अपनी योग्यताके अनुसार स्पर्शादि विषयोंको जिनके द्वारा जानता है उनको अक्ष अर्थात् इन्द्रिय कहते हैं। इसके पांच भेद हैं- स्पर्शन रसन घ्राण चक्षु और श्रोत्र । इनमें प्रत्येकके दो भेद हैं- एक द्रव्येन्द्रिय, दूसरा भावेन्द्रिय । द्रव्येन्द्रियके दो भेद हैं-निवृत्ति और उपकरण । इन्द्रियाकार रचनाको निवृत्ति और उसके काममें सहायता करनेवालेको उपकरण कहते हैं। भावेन्द्रियके दो भेद हैं-लब्धि और उपयोग । अपने अपने आवरण कर्मके क्षयोपशमकी प्राप्तिको लब्धि तथा अपने अपने विषयकी तरफ प्रवृत्ति करनेको उपयोग कहते हैं । इसी प्रकार नोइन्द्रियावरण तथा वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम होनेपर. आत्मा जिसके द्वारा द्रव्यमनकी सहायता से मृत या अमूर्त वस्तुको जानता है और उनके गुणदोषोंके विचार या स्मरणादिरूप उपयोगसे ऊहापोह करता है उसको मन कहते हैं। यह लक्षण भावमनकी अपेक्षासे है । क्योंकि गुणदोषोंका विचार या स्मरणादिरूप उपयोग भावमनका ही कार्य है। इस विषयमें कहा भी है
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SEARCINEHEN
अनगार
to
गुणदोषविचारस्मरणादिप्रणिधानमात्मनो भावमनः।
तदभिमुखस्यास्यैवानुप्राही पुद्गलोच्चयो द्रव्यमनः॥ . अर्थात-गुणदोषांके विचार या स्मरणादिरूप आत्माके उपयोगको भावमन, तथा उसकेलिये अभिमुख हुए उसी आत्माको सहायता करनेवाले पुद्गलपिंड को द्रव्यमन कहते हैं । इन उपर्युक्त इन्द्रियों व मनके रोकनेको ही संयम कहते हैं और इसीका नाम तप आराधना है। क्योंकि इन्द्रिय तथा मनके निरोधको ही तप कहते हैं। तथा यही व्यवहारसे मोक्षमार्ग भी है।
इस प्रकार व्यवहारसे मोक्षमार्गका साधन कर सिद्धपदका अभिलाषी ध्यानमें प्रवृत्त होता है। सब विषयोंसे हटाकर एक ही विषयकी तरफ उपयोगके लगानेको ध्यान कहते हैं। उक्त प्रकारका तपस्वी अपनी निर्मल आत्माको ही इस ध्यानका विषय बनाता है । जिससे कि वह अपनी उस निर्मल आत्माके विषयमें भी राग द्वेश. और मोहसे रहित होजाता है। तथा सान्द्र--अत्यंत निविद्ध आनन्दस्वरूप शुद्ध निजात्माका अनुभव होजानेसे वह अत्यंत तृप्त और परम प्रशम तथा तृष्णाराहित्यको प्राप्त होजाता है । यहांतक कि स्वयं ध्येयके विषयमें भी वह तृष्णारहित होजाता है । ऐसा ही कहा भी है --
किमत्र बहुनोक्तेन ज्ञात्वा श्रद्धाय तत्त्वतः ।
ध्येयं समस्तमप्येतन्माध्यस्थ्यं तत्र बिभ्रता ।। इति । अधिक कहनेसे क्या प्रयोजन ? तत्वतः पदाथोंको जान कर तथा श्रद्धान कर उनके विषयमें माध्यस्थ्य -राग द्वेश और मोहसे रहित अवस्थाको धारण करनेवालेकेलिये ये सभी ध्येय हैं। इस प्रकारसे ध्यान करनेवाला द्रव्यकर्म और भावकमसे रहित, तथा स्व और पर पदार्थोंकी ज्ञप्तिरूप, पदार्थोके यथावास्थत स्वरूपसे विपरीत स्वरूपके अभिनिवेश-आग्रह तथा संशय विपर्यय अनध्यवसायसे रहित, परम औदातीन्यस्वरूप, सारांश यह कि अनंत शुद्धज्ञानानंदस्वरूप अपनी आत्माका स्वयं संवेदनरूपसे ध्यान करता है । इस प्रकारके ध्यान करनेको ही निश्चय मोक्षमार्ग कहते हैं। कहा भी है --
HOMEHETHEREITTERRAENTERPRETTERNER
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AGREENESS
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रयणत्तयं ण वट्टइ अप्पाणं मुयदु अण्णदवियम्हि । तम्हा तत्तियमइओ होदि हु मोक्खस्स कारणं आदा।। इति ।
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सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र, आत्माको छोड कर किसी अन्य द्रव्यमें नहीं रहते अतएव रत्नत्रयात्मक आत्मा ही मोक्षका कारण है ।
इस निश्चय मोक्षमागरूप ध्यानके बलसे उक्त भव्य समस्त कर्मोंको निर्मूल करदेता है। मिथ्यादर्शनादिसे परतन्त्र हुआ आत्मा अपने साथ जिस चीजको बांधता है उसको अथवा परतन्त्रताके निमित्त और आत्मप्रदेशोंके परिस्पदरूप ज्ञानावरणादिकको भी कर्म कहते हैं। इसके दो भेद हैं -द्रव्यकर्म और भावकर्म । आत्माके साथ बंधनेवाले ज्ञानावरणादिरूप पुद्गलपिंडको द्रव्यकर्म और उससे होनेवाले आत्मिक भावोंको भावर्कर्म कहते हैं । घाति अघाति अथवा बादर सूक्ष्म इस तरह भी कर्मके दो दो भेद होते हैं। आत्माके अनुजीवी गुणोंके घातनेवालोंको घाति और प्रतिजीवी गुणोंके घातनेवालोंको अघाति कर्म कहते हैं । तथा जो अनुभवमें आसकें उनको बादर और जो अनुभवमें न आसकें उन्हें सूक्ष्म कहते हैं । इन कर्मोको निमल कर वह भव्य सुखप्रधान गुणोंसे सदा प्रकाशमान रहता है। सब गुणोंमें सुखको प्रकृष्ट कहनेका प्रयोजन यह है कि वही सब जीवोंको सबसे अधिक अभीष्ट है । और दूसरे अनंत गुण इस परम आनंदस्वरूप अमृतसे सिक्त रहते हैं। इस प्रकार समस्त कर्मों के क्षयसे सिद्धावस्था प्राप्त होजानेपर यद्यपि सुखादिक अनंत स्वाभाविक गुण प्रकट होजाते हैं, फिर भी आठ कर्मोके अभावकी अपेक्षासे प्रधानतया आठ गुणोंसे वे सदा प्रकाशमान रहते हैं। जिनमें कि-मोहनीयकर्मके क्षयसे परमसम्यक्त्व अथवा सुख, ज्ञानावरपके क्षयसे अनंतज्ञान, दर्शनावरणके क्षयसे अनंतदर्शन, और अन्तरायकर्मके क्षयसे अनंतवीर्य प्रकट होता है । वेदनीयकर्मके क्षयसे अव्याबाध अथवा इंद्रियजनित सुखोंका अभाव, आयुःकर्मके क्षयसे परमसूक्ष्मता अथवा जन्ममरणका विनाश, नामकर्मके क्षयसे परम अवगाहन अथवा अमूर्तत्व, और गोत्रकर्मके क्षयसे अगुरुलघुत्व अथवा दोनो कुलका अभाव होता है । इन गुणोंसे सदा प्रकाशमान रहनेवाले तथा सिद्धि-स्वात्मोपलब्धिको प्राप्त करनेवाले वे सिद्ध परमात्मा मुझ ग्रंथकर्ताकी तथा
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इस ग्रंथके अध्ययन करनेवालोंकी आत्मामें व्यक्त स्वसंवेदनके विषय हो ।
. इस प्रकार सिद्ध भगवान्की स्तुतिका, पदोंकी अपेक्षासे, अर्थ किया गया है । क्योंकि अवयवोंके अर्थका परिज्ञान हुए विना समुदायका अर्थ समझमें नहीं आसकता । अत एव उक्त सब कथनका तात्पर्य समुदायरूपस भी यहां बता देते हैं। वह इस प्रकार है कि जो भव्य, चाहे वे अनादिमिथ्यादृष्टि हो चाहे सादिमिथ्यादृष्टि, किंतु, अंतरंग और बाह्य कारणोंके बलसे सम्यग्दर्शनका लाभ करनेपर समस्त परीषहों व उपसगाके जीतनेकी क्षमता प्राप्त होनेसे सर्व परिग्रहका त्याग कर निरंतर समीचीन श्रुतके अभ्यासमें रत रहते हुए समस्त इन्द्रियों तथा मनका अपने विषयोंसे निराध कर और उस प्रकारका अभ्यास करलेनेपर स्वयं अपनी शुद्धात्मामें शुद्ध निजात्मस्वरूपका ध्यान कर; यहांतक कि उसमें भी तृष्णारहित हो, समस्त घाति कौको नष्ट कर स्वाभाविक और निश्चल चैतन्यसे युक्त-सकल परमात्म-अवस्थाको प्राप्त होजाते हैं; और फिर क्रमसे अघातिकौको भी दूर कर लोकके अंतमें स्थित हो फेवलसम्यक्त्व केवलज्ञान केवलदर्शन और सिद्धत्वसे सदा प्रकाशमान रहते हैं-विकल परमात्म अवस्थाको प्राप्त हो जाते हैं --वे भगवान् सिद्धपरमष्ठी मुझमें नोआगमभावरूपसे मेरी आत्माको ही प्रकाशित करें।
देखा जाता है कि अर्हतादिकके गुणों में अनुराग रखनवाले तथा विचारपूर्वक कार्य करनेवाले सभी पूर्वाचार्योंने अपनेलिये ज्ञानदानके अंतरायको और श्रोताओंकेलिये ज्ञानलाभके अंतरायको दूर करनेकी इच्छासे शुभ परिणामों के द्वारा अशुभ कर्मप्रकृतियोंके रसके प्रकर्षको निर्मल नष्ट कर अभीष्ट अर्थकी सिद्धिकेलिये अपने अपने शास्त्रकी आदिमें इच्छानुसार अर्हतादिक समस्त उपास्योंकी ही स्तुति की है । अत एव इस ग्रंथकी आदि
अध्याय
* इस पधर्म ग्रंथकर्त्ताने केवल सिद्ध भगवान्के गुणों की स्तुति ही नहीं की है किंतु अपने द्वारा प्राणिमात्रके अंतिम साध्य और उनकी सिद्धिके उपाय तथा उपायके क्रमका भी वर्ण वरदिया है। तथा चतादिया है कि जिस क्रमके अनुसार और जिस उपायसे वह साध्य सिद्ध हो सकता है उसका इस ग्रंथमें हम वर्णन करेंगे ।
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में ग्रंथकारने भी अपने तथा पर-श्रोताओंके विघ्नोंको दूर करने के लिये पहले सिद्धोंका और पीछे अहंतोंका नांदीमंगलरूपसे विनयकर्म किया है। क्योंकि जो जिस गुणका अभिलाषी होता है वह उस गुणवालेकी उपासना करता है। अत एव सिद्धत्वगुणके अभिलाषी ग्रंथकारने सबसे पहले सिद्धोंकी ही उपासना की है। इसके बाद अर्हतोंकी भी उपासना की है । क्योंकि सिद्धत्वकी प्राप्तिकलिये जिस उपायकी आवश्यकता है उसके सर्वप्रधान उपदेशक अहंत ही हैं। कहा भी है कि
अभिमतफलसिद्धरभ्युपायः सुबोधः, प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादप्रबुद्धे,
न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ।। इति । अर्थातः-भव्योंके अभीष्ट फलकी सिद्धिका उपाय सम्यग्ज्ञान है, जो कि उस शास्त्रसे उत्पन्न होता है कि जिसकी उत्पत्ति आप्तसे होती है । अत एवं उसके प्रसादसे प्रबुद्ध होनेवालोंकेलिये वह आप्त अवश्य ही पूज्य है। क्योंकि साधुपुरुष किसीके भी किये हुए उपकारको भूलते नहीं हैं।
इसी प्रकार एक दूसरी बात यह भी है कि मोक्षकी अत्यंत इच्छा रखनेवालोंको परमार्थसे सबसे पहले सिद्ध परमात्माओंकी ही उपासना करनी चाहिये। इसी बातको दिखानेकेलिये ग्रंथकारने पहले सिद्धोंकी आराधना की है। कहा भी है कि
सपयत्थं तित्थयरं अधिगतबुद्धिस्स सुत्तरोयस्स। दूरतरं णिव्वाणं संजमतवसंपदं तस्स ।। तम्हा णिव्वुदिकामो णिसंगो णिम्ममो य भविय पुणो।
सिद्धेषु कुणदि भंती णिव्वाणो तेण पप्पोदी ।। इति । जो जीव अपनी आत्माका अन्तिम साध्य अर्थ तीर्थकर पदको ही मानता है वह चाहे सूत्रोंमें रुचि रखने
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वाला ही क्यों न हो; निर्वाण-मोक्ष और उसके साधन संयम तथा तपःसंपत्तिसे बिलकुल दूर है. अत एव निवृतिकी इच्छा रखनेवालोंको निःसंग और निर्मम होकर सिद्धोंमें भक्ति करनी चाहिये-अपना अन्तिम साध्य अर्थ सिद्ध पदको ही समझना चाहिये, जिससे कि वस्तुतः निर्वृतिकी प्राप्ति हो सके। ____ इस प्रकार अनंत ज्ञानादिगुणोंके समूहको प्राप्त करनेकी इच्छासे ग्रन्थकार पहले सिद्धोंकी आराधना करके अब उसके उपाय बतानेवालोंमें सबसे श्रेष्ठ, तीन जगत्के ज्येष्ठ-गुरु, और समस्त संसारके अद्वितीय शरण्य भगवान् अर्हट्टारककी शरण प्राप्त करना मनमें रखकर उनकी स्तुति करते हैं
श्रेयोर्मागानभिज्ञानिह भवगहने जाज्वदुःखदावस्कन्धे चक्रम्यमाणानतिचकितमिमानुद्धरेयं वराकान् । इत्यारोहत्परानुग्रहरसविलसद्भावनोपात्तपुण्य, प्रक्रान्तैरेव वाक्यैः शिवपथमुचितान् शास्ति योर्हन् स नोऽव्यात् ॥ २ ॥
KAREE RARRHERENCERNE FERRRAFARAHEATE
इस संसाररूपी वनमें जिसमें कि दुःखोंके दावानलका स्कन्ध बार बार और अच्छी तरह जलरहा है। इधर उधर भ्रमण करनेवाले किंतु कल्याणके मार्गसे अनमिन प्राणियोंके विषय में अत्यंत चकित होकर उत्पन्न हुई, और बढ़ रहा है परोपकारके रसका विलास जिसमें ऐसी-विविध प्रकार के दुःखोंसे अत्यंत त्रस्त हुई, 'तीन जगतके जीवोंका मैं एकसाथ ही कब उद्धार करदं' इस भावना-तीर्थकरत्वभावनाके बलसे संचित हुए पुण्य -तर्थिकर प्रकृतिके निमित्तसे ही उत्पन्न हुए वाक्योंके द्वारा जो अहंत देव, सभामें आये हुए भव्योंको कल्याणके मार्गका उपदेश देते हैं वे मेरी रक्षा करो।
भावार्थ-जहांपर नरक तिर्यच मनुष्य और देव इन चारो गतियोंमें ये जीव जन्ममरणको धारण करते हुए सदासे रहरहे हैं उसको भव या संसार कहते हैं । यह संसार एक प्रकारका वन है। क्योंकि जिस प्रकार
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वन अनेक दुःखोंका निमित्त होता है उसी तरह इसमें भी जीव विविध प्रकारके दुःखोंका भोग करते हुए ही रहरहे हैं । यद्यपि ये सांसारिक दुःख जिनको कि यह संसारी जीव निरंतर भोगता रहता है, अनेक प्रकारके हैं फिर भी वे चार भागों में विभक्त हैं- सहज, शारीर, मानस और आगन्तुक | सरदी गरमी धूप वर्षा आदि ऋतुओं के निमित्तसे अथवा भूख प्यास आदि से होनेवाले परितापको साहजिक, शरीर में होनेवाली बीमारी आदिके निमित्तसे उत्पन्न हुए क्लेशको शारीरिक, चिंता शोक संज्ञा रति आदिके द्वारा हुए संतापको मानासिक, और किसी मनुष्य देव या तिर्थचादिके निमित्तसे आ उपस्थित होनेवाली बाधाओंको आगन्तुक दुःख कहते हैं। जब कि संसार एक प्रthreat वन है तो उसमें होनेवाले ये दुःख दावानल हैं। क्योंकि जिस प्रकार दावानलसे वहां पर रहनेवालोंको विनाशांत विविध प्रकारकी शारीरिक और मानसिक आपत्तियां प्राप्त होती हैं उसी प्रकार इन दुःखोंसे भी अपनेसे सम्बद्ध अथवा संसारमें रहनेवाले प्राणियोंको जबतक उनसे सम्बन्ध न छूट जाय तबतक अथवा मरण पर्यंत अनेक प्रकार की आपत्तियां प्राप्त होती हैं । सारांश यह कि प्राणियोंको आपत्ति पहुंचानेमें निमित्त होना ही इस दुःखरूप दावानल के स्कन्धका कार्य है और इसीलिये यह उत्पन्न होता है । इस प्रकारका यह दुःखरूप दावानलका स्कन्ध जिसमें निरंकुशतया वार वार और खूब जोरसे धधक रहा है ऐसे उक्त संसाररूपी वनमें ये प्राणी इस प्रकार से इतस्ततः भ्रमण कर रहे हैं कि उससे छुटकारेकी या कल्याणकी इच्छा रखते हुए भी उल्टे उन्हीकी तरफ जा उपस्थित होते हैं । इसका कारण यह है कि वे मोक्षके मार्गसे अनभिज्ञ हैं । संसारका अभाव होजानेपर जfवको जो निज स्वरूपका लाभ होता है उसको मोक्ष कहते हैं। इसकी प्राति उपायका नाममार्ग है । व्यवहारनयसे सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको तथा निश्चयनयसे इस रत्नत्रयस्वरूप निजात्माको ही मोक्षमार्ग कहते हैं । इसके स्वरूपका इन संसारी जीवोंको संशयादि - रहित पूर्ण रूपसे अथवा व्यवहार या निश्चय नयके द्वारा ज्ञान नहीं है; इसीलिये उन दुःखोंसे व्याप्त संसारवनसे वे मुक्ति प्राप्त नहीं करसकते । अर्थात् मुक्तिके समीचीन उपायसे मूढ रहनेके कारण ही ये प्राणी उक्त
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१ वहां पर रहनेवाले या दवानल दोनोंमेंसे किसी एकका जबतक विनाश न हो जाय तत्रतक
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प्रकारके दुःखोंसे पूर्ण भी संसाररूपी वनमें भ्रमण कर रहे हैं और दुःख भोग रहे हैं। " इस प्रकार विचित्र दुःखोंसे त्रस्त हुए इन [ अपने हृदयंगत ] दीन, तीन जगत्के जन्तुओंका मैं एकसाथ उद्धार कर, इस दुःखपूर्ण संसाररूपी बनसे छूटनेके उपायका उपदेश देकर इनका उपकार करूं?” इस भावनाको तीर्थकृत्त्वभावना कहते हैं । यह मुख्यतया अपायावचय नामके एक धर्मध्यानके ही भेद है । यही बात गर्भान्वयक्रियाका वर्णन करते हुए आगममें भी कही है
मैनाध्ययनवृत्तत्वं तीर्थकृत्तस्य भावना।
गुरुस्थानाभ्युपगमो गणोपग्रहणं तथा ॥ इति । एक साथ ही तीन जगत्का अनुग्रह करनेकेलिये समर्थ होनेकी इस भावनामें उक्त दयाके पात्र प्राणियों के अभ्युद्धारकी बुद्धि इस प्रकारसे उत्पन्न होती है कि जिसके साथ ही साथ उनके दुःसह दुःखरूप दावानलकी ज्वालाओंके भभूकोंको देखकर हृदयमें उत्पन्न हुआ क्लेद आखोंसे निकली हुई अश्रुधारासे अभिव्यक्त हो जाता है। और इसीलिये इस बुद्धिसे बार बार आत्मामें उन्हींका विचार उत्पन्न होता है । आत्मस्वरूप और परम करुणासे अनुरक्त अन्तश्चैतन्य परिणामोंसे प्रतिक्षण बढनेवाले परोपकारके रस अथवा उससे उत्पन्न हुए हर्षके कारण ये भावनायें अपना विशेषरूपसे प्रकाश करती हैं। इस प्रकारकी भावनायें दूसरे साधारण व्यक्तियोंके नहीं पाई जा सकती क्योंकि अनगारकेवलित्वके योग्य भावना करनेवालोंके इन भावनाओंका उत्पन्न होना असंभव है। इनके दर्शनविशुद्धि आदिक सोलह भेद हैं। ये एक प्रकारके मनोगत संस्कार हैं जो कि परम पुण्य तीर्थकर नामकर्मके बन्धकेलिये कारण हैं । इन भावनाओं के बलसे संचित, किंतु केवलज्ञानके साहचर्यको पाकर उदयको प्राप्त होनेवाले तीर्थकरनामक पुण्यकर्मविशेषसे ही उत्पन्न हुए वाक्यों-दिव्यध्वनिके द्वारा जो मोक्षमार्गकी जिज्ञासासे सभामें आये हुए भव्योंको उक्त मोक्षमार्गका उपदेश देते हैं वे भगवान् अर्हन् हम त्राणार्थियोंकी रक्षा करें-अभ्युदय और निःश्रेयससे भ्रष्ट करनेवाले उपायरूप अपायोंसे हमको दूर रक्खें ।
स
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१ श्री जिनसेन स्वाभिकृत महापुराणमें कहा है !
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अर्हन्तदेवके वाक्योंको तीर्थकरनामक पुण्यकर्मविशेषसे ही उत्पन्न हुए कहनेका प्रयोजन यह है कि उनके वाक्य विवक्षा आदिकसे उत्पन्न नहीं होते; क्योंकि वीतराग भगवान्के विवक्षाका होना बन नहीं सकता । यही बात कही भी है
यत्सर्वात्महितं न वर्णसहितं न स्पन्दितीष्ठद्वयं, . नो वाच्छाकलितं न दोषमलिनं न श्वासरुद्धक्रमम् । शान्तामर्षविषैः समं पशुगणैराकर्णितं कर्णिभि
स्तन्नः सर्वविदः प्रणष्टविपदः पायादपूर्व वचः ।। इति । समस्त विपत्तियोंको नष्ट करदेनेवाले सर्वज्ञदेवके वे वचन हमारी रक्षा करें जो कि, शान्त होगया है कषायविष-पारस्परिक वैरविरोध जिनका ऐसे पशुगणोंके साथ साथ, सभी श्रोत्रन्द्रियके धारकोंके द्वारा सुने जाते तथा समस्त प्राणियोंकेलिये हितकर हैं, एवं जो न होठोंसे मलिन हैं और न वर्गों-अक्षरोंसे सहित हैं। तथा जिसका क्रम श्वाससे रुद्ध नहीं होता, और जिसके उत्पन्न होनेमें न तो दोनो ओष्ठोंका स्पन्दन-हलन चलन ही होता है और न अंतरंगों वाञ्छा-विवक्षा ही होती है। इससे स्पष्ट है कि भगवान् के वाक्य विवक्षाजनित नहीं हैं। किंतु वे केवलज्ञानका साहचर्य पाकर उदयको प्राप्त हुई तीर्थकर प्रकृतिके निमित्तसे ही उत्पन्न होते हैं । इन वाक्योंको ही दिव्यध्वनि कहते हैं। इस दिव्यध्वनिक विषयमें कहा गया है कि
पुब्बण्हे मज्झण्हे अवरण्हे मज्झिमाये रत्तीये ।
छच्छग्घडिया णिग्गय दिव्वझुणी कहइ सुत्तत्थे ॥ इति । अर्थात्-भगवान्की दिव्यध्वनि पूर्वाह मध्यान्ह और अपराण्ह तथा अर्धरात्रि इन चार-समयोंमें छह छह घडी तक होती है और वह सूत्रके अर्थों का अथवा सूत्ररूप अर्थका निरूपण करती है। इसी दिव्यध्वनिके द्वारा भगवान् अर्हन् भव्योंको मोक्षमार्गका निरूपण करते हैं । तथा
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दृग्धिशुद्धयाद्यत्यतीर्थकृत्त्वपुण्योदयात् स हि।
- शास्त्यायुष्मान् सतोऽर्तिनं जिज्ञासूस्तीर्थमिष्टदम् ॥ उक्त दर्शनीवशुद्धयादि भावनाओंके द्वारा संचित तीर्थंकर प्रकृतिरूप पुण्य कर्मके उदयसे वे आयुष्मान् भगवान् मोक्षमार्गके जिज्ञासु भन्योंको, संसारकी पीडाको दूर करनेवाले और इष्ट-मोक्ष फलके देनेवाले तीर्थसंसारसे निस्तरणके उपायका उपदेश देते हैं।
.. इस प्रकार सिद्धोंके अनंतर मोक्षमार्गके सर्वप्रधान उपदेशक भगवान् अर्हन्तदेवकी स्तुति की गई । अर्हन् शब्दका निरुक्तिकी अपेक्षा अर्थ होता है कि जो पूजाके योग्य हो । अतएव मोहनीय ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तराय इन चार घातिकमोंके दूर कर देनेसे जिनको अनन्त चतुष्टय [ अनंत- सुख ज्ञान दर्शन वीर्य ] स्वरूप प्रास होगया है उनको अर्हन् कहते हैं।
इस स्तुतिमें अर्हन्तदेवके स्वरूपका ही निरूपण नहीं किया है किंतु उस स्वरूपकी प्राप्तिके उपाय और क्रमका भी वर्णन कर दिया है। यह बात उक्त और आगेके कथनसे स्पष्ट ही समझमें आ सकती है। क्योंकि अर्हतके स्वरूप और उसके कारण तीर्थकर प्रकृति तथा उसके भी कारण दर्शनविशुद्धयादि भावनाओंके स्वरूप तथा उनके भी विषयके वर्णन करनेका प्रयोजन यही है। उक्त कथनका सारांश यही है कि तीनो लोकके सभी प्राणी श्रेयोमार्गका यथावत् ज्ञान न रखनेके कारण दुःखोंसे भीत रहते हुए भी उल्टे ही चलते हैं। चाहते हैं कि हमारा दुःखोंसे छुटकारा हो किंतु सेवन उनका करते ही हैं, जो कि दुःखोंके ही उपाय हैं। अतएव जिनके हृदयमें यह बात देखकर उनके अभ्युद्धारकी वह अनुकम्पापूर्ण बलवती भावना उत्पन्न होती है जो कि तीर्थकर प्रकृतिके बंधकेलिये कारण हैं, और जो घातिकर्मीका घात कर उस अनंतचतुष्टय स्वरूपको प्राप्त करते हैं जिसके कि साहचर्यसे उक्त भावनाके द्वारा संचित तीर्थकर प्रकृतिका उदय होता है; और अंतमें जो इस तीर्थकर पुण्यकर्मके उदयके निमित्तसे ही उत्पन्न हुई दिव्यध्वनिके द्वारा श्रेयोमार्गका ज्ञान करा कर उन प्राणियोंका अभ्युद्धार कर देते हैं। वे अर्हन्त देव मेरा भी अभ्युद्धार करें । क्योंकि लोकमें भी यह बात देखी
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जाती है कि किसी ऐसे दुस्तर और घोर जंगलमें जिसमें कि जलती हुई दावानलकी ज्वालाओंसे उसके वृक्ष
और जानवर जल रहे हों, दुर्दैवसे फसजानेवाले किंतु उससे निकलनेके मार्गको न जाननेवाले पथिकोंको उससे निकलनेकी इच्छासे उल्टे दावानलकी ही तरफ वेगसे जाते हुए देखकर भी ऐसा कौन दयाद्रहृदय और परोपकारपर सज्जन होगा जो कि उनको उस वनसे निकलजानेके समीचीन मार्गका उपदेश देना न चाहे। और जहांतक उससे वने उनके अभ्युद्धारका प्रयत्न न करे । ___इस प्रकार मोक्षमार्गके उपदेश देनेवालोंमें सर्वश्रेष्ठ अर्हत देवकी स्तुति की । अब उनके उपदिष्ट अवरूप समय--सिद्धांतकी ग्रंथरूपमें रचना करनेवाले और इसीलिये समस्त जगत्के उपकारी गणधर देवादिकॉका अंथकार हृदयमें ध्यान करते हैं। -
सूत्रग्रथो गणधरानभिन्नदशपूर्विणः ।
प्रत्येकबुद्धानध्येमि श्रुतकेवलिनस्तथा ॥३॥ अर्हद्भाषित अर्थरूप समय--सिद्धांतकी अंग या पूर्वरूपसे ग्रंथरचना करनेवाले गणधर, अभिन्नदशपूर्वी, प्रत्येकबुद्ध तथा श्रुतकेवलियाँका मैं अपने हृदयकमलमें ध्यान- हर्षित दुआ एकाग्रताके साथ वार वार चिंतवन-करता हूँ।
भगवान्के समवसरणमें बैठनेवाले मुनिआदि बारहविध सभ्योंको जो धारण करते हैं-मिथ्यादर्शनादिसे हटाकर सम्यग्दर्शनादिकमें स्थापित करते हैं उनको गणधर कहते हैं । इनका दूसरा नाम धर्माचार्य भी है। ___ विद्यानुवादका अध्ययन करते समय स्वयं आई हुई वारहसौ विद्याएं जिनको चारित्रसे च्युत नहीं कर सकती और जो उत्पादपूर्वसे लेकर विद्यानुवाद तक दश पूर्वका ज्ञान रखते हैं उनको अभिन्नदशपूर्वी कहते हैं। क्योंकि वे चारित्रसे व्युत न होनेके कारण अमिन और दशपूर्वका ज्ञान रखनेके कारण दशपूर्वी हैं।
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- जिनको एक श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमविशेषसे ही, न कि परोपदेशादिककी अपेक्षासे, सातिशय ज्ञान शप्त होजाता है उनको प्रत्येकवुद्ध कहते हैं । . श्रुतका स्वरूप पहले लिखा जाचुका है । समस्त श्रुतके ज्ञानियोंको श्रुतकेवली कहते हैं। ये श्रुतकेवली भी सर्वज्ञदेवके ही सदृश होते हैं ।
अर्हतदेवने मोक्षमार्ग तथा उसके विषयभूत समस्त पदार्थोंके विषयमें जो निरूपण किया है उसके ग्रंथरूप करनेका कार्य और उसके कर्ता गणधरादिक, दोनों ही, ग्रंथकारको यहांपर इष्ट हैं । जब कि दोनो इष्ट हैं तो 'जो जिसके गुणोंको चाहता है वह उसकी स्तुति भक्ति करता है' इस नीतिक अनुसार उन गणधरादिकोंकी स्तुति करना भी निश्चित है । अत एव इस निश्चयके अनुसार ही ग्रंथकारने गणधरादिक और उनके विशिष्ट कार्य दोनोंकी यहांपर स्तुति की है। ___इस प्रकार परमागम और उसके रचयिताओंकी स्तुति की । अब ग्रंथकार जिनागमका व्याख्यान करने वाले आरातीय आचार्योंकी स्तुति करते हैं।
ग्रन्थार्थतो गुरुपरम्परया यथाव-, च्छृत्वावधार्य भवभीरुतया विनेयान् । ये ग्राहयन्त्युभयनीतिबलेन सूत्रं,
रत्नत्रयप्रणायनो गणिनः स्तुमस्तान् ॥ ४॥ "जाती जाती यदुत्कृष्ट तत्तद्रत्नमिहोच्यते " -जो जिस जातिमें उत्कृष्ट होता है उसको उसका रत्न कहते हैं। इस वचनके अनुसार जीवोंके परिणामोंमें सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीन ही प्र
第靈靈靈靈靈驗顯露露露露缀繁靈靈驗顯靈靈靈靈靈靈驗等
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धान हैं इसलिये इनको रत्नत्रय कहते हैं। क्योंकि जीवको अभ्युदय और निःश्रेयसका सम्पादन ये ही करा सकते हैं । यह रत्नत्रयरूप परिणाम जिनकी आत्मामें प्रकट होगया है, और जो संसारसे भीरुता-संवेगके कारण सूत्रसत्य और युक्तियुक्त प्रवचनको ग्रंथ अर्थ या उभयरूपस गुरुपरम्परा-तीर्थकर या गणधरदेवादिकक शिष्य प्रतिशिष्योंसे ज्योंका त्यों सुनकर और उसके अशेष विशेषोंको इस प्रकारसे धारण करके कि जिससे कालांतरमें भी उनका विस्मरण न होसके. विनेयोंको-ऐसे शिष्योंको कि जिन्होंको शास्त्रका इस प्रकारसे अभ्यास कराया जाता है-शिक्षा दी जाती है कि जिससे वे उस विषयमें संशयादिरहित और व्युत्पन्न होजांय- दोनो नयोंके बलसे निश्चय करादेते हैं उन श्री कुंदकुंदाचार्य प्रभृति धर्माचार्योंको हमारा नमस्कार है।
सूत्र प्रकरण या आन्हिकादिरूपसे रचे गये ऐसे वचनसंदर्भको ग्रंथ कहते हैं जिससे कि विवक्षित पदार्थका प्रतिपादन हो सके । ग्रंथों में जिन विषयोंका प्रतिपादन किया जाता है उनको अर्थ कहते हैं। सूत्र-शब्दका अथं यद्यपि ऐसा होता है कि जो पदार्थोंको सूचित करे अथवा जिस वाक्यमें संक्षपसे बहुतसे पदार्थोंका संकलन करदिया जाय । अर्थात् सत्य और युक्तियुक्त प्रवचनको ही सूत्र कहते हैं। फिर भी यहांपर सूत्र शब्दसे अङ्गप्रविष्ट और अंगबाह्य इन दो भेदरूप श्रुतके कहनेका ही प्रयोजन है। इनमेंसे पहले भेदकी गणधरादिकने और कालिक उत्कालिकरूप आदि दूसरे भेदकी रचना दूसरे आचायाने की है। उक्त आचार्य भगवद्भाषित किंतु गणधरादिरचित सूत्र-श्रुतका भवभीरुताके कारण कभी ग्रंथोंका कभी अर्थका और कभी दोनोंका आश्रय लेकर गुरुमुखसे ज्योंका त्यों श्रवण और अवधारण करते हैं। यहांपर भवभीरुता, श्रवण और अवधारण इन दोनो क्रियाओंका करण है। अत एव जिस प्रकार सडासीकी दोनो फली एक साथ ही बटलोईसे सम्बद्ध होती हैं उसी प्रकार यह (भवभीरुता) भी दोनो क्रियाओंके साथ युगपत् ही अन्वित होती है ।
इस प्रकार उक्त आचार्य गुरुपरम्परासे चले आये सूत्रप्रवचनको स्वयं सुनते और अवधारण करते हैं; यही नहीं किंतु दोनो नयोंके बलसे अपने शिष्योंको भी उसका दृढ ज्ञान करादेते हैं। श्रुतज्ञानीके जो पदार्थके एकदेशका निश्चय होता है उसीको नय कहते हैं। इसके दो भेद हैं, जिनको कि आगमकी भाषामें द्रव्यार्थिक नय और पर्याया
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र्थिक नय, किंतु अध्यात्मकी भाषामें व्यवहार नय और निश्चय नय कहते हैं। इन दोनो नयोंमें यह सामर्थ्य है कि सर्वथा एकांतवादके माननेवाले, उक्त प्रवचनमें, इनके रहनेसे, किसी तरहकी भी बाधा उपस्थित नहीं करसकते । अत एव उक्त आचार्य इन नयोंकी सामर्थ्यसे अपने शिष्योंको भी उक्त प्रवचनका इस तरह दृढ ज्ञान करादेते हैं जिससे कि वे उस विषयमें बिलकुल संशयादिरहित और अच्छी तरह व्युत्पन्न हो जाते हैं।
इस प्रकार सिद्ध भगवान्के स्वरूपका तथा उसकी प्राप्तिके उपायका निरूपण कर सकनेवाले परमागमके उपदेष्टा और उसके ग्रंथरूपमें रचयिता तथा व्याख्याता और जिनका गुरुपद सबसे प्रधान और महान मानागया है ऐसे श्री अर्हद्भट्टारक और उक्त गणधरादिक चार तथा आरातीप-ऐदंयुगीन प्रधान धर्माचार्योंकी क्रमसे स्तुति की। अब उन्होंने जो धर्मोपदेश दिया था, जो कि वक्ता और श्रोता दोनोंके कल्याणका करनेवाला है, उसकी स्तुति करनकोलये ग्रंथकार कहते हैं
धर्म केपि विदन्ति तत्र धुनते संदेहमन्येऽपरे, . तद्धान्तेरेपयंति सुष्टु तमुशन्त्यन्येऽनुतिष्ठन्ति वा ।
श्रोतारो यदनुग्रहादहरहर्वक्ता तु रुन्धन्नघं,
विष्वाग्निर्जरयंश्च नन्दति शुभैः सा नन्दताद्देशना ॥५॥ जिसके निमित्तसे जीव नरकादिक गतियोंसे निवृत्त होकर उत्तम गतियोंमें जा उपस्थित होते हैं अथवा जो अपनेको उत्तम गतियोंमें ही अवस्थित रखता है उसको धर्म कहते हैं । यह धर्म मोह और क्षोभसे रहित आत्मपरिणामरूप है; अथवा वस्तुके याथात्म्यस्वभावरूप; यद्वा उत्तमक्षमादि दशलक्षणरूप है। दूसरोंके हितार्थ इस धर्मके प्रतिपादन करनेको धर्मोपदेश कहते हैं।
कितने ही जीवोंके, जिनके कि ज्ञानावरण कर्मका तीव्र उदय हो रहा है, इस धर्मके विषयमें अनध्यव.
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साय लगा हुआ है। ऐसे जीव धर्मके नाम तथा स्वरूपसे बिलकुल ही अनभिज्ञ हैं। वे यह नहीं जानते कि धर्म क्या वस्तु है और उसका क्या स्वरूप है। इसी प्रकार कितने ही जीवोंके, जिनके कि ज्ञानावरण कर्मका उदय मंद है, धर्म और उसके स्वरूपके विषयमें इस तरहका चलितप्रतीतिरूप संदेह लगा हुआ है कि 'धर्म यही है या दूसरा है, अथवा धर्मका यही स्वरूप है या दूसरा स्वरूप है'। तथा कितने ही जीवोंके, जिनके कि ज्ञानावरण कर्मका उदय मध्यम दर्जेका है, इसके विषयमें भ्रम-विपर्यास लगा हुआ है। ऐसे जीव यथार्थ स्वरूप से विपरीत ही धर्मके स्वरूपका निश्चय किये हुए हैं। किंतु उक्त धर्मोपदेशके प्रति दिन सुननेवाले जीवोंका उसके अनुग्रहसे वह वह अज्ञान संशय अथवा विपर्यास दूर हो जाता है। जो अज्ञानी हैं उनका उक्त अज्ञान धर्मोपदेशके प्रतिदिन सुनते सुनते दूर होजाता है और यथार्थ स्वरूप तथा आकारविशेषकी अपेक्षा ऐसा निश्चय होजाता है कि " धर्म यही है और ऐसा ही है"। इसी प्रकार इस धर्मोपदेशके अनुग्रहसे ही संदिग्धोंके उक्त संदेहका विनाश और विपर्यस्तोंके उक्त विपर्यासका भी निरास होजाता है और धर्मके स्वरूप तथा आकारका उक्त प्रकारसे निश्चय होजाता है। इन तीनो कार्योंको, धर्मोपदेशके अनुग्रहसे, ऐसा कहनेका प्रयोजन यह है कि जीवोंको क्षयोपशमके अनुसार अतिशयप्राप्तिमें यह निमित्त कारण पडता है।
यहांपर यह बात भी समझलेनी चाहिये कि धर्मोपदेशका यह फल तीन प्रकारके अव्युत्पन्न सम्यग्दृष्टि अथवा भद्रपरिणामी मिथ्यादृष्टियोंकी अपेक्षासे ही दिखाया गया है। क्योंकि जो क्रूर परिणामी मिथ्यादृष्टि हैं वे उपदेशके अधिकारी नहीं हो सकते।
जो सम्यग्दृष्टि श्रोता हैं उनको प्रतिदिन इस धर्मोपदेश सुननेका यह फल प्राप्त होता है कि उक्त धर्मके विषयमें 'धर्म यही है, इसी प्रकारसे है, अन्य नहीं हैं, और न अन्य प्रकारसे है ' इस तरह अनुबोधरूपसे उनका श्रद्धान दृढ हो जाता है। इसी प्रकार जो दृढश्रद्धानी श्रोता हैं उनको अथवा दूसरे सम्यग्दृष्टियोंको भी उसके प्रतिदिन सुननेसे यह फल प्राप्त होता है कि वे उसके अनुग्रहसे वैसा (उपदेशके अनुसार) आचरण भी करने लगते हैं। इसी प्रकार जो सम्यग्दृष्टि पहलेसे आचरण भी करते हैं उनको यह फल प्राप्त होता है कि वे इसके
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प्रसादसे और भी अच्छी तरह आचरण करने लगते हैं ।
धर्मोपदेशका यह फल श्रोताओंकी अपेक्षासे कहा गया है किंतु वह केवल श्रोताओंको ही नहीं, वक्ताको भी प्राप्त होता है । वह वक्ता भी इसके अनुग्रहसे सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्ररूप कर्मोंका संचय करता, तथा पूर्वसंचित पुण्य कर्मके फलरूप अभ्युदयोंसे प्रतिदिन समृद्धियाँको प्राप्त होता है । क्योंकि पुण्यका संचय और फल शुभ परिणामोंसे प्राप्त होता है और धर्मोपदेश देनेसे शुभ परिणाम होते हैं । इसी प्रकार आगामी काल में मन वचन और काय इन तीन योगोंके द्वारा आनेवाले तथा ज्ञानावरणादि पापकर्मरूप परिणमन करने योग्य पुद्गलोंका वह निराकरण- संवर करता, तथा पूर्वसंचित पापकर्मों का क्रमसे क्षपण - निर्जरा भी करता है । सारांश यह कि धर्मोपदेश स्वाध्याय नामका तपोविशेष है । इसलिये उसके प्रसाद से धर्मोपदेष्टा - वक्ता के अशुभ ailer संवर और उसके साथ साथ निर्जरा होती है। किंतु इस उपदेश में प्रशस्त राग भी पाया जाता है । इसलिये उसके निमित्तसे पुण्यपुञ्जका आस्रव तथा पूर्वबद्ध पुण्य कर्मका प्रचुरतया विपाक भी होता है, जिससे कि नवीन नवीन विविध अभ्युदयोंकी सिद्धि होती है ।
भावार्थ - जिसके अनुग्रहसे अनेक श्रोताओंको मुख्यतया धर्मके स्वरूपका ज्ञान या उस विषयके संशयका विनाश अथवा विपर्यासका निरास, यद्वा श्रद्धानका पुष्टीकरण और चारित्रकी सिद्धिरूप विशेष विशेष फल प्राप्त होते हैं, एवं व्याख्याताको अशुभ कर्मोंका संवर और निर्जरारूप तथा पुण्यपुञ्जका आस्रव और उसके उदयसे विविध अम्युदयोंकी प्राप्तिरूप फल होते हैं । वह धर्मकी देशना सदा समृद्धिको प्राप्त हो । इस प्रकार आशीर्वादात्मक नमस्कार के द्वारा ग्रंथकारने यहांपर धर्मोपदेशकी स्तुति की है ।
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पूर्वोक्त प्रकारसे भगवान् सिद्धपरमेष्ठी प्रभृतिके गुणगणका पुनः पुनः स्मरणरूप मुख्य मंगल करके अब ग्रंथकार वक्ष्यमाण ग्रंथकी आदिमें उसके प्रमाण और उसमें जिस विषयका वर्णन करेंगे उसके नामसे ही ग्रंथके भी नामको प्रकाशित करते हुए ग्रंथरचना करनेकी प्रतिज्ञा करते हैं । -
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अथ धर्मामृतं पद्यद्विसहस्या दिशाम्यहम्।
निर्दःखं सुखमिच्छन्तो भव्याः शृणुत धीधनाः॥६॥ इस पद्यकी आदिमें जो अथ-शब्द आया है वह मंगलवाचक है। क्योंकि- “सिद्धिबुद्धिर्जयो बृद्धी । राज्यपुष्टिस्तथैवच । ओंकारश्चाथशब्दश्च नांदीमंगलवाचिनः ॥ " सिद्धि, बुद्धि, जय, वृद्धि, राज्यपुष्टि, तथा ओंकार और अथशब्द नांदीमंगलवाची हैं। अथवा अथ-शब्द अधिकारवाचक होसकता है। क्योंकि यहांसे शास्त्रका अधिकार चलता है। यद्वा अनन्तर अर्थ करना चाहिये। क्योंकि मुख्य मंगलको करनेके अनंतर अब ' ऐसा अर्थ भी यहां होता है । -
परिमित अक्षर तथा मात्राओंके समूहका नाम पद है। इन पदोंके द्वारा श्लोक आर्या गीति उपगीति आदि छंदरूपमें की गई वाक्यरचनाको पद्य कहते हैं । ऐसे दो हजार पद्योंके द्वारा मैं धर्मामृत ग्रंथका प्रतिपादन करता हूं। सुननेकी इच्छा तथा श्रवण ग्रहण धारण आदि आठ गुणोंसे युक्त बुद्धिरूप धनके धारण करनेवाले हे भव्यो ! दुःखोंसे सर्वथा अतिक्रांत मोक्षसुखकी इच्छा रखते हुए आप इसको सुनें। क्योंकि सुखका वास्तविक लक्षण निराकुलता है, जो कि मोक्षमें ही प्राप्त हो सकता है । संसारमें जो सुख है वह दुःखोंसे मिश्रित अथवा दुःखरूप ही है। कहा है कि
... सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं ।
ज इंदिएहि लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा ।। इति । जो सुख इन्द्रियों से प्राप्त होता है वह सुख नहीं; वास्तवमें दुःख ही है । क्योंकि वह परवश-कमाके अधीन, बाधासहित-दुःखोंसे मिश्रित, विच्छिन्न, सांत-नष्ट होनेवाला, कर्मबंधका कारण, और विसम-कुटिल अथवा भयंकर है।
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किसी किसी वाक्यमें चशब्दका लुप्तनिर्देश भी रहा करता है। यथा-'पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति तत्वानि' यहांपर वायुशब्दके साथ चशब्दके न रहनेपर भी ऐसा अर्थ होता है कि 'पृथिवी जल अग्नि और वायु ये तत्त्व है। इसी प्रकार यहांपर भी सुख-शब्दके साथमें चशब्दका लुप्तनिर्देश समझना चाहिये । जिससे उपर्युक्त वाक्यका दूसरा अर्थ ऐसा भी होसकता है कि 'दुःखोंके अभाव और सुखकी इच्छा रखनेवाले आप इस ग्रंथको सुनें ।' क्योंकि दुःखोंका अभाव और सुख ये दो बातें हैं और दोनो ही की प्राणियोंको इच्छा है।
. ऊपर भव्योंके जो दो विशेषण दिये हैं उनसे यह बात भी समझलेनी चाहिये कि जो दुःखरहित सुखकी इच्छा और उक्त प्रकारके बुद्धिरूप धनके धारण करनेवाले भव्य हैं वे ही इस ग्रंथके सुननेके अधिकारी हैं । क्योंकि इस ग्रंथमें जिस विषयका प्रतिपादन किया जायगा उसकी या उसके फलकी जो इच्छा ही नहीं रखते अथवा जो इस ग्रंथके समझनेकी योग्यता ही नहीं रखते वे इसके सुननेके अधिकारी किस तरह हो सकते हैं?
धर्मका लक्षण ऊपर लिखा जाचुका है। वह धर्म अमृतके समान है; क्योंकि उसका उपयोग प्राणियोंको अजर और अमर बनानकोलिये कारणरूप है। इसी धर्मरूपी अमृतके स्वरूपका इस ग्रंथमें प्रतिपादन करेंगे । अतएव इस ग्रंथका नाम भी धर्मामृत है । क्योंकि विषयके नामसे. भी ग्रंथका नाम रक्खा जाता है । देखते हैं कि प्राचीन कवियोंने भी अभिधेयके नामसे तत्वार्थवृत्ति यशोधरचरित आदि शास्त्रोंके नाम रक्खे हैं। इसी प्रकार रुद्रट भट्टने भी कहा है कि " काव्यालंकारोयं ग्रंथः क्रियते यथायुक्ति--मैं युक्तिपूर्वक इस काव्यालंकार ग्रंथकी रचना करता हूं।" .
इस प्रकार ग्रंथकारने प्रमाण और नामका निर्देश करते हुए ग्रंथ रचनेकी प्रतिज्ञा की, किंतु ग्रंथकी आदिमें छह बातें दिखाये बिना उसकी रचना नहीं होती यह बात प्रसिद्ध है। यथा--
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" मङ्गलनिमित्तहेतुप्रमाण.नामानि शास्त्रकर्तृश्च । व्याकृत्त्य षडपि पश्चाद्वयाचष्टां शास्त्रमाचार्यः ।।"
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मङ्गल, निमित्त, हेतु, प्रमाण, नाम, और शास्त्रका, इन छह बातोंको पहले दिखाकर पीछे आचार्य ग्रंथकी रचना करते हैं । अत एव इन छह बातोंको ही पहले यहांपर दिखाते हैं। ..मंगल-जो म-मल- पापको गलादे अथवा मङ्ग-पुण्यको दें उसको मङ्गल कहते हैं । यह, प्रारब्ध : कार्य निर्विघ्नतया सिद्ध होनेकेलिये किया जाता है । मंगल दो प्रकारका होता है; १ मुख्य, २ गोण.। मुख्यमंगल भी दो. तरहका होता है। एक अर्थकी अपेक्षा, दूसरा शब्दकी अपेक्षा । जिसमें से अर्थकी अपेक्षा मुख्य मंगल भगवान् सिद्धपरमेष्ठी आदिके गुणोंकी स्मृति और स्तुति रूपसे पहले ही किया जाचुका है। एवं शब्दकी अपेक्षा भी मुख्य मंगल इसी श्लोककी आदिमें अथशब्दका उच्चारण करके करलिया गया है। क्योंकि अंथशब्द भी मंगलवाचक है । जैसा कि कहा भी है:- .. .
त्रैलोक्येशनमस्कारलक्षणं मङ्गलं मतम् ।
विशिष्टभूतशब्दानां शास्त्रादावथवा स्मृतिः ॥ इति । । शास्त्रकी आदिमें तीन लोकके स्वामी सवई वीतराग भगवान्को नमस्कार करना मंगल माना गया है, अथवा खास खास शब्दोंके स्मरण या उच्चारणको भी मंगल कहते हैं।
संपूर्ण कलश दधि अक्षत और सफेद फूल इत्यादिके उपहारको गौण मंगल कहते हैं। क्योंकि वह मुख्य मंगलकी प्राप्तिका उपाय है । सो भी शास्त्रकी आदिमें ग्रंथकारने करलिया है; जैसा कि ग्रंथकी निर्विघ्नतया सिद्धि के देखनेसे मालुम होता है।
निमित्त-जिसके उद्देशसे शास्त्रकी रचना होती है उसको निमित्त कहते हैं । सो यह भी 'भव्याः' इस शब्दसे बतादिया गया है। अर्थात् भव्योंके उद्देशसे ही इस शास्त्रकी रचना की गई है, और किसी दूसरे उद्देशसे नहीं।
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हेतु-हेतुशब्दका अर्थ प्रयोजन या फल होता है । इसके दो भेद हैं; एक मुख्य, दूसरा गौण-आनुषंगिक । समीचीन धर्मके स्वरूपका ज्ञान हो जाना ही इस ग्रंथका मुख्य प्रयोजन है। सो 'दिशामि' और 'शृणुत' इन दो पदोंके द्वारा सचित करदिया गया है। क्योंकि किसी भी काममें जिसलिये प्रवृत्ति की जाय उसको प्रयोजन कहते हैं । शास्त्रका मुख्य प्रयोजन भी ज्ञान ही है। क्योंकि अमुक शास्त्रके सुननेसे मुझे अमुक विषयका ज्ञान हो जायगा ऐसा जानकर-उस विषयके ज्ञानके प्रयोजनसे ही कोई भी जीव उस शास्त्रके सुनने आदिकमें प्रवृत्ति किया करता है, अन्यथा नहीं। इसलिये प्रतिपादित विषयका ज्ञान होना ही शास्त्रका मुख्य प्रयोजन है । एवं इस शास्त्रका भी मुख्य प्रयोजन समीचीन धर्मके स्वरूपका ज्ञान हो जाना ही है । दूसरा गौण फल धर्मकी सामग्री आदिका ज्ञान होजाना है। क्योंकि उसके ज्ञानसे जीव समीचीन धर्मके आचरण करनेमें प्रवृत्ति करता है और इस तरहकी प्रवृत्ति करनेवाला अनंतज्ञान दर्शन वीर्य और निराकुलतारूप अविनश्वर एवं अतीन्द्रिय सुखको तथा परम अव्यावाधताको प्राप्त होता है । इस प्रकार ये दोनो ही इस शास्त्रके साक्षात् प्रयोजन हैं । किंतु देखा जाय तो परम्परासे सुखकी प्राप्ति अथवा दुःखकी निवृत्ति होजाना ही इस शास्त्रका वस्तुतः प्रयोजन है; क्योंक प्राणियोंको यही बात अभीष्ट है । सो यह बात भी 'दुःख रहित सुखकी इच्छा रखनेवाले' इन पदोंसे स्पष्ट करदी है ।
प्रमाण, नाम, और ग्रंथकर्ता, ये बातें स्पष्ट ही हैं। अत एव इनके विषयमें विशेष कहनेकी आवश्यकता नहीं है। रही ग्रंथके नामके साथ प्रतिपादित विषयके सम्बन्धकी बात; सो ग्रंथके अन्वर्थ नामसे ही प्रकट होजाती है कि, समाचीन धर्मके स्वरूप और इस शास्त्रके साथ वाच्यवाचक सम्बन्ध है । इसीलिये इसको समीचीन धर्माचरण और अनंतसुखादिककी प्राप्तिका कारण समझना चाहिये ।
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उपर्युक्त कथनसे यह बात अच्छी तरह समझमें आसकती है कि इस ग्रंथमें सम्बन्ध अभिधेय और प्रयोजनके न होनेकी यदि कोई शंका करे तो वह नहीं हो सकती । अत एव इस ग्रंथके विषयमें दुजनोंके अपबादकी शकाका परिहार करनेकेलिये ग्रंथकार कहते हैं
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परानुग्रहबुद्धीनां महिमा कोप्यहो महान् । येन दुर्जनवाग्वज्रः पतन्नव विहन्यते ॥७॥
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____ अहो जिनको बुद्धि दूसरे अनुग्राह्य प्राणियोंके अनुग्रह -आपत्तिके निवारण करनेमें ही लगी रहती है ऐसे महापुरुषोंकी महिमा ही कोई -अनिर्वचनीय और महान है, जिससे कि स्वभावसे ही दूसरोंके अपकारके करनेवाले दुर्जनोंका वचनरूपी बज्न पडते ही नष्ट हो जाता है । वज्र इसलिये कि वह सहसा दारुण विनिपातका कारण और दुर्निवार है एवं सजनोंको महिमाकी महत्ताका कारण भी यह है कि उससे सभी प्राणियोंके अभीष्ट कार्यकी सर्वत्र और सर्वदा जो निष्पत्ति होती है उसमें प्रत्युपकारकी अपेक्षा नहीं रहती।
भावार्थ--दुर्जन लोग यद्योप इस ग्रंथका अनेक रूपसे अपवाद करेंगे; क्योंकि उनका स्वभाव ही निंदा करनेका है। फिर भी महापुरुषोंके प्रभावसे वह निंदा अवश्य ही नष्ट हो जायगी। क्योंकि सज्जनोंका स्वभावसे ही ऐसा माहात्म्य है।
अब यहांपर ग्रंथकार समासोक्ति अलंकारके द्वारा यह बताते हैं कि इस कलिकालमें मिथ्या उपदेशक बहुत ही सुलभतासे मिल सकते हैं; किंतु समीचीन उपदेशकोंका मिलना बहुत ही कठिन है । समासोक्ति अलंकारका लक्षण रुद्रट भट्टने इस प्रकार कहा है। -
सकलसमानविशेषणमेकं यत्राभिधीयमानं सत् ।
उपमानमेव गमयेदुपमेयं सा समासोक्तिः ॥ उपमेयके समान सब विशेषण देकर केवल उपमानका ही जहांपर इस तरहसे वर्णन किया जाय कि जिससे उपमेयका स्वयं बोध हो जाय, वहांपर समासोक्ति अलंकार कहा जाता है । जैसे
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फलमविकलमलघीयो लघुपरिणति जायतेस्य सुस्वादु ।
प्रीणितसकलप्रणयिप्रणतस्य समुन्नतेः सुतरोः ॥ समस्त-प्रणयी लोगोंको तृप्त करनेवाले किंतु नम्र रहनेवाले इस समीचीन वृक्षको श्रेष्ठ उन्नतिका. फल शीघ्र ही पकनेवाला महान् पूर्ण और मुकादु होता है। इस कथनसे समृद्धिको पाकर भी नम्र रहनेवाले किंतु उसका परोपकारादिकमें उपयोग करनेवाले सत्पुरुषको जो कुछ, और जैसा फल प्राप्त होता है वह बताया गया है ।
इसी प्रकार ग्रंथकार आगेके पद्यमें पूर्वार्धके द्वारा, इस कलिकालमें मिथ्या उपदेशकोंकी सुलभता और उत्तरार्धके द्वारा, सदुपदेशकोंकी दुर्लभता बताते हैं। क्योंकि पूर्वार्धमें जो जो बातें कही हैं वे सब मिथ्या उपदेशकोंकी तरफ और उत्तराधमें जो कही हैं वे सब सदुपदेशकोंकी तरफ घटित होती हैं।
सुप्रायाः स्तनयित्नवः शरदि ते साटोपमुत्थाय ये, प्रत्याशं प्रसृताश्चलप्रकृतयो गर्जन्त्यमन्दं मुधा। .. ये प्रागब्दचितान फलढिमुदकैर्वीहीन्नयन्तो नवान्,
सत्क्षेत्राणि पणन्त्यलं जनयितुं ते दुर्लभास्तद्धनाः ॥ ४ ॥ - शरद ऋतुमें चंचल प्रकृतिके धारक और बडे आटोप-आडम्बरके साथ उठकर समस्त दिशाओंमें फैलजानेवाले तथा व्यर्थ किंतु खूब जोरसे गर्जनेवाले मेघोंका मिलना कुछ कठिन नहीं है। ऐसे मेघ बहुत ही सुलभतासे मिल सकते हैं। किंतु ऐसे मेघोंका मिलना बहुत दुर्लभ है जो कि वर्षाकालीन मेघोंसे पुष्ट हुए नवीन धान्योंसे समीचीन क्षेत्रोंको, पर्याप्त फलसंपत्ति उत्पन्न करनेकेलिये अपने जलके द्वारा अच्छी तरहसे आप्लुत कर देते हैं।
भावार्थ-इस कलिकालमें ऐसे मिथ्या उपदेशक.बहुत मिल सकते हैं जो कि खूब ही आडम्बर करने
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वाले हैं और स्वभावसे ही चंचल होते हुए भी अपना प्रयोजन सिद्ध करनेकेलिये दूर दूर तक फैले हुए हैं। तथा व्याख्यानांदिके समय गर्जते भी खूब हैं पर वपते बिलकुल भी नहीं हैं। श्रोताओंको-भव्योंको अभ्युदय या मोक्षुके. मार्गका ज्ञान बिलकुल भी नहीं करा सकते । हां, ऐसे उपदेशक अवश्य ही दुष्प्राप्य हैं, जो कि विनीत किंतु पूर्वाचायोंसे व्युत्पादित सदाचारके प्रकर्षको प्राप्त हुए विनेयोंको अपने उपदेशरूपी जलसे इस तरह आप्लुत करदेते हैं कि जिससे वर्षाकालके समान पूर्वाचायोंके प्रतापसे उत्पन्न हुआ उनका शास्त्रके रहस्यविशेषका ज्ञानरूपी नवीन धान्य अपूर्व व्युत्पत्तिसे विशिष्ट और समृद्ध हो जाता है। ..., यह बात पहले कहचुके हैं कि “ मंगल निमित्त आदि छह बातोंको बताकर आचार्योंको शास्त्रका व्याख्यान करना चाहिये ।" यहांणर आचार्यका नाम मात्र चताया गया है। किंतु यह नहीं बताया गया कि शास्त्रका वह व्याख्याता आचार्य कैसा होना चाहिये । अतएव ग्रंथकार यहांपर व्यवहारप्रधान उपदेशके का आचार्यका लक्षण करते हैं।- -.... . ........
प्रोद्यन्निवेदपुष्यद्रतचरणरसः सम्यगाम्नायधर्ता, धीरो लोकस्थितिज्ञः स्वपरमतविदा धाग्मिनां चोपजीव्यः । सन्मूर्तिस्तीर्थतत्त्वप्रणयननिपुणः प्राणदाज्ञोभिगम्यो,
निग्रन्थाचार्यवर्यः परहितनिरतः सत्पथं शास्तु भव्यान् ॥ ९॥ संसारको बढानेवाले मिथ्यात्वादिक भावोंको ग्रंथ-परिग्रह कहते हैं। यह परिग्रह जिन्होंने सर्वथा छोडदिया है उन यतियोंको निग्रंथ कहते हैं। तथा जो पांच प्रकारके आचारका स्वयं पालन करते और शिष्योंसे कराते हैं उनको आचार्य कहते हैं । तथा
१ आचारके पांच भेद ये हैं-१ दर्शनाचार २ ज्ञानाचार ३ चारित्राचार ४ तपआचार ५ वीर्याचार ।
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पचघाचरन्त्याचारं शिष्यानाचारयन्ति च ।
सर्वशास्त्रविदो धीरास्तेत्राचायाः प्रकीर्तिताः ॥ इति ।
जो धीर और सब शास्त्रोंके ज्ञाता होकर स्वयं पांच प्रकार के आचारका पालन करते और शिष्योंसे कराते हैं उनको आचार्य कहते हैं ।
जो इस प्रकारके निर्बंध आचायोंमें श्रेष्ठ और आगे जिनका वर्णन किया गया है उन दश विशेष गुणोंसे विशिष्ट तथा परोपकार करनेमें ही निरंतर रत रहनेवाला है उसीको व्यवहार निश्चयस्वरूप और प्रशस्त मोक्षमार्गका प्रतिपादन करना चाहिये । प्रशस्त इसलिये कहा गया है कि वह सत्पुरुषोंकीलेय सदा सेव्य है और किसी भी प्रमाणसे उसमें बाधा नहीं आ सकती है।
अब उन दश विशेष गुणों को बताते हैं जिनका कि धर्मके प्रतिपादक आचार्यमें होना आवश्यक है:
१ - वीर रससे आविष्ट व्रताचरण - गुप्ति और समिति के साथ साथ उन व्रतोंके, जिनका कि आगे चलकर वर्णन करेंगे, पालन करनेको व्रताचरण कहते हैं। इस व्रताचरणमें भी एक प्रकारका रस या हर्ष आनंद है। जिसकी कि पुष्टि निर्वेद -- संसार शरीर और भोगों के विषयमें उत्पन्न हुए वैराग्य परिणामोंसे होती है । जिसका निर्वेद शान्तरसकी प्राप्तिकी तरफ अभिमुख होकर आत्मा और शरीर के भेदज्ञानकी भावनाके बलसे बढता हुआ चला जाता है उसका व्रताचरण भी प्रकर्षताको प्राप्त करता चला जाता है। अत एव सबसे पहली बात यह होनी चाहिये कि वह धर्मके विषय में वीर रससे आविष्ट हो उसके व्रताचरणका रस बढ़ते हुए निर्वेदसे प्रतिक्षण प्रकर्षताको प्राप्त करता हुआ चला जाय ।
१ योगनिरोध को गुप्ति कहते हैं । अत एव इसके तीन भेद हैं-१ मनोगुप्ति २ वचनगुप्ति ३ कायगुप्ति | २ समीचीन प्रवृत्तिको समिति कहते हैं । इसके पांच भेद हैं- १ ईर्ष्या २ भाषा ३ एषणा ४ आदाननिक्षेपण ५ आलोकित पानभोजन |
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२--समीचीन आनायका धारण-प्रथमानुयोग करणानुयोग चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इन चार || अनुयोगोंसे युक्त पूर्ण आगमको आम्नाय कहते हैं। अथवा पिता व गुरुके चले आये संतानक्रमको भी आम्नाय कहते हैं। इन दोनों ही समीचीन आम्नायोंको इस तरहसे धारण करनेवाला होना चाहिये कि जिसमें किसी भी तरहसे विच्छेद न पडा हो। तात्पर्य यह कि उक्त आचार्यमें दूसरा विशेष गुण यह भी होना चाहिये कि वह परम्परासे चले आये हुए उपदेश और संतानक्रमसे आये हुए तत्त्वज्ञान तथा सदाचारके पालन करनेमें प्रवीण हो।।
३- तीसरा गुण धीरता है । क्योंकि क्षुधा पिपासा आदि परीषहों तथा देव मनुष्य आदिके किये हुए उपसगाके आ उपस्थित होनेपर भी जिसका हृदय सर्वथा अविकृत रहता है वही गणी धर्मकी देशनाका आधिकारी हो सकता है।
. ४- चौथा गुण लोकस्थितिका ज्ञान है । क्योंकि इस चराचर जगत्की स्थितिका जिसको ज्ञान नहीं है वह धर्मका उपदेश कैसे दे सकता है । अथवा चार वर्ण और चार आश्रमोंको भी लोक कहते हैं। इनकी स्थितिप्रवृत्ति नियम व्यवहारादिकका जो ज्ञान रखता है वही धर्मका उपदेश दे सकता है। .
५-पांचवां गुण स्वमत और परमतका अद्वितीय ज्ञान है। क्योंकि ऐसा ज्ञान रखनेवाला व्यक्ति ही विद्वानोंके समक्ष धर्मके स्वरूपका अच्छी तरह प्रतिपादन कर सकता है। उसको सिद्ध करके बता सकता है और उसका प्रभाव प्रकट कर अवस्थान रख सकता है।
६-छहा गुण अद्वितीय वाग्मिता है। क्योंकि जिसकी वाणी प्रशस्त तथा अतिशययुक्त नहीं है वह धर्मके स्वरूपका हृदयग्राही प्रतिपादन कैसे कर सकता है ? किंतु इसके विरुद्ध जिसके वचन प्रशस्त तथा ! सातिशय हैं. वही व्यक्ति धर्मके वास्तविक स्वरुपको श्रोताओंके हृदयंगम करा सकता है।
७-सातवां गुण समीचीन मूर्तिका होना है। वक्ताका शरीर भी प्रशस्त-सामुद्रिक शास्त्रमें बताये
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बनगार
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हुए लक्षणोंसे युक्त और लोभ स्थूलता दीर्घता तथा इनसे उलटे तीन दोषोंसे रहित होना चाहिये । क्योकि आर्ष आगममें भी यह कहा है कि
रूपानायगुणैराख्यो यतीनां मान्य एव च ।
तपोज्येष्ठो गुरुश्रेष्ठो विज्ञयो गणनायकः ॥ इति । जो रूप आम्नाय तथा इतर गुणोंसे पूर्ण है, तप करनेमें ज्येष्ठ प्रधान और गुरुओं-मुनियोंमें श्रेष्ठ एवं यतियोंको अवश्य ही मान्य है वही गण-मुनिगणका नायक-धर्मदेशनाका अधिकारी आचार्य हो सकता है।
८-आठवां गुण तीर्थ और तच्चके प्रणयन-प्रतिपादनमें प्रवीणताका होना है । " सभी वस्तु अनेकान्तात्मक हैं" इस मतको तीर्थ कहते हैं। क्योंकि इसके द्वारा भव्य पुरुष संसारसमुद्रको तरकर पार होते हैं । इसके विरुद्ध संसार में सर्वथा एकान्तरूप जितने प्रवाद प्रचलित हैं उन सबके तिरस्कार-खण्डनसे चमक उठनेवाले और व्यवहार निश्चयनयकी प्रयोगपद्धतिसे विचित्र है आकार जिसका ऐसी चक्रात्मक वस्तुके प्रकाशित करनेवाले प्रतिपादनको उसका [ तर्थिका ] प्रणयन कहते हैं। इसी प्रकार अध्यात्म शास्त्रके रहस्यको तत्त्र कहते हैं। और उसके
स-तरहके प्रतिपादनको उसका प्रणयन कहते हैं, जिसमें कि भूतार्थ तथा अभूतार्थ निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयोंके द्वारा दया दम त्याग और समाधिकी प्रवृत्ति के साथ सम्बन्ध रखनेवाले परमानंद पदकी व्यवस्था करके बता दी गई हो। इन दोनों प्रतिपादनोंमें तर्थिप्रतिपादन और तत्त्वप्रतिपादनमें प्रवीणताका अभिप्राय यही है कि वह धर्मदेशनाका अधिकारी आचार्य यह अच्छी तरह समझता हो कि इनमेंसे कहांपर किस प्रतिपादनको मुख्य और
को गौण करना चाहिये। ऐसा होनेसे ही वह अपने और दूसरेको ठीक प्रत्यय करा सकता है। क्योंकि इनमेंसे यदि एक ही को माना जायगा तो वह विषय तो सिद्ध नहीं ही होगा; परंतु दूसरे विषयका भी लोप हो जायगा । जैसा कि कहा भी है:
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धर्म
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चइ जिणमयं पर्वजह ता मा ववहारणिच्छए मुअह । एकेण विणा छिज्जइ तित्व अण्णेण पुण तचं ।।
चरणकरणप्पहाणा ससमयपरमत्यमुकवावारा । चरणकरणं ससार णिच्छ्यसुद्ध ण जाणन्ति । णिच्छयमालंबता णिच्छयदो णिच्छयं अजाणता।
णासिंति चरणकरण बाहिरकरणालसा केई ।। इति । यदि तुम जिनमतको चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय इनमेंसे किसी भी नयको मत छोडो । क्योंकि इनमेंसे एक व्यवहार नयके बिना तीर्थका और दूसरे निश्चयनयके विना तत्वका लोप हो जाता है। ऐसा न समझ कर जो व्यक्ति केवल चरणक्रिया-बाह्य चारित्रको ही प्रधान मानता है वह अवश्य ही परमाथसे आत्मकल्याणके व्यापारसे रहित है । क्योंकि ऐसा व्यक्ति चरणक्रियाको ही आत्मसिद्धिका सार समझ बैठता है। वह निश्चयसे आत्माके शुद्ध सारको सारभूत तत्त्वको नहीं जानता । इसी प्रकार जो केवल निश्चय नयका ही अवलम्बन लेनेवाला है, यह मिश्चय है, कि वह निश्चय नयको भी नहीं समझता । ऐसा व्यक्ति स्वयं बाह्य चारित्रमें आलसी हो जाता है और चारित्र-धर्मको नष्ट कर डालता है।
९-नौवां गुण यह होना चाहिये कि उसके शासनका पर्यवसान छह कायके जीवोंका पालन करना ही हो। और इसीलिये जिसकी आज्ञा-जिसके शासन या नियोगको स्व और पर सभी आदरके साथ माननेवाले हों। - १०-दशवां गुण प्रधानता है । सभी लोक आकर जिसका सुखपूर्वक आश्रय लेते हों। इस गुणके कहनेसे, प्रिय हित वचनका बोलना, प्रायः प्रश्नोंको सह सकना इत्यादि गुणोंको भी समझ लेना चाहिये.
- इस प्रकार दश विशेषणोंसे युक्त परहितमें ही निरत रहनेवाले निग्रंथाचार्यवरको धर्मका उपदेश देना चाहिये।
अध्याय
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अन००५
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अनगार
इस पद्यमें ग्रंथकारने आशी:-अर्थमें लोट लकारका प्रयोग किया है। जिससे यह अभिप्राय प्रकट होता है कि "हम [ग्रंथकार] आशा करते हैं कि देशनाका अधिकारी इन गुणोंसे युक्त हो" अथवा स्वरूपज्ञान कराने-अर्थमें भी इस लकारका प्रयोग होसकता है। जिससे यह अर्थ प्रकट होता है कि “इन गुणोंसे युक्त गणीको सत्कारपूर्वक धर्मोपदेशमें प्रवृत्त होना चाहिये ।"
_ अब ग्रंथकार यह बताते हैं कि जो मोक्षकी इच्छा रखनेवाले हैं उनको अध्यात्म शास्त्रका रहस्य जाननेवाले गुरुओंकी सेवा करनी चाहिये।
विधिवद्धर्मसर्वस्वं यो बुद्ध्वा शक्तितश्चरन् ॥
प्रवति कृपयान्येषां श्रेयः श्रेयार्थिनां हि सः ॥ १०॥ व्यवहार और निश्चय नयके द्वारा रत्नत्रयात्मक धर्मके पूर्ण और असाधारण स्वरूपको परमागम सद्गुरुओंकी सम्प्रदाय आम्नाय और अपने ज्ञानके अनुसार समझकर और यथाशक्ति उसका पालन करता हुआ जो व्यक्ति दूसरोंको भी, किसी प्रकारकी ख्याति लाभ या पूजा आदिकी अपेक्षासे नहीं, किंतु, केवल अनुकम्पाके वश होकर-परोपकार करने ही की अभिलाशासे उस धर्मसर्वस्वकी विधेयताका इस तरहसे ज्ञान करा देता है कि जिससे उन श्रोताओंका उस विषयका अज्ञान समूल नष्ट हो जाय; वही गुरु कल्याण-मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले भव्योंको सेव्य है । मुमुक्षुओंको ऐसे ही गुरुकी सेवा करनी चाहिये ।
उक्त देशनाके अधिकारी आचार्य और अध्यात्म रहस्यके उपदेष्टा इन दोनो ही का लोकमें प्रभाव प्रकट हो ऐसी आशा-भावना प्रकट करते हैं:--
स्वार्थेकमतयो भान्तु मा भान्तु घटदीपवत् । पराधै स्वार्थमतयो ब्रह्मवद्वान्त्वहर्दिवम् ॥ ११ ॥
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नगार
ध्याय
१
यहां पर पहले यह बता देना उचित है कि मुमुक्षु तीन प्रकारके होते हैं। एक तो परोपकारको प्रधान रखकर स्वोपकार करनेवाले, दूसरे स्वोपकारको प्रधान रखकर परोपकार करनेवाले, तीसरे केवल स्वोपकार करनेवाले । इनमेंसे पहले प्रकारके मुमुक्षके विषय में आर्ष आगममें ऐसा कहा है।
स्वदुःखनिर्घृणारम्भाः परदुःखेषु दुःखिताः । निर्व्यपेक्षं परार्थेषु चद्धकक्षा मुमुक्षषः ॥ इति ।
मुमुक्षु पुरुष अपने दुःखों को दूर करनेकेलिये अधिक प्रयत्न नहीं करते किंतु दूसरोंके दुःखोंको देखकर अधिक दुःखी होते हैं। और इसीलिये वे किसी भी प्रकारकी अपेक्षा ने रखकर परोपकार करनेमें दृढ़बाके साथ सदा तत्पर रहते हैं ।
दूसरे भेदके विषय में ऐसा कहा है
आदहिदं कादव्वं जइ सकई परहिंदं च कादव्वं । आदहिदपरहिदादो आदहिदं सुठु कादव्वं ॥ इति ।
अपना हित सिद्ध करना चाहिये । फिर यदि हो सके तो परहित भी सिद्ध करना चाहिये । किंतु आत्माहत और परहित इन दोनोंमें आत्महितको अच्छी तरह सिद्ध करना चाहिये ।
तीसरे भेदके विषयमें ऐसा कहा है:
परोपकृतिमुत्सृज्य स्त्रोपकारपरो भव ।
उपकुर्वन् परस्याज्ञो दृश्यमानस्य लोकवत् ॥ इति ।
परोपकारको छोड़कर अपनी आत्माका उपकार कर । क्योंकि अदृश्यमान परके उपकार करनेवालेको साधारण लोगोंकी तरह अज्ञ ही समझना चाहिये ।
TATATTATO
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अनगार
इन तीन प्रकारके मुमुक्षुओं से अंतिमके प्रति ग्रंथकारने अपनी तटस्थता प्रकट की है। क्योंकि केवल स्वोपकार-आत्मकल्याणका ही करनेवाला घटमें रक्खे हुए दीपकके समान है। जिस प्रकार घटमें रक्खा हुआ दीपक जलता हुआ हो या बुझा हुआ; उससे लोकमें किसीको भी हर्ष या अमर्ष नहीं होता । इसी प्रकार परोपकारसे रहित केवल आत्मकल्याण करनेवाला व्यक्ति दूसरोंकेलिये हेय या उपादेय अर्थका प्रकाशक नहीं होता। अत एव वह उनकेलिये उपेक्षाका ही विषय है। वह जगत में प्रकाशित हो या न हो, उससे दूसरोंका कोई प्रयोजन नहीं। किंतु ऐसे व्यक्ति सर्वज्ञके समान जगत्में दिन रात प्रकाश करें जो कि दूसरोंके प्रयोजनको अपने प्रयोजन सरीखा ही मानते हैं ।
भावार्थ-जगत्में जिस वक्ताका प्रभाव प्रकट नहीं होता उसपर लोगोंका अधिक विश्वास नहीं होता। किंतु इसके विरुद्ध, जो उपदेष्टा जगतमें प्रभावशाली प्रकट है उसपर लोग अधिक विश्वास करते हैं और उसके वचनानुसार पारलौकिक काय करने में निःसंदेह होकर प्रवृत्ति करते हैं।
यहांपर यह शंका हो सकती है कि देशना-धर्मोपदेशका फल निकट भव्योंमें ही हो सकता है। और ऐसे भव्योंका आजकल मिलना बहुत कठिन है। अत एव वह व्यर्थ और अनावश्यक क्यों नहीं है ? पर यह शंका ठीक नहीं है। क्योंकि यद्यपि आजकल निकट भव्य अत्यंत दुर्लभ हैं, फिर भी देशना व्यर्थ नहीं है । इसी वातका ग्रंथकार समर्थन कर बक्ताको उपदेशकेलिये उत्साहित करते हैं।
पश्यन् संसृतिनाटकं स्फुटरसप्राग्भारकिर्मीरितं, स्वस्थश्चर्वति निर्वृतः सुखसुधामात्यन्तिकीमित्यरम् । ये सन्तः प्रतियन्ति तेऽद्य विरला देश्यं तथापि कचित,
काले कोपि हितं श्रयेदिति सदोत्पाद्यापि शुश्रूषताम् ॥ १२ ॥ “जो आत्मा संसारसे रहित होकर मुक्त होगये हैं और कर्मसे सर्वथा रहित अपने आत्मस्वरूपमें ही ठहरे हुए हैं वे विभावादि भावोंसे व्यक्त होनेवाले रसोंके समूहसे नानारूपको धारण करनेवाले संसाररूपी नाट
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कको देखते हुए-उसका निर्विकल्पतया अनुभव करते हुए आतङ्क और दूसरे समस्त व्यापारोंसे रहित होकर सखरूपी सुधाका अनंतकालतक पान करते रहते हैं उत्तरोत्तर उसीका स्वाद लेते रहते हैं।" इस तरहका झटितिउपदेशके अनंतर ही श्रद्धान करलेनेवाले भव्य आजकल-इस पंचम कालमें विग्ल हैं-बहुत कम मिलते हैं। फिर भी दसरोंकेलिये हितका उपदेश देना ही जिनका एक कार्य है ऐसे आचार्योंको हमेशह श्रोताओंको सुननेकी इच्छा उत्पन्न करा कर भी धर्मका उपदेश अवश्य देना चाहिये। क्योंकि संभव है कि कभी कोई श्रोता उससे अपने हितकी तरफ लग जाय । . यहांपर ग्रंथकारने संसारको नाटककी उपमा दी है। क्योंकि जिस तरह नाटकको देखकर दर्शकोंको आनंद होता है उसी तरह इस संसारको निर्विकल्प होकर देखनेवाले मुक्तात्माओंको भी अत्यंत आनंद होता है। तथा नाटकके समान ही यह संसार विभावादि भावोंसे व्यक्त होनेवाले नव रसोंसे नानास्वरूप धारण करनेवाला है । जिसके अनुसार अभिनय करके बताया जा सके ऐसे काव्यको नाटक कहते हैं। विभाव अनुभाव
और व्यभिचारी इन भावोंके द्वारा व्यक्त किये जानेवाले भावोंको स्थायी भाव कहते हैं। इनके रति आदि नव भेद हैं जिनका कि आगे चलकर उल्लेख करेंगे । विभावादिके संयोगसे पुष्ट होजानेपर इन्ही व्यक्त भावोंको रस कहते हैं । जिन भावोंका मनके द्वारा आनंद आता है उन्हीको रस कहते हैं। इसका सामान्य लक्षण - स:प्रकार बताया है:
कारणान्यथ कार्याणि सहकारीणि यानि च।। रत्यादेः स्थायिनो लोके तानि चेन्नाट्यकाव्ययोः ॥ विभावा अनुभावास्तत्कध्यन्ते व्यभिचारिणः ।
व्यक्तः स तर्विभावाद्यैः स्थायी भावो रसः स्मृतः ॥ रस आदिकके कारणरूप कार्यरूप और सहकारीरूप जितने भाव हैं उनको लोकमें स्थायी भाव कहते हैं। यदि इनका नाटक या काव्यमें वर्णन किया जाय तो इन्हीको विभाव अनुभाव और व्यभिचारी नामसे कहते
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हैं। इन विभावादिके द्वारा व्यक्त होनेवाले स्थायी भावको रस कहते हैं।
अथवा ऐसा भी कहा है- . विभावरनुभावैश्व सात्विकैर्व्यभिचारिभिः ।
आनीयमानः साध्यत्वं स्थायिभावो रसः स्मृतः ॥ विभाव अनुभाव साचिक और व्यभिचारी इन चारोंके द्वारा सिद्ध किये जानेवाले स्थायी भावको रस कहते हैं ।
ललनाओंके उद्यानप्रवेश आदि आलम्बन और उद्दीपनके कारणोंको विभाव कहते हैं । कटाक्ष और भुजाक्षेपादिकको अनुभाव कहते हैं जिनसे कि मनमें हुए विकार-भावका बोध होता है। स्थायी भावके साथ रहनेवालोंको व्यभिचारी भाव कहते हैं। इस व्यभिचारी भावके तेतीस भेद हैं, जिनके कि नाम इस प्रकार हैं।
निवेदोथ तथा ग्लानिः शङ्कासूयामदश्रमाः । आलस्यं चैव दैन्यं च चिन्ता मोहो धृतिः स्मृतिः ॥ वेगश्चपलता हर्ष आवेग्ये जडता तथा । गया विषाद औत्सुक्य निद्रापस्मार एव च ॥ सुप्तिर्विबोधोऽमर्षश्चाप्यवहित्थस्तथोग्रता। मतिव्याधिस्तथोन्मादस्तथा मरणमेव च ॥ त्रासश्चैव वितर्कश्च विज्ञया व्यभिचारिणः ।
त्रयाविंशदिमे भावाः समाख्यातास्तु नामतः॥ निर्वेद ग्लानि शङ्का असूया मद श्रम आलस्य दैन्य चिंता मोह धैर्य स्मरण वेग चिपलता हर्ष आवेग जडता गर्व विसाद उत्सुकता निद्रा अपस्मार सुप्ति [ स्वाप] विबोध अमर्ष अवहित्थ उम्रता मति व्याधि उन्माद मरण त्रास और वितर्क।
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MMRRENESSSSS
साचिक मावके आठ भेद हैं जिनके नाम ये हैं:
स्तम्भः स्वेदोथ रोमानः स्वरभेदोथ वेपथुः ।
वैवर्ण्यमथुप्रलय इत्यष्टौ सात्त्विकाः स्मृताः। स्तम्भ खेद रोमाञ्च स्वरभंग कम्प विवर्णता अश्रु और प्रलय ।
रतिहासश्च शोकश्च क्रोधोत्साही भयं तथा।
जुगुप्साविस्मयशमाः स्थायिभावा रसाश्रयाः॥ उपर्युक्त विभावादिके द्वारा व्यक्त होनेवाले स्थायी भावके नव भेद हैं; जिनके नाम ये हैं:
रति हास शोक क्रोध उत्साह भय जुगुप्सा विस्मय और शम । इन्हीके आधारपर उसकी उत्पत्ति होती है। ये भाव भी नव हैं और इनसे उत्पन्न होनेवाले रस भी नव ही हैं, जिनके कि नाम ये हैं:
शृङ्गारहास्यकरुणारौद्रवीरभयानकाः।
बीमत्साद्भुतशान्ताच नव नाट्यरसाः स्मृताः ॥ श्रृंगार हास्य करुणा रौद्र वीर भयानक बीभत्स अद्भुत और शान्त । अत एव इनमेंसे एक एक रस क्रमसे एक एक स्थायिभावसे उत्पन्न होता है। यथा रतिसे श्रृंगार, हाससे हास्य, शोकसे करुणा, क्रोधसे रौद्र, उत्साहसे वीरः इत्यादि। .
यहांपर एक बात और भी समझनेकी है । वह यह कि ऊपर जो व्यभिचारी भावके निवेदादिक भेद गनाये हैं वे जिसके हृद्रयमें बार बार उत्पन्न होकर पुष्टि प्राप्त करलेते हैं उसकेलिये वे ही रस होजाते हैं। जैसे कि रति यद्यपि भाव है। फिर भी पुष्ट होनेपर वह रस ही होजाता है। हां, जिसके हृदयमें ये भाव पुष्टिको प्राप्त नहीं करसकते उसकेलिये वे भाव ही हैं, रस नहीं।
शृङ्गारहास्यकरण
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१
इन्ही भावों और रसोंसे नाटक पूर्ण रहता है । अत एव इस कथनसे यह बात सहज ही समझमें आसकती है कि यह संसार भी एक नाटकके ही समान है, जो कि नव रस और उसके जनक तथा अभिव्यञ्जक भावोंसे भरा हुआ है और अपने दर्शकोंको आनन्दका जनक है । जो आत्मा संसारसे रहित होकर इस नवरससे पूर्ण संसाररूपी नाटकका निर्विकल्प होकर दर्शन - अनुभव करते रहते हैं वे अनंतकाल तक सुखसुधाका पान करते रहते हैं। इस तरहका शीघ्र ही श्रद्धान करलेने वाले सरलपरिणामी श्रोता आजकल बहुत ही विरल हैं। अतएव यदि उनको स्वयं सुननेकी इच्छा न हो तो भी परोपकार करनेवालोंको उन्हें सुननेकी इच्छा उत्पन्न कराकर चाहिये धर्मका उपदेश देना क्योंकि उपदेश व्यर्थ नहीं जा सकता। उससे कभी न कभी कोई न कोई अपने हितमें लग सकता है ।
बहुशोप्युपदेशः स्यान्न मन्दस्यार्थसंविदे ।
भवति ह्यन्धपाषाण : केनोपायेन काञ्चनम् ॥ १३॥
जो मंद है - मिथ्यात्वादिकसे मदा इस तरह ग्रस्त रहता है कि उसको सम्यग्दर्शनादिककी उत्पत्ति हो ही नहीं सकती, उसको यदि बार बार भी उपदेश दिया जाय आप्तके स्वरूपका ज्ञान कराया जाय तो भी उसके हृदय में हेय और उपादेय तत्त्वका समीचीन ज्ञान व श्रद्धान नहीं हो सकता । अन्ध पाषाण - जिसमें कि सुवर्ण पृथक है ही नहीं ऐसा पत्थर - क्या किसी भी उपायसे सुवर्ण हो सकता है ? भव्य उपदेशका पात्र हो सकता है सो बताते हैं । श्रोतुं वाञ्छति यः सदा प्रवचनं प्रोक्तं शृणोत्यादराद्, गृह्णाति प्रयतस्तदर्थमचलं तं धारयत्यात्मवत् । तायैः सह संविदत्यपि ततोन्यांश्च हतेऽपोहते, तत्तत्त्वाभिनिवेशमावहति च ज्ञाप्यः स धर्मं सुधीः ॥ १४ ॥
भव्यों में भी किस तरहका
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धर्म
सम्यक्त्वसे युक्त ज्ञानधनके धारण करनेवाले श्रोतामें इन आठ बातोंको, धर्मका उपदेश देनेकेलिये देखना उचित है। १- जो दृष्ट और इष्ट किसी भी प्रमाणसे विरुद् न रहनेवाले अनेकान्तात्मक सिद्धान्त--जिना गमको सदा सुननेकी इच्छा रखता हो । २ केवल सुनने की इच्छा रखता हो इतना ही नहीं, बल्कि गुरुओंका अपलाप न करनेवाले-गुरुसम्प्रदायके अनुसार कहनेवाले तथा कल्याणके अभिलाषी वक्ताओंके द्वारा कहेजाने पर-प्रवचनका व्याख्यान होनेपर. उसको आदर-भाक्तके माथ सुनता भी हो । ३ व्याख्यान या प्रवचनमें जो विषय कहा गया है -जो बातें बताई गई हों उनका प्रयत्न करके निश्चय करनेवाला हो । ४-निश्चित विषयको आत्मस्वरूपकी तरह अचल बनाकर धारण करनेवाला हो-कभी भूलनेवाला न हो । यह धारणा इतनी अचल हो कि जिससे उसके विषयका संस्कार जन्मान्तरं में भी चला जाय । आत्मरूपकी तरह इसलिये कि उसका वियोग कभी न होना चाहिये । ५ उस गृहीत तथा धारित विषयका प्रवचन के जानकारोंके साथ मिलकर संशय विपर्यय अनध्यवसायरहित श्रद्धान करनेवाला हो । क्योंकि ऐसे मनुष्पोंसे मिलकर विचार करना, उस विषयमें विशेष ज्ञान प्राप्त करनेका प्रधान कारण है । ६--इन जाने हुए विषयोंमें व्याप्तिके द्वारा विशेष तर्क करनेवाला हो । "जो इस प्रकारका स्थिर सिद्वान्त है वह सर्वत्र सर्वदा इसी प्रकारका रहेगा" इस व्याप्तिके अनुसार जाने हुए विषयोंके आधारपर अज्ञात-प्रवचनोपदेशमें न सुने हुए विषयोंका भी श्रद्धान करनेवाला हो । ७-प्रमाणबाधित -आगम और युक्तिसे विरुद्ध पदार्थोंको अश्रद्धेय समझकर प्रत्यवायकी संभावनासे छोड देनेवाला हो। ८-अंतमें जिन जिनका स्वरूप जिस जिस प्रकारसे-हेयरूपसे या उपादेय रूपसे अथवा उपेक्ष्य रूपसे जैसा व्यवस्थित हो चुका है उन उन तत्चोंका उसी उसी प्रकारसे अभिनिवेश--आग्रह रखनेवाला हो।
भावार्थ- इस पद्यमें क्रमसे श्रोताके १ शुश्रूषा २ श्रवण ३ ग्रहण ४ धारण ५ विज्ञान ६ ऊह ७ अपोह ८और तवाभिनिवेश इन आठ बुद्धिसम्बन्धी गुणोंको बताया है, और दिखाया है कि इन गुणोंसे युक्त बुद्धिमान् श्रोता ही पूर्णतया धर्मोपदेशका पात्र है।
इन आठ गुणोंसे युक्त बुद्धिके धारण करनेवाले श्रोताको भी प्रज्ञा, विना धर्मोपदेशके धर्ममें प्रवृत्त नहीं हो सकती । यही बात बताते हैं--
अन. ध.६
अध्याय
-- PatanANMITTuorummaNamesess
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महामोहतमश्छन्नं श्रेयोमार्ग न पश्यति । ।
विपुलापि हगालोकादिव श्रुत्या विना मतिः ॥ १५ ॥ जिस प्रकार प्रशस्त भी दृष्टि प्रदीपादिकके प्रकाशके विना अंधकार-निबिड अंधकारमें छिपे हुए मार्गको देख नहीं सकती, उसी प्रकार प्रशस्त भी मति धर्मोपदेशके सुने विना मोहके निबिड अंधकारसे छिपे हुए कल्याण-मोक्षके मार्गको देख नहीं सकती। क्योंकि ऐसा विधान भी है कि - " श्रुत्वा धर्म विजानन्ति," सुनकर ही धर्मको जान सकता या धारण कर सकता है। शासनके संस्कारसे बुद्धिमें जो अतिशय प्राप्त होता है उसकी प्रशंसा करते हैं।
दृष्टमात्रपरिच्छेत्री मतिः शास्त्रेण संस्कृता ।
व्यनक्त्यदृष्टमप्यर्थ दर्पणेनेव दृङ्मुखम् ॥ १६ ॥ आंखें दीख सकनेवाले पदार्थको ही देखनेवाली हैं, मुखको नहीं देख सकतीं। किंतु दर्पणके निमितसे उसको भी देख सकती हैं। इसी तरह मति -इन्द्रिय और अनिन्द्रियके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाला अ. पग्रहादिक ज्ञान, यद्यपि केवल दृष्ट-इन्द्रिय और मनसे दीख सकनेवाले पदार्थों को ही जाननेवाला है; तो भी शास्त्र-आप्त भगवान्के वचनसे उत्पन्न हुए दृष्टादृष्टपदार्थविषयक ज्ञानसे अतिशयको प्राप्त कर अदृष्ट-उक्त दोनो साधनों-इन्द्रिय और मनके अविषय पदार्थोको भी प्रकाशित कर सकता है।
श्रोताओंके चार भेद हैं-अव्युत्पन्न संदिग्ध व्युत्पन्न विपर्यस्त । इनमें आदिके दो प्रकारके श्रोता ही प्रतिपाद्य-उपदेशके पात्र हो सकते हैं। इसी बातको दृढ करते हैं।
अव्युत्पन्नमनुप्रविश्य तदभिप्रायं प्रलोभ्याप्यलं,
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अनगार
कारुण्यात्प्रतिपादयन्ति सुधियो धर्म सदा शर्मदम् । संदिग्धं पुनरन्तमेत्य विनयात्पृच्छन्तमिच्छावशा-, न्न व्युत्पन्नविपर्ययाकुलमती व्युत्पत्त्यनार्थत्वतः॥ १७॥
जो श्रोता अव्युत्पन्न है-धर्मके स्वरूपका जानकार नहीं है उसके अभिप्रायके स्वरूपको समझकर धर्मोपदेष्टा आचार्य कृपा करके उसके अभिशयके अनुसार धर्मसे मिलनेवाले लाभ पूजा आदि फलोंको दिखाकर धर्मके विषयमें उसका लोभ-रुचि उत्पन्न कराकर भी सुख व कल्याणके देनेवाले धर्मका उपदेश दिया करते हैं। इसी प्रकार जो संदिग्ध है-जो यह निश्चय नहीं कर सका है कि धर्मका स्वरूप यही है अथवा अन्य; वह यदि उसको जाननेकी इच्छासे विनयके साथ-उद्धतताको छोडकर पासमें आकर पूछता है कि धर्मका स्वरूप इसी तरह है या अन्य प्रकारका; तो उसको उस धर्मका उपदेश विशेष रूपसे देते हैं । किंतु जो व्यक्ति धर्मके विषयमें व्युत्पन्न है अथवा विपरीत ज्ञानके कारण दुष्ट बुद्धि रखनेवाला है-ऐसी दुष्ट बुद्धि कि जिसके कारण समीचीन धर्मके अनुसार कहे हुए पदार्थोंसे विपरीत ही समर्थन करनेका दुराग्रह करने लगता है-उसको धर्मका उपदेश नहीं देते । क्योंकि जो व्युत्पन्न है वह तो स्वयं जानकार है इसलिये उपदेशका पात्र नहीं । और जो विपरीत -दुष्ट बुद्धि रखनेवाला है वह धर्मकी व्युत्पत्तिको चाहता ही नहीं-उससे मत्सर करनेवाला है। इसलिये उसका पात्र नहीं।
व्याय
भावार्थ-चार प्रकारके श्रोताओं से अव्युत्पन्न और संदिग्ध दो ही उपदेशके पात्र हैं। व्युत्पन्न और विपर्यस्त नहीं।
यहांपर यह प्रश्न हो सकता है कि जिसकी बुद्धि दृष्ट फलकी अमिलाषासे दूषित हो रही है-संसारके विषय- भोगोंसे जिसकी रुचि घटी नहीं है और इसीलिये जो लाभ पूजा अभ्युदय आदिको प्राप्त करनेकी अभिलाषा रखता है-उसको धर्मका उपदेश किस तरह दिया जा सकता है ? दृष्टांतद्वारा इस शंकाका निराकरण करते हैं । -
PRADESHICHAENIRCUPENDRAPATTISHTRIA203999398
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अनगार
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यः शृणोति यथा धर्ममनुवृत्त्यस्तथैव सः।
भजन पथ्यमपथ्येन बालः किं नानुमोद्यते॥१८॥ जो धर्मके माहात्म्यसे अनभिज्ञ है वह जिस तरहसे सुन सकता हो उसको उसी तरहसे सुनाना चाहिये । श्रोता बदि लाभ पूजादिको चाहता है तो धर्मका वह फल भी बताकर उस श्रोताको धर्मका उपदेश देना चाहिये। अपथ्य-मुनक्क' चाशनी आदिके साथ, पथ्य-रोगको दूर करनेवाली कडवी कसैली औषधके सेवन करनेवाले बालककी क्या उसके माता पिता अनुमोदना नहीं करते हैं? " तू बहुत अच्छा कर रहा है, वाह " ऐसा कह कर क्या अपथ्यके साथ भी पथ्य सेवनकेलिये उसको उत्साहित नहीं करते हैं ? करते ही हैं।
विनयका फल दिखाते हैं । वृद्धेष्वनुद्धताचारो नामहिम्नानुबध्यते ।
कुलशैलाननुत्क्रामन् सरिद्भिः पूर्यतेर्णवः ॥ १९ ॥ उस पुरुषमें लोकोत्तर महिमाएं आकर नित्य ही निवास करने लगती हैं, जो कि वृद्धोंके साथ-तप और ज्ञानादिककी अपेक्षा ज्येष्ठ तथा श्रेष्ठ पुरुषोंके साथ उद्धृतताको छोडकर विनीतताका व्यवहार करता है । समुद्र कुलपर्वतों-सौ, दो सा, और चार चार सौ योजन ऊंचे हिमवदादिकोंका उल्लंघन नहीं करता-उनके साथ औद्धत्यपूर्ण व्यवहार नहीं करता । यही कारण है कि उन पर्वतोंसे उत्पन्न हुई गङ्गादिक नदियां आकर उसका पूर्ण करती हैं।
जो व्युत्पन्न है वह उपदेशका पात्र नहीं है, यह बात ऊपर बता चुके हैं । अब उसी बातका दृष्टांत देकर समर्थन करते हैं।
अध्याय
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अनगार
यो यद्विजानाति स तन्न शिष्यो यो वा न यद्वष्टि स तन्न लभ्यः।
को दीपयेडामनिधि हि दीपैः कः पूरयेद्वाम्बुनिधि पयोभिः ॥ जो जिस विषयको जानता है और अच्छी तरहसे जानता है वह उस विषयमें प्रातिपाद्य नहीं हो सकता -उसको उस विषयकी शिक्षा नहीं दी जा सकती। इसी तरह जो जिस चीजको चाहता ही नहीं उसको वह चीज देनी नहीं चाहिये । भला, ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो सूर्यको दीपकसे प्रकाशित करना चाहे । अथवा क्या कोई ऐसा भी आदमी है जो समुद्रको जलसे भरना चाहे । भावार्थ-व्युत्पन्न पुरुष स्वयं उस विषयका जानकार है और उस विषयको जानना चाहता भी नहीं । अत एव उसको उपदेश नहीं देना चाहिये । उसको उपदेश देना व्यर्थ है।
विपर्यस्तबुद्धिको उपदेश देनमें दोष दिखाते हैं। यत्र मुष्णाति वा शुद्धिच्छायां पुष्णाति वा तमः।
गुरूक्तिज्योतिरुन्मीलत् कस्तत्रोन्मीलयेद्गिरम् ॥ २१ ॥ ऐसा कौन विचारशील होगा जो ऐसे पुरुषको उपदेश देनेका प्रयत्न करे कि जिसके हृदयमें नाम मात्रको रहनेवाली शुद्धि गुरूपदेशकी ज्योतिके प्रकाशित होते ही नष्ट होजाती है और अंधकार पुष्ट हो जाता है।
भावार्थ-जहांपर उपदेशका फल उल्टा हो वहां उपदेश देना व्यर्थ है। वचनका प्रयोग वहां करना चाहिये जहां उसका ठीक फल निकलता हो ।
अध्याय
१- वचस्तत्र प्रयोक्तव्यं यत्रोक्तं लभते.फलम् ।..
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बनगार
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अध्याय
१
जिस प्रकार वक्ता और श्रोता धर्मोपदेशके अङ्ग हैं उसी प्रकार उसकी प्रवृत्तिका एक अङ्ग धर्मका फल भी । अत एव वक्ता और श्रोताके स्वरूपका निरूपण करके अब धर्मके फलका वर्णन करते हैं।
सुखं दुःखनिवृत्तिश्च पुषार्थावुभौ स्मृतौ । धर्मस्तत्काणं सम्यक् सर्वेषामविगानतः ॥ २२ ॥
प्राचीन आचार्योंने पुरुषार्थ दो बताये हैं; एक सुख, दूसरा दुःखकी निवृत्ति । क्योंकि इन दो बातोंको छोडकर पुरुषके लिये और कोई भी अभिलापाका विषय बाकी नहीं रहता । समस्त प्राणियोंके लिये चाहे वे आज्ञाधानी हों, चाहे परीक्षा प्रधानी; धारण किया हुआ समीचीन धर्म ही इन दोनो पुरुषार्थोंकी सिद्धिका कारण है | समीचीन इसलिये कि उसमें किसीको किसी भी तरहका विवाद नहीं है ।
उक्त अर्थको ही स्पष्टतया बतानेकेलिये मुख्य फलके देने में समर्थ धर्मके समस्त आनुषंगिक फलक प्रशंसा करते हैं।
मुक्ति पुंसि वास्यमाने जगच्छ्रियः ।
स्वयं रज्यन्त्ययं धर्मः केन वयनुभावतः ॥ २३ ॥
मुक्तिलक्ष्मी - अनंतज्ञानादि संपत्तिको प्राप्त करनेकेलिये जिस धर्मके धारण करनेपर मनुष्यको तीनो लोककी विभूतियां स्वयं आकर प्राप्त होजाती हैं उस धर्मके माहात्म्य - प्रभाव - फलका वर्णन कौन कर सकता है ? ब्रह्मा भी नहीं कर सकता । भावार्थ धर्मके प्रसादसे जब मुक्तितक प्राप्त हो सकती है तब दूसरे लौकिक प्रयोजनों-अभ्युदयोंका प्राप्त होना कुछ कठिन नहीं है ।
यहा पर यह प्रश्न हो सकता है कि संसारके अभ्युदयोंकी प्राप्ति पुण्यबन्धका फल है और मोक्ष समस्त कम अभावसे प्राप्त होती है । पुण्यफल और मोक्ष दोनो कार्य परस्परमें विरुद्ध हैं । अतएव विरुद्ध दो कार्यों
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अनगार
का कारण एक ही धर्म किस तरह हो सकता है ? इसका उत्तर दनेकोलये विरोधका परिहार करते हैं।
निरुन्धति नवं पापमुपातं क्षपयत्यपि । धर्मेनुगगाद्यत्कर्म स धर्मोभ्युदयप्रदः ॥ २४ ॥
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सम्यग्दर्शनादिकके एक साथ प्रवृत्त होनेवाले आत्माके एकाग्रतारूप शुद्ध परिणामोंको धर्म कहते हैं। इस धर्मके विषयमें जो एक विशिष्ट प्रीति होती है उसको भी उपचारसे धर्म कहते हैं। यह अनुरागरूप धर्म साता वेदनीय शुभ आयु शुभ नाम और शुभ गोत्ररूप उस पुण्य कर्मके बन्धका कारण हो सकता है जिससे कि स्वर्गादिककी संपत्ति भले प्रकार प्राप्त हो सकती है । अत एव इस धर्मके प्रसादसे अभ्युदयोंकी सिद्धि अच्छी तरह हो सकती है और पूर्वबद्ध पापकर्मका क्षय तथा नवीन पापका निरोध-संवर भी हो. सकता है।
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अध्याय
निमित्त और प्रयोजनके विना उपचारकी प्रवृत्ति नहीं हुआ करती । अतएव मुख्य धर्मके अनुराग विशेषसे प्राप्त होनेवाले पुण्यको उपचारसे धर्म कहनेमें भी निमित्त तथा प्रयोजनकी आवश्यकता है। इसीलिये यहांपर इन दोनो बातोंको स्पष्ट कर देते हैं। निमित्त-जिस विषयसे मुख्य धर्म सम्बन्ध रखता है उसी विषयसे उपचरित धर्म भी सम्बन्ध रखनेवाला है। मुख्य धर्म आत्मसिद्धिसे साक्षात् और उपत्ररित धर्भ परम्परा सम्बन्ध रखता है। किंतु दोनोंका सम्बन्ध एक ही विषयसे है । अत एव यहांपर उपचारकी प्रवृत्ति हो सकती है। प्रयोजन - इस उपचारके होनेसे लोकव्यवहार और शास्त्रव्यवहार दोनो ही सिद्ध हो सकते हैं। क्यों कि लोकमें पुण्य और धर्म पर्यायवाचक शब्द प्रसिद्ध हैं। जैसा कि कोशमें भी धर्म पुण्य 'सुकृत श्रेय और वृष इनको पर्यायवाचक शब्द. ही कहा है। इसी तरह शास्त्रमें भी पुण्यके अर्थमें धर्मशब्दका व्यवहार किया
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अनगार
जाता है। जैसे कि “धर्मके प्रसादसे ही वैभव प्राप्त हुआ है। अतएव धर्मकी रक्षा करके ही-धर्मको सुरक्षित रखते हुए ही भोगोंको भोगना चाहिये ।" अथवा "धर्म वही है कि जिससे अभ्युदय और मोक्ष दोनोंकी सिद्धि हुआ करती है।" इन दोनो व्यवहारोंकी सिद्धि उपचारसे पुण्यको धर्म माने विना नहीं हो सकती । अत एव उपचारकी आवश्यकता भी है। इन दोनो निमित्त और प्रयोजनको ध्यानमें रखकर ऊपर उपचारसे पुण्यको धर्म कहा है।
अब यह बात बताते हैं कि धर्म-पुण्य पहले आनुषंगिक फलको देता है और फिर मुख्य फलको भी पूर्णतया देता है।
धर्माद् दृक्फलमभ्युदेति करणैरुगीर्यमाणोनशं, यत्प्रीणाति मनो वहन भवरसो यत्पुंस्यवस्थान्तरम् । स्याज्जन्मज्वरसंज्वरव्युपग्मोपक्रम्यनिस्समि तत,
तादृक् शर्म सुधाम्बुधिप्लवमयं सेवाफलं त्वस्य तत् ॥२५॥ धर्मके प्रसादसे दो प्रकारके फल प्राप्त होते हैं-१ दृष्ट फल, २ सेवाफल । चक्षुरादिक इंद्रियोंके द्वारा प्रकाशित होनेवाले-साक्षात् आंखोंसे दीख सकनेवाले और दिनरात उसी तरह प्रवृत्त होनेवाले संसारके सारभूत इन्द्रादिक पदों अथवा ग्राम नगर सुवर्ण वस्त्र वाहन आदि वैभवोंको दृष्ट फल कहते हैं, जिनके कि प्राप्त होनेसे मनको तृप्ति प्राप्त होती है । तथा सांसारिक अवस्थासे विपरीत दूसरी ऐसी अवस्थाके प्राप्त होनेको सेवाफल कहते हैं जो कि जन्ममरण और मोहजनित संतापरूपी बडे भारी ज्वरके निःशेष
१-" धर्मादवाप्तविभवो धर्म प्रतिपाल्य भोगमनुभवतु ।” २-" यतोऽभ्युदय निःश्रेयससिद्धिः स धर्मः।"
अध्याय
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अनगार
भी हो जानेपर प्राप्त उत्पन्न होनेवाला और निरवधि-अनंत है, तथा आप्तोपदेशसे सिद्ध किंतु अनिर्वचनीय सुखरूपी अमृतके समुद्रमें स्वच्छन्दतया अवगाहनके समान है।
भावार्थ-धर्मके प्रसादसे जीवको भोक्षफलकी प्राप्ति होती है। यही धर्मका मुख्य फल है । किंतु जबतक मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती तबतक सांसारिक अभ्युदयोंकी प्राप्ति होती है। इन अभ्युदयोंका प्राप्त होना धर्मसेवनका आनुषंगिक फल है । ___अब तेईस पद्योंमें धर्मके अभ्युदयरूप फलका वर्णन करेंगे। जिसमेंसे यहांपर चौदह श्लोकोंमें उसका सामान्यसे स्पष्टीकरण करते हैं।
वंशे विश्वमहिम्नि जन्म महिमा काम्यः समेषां शमो , मन्दाक्षं सुतपोजुषां श्रुतमृषिब्रह्मदिसंघर्षकृत् । त्यागः श्रीददुराधिदाननिरनुक्रोशः प्रतापो रिपु,
स्त्रीशृङ्गारगरस्तरङ्गितजगडर्माद्यशश्चाङ्गनाम् ॥ २६ ॥
धर्मके प्रसादसे प्राणियोंको सभी अभ्युय प्राप्त होते हैं । यथाऐसे वंशमें जन्म कि जिसके माहात्म्यसे जगकी सभी महिमाएं -सर्वोत्कृष्ट पद प्राप्त हो सकते हैं। प्राणिमात्रके लिये स्पृहणीय तीर्थकरत्वादिक पद । अपने अपराधियोंको दंड देनेकी सामर्थ्यके रहते हुए भी उनके अपराधोंको सहन - क्षमा करनेकी ऐसी शक्ति कि जिसके सामने बडे बडे तपस्वियोंकी भी आंखें लज्जासे नीची पड़ जाती हैं। आप्त भगवान्के वचन आदिके निमिचसे उत्पन्न हुआ अर्थ - पदार्थोंका ऐसा ज्ञान कि जो तपके बलसे बुद्धयादिक ऋद्धियोंको प्राप्त करनेवाले ऋषियोंके ज्ञानातिशयके साथ भी स्पर्धा करता हो-टक्कर लेता
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अध्याय
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हो । कुवेरके भी दुराधि-अनुचित रूपसे प्रवृत्त हुए मानसिक दुःख-के उत्पन्न करनेमें निर्दय किंतु अमोघ शक्तिका रखनेवाला दान | शत्रुस्त्रियोंके श्रृंगारकेलिये विषके समान प्रताप-कोष और दंडसे उत्पन्न हुआ तेज । समस्त जगतको कम कर देनेवाला तीनो लोकोंको व्याप्त कर उनके ऊपर प्रकाशित होनेवाला यश ।
REATMENT
PRENESHINDI
अनगार
बुद्धयादिक सामग्री भी फल देनेमें पुण्यका ही मुख देखा करती हैं। यही बात बताते हैं -
धीस्तीक्ष्णानुगुणः कालो व्यवसायः सुसाहसः। . धैर्यमुद्यतथोत्साहः सर्व पुण्यादृते वृथा ॥ २७ ॥
तीक्ष्ण-कुशाग्रीय-पदार्थको थोडासा स्पर्श करते ही उसके अंततकको विषय करलेनेवाली बुद्धि, कार्यकी सिद्धिमें मदत पहुंचानेवाला समय, कर्मके प्रति साहसपूर्ण उद्यम, बढता हुआ धैर्य-विनोंपर विजय प्राप्त करनेकी शक्ति-और उत्साह-कार्यकारिणी शक्ति । ये सब बुद्ध्यादिक पांचों ही पदार्थ पुण्यके विना व्यर्थ हैं।
यदि इष्ट पदार्थोके सिद्ध होनेमें पुण्य कर्म स्वतंत्र है तो वह उस विषय में अपने कर्ताकी क्रियाकी भी अपेक्षा क्यों रखता है । इस प्रश्नका उत्तर उत्प्रेक्षा अलंकारके द्वारा देते हैं । -
__मनस्विनामीप्सितवस्तुलाभाद्रम्योभिमानः सुतरामिताव ।
पुण्यं सुहृत्पौरुषदुर्मदानां क्रिया: करोतीष्टफलाप्तिदृप्ताः ॥२८॥ अमिमानी पुरुषोंको ईप्सित वस्तुओंका लाभ हो जानेपर अत्यंत मनोहर अभिमान हुआ करता है। मालुम पडता है, मानों इसीलिये पुण्य कर्म, पौरुषका खोटा मद करनेवालोंकी, अभिमत पदार्थोके सिद्ध होजानेसे माभिमानिक रससे युक्त क्रियाओंको, सिद्ध करनेमें निष्कपट उपकार करता है।
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उक्त प्रश्नका उत्तर देकर अब यह बताते हैं कि विशिष्ट आयु आदिकी मी प्राप्ति पुण्योदयके निमितसे ही होती है।
आयुः श्रेयोनुबन्धि प्रचुरमुरुगुणं वज्रसारः शरीरं, श्रीस्त्यागप्रायभोगा सततमुदयनी घी: परार्ध्या श्रुताढ्या । गीरादेया सदस्या व्यवहृतिरपथोन्माथिनी सद्भिरा,
स्वाम्यं प्रत्यर्थिकाम्यं प्रणयिपरवशं प्राणिनां पुण्यपाकात् ॥ २९ ॥ प्राणियोंको पुण्यके उदयसे ये सब बातें प्राप्त होती हैं। यथा
अविच्छिन्न कल्याणोंसे युक्त और उत्कृष्ट-लम्बी आयु, सौन्दर्य कोमलता आदि अनेक महान् गुणोंसे युक्त वज्रके सारकी तहर अभेद्य और दृढ शरीर, जीवन पर्यंत दिनपर दिन बढती जानेवाली और प्रायः दान व भोगोंमें ही जिसका उपयोग होता हो ऐसी लक्ष्मी, उत्कृष्ट -शुश्रूषा आदि गुणोंसे युक्त और श्रुतज्ञानकी समृद्धिसे पूर्ण बुद्धि, सभाके योग्य और आदेय-जिसका कोई उल्लंघन न करसके ऐसी वाणी, हितमें प्रवृत्ति और अहितसे निवृत्तिरूप ऐसा व्यवहार-सदाचार कि जिसको साधु भी प्राप्त करना चाहें और जिसको देखकर दूसरे अमार्गमें प्रवृत्ति करनेवाले भी अपनी उस अयुक्त प्रवृत्तिको छोड दें। अपने बन्धु मित्र आदिक स्नेही व्यक्तियोंके अधीन और जिसको शत्र भी प्राप्त करना चाहें- जिसे देखकर शत्रओंको भी मनमें यह भाव उत्पन्न हो जाय कि " हम भी ऐसे ही जाय" ऐसी प्रभुता ।। पुण्यके प्रतापसे बहुतसे फल-अभ्युदय एकदम आकर प्राप्त होते हैं । यही बात दिखाते हैं । -
चिद्भूम्युत्थः प्रकृतिशिखारिश्रणिरापूरिताशा -,
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बहुतसी जगहमें फैला श्रेणीसे युक्त है। जिसनारूपी भूमि
उपभोगके योगकालये पदार्थोकी अमिला
SOTHERREARESMATEANDSAUTPSSSREANTASAUTANG
चक्रः सन्जीकृतरसभरः स्वच्छभावाम्बुपूरैः । नानाशक्तिप्रसवविसरः साधुपान्थौघसेव्यः ,
पुण्यारामः फलति सुकृतां प्रार्थितांलुम्बिशोर्थान् ॥ ३०॥ पुण्यात्माओंके पुण्यरूपी उपवनमें अभिलषित पदार्थ प्रचुरतासे फलते हैं । यह उपवन चेतनारूपी भूमिपर उत्पन्न होनेवाला और सातावेदनीय आदि कर्मप्रकृतिरूपी वृक्षोंकी श्रेणीसे युक्त है। जिस प्रकार उपवन आशाओं-दिशाओंको घेरलेता है-चारो तरफसे बहुतसी जगहमें फैला हुआ रहता है उसी प्रकार यह भी आशाओं-भविष्यत्केलिये पदार्थोकी अभिलाषाओंसे पूर्ण रहता है । इस उपवनमें निर्मल परिणामरूपी जलके पूरसे उपभोगके योग्य रसका भार तयार होता है। यह अनेक प्रकारकी शक्तिरूपी फूलोंके समूहसे युक्त है और इसका पथिकोंकी तरह साधुगण-त्रिवर्गके लोग आश्रय लेते हैं।
यहाँपर शक्तिओंको फलोंकी उपमा देनेका यह प्रयोजन है कि उन्हीसे फलकी उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार त्रैवर्गिकोंको पथिकोंकी उपमा इसलिये दी है कि वे नित्य ही मार्गमें-मोक्षमार्गमें गमन करते रहते हैं। पुण्यसे बहुतसे सहभावी वाञ्छित पदार्थ फलरूपमें प्राप्त होते हैं। यही बात दिखाते हैं:
पित्र्यैर्वेनयिकैश्च विक्रमकलासौन्दर्यचर्यादिभि,.. गर्गोष्ठीनिष्ठरसैर्नृणां पृथगपि प्रायः प्रतीतो गुणैः।
सम्यस्निग्धविदग्धमित्रसरसालापोल्लसन्मानसो, धन्यः सौधतलेऽखिलर्तुमधुरे कान्तेक्षणैः पीयते ॥ ३१ ॥
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१-खट्टा मीठा आदि इन्द्रियग्राह्य अथवा कमके विपाकरूप।
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अनगार
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अध्याय
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गुणदो प्रकार हुआ करते हैं - १ साहजिक, २ आहार्य । माता पिताकी वंशपरम्परासे आये हुओंसाहजिक तथा गुरु आदिकी शिक्षासे उत्पन्न हुओं को आहार्य कहते हैं। पराक्रम, सौन्दर्य, प्रियंवदत्व आदिक साहजिक गुण हैं और कला आचरण मैत्री आदिक आहार्य गुण हैं । पुण्यवान् पुरुष मातापितासे आये हुए और शिक्षासे उत्पन्न हुए अर्थात् उक्त दोनो प्रकारके विक्रम कला सौंदर्य चर्या प्रियंवदत्त्व आदिक तथा जिनका रस, गोष्टी + प्रीतिपूर्वक पारस्परिक भाषणके समय नियत रूपसे स्थिर रहता है- जो सदा उदित रहनेवाले हैं और जिनमें से एक एकको भी दूसरे लोग प्राप्त करनेकी स्पृहा करते हैं- सबकी तो बात ही क्या ऐसे अनेक गुणोंसे जगत् में प्रतीतिको प्राप्त करलेता है। ऐसा पुण्याधिकारी पुरुष जिस समय हेमन्त शिशिर वसंत ग्रीष्म वर्षा और शरद इन सभी ऋतुओं में जहां बैठनेसे मन और इन्द्रियोंको तृप्ति प्राप्त होती है ऐसे-समस्त ऋतुओं के उच्च राजमहल में निष्कपट प्रेमी विद्वान् और रसिक मित्रोंके सरस वचनालापोंसे अपने मनको आनन्दोन्मुख करता हुआ बैठता है उस समय उसको कान्ताएं सूतृष्ण दृष्टिसे देखा करती हैं ।
सुधा मध्या और प्रगल्भा इन तीनों ही अवस्थाकी ऐसी स्वकीया नायिकाको कान्ता कहते हैं कि जिसका आचार पवित्र और नागरिक हो तथा जो चरित्रको ही अपना शरण मानती हो; एवंच निरभिमानता और क्षमासे युक्त हो ।
इस प्रकार पुण्यवान् सुखका दो लोकोंमें वर्णन करते हैं। -
स्वगत - खुदको प्राप्त होनेवाली गुणसंपत्तिका वर्णन करके अब स्त्रीसम्बन्धी
साध्वीवर्गविधिसाधनसावधानाः, कोपोपशमधुर प्रणयानुभावाः । लावण्यवारितरगात्रलताः समान, सौख्यासुखाः सुकृतिनः सुदृशो लभन्ते ॥ ३२ ॥
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धर्म अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थोको विधिपूर्वक-आगममें बताई हुई विधिके अनुसार सिद्ध करनेमें सदा सावधान-प्रमाद छोडकर वर्ताव करनेवाली, जिनके प्रेमसे उत्पन्न हुए भावों-कटाक्षपात, ईषदहास, सनर्म भाषण, वक्रोक्ति आदिकोंमें कृत्रिम बाह्य रोषके कारण एक ऐसा विलक्षण स्वाद भरा रहता है जैसे कि दाल शाक आदि व्यंजनोंमें मसालेके कारण चटपटापन, जिनकी प्रशस्त और कृश शरीररूपी लताएं लावण्य-अतिश यित कांतिके जलमें मानो तैरती रहती हैं, जो पतिके सुखमें सुखी और दुःखमें दुःखी रहा करती हैं, ऐसी सुलोचना सुतारा सीता द्रौपदी आदिके सदृश पतिवृता युवतियां भाग्यशालियोंको प्राप्त हुआ करती हैं।
· यहांपर दुःख-शब्दसे प्रणयभंगादिके द्वारा उत्पन्न हुआ ही दुःख लेना चाहिये न कि व्याधि आदिसे उत्पन्न हुआ। क्योंकि ऐसा दुःख पुण्यशालियोंके सम्भव नहीं। अथवा, कदाचित् व्याधिजन्य भी लिया जासकता है। क्योंकि सुख और दुःख संसारमें स्वभावतः सांतर ही हुआ करते हैं। यथाः
सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम् ।
सुखं दुःखं च मयानां चक्रवत्परिवर्तते ॥ इति । सुखके बाद दुःख और दुःखके बाद सुख इस तरह मनुष्योंके सुख और दुःख ये दोनो ही गाढीके पहियेकी तरहसे सदा घूमा ही करते हैं।
___• अवस्थाकी अपेक्षा स्त्रियां दो प्रकारकी हुआ करती हैं- १ युवती, २ पुरंधी । जबतक कोई बाल बच्चा नहीं होता तबतक युवती और कुटुम्बिनी हो जानेपर पुरंध्री संज्ञा होती है। इनमेंसे युवतिसम्बन्धी गुणसम्पत्ति -सुख सामग्रीका वर्णन करके अब पुरंध्रीविषयक सुखको दिखाते हैं:
व्यालोलनेत्रमधुपाः सुमनोभिरामाः, पाणिप्रवालरुचिराः सरसाः कुलीनाः ।
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आनृण्यकारणसुपुत्रफलाः पुरन्ध्यो, धन्यं व्रतत्य इव शाखिनमास्वजन्ते ॥३३॥
जिनके नेत्र भ्रमरकी तरह चंचल रहा करते हैं, जिनके मनोहर हाथ पल्लवों--नवीन पत्तोंकी तरह लाल और कोमल हैं, जिनके ऐसा श्रेष्ठ पुत्ररूपी फल उत्पन्न हो चुका है जो कि पितादिकके ऋणको दूर करनेका कारण है, जो सुमनस्-मनमें सदा प्रसन्न रहनेवाली और कुलीन श्रेष्ठ कुलमें उत्पन्न होनेवाली हैं। ऐसी मनोहर तथा सरस-सानुराग पुरंध्री स्त्रियां, जिनके गोत्रका विस्तार बहुत बढ़ गया है या बढनेवाला है ऐसे भाग्यशालियोंसे अभिलाषाके साथ इस तरहसे आलिंगन करती हैं जिस तरहसे कि वेलें किसी पुण्यशाली वृक्षसे किया करती हैं। यहांपर पुरंधियोंके जितने विशेषण हैं वे सब वेलोंकी तरफ भी घटित होते हैं । यथा -चंचल नेत्रोंके भ्रमरोंसे युक्त, पुष्पोंसे मनको हरण करनेवाली, हाथके समान पल्लवोंसे रुचिर, सरस-आर्द्रतासे पूर्ण, कुलीन-पृथ्वीमें उत्पन्न होनेवाली, जिनसे इस प्रकारके फल उत्पन्न होते हैं जो कि श्रेष्ठ पुत्रकी तरहसे अपने स्वााके ऋणके दूर करनेमें कारण हैं। पुण्यवानोंको बाल और सुपुत्रोंकी लीला देखनेसे जो सुख प्राप्त होता है उसको दिखाते हैं:
क्रीत्वा वक्षोरजोभिः कृतरभसमुरश्चन्दनं चाटुकारः, किंचित्सतर्ण्य कर्णो द्रुतचरणरण धुरं दूरामित्त्वा ।
अध्याय
१. इसका कारण यह बताया है कि पुत्ररहित पुरुष परलोकमें पितादिकका ऋणी समझा जाता है। इसका अ
भिप्राय यह हो सकता है कि जिस कुलकी स्थिति रखनेकेलिये पिताने उसको उत्पन्न किया और अन्वयदान किया था उसका उसने घात करदिया । अत एव वह अपने कर्तव्यके विषयमें उत्तरदायी है।
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ऋडिन् डिम्भैः प्रसादप्रातिघधनरसं सस्मयस्मेरकान्ता, -
दृक्संबाधं जिहीते नयनसरसिजान्यौरसः पुण्यभाजाम् ॥ ३४ ॥ - खेलते समय जो अपनी छातीमें धूलि लग गई थी उसके बदलेमें पिताकी छातीमें पूजादिकके समय लगे हुए चंदनको उत्सुकताके साथ खरीद कर-छुडा लेकर-बडी उत्सुकतासे लिपटकर अपनी छातीपरकी धूल पिताकी छातीमें लगादी और पिताकी छाताके चंदनको छुडाकर अपनी छातीमें लगा लिया; ऐसी ऐसी क्रियाओं के करनेसे, तथा प्रिय वाक्योंके द्वारा कानोंको अच्छी तरह तृप्त करके और चलते समय जिसमें घुघुरुओंका झुनुन् झुनुन् शब्द होरहा है इस तरहसे शीघ्रताके साथ पैर रखते हुए कुछ दूरतक चलकर एवं क्षणमें संतोष और क्षणमें कोप करनेके कारण जिसमें अत्यंत रस भरा हुआ है इस तरहसे अपनी समान नयवाले बालकोंके साथ खेलता हुआ और सपुत्र पुण्यशालियोंको इस तरहसे नयनकमलोंका विषय-दृष्टिगोचर-देखनेको प्राप्त होता है कि जिसमें सस्मय-ऐसा पुत्र होनेसे आत्मोत्कर्षकी धारणावश उत्पन्न हुए गर्वसे युक्त तथा स्मेर--इषदहासस्वभाव-हंसमुख कान्ताओंकी दृष्टियोंने अत्यंत बाधा डाल रक्खी है। भावार्थ-भाग्यशालियोंको अत्यंत मनोहर पुत्र और स्त्री एक साथ दोनोंका सुख प्राप्त होता है। . .. पुण्यशालियोंके पुत्रकी कौमार और यौवन अवस्थामेंके योग्य गुणसंपत्तिकी प्रशंसा करते हैं: ----
सद्विद्याविभवैः स्फुरन्धुरि गुरूपायजितैस्तज्जुषां, दोःपाशेन बलासितोपि रमया बध्नन् रणे वैरिणः ।
आज्ञैश्वर्यमुपागतस्त्रिजगतीजाग्रद्यशश्चन्द्रमा, देहेनैव पृथक् सुतः पृथुवृषस्यैकोपि लक्षायते ॥ ३५ ॥
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गुरुओंकी सेवा करके संचित किये हुए समीचीन आन्वीक्षिकी आदि विद्याओंके वैभवोंसे उन उन विद्याओंके धारण करनेवाले विद्वानोंके ऊपर प्रकाशमान, शत्रुओंकी लक्ष्मीसे स्वयं बंधा हुआ होनेपर भी अपने बाहुपाशसे बलपूर्वक रणमें वैरियोंको बांधनेवाला, आज्ञा और ऐश्वर्य-अनुल्लंघ्य शासनको प्राप्त करनेवाला और जिसका यशरूपी चंद्रमा तीनो लोकमें सदा प्रकाशमान रहता है, ऐसा पुत्र बडे भारी भाग्यसे प्राप्त हुआ करता है। जो कि देह मात्रसे ही पृथक् -भिन्न माना जाता और एक होनेपर भी लाखोंकी बरावर समझा जाता है।
गुणकृत सौन्दर्य धारण करनेवाली कन्याएं भी पुण्यसे ही प्राप्त होती हैं। यह बात दृष्टान्तद्वारा स्पष्ट करते हैं:
कन्यारत्नसूजां पुरोऽभवदिह द्रोणस्य धात्रीपतेः, ' पुण्यं येन जगत्प्रतीतमहिमा सृष्टा विशल्यात्मजा। कूरं राक्षसचक्रिणा प्रणिहितां द्राग्लक्ष्मणस्योरसः,
शक्ति प्रास्य यया स विश्वशरणं रामो विशल्यीकृतः ॥३६॥ . संसारमें प्रभावशाली कन्यारत्नके उत्पन्न करनेवालोंमें सबसे अधिक पुण्य द्रोण महाराजका समझना चाहिये कि जिनके विशल्या नामकी वह कन्या उत्पन्न हुई कि जिसका माहात्म्य समस्त संसारमें प्रसिद्ध है । और जिसने राक्षसोंके चक्रवर्ती रावणके द्वारा अत्यंत निर्दयताके साथ मारी गई शक्तिको लक्ष्मणके हृदयमेंसे जरासी देरमें-दर्शनमात्रसे ही दूर कर विश्वमात्रके शरणभूत रामचंद्रको शल्यरहित कर दिया। जिसने लक्ष्मणके हृद यमेंस शक्तिको ही नहीं निकाला किंतु रामचंद्रजीके हृदयमेंसे उस शल्यको भी निकाल बाहर किया जो कि अपने अत्यंत प्रिय छोटे भाई लक्ष्मणके मरणके विषयमें लगी हुई थी। । । ।
भावार्थः- रामचंद्र सरीखोंको शल्यरहित करनेवाली कन्याएं भी अद्भुत रन हैं जो कि पुण्यशालि। योंके यहां ही उत्पन्न हो सकती हैं। ....
अन००८
अध्याय
JHENNISTENDANCHAMALANSHEROEN
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अनगार
जिनके पुण्य कर्मका उदय है उनको कामकेलिये परिश्रम करनेका निषेध करते हैं:- .
विश्राम्यत स्फुरत्पुण्या गुडखण्डासतामृतैः ।
स्पईमानाः फलिष्यन्ते भावाः स्वयमितस्ततः ॥ ३७॥ हे स्फुरायमान पुण्यके धारण करनेवालो! जरा विश्राम लो! तुमको स्वार्थ सिद्धिकालिये क्लेश कर परिश्रम करनेकी आवश्यकता नहीं है । क्योंकि गुड खांड मिश्री और अमृतके साथ स्पर्धा रखनेवाले पदार्थ तुमको स्वयं -विना किसी परिश्रमके ही इधर उधरसे आकर प्राप्त हो जायगे।
भावार्थ-अनुभागबंधके तारतम्यकी अपेक्षासे पुण्यकर्म चार प्रकारका है। एक तो ऐसा कि जीव जिस समय उसको बांधता है उस समय परिणामविशेषके द्वारा उसमें गुडके समान रस पडता है। दूसरा वह कि जिसमें खांडके समान रस पडता है। तीसरा वह कि जिसमें मिश्रीके समान रस पडता है। इसी प्रकार चौथा वह कि जिसमें अमृतके समान रस पडता है । इन कर्मोंका यथासमय उदय होनेपर तत्तत्पदार्थोंके ही समान स्वादु और रमणीय फलरूप पदार्थ स्वयं प्राप्त हुआ करते हैं। अत एव उनकी प्राप्तिकेलिये परिश्रम करनेकी आवश्यकता नहीं है। कल्पवृक्षादिककी भी प्राप्ति धर्म-पुण्यके ही आधीन है। यही बात दिखाते हैं:
धर्म: क नालंकीणो यस्य भृत्याः सुरद्रुमाः।
चिन्तामाणिः कर्मकरः कामधेनुश्च किङ्करी ॥ ३८ ॥ पृथ्वीके बने हुए वृक्षविशेषोंको कल्पवृक्ष कहते हैं। जैसा कि आगममें भी कहा है:
अध्याय
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अनगार
न वनस्पतयोप्येते नैव दिव्यैरधिष्ठिताः।
केवलं पृथिवीसारास्तन्मयत्वमुपागताः॥ कल्पवृक्ष न वनस्पतिरूप हैं और न दिव्य-देवोपनीत शक्तिसे ही युक्त हैं। केवल पृथिवीके बने हुए परिणामविशेष हैं जो कि वृक्षस्वरूपको प्राप्त करलेते हैं।
___ जो जिस जातिका कल्पवृक्ष है उससे उसके अनुसार मद्य तूर्य वस्त्र आदि भोगोपभोगके साधनभूत पदार्थ वचनसे याचना करनेपर प्राप्त हुआ करते हैं। इस प्रकारके कल्पवृक्ष जिसके नौकरके समान हैं; और चिंतामाण रत्न जिसके कमकर-गुलामके सदृश है; एवं कामधेनु गौ जिसकी दासी है, वह धर्म, ऐसा कौनसा कार्य है कि जिसको सिद्ध करनेमें पूर्णतया समर्थ न हो । अर्थात् धर्मके प्रसादसे मोक्ष तथा संसारके अभ्युदय सभी कार्य सिद्ध हो सकते हैं।
उदयमें आया हुआ पूर्वकृत पुण्य अपने प्रयोक्ता-पुण्यशालाका किसी न किसी तरहसे उपकार करता ही है यही बात दिखाते हैं:
प्रियान दूरेप्याञ्जनयति पुरो वा जनिजुषः, करोति स्वाधीनान् सखिवदथ तत्रैव दयते । ततस्तान्वानीय स्वयमपि तदुद्देशमथवा,
नरं नीत्वा काम रमयात पुरापुण्यमुदितम् ॥ ३९॥ उदयमें आया हुआ पूर्वकृत पुण्य अपने प्रयोक्ता-पुण्यशालीका किसी न किसी तरहसे उपकार करता ही है। यही बात दिखाते हैं:
१-चिंतित पदाथोंको देनेवाला और रोहणादिमें उत्पन्न होनेवाला रत्नविशेष । .
अध्याय
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अनगार
६०
अध्याय
पूर्वकृत पुण्य उदय में आकर इन्द्रियों के योग्य और मनोज्ञ तथा भोग्य विषयोंको भोक्ता के निकट या दूर कहीं भी उत्पन्न करदिया करता है । अथवा यदि भोक्ता के उत्पन्न होनेसे पहले ही वे पदार्थ उत्पन्न हो चुके हों तो उनको उसके अधीन करदेता है - प्राप्त करता है । यद्वा जहां पर वे पदार्थ हैं वहींपर उनकी मित्रकी तरहसे रक्षा किया करता है, एवं जहांपर वे स्थित हैं वहांसे उनको लाकर अथवा स्वयं उस भोक्ता मनुष्यको ही उनके स्थानपर ले जाकर यथेष्ट रूपसे उन पदार्थोंका भोग कराता है ।
इस प्रकार नाना प्रकारके शुभ परिणामोंसे संचित किये हुए पुण्यविशेषका अतिशयित तथा विचित्र फलका सामान्यसे निरूपण कर अब विशेष रूपसे उसका पारलौकिक विचित्र फल बताते हैं। जिसमें यहांपर सबसे पहले स्वर्गलोकसम्बन्धी सुखका निरूपण करते हैं: -
यदिव्यं वपुराप्य मङ्क्षु हृषितः पश्यन् पुरा सत्कृतं, द्राग्बुद्ध्वावधिना यथास्वममरानादृत्य सेवाद्यतान् । सुप्रीतो जिनयज्वना धुरि परिस्फूर्जन्नुदारश्रियां, स्वाराज्यं भजते चिराय विलसन् धर्मस्य सोनुग्रहः ॥ ४० ॥
जो उपपादशिलापर उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्तमें ही पूर्ण होजाता है ऐसे वैक्रियिक शरीरको प्राप्त कर जो देव अपने चारो तरफ खड़े हुए देवियों देवों तथा अप्सराओंको देखकर विस्मयको प्राप्त होजाता किंतु उसी समय उत्पन्न हुए अतीन्द्रिय अवधिज्ञान के द्वारा शुभ परिणामोंसे संचित तथा स्वर्गफलको देनेवाले पूर्वकृत पुयको जानकर, सेवा करनेकेलिये तयार खड़े हुए प्रतीन्द्र सामानिक आदि देवोंमेंसे जो जिस योग्य है उसको उसी कामपर नियुक्त कर और अत्यंत प्रसन्न होकर अर्हत भगवान्की पूजा करनेवालोंमें जो उदार - महान ऋद्धिके धारण करनेवाले देवोंके मनमें भी चमत्कार पैदा करदे ऐसी श्री-अणिमा आदिक अष्टगुण
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अनगार
६१
अध्याय
१
सम्बन्धी ऐश्वर्य-संपत्ति धारक हैं उनमें भी प्रधानताको प्रकाशित करता हुआ अर्थात् महर्द्धिकता के साथ जिन भगवान्की पूजन करता हुआ तथा इन्द्राणी आदि देवियोंके साथ विलास करता हुआ चिरकाल तक जो स्वर्गीय राज्यको भोगता है वह सब धर्मका ही उपकार है I
इन्द्रपदके बाद चक्रवर्तिपद भी पुण्यविशेषसे ही प्राप्त होता है । यह बात दिखाते हैं:
उच्चगत्रमभिप्रकाश्य शुभकद्दिक्चक्रवालं करै —, राक्रामन् कमलाभिनन्दिभिरनुग्रथ्नन् रथाङ्गोत्सवम् । दूरोत्सारितराजमण्डलरुचिः सेव्यो मरुत्खेचरै — सिन्धोस्तनुते प्रतापमतुलं पुण्यानुगुण्यादिनः ॥ ४१ ॥
जिस प्रकार सूर्य उच्च गोत्र - निषध नामके कुलाचलको प्रकाशित करके कमलाभिनंदी — कमलोंको आनंदित करनेवाले अपने कर-किरणोंके द्वारा प्रतिपक्षियोंसे पूर्ण दिङ्मंडलको आक्रान्त-अभिभूत - व्याप्त करलेता है, अथवा दिशाओंको व्याप्त करता तथा प्रजाको शुभ-कल्याण उत्पन्न करता है। उसी प्रकार स्वामी- चक्रवर्ती भी उच्च गोत्र - इक्ष्वाकु आदि वंशको प्रकाशित कर प्रतिपक्षियोंसे भरे हुए दिङ्मंडलको कमलाभिनंदी - लक्ष्मीको आनंदित करनेवाले या बढानेवाले करों-हाथोंसे आक्रान्त कर अथवा दिशाओं को अभिभूत कर प्रजाकेलिये कल्याणोंको उत्पन्न करता है । जिस प्रकार सूर्य रथांगोत्सव - चकवा चकवीकी प्रीतिको बढाता है उसी प्रकार चक्रवर्त्ती भी रथांगोत्सव - चक्ररत्न के बढे हुए तेजको सर्वत्र फैला देता है । जिस प्रकार सूर्य राजमण्डल - चंद्रमण्डलकी कांति को दवा देता है उसी प्रकार चक्रवर्त्ती भी राजमंडल - - राजाओंके प्रताप या इच्छाओं को दूर करदेता - नष्ट करदेता है। जिस प्रकार सूर्यकी ज्योतिषी देव सेवा करते हैं उसी प्रकार चक्रवर्त्तीकी देव व विद्याधर सेवा करते हैं । इस प्रकार पूर्वकृत पुण्यके प्रतापसे चक्रवर्ती सूर्यके समान अपने अनुपम प्रतापको सिंधुपर्यंत प्रसारित करदेता
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EHI
GM21595453
है। यहांपर सिन्धु-शब्दका अर्थ समुद्रके सिवाय हिमवन कुलाचल भी समझना चाहिये । क्योंकि सिन्धुनदी जिसमेंसे उत्पन्न होती है वह पाहृद हिमवन् पर्वतपर ही है । और चक्रवर्तीके राज्यकी समिामें भी तीन तरफ समुद्र और एक तरफ हिमवन् ही है।
अर्धचक्रवर्तिपदकी भी प्राप्ति निदानके साथ किये गये धर्मके ही माहात्म्यसे होती है । यही बात उदाहरणके साथ दिखाते हैं
छित्त्वा रणे शत्रुशिरस्तदस्तचक्रेण दृप्यन् धरणी त्रिखण्डाम् ।
बलानुगो भोगवशो भुनाक्त कृष्णो वृषस्यैव विजृम्भितेन ॥४२॥ कृष्णन बल-पराक्रम अथवा बलभद्रका अनुगमन और दर्प -गर्वको प्राप्त कर प्रतिवासुदेवके शिरको उसके द्वारा चलाये हुए चक्रके द्वारा रणमें काटकर जो तीनखण्ड पृथिवीको-भरतक्षेत्रके विजयार्ध पर्वत तकके उस आधे भागको कि, जिसके गंगा और सिंधु नदीके द्वारा छह खंड होगये हैं, प्राप्त किया एवं पुष्पमाला वनिता नागशय्या आदिको जो भोगा सो सब किसके प्रतापसे ? एक निदानसहित किये गये तपके द्वारा संचित पूर्व पुण्यके प्रतापसे ही न!
यहांपर नारायणके इस भोगका कारण धर्मके विज़ाम्भितको बताया है । विजृम्भित शब्दका अभिप्राय यहांपर निराशिय पुण्य लेना चाहिये । निरतिशय पुण्य उसको कहते हैं कि जिसके उदयसे ऐसा सुख प्राप्त हो कि जिसका अंत दुःखरूप हो । नारायणका पुण्य भी ऐसा ही होता है। क्योंकि भोगोंके अंतमें उसको नियमसे नरक प्राप्त होता है।
अब यह बताते हैं कि कामदेव पर्याय प्राप्त करना भी धर्मविशेषका ही फल है
अध्याय
१२
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SES
धनगार
REETHAROSSESSAGE
यासां प्रभङ्गमात्रप्रसरदरभरप्रक्षरत्सत्वसारा, वाराः कुर्वन्ति तेपि त्रिभुवनजयिनश्चाटुकारान् प्रसत्त्यै। तासामप्यङ्गनानां हृदि नयनपथेनैव संक्रम्य तन्वन्,
याश्चाभङ्गेन दैन्यं जयति सुचरितः कोपि धर्मेण विश्वम् ॥४३॥ । समस्त संसारमें प्रसिद्ध तथा तीनों लोकोंको भी जीतनेकी शक्ति रखनेवाले वीर पुरुष भी जिनका कि स
च और सार-विवेक और बल जिन अङ्गनाओंके केवल कटाक्षपातरूपी वाणके लगते ही उत्पन्न हुए त्रासके बाद्रेकसे समूल नष्ट होजाते हैं। अत एव उनको प्रसन्न करनकोलये चाटुकार-अनुकूल करनेवाले अर्थके द्योतक सराग दीन वचन कहा करते हैं उन्ही अङ्गनाओंके हृदयमें कोई विरल पुरुष ही ऐसे होते हैं अथवा काम देव ही ऐसे होते हैं जो कि केवल दृष्टिमार्गसे ही प्रविष्ट हो जानेपर भी अखण्ड ब्रह्मचर्यके पालन करनेवाले होनेकेकारण उनकी याश्चाका भंग कर रागके स्थानमें दीनता-उतरे हुए चहरे आदिके द्वारा प्रकट होनेवाले मनस्ताप को बढाते हैं और पुण्यके प्रतापसे समस्त संसारपर विजय प्राप्त करलेते हैं।
भावार्थ-कामदेवोंको पुण्य के प्रतापसे इतना सुंदर रूप प्राप्त होता है कि जिसको देखते ही वे कमनीय कामिनियां भी उनपर मुग्ध हो जाती हैं कि जिनको तीन लाकके जीतनेकी शक्ति रखनेवाले भी वीर पुरुष वश नहीं कर सकते । किंतु वे कामदेव उन कामिनियोंकी याश्चाका इस तरहसे भंग करदेते हैं कि जिससे उनके मुखपर दीनता व्यक्त होने लगती है।
विद्याधरपना भी धर्मविशेषसे ही प्राप्त होता है, यह बात दिखाते हैं ।
विद्येशीभृय धर्माद्वरविभवभरभ्राजमानैर्विमानै,
अध्याय
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व्याम्नि स्वैरं चरन्तः प्रिययुवतिपरिस्पन्दसान्द्रप्रमोदाः। दीव्यन्तो दिव्यदेशेष्वविहतमणिमाद्यद्भुतोत्सृप्तिदृप्ता, निष्कान्ताविभ्रमं धिग्भ्रमणमिति सुरान् गत्यहंयून् क्षिपान्त ॥४४॥
अनगार
धर्मके प्रतापसे जीव विद्याओंके स्वामित्व विद्याधरपनको प्राप्त कर प्रिय तरुणियोंकी श्रृंगाररचनाका अत्यंत आनंद लेते हुए ध्वजाओं मालाओं घंटरियांओं घंटाओं आदिके शब्दों तथा झरोखों खिडकियों और मनोहर सुगन्धि आदि श्रेष्ठ विभवसे अत्यंत शोभायमान विमानोंके द्वारा आकाशमें इच्छानुसार विहार करते,
और अणिमा महिमा लघिमा गरिमा इशित्व वशित्व प्राकाम्य कामरूपित्व इन आठ गुणोंके अद्भुत -विस्मय करादेनेवाले उद्गमसे गर्वको प्राप्त कर अस्खलित रूपसे दिव्य देशों-नन्दन वन कुलपर्वत गङ्गादि नदियों तथा समुद्रादिकोंपर क्रीडा करते और मानुषोत्तर पर्वतके बाहर भी जा सकनेके कारण अपने गमनका गर्व रखनेवाले देवोंका भी“ जिसमें भू-विकारादिका विभ्रम-विलास नहीं पाया जाता उस भ्रमणको धिक्कार है" इस तरह तिरस्कार कर देते हैं। .. आहारक शरीरकी संपत्ति भी पुण्योदयसे ही प्राप्त होती है, यह दिखाते हैं
. प्राप्याहारकदेहेन सर्वज्ञं निश्चितश्रुताः ।
योगिनो धर्ममाहात्म्यान्नन्दन्त्यानन्दमेदुराः॥४५॥ चारित्रविशेषके द्वारा पूर्वमें संचित किये हुए आहारक शरीरनामा नामर्कमरूपी पुण्यविशेषके माहात्म्यसे
बध्याय
१ क्योंकि देवियोंके नेत्र निनिमेष होते हैं । विद्याधरियोंकी तरह उनके नेत्रोंकी टिमकार नहीं लगती ।
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अनगार
प्राप्त हुए आहारक शरीरके द्वारा सर्वज्ञदेवके निकट विनयपूर्वक प्राप्त होकर और उससे परमागमके अर्थका | निर्णय हो जानेपर प्रमोदसे प्रफुल्लित हुए योगिगणा ज्ञान तथा संयमकी समृद्धिसे युक्त हो जाया करते हैं। ...... "भावार्थ-भरत और ऐरावत क्षेत्रमें स्थित संयमियोंको केवलियोंके न रहनेपर जब किसी श्रुतके वि. षयमें संशय उत्पन्न होता है तब वे तत्वका निर्णय करनकोलिये महाविदेह. क्षेत्रमें केवलियोंके निकट' औदारिक शरीरके द्वारा जानेसे होनेवाला असंयम न हो इसलिये आहारक शरीरको उत्पन्न करते हैं। यह शरीर शुद्ध स्फटिकके समान स्वच्छ एक हाथकी बरावर ऊंचा, उत्तमांग-शिरसे निकलता है । यह न किसीसे रुकता और न किसीको रोकता है। केवल अन्तर्मुहूर्तमें ही संशयको दूर करदेता और फिर आकर उसी शरीरमें प्रविष्ट हो जाता है। क्योंकि इस शरीरका केवालि भगवान्से साक्षात् होते ही संशय नष्ट होजाया करता है। इस तरहकी अपूर्व ऋद्धिका प्राप्त होना भी पुण्यविशवका ही माहात्म्य है।
धर्मके प्रतापसे जिनको स्व और परका-आत्मा और शरीरका भेदज्ञान होगया है ऐसे मुनीन्द्र अत्तीन्द्रिय सुखका संवेदन होजानेके कारण अहमिन्द्र पदका भी परित्याग कर देते है, यह बात दिखाते हैं।
कथयतु माहिमानं को नु धर्मस्य येन, स्फुटपटितविवेकज्योतिषः शाम्तमोहाः। समरससुखसंविल्लक्षितात्यक्षसौख्या,
स्तदपि पदमपोहन्लाहमिन्द्रं मुनीन्द्राः ॥.४६ ॥ जिस धर्मके माहात्म्य विवेक-शरीर और आत्माके भेदज्ञानकी ज्योति जिनकी आत्मामें स्पष्टतया प्रकाशित हो चुकी है और शांत होगया है मोह जिनका; तथा यथाख्यात चारित्ररूपी अथवा उससे उत्पन्न होनेवाले
अन•०९
RAPATRAPAR
ध्यायय
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अनगार
सुखक संवेदनसे जिन्होंने अतीन्द्रिय आत्मिक सुखको प्राप्त करलिया है ऐसे मुनिवर नव ग्रैवेयकसे लेकर सर्वार्थ सिद्धितककै कल्पातीत देवसम्बन्धि लोकोत्तर आहमिन्द्र. पदको भी छोड देते हैं। उस धर्मकी महिमाका वर्णन कौन कर सकता है ? कोई नहीं कर सकता।।
भावार्थ- चरम शरीरपदकी प्राप्ति होसके ऐसे ,मुण्यविशेषका बंध करनेके उन्मुख हो जानेपर भी पुनः शुद्धोपयोगके निमित्तसे उसका बंध न करके उपशमश्रेणिसे उतर कर क्षपकणिका आरोहण कर जीवन्मुक्त होकर परमोत्कृष्ट मुक्तावस्थाको प्राप्त करते हैं। इस प्रकार वे महामुनि जो अहमिन्द्र पदका भी परित्याग कर देते हैं सो सब उस धर्मका ही माहात्म्य है।
1 अहमिन्द्रोंका स्वरूप आगममें इस प्रकार कहा है'अहमिन्द्रोस्मि नेन्द्रोन्यी मत्तोस्तीत्यत्तिकत्वनाः ।
अहमिन्द्राख्यया ख्वातिं गतास्ते हि सुरीसमाः ।। मेरे सिवाय और इन्द्र कौन है ? मैं ही तो इन्द्र हूं। इस प्रकार अपनेको इन्द्र उद्घोषित करनेवाले देव- कल्पातीत देव अहमिन्द्र नामसे प्रख्यात हैं। इनमें -
नासूया परनिन्दा वा नात्मश्लाघा न मत्सरः ।
* केवलं सुखसाद्भूता दीव्यन्त्यते दिवौकसः ।। न तो अस्या है और न मत्सरता ही है, एवं न ये परकी निन्दा करते और न अपनी प्रशंसा ही करते हैं। । केवल परम विभूतिके साथ सुखका अनुभव करते रहते हैं।
-गुणोंमें दोष प्रकट करना ।
अध्याय
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बनगार
गर्भावतारादिक कल्याणोंकी आश्चर्यकर विभूति भी सम्यक्त्वके सहचारी पुण्यविशेषसे ही प्राप्त होती है। यही बात दिखाते हैं।
घोरेष्यन्विश्वपूज्यौ जनयति जनको गर्भगोऽतीव जीवो, जातो भोगान् प्रभुङ्क्ते हरिभिरुपहृतान्मन्दिरान्निष्क्रमिष्यन् । ईतें देवर्षिकीर्चि सुरखवरनूपैः प्रनजत्याहितेन्यः,.
प्राप्यार्हन्त्यं प्रशास्ति त्रिजगदृषिनुतो याति मुक्तिं च धर्मात् ॥ ४७ ॥ धर्मके प्रतापसे- सम्यक्त्वसहचारी पुण्यकी सामर्थ्यसे यह जीव स्वर्गसे उतरकर माताके गर्नमें आनेसे पहले ही माता और पिता दोनोंको समस्त संसारसे पूज्य बनादेता है । बल्कि गर्भ में आनेपर तो अ. त्यंत ही पूज्य बनादेता है। क्योंकि तीर्थकरके उत्पन्न होनेसे छह महीना पहले ही उनके पुण्यके माहात्म्यसे माता और पिता जगत्पूज्य हो जाया करते हैं-देव और देवियां भी उनकी पूजा किया करती हैं । इसी प्रकार यह जीव उत्पन्न होनेपर उस धर्मके माहात्म्यसे सौधर्मादि स्वर्गके इन्द्रोंके द्वारा लाये हुए भोगोपभोगके इष्ट विषयोंको भोगता है । तथा द्रव्य और भावरूप महलसे निकल कर जानेकी इच्छा करनेपर-तप करनेकी भावना करते ही इस जीवकी देवर्षी-नियोगी लोकांतिक देव स्तुति करते हैं । और देव विद्याधर तथा राजा महाराजाओंके द्वारा पूजित होनेपर दीक्षा ग्रहण करता। एवं आर्हन्त्य-केवलज्ञानको प्राप्त कर यह जीव उसी धर्मके माहात्म्यसे तीनो लोकोंको-समस्त संसारके हितका उपदेश देता है जिससे कि उसकी ऋषि-गणधर देवादिक भी स्तुति करते हैं। अंतमें यह जीव उसी धर्मके प्रतापसे परमपद-मोक्षस्थानको प्राप्त करलेता है। क्योंकि पहले मुख्य धर्मका जो स्वरूप बताया गया है उसमें ऐसी सामर्थ्य है कि जिससे समस्त कर्मोंका नाश होकर निवृति पदकी प्राप्ति हो सके।
जिस प्रकार धर्म-पुण्यके उदय होनेपर संपत्तियोंका उपभोग और अनुदय होनेपर अनुपभोग हुआ
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अनगार
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करता है उसी प्रकार अधर्मका उदय होनेपर विपत्तियोंका उपभोग और अनुदय होनेपर उनका अनुपभोग हुआ करता है। यही बात दिखाते हैं: -
धर्म एव सतां पोष्यो यत्र जाग्रति जाग्रति ।
भक्तं मीलति मालान्त संपदो विपदोन्यथा ॥४८॥ विचारपूर्वक कार्य करनेवाले सत्पुरुषोंको चाहिये कि वे उस धर्मको ही सदा पुष्ट करें कि जिसके जाप्रत होते ही अपने स्वामीकी सेवा करनेकेलिये समस्त संपत्तियां जाग्रत हो उठतीं और जिसके विराम लेते ही वे भी विराम लेलेती हैं। उस अधर्मको कभी पुष्ट न करना चाहिये कि जिसके जाग्रत होनेपर समस्त विपत्तियां जाग्रत होती और संपत्तियां नष्ट होजाती हैं। जिस प्रकार राजाओंकी सेवा करनेकेलिये वाराङ्गनाएं पारकरके सावधान रहनेपर सावधान और असावधान रहनेपर असावधान रहा करती हैं, उसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये।
. इस प्रकार धर्म सुखका उत्पन्न करनेवाला है यह बात बताकर अब यह बताते हैं कि उससे दुःखकी निवृत्ति भी होती है। इस बातको चौदह श्लोकोंमें स्पष्ट करेंगे, जिनमेंसे निम्नलिखित पद्यमें यह दिखाते हैं कि दुर्गम देशोंमें धर्म जीवका किस प्रकार उपकार करता है:
कान्तारे पुरुपाकसत्त्वविगलत्सत्त्वम्बुधौ बम्भ्रमत ,ताम्यन्नक्रपयस्युदर्चिषि मरुचक्रोच्चरच्छोचिषि । संग्रामे निरवग्रहद्विषदुपस्कारे गिरौ दुर्गम,-.. ग्रावग्रन्थिलदिखेप्यशरणं धर्मों नरं रक्षति ॥४९॥
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अध्याय
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वनगार
. प्रचुरतया पाये जानेवाले क्रूर सिंह व्याघ्र आदिक जीवोंके द्वारा जहांपर दूसरे प्राणी अथवा उनके प्राण नष्ट करदिये जाते हैं ऐसे दुर्गम अरण्य में, तथा जिसके जलमें कुटिलता और बहुलतासे दूसरोंको खिन्न करनेवाले नक्रादिक भयंकर जीव इधर उधर घूम रहे हैं ऐसे समुद्रमें, एवं वायुके वेगके निमित्तसे जिसकी ज्वालाएं खुब ऊपरको उठ रही हैं ऐसी अग्निमें, और शत्रओंका प्रतियन जिसमें निरंकुशतासे फैला हुआ है ऐसे संग्राममें, तथा कष्टके साथ जिनको लांघा जा सके ऐसी शिलाओंके द्वारा जिनका चारों तरफका भाग ग्रन्थिल-निम्नोत्रत हो रहा है ऐसे पर्वतपर, इत्यादि और भी अनेक दुर्गम स्थानोंमें जहांपर कि इस जीवका कोई भी शरण नहीं हो सकता; यह धर्म ही उसकी रक्षा करता है। ... यह धर्म नाना प्रकारकी दुरवस्थाओंसे ग्रस्त जीवका उद्धार करता है। यह बात दिखाते हैं: -
क्षुत्क्षामं तर्षतप्तं पवनपरिधुतं वर्षशीतातपात, । रोगाघातं विषात ग्रहरुगुपहतं मर्मशल्योपतप्तम् । दुराध्वानप्रभग्नं प्रियविरहबृहद्भानुदूनं सपत्न,
व्यापन्नं वा पुमांस नयति सुविहितः प्रीतिमुद्धृत्य धर्मः॥ ५० ॥ . क्षुधा-बुभुक्षासे क्षीण हुए, तृषा-पिपासासे संतप्त हुए, वायुमंडल में पडजानेके कारण चारो तरफको उडते हुए, वर्षा शीत या आतप-धूपसे आतुर हुए, जरा आदि व्याधियोंसे ग्रस्त हुए, विष अफीम आदि जहरीले पदार्थोसे पीडित हुए, ब्रह्मराक्षसादिक अथवा शनैश्चरादिक ग्रहोंकी पीडासे उपहत हुए, मार्मास्तिक पीडा उपस्थित करनेवाली शल्यसे अत्यंत व्यथित हुए, सुदूर मार्गमें चलनेके कारण अत्यंत श्रांत हुए, अपने प्रिय पुत्र मित्र कलत्र बन्धु बान्धवादिकोंके विरहरूपी अग्निसे झुलसते हुए, शत्रओंके द्वारा विविध प्रकारकी
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यध्याय
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अनगार
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अध्याय
आपत्तियों में फंसाये हुए, किं बहुना और भी अनेक प्रकारकी दुरवस्थाओंमें घिरे हुए इस मनुष्यका उद्धार कर उसे उन क्षुदादि दुःखोंसे निकाल कर, भले प्रकार पाला गया धर्म ही, प्रमोदको प्राप्त कराता है।
उक्त धर्मका समर्थन करनेकेलिये तीन श्लोकोंमें क्रमसे सगर मेघवाहन और रामचंद्रको दृष्टांतरूपमें उपस्थित करते हैं ।
सगरस्तुरगेणैकः किल दूरं हृतोऽटवीम् ।
खेटै: पुण्यात्प्रभृकृत्य तिलकेशीं व्यवाह्यत ॥ ५१ ॥
आगमके द्वारा यह बात मालूम होती है कि एकाकी द्वितीय चक्रवती सगरको जब घोडा सुदूरवर्ती अटमें हरकर ले गया तब वहांपर पूर्व पूण्यके प्रतापसे सगरने सहस्रनयन आदि विद्याधरोंके द्वारा अपनेको सेवक और सगरको स्वामी मानकर दीगई तिलकेशी नामकी विद्याधरकन्या - वरिल के साथ विवाह किया ।
दूसरा मेघवाहनका उदाहरण
कर्णे पूर्ण
सहस्रनयनेनान्वीर्यमाणोऽजितं,
सर्वज्ञं शरणं गतः सह महाविद्यां श्रिया राक्षसीम् ।
दत्त्वा प्राग्भवपुत्रवत्सलतया भीमेन रक्षोन्वय, -
प्रायो ऽरच्यत मेघवाहन स्वगः पुण्यं क जागर्ति न ॥ ५२ ॥
१ इसकी और आगे मेघवाहन तथा रामचंद्रजीकी कथा पद्मपुराणमें देखनी चाहिये.
OOOOO
धर्म०
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जनगार
जब सुलोचनके पुत्र सहस्रनयनके द्वारा सुलोचनको मारनेवाला अपना पिता पूणर्घन मारा गया तब उसकी सेनाके द्वारा भगाया गया मेघवाहन समवसरणमें स्थित द्वितीय तीर्थकर श्री अजितनाथ भगवान् सर्वज्ञ देवकी शरणमें जाकर उपस्थित हुआ। वहांपर पूर्णघनके चरभीम नामके राक्षसेन्द्रने पूर्वजन्मके पुत्रकी प्रीतिके वश होकर उसको नवग्रह नामका हार लङ्का और लङ्कोदर नामके दो नगर एवं कामग नामक विमान प्रभृति विभूतिके साथ २ राक्षसी नामकी महाविद्या देकर राक्षस वंशका आदिपुरुष बना दिया। इसलिये कहना पडता है कि सुखसंपादन या दुःखोच्छेदनरूप ऐसा कौनसा कार्य है कि जिसमें धर्म व्याप्त न होता हो। अर्थात् सुखप्राप्ति या दुःखविनाश सभी कार्य ऐसे हैं कि जो धर्मकी सहायतासे ही सिद्ध हुआ करते हैं। कोई भी कार्य धर्मकी सहायताके विना सिद्ध नहीं हो सकता।
तीसरा उदाहरण रामचंद्रजीका देते हैंराज्यश्रीविमुखीकृतोऽनुजहतैः काल हरस्त्वक्फलैः, संयोगं प्रियया दशास्यहतया स्वप्नेप्यसंभावयन् .. क्लिष्टः शोकविषार्चिषा हनुमता: तद्वार्तयोजीवितो,
. रामः कीगबलेन यत्तमवधीत् तत्पुण्यावस्फूर्जितम् ॥ ५३॥ रामचंद्र को जब उनके पिता दशरथ महाराजने राज्यलक्ष्मीसे विमुख कर दिया उस समय वे अपने छोटे भाई लक्ष्मणके द्वारा लाये हुए जंगली बल्कलों और फलोंसें अपना काल यापन करने लगे. किंतु ऐसे समयमें जब उनकी प्रिया सीताको दशमुख रावण ही हर लेगया तब तो वे अपनी उस प्रियासे पुनः स्वममें भी संयोग होगा इस बातको असंभव समझने लगे । और इसीलिये शोकरूपी विषकी ज्वालाओंसे संतप्त होगये । किंतु यह उनके पुण्यका ही माहात्म्य था जो कि उसी समय हनूमान आकर प्राप्त हुए-मिले, और उ
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अध्याय
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धर्म
अनमार
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न्होने सीताका समाचार सुमारासविषकी मृच्छोसे उन्हे उजीवित-सचेत किया। तथा इस तरह सावधान होकर उन्होंने बानरोंकी सेन्यकी रायतासे उस रावणका वध किया। यह धर्म नरकों भी घोर उपसर्गोको दूर करता है यह बताते हैं:
लाये किया धर्माय येन जन्तुरुपस्कृतः।
तत्सागुपसर्गेभ्या सुरैः श्वप्रेपि भोच्यते ॥ ५४ ॥ धर्मके माहात्म्यका वर्णन हो नहीं सकता । इसलिये कहते हैं कि हम उसकी कहांतक प्रशंसा-स्तुति करें कि जिसके द्वारा अथवा, नारकियों और संक्लिष्ट मुरोंके द्वारा उदीरित घोर दुःखोंसे देवों-कल्पवासी देवोंके द्वारा नरकमें भी मुक्त करदिया जाता है। क्योंकि छह महीना आयु वाकी रहनेवाले नारकियोंके उपसर्गोको देवगण दूर करदिया करते हैं। जैसा कि आगममें भी कहा है
तित्थयरसत्तकम्मे उवसम्मणिवारणं कुणंति सुरा ।
छम्माससेस गरये सग्गे अमिलाणमालाओ॥ - नरकमें ऐसे नारकियोंके उपसर्गोको कि जिसके तर्थिकर नामकर्म सत्तामें बैठा हुआ है और उनकी आयु छह महीना मात्र शेष रही है, कल्पवासी देव दूर कर देते हैं। इसी प्रकार स्वर्गमें भी उन देवोंकी जिनके कि तीर्थकर नामकर्म सत्तामें बैठा हुआ है और आयुका छह महीना मात्र काल शेष रहा है, दूसरे देवोंकी तरह मंदारमालाएं म्लान नहीं हुआ करतीं।।
धर्मका आचरण करते हुवे भी यदि विपत्तियां आकर संतप्त करें तो उनकी निवृत्तिकेलिये धर्मको ही पुनः सबल बनानेका उपदेश देते हैं।
PATREATMENT REARSAKSHARMANAGE
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अध्याय
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अनगार
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अध्याय
१
व्यभिचरति विपक्षक्षेपदक्षः कदाचिद् - बलपतिरिव धर्मो निर्मलो न स्वमीशम् । तदभिचरति काचित्तत्प्रयोगे विपच्चेत्स तु पुनरभियुक्तस्तर्ह्यपाज क्रियेत ॥ ५५ ॥
जिस प्रकार प्रतिपक्षी शत्रुओं का निवारण करनेमें अत्यंत दक्ष और निर्दोष सेनापति रत्न अपने स्वामी चक्रवत्तसे कभी विरुद्ध नहीं होता उसी प्रकार विपक्षी अधर्म और उसके कार्योंका निवारण करनेमें समर्थ ..एवं निर्मल - अतीचाररोहत पालन किया गया धर्म भी अपने स्वामी प्रयोक्ता धर्मात्मासे कभी विरुद्ध नहीं होता । अतएव विपक्षी और उसके कार्यों विपत्तियोंको दूर करनेकेलिये सेनापतिकी तरह धर्मको ही प्रयुक्त करना चाहिये। किंतु ऐसा करनेपर भी यदि कोई देवकृत मनुष्यकृत तिर्यचकृत या अचेतनकृत विपत्तियां आकर प्राप्त हों तो जिस प्रकार उद्यक्त सत्पुरुषोंके द्वारा उस सेनापतिको ही फिरसे सबल बनाया जाता है उसी प्रकार उद्युक्त समीचीन उपायोंके द्वारा उस धर्मको ही फिरसे सबल बनाना चाहिये। क्योंकि धर्म और अधर्म इनमें जो सबल होगा वही जीतेगा ।
जिसका निवारण न किया जा सके ऐसे दुष्कृत - पापको अपना फल देनेमें प्रवृत्त होनेपर धर्म पुरुष - का उपकार ही करता है ऐसा उपदेश देते हैं ।
अन० ध० १०
यज्जीवेन कषायकर्मठतया कर्मार्जितं तद् ध्रुवं, नाभुक्तं क्षयमृच्छतीति घटयत्युच्चैः कटूनुद्भटम् । भावान् कर्मणि दारुणेपि न तदेवान्वोति नोपेक्षते,
धर्म०
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अनगार
धर्मः किंतु ततस्त्रसन्निब सुधां स्नौति स्वधाम्न्यम्फुटम् ॥ ५६ ॥ जिस समय यह दारुण-सुशक्य या दुःशक्य है प्रतीकार जिसका ऐसा कर्म अत्यंत घटाटोपके साथ अतिशय कटु-हालाहल विषके समान सर्प विष कण्टक आदि अपने फलभूत अनिष्ट पदार्थोंको उत्पन्न करता है उस समय यह धर्म न तो उसका अनुवर्तन- साहाय्य ही करता है और न उस कर्मसे पीडित होते हुए अपने स्वामी धर्मात्माकी उपेक्षा ही करता है।
यहांपर प्रश्न हो सकता है कि जब धर्भसरीखा निष्कपट बंधु उपस्थित है फिर भी यह अधर्मशत्रु अपना विलास इस तरहसे क्यों दिखाता है ! इसका उत्तर यह है कि क्रोध मान माया आदि कषायों और उससे अनुरंजित मन वचन कायकी प्रवृत्तियोंमें कर्मशूर होकर इस जीवने पूर्व कालमें जिन कर्मोंका संचय किया है वे ध्रव हैं-उनका तबतक विनाश नहीं हो सकता जबतक कि उनका फल न भोगलिया जाय.
यहांपर पुनः प्रश्न हो सकता है कि यदि यही बात है तो विपक्षी अधर्मका साहाय्य न कर तथा अपने स्वामीकी उपेक्षा न करके भी धर्म क्या करता है ? इसका उत्तर यह है कि धर्म अस्फुट अप्रकट रूपस-बाह्य लोकोंकी दृष्टि में न आसके इस तरहसे अपने आश्रयभूत धर्मात्मा पुरुषकी आत्मामें सुधा-अमृत-सर्वाङ्गीण आनंदका सिंचन करता है । प्रकटतया क्यों नहीं करता ? तो मालुम होता है कि वह भी उस अधर्मसे भय खाता है-डरता है।
बध्याय
१ लतादावस्थिपाषाणशक्तिभेदाच्चतुर्विधः।।
स्याद् घातिकर्मणां पाकोन्येषां निम्बगुडादिवत् ॥ घातिकर्मोंका उदय शक्तिभेदकी अपेक्षा लता दारू-लकडी आस्थ और पाषाण इस तरह चार प्रकारका होता है। और अघातिकमोंमें पापकर्मका रस निंब कांजीर विष हालाहल इस तरह चार प्रकारका और पुण्य कर्मका रस गुड खांड शक्कर और अमृत इस तरह चार प्रकारका होता है।
२ यह बात उत्प्रेक्षा अलंकारके द्वारा कही गई है।
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भावार्थ--साधारण लोग दुर्वार पापकर्मके उदयसे तरा-ऊपर उत्पन्न हुए उपसर्गों-दुःखोंको ही देख सकते हैं किंतु धर्मके प्रतापसे मनुष्यके सत्त्व और उत्साह गुणमें जो बल उत्पन्न होता है जिससे कि वह उन दुःखोंसे आभिभूत नहीं होता उसको वे नहीं देख सकते । दो पोंमें पापके अपकार और पुण्यके उपकारको दृष्टांतद्वारा दृढ करते हैं
तत्तादृक्कमठोपसर्गलहरीसर्गप्रगल्भोष्मणः, किं पार्श्व तमुदप्रमुग्रमुदयं निर्वच्मि दुष्कर्मणः । किंवा तादृशदुर्दशाविलसितप्रध्वंसदीप्रौजसो,
धर्मस्योरु विसारि सख्यामिह वा सीमा न साधीयसाम् ॥ ५७॥ हम तेईसवें तीर्थकर श्री पार्श्वनाथ भगवान्के दुष्कर्मके उस-आगमप्रसिद्ध और उदग्र-- उच्छ्रित एवं उग्र--दुःसह उदयका कहांतक वर्णन कर सकते हैं कि जिसका अनुभाग--सामय पूर्व वैर के कारण नाना भवोंमें भ्रमण कर महासुरत्वको प्राप्त करनेवाले कमठक.द्वारा वज्रपात, अद्भुत पञ्चवर्ण मेघ, अत्यंत उग्र वायु, आयुधोंके द्वारा घात, अप्सराओंके द्वारा उपचार, अग्निके द्वारा जलना, समुद्रका तूफान, अजगरोंका उपनिपात, भूतोंका नृत्य, प्रचण्ड विजलीकी वर्षा, वृक्षोंका उखडकर गिरना, घोर मेघपटलोंका उठना इत्यादि और भी अनेक किये गये उन प्रसिद्ध और अनुपम उपसगोंकी लहरी-परम्पराके उत्पन्न करनेमें समर्थ है। इसी प्रकार हम उस धर्मकी महान् एवं सर्वत्र और सर्वदा अपना कार्य करनेवाली मैत्रीका भी कहांतक वर्णन कर सकते हैं कि जिसका ओज-तेज इन्द्रके द्वारा नियुक्त हुए यक्ष धरणेन्द्र और पद्मावतीके द्वारा भी निवारण न किया जासके, ऐसी पार्श्वप्रभुकी उस दुरवस्थाके विलास-स्वतंत्रतया दुःख देनेकी सामर्थ्यके अत्यंत ध्वस्त करनेमे प्रदीप्त-अधिकाधिक रूपमें ही प्रकाशित होता गया। अथवा ठीक ही है-इस संसारमें अतिशय शालियोंकी सीमा नहीं है।
उग्र वाात भूतोंका नृत्य, अन प्रसिद्ध और अनपदा अपना कार्य कान्द्र और पद्मावतीमयंक अत्यंत ध्वस्त योको
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धनगार
दूसरा उदाहरण:
प्रद्युम्नः षडहोद्भवोऽसुरभिदः सौभागिनेयः कुधा, बत्वा प्राग्विगुणोऽसुरेण शिलयाऽऽक्रान्तो वने रुन्द्रया । तत्कालीनविपाकपेशलतमः पुण्यैः खगेन्द्रात्मजी,
कृत्याऽलभ्यत तेन तेन जयिना विद्याविभूत्यादिना ॥५८॥ प्रद्युम्न यद्यपि असुरोंका विनाश करनेवाले वासुदेवकी अत्यंत बल्लभा रुक्मिणीका पुत्र था; फिर भी | जिस समय वह केवल छह दिनका था उसी समय उसको असुर-ज्वलितधूमशिख नामका दैत्य क्रोधके वश होकर महाखदिरा नामकी अटवीमें हर कर लेगया; क्योंकि पूर्व भवमें-मधुराजाकी पर्यायमें प्रद्यम्नके जीवने उसकी वल्लभाका हठपूर्वक हरण कर अपकार किया था। उस अटवीमें एक बड़ी भारी शिलाके नीचे प्रद्यम्नको दाबकर । ऊपरसे पीडित किया। किंतु तत्काल ही उदयमें आये हुए और इसीलिये अत्यंत मधुर पुण्यकर्मके प्रतापसे विद्याधरोंके निःसंतान स्वामी-कालसंवरने उसको अपना पुत्र बनालिया। और अंतमें वह कालसंवरके भी सौ पुत्रोंको पराजित कर प्राप्त की गई विजयके साथ साथ प्रज्ञप्ती आदि विद्याओं तथा विद्याधरत्वके प्राप्त करानेमें समर्थ विभूतियों--सोलह अद्भुत लाभोंसे युक्त हुआ । तथा उसके ऊपर आई हुई और भी अनेक प्रकारकी आपत्तियां शांत हुई जिनका कि विशद वर्णन उनके चरित्र में पाया जाता है ।
मंत्रादिकके प्रयोगका भी विपत्तियोंका निवारण करनेकेलिये शिष्ट पुरुष व्यवहार किया करते हैं। फिर आप यह किस तरह प्रकाशित करते हैं कि उन विपत्तियोंको दूर करने में पुण्य ही समर्थ है? आपका कथन विरुद्ध क्यों नहीं है? इसका उत्तर देते हैं:
यश्वानुश्रूयते हर्तुमापदः पापपक्त्रिमाः।
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अध्याय
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बनगार
उपायः पुण्यसद्वन्धुं सोप्युत्थापयितुं परम् ॥ ५९॥ आप्ताभासोंके बताये हुए उपायकी तो बात क्या उसका तो शिष्ट पुरुष व्यवहार ही क्या करेंगे ! किंतु पापकर्मके उदयसे प्राप्त हुई आपत्तियोंके दूर करनेके जो उपाय-सिद्धमंत्रादिकके प्रयोग आप्त भगवानकी उपदेशपरम्पराके अनुसार सुनने में आते हैं वे भी केवल उस विना कारणके समीचीन बन्धु पुण्यकर्मको ही जाग्रत करनेकेलियेअपने कार्यमें प्रवृत्त करनेकेलिये हैं। .
पुण्यकर्म यदि उदयके संमुख हो तो और यदि उससे विमुख हो तो दोनो ही अवस्थाओंमें सुखके साधन व्यर्थ हैं । इसी बातको दिखाते हैं:
. पुण्यं हि संमुखनिं चेत्सुखापायशतेन किम् ।
न पुण्यं संमुखनिं चेत्सुखोपायशतेन किम् ॥ ६ ॥ पुण्य यदि उदयके संमुख है -अपना फल देने में प्रवृत्त है तो दूसरे सैकडों सुखके उपायोंसे भी क्या प्रयोजन ? क्योंकि उसके उदयसे स्वयं ही सुख प्राप्त होगा । इसी प्रकार यदि पुण्यकर्म उदयमें नहीं आरहा है तो भी उस सुखके बहुतसे उपायोंकी भी क्याआवश्यकता है ? क्योंकि विना पुण्यके वे अपना फल ही नहीं दे सकते ।
पुण्य और पापमें बलाबलका विचार करते हैं:शीतोष्णवत्परस्परविरुद्धयोरिह हि सुकृतदुष्कृतयोः। सुखदुःखफलोद्भवयोर्बलमभिभूयते बलिना ॥६१ ॥
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ध्यायय
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सुकृत और दुष्कृत-पुण्य और पाप इन दो नोंका फल क्रमसे सुख और दुःख है । सुकृतका फल सुख और
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बनगार
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बध्याय
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दुष्कृतका फल दुःख है । अत एव इन दोनोंकी प्रवृत्ति शीत उष्णकी तरहसे परस्परमें विरुद्ध है। ये दोनो ही परस्परमें एक दूसरेकी शक्तिके घातने वाले हैं। जिस प्रकार यदि शीत बलवान् हो तो वह उष्ण स्पर्शकी शक्तिको दूर करदेता है। और उष्ण स्पर्श बलवान् हो तो शीत स्पर्शकी शक्तिको नष्ट कर देता है। इसी तरह इन दोनोंमें भी जो बलवान् होता है वह दूसरे दुर्बलको दबा देता है।
सुरू ही किया हुआ धर्म भी पापके उदयको दबादेता है यह बात दिखाते हैं:
धर्मोनुष्ठीयमानोपि शुभभावप्रकर्षतः ।
भङ्क्त्वा पापरसोत्कर्षं नरमुच्छ्रासयत्यरम् ॥ ६२ ॥
पूर्वार्जित धर्मकी तो बात ही क्या; किंतु उस धर्मका हालमें ही आचरण सुरू किया हो तो भी वह धर्म पापके रसको नष्ट करदेता हैं और उस आचरण करनेवाले मनुष्यका आपत्तियों से छुटकारा करा देता है। इसका कारण शुभ भावोंका प्रकर्ष है ।
इस प्रकार धर्मके माहात्म्यका जो कुछ वर्णन किया जा चुका है उसका उपसंहार करते हुए उसे आराधन करनेकेलिये भव्य श्रोताओंको प्रोत्साहित करते हैं:
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तत्सेव्यतामभ्युदयानुषङ्ग फलोऽखिलक्लेशविनाशनिष्ठः ॥
अनन्तशर्मामृतदः सदार्यैर्विचार्य सारो नृभवस्य धर्मः ॥ ६३ ॥
क्योंकि इस धर्मका प्रभाव नित्य एवं अचिंत्य है जैसा कि पहले बताया जा चुका है; इसलिये इसको मनुष्यजन्मका सार समझ कर आर्यों-विचारपूर्वक कार्य करनेवालोंको इसका अच्छी तरह विचार कर- प्रत्यक्ष अनुमान और आगमके द्वारा व्यवस्थित प्रमाणित करके नित्य ही सेवन करना चाहिये। क्योंकि यह धर्म अनंत - जिसकी
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बनगार
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AJHALISADSNIVETERMISARMENDMITRAAJRAditiat1651STASSA
कोई सीमा नहीं ऐसे शर्म आत्मिक सुखरूपी अमृतको देनेवाला, अथवा बहुत कालतक जिसका अनुभव किया जा सके ऐसे सांसारिक सुखरूपी अमृतका देनेवाला है । संसारके समस्त क्लेशों-संतापोंको दूर करनेमें यह तत्पर है। और इसके निमित्तसे ही उत्कृष्ट देवपद अथवा मनुष्योंमें चक्रवर्ती या तीर्थकर आदि पद अथवा और अनेक प्रकारके अभ्युदय फल प्राप्त होते हैं। किंतु ये सब इसके गौण फल हैं । अथवा जिस पुण्यके उदयसे ये अभ्युदय प्राप्त होते हैं उस पुण्यकी प्राप्ति भी इस धर्मका ही एक गौण फल है।
यह सब होते हुए भी समस्त अभ्युदयोंमें उत्कृष्ट यह मानव जीवन भी निःसार ही है, इसी बातपर बाईस पद्योंमें विचार करते हैं। जिसमें सबसे पहले यहांपर शरीरके ग्रहण करनेमें जो दुःख होते हैं उनको बताते हैं:
प्राङ्मृत्युक्लशितात्मा द्रुतगतिरुदरावस्करेऽह्नाय नार्याः, संचार्याहार्य शुक्रार्तवमशुचितरं तन्निगीर्णान्नपानम् । गृद्धयाऽश्नन् क्षुत्तृषार्तः प्रतिभयभवनाद्वित्रसन्पिण्डितो ना,
दोषाद्यात्माऽतिशात चिरमिह विधिना ग्राह्यतेऽङ्ग वराकः ॥६४॥ पूर्व भवमें मृत्युने जब इस जीवको अत्यंत क्लेशित-नाना प्रकारके दुःखोंसे पीडित किया तब यह वहांसे शीघ्र निकलकर भागा। किंतु प्राक्तन कर्मने इसको फिर भी शीघ्र ही-एक दो या तीन ही समयमें स्त्रीके उदररूपी संडासमें प्रविष्ट कर दिया और वहांपर इसको अत्यंत अशुचि पिताके शुक्र और माताके रजके समूहको ग्रहण कराया । अत्यंत इसलिये कि मलमूत्रादिकमें जब भिन्न भिन्न एक एक चीज भी अशुचि है तब सबका समूह तो अवश्य ही अत्यंत अशुचि होगा । किंतु जब यह जीव उस जगह भी क्षुधा और तृषाके कारण अत्यंत पीडित हुआ तब इसने गृद्धि-मोजाकी तीन लालसासे उस स्त्रीके-माताके ही खाये हुए अन्नपानको वहांपर ग्रहण किया। जिस समय माता निम्नोन्नतादि स्थानोंमें गमन करती उस समय उससे उत्पन्न हुए क्षोभके कारण विविध प्रकारसे डरकर गर्भ में अपने प्रदेशोंको संकुचित करके रहने लगा। इस प्रकार नाना दुःखोंसे परतंत्र रहने के
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STARK321
जनगार
धर्म
कारण- अनुकम्प्य और मनुष्यगति नाम कर्मका जिसके उदय हो आया है ऐसे इस जीवको इस मनुष्य पर्यायमें नित्य ही दुःखोंसे पीडित और साक्षात् दोषांदिकका पिण्ड-वात पित्त कफ इन तीन दोषों, और रस रुधिर मांस मेदा अस्थि मज्जा और शुक्र इन सप्त धातुओं, तथा विष्टा मूत्र पसीना नाक कीचड थूक आदि मलोंकी मूर्ति ऐसा शरीर प्राक्तन कर्मने चिरकाल तक या चिरकालमें-नव या दश महीनामें ग्रहण कराया। जैसी कि गर्भकी यह अवस्था निम्नलिखित दो पद्योमें भी कही है
कललकलुषस्थिरत्वं पृथग्दशाहेन बुद्दोथ घनः । तदनु ततः पलपेश्यथ क्रमेण मासेन पञ्चपुलकमतः।। चर्मनखगेमसिद्धिः स्यादगोपाङ्गसिद्धिरथ गर्ने ।
स्पन्दनमष्टममास नवमे दशमेथ निःसरणम् ।। माता पिताके रजवीर्यका मिला हुआ भाग गर्भमें दश दिनमें स्थिर होता है। इसके बाद दश दिनमें उसका बुद्धद बनता और उसके बाद दश दिनमें वह सघन होता है। इसके बाद मांसपेशी आदि बनती और एक एक महीनेके क्रमसे चर्म नख रोमकी सिद्धि तथा अंगोपांगकी सिद्धि होती है। आठवें महीनेमें यह जीव गर्भमें हिलने चलने लगता है और नौवें या दशवें महीने में बाहर निकलता है। गर्भके अनंतर प्रसव होनेमें जो क्लेश होते हैं उनको बताते हैं।
गर्भक्लेशानुद्रुतेविद्रुतो वा निन्द्यद्वारेणैव कृच्छाद्विवृत्त्य ।
नियस्तत्तदुःखदत्त्याऽकृतार्थो नूनं दत्ते मातुरुग्रामनस्यम् ॥ ६५ ॥ पूर्वोक्त प्रकारसे जब गर्भके क्लेश इस जीवके पीछे पडे तब उनसे मानो त्रस्त होकर और मार्ग न पाकर यह नीचेको मुख करके बडे कष्टके साथ निन्द्य द्वारसे ही बाहर निकल पडा । मालुम पडता है, मानो
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गर्भमें आनेके समवसे माताको जो जो इसने कष्ट दिये उनसे इसका मनोरथ पूर्ण न हो सका इसलिये अब उसको अपने प्रसवसे उत्पब मयानक दुःख देनेकेलिये पुनः प्रवृत्त हुआ है। जन्म लेने के बाद जो जो क्लेश होते हैं उनका विचार करते हैं:
जातः कथंचन वपुर्वहनश्रमोत्थ,- दुःखप्रदोच्छुसनदर्शनसुस्थितस्य ।
जन्मोत्सवं सृजति बन्धुजनस्य यावद्,
याम्तास्तमाशु विपदोनुपतन्ति तावत् ॥६६॥ नवीन शरीरके धारण करनेमें जो परिश्रम हुआ उससे, उत्पम हुए तथा और भी अनेक प्रकारके दुःखोंको देनेवाले श्वासोच्छासको देखकर अत्यंत आश्वासनको प्राप्त हुए बन्धुजनों-माता पिता बहिन भाई आदि बन्धुओं तथा अन्य इष्ट जनोंको पूर्वोक्त महान् कष्टोंके साथ साथ उत्पन्न हुआ यह जीव इधर अपने जन्मका आनन्द देता ही है कि उधरसे-उत्पन्न होते ही फुल्लिका अन्जेगोदिका आदि प्रसिद्ध विपत्तियां आकर इसको शीघ्र ही घेर लेती हैं।
भावार्थ - उत्पन्न हुए बालकके श्वासोच्छासको देखकर उसे जीवित समझकर बंधुजन जन्मका उत्सव
अध्याय
.१ एक प्रकारके सफेद सफेद फोडे जो कि उत्पन्न होते ही किसी किसी बालकके हुआ करते हैं। -२ एक प्रकारका पेटमें होनेवाला दर्द जो कि उत्पन्न होते ही माका दूध न पचनेसे या किसी अंतरङ्ग कारणले । किसी किसी बालकके हुआ करता है। अन० घ०११
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अनगार
मनाते हैं किंतु यह नहीं जानते कि उस श्वासोच्छाससे तथा शरीरग्रहण करनेमें उत्पन्न हुए परिश्रमसे और जन्म ग्रहण करते ही उत्पन्न हुई फुल्लिका आदि बीमारियोंसे उस बालकको अनेक प्रकारके दुःख होरहे हैं।
बाल्य कालके प्रति ग्लानि प्रकट करते हैं:यत्र कापि धिगत्रपो मलमरुन्मूत्राणि मुञ्चन्मुहु-' यत्किंचिद्वदनेर्पयन् प्रतिभयं यस्मात्कुतश्चित्पतन् । लिम्पन्स्वाङ्गमपि स्वयं स्वशकृता लालाविलास्योऽहित,
व्याषिद्धो हतवद्रुदन् कथमपि-च्छिद्येत बाल्यग्रहात् ॥ ६७ ॥ धिक्कार है कि बाल्य कालमें यह जीव निर्लज्ज होकर जहां कहीं भी सोनेके उठने बैठनेके या भोजन करनेके स्थानमें, ओढने पहरने विछाने आदिके वस्त्रोंमें या जिस किसी भी उचित या अनुचित स्थानमें बारम्बार मल वायु-अधोवायु और मृत्रको छोड़ देता है, तथा जिस किसी भी चीजको चाहे वह भक्ष्य हो चाहे अभक्ष्य मुखमें रखलेता है, एवं चाहे जिस किसी भी चीजसे-गिरे हुए वर्तनके शब्द आदि किसी भी पदार्थसे अतक्यतया उपस्थित हुआ भय खाकर गिर पडता है. और स्वयं अपने ही विष्टासे, दूसरी चीजोंकी तो बात ही क्या, अपने शरीरको भी लेपलेता है । मुखको सदा लारसे भरे रहता और जिस समय अहितमें-मट्टी खाने आदिमें प्रवृत्त होता है तब माता पिता आदिके द्वारा रोके जानेपर ऐसा रोता है मानो किसीने पीटा हो । इस प्रकार यह बाल्यकाल एक प्रकारका ग्रह है कि जिससे यह जीव बडे ही कष्टोंसे छूटा करता है । बाल्यावस्थाके बाद प्राप्त होनेवाले कुमार कालका भी तिरस्कार करते हैं
धूलीधूसरगात्रो धावन्नवटाश्मकण्टकादिरुजः।
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. प्राप्तो हसत्सहेलकवर्गममर्षन् कुमारः स्यात् ॥ ६८ ॥ बाल्य और यौवनके मध्यवर्ती वयमें रहनेवाला यह जीव कभी तो अपने शरीरको गली कूचा या सडककी धूलिसे धूसरित बनाकर भागता फिरता है। कभी गड्ढों पाषाणों व तीक्ष्ण कण्टकों तथा अनेक प्रकारके ककरीले स्थानोंकी पीडाको प्राप्त करता है। एवं कभी साथके खेलनेवाले लडकोंसे जब कि वे इसकी हसी करते हैं, ईर्ष्या करने लगता है।
र यौवनकी निन्दा करते हैं:पित्रोः प्राप्य मृषामनारथशतैस्तारुण्यमुन्मार्गगो, दुर्वारव्यसनाप्तिशङ्किमनसोर्दुःखार्चिषः स्फारयन् । ताकिंचित्प्रखरस्मरः प्रकुरुते येनोद्धधाम्नः पितॄन्,
क्लिश्नन् भूरिविडम्बनाकलुषितो धिग्दुर्गती मज्जति ॥ ६९ ॥ माता पिताके ही व्यर्थके सैकडों मनोरंथोंसे यौवन अवस्थाको प्राप्त कर यह मनुष्य उन्मार्गगामी होजाता है-त्रिवर्ग के विरुद्ध आचरण करने लगता है और तीव्र कामदेवके वेगसे संतप्त होकर कुछ ऐसे निन्द्य कर्म करने लगता है कि
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'१ इस श्लोकका दूसरा अभिप्राय ऐसा भी हो सकता है कि जब इसको साथके खेलनेवाले चिडाते हैं तब उनसे
ईर्ष्या करता और कष्टकर गड्ढे आदि स्थानोंको प्राप्त कर गलियोंकी धूलिसे धूसरित हो भागता फिरता है । .२ अब इसका यह होगा और उससे फिर ऐसा होगा, अथवा इससे मेरा अमुक २ कार्य सिद्ध होगा इत्यादि अनेक प्रकारसे, प्राप्त न हो सकनेवाले पदार्थोकी प्राप्तिकेलिये जो मनमें संकल्प हुआ करते हैं उन्हीको मनोरथ कहते हैं । -
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अध्याय
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जिनके कारण विविध प्रकारकी - गधेपर चढने आदिको विडम्बनाओंसे संक्लिष्टचित्त होकर उन माता पिताओं को दुःखकी ज्वालाएं बढाकर तयार करदेता है, कि जिनके मनमें पहले से ही इस बातकी शंका लगी हुई थी कि यौवन में आकर इसको कहीं, जिनका वारण नहीं किया जा सकता ऐसे, व्यसनोंकी प्राप्ति न हो जाय। इसी तरह उस दुराचर से माता पिता के साथ साथ विपुल तेजके धारण करनेवाले अथवा प्रशस्त स्थानपर पहुंचे हुए पितामहादिकों को भी TET पहुंचाता हुआ, धिकार है कि अंतमें जाकर यह दुर्गति - दारिद्रय अथवा नरक में जाकर डूब जाता है ।
यौवनमें आकर भी जो मनुष्य निर्विकार रहते हैं उनकी प्रशंसा करते हैं:
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धन्यास्ते स्मरवाडवानलशिखादीमः प्रवलगद्बल, क्षाराम्बुर्निरवग्रहेन्द्रियमहाग्राहोभिमानोर्मिकः । यैर्दोषाकरसंप्रयोगनियतस्फीतिः स्वसाञ्चक्रिभि, - स्तीर्णे धर्मशः सुखानि वसुवत्तारुण्यघोरार्णवः ॥ ७० ॥
जो कि जल के समान शरीर सुखा देनेवाले कामदेवरूपी वडवानलकी ज्वालाओं से अत्यंत प्रकाशमान है, जिसमें अहृद्य - अमनोज्ञ होने के कारण क्षार जलके समान बल-वीर्य अत्यंत दर्पके साथ बल्गना कर रहा है- उमड रहा है, महान् बडे भारी ग्रहों-- जलचरोंके समान इंद्रियां जिसमें निरंकुशतासे इधर उधर भ्रमण कर रही हैं, जिसमें अभिमान ऊर्मियों -- लहरोंकी तरह काम कर रहा है; क्योंकि लहरके समान अभिमानका भी उत्थान नियत नहीं है कि कब और कितने प्रमाण में यह उठेगा. एवं जिसकी वृद्धि दोषाकर- दुर्जन अथवा चन्द्रमाकी संगतिको पाकर अवश्य ही हुआ करती है, ऐसा यह यौवन एक प्रकारका बडा भारी भयानक समुद्र है । इसको धनकी तरह धर्म यश और शर्म- सुख अर्थात् इन चारो ही पदार्थोंको आत्माघीन करनेवाले - अविरोधेन सेवन करनेवाले जो जन - युवा पुरुष तरकर पार होगये हैं वे ही धन्य हैं ।
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अनगार
यौवनके अनंतर प्राप्त होनेवाली मध्य अवस्थाकी ग्यारह श्लोकोंमें निंदा करते हैं। जिसमेंसे पहले संतानका पालन पोषण करनेकेलिये जिसके मनमें आकुलता लगी रहती है उसको धनकी आशासे किये गये कृषि आदि आजीविकाके उपायोंके करने में जो क्लेश प्राप्त होते हैं उनको बताते हैं- ..
यत्कन्दर्पवशंगतो विलसति स्वैरं स्वदारष्वपि, प्रायोऽहंयुरितस्ततः कटु ततस्तुग्धाटको धावति । अप्यन्यायशतं विधाय नियमाद्भतु यमिडाग्रहो,
वर्धिष्ण्वा द्रविणाशया गतवयाः कृष्यादिभिः प्लुष्यते ।। ७१॥ जो तुग्धाटक-अपत्यवर्ग युवा अवस्थामें आकर कामदवेके वशीभूत हो स्वदारमें भी-संभोगपत्नियों की तरह धर्मपत्नियोंमें भी स्वच्छन्द होकर विलास-क्रीडा करता है और इसीलिये जो अहंकारसे आविष्ट होकर
१ ऐसा ही एक जगह नीतिमें भी कहा है:
प्रथमे वयसि यः शांतः सः शांत इति मे मतिः। ..... . धातुषु क्षीयमाणेषु शमः कस्य न जायते ॥
(सम्पादक) संकल्परमणीयस्य प्रीतिसंभोगशोभिनः । ।
रुचिरस्याभिलाषस्य नाम काम इति स्मृतम् ॥ जो संकल्पमात्रसे ही रमणीय मालुम पडती और प्रीतिपूर्वक अच्छी तरह भोगनेमें ही जो शोभन मालुम पडती है ऐसी रुचिर-मनोज्ञ अभिलाषाका ही माम काम है।
अध्याय
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बनगार
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प्रायः जिस किसी भी स्वार्थमें शीघ्र ही अनिष्ट प्रवृत्ति करने लगता है उसी अपत्यवर्गका नियमतः पालन करने केलिये जिसका आग्रह प्रदीप्त हो उठा है ऐसे इस गतवयस्क-यौवन पारकर मध्य वयको प्राप्त हुए मनुष्यको बढती जाने वाली धनकी लिप्सासे न्यायकी तो बात ही क्या, स्वामिद्रोह मित्रद्रोह विश्वासघात चोरी आदि सैकड़ों अन्यायोंको भी करके किये गये कृषि पशुपालन आदि आजीविकाके उपाय दग्ध कर देते हैं।
कृषि पशुपालन और वाणिज्य इनसे दोनो भवोंकी भ्रष्टता होती है। यह दिखाते हैं:
यत्संभूय कृषीवलैः सह पशुप्रायैः खरं खिद्यते, यद्यापत्तिमयान् पशूनवति तदेहं विशन् योगिवत् । यन्मुष्णाति बसून्यसूनिव ठककरो गुरूणामपि,
भ्रान्तस्तेन पशूयते विधुरितो लोकद्वयश्रेयसः ॥ ७२ ॥ क्योंकि कृषिकर्म करनेमें यह गतवयस्क पुरुष उन किसानोंफे साथ मिलकर तीन खेद-परिश्रमको प्राप्त होता है जो बिलकुल पशुके समान हैं। क्योंक उनकी आहारादि संज्ञाएं पशुओंके ही सदृश हुआ करती हैं. इसी प्रकार पशुपालन करते समय जिस प्रकार आरब्धयोगवाला कोई योगी परपुरष प्रवेश किया करता है उसी तरह यह भी विविध प्रकारकी आपत्तियोंसे पूर्ण पशुओंकी, उनके शरीरमें घुस कर, रक्षा किया करता है ! एवं वाणि ज्यमें प्रवृत्त होकर ठगोंके समान क्रूरता धारण कर, औरोंकी तो बात क्या, गुरुओं-दीक्षा-चार्य माता पिता आदिकेभी, प्राणोंके समान धनका अपहरण करलेता है ! अत एव कृषि पशुपालन और वाणिज्य ये तीनो ही कर्म ,विपर्यस्त है बुद्धि जिसकी ऐसे इस गतवयस्क पुरुषको इस लोक और परलोक दोनो ही भवके कल्याणोंसे वियुक्त कर देते हैं और वह पशुके समान आचरण करने लगता है।
जो पुरुष धनमें लुब्ध होकर देशान्तरोंमें जाकर वाणिज्य करते हैं उनकी निन्दा करते हैं:
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बध्याय
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जनगार
यत्र तत्र गृहिण्यादीन्मुक्त्वापि खान्यनिर्दयः।। न लयति दुर्गाणि कानि कानि धनाशया ॥७३ ॥
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...... माता पुत्र कलत्र आदिकोंको साथमें लेकर अथवा जहां कहीं भी परीक्षित या अपरीक्षित स्थानों में उPL न्हें रखकर खुदकेलिये और दूसरे सहाय करनेवाले परिजन तथा पशु आदिकलिये निर्दय वनकर- उनको व स्वयं
को क्षुधा पिपासा शीत उष्ण आदिके द्वारा पीडित कर धनकी आशासे नदी पर्वत जङ्गल समुद्र आदि कौनसे दुर्गम स्थान हैं कि जिनको यह गतवयस्क पुरुष नहीं लांघता फिरता! अर्थात् सभी दुर्गम स्थानों में यह जीव धनकी आशासे भटकता फिरता है। .. .... वृद्धि-व्याज आदिके द्वारा आजीविका करनेवालेके प्रति ग्लानि प्रकट करते हैं:
वृद्धिलुब्ध्याघमणेषु प्रयुज्यार्थान् सहासुभिः। .
तदापच्छङ्कितो नित्यं चित्रं बाधुषिकश्चरेत् ॥ ७४ ॥ ___ यह बडा आश्चर्य है कि वार्द्धषिक-ब्याज खाऊ आदमी भी जो कि वृद्धि-व्याजके लोभसे - कालांतरमें चलकर इस धनमें कुछ वृद्धि होजायगी इस आशासे अधमर्गौ-आसामियोंमें अपने प्राणोंके साथ साथ धनको रखकर उसपर आनेवाली आपत्तियोंसे सदा शंकित बना रहकर ही प्रवृत्ति करता है। क्योंकि जो अपने प्राणोंको
दूसरी जगह पहुंचा देता है वह जीव स्वयं प्रवृत्ति नहीं कर सकता; यही आश्चर्यका कारण है। अध्याय
सेवाकर्मकी निन्दा करते हैं:- . खे सद्वृत्तकुलश्रुते च निरनुक्रोशीकृतस्तृष्णया,
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स्वं विक्रीय धनेश्वरे रहितवीचारस्तदाज्ञावशात् । वर्षादिष्वपि दारुणेषु निबिडध्वान्तासु रात्रिष्वपि, . व्यालोग्रारवटवीष्वपि प्रचरति प्रत्यन्तकं यात्यपि ॥ ७५॥
धर्मः .
बनगार
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1: सेवक पुरुष स्वार्माके आदेशके वश योग्य और अयोग्यका विचार छोडकर अत्यंत भयानक वर्षा शीत और ग्रीष्म ऋतुमें, अथवा सघन अन्धकारसे पूर्ण रात्रियोंमें, "यद्वा सर्प हस्ती-आदि भयानक हिंस्र जन्तुओंसे भरे हुए अत. एव अत्यंत रौद्र ऐसे जंगलोंमें घूमता फिरता है। केवल इनमें घूमता है इतना ही नहीं बल्कि यमराजके संमुख भी जा उपस्थित होता है। ऐसा क्यों करता है ? तो इसका उत्तर यही है कि उसने तृष्णा-लोभके वश होकर धनके स्वामी-सेठ साहूकार या राजा महाराजाको अपनी आत्मा बेचकर समीचीन आचार विचार कुल शास्त्राभ्यास तथा और अधिक क्या; स्वयं अपने विषयमें भी निर्दयता धारण करली है।
शिल्पकर्म करनेवालोंकी भी निन्दा करते हैं:चित्रैः कर्मकलाधर्मैः परासूयापरो मनः ।
हतु तदर्थिनां श्राम्यत्यातपोष्येक्षितायनः ॥ ७६ ॥ .: शिल्पी मनुष्य जिनको शिल्पकी आकांक्षा है ऐसे मनुष्योंका मन हरण करनेकेलिये दूसरे शिल्पयोसे असूया करना-उनके गुणोंमें भी दोष प्रकट करना और नाना प्रकारके कर्म कला और धर्मके करनेसे खिन्न हुआ करता है। .
मट्टी धातु काष्ठ पत्थर आदिकी कारीगरीको कर्म कहते हैं। गाना बजाना नाचना तैरना आदि दक्षताको कला कहते हैं। मूल्य लेकर पुस्तक वाचना आदि धर्म है। इन कर्मादिकोंमें प्रवृत्त हुए शिल्पीके धु
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स्वं
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धादिकसे पीडित हुए पोष्यजन-स्त्रीपुत्रादिक उसके आनेका मार्ग देखा करते हैं कि, कब वह कमाकर लावे और कब हमारी क्षुधादिकी पीडा दूर हो ।
शिल्पियोंकी दुरवस्थाका कथन करते हैं - आशावान् गृहजनमुत्तमर्णमन्यानप्याप्तैरिव सरसो धनैधिनोति । छिन्नाशो विलपति भालमाहते स्वं
द्वेष्टीष्टानपि परदेशमप्युपैति ॥ ७७ ॥ ...'आज कलमें कर्मादि करनेसे मूल्य प्राप्त हो ही जायमा, मजदूरी मिल ही जायगी' ऐसी भविष्यत्में प्राप्त होनेवाले अर्थ-धनकी आशा रखकर यह गतवयस्क शिल्पी दृष्टचित्त होकर मानो वह धन हस्तगत ही होगया हो इस तरहसे अपने गृहजन-स्त्री आदि और उत्तमर्ण-साहूकार-बोहरे तथा दूसरे भी अपने संबंधी मित्रादिकोंको अच्छी तरह तृप्त करता है। किन्तु जब उसकी वह आशा टूट जाती है-सिद्ध नहीं होती तब रोने लगता है और अपना माथा कूटने लगता है। अपने प्रिय पुत्र कलत्रादिकोंसे द्वेष करने लगता है । अथवा परदेशको भी चला जाता है। देशान्तरमें भी धनकी आशासे यह खिन्न ही होता है। यही बताते हैं:
आशया जीवति नरो न ग्रन्थावपि बद्धया ।
पञ्जाशतेत्युपायज्ञस्ताम्यत्यर्थाशया पुनः ॥ ७॥ अन० घ० १२
अध्याय
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अनगार
'गांठमें भी बंधे हुए पचासासे नहीं; आशासे मनुष्य जिया करता है।' ऐसी लोकमें कहावत है । बस इसी कहावतके अनुसार कर्म आदि जीविकाके उपायोंको जाननेवाला कारुक-शिल्पी फिर भी-परदेशमें भी जोकर धनकी आशासे खिन्न ही हुआ करता है। यदि इष्ट धनादिकका लाभ भी हो जाय फिर भी तृष्णा तो शांत नहीं होती, यही बात दिखाते हैं:
कथं कथमपि प्राप्य किंचिदिष्टं विधेर्वशात् ।
पश्यन् दीनं जगद्विश्वमप्यधीशितुमिच्छति ॥ ७९ ॥ पूर्वकृत शुम कर्मकी सामर्थ्यसे यदि किसी न किसी तरह-अत्यंत कष्टों के द्वारा कुछ इष्ट-वाञ्छित पदार्थ प्राव भी हो जाय तो यह जीव समस्त जगतको दीन-अपनेसे हीन समझने लगता है और उसको अपने अधीन करना चाहता है। तृष्णावश होकर जगत्का स्वामी बनना चाहता है। जिनको धन प्राप्त होगया है उनको जो दूसरी दूसरी विपत्तियां प्राप्त होती हैं उन्हें दिखाते हैं:
दायादाद्यैः करमावर्त्यमानः, पुत्राद्यैर्वा मृत्युना छिद्यमानः। रोगाद्यैर्वा बाध्यमानो हताशो,
दुर्दैवस्य स्कन्धकं धिाग्बभर्ति ॥८॥ सधन पुरुषको भाई भानजे आदि दायादप्रभृति बारम्बार लङ्घनादिके द्वारा कूरतासे कदर्थित करते हैं। मृत्यु- यमराज आकर पुत्रादिकोंसे वियुक्त कर देता है । अनेक प्रकारके रोग और कारागृह आदि पीडित किया
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अनगार
A
करते हैं । नष्ट होगई है आशा व प्रत्याशा जिसकी ऐसा यह मध्यम वयवाला सधन मनुष्य, धिक्कार है कि, दुर्दैव के उस ऋणको लिये फिरता है कि जो उसे नियमित कालमें ही अदा करना है।
मध्यम वयवाले पुरुषको विपत्तियोंसे जो अति और जीवनसे उपराम मिलता है उसका निरूपण करते हैं। -
पिपीलिकाभिः कृष्णाहिस्विापार्दुराशयः।।
. दंदश्यमानः क रति यातु जीवतु वा कियत् ॥ ८१ ॥ जिस प्रकार कृष्णसर्पको चीटियां खा डालती हैं उसी तरह जब दुराशय-जिसका चित्त विविध प्रकारके क्लेशोंसे पीडित हो रहा है ऐसे इस मध्यम वयवाले मनुष्यको विपत्तियां बुरी तरहसे खाने लगती हैं तब स्थान आसन आदिमेंसे किसमें तो यह रति-प्रेम करे और कबतक जीता रहे । अर्थात विपत्तियोंसे घिर कर यह जीव हर विषयमें अरति करने लगता है और शीघ्र ही मृत्युको प्राप्त हो जाता है।
बुढापेसे उत्पन्न हुए दुःखोंको प्रकट करते हैं: - जराभुजङ्गीनिर्मो पलितं वीक्ष्य वल्लभाः।।
यान्तीरुद्वेगमुत्पश्यन्नप्यपैत्योजसोन्वहम् ॥ ८२ ॥ जरा-वृद्धावस्था भुजङ्गी-सर्पिणीके समान है। क्योंकि मनुष्य उससे सदा भय खाते रहते हैं । इसके निर्मोककेचरीके समान पलित-श्वेत केशोंको देखकर उद्वेग-विरक्तिको प्राप्त हुई वल्लभाओं-प्रियतमा स्त्रियोंका शोकके साथ स्मरण करनेवाला यह वृद्ध-वृद्धावस्थाके संमुख हुआ पुरुष दिनपर दिन ओज-बलसे भी रिक्त होजाया करता है । क्योंकि प्रियाके विरागकी संभाव नासे बल क्षीण होजाया करता है । जैसा कि कहा भी है-"ओजःक्षीये
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अनगार
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अध्याय
१
त कोपक्षुद्ध्यानशोकश्रमादिभिः " ॥ कोप क्षुधा ध्यान शोक परिश्रम इत्यादि कारणोंसे बल नष्ट हो जाया करता है।
वृद्धावस्थाके फलका विचार करते हैं:
. विस्रसोदेहिका देहवनं नृणां यथा यथा ।
चरन्ति कामदा भावा विशीर्यन्ते तथा तथा ॥ ८३ ॥
यह शरीर वन - उपवन के समान है; क्योंकि उपवनकी तरह इसका भी पालन पोषण आदि बडे प्रयत्नसे किया जाता है। ऐसे इस शरीररूपी उपवनको ज्यों ज्यों बुढापारूपी दीमक क्षुद्रजन्तु भक्षण करता जाता है त्यो त्यों मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले उसके पल्लव पुष्प फल आदिकी तरह कामदेवका उद्दीपन करनेवाले सौंदर्य बल वृद्धि प्रभृति भाव भी स्वयं ही विनष्ट होते जाते हैं ।
जब कि वृद्धावस्था अतिशय रूपसे आकर घेर लेती है उस अवस्थाका विचार करते हैं । - प्रक्षीणान्त:करणकरणो व्याधिभिः सुष्टिवाधि—,
स्पर्द्धा दग्धः परिभवपदं याप्यकम्प्राऽक्रियाङ्गः । तृष्णेय द्यैर्विगलितगृह: - प्रस्खलद्वित्रदन्तो, ग्रस्येताद्धा विरस इव न श्राद्धदेवेन वृद्धः ॥ ८४ ॥
जिसका अन्तःकरण - मन और करण - इन्द्रियां विनाशोन्मुख हैं, जिसको आधि-मानसिक व्यथासे मानों स्पर्धा करके
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अनगार
ही व्याधियों-शारीरिक कास श्वास आदि दुःखोंने अत्यंत दग्ध करदिया है-निःसार बनादिया है, जो अनेक प्रकारसे तिरस्कारका स्थान बन रहा है, जिसके हस्त पाद आदि अवयव कुत्सित कंपनेवाले और अकर्मण्य बनगये हैं, जिसने अपनी तृष्णा-अतिलोभ तथा ईर्ष्या अक्षमा दुर्वचनादिके द्वारा घरके स्त्री पुत्रादिकोंको भी उकता दिया है, और जिसके बाकीके रहे दो या तीन दांत भी बिल्कुल हिल रहे हैं, ऐसे इस वृद्ध पुरुषको, जिसको कि जराने अत्यंत व्याप्त कर रक्खा है, श्राद्धदेव-यमराज मानो रस समझ कर-यह ख्याल करके कि इसमें स्वाद अच्छा नहीं है, शीघ्र ही भक्षण नहीं करते । जिस तरहसे कि श्राद्धदेव-श्राद्धमें भोजन करनेवाले ब्राह्मण विरस आहारको शीघ्र ही नहीं खाया करते।
इस प्रकार यह शरीर यद्यपि अनेक दोषोंसे युक्त है। फिर भी इसको परम सुख-मोक्षफलको देनेवाले धर्मका अ-कारण बनाकर सबसे उत्कृष्ट बनाना चाहिये ऐसी शिक्षा देते हैं:
बीजक्षेत्राहरणजननद्वाररूपाशुचीदृग्,
दुःखाकीर्ण दुरसविविधप्रत्ययातय॑मृत्यु । . अल्पाग्रायुः कथमपि चिराल्लब्धमीदृग् नरत्वं,
सर्वोत्कृष्टं विमलसुखकृद्धर्मसिद्धयैव कुर्यात् ॥ ८५॥ इस शरीरका बांज माताका रज और पिताका वीर्य है। क्षेत्र माताका गर्भस्थान और आहार माताका निगला हुआ अन्नपान है। शुक्र आर्तव मल मूत्रके वहनका जो मार्ग है वही इसके उत्पन्न होनेका द्वार है। वात पित्त कफ धातु उपधातु तथा सदा आतुरता ही इसका स्वरूप है। इस तरह बीज क्षेत्र आहार उत्पत्तिद्वार और स्वरूपकी अपेक्षा यह अत्यंत अशुचि अपवित्र है । गर्भसे लेकर वृद्धावस्थातकके दुःखोंसे प्रचुरतया व्याप्त है। जिसका निवारण नहीं किया जासकता ऐसी नाना प्रकारके व्याधि शस्त्र बज्रपात आदि कारणोंसे होनेवाली इसकी मृत्यु
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धर्म
IRZAHE7841512MARREAKESRAJPRUPERS
अतयं है । यह नहीं कहा जासकता कि इसकी मृत्यु कब कहां और किस तरहसे होगी। इसकी आयु अधिक हो तो भी अल्प है । क्योंकि ऐसा कहा है कि आजकल मनुष्योंकी आयु एकसौ बीस वर्षसे अधिक नहीं होती ।
इस प्रकारका यद्यपि यह शरीर मनुष्य पर्याय अनेक दोषोंसे दुष्ट है। फिर भी चिरकालमें और महान् कष्टोंसे प्राप्त किये हुए इसको जो कि समीचीन धर्मके धारण करनेके कारणभूत जाति कुलसे युक्त है, सबसे-देवादि पर्यायोंसे भी उत्कृष्ट बनाना चाहिये । परंतु यह बात विपरीत धर्म अर्थ काम पुरुषार्थके सेवन करनेसे प्राप्त नहीं, किंतु दुःखोंके करनेवाले पापकर्मके सम्बन्धसे रहित सुख कल्याणके करनेवाले धर्मके साधन करनेसे ही प्राप्त हो सकती है। ___ जीवको प्राप्त होनेवाली त्रसादि पर्यायोंकी उत्तरोत्तर दुर्लभताका विचार करते हैं:
जगत्यनन्तैकहषीकसंकुले त्रसत्वसंज्ञित्वमनुष्यतार्यताः ।
सुगोत्रसद्गात्रविभूतिवार्ततासुधीसुधर्माश्च यथाग्रदुर्लभाः॥८६॥ एक स्पर्शन इन्द्रियके ही धारण करनेवाले पृथ्वी जल अग्नी वायु और वनस्पती इन पांच अनंतानंत स्थावरोंसे ठसाठस भरे हुए समस्त संसारमें त्रस आदि पोयोको प्राप्त करना उत्तरोत्तर दुर्लभ है।
द्वीन्द्रियादि अवस्थाको सपर्याय कहते हैं । इसका संसारमें प्राप्त होना अत्यंत कठिन है। क्योंकि निगोदमें यह जीव अनादि व अनंत कालसे पुनः पुनः एकेन्द्रिय ही हो रहा है। जिस प्रकार भी ऊपर मुंजते हुए चनों से कोई कोई चना कदाचित् बाहर निकल पडता है। उसी तरह निगोदराशिमेंसे काललब्धिको पाकर पूर्वसंचित कर्मके उदयसे कोई कोई जीव क्वचित् कदाचित् बाहर त्रसपर्यायमें आपडता है। किंतु यहांसे पुनः निगोदराशिमें चला जाता है। यहांसे पुनः सपर्यायका प्राप्त करना इस तरह कठिन है कि जिस तरह समुद्रमें खोई हुई एक बालुकाकी कणिकाका फिर मिलजाना। इसी तरह द्वीन्द्रियसे त्रीन्द्रिय और त्रीन्द्रियसे चतु रिन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रियसे पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियोंमें भी
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अनगार
शरीर, तथा ऐसे शरीरका सब बातोंके मिल जानेपरम
एव उक्त बातोंके
समनस्क होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। समनस्क नारकी और तिथंच भी होते हैं अतएव समनस्कता प्राप्त करके भी मनुष्यपर्यायका प्राप्त होना और भी दुर्लभ है। मनुष्य होकर भी यदि नाचगोत्री या म्लेच्छ हुए तो उससे क्या प्रयोजन! अतएव मनुष्यताके साथ साथ आर्यताका प्राप्त होना गुणोंमें कृतज्ञताके समान दुष्प्राप्य है। आर्य होनेपर भी उच्च गोत्र, और उच्च गोत्रके भी बाद समीचीन शरीर, तथा ऐसे शरीरके भी मिल जानेपर विभूति और विभूतिके भी मिल जानेपर आरोग्यकी प्राप्ति होना अत्यंत कठिन है। इसी तरह उक्त सब बातोंके मिल जानेपर भी मनुष्योंकी बुद्धि प्रायः करके धर्मविरुद्ध क्रियाओंके करने और व्यसनादिकोंके सेवनमें ही प्रवृत्त होजाया करती है । अतएव उक्त बातोंके अनंतर ऐसी सद्बुद्धिका प्राप्त होना और भी कठिन है कि जिसके द्वारा धर्ममें प्रवृत्ति हो सके। सद्बुद्धिके द्वारा प्राप्त करने योग्य फलरूप समीचीन धर्मका प्राप्त होना तो सर्वोपरि कठिन है। इस तरह इस जीवको सता समनस्कता मनुष्यता आता सद्गोत्र सद्गात्र विभूति वातता आरोग्य सद्बुद्धि और समीर्चान धर्म इन दश चीजोंका प्राप्त होना उत्तरोतर दुर्लभ है।
जो कि सबसे अधिक दुर्लभ है उस धर्मका आचरण करनेमें नित्य ही उद्योग करना चाहिये ऐसा उपदेश देते हैं:
NAVR-1752
ध्यायय
स ना स कुल्यः स प्राज्ञः स बलश्रीसहायवान् ।
स सुखी चेह चामुत्र यो नित्यं धर्भमाचरेत् ॥ ८७ ॥ जो जीव नित्य ही धर्मका आचरण किया करता है वह परमवमें पुरुष हुआ करता है और उत्तम कुलको प्राप्त करता है । इसी तरह वह अतिशायत बुद्धि तथा बल और लक्ष्मी एवं अपने कार्यों में अनेक प्र• कारके सहायकोंको प्राप्त करता तथा इस लोक और परलोक में सुखी होता है । इसके विरुद्ध जो जीव धर्मका आचरण नहीं करता या अधर्मका सेवन करता है वह मर कर स्त्री या नपुंसक होता तथा बुद्धिशून्य मुर्ख नि
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FI बल दरिद्र और असहाय हुआ करता है तथा इस लोक और परलोक दोनों ही भवोंमें दुःख भोगता है।
जो पुरुष धर्मका संचय नहीं करता उसके शेष गुणोंकी भी निरर्थकता प्रकट करते हैं:-- बनगार
धर्म श्रुतिस्मृतिस्तुतिसमर्थनाचरणचारणानुमतैः ।
यो नार्जयति कथंचन किं तस्य गुणेन केनापि ॥ ८८ ॥ जो पुरुष श्रुति स्मृति स्तुति और समर्थना इनमेंसे किसी भी उपायके द्वारा किसी भी तरहसे स्वयं आचरण करके या दूसरोंसे कराके अथवा आचरण करनेवालाकी अनुमोदना करके धर्मका संचय नहीं करता उस पुरुषके पुरुषत्व कुलीनता आदि एक या अनेक गुणोंसे भी क्या फायदा!
'. आचार्य उपाध्याय गुरु बहुश्रुत या विशेषज्ञोंके मुखसे धर्मके स्वरूपका जो सुनना उसको श्रवण कहते हैं । सुने हुए या जाने हुए धमके स्वरूपका बारवार विचार करना उसको स्मरण कहते हैं । धर्मके फलका गुणका या माहात्म्यका जो अच्छी तरह यशोगान करना उसको स्तुति कहते हैं। युक्ति अनुभव और आगम इनकी सामर्थ्यसे धमके स्वरूपका सिद्ध करना अथवा उसपर होनेवाले आक्षेपोंका निरसन करना उसको समर्थना कहते हैं। इन उपायों से एक या अनेक अथवा समस्तके द्वारा धर्मके स्वयं सेवन करनेको चरण, दूसरोसे सेवन करानेको चारण तथा सेवन करनेवालोंकी प्रशंसा करनेको अनुमत-अनुमोदना कहते हैं। , इनमेंसे किसी भी तरहसे धर्मका संचय करनेवालोंके ही दूसरे गुण प्रशस्त कहे जासकते हैं। अन्यथा नहीं।
धर्म-शब्दका जो कुछ अर्थ है वह लोकप्रसिद्धिके अनुसार ही समझकर धारण किया न कराया जा सकता है। अत एव उसका प्रतिपादन करनेकोलिये शास्त्ररचनाका प्रयत्न क्यों करना--इससे क्या फायदा ? इस प्रश्नका उत्तर देते है।
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लोके विषामृतप्रख्यभावार्थः क्षीरशब्दवत् । वर्तते धर्मशब्दोपि तत्तदर्थोनुशिष्यते ॥ ८९ ॥
पूर्व आकारको छोड कर उससे सम्बन्ध रखते हुए उत्तर आकारके ग्रहणको वस्तु या भाव कहते हैं । ये भाव विष और अमृत दोनोंके समान हुआ करते हैं । इसी आधारपर लोकमें क्षीर शब्द विष और अमृत दोनो प्रकारके पदार्थोंका वाचक है । क्योंकि आकके रसको भी क्षीर कहते हैं जो कि विषके तुल्य है, और गोरसको भी क्षीर कहते हैं जो कि अमृतके समान है। इसी तरह लोकमें धर्मशब्दका भी अर्थ दोनो ही तरहका होता है - विषरूप भी होता है और अमृतरूप भी होता है। क्योंकि लोकमें बहुतसे लोक हिंसाको भी धर्म कहते हैं जो कि दुर्गतियोंके दुःखों का देनेवाला और इसीलिये विषके तुल्य है । और कोई कोई अहिंसाको धर्म कहते हैं जो कि सुखोंका देनेवाला और इसीलिये अमृतके समान है । अत एव उनका पृथकरण करनेकेलिये सर्वज्ञ और इतर आचार्योंकी उपदेशपरम्परासे धर्मशब्दका जो कुछ अर्थ चला आता है उसको बताया जाता है । धर्म शब्दका जो कुछ अर्थ है उसको स्पष्ट करते हैं:
धर्मः पुंसो विशुद्धिः सुहगवगमचारित्ररूपा स च स्वां, सामग्री प्राप्य मिथ्यारुचिमतिचरणाकारसंक्लेशरूपम् । मूलं बन्धस्य दुःखप्रभवभवफलस्यावधुन्वन्नधर्मं, संजातो जन्मदुःखाद्धरति शित्रसुखे जीवमित्युच्यतेऽर्थात् ॥ ९० ॥
मूढता आदि दोषोंसे रहित होनेपर दर्शन - श्रद्धान, और संशयादि दोषोंसे रहित होनेपर ज्ञान, एवं मायाचार
अन० भ० १३
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आदि दोषोंसे रहित होनेपर चारित्र प्रशस्त माना जाता है । इन प्रशस्त दर्शन ज्ञान और चारित्ररूप आत्माकी विशुद्ध परिणतिको ही धर्म कहते हैं । इसके विरुद्ध मिथ्या-विपरीत या असत्य दर्शन ज्ञान चारित्र इन तीनरूप संक्लेश परिणामोंको अधर्म कहते हैं । यह अधर्म उस बंध-कर्मबन्धका आदिकारण है जिसका कि फल अनेक प्रकारके दुःखोंको देनेवाला संसार है। किंतु उक्त धर्म अपनी सामग्री-बाह्य और अभ्यंतर कारणकलापको अथवा श्रेष्ठ ध्यानको प्राप्त कर इस अधर्मको निरवशेष करदेता है और चैदहवें अयोग गुणस्थानके अंत्य समयमें पूर्ण होकर इस जीवको जन्ममरण आदि सांसारिक दुःखोंसे दूर कर शिवसुख-मोक्षमें ले जाकर धर देता है । अतएव वाच्यार्थ अथवा परमार्थकी अपेक्षासे ही इसका नाम "धर्म" ऐसा रक्खा है । क्योंकि व्याकरणके अनुसार धर्मशब्दका ऐसा ही अर्थ होता है कि "धरतीति-धर्मः " अर्थात् जो जीवको दुःखोंसे छुडाकर सुखस्थान ले जाकर धरदे उसको धर्म कहते हैं।
.. निश्चय नयकी अपेक्षासे रत्नत्रयके लक्षणका निर्देश-आख्यान करते हुए मोक्षके और संवर तथा निर्जराके एवं बंधके कारणको बताते हैं।
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१-जैसा कि तत्वार्थसूत्रमें भी कहा है कि " मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बंधहेतवः।" २-इसके विषयमें आगममें भी कहा है
सच मुक्तिहेतुरिद्धो ध्याने यस्मादवाप्यते द्विविधोपि ।
तस्मादभ्यस्वन्तु ध्यानं सुधियः सदाप्यपाल्यालस्यम् ॥ इति । भमानमें समृद्ध होनेपर ही धर्म मोक्षका कारण हो सकता है । अतएव भव्यों को अप्रमत्त होकर इस ध्यानका ही सदा अभ्यास करना चाहिये।
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अनमार
मिथ्याभिनिवेशशून्यमभवत्संदेहमोहभ्रम, वान्ताशेषकषायकर्मभिदुदासीनं च रूपं चितः । तत्त्वं सदृगवायवृत्तमयनं पूर्ण शिवस्यैव तद्,
रुन्धे निर्जरयत्यपीतरदऽधं बन्धस्तु तद्व्यत्ययात् ॥ ९१ ॥ मिथ्या-विपरीत-प्रमाणबाधित अथवा सर्वथा या एकान्त रूपसे मानी हुई पर या अपर वस्तुओंका जिसमें आग्रह नहीं पाया जाता ऐसे आत्मरूपको अथवा इस तरहका अभिनिवेश जिस अन्तरंग कारणके - शसे हुआ करता है उस दर्शन मोहनीय कर्मसे शून्य आत्मस्वरूपको निश्चयसे सम्यग्दर्शन समझना चाहिये।
यह स्थाणु है अथवा पुरुष, इस तरहकी चलायमान प्रतीतिको संशय; जिसमें अपने विषयका कोई भी निश्चय न हो उसको अनध्यवसाय; और, विरुद्ध पदार्थके ग्रहणको भ्रम या विपर्यय कहते हैं । ये ज्ञान के तीन दोष हैं। जिसमें ये तीनो ही दोष नहीं पाये जाते, निश्चयसे आत्माके उस स्वरूपको ही सम्यग्ज्ञान
रहकी चलायमान ।
के तीन दोष हैं। जिसको अनध्यवसाय
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स्वतः क्रोधादि कषायोंको तथा हास्यादि कषायोंको दूर करदेनेवाले और, ज्ञानावरणादि कर्मोंको अथवा मन वचन कायके द्वारा होनेवाले व्यापाररूप कर्मको नष्ट करदेनेवाले तथा उदासीन-उपेक्षारूप आत्मस्वरूपको ही निश्चयसे सम्यक् चारित्र कहते हैं।
याय|
१ “मिथ्याभिमाननिमुक्तिज्ञानस्येष्टं हि दशन् ।
झानत्वं चार्थविज्ञप्तिश्चयात्वं कर्महन्तृता ।।" इति । ज्ञानमेंसे मिथ्या अभिमानके दर होजानको दर्शन, अर्थके जान लेनेको ज्ञान और कर्मोंकी घातकताको चारित्र कहते हैं।
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अनगार
यह उपर्युक्त सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यश्चारित्ररूप आत्माकी अवस्था ही परमार्थभूत है। जिस समय यह पूर्णताको प्राप्त करलेती है उस समय यह मोक्षका ही कारण होती है। न कि संवर निर्जरा अथवा किसी सांसारिक अभ्युदयका। यद्वा रत्नत्रयात्मक आत्माको ही मोक्षमार्ग कहते हैं । उक्त संवर आदि कार्योंका सिद्ध करनेवाला वही अपूर्ण अथवा दूसरा व्यावहारिक सम्यग्दर्शन है । यह आनेवाले कर्मोंको रोकता और पहले संचित अशुभ अथवा शुभ और अशुभ दोनो ही प्रकारके कर्मोंके एक देशको निर्जीर्ण करता है। इस प्रकार मोक्ष संवर और निर्जरा रत्नत्रयसे सिद्ध होते हैं। किंतु इसके विरुद्ध बंध, मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिवाचारित्रसे हुआ करता है ।
अध्याय
१ णिच्छवणएण भणिओ तिहिं तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा ।
__ण गहदि किंचि वि अण्णं ण मुयदि सो मोक्खमग्गोत्ति । " निश्चय नयसे रत्नत्रयसे युक्त आत्मा ही मोक्षका मार्ग है। वह न किसीसे बद्ध होता और न किसीसे मुक्त होता है।
२-जैसा कि कहा भी है कि -
"स्युमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राणि समासतः ।
बन्धस्य हेतवोन्यस्तु त्रयाणामेव विस्तरः ॥” इति । संक्षेपमें बंधके कारण मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र हैं। उसके और और जो कारण बताये गये हैं वे सब इन्हीके विस्तार हैं-विशेष भेद हैं जो कि इन्हीमें अंतर्भूत होते हैं। तथा और भी कहा है कि
रत्नत्रयमिह हेतुनिर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य । आस्ववति यत्तु पुण्यं चुभोपयोगस्य सोवमपराधः ॥
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अनगार
१०१
निश्चय रत्नत्रयकी प्राप्ति किससे होती है सो बताते हैं:.... उद्द्योतोयवनिर्वाहसिद्धिनिस्तरणैर्भजन् ।
भव्यो मुक्तिपथं भाक्तं साधयत्येव वास्तवम् ॥ ९२ ॥ . उद्योत उद्यव निर्वाह सिद्धि और निस्तरण इन उपायोंके द्वारा भेदरूप व्यावहारिक सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्ररूप मोक्षमार्गका. आराधन करनेवाला भव्य पुरुष वास्तविक-पारमार्थिक मोक्षमागको नियमसे प्राप्त किया करता है।
... व्यावहारिक रत्नत्रयका लक्षण बताते हैं:
श्रद्धानं पुरुषादितत्त्वविषयं सदर्शनं बोधनं,
ध्यायय
असमनं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो यः।
स विपक्षकतोवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः॥ ___ आगममें रत्नत्रयको मोक्षका ही कारण माना है और किसीका भी नहीं । पुण्यकर्मका जो आस्रव हुआ करता है यह शुभोपयोगका अपराध है । अपूर्ण रत्नत्रयका आराधन करनेवालेके जो कर्म-पुण्यकर्मका बंध हुआ करता है वह अवश्य ही मोक्षका उपाय है; न कि बंधनका । क्योंकि उसका बंध करनेवाला संसारके कारणोंसे विरुद्ध भावोंको रखता है । अतएव उसका संचित पुण्यकर्म अथवा उसका फल ऐसा होता है जिससे कि मोक्षकी सिद्धिमें सहायता प्राप्त हो । वह पुण्य संसार या उसके कारण कर्मबंधका कारण नहीं होता।
१--उद्द्योतादिकका लक्षण आगे चलकर बतावेंगे।
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बनगार
सज्ज्ञानं कृतकारितानुमतिभिर्योगैरवद्योज्झनम् । तत्पूर्व व्यवहारतः सुचरितं तान्येव रत्नत्रयं,
तस्याविर्भवनार्थमेव च भवेदिच्छानिरोधस्तपः ॥ ९३ ॥ जीव अजीव आस्रव बन्ध संवर निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका अथवा पुण्य और पापके साथ नव पदार्थोंका यथावत् रूपसे यद्वा इनके याथात्म्य-जिसका जैसा स्वरूप है उसके वैसे ही-स्वरूपका श्रद्धान करना इसको व्यवहारसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। और उनके जान लेनको सम्यग्ज्ञान कहते हैं । इसी तरह मन वचन और कायके द्वारा किये गये कृत कारित एवं अनुमोदनके द्वारा अवद्य-हिंसा झूठ चोरी कुशील व परिग्रह इन पांच पापोंके सम्यग्ज्ञानपूर्वक छोडदेनेको व्यवहारसे सम्यक्चारित्र कहते हैं । मनसे अवद्य कर्मका छोडना-कृत, दूसरेसे छुडाना-कारित, और उसको अच्छा मानना अनुमोदन कहाता है। इसी तरह वचन व कायके द्वारा भी तीन तीन भंग होते हैं। मिला कर नव भंगोंसे अवद्यकर्मका त्याग किया जाता है। किंतु यह त्याग सम्यग्ज्ञानपूर्वक होना चाहिये। तभी उसको सम्यकचारित्र कहते हैं।
अध्याय
___ इन तीनो ही को-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रको रत्नत्रय कहते हैं। इस रत्नत्रयको प्रकट करनेकेलिये ही तप किया जाता है । इच्छा-इन्द्रिय और अनिन्द्रियके द्वारा प्रवृत्त होनेवाली विषयाभिलाषाके निरोध-संयत करनेको तप कहते हैं । यद्यपि इसका चारित्रमें ही अन्तर्भाव हो जाता है। फिर भी चार आराधनाओंमें इसका पृथक् ही उल्लेख पाया जाता है । अतएव यहांपर भी उसको रत्नत्रयसे भिन्न रूपमें ही दिखाया है।
जिस प्रकार श्रद्धा ज्ञान और चारित्र इन तीनोंके विषय होनेपर ही रसायन औषधसे अभीष्ट फल सिद्ध हो सकता है; अन्यथा नहीं। उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादिकमेंसे भी एक या दोके नहीं, किंतु तीनों ही के-तीनोंके समु
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बनगार
दायका विषय होनेपर ही हेय व उपादेय तत्व अभीष्ट प्रयोजनको सिद्ध कर सकता है; अन्यथा नहीं। इसी पातको प्रकाशित करते हैं:
श्रद्धनबोधानुष्ठानस्तत्त्वमिष्टार्थसिद्धिकृत् ।
समस्तैरेव न व्यस्तै-रसायनमिवौषधम् ॥ ९४ ॥ सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इनमेंसे एक या दोका नहीं किन्तु सबका-तीनों ही का विफ्यभूत तत्व-वस्तुका यथार्थ स्वरूप इष्ट अर्थ अभ्युदय अथवा निःश्रेयसको सिद्ध कर सकता है । जैसे कि श्रद्धा ज्ञान और चारित्र इन तीनोंके होनेपर ही रसायन औषध अभीष्ट फल-दीर्घ आयुष्य आदिको सिद्ध • कर सकता है। अन्यथा नहीं। स्वास्थ्यके बढानेवाले और रोगोंको नष्ट करनेवाले पदार्थको रसायन कहते हैं।
व्यवहारमार्गपर आरूढ होनेवालेको सधाधिरूप निश्चयमार्गके द्वारा कर्मशत्रुओंके निराकरण करनेका उपदेश देते हैं:
१ दीर्घमायुः स्मृतिमा व्यारोग्यं तरुणं वयः । प्रभावर्णस्वरौदार्य देहेन्द्रियबलोदयम् ॥ वाक्सिदि वृषतां कान्तिमवाप्नोति रसायनात् ।
लाभोपायो हि शस्तानां रसादीनां रसायनम् ।। इति ॥ . जिससे प्रशस्त रसरक्तादिककी प्राप्ति हो उसीको रसायन कहते हैं। अतएव उसके सेवन करनेसे दीर्घ आयु स्मरणशक्त बुद्धिकी प्रखरता विशिष्ट आरोग्य और वयमें तरुणता प्राप्त होती है, प्रभा वर्ण और स्वरमें उदारता आती है, शरीर और इन्द्रियोंमें बलका उदय हुआ करता है, बचनमें सिद्धि पुष्टि और कातिका प्राप्ति हुआ करती है।
बध्याय
१०३
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बनगार
१०४
अद्धानगन्धसिन्धुरमदुष्टमुद्यदवगममहामात्रम् ।
धीरो व्रतबलपरिवृतमारूढोरीन् जयेत्प्रणिधिहेत्या ॥ ९५ ॥ श्रद्धानको गन्धहस्तीके समान समझना चाहिये क्योंकि जिस प्रकार हस्ती अपने पक्षमें बल उत्पन्न करता और परपक्षका उपमर्दन करता है। इसी तरह ज्ञानको नियन्ता समझना चाहिये क्योंक पीलवानकी तरह वह भी, जिससे अभीष्टकी सिद्धि हो सके ऐसे उपाय-मार्गका दिखानेवाला है। चारित्रको सेनाके समान समझना चाहिये, क्योंकि वह भी विरुद्ध पक्षके बलको रोकता व नष्ट करता है । इस प्र. कार जिसका ज्ञानरूपी नियन्ता-पीलवान उल्लासको प्राप्त हो रहा है और जिसको चारित्ररूपी सैन्यने चारो तरफसे घेर रक्खा है, ऐसे निदोर्ष सम्यग्दर्शनरूपी गन्धहस्तीपर आरूढ हुए धीर-कातरतारहित पुरुषको समाधि-ध्यानरूपी शस्त्रके द्वारा प्रतिपक्षी कोंका निग्रह करना चाहिये-उनपर विजय प्राप्त करनी चाहिये।
उक्त उद्योतादिकका लक्षण बताते हैं:दृष्टयादीनां मलनिरसनं द्योतनं तेषु शश्वद्,वृत्तिः खस्योद्यवनमुदितं धारणं निस्पृहस्य । निर्वाहः स्याद्भवभयभृतः पूर्णता सिद्धिरेषां,
निस्तीणिस्तु स्थिरमपि तटप्रापणं कृच्छ्रपाते ॥ १६ ॥ दर्शन ज्ञान चारित्र और तप इन चारो आराधनाओंमें लगनेवाले मलोंके दूर करनेको उद्योत कहते हैं। इन्हीमें इनके आराधकके नित्य एकतान होकर रहनेको उद्यव कहते हैं। तथा लाभ पूजा ख्याति आदिकी
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अनगार
अपेक्षा न करके निराकुलतया इनके धारण करनेको निर्वाह कहते हैं। इसी प्रकार संसारसे भीत रहनेवाले आराधकके इनके पूर्ण होजानेको सिद्धि कहते हैं । और परीषह तथा उपसर्गोके उपस्थित रहनेपर भी उनसे चलायमान न होकर इनके अंततक पहुंचा देनेको-क्षोभरहित होकर मरणान्त पहुंचा देनेको निस्तीणि कहते हैं।
सम्यक्त्वादिकमें लगनेवाले अतीचारोंको बताते हैं:शङ्कादया मला दृष्टेय॑त्यासानिश्चयौ मतेः।
वृत्तस्य भावनात्यागस्तपसः स्यादसंयमः ॥ ९७ ॥ शङ्का आदिक (शंका कांक्षा विचिकित्सा अन्यदृष्टिप्रशंसा अन्यदृष्टिसंस्तव ) सम्यग्दर्शनके अतीचार हैं। संशय विपर्यय अनध्यवसाय ये तीन सम्यग्ज्ञानके दोष हैं। एक एक व्रतकी जो पांच पांच भावनाएं बताई हैं जिनका कि आगे चलकर वर्षन करेंगे उनका छोडदेना सम्यक् चारित्रके अतीचार हैं। इसी प्रकार प्राणी और इन्द्रियोंमें संयम धारण न करना तपका अतीचार है।
“ उद्यातादिकके द्वारा मोक्षमार्गका जो आराधन करना है" ऐसा पहले कहा गया है । अत एव आराधनाका लक्षण यहां बताते हैं:
वृत्तिर्जातसुदृष्टयादेस्तद्गतातिशयेषु या। . उद्योतादिषु सा तेषां भक्तिराराधनोच्यते ॥ ९८ ॥ जिसके सम्यग्दर्शनादिक परिणाम उत्पन्न हो चुके हैं ऐसे पुरुषकी उन सम्यग्दर्शनादिकमें रहनेवाले अतिशयों अथवा उद्योतादिक विशेषोंमें जो वृत्ति उसीको दर्शनादिककी भक्ति कहते हैं। और इस भक्तिका ही नाम आराधना है।
अ.ध.१४
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बध्याय
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अनगार
१०६
अध्याय,
१
भावार्थ - सम्यग्दर्शनादिक और उनके विशिष्ट स्वरूप धारण करनेको ही उनकी भक्ति कहते हैं; तथा उस भक्तिका ही नाम आराधना है ।
केवल व्यवहार नय असद्विषयक है । अतएव जो मनुष्य निश्चय नयको छोडकर केवल व्यवहार नयका स्वार्थसिद्धिकेलिये उपयोग करते हैं उनका वह स्वार्थ भी भृष्ट होजाता है - सिद्ध नहीं होता । इसी बात को दृष्टांतद्वारा स्पष्ट करते हैं:
—
व्यवहारमभूतार्थं प्रायो भृतार्थविमुखजनमाहात् । केवलमुपयुञ्जानो व्यञ्जनवद्रश्यति स्वार्थात् ॥ ९९ ॥
निश्चय नयसे विमुख बहिर्दृष्टि लोगों के अज्ञानके कारण निश्चय नयकी अपेक्षा न करनेवाला और जिसमें इष्ट विषय नहीं पाया जाता ऐसे प्रवृत्तिनिवृत्तिरूप व्यवहारका ही प्रायः करके उपयोग करनेवाला मनुष्य स्वार्थ – मोक्षसुखसे इस तरहसे बंचित-भृष्ट होजाता है जैसे कि - केवल-स्वररहित और इसीलिये विषयके प्रतिपादन करनेमें असमर्थ ककारादि व्यंजन - अक्षरोंका ही उपयोग करनेवाला अज्ञानी मनुष्य स्वार्थ- वाच्य अभिषेयसे भृष्ट होजाया करता है । अथवा केवल-घी चावल आदिसे रहित अतएव इष्ट रसादि विषयसे शून्य दाल आदि व्यंजन पदार्थका ही उपयोग करनेवाला मनुष्य स्वार्थ स्वास्थ्य आदि से भृष्ट होजाया करता है ।
भावार्थ -- आगममें ऐसा कहा है कि -
१ वेज्ज/वचणिमित्तं गिलाणगुरु बालबुडु समणाणं । लोगिगजणसं भासा ण णिंदिदा वा सुहोबजुया ||
Ramnath
धर्म
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अनगार
ग्लान गुरु बाल या वृद्ध मुनियोंकी वयावृत्यकोलये यदि लौकिक जनोंके साथ संभाषण करना पडे अथवा लौकिक जनोंकी भाषाका व्यवहार करना पडे तो वह शुभ परिणामोंसे उपयुक्त होनेके कारण निन्दित नहीं है। किंतु इन वचनोंका ऐसा अभिप्राय भी समझना चाहिये कि यदि उनकी वैयावृत्यके अधीन होकर लौकिक संभाषणमें नितान्त आसक्त होजाय-केवल व्यवहारका ही उपयोग करने लगे तो वह साधु प्रमत्त होकर ध्यानादिकसे च्युत होजाता और स्वार्थ-उक्त माक्षसुखसे भी भृष्ट होजाता है । अत एव निश्चयको न छोडकर ही व्यवहारका उपयोग करना श्रेयस्कर है।
जिस प्रकार निश्चयके विना व्यवहार नय व्यर्थ है उसी प्रकार व्यवहारके विना निश्चयनय भी कार्यकारी नहीं है। इस बातको व्यतिरेक मुखसे बताते हैं:
व्यवहारपराचीनो निश्चयं यश्चिकीर्षति । बीजादिना विना मूढः स सस्यानि सिसृक्षति ॥१०॥
वह मूढ बीजादिक--बीज खेत खात जल ऋतु आदिके विना ही सस्य-धान्यको उत्पन्न करना चाहता है जो कि व्यवहारपराङ्मुख-व्यवहार नयसे रहित केवल निश्चय नयसे ही कार्य सिद्ध करना चाहता है।
भावार्थ-बिना व्यवहारके केवल निश्चयसे भी सफलता प्राप्त नहीं हो सकती । __ व्यवहार नयका कब अवलम्बन लेना चाहिये और कब उसको छोडना चाहिये; सो बताते हैं:
भूतार्थ रज्जुवत्स्वैरं विहाँ वैशवन्मुहुः ।
अध्याय
PROMPTETAUNTENTATISTESTweet
१-रोगादिकसे संक्लिष्टको ग्लान कहते हैं।
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अनगार
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अध्याय
بع
यो धीरैरभृतार्थो यस्तद्विहृतीवरैः ॥ १०१ ॥
जिस प्रकार मनुष्य चलने में लकडीका तबतक सहारा लेते हैं जबतक कि विना सहारे के ही चलने की शक्ति प्राप्त नहीं होती। किंतु शक्ति प्राप्त होजानेपर उसका सहारा लेना छोड देते हैं । इसी प्रकार धीर - कातरतारहित मुमुक्षुओं को भी व्यवहार नयका तबतक अबलम्बन लेना चाहिये जबतक कि उनको किरणोंकी तरहसे स्वच्छन्द निरालम्बनतया निश्चय नयमें संचार करनेकी शक्ति प्राप्त नहीं होती। किंतु उसके प्राप्त होजानेपर उसका अवलम्बन लेना छोड देना चाहिये ।
व्यवहार और निश्चय नयका लक्षण क्या है सो बताते हैं: -
earer वस्तुनो भिन्ना येन निश्वयसिद्धये । साध्यन्ते व्यवहारोसौ निश्चयस्तदभेददृक् ॥ १०२ ॥
निश्चय नयको सिद्ध करनेकेलिये जीवादिक पदार्थोंसे कर्त्ता कर्म करण आदि कारकोंको जो भिन्न रूपसे बतानेवाला है उसको व्यवहार नय कहते हैं । और जो उनमें परस्पर अभेदका प्रदर्शक है उसको निश्चय नय कहते हैं ।
निश्चय नय दो प्रकारका है एक शुद्ध दूसरा अशुद्ध । इन दोनों का उल्लेख किस प्रकारसे होता है सो बताते हैं ।—
सर्वेपि शुद्धबुद्ध कस्वभावाश्चेतना इति ।
शुद्धोऽशुद्ध रागाद्या एवात्मेत्यस्ति निश्वयः ॥ १०३ ॥
जितने भी जीव हैं, संसारी हों और चाहे मुक्त; सभी शुद्ध रागादि विभावोंसे रहित और
SEEKERA
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बनगार
ANSDASAREASONERakakaka
बुद्ध-ज्ञानरूप परिणत तथा एक स्वभाववाले हैं । इसको शुद्ध निश्चय नय कहते हैं। और सगद्वेषादि परिणामस्वरूप ही आत्मा है, इसको अशुद्ध निश्चय नय कहते हैं।
.व्यवहार नयके दो भेद हैं; एक सद्भूत, दूसरा असद्भूत । इन दोनों ही का उद्देशपूर्वक लक्षण बताते हैं:
- सद्भूतेतरभेदायवहारः स्याद् द्विधा भिदुपचारः। .
गुणगुणिनोरभिदायामपि सद्भूता विपर्ययादितरः ॥ १०४ ॥ सद्भुत और असद्भुत इस तरह व्यवहार नयके दो भेद हैं । गुण और गुणीमें अभेद रहते हुए भी भेदकी कल्पना करना इसको सद्भूत व्यवहार नय कहते हैं। और इसके विरुद्ध-भिन्न वस्तुओंमें अभेदकी कल्पना करनेको सद्भूतव्यवहार नय कहते हैं।
सद्भूत व्यवहार नयके भी दो भेद हैं- शुद्ध और अशुद्ध । इन दोनोंका उद्देश बताते हुए, शुद्ध सद्भुत के उल्लेख-आकार और पर्यायवाचक शब्दोंको बताते हैं। -
सद्भूतः शुद्धेतरभेदाद् द्वेधा तु चेतनस्य गुणाः ।
केवलबोधादय इति शुद्धोऽनुपचरितसंज्ञोसौ ॥१.५॥ . सद्भूत व्यवहार नय भी दो प्रकारका है, एक शुद्ध दूसरा अशुद्ध । “ केवलज्ञानादिक-असहाय ज्ञानदर्शन प्रभूति गुण चेतन-जीवके हैं" इसको शुद्ध सद्भुत व्यवहार नय कहते हैं । इसका दूसरा नाम अनुप्रचरित भी है।
आगेके पद्यके पूर्वाध अशुद्ध सद्भुत व्यवहार नयका आकार और नाम बताते हैं। तथा उत्तरार्धमें अनुपचरित असंदभुत व्यवहार नयका आकार दिखाते हैं:
अध्याय
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अनगार
नाम उपचरितमतिज्ञानानन्धक ज्ञानावरणमा
मत्यादिविभावगुणाश्चित इत्युपचरितकः स चाशुद्धः ।
देहो मदीय इत्यनुपचरितसंज्ञस्त्वसद्भूतः ॥ १०६ ॥ विभाव नाम बहिरंग निमित्तका है। उससे उत्पन्न होनेवाले धोको विभावगुण कहते हैं। ज्ञानके मति श्रुत आदि जो भेद हैं वे सब ऐसे ही हैं। क्योंकि वे अपने प्रतिबन्धक ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम विशेष की अपेक्षासे उत्पन्न होते हैं। फिर भी उनके विषयमें “ मतिज्ञानादिक जीवके हैं" ऐसा व्यवहार करना इसको अशुद्ध सद्भूत कहते हैं। इसका दूसरा नाम उपचरित भी है।
ऊपर व्यवहार नयका असद्भुत जो भेद गिनाया है उसके भी दो भेद हैं। अनुपचरित और उपचरित । "शरीर मेरा है" इस व्यवहारको अनुपचरित असद्भूत कहते हैं। क्योंक यद्यपि शरीर और आत्मा भिन्न भिन्न है किंतु उनमें परस्पर संश्लेष होरहा है। उसकी अपेक्षासे अभेदकी कल्पना करके ही ऐसा व्वहार किया गया है। इसी प्रकार जिन दो भिन्न पदार्थों में ऐसा सम्बन्ध पाया जाय उनमें ऐसी अवस्थामें इस नयका प्रयोग हुआ करता है।
व्यवहार नयके दूसरे भेद उपचरित असद्भुतका आकार बताते हुए प्रकृत विषयका-नयोंके प्रकरणका उपसंहार करते हैं :
• देशो मदीय इत्युपचरितसमाह्वः स एव चेत्युक्तम् ।
नयचक्रमूलभृतं नयषटुं प्रवचनपटिष्टैः ॥ १०७ ॥ “यह देश मेरा है " इस तरहके व्यवहारको उपचरितासद्भुत व्यवहार नय कहते हैं। क्योंकि इन दोनों पदार्थोंमें भेद रहते हुए भी अभेदकी कल्पना की गई है। और उनमें किसी भी प्रकारका संश्लेष भी नहीं पाया
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अनमार
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अध्याय
AMBESTORE
जाता । इस प्रकार ये छह नय हैं- शुद्ध निश्चय, अशुद्ध निश्चय, शुद्ध सद्भूत, अशुद्ध सद्भूत, अनुपचरितासद्भूत, उपचरिता सद्भूत । जो अध्यात्मशास्त्रका रहस्य जाननेवाले हैं उन्होंने इनको नयचक्र- समस्त नयोंका मूलभूत
बताया है।
श्रुतज्ञानके अंशविशेषको अथवा श्रुतज्ञानियोंके अभिप्रायको नय कहते हैं। अतएव नयके अनेक भेद हैं। फिर भी यहां पर हमने उसके अध्यात्मभाषा के द्वारा संक्षेपमें मूल छह भेद बताये हैं। दूसरे ग्रंथोंमें आगमभाषा के द्वारा इन्ही नयोंके नैगमादिक सात मूल भेद गिनाये हैं ।
नय समीचीन नहीं, मिथ्या है, इस शंकाका दो श्लोकों में निरसन करते हैं ।
अनेकान्तात्मकादर्थादपोद्धृत्याञ्जसान्नयः ।
तत्प्राप्त्युपायमेकान्तं तदंशं व्यावहारिकम् ॥ १०८ ॥ प्रकाशयन्न मिथ्या स्याच्छब्दात्तच्छास्त्रवत् स हि । मिथ्याऽनपेक्षोऽनेकान्तक्षेपान्नान्यस्तदत्ययात् ॥ १०९ ॥
श्रुतज्ञान व्यवसायरूप - निश्चयात्मक है। उसका अपने विषयके एक देशमें जो अभिप्राय है उसीको नय कहते हैं । अत एव वह भी सत्य है - वह मिथ्या नहीं हो सकता । क्योंकि जिस प्रकार शब्दसे उसके अंश - शब्द के अवयव प्रकृति प्रत्यय आदिमेंसे किसी भी एक की भिन्न रूपमें विवक्षा करके बतानेवाला व्याकरण शास्त्र मिथ्या नहीं हो सकता उसी प्रकार श्रुतज्ञानके विषयभूत पदार्थके अंशोंमेंसे किसी भी एककी भिन्न रूपसे कल्पना कर प्रकाशित करनेवाला नय भी मिथ्या नहीं हो सकता। जिस प्रकार " देवदत्त रसोई बना रहा है " इत्यादि शब्द अनेकांतात्मक होते हैं - उनमें प्रकृति प्रत्यय आदि अनेक धर्म पाये जाते हैं, और यथार्थमें समीचीन हैं; उसी प्रकार श्रुतज्ञानका विषयभूत पदार्थ भी अस्तित्व नास्तित्व नित्यत्व अनित्यत्व सामान्य सामानाधिकरण्य विशेषण विशेष्य प्रभृति अनेक
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अनगार
TENTISATTA
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धर्मात्मक और परमार्थतः सत्-समीचीन है-काल्पनिक नहीं है। जिस प्रकार शन्दका कोई भी एक अंश शब्दरूपको प्रकाशित करने में कारण और व्यवहारका साधक है उसी प्रकार उस वस्तुका भी एक एक अंश अनेकान्तात्मक वस्तुको प्रकाशित करनेका उपाय और प्रवृत्ति निवृत्तिरूप व्यवहारका साधक है । जब कि वह स्वयं सत्य और सत्य व्यवहारके साधक वस्त्वंशेकी विषय करनेवाला है तब वह मिथ्या नहीं हो सकता । जो अपने ही विषयभूत धर्मकी अपेक्षा करता है और शेष धोंकी अपेक्षा नहीं करता वह मिथ्या माना जाता है। क्योंकि वह दूसरे अनेक धोका अपलाप करता है। किंतु जो ऐसा नहीं है-जो पर्यायार्थिक द्रव्यार्थिककी और द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिककी भी गौणतया अपेक्षा रखता है वह नय सत्य है क्योंकि वह अपने विषयोंको दूसरे धर्मोंकी अपलाप न करके सिद्ध करता है । वह स्याद्वाद–अनेकांतधर्मका अनुयायी है।
आत्माको कुछ अंशमें विशुद्धि कुछमें संक्लेश होनेपर जो फल प्राप्त होता है उसको बताते हैं।--
येनांशेन विशुद्धिः स्याज्जन्तोस्तेन न बन्धनम् ।।
येनांशेन तु रागः स्यात्वेन स्यादेव बन्धनम् ॥ ११ ॥ आत्माके जिन अंशोंमें विशुद्धि-रागद्वेष और मोहका उपशम पाया जाता है उन अंशोंकी अपेक्षासे जीवके कर्मबन्ध नहीं हुआ करता । किन्तु जिन अंशोंमें रागादिकका आवेश पाया जाता है उनकी अपेक्षासे अवश्य ही बंध हुआ करता है ।
भावार्थ--यहांपर संवरके विषयमें नयविभाग बताया गया है। जो कि इस प्रकार है:
मिथ्यादृष्टि प्रथम गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय बारहवें गुणस्थानतक उत्तरोत्तर मंद मन्दतर और मन्दतम रूपसे अशुद्ध निश्चय नय प्रवृत्त हुआ करता है। इनमें तीन प्रकारका उपयोग होता है, अशुभ शुभ
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अनगार
और शुद्ध । मिथ्यादृष्टि सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानोंमें अशुभोपयाग होता है। किंतु वह क्रमसे मन्द मन्दतर और मन्दतम होता है । इसके बाद असंयत देशर्मयत और प्रमत्त इन गुणस्थानोंमें शुभोपयोग होता | है। किंतु वह क्रमसे शुभ शुभतर और शुभतम होता है। तथा परम्परासे शुद्धोपयोगका साधक होता है। इसके अनन्तर अप्रमत्त- सातवें गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थानतक शुद्धोपयोग होता है। यह शुद्धनयरूप है। और इसमें यह विशेषता है कि इन गुणस्थानोंकी किसी भी विवक्षित एक देशमें जघन्य मध्यम उत्कृष्ट तीन भेदोमेंसे किसी भी रूपमें यह हो सकता है।
इनमेंसे मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें संवर नहीं होता । सासादनादिक गुणस्थानों में क्रमसे नीचे लिखे अनुसार संवर हुआ करता है । बन्धव्युच्छित्तिके विषयमें जो त्रिभंगी बताई गई है उसके क्रमके अनुसार उत्तरोत्तर गुणस्थानोंमें यह संवर प्रकर्षतया हुआ करता है। किस किस गुणस्थानमें किन किन प्रकृतियोंका संवर होता है सो इस प्रकार है
प्रथम गुणस्थानमें मिथ्यात्व परिणामोंसे जिन प्रकृतियोंका बंध होता है उनकी व्युच्छित्ति होजानेपर सासादनादि गुणस्थानोंमें उनका संवर होजाया करता है। ये प्रकृति १६ हैं.। - मिथ्यात्व १ नपुंसक वेद
अध्याय
१ "सोलसपणवीसणभं दस चउ छक्केक बंधवोच्छिण्णा ।
दुगतीस चदुरपुव्वे पण सोळस जोगिणो एको ॥” इति । जिस गुणस्थानमें जिन प्रकृतियोंकी बंधन्युच्छित्ति बताई है उस गुणस्थानतक उनका बंध हुआ करता है; आगेक गुणस्थानोंमें उनका बंध नहीं होता । अतएव वहांपर उनका संवर माना जाता है। प्रथमादि गुणस्थानोंमेंसे किसमें कितनी प्रकृतियोंकी बंधव्युच्छित्ति होती है सो इस प्रकार है-१-१६, २-२५, ३-०, ४-१०, ५-१, ६-६, ७-१, ८-३६, ९-५, १०-१६, ११-१२, १३-१। .
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भनगार
। जिनका कि अनतानुबान पच्चीस प्रकृतियांका
यानद्धि ३ अनंतानुवाच
डल १ स्वा
२ नरक आयु ३ नरक गति ४ एकेन्द्रिय ५ द्वीन्द्रिय ६ त्रीन्द्रिय ७ चतुरिन्द्रिय जाति ८ हुण्डकसंस्थान ९ असंप्राप्तासृपाटिका संहनन १० नरकगत्यानुपूर्व्य ११ आतप १२ स्थावर १३ सूक्ष्म १४ अपर्याप्त १५ साधारण १६ । जिनका कि अनंतानुबान्ध कषायके निमित्तसे उत्पन्न हुए असंयमसे एकेन्द्रियसे लेकर सासादन गुणस्थान तकके जीवोंके बंध हुआ करता है उन पच्चीस प्रकृतियोंका आगे चलकर--तृतीयादि गुणस्थानोंमें संवर होजाता है। उनके नाम ये हैं-निद्रानिद्रा १ प्रचलाप्रचला २ स्त्यानगृद्धि ३ अनंतानुबंधि क्रोध ४ मान ५ माया ६ लोभ ७ स्त्रीवेद ८ तिर्यगायु ९ तिर्यग्गति १० चार संस्थान ११-१४ ( न्यग्रोध परिमंडल १ वाति • कुब्जक ३ वामन ४) चार संहनन १५-१८.[ वज्रनाराच " नाराच २ अर्धनाराच ३ कीलक ४] तिर्यग्गत्यानुपूर्व्य १९ उद्योत २० अप्रशस्त विहायोगति २१ दुर्भग २२ दुःस्वर •३ अनादेय २४ नचिगोत्र २२ । तीसर गुणस्थानमें किसी भी प्रकृतिकी बंधव्युच्छित्ति नहीं होती अत एव इस अपेक्षासे चतुर्थ गुणस्थान में किसी भी प्रकृतिका संवर भी नहीं होता। तीसरे गुणस्थानमें आयुकर्मका बंध नहीं हुआ करता। तो भी इ सको संवर नहीं कह सकते क्योंकि आगे चलकर उसका बंध होता है । पांचवें गुणस्थानमें उन १० प्रकृतियोंका संवर हुआ करता है जिनका कि एकेन्द्रियसे लेकर चतुर्थ गुणस्थानतकके जीव अप्रत्याख्यान कषायके निमित्तसे उत्पन्न हुए असंयमके द्वारा बंध किया करते हैं। वे दश प्रकृति ये हैं-अप्रत्याख्यान क्रोध १ मान २ माया ३ लोभ ४ मनुष्य आयु ५ मनुष्यगति ६ औदारिकशरीर ७ औदारिक अङ्गोपाङ ८ वज्रर्षभनाराचसंहनन ९ मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी १० । जिनका कि प्रत्याख्यान कषायके उदयसे उत्पन्न हुए असंयमके द्वारा एकेन्द्रियसे लेकर संयतासंयत गुणस्थानतकके जीवोंके बंध हुआ करता है ऐसी चार प्रकृति हैं; प्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ । इनका छठे आदि गुणस्थानोंमें संवर हुआ करता है । प्रमादके निमित्तसे असातावेदनीय अरति शोक अस्थिर अशुभ और अयशस्कीर्ति इन छह प्रकृतियोंका आस्रव होता है। अतएव छठे गुणस्थानतक इनका बंध होता है और सातवेंसे संवर होजाता है। देवायुके बंधका प्रारम्भ प्रमत्तके ही होता है। किन्तु उससे निकटवर्ती अप्रमत्त गुणस्थानमें भी उसका बंध हुआ करता है । अतएव उसके आगे आठवेंसे उसका संवर होता है। संज्वलन कषायके निमित्तसे जिन प्रकृतियोंका आस्रव होता है उनका
अध्याय
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अनगार
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उसके अभावमें संबर हो जाया करता है। सामान्यसे संज्वलन कषायके तीन भाग हैं-तीव्र मध्यम जघन्य । ये तीन प्रकारके कषाय क्रमसे आठवें नौवें और दशवें गुणस्थानमें होते हैं । तीव्र संज्वलनसे बंधनेवाली ३६ प्रकृतियोंका बंध आठवें तक होता है। उसके आगे उस कषायके न रहनेपर उनका संवर होजाता है । किंतु आठवें गुणस्थानमें भी इन ३६ प्रकृतियोंमेंसे पहले भागतक निद्रा और प्रचला इन दोका, तथा दूसरे भागतक दवगोत । पश्चेन्द्रिय जाति २ वैक्रियिक ३ आहारक ४ तैजस ५ कार्माण शरीर ६ समचतुरस्र संस्थान ७ कैक्रियिक अङ्गोपाङ्ग, ८ आहारक अङ्गोपाङ्ग ९ वर्ण १० गंध ११ रस १५ स्पर्श १३ देवगतिप्रायोग्यानुपुर्य १४ अगुरुलघु १५ उपघात, १६ परघात १७ उच्छास १८ प्रशस्त विहायोगति १९ त्रस २० बादर २१ पर्याप्त २२ प्रत्येक शरीर २३ स्थिर २४ शुभ २५ सुभग २६ सुस्वर २७ निर्माण २९ तीर्थकर ३० इन तीस प्रकृतियोका; और तीसरे भागतक हास्य १ रति २ भय ३ जुगुप्सा ४ इन चार प्रकृतियोंका बंध हुआ करता है । आगे आगेके स्थानोंमें उनका संवर होजाया करता है। मध्यम कषाय नवम गुणस्थानमें होता है। उसके निमित्तसे अनिवृत्तिवादरके आदिके संख्यात भागोंतक पुरुषवेद और संज्वलन क्रोधका मध्यके संख्यात भागोतक संज्वलन मान और मायाका, तथा अंतके भागतक लोभका बंध हुआ करता है। उसके आगे इस कषायके न रहनेसे इन पांचो प्रकृतियोंका संवर होजाता है । मन्द संज्वलन कषायके उदयसे पांच ज्ञानावरण चार अन्तराय यशस्कीर्ति उच्चगोत्र इन सोलह प्रकृतियोंका बंध दशवें गुणस्थान-सूक्ष्मसांपरायतक हुआ करता है। इसके आगे इनका संवर होजाता है । ग्यारहवें उपशांतकषाय गुणस्थान और बारहवें क्षीणकषाय तथा तेरहवें सयोगकेवलमें योगके निमित्चसे एक सातावेदनीय कर्मका ही बंध होता है । उसके आगे चौदहवें अयोगकेवलमें उसका भी संवर हो जाता है।
' यहांपर शुद्ध निश्चय नयकी प्रवृत्ति है अत एव शुद्ध बुद्ध और एक स्वभाव निजात्मा ही यहांपर ध्येय है। यहांपर शुद्धोपयोग घटित होता है; क्योंकि यहां ध्येय शुद्ध, अवलम्बन शुद्ध और आत्मस्वरूप साधक भी शुद्ध ही है। इसीको भावसंवर कहते हैं। यह न तो संसारके कारणभूत मिथ्यात्व या रागादिकरूप अशुद्ध
अध्याय
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अनगार
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अध्याग
पर्यायोंकी तरह अशुद्ध ही है, और न फलभूत केवलज्ञानरूप शुद्ध पर्यायके समान शुद्ध ही है। किंतु अशुद्ध और शुद्ध दोनोंसे विलक्षण एक तीसरी ही अवस्था है । जो कि शुद्धात्मा के अनुभवरूप निश्चय रत्नत्रयात्मक और मोक्षका कारण तथा एक देश व्यक्त और एक देश ही निरावरण है।
नित्य और अत्यंत निर्मल तथा स्व और पर पदार्थोंके प्रकाशन करनेमें समर्थ चिदानन्दात्मक परमात्माकी भावनासे उद्भूत शुद्ध निजात्मा के अनुभवरूप निश्वय रत्नत्रय धर्मको अमृतके समुद्रके समान समझना चाहिये । उसमें अवगाहन करनेवालोंके यदि उसके रसका लेशमात्र भी उदय या उदीर्णाको प्राप्त हो जाता है। तो बही अपनी उपासना करनेवालोंका अनुग्रह - कल्याण कर देता है । यही बताते हैं:
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कथमपि भवकक्षं जाज्वलदुःखदाव,ज्वलनमशरणो ना बम्भ्रमन् प्राप्य तीरम् |
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श्रितबहुविधसत्त्वं धर्मपयूषसिन्धो,रसलवमपि मज्जत्कीर्णमृनोति विन्दन् ॥ १११ ॥
जिसमें दुःखरूपी दावानल बारम्बार और तीव्र रूपसे जल रहा है ऐसे संसाररूपी अरण्यमें अत्यन्त भ्रमण करते हुए जो शरणरहित पुरुष किसी भी तरह-बडे कष्टोंसे धर्मरूपी अमृतके समुद्रके उस तीरको कि जिसका निकटभव्य प्रभृति अनेक जीवोंने आश्रय लेक्खा है, प्राप्त करलेते और उसमें अवगाहन करनेवाले अत्यंत धन्य मुमुक्षुजनों घटमान योगियोंके द्वारा उद्गीर्ण- प्रकाशित रसके लेशमात्रको भी पालेते हैं; वे ज्ञान संयम आदिके द्वारा तथा हर्ष बल ओज और वीर्य आदिके द्वारा समृद्ध हो जाते हैं।
धर्माचार्य के द्वारा जिसकी बुद्धिमें व्युत्पन्नता - रहस्यज्ञता प्राप्त हो गई है ऐसा निकटभव्य पुरुष परिग्रहत्यागादिकके द्वारा उसी भवमें या कुछ ही भवोंमें अपनी आत्माको संसाररहित बना देता है, यह बताते हैं:
धर्म
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त्यत्वा सङ्गं सुधीः साम्यसमभ्यासवशाद् ध्रुवम् । समाधि मरणे लब्ध्वा हन्त्यल्पयति वा भवम् ।। ११२ ॥
वनगार
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प्रमाण नय निक्षेप और अनुयोगोंके द्वारा जिसकी बुद्धिमें व्युत्पन्नता प्राप्त हो गई है ऐसा भव्य पुरुष यदि चरमशरीरी हो तो उसी भवमें संसारको नष्ट कर देता है मुक्तावस्थाको प्राप्त करलेता है। यदि चरमशरीरी न हो तो वह समतारूप या सामायिकरूप परिणामोंका भले प्रकार अभ्यास करके उसकी निरंतर की गई भावनासे परिग्रहका त्याग कर और मरणसमयमें समाधि-रत्नत्रयकी एकाग्रताको धारण कर संसारकी मर्यादा-मवोंके प्रमाणको बिलकुल कम कर देता है-कुछ ही भवों में मुक्त हो जाता है।
अभेद समाधिके माहात्म्यकी प्रशंसा करते हैं:
अयमात्मात्मनात्मानमात्मन्यात्मन आत्मने।
समादधानो हि परां विशाई प्रतिपद्यते ॥ ११३ ॥ जिसको स्वसंवेदनके द्वारा भले प्रकार साक्षात्कार हो चुका है ऐसा जीव इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न हुए -क्षायोपशमिक ज्ञानमय निजात्मस्वरूपसे हटकर शुद्ध चिदानन्दस्वरूप निजात्माकी सिद्धिकेलिये निर्विकल्प निजात्मामें स्वसंवेदनरूप निजात्मा ही के द्वारा शुद्ध चिदानन्दस्वरूप निजात्माका ही भले प्रकार ध्यान करके घातिकर्मोके क्षयसे उत्पन्न हुई अथवा समस्त कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न हुई विशुद्धिको प्राप्त कर लेता है। ध्यानकी सामग्रीका क्रम और उससे प्राप्त होनेवाले साक्षात् तथा परम्परा फलको बताते हैं
इष्टानिष्टार्थमोहादिच्छेदाच्चतः स्थिरं ततः।
अध्याय
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अनगार
११८ ।
ध्यानं रत्नत्रयं तस्मात् तस्मान्मोक्षस्ततः सुखम् ॥ ११४ ॥ जिससे कि इष्ट और अनिष्ट पदार्थोंके वास्तविक स्वरूपका ज्ञान नहीं हो पाता किंतु इष्टमें प्रीति-राग होता और अनिष्टमें अति द्वेष होता है उस मोहके और तत्सदृश दूसरे भी भावोंके नष्ट हो जानेसे चित्तमें स्थिरता-निश्चलता प्राप्त होती है। मनके स्थिर हो जानेसे ध्यान होता और ध्यानसे रत्नत्रयकी पूर्णता होती है। रत्नत्रयके पूर्ण होजानेसे मोक्षकी सिद्धि और मोक्षसे अनंत सुखकी प्राप्ति होती है।
शिव-कल्याणरूप है बुद्धि जिनकी और जिन्होंने सुमना-देवों तथा विद्वानोंको तृप्त करनेकेलिये जिनेन्द्र भगवान्के आगमरूपी क्षीरसमुद्रको भले प्रकार मथकर धर्मामृतको निकाल प्रकाशित किया है ऐसे श्रीमान् आशाधर सदा जयवंते रहो। तथा हरदेव नामक प्रसिद्ध वे भव्यात्मा इस ग्रंथको समृद्ध करें कि जिनके उपयोगकेलिये उन्ही आशाधरने इस ग्रंथकी टीकारूपी शुक्तिकी सुखपूर्वक रचना की है।
॥ प्रमथ अध्याय समाप्त ॥
भद्रम्
अध्याय
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SHRA
॥ दूसरा अध्याय ॥
बनगार
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किन २ उपायोंसे व्यवहार मोक्षमार्गका आराधन करनेवाला निश्चय मोक्षमार्गको सिद्ध करलेता है ? तो इसके उत्तरमें पहले यह कहा गया है कि "उद्योत उद्यव निर्वाह सिद्धि और निस्तरण इन उपायोंसे उसके आराधन करनेवालेको निश्चय मोक्षमार्गकी सिद्धि होती ही है ।" किंतु यहांपर चार आराधनाओंमेंसे पहली सम्यग्दर्शन आराधनाका प्रकरण है; अत एव उस विषयमें यह समझलेना आवश्यक है कि अपनी कारणसामग्रीके मिलजानेपर मुमुक्षु भव्योंके यद्यपि सम्यग्दर्शन उद्भूत होजाता है। फिर भी वह निकट भव्योंके भी सिद्धि-पूर्णताका संपादन करनेकेलिये उस चारित्रकी अपेक्षा रखता है-विना उस चारित्रकी सहायताके सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता कि जिसकी प्रकर्षता : उत्तरोचर बढती चली जा रही हो। इसी बातको यहांपर कहते हैं:
आसंसारविसारिणोऽन्धतमसान्मिथ्याभिमानान्वयाच्च्युत्त्वा कालबलान्निमीलितभवानन्त्यं पुनस्तबलात् । मीलित्वा पुनरुद्गतेन तदपक्षेपादविद्याच्छिदा,
सिद्ध्यै कस्यचिदुच्छ्रयत् स्वमहसा वृत्तं सुहृन्मृग्यते ॥१॥ यह अनादि मिथ्यादृष्टि जीव, समस्त संसारमें फैले हुए-अपने कार्यसे सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त करनेवाले विपरीताभिनिवेशरूप भावमिथ्यात्वसे अथवा दुराग्रहको निमित्तभूत युक्तियोंके द्वारा उत्पन्न हुआ अहंकार जिसका अनुगमन करता है ऐसे अंधतम-द्रव्यमिथ्यात्वसे यद्वा दुर्नयोंके विलाससे अनंत संसारका निमीलन -संवरण करता हुआ-तिरस्कार करता हुआ किसी प्रकार-कालादि लब्धिके निमित्तसे अथवा कार्यसिद्धिकेलिये अनुकूल समयकी सामर्थ्यसे दूर हुआ। किंतु फिर भी वह उसी मिथ्यात्वकी सामर्थ्यसे उसके प्रभावमें तिरोहित
बध्याय
११९
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बनगार
होगया। क्योंकि अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य कालादि लब्धिके निमित्तसे अन्तर्मुहर्तोलिये औपशामक सम्यग्दर्शनको प्राप्त करता है। परन्तु शीघ्र ही उससे च्युत होकर फिर मिथ्यात्वपरिणामोंसे ही नियमसे आक्रांत होजाता है। जैसा कि कहा भी है- .
" निशीथं वासरस्येव निर्मलस्य मलीमसम ।
पश्चादायाति मिथ्यात्वं सम्यक्स्वस्यास्य निश्चितम्" ॥ इति । जिस प्रकार निर्मल दिनके बाद मलीमस रात्रिका आगमन अवश्य ही होता है। उसी प्रकार इस-अनादि मिथ्यादृष्टि जीवके प्रथम ही उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शनके बाद मिथ्यात्वपरिणाम भी नियमसे होते हैं।
ऐसा होनेपर भी उस अंधतम-द्रव्यमिथ्यात्वका प्रध्वंस होजानेसे अविद्या-अज्ञान-कुमति कुश्रुत और विभङ्ग अथवा संशय विपर्यय और अनध्यवसाय इन तनि अज्ञानोंका छेदन करनेवाला वह सम्यग्दर्शनरूप आत्मीय अथवा निज तेज फिरसे उद्भूत होता है । किन्तु वह सिद्ध शुद्धात्मस्वरूपकी प्राप्तिकेलिये अथवा अपना उत्कर्ष और परका अपकर्ष सिद्ध करनेकेलिये किसी किसीके ही-निकटभव्यके ही.. अथवा विजिगीषुके ही मित्रके समान बढते हुए चारित्रके साहाय्यकी अपेक्षा करता है । क्योंकि जिस प्रकार मित्रकी सहायताके विना विजय प्राप्त नहीं हो सकती उसी प्रकार चारित्रकी सहायताक विना सम्यग्दर्शन भी सिद्धिलाभ-मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। मुमुक्षुओंको मिथ्यात्वके बढानेवाली या उपस्कृत करनेवाली सामग्रीको दूर करनेका उपदेश देते हैं:
दवयन्तु सदा सन्तस्ता द्रव्यादिचतुष्टयीम् ।
पुंसां दुर्गतिसर्गे या मोहारेः कुलदेवता ॥ २ ॥ जिस प्रकार विजिगीषुओंको प्रतिपक्षियोंकी दुर्गति करने में कुलदेवी माहाय्य किया करती है उसी प्रकार मनुष्योंको मिथ्याज्ञान या नरकादि दुर्गतियोंको प्राप्त करानेमें द्रव्यादिककी चौकडी मिथ्यात्वकी सहायता
बध्याय
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अनगार
किया करती है। परसमयके अनुसार मानी हुई कुदेवादिककी मूर्तिप्रभृतिको मिथ्यात्वका द्रव्य, उसको बढानेवाले तीर्थ आदि अनायतनोंको उसका क्षेत्र, संक्रांति ग्रहण प्रभृति मिथ्यादर्शनके बढानेवाले समयको उसका काल, और शंका कांक्षा आदि परिणामोंको मिथ्यात्वका भाव कहते हैं। यह द्रव्यादिकी चौकडी मिथ्यात्वको तयार करती और मनुष्योंकेलिये कुज्ञान तथा नरकादि दुर्गतियोंको उत्पन्न करती है। अत एव सत्पुरुषोंको उचित है कि वे सदा उसको दूर करनेका ही प्रयत्न करें।
मिथ्यात्वका कारण और लक्षण बताते हैं:मिथ्यात्वकर्मपाकेन जीवो मिथ्यात्वमृच्छति । स्वादं पित्तज्वरेणेव येन धर्म न रोचते ॥३॥
अध्याय
मोहनीय कर्मकी मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे जीवोंके जो भाव होते हैं उनको मिथ्यात्व कहते हैं; जि. नसे कि उस जीवको धर्मकी तरफ रुचि नहीं होती। क्योंकि दर्शनमोहनीय कर्म मद्यके समान माना है । अत एव इसके उदयसे जीव वस्तुतत्त्वमें अनेक प्रकारसे मोहित-मृञ्छित हुआ करता और विपरीत अभिनिवेशसे आक्रांत-ग्रस्त होजाया करता है। इसीलिये वह वस्तुके वास्तविक स्वरूपका श्रद्धान नहीं कर सकता । और धर्मके विषयमें उसकी रुचि भी नहीं होती। जिस तरहसे कि पित्तज्वरवाले मनुष्यको स्वादु-मधुर रस भी रुचिकर नहीं होता उसी प्रकार मिथ्यादृष्टिको भी वास्तविक धर्म रुचिकर नहीं होता ।
मिथ्यात्वके भेदोंको उसके प्रणेताओंकी अपेक्षासे बताते हैं:--
बौद्धशैवद्विजश्वेतपटमस्कारपूर्वका । एकान्तविनयभ्रान्तिसंशयज्ञानदुर्दशः ॥४॥
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अनगार
धर्म
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मिथ्यात्वके पांच भेद हैं-एकान्त विनय विपर्यय संशय और अज्ञान । किसी एक धर्मको-अंशको देखकर समस्त वस्तुको सर्वथा वैसा ही मानना इसको एकान्त मिथ्यात्व कहते हैं। और बैसा मानने या प्रणयन करनेवाले बौद्धादिकोंको एकान्त मिथ्यादृष्टि कहते हैं। समीचीन और मिथ्या दोना ही प्रकारके देवगुरु शास्त्रको समान समझ कर वैसी ही दोनोंकी एकसी भक्ति आदि करना, इसको विनय मिथ्यात्व कहते हैं।
और इसके प्रणेता शैवादिकोंको वैनयिक कहते हैं । वस्तुतत्वके विपरीत श्रद्धानको विपर्यय मिथ्यात्व और उसके प्रणेता याज्ञिक ब्राह्मणादिकोंको विपरीत मिथ्यादृष्टि कहते हैं । "केवली कवलाहारी ही होते हैं अथवा उसके विपरीत" यद्वा "स्त्रीको उसी भवसे मोक्ष होती है या नहीं" इस तरहकी जिसमें चलायमान प्रीति पाई जाय उस मिथ्या श्रद्धानको संशयमिथ्यात्व और उसके प्रणेता श्वेताम्बरादिकको संशयमिथ्यादृष्टि कहते हैं । सर्वज्ञा दिके विषयमें किसी भी प्रकारका विश्वास न करनेको या " अज्ञानसे ही मोक्ष होती है " इस श्रद्धानको अज्ञा न मिथ्यात्व कहते हैं। और उसके प्रणेता मस्करी आदिको अज्ञान मिथ्यादृष्टि कहते हैं।
पार्श्वनाथ भगवान्के तीर्थमें और महावीर स्वामीके समयमें मस्करी पूरण नामका एक ऋषि हागया है । वह ग्यारह अंगका पाठी था। वह चाहता था कि मैं केवल ज्ञान उत्पन्न होते ही वीर भगवान्की दिव्यध्वनि सुनूं-मेरे निमित्तसे ही उनकी दिव्यध्वनि खिरना सुरू हो और मैं उनका गणधर बनूं । इसलिये वह केवल ज्ञान होते ही महावीरस्वापीके समवसरणमें गया। किंतु उसके निमित्तसे भगवान्की दिव्यध्वनि न निकली और गौतमके निमित्तसे निकली । इसलिये उसको यह मत्सरता उत्पन्न हुई कि इन्होंने ग्यारह अंगके धारक मेरे निमित्तसे अपनी दिव्यध्वनिका निर्गम न किया किंतु अपने शिष्य गौतमके निमित्तसे किया । इस मत्सरताके कारण वह विरुद्ध होकर और ये सर्वज्ञ ही नहीं ऐसा मानकर समवसरणके बाहर आया और आकर उसने अपना यह मत प्रकाशित किया “ अज्ञानसे ही मोक्ष होती है " । अतएव अज्ञान मिथ्यात्वका प्रणेता मस्करी माना जाता है।
पांचो प्रकारके मिथ्यात्वोंमें दोष दिखानके अभिप्रायसे क्रमानुसार पहले एकान्त मिथ्यात्वके दोष बताते हैं
अध्याय
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अनगार
अभिसरति यतोगी सर्वथैकान्तसंवित्,परयुवतिमनेकान्तात्मसंवित्प्रियोपि । मुहुरुपहितनांनाबन्धदुःखानुबन्धं, तमनुषजति विद्वान् को नु मिथ्यात्वशत्रुम् ॥ ५॥
जिसके निमित्तसे यह प्राणी अपनी अनेकांतसंवित्तिरूप प्रिया -वल्लभाके रहते हुए भी परकान्ताके समान सर्वथैकान्ता संवित्तिसे अभिसरण करने लगता है, और इसलिये जो विविध प्रकारसे बन्धों -प्रकृति आदि कर्मवन्धों अथवा रस्सी आदिके द्वारा होनेवाले बन्धोंसे उत्पन्न हुए दुःखोंकी परम्पराओंको उन प्राणियोंकेलिये पुनः पुनः उपस्थित करता है, ऐसे मिथ्यात्वशत्रुसे, भला ऐसा कौन विद्वान् होगा जो कि सम्बन्ध रखना चाहे ? कोई भी नहीं । भावार्थ-जिस प्रकार लोकमें विचारशील पुरुष व्यसनोंमें फंसाकर दुःख भुगानेवालेको अपना शत्रु समझकर झोडदेते हैं या उससे सम्बध नहीं करते। उसी प्रकार मुमुक्षु ज्ञानी भव्योंको आत्मस्वरूपसे हटाकर पर स्वरूपमें मोहित करदेनेवाले और विविध प्रकारके दुःखोंको देनेवाले तथा उनके कारणोंको संचित करनेवाले मिथ्यात्वको शत्रु समझकर छोडदेना चाहिये और उससे सम्बन्ध नहीं रखना चाहिये।
विनयमिथ्यात्वकी निन्दा करते हैं - शिवपूजादिमात्रेण मुक्तिमभ्युपगच्छताम् ।
निःशङ्क भूतघातोयं नियोगः कोपि दुर्विघेः ॥ ६ ॥ शिवपूजा या गुरुपूजा आदिके करनेमात्रसे ही मुक्ति प्राप्त होजाती है, जो ऐसा माननेवाले हैं उनका दुर्दैव निःशंक होकर प्राणिवधर्म प्रवृत्त हो सकता है । अथवा उनका दुरागम-दृषित सिद्धांत प्राणिवध करनेकेलिये मनु
अध्याय
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अनगार
प्योंको नियमसे और अच्छी तरहसे प्रवृत्त करदेता है। भावार्थ-इसका कारण यह हो सकता है कि महादेवको उनके सिद्धांतमें भूतोंका संहार करनेवाला माना है। इसलिये उनका सिद्धांत आदर्शको पूज्य बताकर पूजकोंको आदर्शक अनुसार चलनेका-भूतघात-प्राणिवध करनेका अवश्य ही उपदेश देता है । अत एव उसकी पूजामात्रसे मुक्ति माननेवाले वैनयिक भी निःशंक होकर उस कर्ममें प्रवृत्त हो सकते हैं।
विपरीत मिथ्यात्वको छोडनेकेलिये प्रेरणा करते हैं:येन प्रमाणतः क्षिप्तां श्रद्दधानाः श्रुति रसात् ।
चरन्ति श्रेयसे हिंसां स हिंस्या मोहराक्षसः ॥ ७ ॥ अपना हित चाहनेवालोंको उस विपरीताभिनिवेशके उत्पन्न करनेवाले मोहकर्मरूपी राक्षस-निशाचरका ही बध करना उचित है। जिसके कि वशमें पडकर ये प्राणी-विपरीतमिथ्यादृष्टि लोक प्रमाणसे-“वेद आप्तप्रणीत नहीं है। क्योंकि वह पशुवधका उपदेश देता है" इत्यादि युक्तियोंके द्वारा खण्डित किये जानेपर भी उस श्रुति-वेदवाक्यका ही श्रद्धान करते और कल्याणकेलिये-जिससे कि स्वर्गादिककी प्राप्ति हो सके, उस पुण्यकेलिये हिंसाका आचरण किया करते हैं । • संशय मिथ्यात्वकी निन्दा करनेके अभिप्रायसे कलिकालमें संशय मिथ्यादृष्टियोंके साहाय्यको प्रकाशित करते हैं:
अन्त:स्खलच्छल्यमिव प्रविष्टं रूपं खमेव स्ववधाय येषाम ।
तेषां हि भाग्यैः कलिरेष नूनं तपत्यलं लोकविवेकमश्नन् ॥ ८॥ जिनका कि निजका वह स्वरूप जिसमें कि पूर्वोक्त "केवली कवलाहारी हैं या अन्य प्रकारके, स्खी उसी
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नगार
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भवसे मुक्त होती या नहीं," इस तरहकी चलायमान प्रतीति शल्य-कांटेकी तरहसे घुसी हुई है, और इसीलिये जो अपना ही वध करनेवाला है। क्योंकि संशय मिथ्यादर्शन भी आत्मस्वरूपसे विपरीत ही है और इसीलिये वह भी आत्माका घातक ही है। मालुम पडता है कि ऐसे पुरुषोंके भाग्यसे ही यह कलिकाल नियमसे लोकोंके -व्यवहर्ता पुरुषोंके विवेक-युक्तायुक्तकी विचारशक्तिका संहार करता हुआ अच्छी तरहसे अपने प्रतापको प्रकट कर रहा है। यहांपर कलिके विषयमें ऐसा कहकर, श्वेताम्बर मत कलिकालमें ही प्रकट हुआ है, इसका स्मरण दिलाया है। क्योंकि पांच प्रकारके मिथ्यात्वमेंसे संशय मिथ्यात्वको पुष्ट करनेवाला श्वेताम्बर मत कलिकालमें ही उद्भूत हुआ है। शेष चार प्रकारके द्रव्य मिथ्यात्वके प्रणेता कलिके पहले ही उत्पन्न हो चुके थे।
अज्ञान मिथ्यादृष्टियोंके दुर्विलासोंपर खेद प्रकट करते हैं:
युक्तावनाश्वस्य निरस्य चाप्तं भूतार्थमज्ञानतमोनिममाः ।
जनानुपायैरतिसंदधानाः पुष्णन्ति ही खव्यसनानि धूर्ताः॥९॥ जिस प्रकार सुख पदार्थ अवश्य है क्योंकि उसका कोई बाधक प्रमाण संभव नहीं है । इसी प्रकार कोई न कोई सर्वज्ञ अवश्य ही है। क्योंकि उसका भी बाधक-उसके विरुद्ध-" सर्वज्ञ कोई नहीं है" इस बातको सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण सम्भव नहीं है। यह बात निश्चित है । इत्यादि सर्वज्ञकी साधक युक्तियोंपर विश्वास न करके वल्कि परमार्थतः सत्-प्रमाणसे सिद्ध होनेपर भी उस आप्त परमेष्ठीका निरसन करके, बडे दुःखकी बात है कि, अज्ञानके अंधकारमें बिलकुल डूबे हुए कुछ धूर्त लोक संसारके लोगोंको अनेक प्रकारके उपायोंसे ठगते फिरते
अध्याय
१-यहांपर मिथ्यात्वसे द्रव्य मिथ्यात्व ही समझना चाहिये । क्योंकि भावरूप मिथ्यात्व सदा ही रहा करता है। किंतु द्रव्य मिथ्यात्वकी-जिससे कि भाव मिथ्यात्वकी पुष्टि होती है और तदनुरूप देवगुरुशास्त्रकी तथा उनकी मूर्ति आदिकी कल्पना और रचना हुंडावसर्पिणी कालमें ही हुआ करती है।
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जनगार
हैं और उससे अपने व्यसनोंको पुष्ट किया करते हैं। भावार्थ-जिन पुरुषोंको परमार्थ और यथार्थ देव गुरु शास्त्रका श्रद्धान नहीं है ऐसे लोक वञ्चना आदि अनेक उपायोंसे अपने व्यसनोंको ही पुष्ट किया करता हैं ---
प्रकारांतरसे मिथ्यात्वके भेदोंको गिनाते हुए यह बात बताते हैं कि वह-मिथ्यात्व सर्वदा और सर्वत्र जीवका अपकार ही करता है
तत्त्वारुचिरतत्त्वाभिनिवेशस्तत्त्वसंशयः। . मिथ्यात्वं वा क्वचित्किचिन्नाश्रयो जात तादृशम् ॥१०॥
तत्त्वमें अरुचि, अतत्वका अभिनिवेश-श्रद्धान-आग्रह या रुचि. तथा तत्वका संशय, इस तरह मिथ्यात्व तनि प्रकारका. है इन तीनोंमेंसे एक भी ऐसा नहीं है जो कि कहीं भी और कभी भी जविका जरा भी कल्याण कर सके । अतएव इनमेंसे किसका भी आश्रय लेना उचित नहीं है। क्योंकि संसारमें मिथ्यात्व या उसके किसी भेदके समान जीवका अकल्याण करने वाला कोई भी पाप नहीं है।
जिनोक्त तच ही ठीक हैं-मोक्षके कारण हैं या अन्य ? इस तरहकी जिसमें ससीचीन या मिथ्या किसी भी तरहकी प्रतीति इकतर्फा न होकर चलायमान प्रतीति रहती है। उसको तत्त्वसंशय कहते हैं; जैसा कि पहले भी बताया गया है।
दूसरोंके उपदेशसे उत्पन्न होनेवाले गृहीत मिथ्यात्वको अतत्त्वाभिनिवेश कहते हैं। इसके ३६३ भेद हैं जैसा कि आगममें बताया गया है
“भेदाः क्रियाऽक्रियावादिविनयाज्ञानवादिनाम् । गृहीतासत्यदृष्टीनां निषष्टित्रिशतप्रमाः ॥” इति ।
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अनगार
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क्रियावादी अक्रियावादी विनयवादी और अज्ञानवादी इन गृहीत मिथ्यादृष्टियोंके तीनसौ त्रेसठ भेदं हैं।
वस्तुतत्वमें स्वभावतः जो अनादिकालसे अश्रद्धा चली आती है उस अग्रहीत मिथ्याचको तत्वारुचि कहते हैं । यथा
"एकेन्द्रियादिजीवानां घोराज्ञान विवार्तिनाम् ।
तीव्रसंतमसाकारं मिथ्यात्वमगृहीतकम्” इति ।। घोर अज्ञानमें पडे हुए एकेन्द्रियादि जीवोंके जो तीव्र अन्धकारके समान अश्रद्धान है उसको अगृहीत मिथ्यात्व कहते हैं।
जो मिथ्यात्वके दूर करनेमें तत्पर रहता है उसकी प्रशंसा करते हैं--
यो मोहसप्तार्चिषि दीप्यमाने चेंक्लिश्यमानं पुरुषं झषं वा ।
उद्धृत्त्य निर्वापयतीद्धविद्यापीयूषसेकैः स कृती कृतार्थः ॥ ११ ॥ जलती हुई मोह-मिथ्यात्वरूप सप्ता:-अग्निमें या उसके द्वारा अत्यंत और बारम्बार संतप्त हुए मत्स्योंके समान पुरुषोंको जो विद्वान उससे निकालकर प्रकाशमान प्रमाण नय प्रभृति अधिगमरूपी सुधाका सेक --सिञ्चन कर शांत बनाते हैं वे ही महाभाग सफलमनोरथ और धन्य हैं।
. सप्ताचि नाम अग्निका है। क्योंकि उसमें सप्त-सात आर्चि-किरणें रहती हैं-नीचकी तरफको छोडकर सातो दिशाओंमें उसकी सात ज्वालाएं निकला करती हैं। इसी अर्थको ध्यानमें रखकर यहांपर मोहको
अध्याय
१ इसका विशेष स्वरूप ज्ञानदीपिकामें देखना चाहिये।
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सप्ताचिकी उपमा दी है। इससे किसी किसीने जो मिथ्यात्वके सात भेद माने हैं सो भी इसमें अन्तर्भूत हो जाते हैं। यह बात सूचित की है । सात भेदोंके नाम इस प्रकार हैं
"ऐकान्तिकं सांशयिकं च मुढं स्वाभाविक वैनयिकं तथैव ।
व्युद्ग्राहिक तद्विपरीतसंज्ञं मिथ्यात्वभेदानवबोध सप्त ॥" ऐकान्तिक, सांशयिक, मूढ, स्वाभायिक, वैनयिक, व्युदाहिक, अव्युग्राहिक, इस तरह मिथ्यात्वके सात भेद हैं। अथवा तीन दर्शन मोहनीय और चार अनंतानुबंधी कषाय ये सातो ही प्रकृति सम्यक्त्वका घात करती हैं, अत एव इस अपेक्षासे भी मिथ्यात्वके सात भेद होते हैं। मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी भले प्रकार पहचान हो सके इसलिये संक्षेपमें दोनोंका लक्षण बताते हैं
ग्रासाद्यादीनवे देवे वस्त्रादिग्रन्थिले गुरौ ।
धर्मे हिंसामय तडीमिथ्यात्वमितरेतरत् ॥ १२ ॥ जिनमें क्षुधा राग द्वेष मोह आदि ऐसे दोष पाये जाते हैं जिनका कि ग्रासादिके द्वारा-होनेवाले भोजन कवलाहारको देखकर तथा स्त्री शस्त्र अक्षसूत्रका धारण इत्यादि कार्योंको देखकर अनुमान किया जा सकता है उनको कुदेव कहते हैं । वस्त्र दण्ड पात्र आदि परिग्रहके धारण करनेवालोंको कुगुरु कहते हैं। जिसमें कि प्राणियोंके वधको कर्तव्यतया बताया गया है उस आगमको कुधर्म कहते हैं । इस प्रकार दूषित देवमें परिग्रही गुरुमें और हिंसामय धर्ममें समीचीन देव गुरु धर्मकी बुद्धि रखना इसको मिथ्यात्व कहते हैं। और इससे विपरीत समीचीन देव गुरु धर्ममें-निर्दोष देव निग्रंथ गुरु और अहिंसामय धर्ममें देव गुरु धर्मकी श्रद्धा रखनेको सम्यक्त्व कहते हैं।
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अध्याय
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जनगार
सम्यक्त्वकी सामग्रीकी प्रशंसा करते हैं - तद् द्रव्यमव्यथमुदेतु शुभैःस देशः, संतन्यतां प्रतपतु प्रततं स कालः। भावः स नन्दतु सदा यदनुग्रहेण,
प्रसौति तत्त्वरुचिमाप्तगवी नरस्य ॥ १३ ॥ जिन भगवान्के शरीरकी प्रतिमा आदि द्रव्य अवाधरूपसे उदित हों-अपना कार्य करनेके लिये शक्तियोंको उद्भत करें। समवसरण या चैत्यालय प्रभृति देश-स्थान शुभ कृत्यों व गर्भादि कल्याणकोंके महोत्सवोंसे भले प्रकार पूर्ण रहें। तीर्थकरोंके समय अथवा सम्यग्दर्शन उत्पन्न होनेके योग्य अर्धपुद्गल परिवर्तन कालकी शक्ति सदा अव्याहत बनी रहे। इसी प्रकार सम्यक्त्वके उत्पन्न होने में कारणभूत अधःप्रवृत्तकरण आदि आत्माके भाव सदा समृद्धिको प्राप्त हों; जिनके कि अनुग्रहसे आमगवी-परापर गुरुओं की वाणी जीवको तत्चोंमें रुचि उत्पन्न करादेती है। भावार्थ-जिस प्रकार लोकमें गौ खल वगैरह योग्य द्रव्यको पाकर अतिशयंको प्राप्त कर लोगोंको दूध दिया करती है उसी प्रकार परापर गुरुओंकी देशना-वाणी भी उक्त द्रव्यादिकी सहायतासे सातिशय होकर जीवोंको सम्यग्दर्शन उत्पन्न कराती है। अत एव देशनामें अतिशय उत्पन्न करनेवाले द्रव्यादि कारणोंकी शक्तियां सदा उद्भत रहें।
यहांपर तत्त्वरुचि-शब्दका अर्थ 'तत्त्वोंकी इच्छा' ऐसा नहीं है। क्योंकि इच्छाके कारणभूत मोहकर्मका जहाँपर उदय नहीं पाया जाता ऐसे उपांतकषाय प्रभृति गुणस्थानोंमें अथवा मुक्तात्माओंमें बह-इच्छा नहीं पाई जाती. अत एव तत्त्वरूचि आत्माके उस स्वरूपको कहते हैं जो कि विपरीत अभिनिवेशसे शून्य और पर तथा अपर वस्तुओंके यथार्थ स्वरूपके श्रद्धानरूप है।
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अनसार
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अध्याय
२
परम आप्तका लक्षण बताते हैं::
मुक्तोष्टादशभिर्दोषैर्युक्तः सार्वज्ञसंपदा 1
शास्ति मुक्तिपथं भव्यान् योसावाप्तो जगत्पतिः ॥ १४ ॥
बीज
क्षुधा तृषा भय द्वेष राग मोह चिंता जरा रोग मृत्यु स्वेद खेद मद रति विस्मय जन्म निद्रा और विषाद ये अठारह दोष हैं। ये सर्वसाधारण रूपसे तीनों लोकोंके जीवों में पाये जाते हैं। अत एवं जिनमें ये पाये. जय उनको संसारी और जिनमें न पाये जांय उनको आप्त समझना चाहिये। जो इन अठारह दोषोंसे रहित है, अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन अनन्त सुख और अनन्त वीर्य इस अनन्त चतुष्टयरूप जीवन्मुक्ति पर्यायके उत्पन्न हो जाने से समवसरण और अष्ट महाप्रतिहार्यादि विभूतिसे युक्त है, भव्य जीवोंको भोक्षमार्गका स्वरूप बताने वाला है, उस तीन लोकके स्वामीको आप्त कहते हैं ।
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भावार्थ- इस श्लोक देवके अपायापगम ज्ञान पूजा और वचन इन अतिशयोको तथा तीन लोकके स्वामित्व - ईश्वरपने को बताया है। जिसमें ये बातें पाई जांय उसको ही आप्त कहते हैं। अठारह दोष रहित होनेको अपायापगम, अनन्त चतुष्टयके धारण को ज्ञानातिशय, समसरणादि विभूतिको पूजातिशय और दिव्यध्वनीको वचनातिशय कहते हैं ।
१ क्षुधा तृषा भयं द्वेषो रागो मोहश्च चिन्तनम् । जरा रुजा च मृत्युश्च स्वेदः खेदो मदो रतिः ॥ १ ॥ विस्मयो जजनं निद्रा विषादोऽष्टादश धवाः । त्रिजगत्सर्वभूतानां दोषाः साधारणा इमे ॥ २ ॥ एतदोष विनिर्मुक्तः सोयमाप्तो निरंजनः । विद्यते येषु ते नित्यं तेत्र संसारिणः स्मृताः ॥ ३ ॥
धर्म
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मुमुक्षु भव्योंको परम आप्तकी सेवा करनेकेलिये प्रवृत्ति करनेका उपदेश देते हैं
बनेगार
यो जन्मान्तरतत्त्वभावनभुवा बोधेन बुद्ध्वा खयं, श्रेयोमार्गमपास्य घातिदरितं साक्षादशेष विदन । सद्यस्तीर्थकरत्वपक्त्रिमागरा कामं निरीहो जगत, तत्त्वं शास्ति शिवार्थभिः स भगवानाप्तोत्तमः सेव्यताम् ॥ १५ ॥
किसी पूर्व जन्ममें किये गये तत्वाभ्यासकी सामर्थ्यसे उत्पन्न हुए ज्ञानके द्वारा स्वयं ही मोक्षमार्गको जानकर और मोहनीय ज्ञानावरण दर्शनावरण अन्तराय इन चार पाति कर्मोको नष्ट कर समस्त वस्तुओंको और उनकी त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायोंको प्रत्यक्ष जानते हुए जो केवलज्ञानके उत्पन्न होते ही तीर्थकर नामक पुण्य कर्मके उदयसे उत्पन्न हुई वाणी-दिव्य ध्वनिके द्वारा, वीतराग होनेसे अपने उपदेशसे किसी भी प्रकारके फलकी वाञ्छा न करके, यथेष्ट रूपमें तनि जगत्के जीवोंको जीवादि तचोंका और मोक्षमार्गका उपदेश देता है उस आप्तोत्तमकी ही, जो कि इन्द्रादिकोंके द्वारा भी पूज्य है, मोक्षके अभिलाषियोंको आराधना करनी चाहिये। इस तरहके आप्तका निर्णय आजकलके लोगोंको किस तरह हो सकता है ? इसका उत्तर देते हैं:
शिष्टानुशिष्टात् सोत्यक्षोप्यागमायुक्तिसंगमात् ।
पूर्वापराविरुद्धाच्च वेद्यतेद्यतनैरपि ॥ १६ ॥ सर्वज्ञके समयके लोक उसको देखकर जान सकते थे । किन्तु आज कलके लोक उसको नहीं देख सकते क्योकि वह अतीन्द्रिय है-चक्षुरादि इन्द्रियोंके अगोचर है। फिर भी उस आगमके द्वारा वह जाना जा सकता है, जो कि
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बनगार
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शिष्टों-जिन्होंने कि आप्तोपदेश के अनुसार शिक्षाविशेषका संपादन किया है ऐसे-स्वामी समन्तभद्र प्रभृति आचायोके द्वारा उपदिष्ट है, " आप्तका आगम प्रमाण है; क्योंकि वह यथावत् वस्तुका उपदेश देता है" इत्यादि युक्तियोंके द्वारा जो भले प्रकार संगत है, एवं जिसके भीतर किसी भी प्रकारसे पूर्वापर विरोध नहीं पाया जाता। क्योंकि वचनको देखकर ही उसके वक्ताके विषयमें प्रामाण्याप्रामाण्यका निश्चय किया जा सकता है। जिन वचनोंमें पूर्वापर विरोध है-एक जगह कहा जाता है कि "न हिंस्यात्सर्वभूतानि" अर्थात् किसी भी जीवकी हिंसा नहीं करनी चाहिये और दूसरी जगह कहा जाता है कि "यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा" अर्थात् स्वयंभूने इन पशुओंकी रचना यज्ञकलिये ही की है, उनको और जो युक्ति--प्रमाणसे संगत नहीं हैं ऐसे वचनोंको प्रमाण नहीं माना जासकता । किंतु जिनमें इस तरहका पूर्वापर विरोध नहीं है और युक्तिसंगत हैं वे ही वचन शिष्टों द्वारा उपदिष्ट माने जाते और प्रमाण समझे जाते हैं। क्योंकि वचनोंका सदोष और निर्दोष होना सदोष निर्दोष आशयके वक्ता व्यक्तियोंके ऊपर निर्भर है । शुभाशय व्यक्तियोंके सम्बन्धसे वचन प्रशस्त और दुष्टाशयोंके सम्बन्धसे दुष्ट हो जाया करता है ।
इसी बातको आगेके पचमें दृष्टांतद्वारा स्पष्ट करते हैं:--
विशिष्टमपि दुष्टं स्याद्वचा दुष्टाशयाश्रयम् ।
घनाम्बुवत्तदेवोच्चैर्वन्धं स्याचीर्थगं पुनः ॥ १७ ॥ जिस प्रकार गंगोदक वर्षानेवाले मेघका जल पथ्य होनेपर भी क्षित स्थानपर पडकर अपथ्य होजाता है। उसी प्रकार विशिष्ट-आप्तोपदिष्ट भी वचन दुष्टाशय-जिनके हृदयको दर्शनमोहनीय कर्मके उदयने
१--यथा-आप्तनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमशिना भावतव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥ [ रखकरंड-स्वामी समन्तभद्र ]
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पनगार
आक्रान्त कर रक्खा है ऐसे रागी द्वेषी उपदेष्टाओंको पाकर दुष्ट-अश्रद्धेय और इसीलिये विपरीत अथका करनेवाला होजाया करता है । किन्तु वही जल पवित्र स्थानपर पडता है तो जिस तरह अत्यंत पूज्य होजाता है उसी प्रकार वीतरागी अत एव पवित्र हृदयवाले पुरुष-समन्तभद्रादि आचार्योंको पाकर अतिशय पूज्य एवं श्रद्धेय और इसीलिये समीचीन अर्थको सिद्ध करनेवाला हो जाता है।
आगममें जो वाक्य जिस विषयमें जिस अपेक्षासे कहा गया है उसको उसी विषयमें उसी तरहसे प्रमाणित करनेका उपदेश देते हैं
दृष्टथैघ्यक्षतो वाक्यमनुमेयेनुमानतः ।
पूर्वापराविरोधेन परोक्षे च प्रमाण्यताम् ॥ १८ ॥ आगममें तीन प्रकारके पदार्थ बताये हैं-दृष्ट, अनुमेय, और परोक्ष। जो प्रत्यक्ष प्रमाणके द्वारा जाने जा सकते हैं ऐसे पौद्गालक विकागेको दृष्ट और जो अनुमानके द्वारा जाने जा सकते हैं ऐसे जीव परमाणु धर्म अधर्म कालाणु आकाश लोक परलोक शुभाशुभ कर्म प्रभृति पदार्थोंको अनुमेय, तथा इन दोनों ही के जो अविषय हैं ऐसे कर्म स्थिति स्वर्ग नरकके पटलोंकी संख्या द्वीप सागर पर्वत हृदादिका प्रमाण अकृत्रिम चैत्यालय जम्बूवृक्षादिकी रचना आदिको परोक्ष कहते हैं । इनमेंसे जिस तरहके पदार्थको बतानेकेलिये आगममें जो वाक्य आया हो उसको उसी तरहसे-यदि दृष्ट विषयमें आया हो तो प्रत्यक्षसे और अनुमेय विषयमें आया हो तो अनुमानसे तथा परोक्ष विषयमें आया हो तो पूर्वापरका अविरोध देखकर प्रमाणित करना चाहिये । आप्तोक्त और अनाप्तोक्त वाक्यकी पहचान बताते हैं -
यैकवाक्यतया विष्वग्वर्तते सार्हती श्रुतिः । .
कचिद्धि केनचिद्भूर्ता वर्तन्ते वाक्कियादिना ॥ १९ ॥
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अनगार
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जिसकी क सर्वत्र-न्याय व्याकरण साहित्य वा सिद्धांत सभी विषयोंमें एकवाक्यता पाई जाती है उसी देशनाको आतोक्त समझना चाहिये । क्योंकि जो धूर्त हैं-जो दूसरोंको प्रतारित करनेमें तत्पर रहा करते हैं वे किसी नियत विषयमें अपने किसी नियत ही वचन क्रिया चेष्टा और वेष आदिके द्वारा प्रवृत्त हुआ करते हैं। अर्थात् पूर्वापर अविरुद्ध वचनोंको आलोक्त और विरुद्ध वचनोंको अनातोक्त समझना चाहिये । क्यों कि धूतोंके वचन चेष्टा वेषादिक प्रायः करके कहीं कुछ और कहीं कुछ रहा करते हैं। आप्पोक्त वचनमें भी हेतुसै बाधा आ सकती है, इस शंकाका परिहार करते हैं
जिनोक्ते वा कुतो हेतुबाधगन्धोपि शङ्कयते । रागादिना विना को हि करोति वितथं वचः ॥२०॥
RST
राग द्वेष आदि कषायोंपर विजय प्राप्त करनेवाले जिन भगवान्के वचनोंमें युक्तियोंके द्वारा पूर्ण रूपसे बाधा आनेकी तो बात क्या; लेशमात्र भी बाधाकी शंका किस तरह की जा सकती है ? क्योंकि जहांपर कषाय पाया जाता है वहीं पर वचनमें असत्यताकी सम्भावना होसकती है । इसी बातको ग्रंथकार व्यतिरेक रूपसे यहां. पर कहते हैं कि ऐसा कौन पुरुष होगा जो कि रागद्वेषमोहके विना वितथ-मिथ्या वचन बोले । अत एव वीतरागके वचनोंमें अंशमात्र भी बाधाकी संभावना किस तरह हो सकती है? ___ जो रागादि कषायोंसे आक्रान्त हैं उनकी आप्तताका निराकरण करते हैं:
ये रागादिजिताः किंचिज्जानन्ति जनयन्त्यपि ।
___ संसारवासनान्तेपि यद्याप्ताः किं ठकैः कृतम् ॥ २१ ॥ जिनको रागादिने जीतलिया है-जो राग द्वेष मोहसे अभिभूत हैं, और कुछ अल्प ज्ञानके धारण कर
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नेवाले हैं, एवं संसारकी वासनाको-गृह गृहिणी आदि पदार्थोंकी अभिलाषाओंके संसारको संसारमें उत्पन्न कर रहे हैं, ऐसे पुरुषोंमें भी यदि लोक आप्त-यथार्थ वक्ता सर्वज्ञकी कल्पना करते हैं तो फिर ठगोंने ही क्या विगाडा है ? भावार्थ--जब कि दोनो ही संसारकी जनताको ठगनेवाले हैं तो ठगोंकी निन्दा क्यों की जाती है-उनको भी आप्त क्यों नहीं मानलिया जाता ? अत एव जो सकषाय और अल्पज्ञ हैं उनको आप्त नहीं माना जा सकता।
जो आप्ताभास हैं उनसे उपेक्षा करनेका उपदेश देते हैं:योऽर्धाङ्गे शूलपाणिः कलयति दयितां मातृहा योत्ति मांस, पुस्ख्यातीक्षाबलायो भजति भवरसं ब्रह्मवित्तत्परो यः। : यश्च स्वर्गादिकामः स्यति पशुमकृपो भ्रातृजायादिभाजः,
कानीनाद्याश्च सिद्धा य इह तदवधिप्रेक्षया ते ह्युपेक्ष्याः ॥ २२ ॥ महादेव अपने शरीरके आधे भागमें दयिता-पार्वतीको और हाथमें शूल-त्रिशूलको धारण करता है, बुद्धने अपनी माताका घात कर-उत्पन्न होते ही माको मारकर मांसका भक्षण किया। सांख्य पुरुष और प्रकृति इन दोनों ही के ज्ञानके बलसे विषयसुखका सेवन करता है । वेदान्ती ज्ञान ही है एक रूप जिसका ऐसे ब्रह्मतत्वका जाननेवाला होकर भी उसी संसारके रसका अनुभव करनेवाला है। याज्ञिक ब्राह्मण भी स्वर्ग पुत्र धन धान्यादिकी इच्छाको पूरा करनेकेलिये निर्दय होकर बकरी आदि पशुओंके वध करनेमें प्रवृत्त होता है। इनके सिवाय और भी जो कानीन-व्यांस वसिष्ठ प्रभृति अनेक पुरुष प्रसिद्धि प्राप्त करगये हैं। जिन्होंने कि भाईकी स्त्री या चाण्डालकन्या आदिका सेवन किया था उन सबका स्वरूप ग्रंथों में लिखा हुआ है। अत एव उन शास्त्रोंपर भले प्रकार विमर्ष-विचार
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-व्यास कन्यासे उत्पन्न हुए थे इसलिये उन्हें कानीन कहते हैं |
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खनमार
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बध्याय
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कर अपने हितकी इच्छा रखनेवाले विचारशील सुमुक्षुओंको इन शिव सुगत सांख्य प्रभृति आप्ताभासोंसे उपेक्षा करना ही उचित है- इनसे न राग करना चाहिये और न द्वेष ।
युक्तियों से भले प्रकार सिद्ध परमागमके द्वारा जिनने पदार्थोंका अर्थ समझलिया है और उसके अनुसार जो व्यवहार करता है ऐसा पुरुष ही मिध्यात्वपर विजय प्राप्त कर सकता है । इसी बातको प्रकट करते हैं:
यो युक्तः यानुगृहीत याप्तवचनज्ञप्त्यात्मनि स्फारिते, - वर्थेषु प्रतिपक्षलक्षितसदाद्यानन्त्यधर्मात्मसु । नीत्या क्षिप्तविपक्षया तदविनाभूतान्यधर्मोत्थया,
धर्मं कस्यचिदर्पितं व्यवहरत्याहन्ति सोऽन्तस्तमः ॥ २३ ॥
ओवचनोंके द्वारा उत्पन्न होनेवाले ज्ञानको आगम कहते हैं। यहांपर वचनशब्द उपलक्षण है। अत एव आसके हाथ वगैरह के संकेत से उत्पन्न होनेवाले ज्ञानको भी आगम कहते हैं । " सभी पदार्थ अनेकान्तात्मक - अनन्तधर्मात्मक हैं; क्योंकि वे सत् हैं। जो जो सत् होते हैं वे वे अनंतधर्मात्मक होते हैं। अथवा आप्तके वाक्य प्रमाण हैं; क्योंकि वे प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणसे अविरुद्ध हैं। जो जो इनसे अविरुद्ध होते हैं वे सब प्रमाण होते हैं । " इत्यादि अनेक युक्तियोंके द्वारा इस आगमकी प्रामाणिकता भले प्रकार सिद्ध है । इस युक्तिसिद्ध आ गमके द्वारा अन्तस्तत्वमें प्रकाशित हुए - स्फुरायमान हुए नास्तित्व अनित्यत्त्व अनेकत्व प्रभृति अनेक
१ जीवो त्ति हवदि वेदा उवओ विसेसिदो पहू कत्ता ।
भोत्ता य देहमेत्तो ण हु मुत्तो कम्मसंजुत्तो ॥ इत्यादि ।
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प्रतिपक्षी धर्मोके साथ साथ अस्तित्व नित्यत्व एकत्वादि अनंत धर्मोके धारण करनेवाले-अनन्तधर्मात्मक जीव पुद्गल धर्म अधर्म काल-आकाश इन छहो द्रव्योंमेंसे किसी भी एक वस्तुके एक 'अंशमें नयकी प्रवृत्ति हुआ करती है। क्योंकि नय उसीको कहते हैं जो कि प्रमाणके द्वारा गृहीत पदाथके एकदेशको विषय करता है। यह नयपरिपाटी जिस अंशमें प्रवृत्त होती है उसके विरुद्ध धर्मका निराकरण नहीं कस्ती; उसकी अपेक्षा रखती है, और अपने विवक्षित धर्मके अविनाभावी दूसरे धर्मोंसे उत्पन्न होती है। क्योंकि द्रव्यार्थिक नय पर्यायार्थिककी और पर्यायार्थिक द्रव्यार्थिककी अपेक्षा रखनेपर ही समीचीन नय माना जाता है; अन्यथा नहीं। यही बात सदसदादिक दूसरे धर्मोंके विषयमें भी है। इसी तरहसे जिस प्रकार अविनाभावी हेतु धर्मरूप धूमके द्वास पर्वतमें अग्निका ज्ञान प्राप्त करके लोग उसका प्रवृत्ति निवृत्तिरूप व्यवहार करते हैं उसी प्रकार उक्त युक्तिसिद्ध आगमके द्वारा जाने हुए पदार्थोमेंसे किसी एकके विवक्षित-अर्पित धर्मके विषयमें व्यवहा नयपरिपाटीके द्वारा प्रवृत्ति निवृत्तिरूप व्यवहार किया करते हैं। जो इस प्रकारसे व्यवहार करनेवाले हैं वे ही अन्तरङ्गमें लगे हुए अन्धकार-मिथ्यात्व या अज्ञानको दूर किया करते हैं । अपने या परके मिथ्यात्वका नाश कर सकते हैं तथा करते हैं।
जीवादिक छह द्रव्योंमेंसे प्रत्येकको युक्तिद्वारा सिद्ध करते हैं:
सर्वेषां युगपद्गतिस्थितिपरीणामावगाहान्यथा,योगाद्धर्मतदन्यकालगगनान्यात्मा त्वहंप्रत्ययात् ।' सिध्येत् स्वस्य परस्य वाक्प्रमुखतो मूर्तत्वतः पुद्गल
स्ते द्रव्याणि षडेव पर्ययगुणात्मानः कथंचिद् ध्रुवाः ॥ २४ ॥ जीव पुद्गल धर्म अधर्म आकाश और काल द्रव्य, इस तरह कुलद्रव्य छह ही हैं । जो गुग-पर्यायात्मक है म. घ. १८
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धर्म
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-जिसके गुण और पर्याय ये दो स्वभाव हैं उसको द्रव्य कहते हैं । ये छहो द्रव्य कथंचित् अनित्य हैं। इनमें जो जीव द्रव्य है वह दो प्रकारका है। एक अपने शरीरमें स्थित, दूसरा परके शरीरमें स्थित। पहले प्रकारका जीव अहंप्रत्ययसे सिद्ध होता है-" मैं सुखी हूं," इत्यादि अनुभवके द्वारा अपने शरीरमें स्थित आत्माका स्वयं संवेदन होता है । अत एव वह सिद्ध है । परशरीरमें स्थित आत्मा भी वचन प्रभृति हेतुओंसे सिद्ध होता है । क्योंकि किसी प्रश्नका उत्तर देना या कुछ कहना तब तक नहीं बन सकता जब तक कि उस शरीरमें आत्मा न हो। इसी तरह शरीर वा इन्द्रियोंकी कुछ श्वासोच्छासादिक क्रियाएं वा चेष्टाएं भी ऐसी हैं जो कि विना आत्माके नहीं हो सकती । अत एव उनसे भी परशरीरमें स्थित आत्माका अस्तित्व सिद्ध होता है। पुद्गलद्रव्यका अस्तित्व मूर्तत्व हेतुसे सिद्ध होता है । रूप रस गंध स्पर्श इन चार गुणोंके समूहका नाम मूर्ति है। मूर्ति-ये चारो गुण जिसमें पाये अंय उसको मूर्त कहते हैं। प्रत्येक पुद्गल में ये चारो गुण पाये जाते हैं । परंतु कहीं तो ये चारो ही उद्भूत होते हैं और कहीं कोई उद्भूत, कोई अनुभृत। अत एव इनमें से जहां एक भी दीखता है वहां चारो ही माने जाते हैं। और उस से पुद्गल द्रव्यका अस्तित्व माना जाता है-सिद्ध होता है । इस प्रकार ये दोनो ही द्रव्य प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमा
णके द्वारा सिद्ध हैं। . .. H. शेषके चार द्रव्य --धर्म अधर्म काल और आकाश भी हेतु प्रमाणसे सिद्ध हैं । क्योंकि इन चार
द्रव्योंके विना गति स्थिति परिणमन और अवगाहन ये चारो ही एक कालमें सबमें नहीं बन सकते । जिस समय जीव या पुद्गल गमन करते हैं या ठहरते हैं उसी समयमें उनका परिणमन और अवगाहन भी हो रहा है। एक समयमें सब पर्यााँका बाह्य सहायक एक ही द्रव्य नहीं हो सकता। एक द्रव्य एक समय में एक ही कार्यका साधक हो सकता है। अत एव एक समय में होनेवाले इन चार कार्यों के भी बाह्य सहायक चार ही द्रव्य होने चाहिये । जो गतिका सहायक है उसको धर्मद्रव्य, जो स्थितीका सहायक है उसको अधर्मद्रव्य, जो परिणमनका सहायक है उसको कालद्रव्य और जो अवगाहनका सहायक है उसको आकाशद्रव्य कहते हैं । इस प्रकार छहो द्रव्योंका अस्तित्व प्रमाणस सिद्धहै।
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श्रमणार
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ध्याय
भावार्थ - जो गुणपर्यायस्वभाव है - जिसके गुण ओर पर्याय दोनो ही स्वभाव हैं उसको द्रव्य कहते हैं । सहभावी स्वभावको गुण और क्रमभावी स्वमात्रको पर्याय कहते हैं। परिणमन सदा स्थिर नहीं रहता; क्योंकि वह उत्पत्तिविनाशात्मक है । पदार्थ स्वभावसे ही सदा एक रूपमें नहीं रहता- वह प्रतिपक्ष एक रूपसे दूसरे रूपमें बदला करता है। इस बदलते रहनेवाले क्रमभावी स्वभावको ही पर्याय कहते हैं । इस प्रकार पर्यायात्मक रहते हुए भी पदार्थ में प्रतिसमय नित्यताका भी प्रत्यय हुआ करता है । जैसे कि यह वही वस्तु है जिसको पहले देखा था । अथवा " जलसे पृथ्वी और पृथ्वीसे पुनः जलके होजानेपर भी, एवं वायुसे जल और जलसे पुनः वायु आदिके होजानेपर भी उसमें सदा पुद्गलपनेका अनुभव होता है " जिस जिस स्वभावके कारण ऐसा प्रत्यय होता है वह वह पदार्थमें सदा रहा करता है । अत एव इस सदा रहनेवाले - सहभावी स्वभावो गुण कहते हैं। जैसे कि पुनलद्रव्य रूपगुणरूप स्वभाव है । उसी प्रकार रूपगुणका बदलते रहना - हरेसे पाली, पीसे काला इत्यादि आकारांतरोंका होते रहना भी इस पुगलद्रव्यका ही स्वभाव है । जिस प्रकार पुद्गलमें यह एक रूप गुण है उसी प्रकार और भी अनन्त गुण हैं । पुलके समान जीवादिकमें भी अनंत गुण हैं। किन्तु जो गुण पुगलमें हैं वे ही जीवादिकमें नहीं हैं । द्रव्यों में गुण सामान्य विशेषरूपसे रहते हैं - कुछ सामन्य गुण रहा करते हैं कुछ विशेष । इस प्रकार पदार्थ के दो स्वभाव हैं; एक गुण दूसरा परिणमन । पदार्थका कोई भी स्वभाव किसी भी क्षण में उससे पृथक नहीं हुआ करता । अत एव प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण में गुणस्वभाव की अपेक्षा ध्रुव और परिणमनस्वभावकी अपेक्षा उत्पत्तिविनाशात्मक है । इसीलिये उसको कथंचित् अनित्य माना है। तथा इसीसे उसमें भेदाभेदादिकी भी सिद्धि होती है ।
ऊपर जो धर्म अधर्म आदि द्रव्योंको सिद्ध करनेकेलिये गति स्थिति आदि सबकी युगपत् सहायता करनेका उल्लेख किया गया है उस विषय में यह स्पष्ट कर देने की आवश्यकता है कि गति और स्थिति सत्र द्रव्योंमें नहीं पाये जाते । ये जीव और पुद्गलमें ही होते हैं। किंतु परिणमन और अवगाहन सभी द्रव्यों में रहा करता है । क्योंकि पर्याय दो प्रकारकी होती हैं- १ अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय । सूक्ष्म परिणमनको अर्थपथीय और स्थू
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परिणमनको व्यंजनपर्याय कत हैं । धर्म अधर्म आकाश और काल इनमें अर्थपर्याय भी होती है', तथा 'जीव और पुद्गल में दोनों तरहेकी पर्याय होती हैं। ।
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पर्यायोंकी तरह गुणोंके भी दो भेद हैं-मूर्त और अमूर्त। मूर्त द्रव्य में रहनेवाले गुणाको मूर्त और अमूर्त द्रव्योंमें रहनेवाले गुणोंको अमूर्त कहते हैं । पुद्गल द्रव्य मूर्त और शेष द्रव्य अमूर्त हैं; जैसा कि ऊपरके कथनसे स्पष्ट होता है । संसारी आत्माको भी उपचारसे मूर्त कहते हैं; जैसा कि अंगे चलकर बतावेंगे ।
इस प्रकारके गुण और पर्याय जिसके स्वभाव हैं उसको द्रव्य कहते हैं । इस कहने का यह अभिप्राय "नहीं समझना चाहिये कि ये स्वभाव भिन्न हैं। किंतु इन दो स्वभावाके समूहका ही नाम द्रव्य है । अत एव जैसा कि स्वभाव और स्वभाववान् में अन्तर होना चाहिये वैसा ही इनमें भेद भी है। इस प्रकार अपने स्वभावसे कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न द्रव्य उक्त प्रकारका है - जीव पुद्गल धर्म अधर्म आकाश और काल । इन द्रव्योंकी सत्ता ऊपर हेतुपूर्वक सिद्ध की जा चुकी है ! अत एव उसके यहां दुहराने की आवश्यकता नहीं है। किंतु यह अवश्य समझना चाहिये कि द्रव्य छह ही हैं और ये ही छह द्रव्य हैं; न कम न ज्यादे, और न अन्य । जैसा कि नैयायिकोंने पृथिवी जल अग्नि वायु आकाश काल दिशा आत्मा और मन, ये नव द्रव्य हैं, ऐसा कहा है । यह इसलिये ठीक नहीं है कि इनमेंसे आदिके चार द्रव्य-पृथिवी जल अग्नि और वायु, एक पुद्गल द्रव्यमें ही अन्तर्भूत होजाते हैं । क्योंकि इन सभी मैं पुगलका लक्षण मूर्त्तिमत्ता पाया जाता है । यह जो कहा जाता है कि पृथिवीमें रूप रस गंध स्पर्श चारो ही गुण पाये जाते हैं; किंतु जलमें गंधके सिवाय तीनः और अग्निमें गंध रसको छोडकर
नमः काला अथपयायगोचराः । व्यनाथन संबद्ध द्वावन्यो जीवपुद्गला ॥ १ ॥ स्थूलो व्यवगम्यों नश्वरः स्थिरः' 1 सूक्ष्मः प्रतिक्षणध्वंसी पर्यायश्वार्थ संज्ञकः ॥ २ ॥ इति ॥
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अनगार
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दो एवं वायुमें एक रूप ही पाया जता है, सो ठीक नहीं है । क्योंकि यह पहले बता चुके हैं कि इनमें से कहीं तो चारो ही गुण उद्भूत होते हैं और कहीं कोई उद्भूत हुआ करता है, और कोई अनुभृत। किंतु प्रत्येक पुद्गलमें सत्ता चारो ही की रहा करती है। क्योंकि यदि ऐसा न माना जायगा तो जलसे वायु और वायुसे जलका स्वरूप बदल जानेपर उसमें नवीन गुण किस तरह उत्पन्न हो सकते हैं ? क्योंकि जो गुण मूलमें नहीं हो वह उसकी पर्यायमें भी नहीं हो सकता । अत एव चारो ही में चारो गुण और चारों को पुद्गल द्रव्य ही मानना चाहिये । इसी प्रकार दिशापदार्थ भी भिन्न नहीं है। उसका आकाशमें अन्तर्भाव होजाता है। क्योंकि आकाशप्रदेशोंकी पंक्तिमें ही, इधरको पूर्व और इधरको पश्चिम, ऐसा व्यवहार होता है। दिशापदार्थ स्वतंत्र है। इस वातका साधक कोई हेतु या कारण नहीं है। मन दो प्रकारका होता है। एक द्रव्यमन दूसरा भावमन । संज्ञी जीवोंके हृदयस्थानमें जो अष्टदल कमलके आकारका पौद्गलिक स्कन्धविशेष होता है, जिसकी कि सहायतासे जीव विचारादि किया करता है, उसको द्रव्यमन कहते हैं। इसका पुद्गलमें अन्तर्भाव होजाता है। और जो भावमम है वह ज्ञानरूप है । अत एव उसका आत्मामें अन्तर्भाव हो जाता है। इसलिये मन नामका भी कोई स्वतंत्र द्रव्य सिद्ध नहीं होता। इसी तरह और भी जो अनेक प्रकारसे लोगोंने द्रव्यकी कल्पनाएं कर रक्खी हैं सो ठीक नहीं हैं। किन्तु उपर्युक्त छह द्रव्य ही प्रमाणसे सिद्ध हैं जो कि अपने गुणपर्याय स्वभावके कारण कर्थचित् नित्य और कथंचित् अनित्य. कथंचित् भिन्न कथंचित् अभिन्न, कथंचित् एक कथचित् अनेक, इत्यादि अनेक अपेक्षाओंसे अनेकरूप हैं । द्रव्यरूपकी अपेक्षा जीवादिक समस्त वस्तु नित्य है; क्योंकि, उनमें यह वही है, ऐसा ज्ञान होता है। जो देवदत्त बाल्यावस्थामें था वही. अब युवावस्थामें भी है इस प्रकारका प्रत्यभिज्ञानके द्वारा निर्बाध व्यवहार सभी लोग करते हैं। इसका कारण द्रव्यका नित्य स्वभाव ही है । इसी तहर पर्यायदृष्टि से सभी वस्तु अनित्य हैं। क्योंकि बाल्यावस्थासे युवावस्था भिन्न है ऐसा सभी लोग मानते हैं । और यह ज्ञान भी प्रमाणसे सत्य सिद्ध है। किंतु बाल्यावस्थाके विनाश और युवावस्थाके उत्पादके विना यह व्यवहार नहीं हो संक्रतो, 'जो कि द्रव्यको अनित्य माने विना नहीं बन सकता। अत एव द्रव्य के उक्त युक्तिसिद्ध स्वरूप 'और भेदोंको वैसा ही जानकर तथाभूत श्रद्धान करना चाहिये । "
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धर्मादिक द्रव्योंकी तहरसे आस्रवादिक तत्वोंको भी भले प्रकार जानकर उनका श्रद्धान करनेका उपदेश देते हैं।
धर्मादीनधिगम्य सच्छुतनयन्यासानुयोगैः सुधीः, श्रद्दध्याविदाज्ञयैव सुतरां जीवांस्तु सिद्धतरान् । स्यान्मनन्दात्मरुचेः शिवाप्तिभवहान्यर्थो ह्यपार्थः श्रमो,
मन्येताप्तगिरास्रवाद्यपि तथैवाराधयिष्यन् दृशम् ॥ २५ ॥ जो मुमुक्षु विशिष्ट ज्ञानके धारक हैं उनको समीचीन प्रमाण नय निक्षेप और अनुयोगोंके द्वारा धर्मादिक द्रव्योंको जानकर उनका श्रद्धान करना चाहिये । किंतु जो मन्दज्ञानी हैं-जो इन उपायोंके द्वारा द्रव्यस्वरूपका विमर्ष करने और ज्ञान प्राप्त करनेकी शक्ति नहीं रखते उनको केवल आज्ञाके अनुसार ही उनका ज्ञान व श्रद्धान करना चाहिये । तथा विशेषज्ञानी और मंदज्ञानी दोनो ही प्रकारके जीवोंको ससारी और मुक्त दो प्रकारके जीवतंचका ज्ञान व श्रद्धान विशेष रूपसे प्राप्त करना चाहिये। क्योंकि जिनकी आत्मतत्त्वके विषयमें रुचि-श्रद्धा मंद है उनका, मोक्षकी प्राप्ति और संसारका निरास ही जिसका प्रयोजन है ऐसा, कोई भी किया गया परिश्रम सफल नहीं होता-व्यर्थ जाता है । अत एव सम्यग्दर्शनका आराधन करनेवाले उक्त उद्योतादिकके द्वारा उसको उद्दीप्त व दृढ करनेकी इच्छा रखनेवालोंको धर्मादिक द्रव्यों व विशेष कर आत्माके स्वरूप और भेदों तथा आस्रवादिक तत्वों-आस्रव बंध पुण्य पाप संवर निर्जरा मोक्षका आप्त भगवानेक उपदेशानुसार ज्ञान व श्रद्धान करना चाहिये।
भावार्थ-द्रव्यादिकोंके जानने के उपाय चार तरहके हैं-प्रमाण नय निक्षेप और अनुयोग । प्रमाण और नयका स्वरूप बताया जा चुका है कि समस्त वस्तुको विषय करनेवाले समीचीन ज्ञानको प्रमाण और
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वस्तुके किसी एक अंशके विषय करनेवाले को नय कहते हैं । प्रमाण और नय दोनो ही अर्थरूप शब्दरूप और ज्ञानरूप इस तरह तीन तीन प्रकारके होते हैं। इनमें भी स्यादस्ति आदि सप्तभंगीकी प्रवृत्ति हुआ करती है। जिसका कि विशेष स्वरूप ग्रंथान्तरों में बताया गया है।
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पदार्थोके व्यवहार करनेके उपायको निक्षेप कहते हैं । इसके चार भेद हैं-नाम स्थापना द्रव्य भाव । गुणकी अपेक्षा न करके केवल व्यवहार प्रयोजनकी सिद्धिकेलिये जो किसीकी. कुछ भी संज्ञा रखदी जाती है उसको नाम कहते हैं। जैसे कि हीरालाल । साकार या निराकार किसी भी वस्तुमें किसी अन्य वस्तुकी, यह वही है ऐसी, कल्पनाको स्थापना कहते हैं जिससे कि उस वस्तुका-जिसमें कल्पना की गई है उस -वस्तुके समान, जिसकी कि कल्पना की गई है, व्यवहार हो या किया जा सके। जैसे कि देव-ऋषभादिकी मूर्ति या सतरंजके मुहरे। जो वस्तु वर्तमानमें जिसरूप नहीं है, किंतु भूत कालमें वह उस प्रकारकी थी अथवा भविष्यत्में उस प्रकारकी होगी उसका वर्तमान में भी उसी रूपसे व्यवहार करना उसको द्रव्यनिक्षेप कहते हैं। जैसे कि भूत राजा या भविष्यत राजा-युवराजको वर्तमानमें राजा कहना । जो पदार्थ वर्तमानमें जिसरूप है उसका उसी रूपसे व्यवहार करना इसको भावनिक्षेप कहते हैं। जैसे कि पूजा करते हुए मनुष्यको पुजारी कहना । इस प्रकार ये चार निक्षेप हैं जिनके द्वारा जीवादिक द्रव्यों व आस्रवादिक तत्वों व पदार्थों तथा सम्यग्दर्शनादिक मोक्षके मार्गका यथार्थ व्यवहार किया जाता है । इनका विशेष स्वरूप श्लोकवार्तिक प्रभृति ग्रंथों में देखना चाहिये । यहाँपर केवल मूल अर्थमात्र कहदिया गया है।
इन निक्षपोंके सिवाय जो पदाथाका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करनेकेलिये उपाय बताये गये हैं उनको अनुयोग कहते हैं। अनुयोगके छह भेद हैं-निर्देश स्वामित्व साधन आधिकरण स्थिति और विधान ! अथवा , आठ भेद हैं - सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर भाव और अल्पबहुत्व । इसका भी विशेष स्वरूप ग्रंथान्तरोंमें ही देखना चाहिये । आस्रवादिक तत्वोंका स्वरूप आगे चलकर लिखेंगे । अत एव यहां उसके दुहरानेकी आवश्यकता नहीं है। जो विशेषज्ञानी हैं उनको इन प्रमाणादिके द्वारा जीवादिकके द्रव्यों व
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आरुवादिक तत्वोंका स्वरूप भले प्रकार समझकर श्रद्धान करना चाहिये। जो मंदज्ञानी हैं उनको आज्ञानुसार-तत्वोंके स्वरूपके विषय में जो भगवान्ने कहा है वह सब सत्य है; क्योंकि वह श्री जिनेन्द्रदेवका कहा हुआ है; जो कि सर्वज्ञ वीतराग होनेके कारण अन्यथाभाषी नहीं हैं-समस्त द्रव्यों व तत्वोंका श्रद्धान करना चाहिये । किंतु आत्मरुचिको बढाने और दृढ करनेका प्रयत्न दोनोंको ही विशेष रूपसे करना चाहिये; क्योंकि इसके विना आत्मकल्याणके सभी कार्य व्यर्थ हैं ।
जीव पदार्थ स्वरूपका विशेष रूपसे ज्ञान कराते हैं:जीवे नित्यर्थसिद्धिः क्षणिक इव भवेन्न क्रमादक्रमाद्वा, नामूर्ते कर्मबन्ध गगनवदणुद् व्यापकेऽध्यक्षबाधा । नैकस्मिन्नुद्भवादिप्रतिनियमगतिः क्ष्मादिकार्ये न चित्वं, यत्तन्नित्येतरादिप्रचुरगुणमयः स प्रमेयः प्रमाभिः ॥ २६ ॥
जिस प्रकार जीवके सर्वथा क्षणिक माननेसे, जैसी कि बौद्धादिकोंकी कल्पना है, अर्थसिद्धि-कार्य की निपत्ति नहीं हो सकती उसी प्रकार सर्वथा नित्य माननेसे भी, जैसी कि यौगादिकोंकी कल्पना है, अर्थ-क्रियाकी सिद्धि नहीं हो सकती । जिसमें कि पूर्वाकारका विनाश, उत्तराकारका उत्पाद और सामान्य आकारका अवस्थान पाया जाता है ऐसे परिणमनके द्वारा ही कार्यकी सिद्धि हो सकती है । अत एव यदि यह माना जाय कि जी सर्वथा क्षणिक है एक क्षणके बाद ही निरन्वय नष्ट हो जाता है तो, अथवा यह माना जाय कि वह सर्वथा
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१ - यद्यपि यहां पर प्रसंगवश जीवका ही नाम लिया है, किंतु सभी द्रव्योंके विषय में ऐसा ही समझना चाहिये ।
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नित्य है - सदा और सर्वत्र एक रूपमें ही रहता है उसमें किसी भी प्रकारका परिणमन नहीं होता, तो देशक्रमसे या कालक्रमसे अथवा अक्रमसे- युगपत् अर्थात् किसी भी प्रकारसे कार्यकी निष्पत्ति नहीं हो सकती ।
इसी प्रकार यदि जीवको आकाशके समान सर्वथा अमूर्त माना जाय तो उसके साथ कर्मका बंध नहीं हो सकता। क्योंकि मूर्तका ही मूर्तके साथ बंध हो सकता है । अतएव यदि संसारी आत्माको मूर्ति रूप रत गंध स्पर्श तथा स्निग्धरूक्षत्वसे रहित आकाशके समान माना जाय, जैसा कि नैयायिकोंने माना है तो, उ· सके साथ पुण्यपापरूप कर्मोंका, जो कि मूर्त पौगलिक हैं, बंध नहीं हो सकता । इसी तरह आत्माका व्यापक स्वरूप भी उसी तरह प्रत्यक्षविरुद्ध है; जिस तरहसे कि उसका अणुरूप । कोई कोई आत्माको अणुके समान और कोई कोई सर्वत्र व्यापक मानते हैं । किंतु ये दोनो कल्पनाएं प्रत्यक्षविरुद्ध हैं; जैसा कि आगे चलकर बताया जायगा । यदि आत्माको एक अद्वैत और विभ्रु माना जाय, जैसा कि ब्रह्माद्वैतवादियोंने माना है तो, जन्म मरण जरा प्रभृति कार्योंके विशिष्ट नियमकी, जैसा कि देखनेमें आता है, सिद्धि नहीं हो सकती । यदि ऐसा माना जाय कि आत्मा पृथिवी आदि भूतोंसे ही उत्पन्न होता है- उन्हीका कार्य है जैसा कि चार्वाकादिकोंने माना है तो उसमें चैतन्य - ज्ञानदर्शनका प्रत्यय नहीं हो सकता। क्योंकि जड पदार्थ अपनी जडताका परित्याग नहीं कर सकते । अत एव आत्माका स्वरूप जैसा कि श्री अरहंतदेवने कहा है कि, वह कथंचित् नित्य है कथंचित् अनित्य, कथंचित् मूर्त है कथंचित् अमूर्त, कथंचित् एक है कथंचित् अनेक, इत्यादि अधर्मात्मक है; उसी प्रकार उसका स्वसंवेदनप्रत्यय अनुमान प्रमाण या आगम प्रमाणके द्वारा निश्चय करना चाहिये और श्रद्धान करना चाहिये ।
यह बात पहले बताई जा चुकी है कि जीवादिक वस्तुओंको सर्वथा नित्य अथवा सर्वथा क्षणिक माना जायगा तो अर्थक्रियाकारिताकी सिद्धि नहीं होसकती। किंतु इसपर प्रश्न हो सकता है कि यदि अर्थक्रियाकारिता न मानी जाय तो क्या हानि है ? इसका उत्तर देते हैं ओर बताते हैं कि विना अर्थक्रियाकारिताके वस्तुका वस्तुत्व ही नहीं रह सकता । :
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नित्यं चेत्स्वयमर्थकृत्तदखिलार्थोत्पादनात् प्राक क्षणे, . नो किंचित् परतः करोति परिणाम्येवान्यकाक्षं भवेत् । । तन्नतत् क्रमतोर्थकृन्न युगपत् सर्वोद्भवाप्तेः सकृन्,
नातश्च क्षणिकं सहार्थकृदिहाव्यापिन्यहो कः क्रमः ॥ २७ ॥ वस्तुको यदि सर्वथा नित्य माना जाय तो यह प्रश्न होता है कि वह कूटस्थ नित्य है या परिणामी नित्य ? प्रथम पक्ष प्रत्यक्षविरुद्ध है । अत एव यदि दूसरा पक्ष माना जाय तो यह प्रश्न होता है कि उसका परिणमन किस प्रकारसे होता है? क्योंकि पारणमन दो प्रकारसे हो सकता है। एक तो बाह्य सहकारी कारणोंकी अपेक्षा न रखकर स्वयं अपनी ही सामर्थ्यसे । दूसरा, सहकारी कारणोंकी अपेक्षा रखकर । इनमेंसे यदि पहला पक्ष माना जाय तो वह वस्तु जिस जिस कार्यरूप परिणमन करनेकी योग्यता रखती है उन सभी कार्योंकी उत्पत्ति एक ही क्षणमें हो जा सकती है। क्योंकि उन कायाँको अपने उत्पन्न होनेकेलिये वस्तुकी उपादान शक्तिके सिवाय किसी बाह्य कारणकी अपेक्षा नहीं है । ऐसा होजानेपर एक ही क्षणमें समस्तकार्यरूप परिणत होजानेसे कारणवस्तु द्वितीया द क्षणों में कुछ भी परिणमन नहीं कर सकती । अत एव पहला पक्ष ठीक नहीं ठहरता-नित्य होकर भी वस्तु स्वयं अर्थकृत् सिद्ध नहीं होती । इसकेलिये यदि दूसरा पक्ष माना जाय तो उसका अर्थ यही होगा कि वस्तु परिणामी ही है ।-प्रतिक्षण उसमें उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकता लक्षण रहता है - वस्तु कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य है। अत एव यही कहना चाहिये कि वस्तु नित्य माननेपर दोनो ही अवस्थाओंमें अर्थकृत सिद्ध नहीं हो सकती । न तो क्रमसे ही कार्यकारी सिद्ध हो सकती है और न युगपत् ही। क्योंकि एक ही क्षणमें सब कार्योंके उत्पन्न होनेका दोष उपस्थित हो सकता है; जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है। यहांपर बौद्धादिक जो कि क्षणिकवादी हैं, कह सकते हैं कि यदि नित्य वस्तु कार्यकारी सिद्ध नहीं होती तो ठीक है। किन्तु क्षणिक वस्तु तो अर्थकृत् सिद्ध हो सकती है। किन्तु उनका भी कहना सिद्ध नहीं हो सकता । क्योंकि
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उसमें भी एक क्षणमें समस्त कार्योंके उत्पन्न होनेका पूर्वोक्त दोष उपस्थित होगा। इसपर कहा जा सकता है कि यह दोष तब आ सकता है जब कि उसको युगपत् अर्थकृत माना जाय । किंतु हर्म उसको क्रमसे अर्थकत मानते हैं। पर यह कहना भी ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि वणिकमें भी क्रम ! यह कस हो सकता है कि वस्तु क्षणिक भी हो और क्रमसे कार्यकारी भी हो? इस प्रकार विरुद्ध निरूपण करना एक आश्चर्यकी बात है। क्योंकि यह बात उन्होंने मानी है कि वस्तु देश या कालका अनुवर्तन नहीं करती। जैसा कि
“यो यत्रैव स तत्रैव यो यदेव तदेव सः।
न देशकालयोया तिभीवानामिह विद्यते ॥" अर्थात् - पदार्थ देश और कालको व्याप्त करके नहीं रहते । किंतु जो जहां है वह वहीं रहता और जो जिस कालमें हैं वह उसी कालमें रहता है। जीव कथंचित् मूर्त है इस बातको बताते हुए उसके साथ होनेवाले कर्मबन्धका समर्थन करते हैं:
खतोऽमूर्तोपि मूर्तेन यद्गतः कर्मणैकताम् ।।
पुमाननादिसंतत्या स्यान्मूर्तो बन्धमेत्यतः ॥ २८ ॥ यद्यपि जीव स्वतः स्वभावसे अमृत है-रूप रस गंध स्पर्शसे रहित है। फिर भी मूर्त कर्मों के साथ इस तरह एकताको प्राप्त होगया है जिस तरहसे कि क्षीरमें नीर मिल जाता है। कर्मोंकी यह संतान अनादि कालसे चली आती है। जिस तरह बीजसे वृक्ष और वृक्षसे बीज होनेका प्रवाह अनादि है, उसी तरह कर्मोंसे जीवकी मूर्तता और उससे पुनः कौके संचय होनेका प्रवाह अनादि है। इसी प्रवाहके कारण जीव व्यवहारसे मूर्त माना जाता है। क्योंक दोनोंके प्रदेश परस्परमें इस तहरसे प्रवेश कर जाते हैं-एकके प्रदेश दूसरे द्रव्यके
। १-दि. जैन सिद्धान्तको माननेवाले ।
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प्रदेशोंमें इस तरहसे मिल जाते हैं कि वे मिलकर एक ही पर्यायरूप होजाते हैं। अत एव स्वतः स्वभावसे जीवके अमूर्त रहते हुए भी व्यवहारसे उसमें मूर्तता मानी जाती है। और इसीलिये वह कर्मबन्धको प्राप्त हो जाता है । क्योंकि मृर्तके साथ बंध होनेमें कोई बाधा नहीं आ सकती। इस तरह आगमके अनुसार आत्माकी मूर्तता सिद्ध है। किंतु इस विषयमें युक्ति भी दिखाते हैं:
विद्युदाद्यैः प्रतिभयहेतुभिः प्रतिहन्यते ।
यच्चाभिभूयते मद्यप्रायैर्मूर्तस्तदङ्गभाक् ॥ २९ ॥ अतय॑तया उपस्थित होनेवाले विजलीकी गर्जना, मेघका शब्द या वज्रपात प्रभृति विविध प्रकारके त्रासके कारणोंसे यह जीव प्रतिहत-स्तब्ध हो जाता है-इसकी गति रुक जाती है। इसी तरह मदिरा भङ्ग कोदों विष धतूरा अफीम आदि पदार्थोसे इसकी सामर्थ्य नष्ट हो जाती है। इससे सिद्ध होता है कि अङ्ग -शरीरको अपने अङ्गकी तरहसे धारण करनेवाला यह जीव मूर्त है। क्योंकि यदि यह शरीरी-संसारी जीव, क्योंकि जितने संसारी जीव हैं वे सब मूर्त हैं ऐसा पहले कहा गया है, मूर्त न हो तो उसकी उक्त अवस्थाएं नहीं हो सकती हैं ।
इस प्रकार आगम और युक्तिसे सिद्ध होनेपर भी जिसके कर्मकी मूर्तता भले प्रकार अनुभवमें आजाय ऐसा प्रमाण बताते हैं :
यदाखुविषवन्मूर्तसंबन्धेनानुभूयते ।
यथास्वं कर्मणः पुंसा फलं तत्कर्म मूर्तिमत् ॥ ३० ॥ कर्म दो प्रकारके हैं । एक तो वे जिनका कि फल सुखके कारणभूत इन्द्रियोंके विषय हैं। दूसरे वे
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कि जिनका फल दुःखके कारणभृत इन्द्रियोंके विषय है। इनमेंसे जो कर्म जिस तरहक है वह उसी तरहका फल उत्पन्न करता है । जिस तरहसे कि चूहेके विषसे शरीरमें चूहे सरीखे | ही जीव पडजात हैं। इसी तरहसे पुण्यकर्मके उदयसे सुखरूप और पाप कर्मके उदयसे दुःखरूप फल उत्पन्न होते हैं। ये फल मूर्त हैं और मूते पदार्थके संबंधसे ही जीव उनको भोगता है। इससे अनुभवमें आता है कि वह कर्म भी मूर्तिमान ही होना चाहिये । क्योंकि यह नियम है कि जिसका अनुभव मूर्त पदार्थके संबंधसे होगा वह । स्वयं भी अवश्य मूर्त ही होगा। अपने प्राप्त शरीरकी बराबर जीवका परिणाम होता है। इस बातको सिद्ध करते हैं। -
स्वाङ्ग एव स्वसंवित्त्या स्वात्मा ज्ञानसुखादिमान् ।
यतः संवेद्यते सर्वैः स्वदेहप्रमितिस्ततः ॥ ३१ ॥ : ज्ञान दर्शन सुख प्रभृति गुणों व पर्यायोंसे युक्त अपनी आत्माका अपने अनुभवसे अपने शरीरके भीतर ही सब जीवोंको संवेदन होता है । इससे मालूम होता है कि जीवका परिमाण अपने शरीरके बराबर ही है।
भावार्थ-निज आत्माका स्वसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा बाहर नहीं किंतु अपने शरीरमें ही अनुभव होता है। और शरीरमें कहीं कहीं नहीं किंतु उसके सभी प्रदेशोंमें होता है । इससे मालुम पडता है कि जीवका परिमाण अपने गृहीत शरीरके बराबर ही रहता है; न छोटा न बडा। क्योंकि जिस प्रकार दीपक जिस कमरे आदिकमें और उसके जितने प्रदेशोंमें प्रकाश करता हुआ उपलब्ध होता है वह उसी जगह और उतने ही प्रदेशोंमें है। ऐसा माना जाता है । उस पदार्थके अस्तित्वकी उपलब्धि उसके असाधारण गुणोंसे होती है। जिस तरह दीपके अस्तित्वका प्रत्यय उसके भासुरता आदि गुणोंसे होता है उसी प्रकार जीवके अस्तित्वका प्रत्यय
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उसके ज्ञानदर्शन सुख वीर्य प्रभृति असाधारण गुणोंसे होता है। इन गुणोंका अनुभव शरीरके भीतर ही होता है और उसके समस्त प्रदेशोंमें होता है। इससे सिद्ध है कि आत्माका परिमाण शरीरके बराबर ही है ।
प्रत्येक शरीरमें जीव भिन्न भिन्न है, यह बात दिखाते हैं - __ यदैवैकोश्नुते जन्म जरां मृत्यु सुखादि वा।
तदैवान्योऽन्यदित्यनया भिन्नाः प्रत्यङ्गमङ्गिनः॥ ३२॥ जिस समयमें एक जीव जन्म धारण करता है उसी समयमें दूसरा वृद्ध हो जाता है। या एक बुढ्ढा होता है तो उसी समयमें दूसरा जन्म ग्रहण करता है। जब कि एक सुख और ऐश्वर्यका भोग करता है तो दूसरा उसी समयमें दुःख और दुर्गतियोंको भोगता है। यह जगत्की विचित्रता है, जो कि प्रायः सभीके निर्बाध और वास्तविक ज्ञानमें प्रतिभासित होती है। इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक शरीरमें शरीरका धारण करनेवाला आत्मा भिन्न भिन्न ही है। " जीव पृथिवी आदि भूतोंका ही कार्य है " इस बातका, चार्वाकको लक्ष्य करके खण्डन करते हैं:
चितश्चेत् क्ष्मायुपादानं सहकारि किमिष्यते ।
तश्चेत् तत्त्वान्तरं तत्त्वचतुष्कनियमः क सः ॥ ३३ ॥ . “जीव पृथिवी आदि भूतोंका कार्य है," चार्वाककी इस कल्पनापर सहज ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि वह भूतचतुष्पका कार्य है तो भृतचतुष्टय उसका उपादान कारण है या सहकारी कारण ? यदि
१,२-जी कार्यरूप परिणत होजाय उसको उपादान कारण कहते हैं, और जो कार्यके उत्पन्न होनेमें बाह्य सहायक हो उसको सहकारी या निमित्त कारण कहते हैं।
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उपादान कारण है तो उसका निमित्त कारण कौन माना जायगा ? क्योंकि विना निमित्त कारणके कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता । यह कार्यमात्र केलिये नियम है कि अन्तरङ्ग और बाह्य दोनो कारणोंके मिले विना वह उत्पन्न नहीं हो सकता। अत एव चेतना - कार्यकेलिये भी भूतचतुष्टयको अन्तरंग उपादान कारण मानलेनेपर भी सहकारी कारणकी अपेक्षा होगी। यदि दूसरे पक्ष के अनुसार भूतचतुष्टयको उसका निमित्त कारण माना जाय तो जीवतत्त्व भूतचतुष्टयसे भिन्न ही है ऐसा सिद्ध होता है । और ऐसा होनेपर " पृथिवी जल अग्नि और वायु ये चार ही तच्च हैं " ऐसा चार्वाकोंका नियम किस तरह स्थिर रह सकता है ? इससे सिद्ध होता हैं। कि जीवतत्व भूतचतुष्टयका कार्य नहीं है ।
चेतना किसको कहते हैं सो बताते हैं:
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अन्वितमहमिकया प्रतिनियतार्थावभासबोधेषु । प्रतिभासमानमखिलैर्यद्रूपं वेद्यते सदा सा चित् ॥ ३४ ॥
यथायोग्य इन्द्रियोंके ग्रहण करने योग्य घटपटादिक पदार्थों को प्रकाशित करनेवाले ज्ञानोंमें अन्वित और अहमहमिका - जिस मैंने पहले घटको देखा और जाना था वही मैं अब वस्त्रको देख जान रहा हूं. इस तरहके पूर्वाकार और उत्तराकारको विषय करनेवाले संवेदनके द्वारा अपने स्वरूपको प्रकाशित करनेवाले जिस रूपका सभी सदा स्वयं अनुभव करते हैं उसीको चेतना कहते हैं। इस चेतनाके तीन भेद हैं; कर्मफल चेतना, कर्मचेतना और ज्ञानचेतना ।
कौनसा जीव प्रधानतया किस चेतनाका अनुभव
जब कि चेतनाके न भेद हैं तो यह बताइये कि करता है ? इसका उत्तर देते हैं --
सर्वे. कर्मफलं . मुख्य मावेन स्थावरास्त्रसाः ।
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सकार्य चेतयन्तेऽस्तप्राणित्वा ज्ञानमेव च ॥ ३५ ॥ स्थावर-पृथिवीकायिकसे लेकर वनस्पति पर्यत पांचों ही प्रकारके सभी एकन्द्रिय जीव, मुख्यतया कर्मफलका अनुभव करते हैं। जो द्वीन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रियतक त्रस जीव हैं वे सभी कर्मके साथ साथ कर्मफलका भी अनुभव करते हैं। जिनकी प्राणिता अस्त हो चुकी है--जिनके द्रव्यप्राण और उसके कारण नष्ट हो चुके हैं ऐसे जीव ज्ञानका ही अनुभव करते हैं। . सुखदुःखरूप कर्मफलके अनुभवको कर्मफलचेतना, प्रवृत्तिकी कारणभूत क्रियाओंकी प्रधानता उत्पन्न हुए सुखदुःखरूप परिणामोंके अनुभवको कर्मचेतना, स्वतः आत्मासे अभिन्न अत एव स्वाभाविक सुखके अनुभवनको ज्ञानचेतना कहते हैं। इनमेंसे कर्मफलचेतना मुख्यतया स्थावरजीवोंके मुख्यतया कर्मचेतना और गौणतया कर्मफलचेतना त्रसजीवोंके, तथा मुख्यतया ज्ञानचेतना और गौणतया कर्मफलचेतना तथा कर्मचेतना द्रव्यप्राणरहित जीवोंके होती है। व्यावहारिक तथा पारमार्थिक दृष्टिसे प्राणरहित जीव क्रमसे दो प्रकारके हैं-एक जीवन्मुक्त, दूसरे परममुक्त। जो परममुक्त हैं उनके कर्म और कर्मफल सर्वथा निर्जीर्ण हाचुके हैं और वे अन्यत कृतकृत्य हैं; अत एव वे उक्त प्रकारके ज्ञानका ही अनुभव करते हैं । किंतु जो जीवन्मुक्त हैं वे मुख्यतया ज्ञानका और गौणतया उक्त दोनो चेतनाओंका अनुभव करते हैं; जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है। कर्मफलचेतना और कर्मचेतना दोनोंको अज्ञानचेतना कहते हैं। क्योंकि दोनोंमें ज्ञानसे भिन्नताका प्रत्यय होता है- कमचेतनामें "ज्ञानसे भिन्न इसका मैं कर्त्ता हूं" ऐसा, और कर्मफल चेतनामें, "ज्ञान मे भिन्न इसको मैं भोगरहा हूं" ऐसा अनुभव होता है । ये दोनो ही जीवन्मुक्तके इसलिये गौण होजाते हैं कि उनके बुद्धिपूर्वक कर्मोंके कर्तृत्व और उनके फलके भोक्तृत्वका विनाश होजाता है।
अब क्रमप्राप्त आस्रवतत्त्वका स्वरूप बताते हैं:ज्ञानावृत्त्यादियोग्याः सहमधिकरणा येन भावेन पुंसः,
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बनमार
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बध्याय
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शस्ताशस्तेन कर्मप्रकृतिपरिणतिं पुद्गला ह्यास्रवन्ति । आगच्छन्त्यास्रवोसावकथि पृथगसद्हग्मुखस्तत्प्रदोष, - प्रष्ठो वा विस्तरेणास्रवणत मतः कर्मताप्तिः स तेषाम् ॥ ३६ ॥
-
योगके द्वारा कर्मप्रकृतिरूप परिणमनको - पुद्गलत्व की अपेक्षा धौव्य एवं परिणमनकी अपेक्षा पूर्वाकार के परिहार तथा उत्तराकारकी प्राप्तिको धारण करते हुए और ज्ञानावरणादि कर्मरूप होनेके योग्य तथा जीवके समानस्थानवाले कर्मवगणारूप पुद्गल जीवके जिन प्रशस्त या अप्रशस्त - शुभ या अशुभ भावोंसे आते हैं उनको आस्रव कहते हैं । इसीके विस्तारदृष्टिसे मिथ्यादर्शन प्रभृति तथा तत्प्रदोषादिक विशेष भेद गिनाये हैं । अथवा योगोंके द्वारा ज्ञानावरणादिके योग्य पृनलोंके आनंको भी आस्रव कहते हैं। यहांपर आनेका अर्थ उनका ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमन होना है। आस्रव के इन दो लक्षणों में से पहला भावास्रवका और दूसरा द्रव्यासवका लक्षण समझना चाहिये। क्योंकि जीवके भावोंसे कर्म आते हैं, उनको भावास्रव और कर्मयोग्य पुलोंके आनेको द्रव्यासव कहते हैं । यथा-
आसवदि जेग कम्मं परिणामेणप्पणो स विणणेओ । भावासवो जिणुतो कम्मासचणं परो होदि ॥
ates जिन परिणामोंसे कर्म आते हैं उनको भावास्रव और कर्मोंके आनेको द्रव्यासव कहते हैं ।
१ " मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बंधहेतवः " । इस सूत्रमें बताये हुए ।
प
२
" सत्प्रदोषनिन्हवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयो: " इत्यादि सूत्रोंके द्वारा उक्त 1
अ. भ. २०
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अनगार
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ऊपर कर्मवर्गणाओंके विषय में जो बिके : समानस्थानबाले ऐसा विशेषण दिया है, उसका अभिप्राय यह है कि कर्मका सम्बंध जीवके जितने प्रदेश हैं उन सबके साथ. होता है। न तो जीवके बाहर संबंध होता है और न जीवके किसी प्रदेशको छोडकर ही होता है । अत एव आस्रव भी जीवके समस्त ही प्रदेशोंमें होता है। क्योंकि जीवके जिन परिणामोंसे कर्म आते हैं वे समस्त प्रदेशोंमें ही हो सकते हैं । क्योंकि जीव अखण्ड द्रव्य है । उसमें किसी भी गुणका कोई भी परिणमन समस्त द्रव्यमें ही हो सकता है।
जीवके परिणामोंसे जो पुद्गल आते हैं वे आत्माको प्राप्त होकर. परस्परमें अत्यंत अवगाढताको धारण करलेते हैं - एक दूसरेके प्रदेशोंमें प्रवेश कर अवस्थित होजाते हैं और कर्मरूप परिणमन करलेते हैं। यथाः
___अत्ता कुणदि सहावं तत्थगदा पुग्गला सहावेहिं ।
गच्छति कम्मभावं अण्णोण्णा गाढमवगाढा ॥ • भावास्रवके भेद गिनाते हैं:-- मिथ्यादर्शनमुक्तलक्षणमसुभ्रंशादिकोऽसंयमः, शुद्धावष्टविधौ दशात्मनि वृषे मान्धं प्रमादस्तथा। क्रोधादिः किल पञ्चविंशतितयो योगस्त्रिधा चास्रवाः,
पञ्चते यदुपाधयः कलियुजस्ते तत्प्रदोषादयः ॥ ३७॥ भावासबके पांच भेद हैं, मिथ्यादर्शन १ असंयम २ प्रमाद ३ कषाय ४ और योग । इन्हीके विशेष भेद तत्प्रदोषादिक हैं; जैसा कि पहले कहा जा चुका है और जिनसे कि कर्मोंका बंध होता है ।
मिथ्यादर्शन-इसका लक्षण पहले " मिथ्यात्वकर्मपाकेन" इत्यादि श्लोककी व्याख्याद्वारा बताया
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जा चुका है। वहींपर उसके भेद भी गिनादिये गये हैं। अत एव यहां फिर उसके दुहरानेकी आवश्यकता न
असंयम--प्राणघात-हिंसा आदि भावोंको असंयम कहते हैं । इसके बारह भेद हैं। जिसमेंसे ६ प्राणासंयम और ६ इंद्रियासंयमके हैं। पांच स्थावर (पृथिवी जल अग्नि वायु वनस्पति) और त्रस इन छह कायके जीवोंकी हिंसादि करना प्राणासंयम है। पांच इंद्रिय और एक मन इन छहोंको अपने अपने विषयसे न रोकना इन्द्रियासंयम है। इस प्रकार असंयमके कुल बारह भेद होते हैं ।
प्रमाद-किसी भी काममें सावधानता न रखनेको प्रमाद कहते हैं। यहां अनगार धर्मका प्रकरण है, अत एव आठ प्रकारकी शुद्धि, दश प्रकारका धम, तथा और भी धर्माचरणोंमें मन्दता करनेको- उसके सेवन करनेमें उत्साह न रखनेको प्रमाद समझना चाहिये । जसा कि आगममें भी बताया है
संज्वलननोकषायाणां यः स्यात्तीब्रोदयो यतेः ।
प्रमादः सोस्त्यनुत्साहो धर्ये शुद्धथष्टके तथा । यतियोंके संज्वलन और नोकषायका उदय जो तीव्र होता है उससे आठ प्रकारकी शुद्धि और धार्मिक आचरणमें उत्साह नहीं होता; इसीको प्रमाद कहते हैं । यह प्रमाद पंद्रह प्रकारका है । यथा--
विकहा तहा कसाया इदिय णिद्दा य तह य पणओ य । - चदु चदु पण एगेगं होंति पमादा हु पण्णरसा ॥..
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१-भिक्षा ईर्या शयनासन विनय व्युत्सर्ग वचन मन और शरीर । २-उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव आदि ।
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अध्याय
R
चार विकथा ( स्त्री कथा भक्तकथा राष्ट्रकथा राजकथा), गर प्रकारका कपाय ( क्रोध मान माया लोभ, ) पांच इन्द्रिय, [ स्पर्शन रसना घ्राण चक्षु और श्रोत्र ], एक निद्रा और एक प्रणय – स्नेहं ।
आत्मा क्रोधादिरूप विकृत भावोंकी कषाय कहते हैं। इसके ५२ भेद है। क्रोध मान माया लोभ इन चार कषायों में से प्रत्येकके चार चार भेद हैं अनन्तानुबंधी अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन | इसके सिवाय हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा स्त्री पुरुष नपुंसक नव भेद ये। कुल मिलाकर कषायके २५ भेद हैं । दकको नोकपाय कहते हैं, न कि कपाय । फिर भी नोकपाय शब्दका अर्थ ईपत् कषाय होता है; और थोडेसे की विवक्षा नहीं भी की जा सकती है । अत एव कषायशब्द से ही यहां सबका उल्लेख किया है । और आगममें भी कषाय २५ गिनाये हैं. इसलिये यहां किसी तरह की शंकाका स्थान नहीं रह सकता ।
योग - मन वचन और कायके द्वारा जो आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दरूप व्यापार होता है उसको योग कहते हैं। अत एव आलम्बनकी अपेक्षासे इसके तीन भेद हैं; मनोयोग वचनयोग, काययोग |
इस प्रकार ये भावावके भेद हैं। इन्हीके उत्तर भेद मोक्षशास्त्रादिक में " तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तराया " आदि सूत्रों के द्वारा बताये गये हैं । ये मिथ्यादर्शनादिक और उनके तत्प्रदोषादिक उत्तर भेद समस्त और व्यस्त दोनो ही तरहसे बंधके कारण हुआ करते हैं। तथा जहां जो निमित्त हो वहां उस निमित्तके अनुसार स्थिति और अनुभागकी अपेक्षासे ज्ञानावरणादि कर्मोंका, जैसा कि सूत्रमें बताया गया है, बंध होता है और प्रकृति प्रदेशकी अपेक्षा से सभी कर्मो का बंध हुआ करता है ।
पहले और तीसरे गुणस्थानमें ये पांचो ही भेद पाये जाते हैं । सासादन और असंयतसम्यग्दृष्टि में मिथ्यात्वको छोड़कर बाकी चार, संयतासंयत और प्रमत्तसंयत में मिथ्यात्व तथा अविरतिके सिवाय तीन, अप्रम
१- प्रमादके विशेष भेद और भङ्गपद्धति आदि गोम्महसार की टीकामें देखने चाहिये ।
Maa Kaa
धर्म
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तसे लेकर सूक्ष्मसापराय तक कषाय और योग, एवं उपशांत कषायादिकमें एक योग ही पाया जाता है । चौदहवा गुणस्थान अयोगी है; और इसीलिये वह अबंधक है।
बंधके कारणको आस्रव कहते हैं। इसके उक्त भेदोंमसे योगको छोडकर बाकी चार स्थिति और अनुभागबंधको कारण हैं। तथा योग प्रकृति और प्रदेशबंधको कारण है:
बंधका स्वरूप बताते हैं:- स बन्धो बध्यन्ते परिणतिविशेषेण विवशी,
क्रियन्ते कर्माणि प्रकृतिविदुषो येन यदि वा । स तत्कर्माम्नातो नयति पुरुषं यत्सुवशतां, प्रदेशानां यो वा स भवति मिथः श्लेष उभयोः ॥ ३८ ॥
. पूर्वबद्ध कोंके फलका अनुभव करनेवाले-फलको भोगनेवाले जीवके जिन परिणामोंसे कर्म वन्धते हैं-परतन्त्र होजाते हैं उसको बंध कहते हैं । अथवा उस कर्मको ही बंध कहते हैं जो कि जीवको अपने अधीन करलेता है। इसी तरह जीव और कर्म इन दोनोंके ही प्रदेशोंके परस्परमें प्रवेश होजानेको मी बंध क
-
भावार्थ- यहांपर बंधके जो तीन लक्षण किये गये हैं सो तनि अपेक्षाओंसे हैं। पहला लक्षण करण साधनकी अपेक्षासे, और दूसरा कर्तृसाधनकी अपेक्षासे तथा तीसरा लक्षण भावसाधनकी अपेक्षासे है।
पहला लक्षण बंधके बाह्य और अंतरंग दोनो कारणोंकी प्रधानतासे किया गया है । बाह्य कारण योग
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बनगार
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और अन्तरङ्ग कारण मोहनीय कर्मके उदयसे उत्पन्न हुए विकारभाव हैं । योगका लक्षण ऊपर लिखा जा चुका है कि मनो वाक्-काय वर्गणाओंके अबलम्बनसे जो आत्मप्रदेशोंका पारिस्पन्द होता है उसको योग कहते हैं । यह भी जीवका ही एक विकार-परिणामविशेष है कि जिसके द्वारा बंधनेवाले कर्म आया करते हैं । आते हुए काँको वा पुण्यपापरूपसे परिणत होकर प्रविष्ट हुओंको विलक्षण रूपमें परिणमाकर उनको भोग्य बना कर जीवके साथ सम्बद्ध करदेना अंतरङ्ग कारणका कार्य है । क्योंकि पूर्वसंचित कोंके उदयसे प्राप्त हुए फलको भोगनेवाले जीवके जो रागद्वेष या मोहरूप स्निग्ध परिणाम होते हैं वे ही कर्मपुद्गलोंको विशिष्टशक्तियुक्त परिणमनको प्राप्त कर अवस्थित करने में निमित्त हैं किंतु योग जीवप्रदेश और कर्मस्कन्धं दोनोंके परस्परमें अनुप्रवेशका कारण है। अत एव वह बहिरङ्ग माना जाता है। इस प्रकार ये दोनो ही जीवके परिणाम-विशेषरूप कारण कर्मोंका फल देनेकेलिये विवश कर देते हैं। आगममें भी ये दो ही बंधके कारण प्रधानतया माने गये हैं। यथाः
जोगणिमित्तं गहणं जोगो मणवयणकायसंभूदो।
भावणिमित्तो बंधो भावो रदिरायदोसमोहजुदो ।। इस प्रकार करण-साधनकी अपेक्षासे यह बंधका लक्षण हुआ। क्योंकि यहांपर बंधके कारणोंका ही प्रधानतया निर्देश किया गया है और असाधारण कारणोंको ही करण कहते हैं। किंतु कर्तृसाधनकी अपेक्षासे कर्मको प्राधान्य दिया जाता है। ऊपर बंधका दूसरा जो लक्षण दिखाया गया है उसमें कर्मकी स्वतंत्रताकी अपेक्षा है। इस अपेक्षासे जो जीवको अपने अधीन बनालेता है और भोक्तृतया आत्माके साथ सम्बद्ध होता है उस कर्मको बंध कहते हैं। इसी तरह तीसरे भावसाधनकी अपेक्षासे जीवऔर कर्मके परस्परमें प्रदेशानुप्रवेश होनेको बंध कहते हैं। यहांपर योगके द्वारा अनुप्रविष्ट हुए जीवप्रदेशवी कर्मस्कन्धोंका कषायादिकके निमित्तसे उत्पन्न हुए विशिष्टशक्तियुक्त परिणमनको धारण कर अवस्थित होना बंध समझना चाहिये । आगममें भी ऐसा ही कहा है, यथाः
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परस्पर प्रदेशानां प्रवेशो जीवकर्मणोः । एकस्व कार को बन्धो रुक्मकाञ्चनयोरिव ॥
जिस प्रकार अनेक तरहसे रस और शक्तिवाले फल फूलोंको पात्रविशेषमें रखनेपर उनका मदिरा आदि परिणमन होजाता है उसी प्रकार योग और कषायके निमित्तसे आत्माके साथ सम्बन्ध करनेवाले पुगलोंका भी कर्मरूप परिणमन होजाता है। यह परिणमन कारणकी मंदता तंत्रिता आदिके अनुसार मंद तीव्र आदि हुआ करता है । किंतु सामान्यसे बंधके दो भेद हैं- एक भावबंध दूसरा द्रव्यबंध । राग द्वेष या मोहरूप जो जीवके शुभ या अशुभ स्निग्ध परिणाम होते हैं उसको भावबंध कहते हैं । और उसके निमित्तसे शुभ या अशुभरूप परिणत पुगलोंका जीवके साथ परस्परमें संबंध होजानेको द्रव्यबंध कहते हैं; जैसा कि आगममें भी कहा है:
बज्झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबंधो सो । कम्मादपदेसणं अण्णोष्णपवेसणं इदरो || पय डिट्ठिदिअणुभ्रागप्पदेस भेदा दु चदुविधो बंधो । जोगा पढिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होंति ॥
प्रश्न – आस्रव और बंध, दोनों ही में मिथ्यात्व अविरति आदि कारण समान बताये हैं; फिर उनमें क्या विशेषता है ?.
उत्तर - प्रथम क्षण में जो कर्मस्कन्धोंका आगमन होता है उसको आस्रव कहते हैं । आगमके अनंतर द्वितीयादि क्षण में जो उनका जविपदेशों में अवस्थान होता है उसका बंध कहते हैं। यह भेद है । तथा आस्रवमें योगी मुख्यता है और वंधमें कषायादिककी । जिस प्रकार राजसभामें अनुग्राह्य या निग्राह्य पुरुषके प्रवेश करने में राजाके आदिष्ट पुरुषकी मुख्यता होती है और उसके साथ अनुग्रह या निग्रह करनेमें राजाके आदेश की प्रधानता रहती है । उसी प्रकार आस्तव और बंधके कारणों में भी कथंचित् भेद समझना चाहिये ।
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ऊसर बंधके चार भेद बताये है-प्रकृति स्थिति अनुभाग और प्रदेश । अब इन चारोंका स्वरूप बताते हैं
ज्ञानावरणाचात्मा प्रकृतिस्तद्विधिरविच्युतिस्तस्मात ।
स्थितिग्नुभवो रसः स्यादणुगणना कर्मणां प्रवेशश्च ॥ १९ ॥ प्रकृति-यह द्रव्यबंधका एक भेद है। प्रकृति शब्दका अर्थ स्वभाव है। जिस प्रकार निम्बका स्वभाव तिक्तता और गुडका स्वभाव मधुरता होता है उसी प्रकार कर्मस्कन्धोंका भी स्वभाव हुआ करता है। योग्यतानुसार कर्मस्कन्धों में आत्माकी शानादिक शक्तियोंको आवृत-आच्छादित कर सकनेवाली शक्तियों अथवा उन उन कार्योके करसकनेवाले स्वभावोंका आविर्भाव हुआ करता है। इसीको प्रकृतिबंध कहते हैं। इसके स्वभावभेदकी अपेक्षासे आठ भेद हैं-शानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अंतराय । इनके स्वभावको आगममें दृष्टान्त देकर बताया गया है। उसकी गाथा इस प्रकार है
पडपडिहारसिमज्जाहलिचित्तकुलालभंडयारीणं ।
जह एदास भावा तह कम्माणं वियाणाहि॥ ___वस्त्र, प्रतीहारी [ ड्योढीवान् ], अक्ष [ तलवार ], मद्य, खोडा, चित्रकार, कुम्भार, और भण्डारी ये उक्त आठ कोंके आठ उदाहरण हैं। जिस प्रकार वस्त्रसे आच्छादित होनेपर वस्तुका ज्ञान नहीं हो सकता उसी प्रकार ज्ञानावरणका. यह स्वभाव होता है कि उसके उदयसे आत्माको ज्ञान नहीं हो सकता । जिस प्रकार प्रतीहारीके बीचमें आजानेपर राजा आदिके दर्शन नहीं हो सकते उसी प्रकार दर्शनावरण के उदय होनेपर पदार्थ दीख नहीं सकते । जिस प्रकार मधुलिप्त छुरीके निमित्तसे सुखदुःखका अनुभव हुआ करता है उसी प्रकार वेदनीय कर्मके उदयसे जीवको सुखदुःखका वेदन-अनुभव हुआ करता है । जिस प्रकार मद्य पीनेसे मनुष्य मो
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हित होजाता है उसी तरह मोहनीय कर्मके उदयसे जीव विषयोंमें मूछित रहा करता है। जिस प्रकार काठमें पैर पड जानेसे मनुष्य इधर उधर नहीं जा सकता उसी प्रकार आयु कर्मके उदयसे जीवको भव धारण करना ही पडता है और उस भवमें रहना ही पड़ता है। वह स्वतन्त्रतासे चाहे जहां गमन नहीं कर सकता । जिस प्रकार चित्रकार अनेक प्रकारके चित्र बनाता है उसी तरह नाम कर्मके उदयसे नारक आदि अनेक अवस्थाएं जीवकी बनती हैं। जिस तरह कुम्भार छोटे बडे वर्तन बनाता है उसी तरह गोत्र कर्मके उदयसे जीवका उच्चनीच व्यपदेश होता है । जिस तरह भण्डारी द्रव्य देनेमें विघ्न डाला करता है उसी तरह अन्तराय कर्मके उदयसे जीवके दानादिक कार्यों में विघ्न उपस्थित हुआ करता है । इस प्रकार जो कर्मस्कन्ध आत्मासे सम्बद्ध होते हैं वे प्रकृतिस्वभावभेदकी अपेक्षासे आठ प्रकारके हैं । इस स्वभावभेदकी अपेक्षासे ही अर्थके अनुसार कर्मोके उपर्युक्त आठ नाम रक्खे गये हैं।
बंधका दूसरा भेद स्थिति है। उपर्युक्त स्वभावसे उन कर्मस्कन्धोंक न छूटनेको जबतक वे कर्मस्कन्ध अपने उक्त स्वभावसे च्युत न होजाय तबतककी कालमर्यादाको स्थिति कहते हैं । जिस प्रकार बकरी गौ मेंस आदिके दूध में स्थिति कालमर्यादा रहा करती है कि उनका माधुर्य-स्वभाव इतने कालतक तदवस्थ रहेगा। इसी प्रकार ज्ञानावरणादि कोंमें भी स्वभावकी कालमर्यादा पडा करती है कि उनका वह स्वभाव इतने कालतक तदवस्थ रहेगा और उस स्वभाववाले कर्मस्कन्ध आत्मासे इतने कालतक सम्बद्ध रहेंगे । इसीको स्थितिबंध कहते हैं। यह स्थिति कमसे कम अन्तर्मुहूर्त और अधिकसे अधिक सत्तर कोडाकोडी सागर तककी होती है। किंतु एकेक समयकी हीनाधिकतासे अनेक प्रकारकी है जो कि ग्रंथान्तरों में बताई गई है।
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बंधका तीसरा मेद अनुभव है । कर्मस्कन्धोंके रस-सामर्थ्य विशेषको अनुभव कहते हैं। जिस प्रकार बकरी गौ या भेंस आदिके धमें जो पुष्टि आदि अपना कार्य करनेवाली शक्ति है उसमें तीव्र मंद आदिरूप अनेक प्रकारकी विशेषता रहा करती है । उसी प्रकार कर्मपुद्गलोंमें भी अपना अपना कार्य करनेमें सामर्थ्यकी विशेषता रहा
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करती है । इसीको अनुभवबंध कहते हैं । अनुभवबंधके अनुसार इस प्रकारकी सामर्थ्यविशेषसे युक्त परमाणुओंका आत्मासे सम्बन्ध होता है। किंतु प्रकृतिबंध में आस्रव द्वारा आये हुए अष्टकर्मयोग्य पुद्गल आत्मासे बंधते हैं । यही प्रकृतिबंध और अनुभव बंधमें अन्तर है। जहांपर जीवके शुभ परिणाम प्रकर्षतया पाये जाते हैं वहांपर शुभ कर्मोंका अनुभव प्रकृष्ट और अशुभ कर्मोंका निकृष्ट हुआ करता है । और जहां अशुभ परिणाम प्रकर्षतया हुआ करते हैं वहां पर अशुभ कर्मोंका अनुभव तीव्र तथा शुभ कर्मों का अनुभव मंद हुआ करता है । घाति और अघाति भेदकी अपेक्षासे घातिकर्मो की शक्ति लता दारु अस्थि और पाषाण इस तरह चार प्रकारकी होती है। अघाति कर्मों में अशुभ कर्मोंकी शक्ति निम्ब काञ्जीर विष और हालाहल इस तरह चार प्रकारकी और शुभ कर्मोंकी गुड खांड शकर और अमृत इस तरह चार प्रकारकी हुआ करती है। इन उदाहरणोंके अनुसार ही कर्मों के साममें भी विशेषता हुआ करती है । उसीको अनुभव कहते हैं । इस तरहके सामर्थ्ययुक्त परमाणुओंके, आत्माके साथ, बंधनेको अनुभवबंध कहते हैं ।
बंधका चौथा भेद प्रदेशबंध है । बंधनेवाली कर्मपरमाणुओं की संख्या के विषयमें निश्चित इयत्ताको प्रदेशबंध कहते हैं। क्योंकि जो कर्मस्कन्ध ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणत होकर आत्माके साथ बंधते हैं उनमें परमाणुओं की संख्या भी निश्चित रहती है। क्योंकि ऐसा होनेपर ही उनका वह स्वभाव स्थिर रह सकता है; और स्वभाव के अनुसार फल भी हो सकता है । क्योंकि पुद्गलस्कन्धमें परमाणुओंकी संख्या में परिवर्तन होनेपर स्वभावादिकमें भी परिवर्तन हो जाना न्यायप्राप्त है ।
इस प्रकार बंधके ये चार भेद हैं जिनका कि लक्षण ऊपर लिखा गया है। ऐसा ही आगम में भी कहा है । यथा -
स्वभावः प्रकृतिः प्रोक्ता स्थितिः कालावधारणम् । अनुभागो विपाकस्तु प्रदेशोंशविकल्पनम् ॥
बंधकी यह विचित्रता उसके कारणभूत कषायादिकोंकी विचित्रतापर निर्भर है; क्योंकि कारणके अनुसार
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कार्य हुआ करता है। अथवा जिस प्रकार खाये हुए अन्नादिकका स्कंध एक ही है। फिर भी उसमें अनेक विकाररूप परिणत होनेकी सामर्थ्य रहती है और कारणके अनुसार वह वात पित्त कफ खल रस आदि अनेक परिणमनको प्राप्त करलेता है। उसी प्रकार यद्यपि जो कर्मस्कन्ध आता है वह एक ही है। फिर भी कारणभेदके अनुसार वह नारकादि नानारूप परिणमन करलेता है। जिस प्रकार कर्मसामान्यकेलिये यह कहा गया है उसी प्रकार कर्मविशेषकेलिये भी समझना चाहिये। क्योंकि जिस प्रकार आकाशसे वर्षनेवाला जल यद्यपि एक ही रहता है, फिर भी वह पात्रादिक सामग्रीकी विशेषताके अनुसार अनेक रसरूप परिणत हो जाता है। उसी प्रकार एक ही ज्ञानावरणादिक स्कन्ध कषायादि सामग्रीकी तरतमताके अनुसार मत्यावरणादि अनेकरूप परिणत हो जाता है । इसी तरह दूसरे भी विशेष कमाके विषयमें समझना चाहिये ।
इस कर्मके सामान्यसे एक, विशेषतया पुण्यपापकी अपेक्षा दो, उपर्युक्त प्रकृति आदिकी अपेक्षा चार, और ज्ञानावरणादिककी अपेक्षा आठ भेद होते हैं। तथा इसी तरह अपेक्षाभेदके अनुसार संख्यात असंख्यात और अमंत भेद भी होते हैं। ऊपर जो अघातिकर्मके पुण्य और पाप इस तरह दो भेद बताये हैं उनका स्वरूप और भेद बताते हैं :
पुण्यं यः कर्मात्मा शुभपरिणामैकहेतुको बन्धः ।
सद्वद्यशुभायुर्नामगोत्रभित्ततोऽपरं पापम् ॥ ४०॥ उस कर्मात्मक बंधको कि जिसके प्रधान हेतु जीवके शुभ परिणाम हैं, पुण्य कहते हैं और जिसके प्रधान हेतु जीवके अशुभ परिणाम हैं उसको पाप कहते हैं । इस पुण्य और पापके दो भेद हैं । द्रव्यपुण्य और भावपुण्य तथा द्रव्यपाप और भावपाप । जीवके शुभ परिणामोंके निमित्तसे कर्ता पुद्गलका जो विशिष्ट प्रकृतिरूप परिणमन निश्चयसे कर्मरूपको प्राप्त होजाता है उसको द्रव्यपुण्य कहते हैं। और कर्ता जीवके वे कर्मरूपको प्राप्त
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होनेवाले शुभ परिणाम जो कि उस द्रव्यपुण्यका निमित्त हैं उन्हें आस्रवक्षणके अनंतर भावपुण्य कहते हैं। इसी तरह द्रव्यपाप और भावपापका भी स्वरूप समझना चाहिये । अंतर इतना ही है कि इसमें जीवके अशुभ परिणाम ग्रहण करने चाहिये, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है।
पुण्यकर्मके सामान्यसे चार भेद हैं-साता वेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र । किंतु उत्तर भेद ब्यालीस हैं । यथा- साता वेदनीय १ तिर्यगायु २ मनुष्यायु ३ देव आयु ४ मनुष्य गति ५ देवगति ६ पंचेन्द्रियजाति ७ औदारिक शरीर ८ वैक्रियिक शरीर ९ आहारक शरीर १० तैजसशरीर ११ कार्माणशरीर १२ औदारिक आङ्गोपाङ्ग १३ वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग १४ आहारक आङ्गोपाङ्ग १५ समचतुरस्र संस्थान १६ वज्रर्षभ नाराच संहनन १७ प्रशस्त वर्ण १८ प्रशस्तगंध १९ प्रशस्त रस २० प्रशस्त स्पर्श २१ मनुष्यगत्यानुपूर्व्य २२ देवगत्यानुपूर्व्य २३ अगुरुलघु २४ परघात २५ उच्छास २६ आत. प २७ उद्योत २८ प्रशस्त विहायोगति २९ त्रस ३० बादर ३१ पर्याप्त ३२ प्रत्येकशरीर ३३ स्थिर ३४ शुभ ३५ सुभग ३६ सुस्वर ३७ आदेय ३८ यश-कीर्ति ३९ निर्माण ४० तीर्थकर ४१ उच्चगोत्र ४२।।
इसी तरह जिस कर्मरूप बंधके प्रधान हेतु जीवके अशुभ परिणाम हैं उसको ही पाप कहते हैं। इसके आठ भेद हैं जिनके नाम ऊपर लिखे जा चुके हैं। किंतु उत्तर भेद व्यासी हैं, यथा-ज्ञानावरणकी पांच (मतिज्ञानावरण आदि), दर्शनावरणकी नव (चक्षुर्दर्शनावरण आदि ), असाता वेदनीय एक, मोहनीयकी छब्बीस ( एक मिथ्यात्व और २५ कषाय ), आयु एक (नारक), नामकर्मकी ३४ ( उपर्युक्त पुण्य प्रकृतियोंके सिवाय नरक गति आदि), गोत्र एक [ नीच], अन्तरायकी पांच [दानान्तराय आदि ।
इस प्रकार बंधतत्वके स्वरूप और भेद बताये गये। अब उसके बाद संवरतत्त्व क्रमप्राप्त है। अत एव उसका स्वरूप और भेद बताते हैं:
____स संवरः संत्रियते निरुध्यते कर्मास्रवो येन सुदर्शनादिना ।
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KASARAS
गुप्त्यात्मना वात्मगुणेन संवृतिस्तद्योगतद्भावनिराकृतिः स वा ॥१॥ आत्माके जिन सम्यग्दर्शनादिक अथवा गुप्त्यादिक गुणोंसे पूर्वोक्त कर्मोंका आस्रव संवृत होता है-रूकता है उसको संवर कहते हैं । अथवा कर्मयोग्य पुद्गलोंके कमरूप होनेसे रुकनेको भी संवर कहते हैं।
भावार्थ-संवरतत्त्व आस्रवतत्त्वका बिलकुल प्रतिपक्षी है । अत एव जिस प्रकार आत्माके जिन परिणामोंसे कर्म आते उनको भावास्रव और कोंके आनेको द्रव्यास्रव कहते हैं। उसी प्रकार आत्माके जिन भावोंसे कर्मोंका आना रुकता है उनको भावसंवर और कर्मोंके आनेसे रुकनेको द्रव्यसंवर कहते हैं । जिस प्रकार भावास्रवके भेद मिथ्यादर्शनादिक हैं उसी प्रकार भावसंवरके भेद सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान संयम और गुप्ति आदिक हैं । जैसा कि आगममें भी बताया है। यथाः
वदस भिदीगुत्ती ओ धम्माणुपिहापरीसहजओ य ।
चारित्तं बहुभेया णायव्वा भावसंवरविसेसा ।। व्रत समिति गुप्ति धर्म अनुप्रेक्षा परीषहजय और चारित्र तथा इनके उत्तर भेद भावसंवरके ही विशेष भेद हैं।
क्रमप्राप्त निर्जरातत्वका स्वरूप और भेद बताते हैं । निर्जीयते कर्म निरस्यते यया पुंसः प्रदेशस्थितमेकदेशतः।
सा निर्जरा पर्यय वृत्तिरंशतस्तत्संक्षयो निर्जरणं मताथ सा॥ ४२ ॥ जीवकी पर्ययवृत्ति-संक्लेशनिवृत्तिरूप परिणामोंको निर्जरा-भावनिर्जरा कहते हैं कि जिसके द्वारा जीवके प्रदेशों-अंशोंमें स्थित कर्म एकदेश रूपसे निर्जीर्ण होजाते हैं-आत्मासे सम्बन्ध छोडकर पृथक् होजाते हैं । अथवा जीवके प्रदेशोंमें स्थित कोंके एक देश रूपसे पृथक् होनेको भी निर्जरा-द्रव्यनिर्जरा कहते हैं।
ASANTPADMASTRAMITASAHESAMADRASTREAST
बध्याय
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धनगार
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अध्याय
प्रश्न – संक्लेशनिवृत्तिको पर्ययवृत्ति किस तरह कहा जा सकता है; क्योंकि जो निवृत्तिरूप है वह प्रवृत्तिरूप नहीं हो सकता । फिर ऊपर जो पर्यायशब्दका अर्थ निवृत्तिरूप किया है सो किस तरह घटित होता है ?
उत्तर - परिशुद्ध बोधको ही पर्यये कहते हैं । और इस पर्ययकी वृत्ति संक्केशसे रहित ही हो सकती है। तभी उसको शुद्ध कह सकते हैं। यह शुद्धोपयोग ही बहिरंग तथा अंतरंग तपके द्वारा वृद्धिको प्राप्त होकर 'कर्मोंकी शक्तिको क्षीण करनेमें समर्थ हो सकता है । अतएव इस शुद्धोपयोगको ही भावनिर्जरा कहते हैं । और इसके द्वारा अनुभाव - फल देकर अथवा बिना फल दिये ही पूर्वसंचित कर्मोंका एकदेशरूपसे क्षय होना द्रव्यनिर्जरा कहती है ।
द्रव्य निर्जराके भेद और उनका स्वरूप बताते हैं
द्विधाऽकामा सकामा च निर्जरा कर्मणामपि । फलानामिव यत्पाकः कालेनोपक्रमेण च ॥ ४३ ॥
द्रव्यनिर्जरा दो प्रकारकी है--अकाम और सकाम । यथासमय उदयमें आये हुए कर्मों के फल देकर निर्जीर्ण होनेको अकाम निर्जरा कहते हैं । इसीको विपाकजा (सविपाक ) और अनौपक्रमिकी भी कहते हैं। उपक्रमसे अथवा बिना फल दिये ही कर्मोंके निर्जीर्ण होनेको सकाम निर्जरा कहते हैं। इसको अविपाकजा ( अविपाक) और औपक्रमिकी भी कहते हैं।
भावार्थ - यथासमय और, न केवल यथासमय ही किंतु, उपक्रमसे भी फलोंकी तरह कर्मोंके भी फल देने को पाक कहते हैं । जिस तरह आम्र प्रभृति फलोंका पाक जिसमें कि रस आदिका परिणमन होजाता है, दो प्रकार का होता है । एक तो वह कि जो अपने कालके अनुसार स्वयं हो। दूसरा वह कि जो प्रयोक्ता पुरुषके उपाय -- पाल आदिमें देनेसे हो। इसी तरह ज्ञानावरण आदि कमौका पाक भी दो प्रकारसे होता है। अतएव
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बनगार
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निर्जराके भी दो भेद हैं। जो कर्म स्थितिके अनुसार जिस समयमें फल देनेकी अपेक्षासे पूर्वमें संचित हुआ था उसका उसी समयमें फल देकर निर्जीर्ण होना इसको सविपाक निर्जरा कहते हैं । जो पालके आमकी तरहसे प्रयोगपूर्वक उदयावलीमें लाकर भोगाजाय और निर्जीर्ण होजाय उस निर्जीर्ण होनेको अविपाक निर्जरा कहते हैं ।
जिसमें बुद्धिपूर्वक प्रयोग किया जाय ऐसे अपने परिणामको उपक्रम कहते हैं। मुमुक्षुओंके शुभ या अशुभ परिणामोंके निरोधरूप संवरसे और शुद्धोपयोगसे युक्त उपक्रमको ही तप कहते हैं। दूसरे साधारण लोगोंकी अपेक्षा अपने या परके सुख या दुःखके साधनोंका बुद्धिपूर्वक प्रयोग भी उपक्रम समझना चाहिये । क्योंकि उपर्युक्त श्लोकमें पर्ययवृत्ति इस शब्दसे सामान्यतः परिणाममात्रका ग्रहण किया है । जैसा आगममें भी कहा है। यथाः
अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदेवतः ।
बुद्धि पूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ॥ जहांपर इष्ट या अनिष्ट कार्य अबुद्धिपूर्वक होते हैं वहांपर अपने दैवकी प्रधानता समझनी चाहिये और जहांपर ऐसे कार्य बुद्धिपूर्वक होते हैं वहां अपने पौरुषकी प्रधानता समझनी चाहिये ।
क्रमप्राप्त. मोक्षतत्वका स्वरूप बताते हैं:येन कृत्स्नानि कर्माणि मोक्ष्यन्तेऽस्यन्त आत्मनः । रत्नत्रयेण मोक्षोसौ मोक्षणं तत्क्षयः स वा ॥४४॥
बध्याय
जिसके द्वारा समस्त कर्म- पहले मोहनीय प्रभृति घातिकर्म, पीछे आयु आदिक अघाति कर्म छूट जाते हैं- परम संवरके द्वारा अपूर्व कर्म आनेसे रुक जात और परम निर्जराके द्वारा पूर्वसंचित कर्म आत्मासे पृथक हो जाते हैं उस रत्नत्रयको-निश्चय सम्यग्दर्शन इ. चारित्रको अथवा इस रत्नत्रयरूप परिणत, आ
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अनगार
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अध्याय
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त्माको मोक्ष - भावमोक्ष कहते हैं। अथवा वेदनीय आयु नाम गोत्ररूप कर्मपुद्गलोंके जीवसे सर्वथा विश्लेष हो जानेको मोक्ष - द्रव्यमोक्ष कहते हैं । आगममें भी मोक्षके विषयमें ऐसा कहा है कि
"आत्यन्तिकः स्वहेतोर्यो विश्लेषो जीवकर्मणोः ।
स मोक्षः फलमेतस्य ज्ञानायाः क्षायिका गुणाः ॥ "
अपने ही कारणसे जो जीव और कर्मका सर्वथा विश्लेष हो उसको मोक्ष कहते हैं। इसका फल आत्माके ज्ञानादिक क्षायिक गुण हैं । तथा- “ बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः । " द्रव्यसंग्रहमें भी कहा है कि
" सव्वस्स कम्मणो जो खयहेदू अप्पणो हु परिणामो । यो स भावमोक्खो दव्यविमोक्खो य कम्मपुहभावो ॥”
आत्माके वे परिणाम कि जो समस्त कर्मोके क्षयके कारण हैं भावमोक्ष समझने चाहिये और कर्मोंके पृथक होजानेको द्रव्यमोक्ष कहते हैं ।
तत्वार्थवार्तिक में भी कहा है कि -. ततो मोहक्षयोपेतः पुमानुद्भूत केवलः । 'विशिष्टकरणः साक्षादशरीरत्वहेतुना ॥ रत्नत्रितयरूपेणायोगिकेवलिनोन्तिमे । क्षणे विवर्तते तदबाध्यं निश्चयान्नयात् ॥ व्यवहारनयामित्या त्वेतत्प्रागेव कारणम् । मोक्षस्येति विवादेन पर्याप्तं न्यायदर्शिनः ॥
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निश्चय नयकी अपेक्षासे तो मोहनीय कर्मका क्षय होजानेपर और केवलज्ञानके उद्भूत होजानेपर विशिष्ट HI करणसे युक्त जीव अयोगकेवल गुषस्थानके अंतिम समयमें अशरीरताके कारणभूत रत्नत्रयके द्वारा अबाध्य पद -मोक्षरूप परिणत हो जाता है; क्योंकि साक्षात् कारण वही है। किंतु व्यवहार नय से अयोगकेवल गुणस्थानके अंतिम समयसे पहले के समयवर्ती, रलंत्रएको भी मोबा. काल कहा जा सकता है।
मुक्तात्माओं के स्वरूपका विरूपण करते हैंप्रमणे मसिवन्मले खमसि स्वार्यप्रकाशात्मके , . मजन्तो निरुपाख्यमोघचिदचिन्मोक्षार्थितीर्थक्षिपः । कृत्त्वानाद्यपि जन्म सान्तममृतं साद्यप्यनन्तं त्रिताः,
सद्दाधीनयवृत्तसंयमतपःसिद्धाः सदानन्दिनः ॥ १५ ॥ समीचीन दर्शन बान नय चारित्र संयम और वप इन छह उपायोंके द्वारा सिद्ध-आत्मस्वभावको सिद्ध करनेवाले मुक्तात्मा द्रव्य और भावरूप कर्ममलके सर्वथा क्षीण हो जानेपर मणिके समान अपने और समस्त पर पदार्थोके प्रकाशक निज तेजमें निमग्न होते हुए निरुपाख्य मोघचित् और अचित् इस तरह भिन्न भिन्न मोक्षका स्वरूप माननेवालोंके तीर्थ-आगमका परित्याग कर अनादि भी संसारको नष्ट कर सादि किंतु अनन्त अमृत-मोक्षपदको प्राप्त करलेते हैं और वे सदा आनन्द-आत्मिक सुखका अनुभव करते रहते हैं।
भावार्थ- ऊपर सिद्धिके जो छह उपाय बताये हैं वे आरम्भ अवस्थाकी अपेक्षासे हैं। क्योंकि कोई तो सम्यग्दर्शनकी प्रधानतासे रत्नत्रयको पूर्ण कर समस्त कर्ममल --कलंकको ना कर निज स्वरूपकी प्राप्तिरूप सिद्धिको प्राप्त करते हैं और कोई सम्यग्ज्ञानकी प्रधानतासे तथा कोई नय आदिकी प्रधान
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अध्याय
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बनगार
तासे प्राप्त करते हैं । जिस प्रकार लगे हुए मलके दूर होजानेपर मणियां अपने और परके स्वरूपको प्रकाशित करनेवाले निज तेजमें निमग्न रहती हैं-उत्पाद व्यय ध्रौव्यस्वरूपमें अवस्थित रहती हैं उसी प्रकार उक्त मुक्त जीव भी द्रव्यभावरूप कर्ममलके निःशेष हो जानेपर निज स्वरूप और समस्त त्रैकालिक पदार्थोंके प्रकाशात्मक-युगपत् ज्ञानदर्शन परिणमनरूपी निज तेजमें निमग्न रहते हैं-उत्पाद व्यय धौव्यस्वरूपमें अवस्थित रहते हैं। ... ... उक्त उपायोंके द्वारा सिद्धि प्राप्त करनेवाले मुक्तात्मा अनादि संसारको सर्वथा नष्ट करके जिस अमृतमोक्षपदको प्राप्त होते हैं वह यद्यपि पर्यायदृष्टिसे सादि है फिर भी स्वरूपतः अनंत है। क्योंकि फिर वहांसे भव धारण नहीं करना पडता । इस प्रकारके मुक्तात्मा जीवन्मुक्ति अवस्थामें मोक्षके निरुपाख्य प्रभृति स्वरूप मानने वालेके आगमका निराकरण या प्रतिक्षेप करदेते हैं। क्योंकि वे उनसे विलक्षण मोक्षकी व्यवस्था करते हैं। और. परममुक्ति अवस्थामें उसी तरहकी मोक्षमें अवस्थित रहते हैं।
कुछ लोगोंने मोक्षका स्वरूप निरुपाख्य माना है ! उनका कहना है कि जिस प्रकार दीपकका बुझजानेपर कुछ स्वरूप नहीं रहता उसी प्रकार आत्माका भी निर्वृति प्राप्त करनेपर कुछ स्वरूप नहीं रहता । अत एव मोक्षका स्वरूप निःस्वभाव है। इसी तरह कुछ लोगोंका कहना है कि मोक्ष मोघचित् है। क्योंकि जीवका जो चैतन्य स्वरूप माना गया है वह ज्ञेयाकार परिच्छेद-प्रतिभाससे रहित है । इसी प्रकार कोई कोई कहते हैं कि मोक्ष अचित है । क्योंकि उस अवस्थामें आत्माके बुद्धि आदिक नव विशेष गुणोंका उच्छेद होजाता है। इसी तरह और भी मोक्षके स्वरूपके विषयमें अनेक कल्पनाएं हैं जो कि समीचीन न होनेसे उपेक्षणीय ही हैं। इस उपेक्षणीयताको जीवन्मुक्ति अवस्थामें भगवान्ने अपने उपदेशसे युक्तिपूर्वक सिद्ध करके बतादिया है । अत एव मुक्तात्मा उक्त मोक्षके विपरीत स्वरूपका निराकरण करनेवाले हैं। इस तरहके मुक्तात्मा सदा-अनंत कालत क आत्मिक सुखमें लीन रहते हैं। .इस प्रकार जीवसे लेकर मोक्षतक सात तच्चोंका स्वरूप ऊपर बताया । इन्ही तत्वार्थोंके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं । इस सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होनेमें जिस सामग्रीकी अपेक्षा है उसको दो श्लोकोंमें बताते हैं:
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EIFEIAS
अंध्यांय ।
HSSENCE
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अनगार
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दृष्टिनसप्तकस्यान्तहेतावुपशमे क्षये। । क्षयोपशम आहोस्विगव्यः कालादिलब्धिभाक् ॥ ४६ ॥ पूर्णः संज्ञी निसर्गेण गृह्णात्यधिगमेन वा ।
त्र्यज्ञानशुद्धिदं तत्त्वश्रद्धानात्म सुदर्शनम् ॥ ४७ ॥ युग्मम् । पर्याप्त संज्ञी और कालादि लब्धियोंको प्राप्त करनेवाला भव्य जीव निसर्गसे अथवा अधिगमके द्वारा सम्यग्दर्शनके घातनेवाली सात प्रकृतियोंके उपशम क्षय अथवा क्षयोपशमरूप अन्तरंग करणके मिलनेपर तत्व श्रद्धानरूप और तीनो अज्ञानों में शुद्धि उत्पन्न करनेवाले सम्यग्दर्शनको प्राप्त करता है।
___ भावार्थ--शक्तिविशेषकी पूर्णताको पर्याप्ति कहते हैं। उसके छह भेद हैं-आहार शरीर इंद्रिय श्वासोच्छास भाषा और मन । ये पर्याप्ति जिसके पूर्ण होगई हैं उसको पर्याप्त कहते हैं। इसी तरह शिक्षा आलाप उपदेश आदिको ग्रहण करनेवाले शाक्ति-मनको संज्ञा कहते हैं । यह संज्ञा जिनके पाई जाय उन जीवोंको संज्ञी कहते हैं। इस तरहके पर्याप्तक और संजी जीवके उपर्युक्त अन्तरङ्ग कारणके तथा कालादि लब्धियों-सम्यक्त्वके उत्पन्न होनेमें अपेक्षित योग्यताओंके मिलनेपर निसर्ग या आधिगमके द्वारा सम्यग्दर्शन उद्भूत होता है।
इस द्वारकी अपेक्षासे ही सम्यग्दर्शनके दो भेद हैं-१ निसर्गज, २ अधिगमज । जहां उत्पन्न होनेमें देशना साक्षात् निमित्त न हो वहां निसर्गज सम्यग्दर्शन समझना चाहिये । और जहांपर उत्पन्न होनेमें देशना-परोपदेश साक्षात् निमित्त हो उसको अधिगमज समझना चाहिये । किंतु अन्तरङ्ग कारण दोनोंका ही समान है । सम्यक्त्वके घातनेवाली तीन दर्शनमोहनीय और चार अनन्तानुबंधी कषाय इस तरह सात प्रकृतियोंका उपशम या क्षय अथवा क्षयोपशम सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिमें अन्तरङ्ग कारण है। फल देनेवाली शक्तिके उदभृत न होनेको
देशना सामान साक्षात् तीन दृश
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उपशम और उन कोंके सर्वथा नष्ट होनेको क्षय कहते हैं। सर्ववाति सर्यों में से सदयस्थावालोंका उपशम और उदयमें आनेवालोंकी विना फल दिये निर्जरा, तथा देशघाति स्पर्धकोंका उदय होनेपर कर्मकी जो अवस्था होती है उसको क्षयोपशम कहते हैं । इनमेंसे किसी भी एक अंतरङ्ग कारणके तथा उक्त कारणोंके मिलनेपर जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है वह उक्त निसर्ग और अधिगमकी अपेक्षासे यद्यपि दो प्रकारका है फिर भी सामान्यसे सभी सम्यग्दर्शन तत्वश्रद्धानरूप होते हैं, न कि रुचिरूप । क्योंकि क्षीणमोह जीवोंके रुचि नहीं हो सकती । विना रुचिके सम्यक्त्वकी और उसके विना ज्ञानचारित्रकी तथा इनके विना मुक्तिकी सिद्धि नहीं हो सकती । रुचिको जो सम्यग्दर्शन पहले कहा है वह उपचारसे कहा है । इस सम्यग्दर्शनके माहात्म्यसे तीनो अज्ञानों -कुमति कुश्रुत और विभंगमें विपरीतता दूर होकर शुद्धि - समीचीनता उत्पन्न हो जाती है।
काललाब्ध आदिक जो कारण बताये जाते हैं वे अनेक हैं । कर्माविष्ट भव्य अर्धपुद्गलपारिवर्तनप्रमाण काल शेष रहनेपर प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेके योग्य होता है न कि अधिक काल शेष रहनेपर । इसीको काल
रसे कहा था इनके विना जीवोंके साचन
१- कर्मस्पर्धकोंका अपहनन-घात करदेनेवालों ने स्पर्धकका लक्षण इस प्रकार कहा है कि कर्मपरमाणुके शक्तिसमूहको वर्ग, वर्गरूप अणुओंके समूहको वर्गगा, और वर्गगाओंके समूहको स्पर्धक कहते हैं । यथाः
" वर्गः शक्तिसमूहोऽणोरणूनां वर्गणोदिता।
वर्गणानां समूहस्तु स्पर्धकं स्पर्धकापहैः ।" २-सम्यक्त्वोत्पत्तिके कारण आगममें भी अनेक प्रकारके बताये हैं । यया :
"चदुगदि भव्बो सगी पजत्तो सुद्धगो य सागारो । जागाये सजेस्स्ये सलाखो सम्पमुक्यमह ॥"
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न्धि कहते है। आदिशदत पैदना आमभव जातिस्मरण जिनालादर्शन प्रभृति आगममें अनेक ताये
बदनार
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इस
धर्मश्रुतिखाविस्मृतिमुराहजिनमहिमवशनं महताम् । बाय प्रथमशोङ्ग विना सुरक्षियानबादिमुवाम् ॥ मेवेकिणां पूर्वे है सजिनार्वेक्षणे नरतिरश्राम् । सहगमिभवे त्रिषु प्राक् श्वश्रेष्वन्येषु स द्वितीयोसौ ॥ भायोपशमिकी लन्धि शाँदी देश निकी भवी ।
प्रायोगिकी समासाद्य कुरुते करणत्रयम् ।। इस प्रकार धर्मश्रवण और जातिस्मरण आदि गतिभेदकी अपेक्षासे प्रथमोपशम सम्यक्त्वके भिन्न मित्र बाह्य कारण बताये हैं। किंतु अंतरंगकी क्षायोपशामकी आदि ५ लब्धियां सामान्य कारण हैं । इनमें भी आदिकी चार सामान्य और अंतकी करणलब्धि विशेष कारण हैं। क्योंकि आदिकी चार लाब्धयोंके होजानेपर भी करणलब्धिके विना सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं हो सकता । जैसा कि कहा भी है:
खयउवस मिय विसोही देसण पाउग्ग करण लधीए ।
चत्तारिवि सामण्णा करणं पुण होदि सम्मत्ते ॥ ... पूर्वसंचित कर्मपटलके अनुभागस्पर्धकोंकी, परिणामोंकी विशुद्धिके संबंधसे प्रतिसमय अनंत अनन्तगुणी हीन उदीरणा होने को क्षायोपशमिकी लब्धि कहते हैं । क्षयोपशमसे युक्त उदीरणाको प्राप्त अनुभागस्पर्धकोंसे होनेवाले उन परिणामोंको शौद्धी लब्धि कहते हैं जो कि सावध असातावेदनीय प्रभृति कर्मबंधके विरुद्ध और सातावेदनीय आदि कर्मबंधको निमित्त हैं । स्थार्थ तवके उपदेश या उस उपदेशके देनेवाले आचार्यादिकी प्राप्तिको अथवा उपदिष्ट अर्थके ग्रहण धारण और विचार करने की शक्तिको देशनिकी लब्धि कहते हैं ।
SINESSISTRNANTARSA-Aachar
PATPATREATEMENTS
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अध्याय
अन्तःकोटीकोटी सागरकी स्थितिवाले कर्मोंके बंधको प्राप्त होनेपर विशुद्ध परिणामोंके संबंधसे सत्कर्मों को संख्यात हजार सागर कम अन्तःकोटीकोटी सागरकी स्थितिसे युक्त करनेपर ही आद्य सम्यक्त्वको ग्रहण कर सकता है। इसी योग्यताको प्रायेगिकी लब्धि कहते हैं। आत्माके परिणामविशेषों की प्राप्तिको करणलब्धि कहते हैं। इसके तीन भेद हैं- अथप्रवृत्त या अधःप्रवृत्त करण अपूर्व करण, अनिवृत्ति करण। इन तीनो करण के क्रमसे करलेनेपर भव्य जीव सम्यक्त्वको प्राप्त होजाता है । यथा:
अथप्रवृत्तकापूर्वानिवृत्तिकरणत्रयम् । विधाय क्रमतो भव्यः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते ॥
अनादि मिथ्यादृष्टि जिसके कि मोहनीय कर्मकी छब्बीस प्रकृति सत्तामें रहा करती हैं अथवा सादि मियादृष्टि, जिसके कि मोहनीय कर्मकी छब्बीस या सत्ताईस अथवा अठ्ठाईस प्रकृतियां सत्ता में रहा करती हैं, जब प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त करनेको उन्मुख होता है तब ऐसे शुभ परिणामोंके अभिमुख होता है कि जिनकी विशुद्ध अन्तर्मुहूर्ततक अनन्तगुणी अनन्तगुणी वृद्धिके द्वारा बढती ही जाती है । एवं जो चार मनोयोगों में से किसी एक मनोयोग से और चार वचनयोगों में से किसी एक वचनयोगसे तथा औदारिक वैक्रियिक काययोगों में से एक काययोगसे, तीन वेद मेसे एक वेदसे युक्त और संक्लेश परिणामोंसे रहित होता है। जिसकी कषाय नष्ट होती चली जाती है। जो साकार उपयोगको धारण करनेवाला और बढते हुए शुभ परिणामोंके निमित्तसे समस्त कर्म प्रकृतियों की स्थितिका व्हास करता हुआ अशुभ प्रकृतियोंके अनुभाग बंधको दूर करता और शुभ प्रकृतियोंके अनुभागबंध को बढाता है। ऐसा ही भव्य जीव उक्त तीन करणोंके करनेका प्रारम्भ करता है जिनका कि प्रत्येकका काल अन्तर्मुहूर्त है। कमोंकी स्थिति अन्तःकोटीकोटी होजानेपर अधःकरणादिकमें क्रमसे प्रवेश करता है | सभी करणों के प्रथम समय में जीवकी शुद्धि बहुत कम रहा करती है। किंतु प्रतिसमय वह अन्तर्मुहूर्ततक अनन्तगुणी अनन्तगुणी बढती जाती है। तीनो ही करण अन्वर्थ हैं। जो करण- परिणाम अथ नवीन ही प्रवृत्त हों, उनको अथप्रवृत्त करण कहते हैं। क्योंकि इस तरहके परिणाम पहले कभी नहीं हुए । अथवा इस
धर्म०
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बनगार
धर्मः
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करणका नाम अधःप्रवृत्त करण भी है। क्याोंके यहांपर उपरितन समयवर्ती परिणामोंकी समानता अधः-नांचेके -समयमें प्रवृत्त करणोंके साथ पाई जाती है। जहांपर अपूर्व अपूर्व-समय समयमें भिन्न भिन्न किंतु शुद्धतर परिणाम पाये जाय उसको अपूर्वकरण कहते हैं। जहांपर एक समयवर्ती परिणामोंमें निवृत्ति-भिन्नता नहीं पाई जाती उस को अनिवृत्ति करण कहते हैं। सभी करणोंमें नाना जविोंकी अपेक्षा असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम हुआ करते हैं इनमेंसे अधःप्रवृत्त करणमें स्थितिखण्डन और गुणश्रेणिसंक्रमण नहीं होते। किंतु अनन्तगुणी वृद्धिसे युक्त विशुद्धिके द्वारा अशुभ प्रकृतियोंको अनन्त गुणे अनुभागसे हीन और शुभ प्रकृतियोंको अनन्त गुणे अनुभाग रससे युक्त बांधता है । एवं स्थितिको पल्यके असंख्यातवें भाग कम करदेता है। अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमें स्थितिखण्डनादिक होते हैं। क्रमसे अशुभ प्रकृतियोंके अनुभागकी अनन्तगुणी हानि और शुभ प्रकृतियोंके अनुभागकी अनन्तगुणी वृद्धि होती है। इनमेंसे अनिवृत्तिकरणके असंख्यात भाग बीत जानेपर उक्त भव्यजीव अन्तर करणको करता है जिससे कि दर्शनमोहनीयका घात कर अंतसमयमें उसके शुद्ध अशुद्ध और मिश्र इस तरह तीन भाग करदेता है। जिनको कि क्रमसे सम्यक्त्व मिथ्यात्व और मिश्र कहते हैं । ये ही दर्शनमोहकी तान प्रकृति हैं। इनका और अनन्तानुबंधी क्रोध मान माया लोभका उपशम क्षय अथवा क्षयोपशम होनेपर ही सम्यक्त्वकी उद्भः तता होती है। जैसा कि आगममें भी कहा है, यथाः
प्रशमय्य ततो भव्यः सहानन्तानुबन्धिभिः । ता मोहप्रकृतीस्तिस्रो याति सम्यक्त्वमादिमम् ॥ संवेगप्रशमास्तिक्यदयादिव्यक्तलक्षणम् । तत्सर्वदुःख विध्वसि त्यक्तशङ्कादिदूषणम् ॥
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तथा
क्षीणप्रशान्तमिश्रासु मोहप्रकृतिषु क्रमात् । पश्चाद् द्रव्यादिसामग्ऱ्या पुंसां सद्दर्शनं निधा।
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पहले यह बात कही जाचुकी है कि सम्यग्दर्शन निसर्ग या अधिगमके द्वारा उत्पन्न होता है । अत एव इन दोनोंका-निसर्ग और अधिगमका स्वरूप बताते हैं:
विना परोपदेशेन सम्यक्त्वग्रहणक्षणे ।
तत्त्वबोधी निसर्ग: स्यात्तत्कृतोधिगमश्च सः॥४८॥ सम्यक्त्व ग्रहण करनेके समय गुरु आदिकोंके उपदेशके विना ही तत्त्वबोधके होनेको निसर्ग और उपदेशके मिमिचसे तत्त्वज्ञान होनेको अधिगम कहते हैं। भावार्थ -दोनोंमें परोपदेशकी निरपेक्षता और सापेक्षताका ही अंतर है।
इसी धातको पुष्ट करते हैं:केनापि हेतुना मोहवैधुर्यात्कोपि रोचते ।
तत्त्वं हि चर्चानायस्तः कोपि च क्षोदखिन्नधीः ॥४९॥ जिनका मोह. वेदना अभिमादिकर्मस किसी भी निमित्तको पाकर दूर होगया है-सम्यग्दर्शनको पारनेवाली सति प्रकृतियोंका बाब निमिषश जिनके उपशम क्षय या क्षयोपशम हो चुका है उनमेसे कोई जीव तो ऐसे होते है कि जिनको बिना किसी च के विशेष प्रयासके ही तत्व हाच उत्पी हो जाती. है। और कोई ऐसे होते हैं कि जो कुछ अधिक प्रयास करनेपर ही बाह्य निमित्तके अनुसार मोहके दर हो जौनपर तत्वलचिको प्राप्त हो सकते हैं। वह यह अल्प और अधिक प्रयासका ही निसर्ग एवं अधिगम, अन्तर है। जैसा कि आगममें भी कहा है। यथा-.
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MATHEMENARENEEREE NE KE NE KEHEREKA KE REMENKATERIALSHENAMEANA
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। चिसगोंधिगमो वापि तदाप्ता कारणद्वयम् ।
सम्यक्त्वभाक पुमान्यस्मादल्पानल्पप्रयासतः ।। निसर्ग और अधिगम इन दोकी प्राप्तिमें दो कारण हैं। क्योंकि इनके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त करने वाले जीवोंमेंसे कोई तो अल्प प्रयासस और कोई अनल्प-महान् परिश्रमसे सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ करते हैं।
और भी
यथा शूद्रस्य वेदार्थे शाखान्तरसमीक्षणात् ।
स्वयमुत्पद्यते ज्ञानं तत्त्वाथे कस्यचित्तथा ॥ जिस प्रकार शूद्र वेदके अर्थका साक्षात् ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता; क्योंकि उसको उसके पढनेका अधिकार नहीं है। किंतु ग्रंथान्तरोंको पढकर उसके ज्ञानको स्वयं प्राप्त कर सकता है। किसी किसी जीवके तत्वार्थका भी ज्ञान इसी तरहसे होता है। ऐसे जीवोंके गुरूपदशादिके द्वारा साक्षात् तत्त्वबोध नहीं होता किंतु उनके ग्रंथों के अध्ययन आदिके द्वारा स्वयं तत्वबोध और तत्रुचि उत्पन्न हो जाती है।
सम्यक्त्वके भेद बताते हैं - तत्सरागं विरागं च द्विधौपशमिकं तथा ।
क्षायिकं वेदकं त्रेधा दशधाज्ञादिभेदतः॥५०॥ . सम्यग्दर्शनके दो भेद हैं- सराग और वीतराग । अथवा तीन भेद हैं-औपशमिक क्षायिक वेदक । यद्वा दशभेद है-आज्ञा मार्ग उपदेश आदि । इन दशोंके नाम आगे चलकर लिखेंगे। सराग और वीतराग सम्यक्त्वका आधिकरण लक्षण और उपलक्षण बताते हैं:
अ.घ. २३
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ज्ञे सरागे सरार्ग स्याच्छमादिव्यक्तिलक्षणम् ।
विरागे दर्शनं तत्वात्मशद्धिमानं विरागकम् ॥ ५१ ॥ जिसके साथमें चारित्रमोहका उदय पाया जाता है उसको सराग सम्यक्त्व कहते हैं। अत एव यह सराग तत्त्वज्ञानियोंमें-असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानवी जीवतकमें रहता है। इसके उपलक्षण शमादिक हैं, जिनका कि स्वरूप आगे कहेंगे । इस शमादिकके द्वारा ही वह व्यक्त हो सकता है--जाना जा सकता है। दशनमोहनीय कर्मके उपशमादिकके द्वारा उत्पन्न हुई जीवकी विशुद्धिको ही वतिराग सम्यग्दर्शन कहते हैं। यह वीतराग-ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवी जीवोंमें ही रहता है। प्रशमादिकको वीतराग सम्यग्दर्शन नहीं कहते; क्योंकि सहकारी चारित्रमोहनीयका अपाय होजानेसे वहांपर प्रशमादिककी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती । केवल स्वसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा ही उसका अनुभव होता है ।
RSEHORE
प्रशमादिकका लक्षण बताते हैं:-- प्रशमो रागादीनां विगमोऽनन्तानुबन्धिनां संवगः ।
भवभयमनुकम्पाखिलसत्त्वकृपास्तिक्यमखिलतत्त्वमतिः॥५२॥ अनन्त-संसारका अनुबंधन करनेवाले-बीज और अंकुरकी तरहसे प्रवृत्त करनेवाले रागादिक-क्रोध मान माया लोमरूप कषायों तथा उसके साहचर्यसे मिथ्यात्व तथा सम्यमिथ्यात्वके भी अनुद्रेकको प्रशम कहते हैं। संसारकी भीरुताको संवेग कहते हैं । जिससे कि संसारके बढानेवाले कामोंके करनेकी रुचि उत्पन्न नहीं होती अथवा नष्ट होजाती है। त्रस अथवा स्थावरकी अवस्थामें यद्वा नारकादि गतियोंमें भ्रमण कर दु:खका उपार्जन करनेवाले समस्त जीवोंपर कृपा-दयाभाव होनेको अनुकम्पा कहते हैं। जिससे कि " ये
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अनगार
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सब जीव किस प्रकार दुःखसे मुक्त हों " इस तरहके परिणामविशेष उत्पन्न हुआ करते हैं । समस्त पदा थके यथार्थ स्वरूपकी प्रतिपत्तिको आस्तिक्य कहते हैं । जिसके होनेसे जो हेय परद्रव्य हैं उनका और जो उपादेय निज शुद्धात्मस्वरूप है उसका अर्थात्, सभी स्वपर द्रव्योंका उसी तरहसे, जैसा कि उनका स्वरूप है, निश्चय होता है।
स्वगत और परगत सम्यक्त्वके सद्भावका निश्चय किससे होता है सो बताते हैं:--
तैः स्वसंविदितैः सूक्ष्मलोभान्ताः स्वां दृशं विदुः । प्रमत्तान्तान्यगां तज्जवाक्चेष्टानुमितैः पुनः ॥ ५३ ॥
स्वयंके संवेदनके द्वारा भले प्रकार निर्णीत उपर्युक्त प्रशमादिकोंके द्वारा असंयत सम्यग्दृष्टिसे लेकर सूक्ष्मसांपराय दशम गुणस्थान पर्यंत सात गुणस्थानवाले जीव स्वगत सम्यग्दर्शनके सद्भावको जान सकते हैं। और प्रशमादिकोंके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले वचन तथा चेष्टा- काय व्यापारको देखकर जिनका अनुमान करलिया जाता है ऐसे प्रशम संवेग अनुकंपा और आस्तिक्यके द्वारा छठे गुणस्थान तकके परजीवोंके सम्यग्दर्शनको भी जान सकते हैं।
भावार्थ - स्वगत सम्यग्दर्शनके निमिचसे जिन प्रशमादि भावोंकी उत्पत्ति होती है उनका निर्णय स्वयं होजाता है । और इसीलिये उन स्वयं निणति प्रशम संवेग अनुकंपा और आस्तिक्यके द्वारा उस सम्यग्दर्शनका भी ज्ञान हो सकता है। इसी तरह अपने प्रशमादिकसे अविनाभावी उत्पन्न होनेवाले वचन एवं कायव्यापारका भी निर्णय होजाता है। उसी तरहका वचन तथा कायव्यापार आदि दूसरोंका देखकर उनके अविनाभावी प्रशमादिकका अनुमान करलिया जाता है; और उन अनुमित प्रशमादिकोंके द्वारा परके सम्यग्दर्शनका भी ज्ञान हो सकता है। किंतु इस तरहसे चौथे पांचवें और छट्ठे गुणस्थान तकके ही परगत सम्यग्दर्शनका ज्ञान हो सकता है।
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भनमार
- औपशमिक सम्यग्दर्शनके अन्तरङ्ग कारणको बताते हैं: -
शमान्मिथ्यात्वसम्यक्त्वमिश्रानन्तानुबन्धिनाम् ।
शुद्धेम्भसीव पङ्कस्य पुंस्यौपशमिकं भवेत् ॥ ५४ ॥ जिस प्रकार निर्मलीके फल आदिको डाल देनेसे कीचडके नीचे बैठ जानेपर जलमें शुद्धि आजाती है । और वह स्वच्छ होजाता है उसी प्रकार मिथ्याच सम्यक्त्व और मिश्र एवं अनन्तानुबंधी कषायोंके-क्रोध मान माया लोभके शांत होनेसे जीवकी कष्मलता दूर होजाती है-दब जाती है और वह शुद्ध होजाता है। ऐसे जीवके इस उ. पशमके निमिचसे जो तत्त्वश्रद्धानरूप परिणाम होते हैं उसको औपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं।
जिसके उदयसे जीव सर्वज्ञोक्त मार्गके श्रद्धानसे विमुख होकर मिथ्यादृष्टि होजाता है उसको मिथ्यात्व कहते हैं । इसी मिथ्यात्त्वको, जब कि वह शुभ परिणामोंके निमित्तसे अपने अनुभागके क्षीण होजानेपर औदासीन्य रूपमें स्थित होजाता है, सम्यक्त्व कहते हैं। जिसका कि उदय होनेसे सर्वज्ञोक्त मार्गका श्रद्धान करलेनेपर जीव सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। क्योंकि यह प्रकृति सम्यक्त्व की प्रतिबंधक नहीं है। इसी तरह जिस मिथ्यात्वकी अनुभागशक्ति आधी शुद्ध हो चुकी है उसको मिश्र अथवा सम्यमिथ्यात्व कहते हैं। जिस प्रकार भांग वगैरह किसी नसेली चीजको कुछ धोडालनेसे उसका आधा नसा कम होजाता है और उसके पीनेपर कुछ नसा और कुछ होश-सावधानता रहा करती है इसी तरह मिश्र प्रकृतिके उदय होनेपर मिश्र-मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके मिले हुए परिणाम हुआ करते हैं । अनंतानुबंधीका अर्थ पहले लिखा जा चुका है । बस, इन सात प्रकृतियोंका उपशम ही औपशमिक सम्यग्दर्शनका अंतरङ्ग कारण है ।
- थायिक सम्यग्दर्शनका अंतरंग कारण बताते हैं:
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बनमार
STE-JTANTR-
3BDASTARANG
तत्कर्मसप्तके क्षिप्ते पङ्कवत्स्फटिकेम्बुवत् ।
शुद्धेऽतिशुद्धक्षेत्रज्ञे भाति क्षायिकमक्षयम् ॥ ५५ ॥ _ जिस प्रकार पङ्किल जलमेंसे पङ्कके भागका सर्वथा नाश होजानेपर बाकीका खच्छ जल किसी स्फटिकके वर्तनमें यदि रखदिया जाय तो वह अत्यंत शुद्ध और शोभायमान होता है और फिर उसमें अशुद्ध होनेका कोई कारण नहीं रहता। इसी प्रकारसे उपर्युक्त सात कोंके तीन दर्शनमोहनीय और चार अनन्तानुबंधी कषायके सर्वथा नष्ट होजानेपर-सामग्रीविशेषके द्वारा दूर होजानेपर उद्भूत होनेवाले सम्यग्दर्शनको क्षायिक सम्यग्दर्शन कहते हैं। वह अत्यंत शुद्ध और अक्षय होता है। क्योंकि उसमें शङ्कादिक दूषण नहीं होते और वह शुद्धऔपशमिक सम्यग्दर्शनसे भी अत्यंत शुद्ध होता है। क्योंकि इसके प्रतिबंधक कारण सर्वथा नष्ट होजाते हैं। और यह उत्पन्न होनेके बाद कभी नष्ट नहीं होता इसलिये अविनाशी है । इस प्रकार यह सम्यग्दर्शन अत्यंत निर्मल आत्मामें सदा कालतक प्रकाशमान रहा करता है । क्योंकि यह कभी भी किसी भी निमित्तसे क्षुब्ध नहीं हो सकता । जैसा कि आगममें भी कहा है, यथाः
रूपैर्भयंकरैर्वाक्यहेतुदृष्टान्तदर्शिमिः ।
जातु क्षायिकसम्यक्त्वो न क्षुभ्यति विनिश्चलः ॥ क्षायिक सम्यग्दृष्टि के परिणाम इतने निश्चल होते हैं कि वह भयंकर स्वरूपको देखकर अथवा वैसे वाक्यों - को सुनकर यद्वा हेतु और दृष्टान्तको प्रकाशित करनेवाले हेत्वाभास तथा दृष्टान्ताभाससे भरे हुए वाक्योंको भी सुनकर कभी क्षुब्ध नहीं होता।
भावार्थ--उपर्युक्त सात प्रकृतियोंका सामग्रीविशेषके द्वारा सर्वथा अभाव होजाना ही क्षायिक सम्यग्दशनका अन्तरङ्ग कारण है।
खध्याय
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घमे.
वदेक सम्यक्त्वके अन्तरङ्ग कारणको बताते हैं:पाकाद्देशनसम्यक्त्वप्रकृतेरुदयक्षये ।
शमे च वेदकं षण्णामगाढं मलिनं चलम् ॥ ५६ ॥ सम्यक्त्वकी घातक उक्त सात प्रकृतियों से सम्यक्त्वको छोडकर बाकी छह प्रकृतियोंमेंसे उदयमें आनेवालोंकी निवृत्ति होजानेपर---विना फल दियं ही निर्जरा होजानेपर और उदयमें न आनेवालियोंका उपशम होजानेपर तथा अंशतः सम्यक्त्वका घात करनेवाली उक्त सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होनेपर जो श्रद्धानरूप प रिणाम होते हैं उसको वेदक सम्यक्त्व कहते हैं । अत एव यह क्षयोपशम ही वेदक सम्यक्त्वका अन्तरंग कारण है। यह सम्यक्त्व अगाढ मालन और चल होता है ।
वेदककी अगाढताको दृष्टांतद्वारा स्पष्ट करते हैं:-- वृद्धयष्टिरिवात्यक्तस्थाना करतले स्थिता । स्थान एव स्थिते कम्प्रमगाढं वेदकं यथा ॥ ५७ ॥
जिस प्रकार वृद्ध पुरुषकी यष्टि-लकडी हातमें ही बनी रहती है-उससे पृथक नहीं होती और अपने स्थानको नहीं छोडती; फिर भी कुछ कंपती रहती है-निश्चल नहीं रहती। उसी प्रकार जो क्षायोपशामिक सम्यग्दर्शन अपने विषय-देव गुरू शास्त्र और तत्त्वादिकमें ही स्थित रहते हुए भी सकम्प होता है-स्थिर नहीं रहता उसको अगाढ वेदक सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
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इस अगाढताका उल्लेख-आकार बताते हैं:
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खकारितेर्हच्चैत्यादौ देवोयं मेऽन्यकारिते ।
अन्यस्यासाविति भ्राम्यन्मोहाच्छारोपि चेष्टते ॥ ५८ ॥ मिथ्यादृष्टिकी तो बात ही क्या, जो सम्यग्दृष्टि-श्रद्धावान् हैं वे भी मोह-सम्यक्त्व प्रकृति-मिथ्यात्वके उदयसे भ्रम-संशयको प्राप्त होकर अपने बनाये हुए जिनबिम्ब जिनमन्दिर या किसी अन्य सम्यक्त्वक्रियाके साधनमें "ये मेरे देव हैं," या " यह मेरा मन्दिर है," इस तरहका और दूसरेके बनाये हुए जिनबिम्ब या जिनमन्दिरादिकमें “ ये उसके देव हैं," या " यह उसका मन्दिर है," ऐसा व्यवहार करने लगते हैं ।
मलिनताका स्वरूप बताते हैं:तदप्यलब्धमाहात्म्यं पाकात्सम्यक्त्वकर्मणः । मलिनं मलसङ्गेन शुद्धं स्वर्णमिवोद्भवेत् ॥ ५९ ॥
POPURICA
जिस प्रकार सुवर्ण पहले अपने कारणोंसे चाहे शुद्ध ही उत्पन्न हुआ हो किंतु वह माहात्म्यरहित होनेपर चांदी वगैरह परपदार्थरूपी मलके संसर्गसे मालन होजाता है। इसी प्रकार क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन चाहे पहले शुद्ध ही क्यों न उत्पन्न हुआ हो, किंतु सम्यक्त्व प्रकृति-मिथ्यात्वके उदयसे उत्पन्न होनेवाले शङ्कादिक दोषरूपी मलके संसर्गसे मलिन होजाता है; क्योंकि कर्मक्षपणके द्वारा प्राप्त होनेवाले आतिशयसे वह सर्वथा रहित होता है।
चलपनेको बताते हैंलसत्कल्लोलमालासु जलमेकमिव स्थितम् ।
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बनगार
ERICANISATTRANSARRCANTERNA
नानात्मीयविशेषेषु चलतीति चलं यथा ॥ ६॥ जिस प्रकार उद्दीप्त होनेवाली कल्लोलमालाओं-तरंगपंक्तियोंमें जल एक ही स्थित रहता है-तरंगोंकी चंचलताके कारण जलमें किसी प्रकारका भेद नहीं होता । उसी प्रकार अपने नाना विशेषोंमें देव गुरु शास्त्र द्रव्य तच्च प्रभृतिमें चलायमान होनेवाले क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनको चल कहते हैं। - इसी चल सम्यग्दर्शनका उल्लेख -आकार बताते हैं:--
समेप्यनन्तशक्तित्वे सर्वेषामर्हतामयम् ।
देवोस्मै प्रभुरेष स्मा इत्यास्था सुदृशामपि ॥ ६१ ॥ सभी अर्हत समानरूपसे अनन्तशक्तिके धारक हैं। फिर भी उनके विषयमें सम्यग्दृष्टियोंकी भी इस तरहकी आस्था-प्रतीति होने लगती है कि "ये देव-पार्श्वनाथ भगवान् इस कार्यकेलिये-उपसर्ग दूर करनेकेलिये समर्थ हैं, और शांतिनाथ भगवान् अमुक कार्यकेलिये-शान्ति स्थापनकालिये समर्थ हैं"।
... 'इस प्रकार क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनमें सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयसे जो अगाढता आदि दोष उत्पन्न होते हैं उनका स्वरूप बताया । किन्तु इस विषयमें और भी कहा है जो कि इस प्रकार है:
कियन्तमपि यत्कालं स्थित्त्वा चलति तञ्चलम् । वेदकं मलिनं जातु शङ्कायर्यत्कलङ्कयते । यञ्चल मलिनं चास्मादगाढमनवस्थितम । नित्यं चान्तर्मुहूर्तादिषट्रषष्टयब्ध्य न्तवर्ति यत् ॥
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अनगार
MERIES
जो, कुछ कालतक स्थिर रहकर चलायमान होजाता है उसको चल कहते हैं। जो शंकादिक दषणोंसे कलंकित होता है उसको मलिन कहते हैं। इस प्रकार जो क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन चल" मलिन अगाढ और अनवास्थत है वह कथंचित् नित्य भी है-दीर्घकालस्थायी है। क्योंक उसकी स्थिति अन्तर्मुहूर्तसे लेकर छयासठ सागर तककी है। -- पहले आज्ञा मार्ग आदिकी अपेक्षासे सम्यक्त्वके दश भेद गिनाय हैं; अब उन्हीके नाम बताते हैं:
आज्ञामार्गोपदेशार्थबीजसंक्षेपसूत्रजाः ।
विस्तारजावगाढासौ परमा दशधेति दृक् ॥ ६२॥ आज्ञा मार्ग उपदेश अर्थ बीज संक्षेप सूत्र और विस्तार इनसे उत्पन्न होनेवाला तथा अवगाढ और परमावगाढ; इस तरह सम्यक्त्वके दश भेद है।
शाखाध्ययनके विना केवल वीतगग देवकी आज्ञाके अनुसार जो तत्त्वोंमें रुचि उत्पन्न होती है उसको आज्ञासम्यक्त्व कहते हैं। मोहनीय कर्मका उपशम होजानेपर शास्त्राभ्यासके विना, बाह्य और अभ्यंतर परिग्रहसे सर्वथा राहत और कल्याणकारी मोक्षमार्गमें रुचि होनेको मार्गसम्यक्त्व कहते हैं। तीर्थकर प्रभृति उत्तम पुरुषों के चरित्रको सुनकर जो तत्त्वोंमें रुचि उत्पन्न हो उसको अथवा हृदयमें उन चरित्रोंके सुनने का भाव उत्पन्न हो उसको उपदेश सम्यक्त्व कहते हैं। किसी पदार्थको देखकर या उसका अनुभव कर अथवा दृष्टान्तादिका अनुभव कर जो प्रवचनके विषयमें रुचि उत्पन्न होती है उसको अर्थ सम्यक्त्व कहते हैं। गणित ज्ञानकेलिये जो नियम बताये हैं उन पूर्ण या अपूर्ण बीजोंको जानकर और मोहनीय कर्मका अतिशय उपशम होजानेपर करणानुयोगके गहन भी पदार्थोंके जाननेसे जो सम्यक्त्व उद्भूत होता है उसको बीजसम्यग्दर्शन कहते
SAHEBITEAJPAYERATI
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अ.घ.२४
ESRAES
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हैं। पदार्थोंको संक्षेपसे ही जानकर जो तत्त्वोंमें रुचि होती है उसको संक्षेपसम्यग्दर्शन कहते । मुनियोंकी चारित्रविधिका वर्णन करनेवाले आचारसूत्रको सुनकर जो श्रद्धा उत्पन्न हो उसको सूत्रसम्यग्दर्शन कहते हैं । जो समस्त द्वादशाङ्गको सुनकर रुचि उत्पन्न होती है उसको विस्तार सम्यग्दर्शन कहते हैं । अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य इस तरह समस्त श्रुतका पूर्ण अनुभव होजानेपर - श्रुतकेवल अवस्था प्राप्त होजानेपर जो तत्त्वोंमें श्रद्धा उत्पन्न होती है उसको अवगाढ सम्यग्दर्शन कहते हैं। साक्षात् केवलज्ञानके होजानेपर जो पदार्थोंमें अत्यंत दृढ श्रद्धा उत्पन्न होती है उसको परमावगाढ सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
आज्ञासम्यक्त्वको प्राप्त करनेका उपाय बताते हैं: -- • देवोर्हन्नेव तस्यैव वचस्तथ्यं शिवप्रदः ।
धर्मस्तदुक्त एवेति निर्बन्धः साधयेद् दृशम् ॥ ६३ ॥
क्लेश – रागद्वेष और कर्मोदय तथा उससे होनेवाले क्षुधातृषादिक दोषों एवं सांसारिक विषयवासनाओं और अज्ञानादिकसे जो सर्वथा रहित है उस पुरुषविशेषको ही देव कहते हैं । ऐसा देव अर्हन्त ही हो सकता है । अतएव उसीके वचन सत्य हो सकते हैं, क्योंकि वह सर्वज्ञ एवं वीतराग है । और इसीलिये धर्म भी उस अर्हता ही कहा हुआ सत्य तथा अभ्युदय और निःश्रेयस - मोक्षका साधक हो सकता है। इस प्रकारका निर्बन्ध - अभिनिवेश ही सम्यग्दर्शन - आज्ञासम्यक्त्वको सिद्ध कर सकता है ।
अब पांच पद्योंमें सम्यग्दर्शनके माहात्म्यका वर्णन करते हैं । जिसमें से पहले यहां पर जिससे विनेयों - शिष्यों व श्रोताओंको सुखपूर्वक उसकी स्मृति हो सके इसलिये सम्यग्दर्शनकी सामग्री और स्वरूप बताकर संक्षेपसे उसकी अनन्यसंभवी महिमाको प्रकट करते हैं:--
प्राच्येनाथ तदातनेन गुरुवाग्बोधेन कालारुण, -
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स्थामक्षामतमश्छिदे दिनकृतेवोदेष्यताविष्कृतम् । तत्त्वं हेयमुपेयवत्प्रतियता संवित्तिकान्ताश्रिता
सम्यक्त्वप्रभुणा प्रणीतमहिमा धन्यो जगज्जेष्यति ॥ ६४॥ वह पुरुष धन्य है और वही जगत--निश्चयसे अपने आत्मस्वरूप और व्यवहारसे जीवादिक छहो द्रव्योंके समूहरूप लोकको-जीत सकता है, जिसका कि माहात्म्य उस सम्यक्त्वप्रभुके द्वारा प्रवृत्त होता है, जो कि कालादिलाब्धरूप अरुण सूर्यके सारथीकी शाक्तके द्वारा कुश किये गये अंधकारका छेदन करनेकेलिये सूर्यके समान उदयको प्राप्त होनेवाले प्राच्य अथवा तदातन-अपने ( सम्यग्दर्शनके ) उत्पन्न होनेसे पूर्वसमयवर्ती अथवा समसमयवी महान् वाग्बोधके द्वारा प्रगट किये गये हेय और उपादेय तत्त्वको प्रगट करता है तथा सवित्त सम्यग्ज्ञप्ति-समीचीन ज्ञानरूपी कांताको प्राप्त होता है।
. भावार्थ-यहांपर बाग्बोधसे अभिप्राय आगमज्ञानका है, अत एव वचनशब्दको उपलक्षण ही समझना चाहिये । और इसके अनुसार हाथ वगैरहके इशारेसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान भी आगम ही समझना चाहिये तथा उसका भी यहां ग्रहण करना चाहिये | यह आगमज्ञान दो प्रकारका हो सकता है। एक सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होनेसे पूर्वसमयवी, दूसरा समसमयवर्ती । काग्बोधशब्दके साथ जो गुरुशब्द है उसके भी दो अभिप्राय हैं। एक तो यह कि वाग्बोध-आगमज्ञान गुरु-महान् है क्योंकि वह परोपदेशकी अपेक्षा नहीं रखता। यह बात निसर्गकी अपेक्षासे समझनी चाहिये । दूसरा यह कि वह गुरु-धर्मोपदेशकके वचनोंसे उत्पन्न होता है। यह अर्थ अधिगमकी अपेक्षासे समझना चाहिये । प्राच्य और तदातन शब्दके द्वारा सम्यग्दर्शनकी सामग्री बताई है। क्योंकि बहिरंग कारणकी अपेशासे सम्यग्दर्शन निसर्गज और अधिगमज इस तरह दो प्रकारका है। यह बात पहले बता चुके हैं । जिस प्रकार उदयको प्राप्त होनेवाला सूर्य सारथीकी शक्तिसे अंधकारको छिन्न करदेता है उसी प्रकार सम्यग्ज्ञान सम्यक्त्वोत्पत्तिके योग्य काल क्षेत्र द्रव्य भाव रूप सारथिकी शक्तिसे निर्बल हुए मिथ्यात्वरूपी तिमिरको दूर कर देता है। और सम्यक्त्वके साथ ही उदित होता है। साथमें उदित होना समीचीन
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मावकी अपेक्षासे है। क्योंकि ज्ञानमें समीचीनता सम्यग्दर्शनके निमितसे ही होती है । और इसलिये उसको सम्यग्दर्शनका कार्य माना है। यहां प्रश्न हो सकता है कि जब दोनो साथ ही उत्पन्न होते हैं तब उनमें कार्यकारणभाव किस तरह बन सकता है ? किन्तु समान समयमें उत्पन्न होनेवालोंमें भी कार्यकारण भाव हो सकता है; यह बात प्रदीप और प्रकाशमें देखनेसे भले प्रकार घट सकती है। जैसा कि आगममें भी कहा है
कारणकार्यविधानं समकालं जायमानयोरपि हि ।
दीपप्रकाशयोरिव सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम् । इसीलिये आगे चलकर सम्यग्दर्शन आराधनाके उपदेशके अनंतर ज्ञान आराधनाका उपदेश देंगे, जैसा कि आगममें भी कहा है
सम्यग्ज्ञानं कार्य सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः ।
झानाराधनमिष्टं सम्यक्त्वानन्तरं तस्मात् ॥ अत एव श्वेतांबराचार्योंका यह वचन ठीक नहीं है कि:
चतुर्वर्गाप्रणीर्मोक्षो योगस्तस्य च कारणम् ।
ज्ञानश्रद्धानचारित्ररूपं रत्नत्रयं च सः॥ यहांपर यह प्रश्न हो सकता है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनो ही आत्माके अभिन्न भाव हैं अत | एव भिन्न भिन्न दो आराधनाएं नहीं हो सकती-दोनोंका पृथक् पृथक् आराधन नहीं किया जा सकता ? किंतु यह नहीं है। क्योंकि यद्यपि दोनो एक ही आत्माके भाव हैं इसलिये इनमें कथंचित अभेद है। फिर भी दोनोंका लक्षण भिन्न भिन्न है, इसलिये कथंचित् अभेद भी है । अत एव दोनोंका भिन्न भिन्न रूपमें भी आराधन हो सकता है। जैसा कि आगममें भी कहा है:
पृथगाराधनमिष्टं दर्शनसहभाविनोपि बोधस्य ।
लक्षणभेदेन यतो नानात्वं संभवत्यनयोः । सम्यक्त्व सचमुच में प्रभु है, और इसीलिये वह परम आराध्य है। क्योंकि उसीके प्रसादसे सिद्धि सिद्ध हो सकती
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बनगार
है। और उसीके निमित्तसे मनुष्यों वह माहात्म्य प्राप्त होता है कि जिसके द्वारा जीव जगत्पर विजय प्राप्त करलेता है-सर्वज्ञ होकर समस्त जगत्का भोक्ता होजाता है। सम्यक्त्वका ऐसा ही माहात्म्य है कि उससे समस्त सुखोंकी उपलब्धि होसकती है। जैसा कि कहा भी है--
किं पलविएण बहुणा सिद्धा जे णरवरा गए काले । सिझिहहिं जे वि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं । तत्त्वपरीक्षाऽतत्त्वव्यवच्छिदा तत्त्वनिश्चयं जनयेत् । स च दृग्मोहशमादौ तत्त्वरुचिं सा च सर्वसुखम् ।। शुभपरिणामनिरुद्धस्वरसं प्रशमादिकरभिव्यक्तम् ।
स्यात्सम्यक्त्वमनन्तानुबन्धिमिथ्यात्वमिश्रशमे ॥ बहुत कहनेसे क्या प्रयोजन, भूत कालमें जितने नरपुंगव सिद्ध हुए हैं और भविष्यत्में सिद्ध होंगे वह सब सम्यक्त्वका ही माहात्म्य है। - तत्त्वके परीक्षण-समर्थन और अतत्त्वके निराकरणसे तत्त्वका निश्चय हुआ करता है। किंतु यह निश्चय दर्शनमोहके उपशमादिक होनेपर होता है। तत्त्वका निश्चय होनेपर तत्त्वमें रुचि उत्पन्न होती है और उससे समस्त सुखोंकी सिद्धि होती है।
अनन्तानुबंधी कषाय मिथ्याच्च और मिश्र प्रकृतिका उपशम होनेपर सम्यक्त्वकी उद्भूतता होती है जो कि प्रशमादिकोंके द्वारा अभिव्यक्त होता और शुभ परिणामोंके द्वारा अपने रसको निरुद्ध करदेता है।
जिसका सम्यग्दर्शन निर्मल गुणोंसे अलंकृत है ऐसा भव्य जीव निरनिशय माहात्म्यके कारण जिस | सर्वोत्कर्षको प्राप्त करलेता है उसकी प्रशंसा करते हैं:
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बनगार
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यो रागादिरिपून्निरस्य दुरसान्निर्दोषमुद्यन् रथं, संवेगच्छलमास्थितो विकचयन्विस्वक्कृपाम्भोजिनीम् । व्यक्तास्तिक्यपथस्त्रिलोकमहितः पन्थाः शिवश्रीजुषा, - माराद्धृन्पृणतीप्सितैः स जयतात्सम्यक्त्वतिग्मद्युतिः ॥ ६५ ॥
सम्यग्दर्शनको सूर्य के समान समझना चाहिये । जिस प्रकार सूर्यको संदेह प्रभृति साठ कोटि हजार राक्षस तीनो कालमें - प्रातः मध्यान्ह और सायंकाल में घेरे रहते हैं उसी प्रकार सम्यक्त्वको भी रागादिक-मियात्प्रभृति सात प्रकृतिरूपी शत्रु तीनों कालमें भूत भविष्यत् वर्तमान में घेरे रहते हैं । जिस प्रकार सूर्य ब्राह्म
के द्वारा त्रिकाल संध्योपासन के अनन्तर दीगई अर्घाञ्जलिकी जलबिन्दुरूपी वज्रसे उन सन्देहादिक राक्षस - शत्रुओंका निपात करदेता है उसी प्रकार सम्यक्त्व भी काललब्धि आदिके द्वारा उदयसे अथवा स्वरूपसे उन दुर्निवार शत्रुओं को निरस्त - व्युच्छिन्न करदेता है । जिस प्रकार सूर्य उन वैरिओंको निरस्त कर ऊपरको आक्रमण करता हुआ दोषा - रात्रिका अभाव होजानेसे निर्दोष रथमें आरूढ होता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन भी उन कर्मशत्रुओं को व्युच्छिन्न कर उद्यत होता हुआ निर्दोष - शंकादिक मलोंसे रहित संवेगरूपी रथमें आरूढ होता है । . जिस प्रकार सूर्य समस्त जगत्की कमलिनिओंको प्रफुल्लित करदेता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन भी कृपा - अनुकम्पा - दयारूपी कमलिनिओंको विकशित - आल्हादित करदेता है । जिस प्रकार सूर्य मार्गको व्यक्त प्रकट करदे - ता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन भी आस्तिक्यरूपी मार्गको प्रकट करदेता है। जिस प्रकार सूर्य तीनो लोकोंके द्वारा पूजित है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन भी पूजित है । जिस प्रकार सूर्य मोक्षस्थानको जानेवालोंका मार्ग है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन भी अनन्तज्ञानादिरूप अथवा मोक्षलक्ष्मीका प्रीतिपूर्वक सेवन करनेकी इच्छा रखनेवालोका मार्ग प्राप्तिका उपाय है। इस प्रकार सूर्यके समान यह सम्यग्दर्शन सदा सर्वोत्कर्षको प्राप्त होता रहे; जो कि अपने आराधकोको ईप्सित वस्तुओंके द्वारा तृप्त करदेता है ।
धर्म -
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धनगार
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भावार्थ:- यहां पर मोक्षस्थानको जानेवालोंका मार्ग सूर्यको जो बताया है. उसका अभिप्राय यह है कि सिद्ध जीव लोकके अंतको जो जाते हैं सो सूर्यमण्डलको भेदकर जाते हैं । जैसा कि संन्यासविधिमें भी कहा है -
संन्यसन्तं द्विजं दृष्ट्वा स्थानाञ्चलति भास्करः । एष मे मण्डलं भवा परं ब्रह्माधिगच्छति ।।
द्विजको संन्यास लेता हुआ देखकर सूर्य भी मानो यह समझकर अपने स्थानसे चल जाता है कि यह मेरे मण्डलको भेदकर परम ब्रह्मको प्राप्त हुआ जाता है ।
तथा लोकमें भी कहा है कि
मह परमेसरं तं कंपेते पाविऊण रविबिम्ब । णिव्वाणजणियछिंद जेण कयं छारछाणणयं ॥
उस परमेश्वरको नमस्कार करो कि जिसको पाकर सूर्यका भी बिंब कँपजाता है।
इसी तरह आस्तिक्यको मार्गके समान इसलिये बताया है कि वह इष्ट स्थानकी प्राप्तिका कारण है । तथा सूर्यका संदेहादि राक्षसोंसे घिरे रहनेका कथन लोकोक्तिके आधारपर किया गया है।
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पुण्य भी जो समस्त कल्याणोंको उत्पन्न या पूर्ण कर सकता है या करता है सो भी सम्यक्त्वके ही अनुग्रहसे । यही बात दिखाते हैं:
वृक्षाः कण्टकिनोपि कल्पतरवो ग्रावापि चिंतामणिः, पुण्यागौरपि कामधेनुरथवा तन्नास्ति नाभून्नवा |
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बनगार
भाव्यं भव्यमिहागिनां मृगयते यज्जातु तद्भकुटिं,
सयग्दर्शनवेधसो यदि पदच्छायामुपाच्छन्ति ते ॥ ६६ ॥ पुण्यके प्रसादसे कटीले भी वृक्ष-बबूर वगैरह कल्पवृक्ष हो जाते हैं। साधारण पाषाण चिन्तामणि रत्न होजाता है । और गौ-साधारण गौ कामधेनु होजाती है । अथवा उसकी अद्भुत शक्तिका वर्णन कहांतक किया जा सकता है। क्योंकि प्राणियोंका जगत्में ऐसा कोई भी कल्याण न तो है, न हुआ, न होगा कि जो कदाचित मी उस पुण्यकी भ्रकुटिकी अपेक्षा करे । क्योंकि जो सम्यग्दर्शनका आराधन करनेवाले हैं उनके उस पुण्यकी उपलब्धि होती है कि जिससे तीन काल और तीनो लोकोंमें तीर्थकरत्व सरीख पदों या अभ्युदयोंकी प्राप्ति हुआ करती है । भृकुटि शब्दके कहनेका अभिप्राय यही है कि जो महाप्रभु होता है वह अपनी आज्ञाका उल्लंघन करनेवालके प्रति क्रोधसे भृकुटि चढाता है । किंतु सम्पग्दर्शन का सहचारी ऐसा कोई भी पुण्य नहीं है कि जिसका कोई भी अभ्युदय उल्लंघन कर सके-जिसके अनुसार कोई भी कल्याण सिद्ध न हो सके। क्योंकि जितने भी अभ्युदय हैं वे सब सम्यग्दर्शनके सहचारी पुण्यका उदय होते ही सम्पन्न होजाते हैं । अत एव वे उसकी धुकुटिकी कदाचित् भी अपेक्षा नहीं करते । किंतु यह बात तभी हो सकती है जब कि वे पुण्यका सम्पादन करनेवाले सम्यग्दर्शनरूपी वेधा ब्रह्माके चरणोंका आश्रय लें। क्योंकि सम्यग्दर्शनकी सहचारिताके विना उस तरहका पुण्य सम्पन्न नहीं हो सकता । सम्यग्दर्शनको ब्रह्मा कहनेका
अभिप्राय यह है कि वह समस्त पुरुषार्थों के उत्पन्न करनेमें स्वतंत्र है। - जो मनुष्य मल प्रकार सम्यग्दर्शनको सिद्ध कर चुके हैं उनकी विपत् भी संपत ही होजाती है। इतना ही नहीं, किंतु उसका केवल नाम लेनेवाले भी सहज ही विपत्तियोंसे मुक्त हो जाते हैं। यही बात दिखाते हैं:
बध्याय
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बनगार
सिंहः फेरुरिभः स्तभोग्निरुदकं भीष्मः फणी भलता, पाथोधिः स्थलमन्दुको मणितरश्चौरश्च दामोञ्जमा । तस्य स्याद् ग्रहशाकिनीगरिपुप्रायाः पराश्चापद,--
स्तन्नाम्नापि वियन्ति यस्य वदते सदृष्टिदेवी हृदि ॥ ६७ ।। जिस मनुष्यके हृदयमें सम्यग्दर्शनरूपी देवता सिद्ध होकर बोलने लगती है उसके लिये अत्यंत भयंकर -प्राणान्त करनेवाले उपसर्गोके उत्पन्न करने में उद्यत हुए मी सिंह शार्दूल प्रभृति जीव परमार्थसे, भृगालादिकके समान, होजाते हैं-उसके हुंकारमात्रसे दूर भाग जात हैं । इसी तरह अत्यंत क्रूर भी गजराज बरीके समान, बन जाता है। जिस तरह कान पकड कर बकरीको वशमें, किया जा सकता है उसी तरह मयंकर, मी हस्ती वशमें हो.. ज्यता और उसपर आरोहण किया जा सकता है । तथा भयंकर अग्नि जलके, समान होजाती है। भीष्म, सपराज केचुआके सदृश बनजाता है । समुद्र स्थल होजाता है और लोहेकी मजबूत भी श्रृंखला-संकल मषियीं -मोतियोंकी माला बनजाती हैं। चोर दास होजाता है--खरीदे हुए गुलामकी तरह काम करने लगता है। विषियों नष्ट होजाती हैं। अधिक क्या कहा जाक उस देवताका.माम मात्र लेनेसे प्राणियोंके अत्यंत प्रकृष्ट मी ग्रह शाकिनी नरादिक व्याधियां और शत्रुप्रकृति तथा बौर भी आपत्तियां सा दूर होजाती हैं।
समक्षुओंको सम्यग्दर्शनका आराधन करनेमें प्रोत्साहित करते हुए रद्ध करनेकेलिये, यह बताते हैं कि वह सम्यग्दर्शन दुर्गतिओंका प्रतिबंध करनेवाला और परम अभ्युदयके साधनका, अंग तथा साक्षात् मोक्षका कारण है।
परमपुरुषस्याद्या शक्तिः मुहग् वरिवस्वतां,
नरि शिवरमासाचीक्षा या प्रसीदति तन्वती। ब.प. २५
D
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अनगार
१९४
अध्याय
कृतपरपुरभ्रंशं क्लृप्तप्रभाम्बुदयं यया
सृजति नियतिः फेलाभोक्त्री कृतत्रिजगत्पतिः ॥ ६८ ॥
हे मोक्षकी इच्छा रखनेवाले भव्यो ! परमपुरुष, परमात्मा की आद्य प्रधानभूत शक्ति सम्यग्दantarvधन करो । जो कि शिवरमणीके साची - तिर्यक् ईक्षा -- कटाक्षको विस्तृत करती हुई मनुष्यपर अपनी प्रपन्नता प्रगट करती है । एवं जिसके प्रसादसे अतिशयित प्रभावको प्राप्त हुई नियति पर -- मिथ्यात्व अथवा वैरिओंके नगरका अंश - विनाश करती हुई और तीनो लोकों के स्वामियोंको उच्छिष्टभोजी बनाती हुई अभ्युदयको निष्पन्न करती है ।
भावार्थ - जिस प्रकार सांसारिक मनुष्य परमपुरुष - महादेवकी आद्य शक्ति पार्वतीको मानते हैं और कहते हैं कि उसीके प्रसादसे प्रभावयुक्त संचितपुण्य वैरिओंके नगरका नाश करता है । उसी प्रकार वस्तुतः ऐसा समझना चाहिये कि सम्यग्दर्शन परम आत्माओंकी प्रधान शक्ति है । उसके प्रसाद के पुण्यमें वह अतिशयित प्रभाव • उत्पन्न होता है कि जिसके वंश होकर वह पुण्य मिथ्यात्वके द्वारा सम्पन्न हुए एकेन्द्रियादिकों के शरीररूपी नगको भस्मसात् करता हुआ अभ्युदयोंको उत्पन्न करता है। क्योंकि सम्यक्त्वका आराधन करनेवाला जीव यदि उसने सम्यक्त्व ग्रहणके पूर्व आयुकर्मका बंध न किया हो तो नरकादिक दुर्गतियोंको प्राप्त नहीं होता । और यदि उसने वैसी आयुका बंध करलिया हो तो द्वितीयादि नरक प्रभृति अवस्थाओंको प्राप्त नहीं होता । जैसा कि आग - ममें भी कहा है:
१-सम्यग्दर्शनके पक्षमें निर्मलता - शंकादिक मलरूपी कलंककी विकलता और दूसरे पक्षमें परम पद देनेके सम्मुख परिणाम । २- भाग्य । ३ – दूसरे पक्षमें ।
Rambh
धर्म
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अनगार
धर्म
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छसु हेट्रिमासु पुढविसु जोइसिवणभवणसव्वइत्थीसु ।
वारस मिच्छुववाए सम्माइठ्ठी ण उववण्णा ॥ नीचेकी छह पृथिवी-नरक ज्योतिषी व्यंतर भवनवासी समस्त स्त्री और बारह मिथ्योपपाद इतने स्थानोंमें सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होता । इससे योगोंके इस मतका खण्डन होजाता है कि -
नामुक्त क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥ सैकडों कल्पकोटि कालके बीत जानेपर भी कोई भी कर्म विना भोगे नहीं छूट सकता | कैसा भी कर्म क्यों न हो - चाहे शुभ हो चाहे अशुभ, जो बांधा है वह अवश्य ही भोगना पडता है। .
इस प्रकार सम्यग्दर्शनके प्रतापसे दुर्गतियोंका ध्वंस होता है और अभ्युदयोंकी सिद्धि होती है । तथा इसके प्रसादसे ही सुरेन्द्रादिककी विभूतियोंको भोगकर और पुनः उनको छोडकर जीव परम आर्हन्त्य पदको प्राप्त होजाता है। इस तरहसे यह सम्यग्दर्शन ऊर्ध्व मध्य और अधोलोकके सभी स्वामिओं-विभूतिभोगियोंको उच्छिष्टभोजी बना देता है । इस प्रकार अनेक माहमाओंसे युक्त सम्यग्दर्शनके निमित्तसे ही जीव उसी भवमें शिवरमाके कटाक्षपातसे प्रकट हुए अपूर्व--लोकोत्तर सुखका भोक्ता होजाता है। जैसा कि आगममें भी कहा है
यथा,- ।
देवेन्द्रचक्रमहिमानममेयमानं, राजेन्द्रचक्रमवनीन्द्र शिरोर्चनीयम् । धर्मेन्द्रचक्रमधरीकृतसर्वलोकं, - लब्ध्वा शिवं च जिनभक्तिरुपैति भव्यः॥
अध्याय
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अनगार
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जिनेन्द्रदेवकी भक्ति करनेवाला सम्यग्दृष्टि भव्य देवेन्द्रों-स्वर्गके देव इन्द्र अहमिन्द्र तथा सर्वार्थसिद्धि तकके उत्कृष्ट देवोंकी अप्रमाण महिमाओं-विभूतियोंको अथवा महाराजोंके शिरोंद्वारा अर्चनीय-जिसको बडे बडे महाराज शिर झुकाकर नमस्कार करते हैं ऐसे राजेन्द्रचक्र-चक्रवर्तीतकके उत्कृष्ट मानर्वापदों या विभूतियोंको तथा समस्त लोकको नीचा करदेनेवाले तीन लोकमें उत्कृष्ट तीर्थकर जैसे पदका भोग कर अंतमें मोक्षको प्राप्त करता है।
जब कि सम्यक्त्वरूपी परम प्रभुकी महिमा इतनी असाधारण है तब कहिये कि उसका आराधन किस तरह किया जाता है ? इसका उत्तर देते हैं
मिथ्याग् यो न तत्त्वं श्रयति तदुदितं मन्यतेऽतत्त्वमुक्तं, नोक्तं वा तागात्मा भवभयममृतेतीदमेवागमार्थः। निम्रन्यं विश्वसारं मुविमलमिदमेवामृताध्वति तत्त्व,-.
अडामाधाय दोषीजमनगुणविनयापादनाम्यां प्रपुष्वेत ॥ ६९ ॥ तत्वोंका स्वरूप पहले बताया जा चुका है। उसके अनुसार जो उसका श्रद्धान नहीं करता किंतु कि. सीके भी-मिथ्यादृष्टि गुरु आदिके कहे हुए अथवा बिना कहे हुए ही विपरीत तत्वका श्रद्धान करलेता है उसको मिथ्यादृष्टि समझना चाहिये. यह आत्मा अनादि कालसे बैसा-मिथ्यादृष्टि रह कर ही मरणको प्राप्त हुआ है। इसलिये जो मुमुक्षु हैं उनको अपने अंतःकरणमें ऐसा श्रद्धान रखकर कि “ समस्त संसारमें सारभूत वस्तु यदि कुछ है तो वह निग्रंथ अवस्था ही है, अत्यंत निर्मल यह अवस्था ही मोक्षका मार्ग है और यही समस्त आगम-प्रवचनका अर्थ-अभिप्राय है।" उस तत्वश्रद्धाकी, दोषोंके त्याग और गुणों तथा विनयके द्वारा प्रकृष्ट रूपमें, पुष्टि करना उचित है ।
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अनगार
NAMEFENSabeenaSapnesiaNP
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भावार्थ-समस्त संसारी जीव और उनमें मैं भी अनादि कालसे इस संसारमें मिथ्यादृष्टि होकर-मिध्यात्वके प्रतापसे ही जन्म मरण धारण करते रहे हैं और दुःख भोगते रहे हैं। मिथ्यादृष्टि उसको कहते हैं जो कि किसीके उपदेशसे या विना उपदेशके ही पदार्थक विपरीत स्वरूपका तो श्रद्धान करता; किंतु उनके समीचीन खरूपका, जो कि आगमोक्त है, श्रद्धान नहीं करता है । जैसा कि आगममें भी कहा है
मिच्छाइद्री जीवो उवइटुं पवयणं ण सद्दहदि ।
सहहदि असन्माचं उवहट्ट अणुवटुं वा ।। गिध्यादृष्टि जीव उपदिष्ट प्रवचनका श्रद्धान नहीं करता किंतु उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद्भाव-अतवा प्रदान करता है।
जब कि मिथ्यात्वके निमित्तसे संसारमें भ्रमण करना पडता है तप मोक्षकेलिये इसके विरुव तत्त्वश्रद्धान ही अन्तःकरणमें धारण करना उचित है । तत्त्वश्रद्धाका आकार ऊपर बता चुके हैं।
संसारके बढानेवाले भावोंको ग्रंथ कहते हैं। अत एव मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्र ये ग्रंथ हैं। ये तीनो ही हेय हैं इसलिये इनकी हेयताका और इसके विरुद्ध रत्नत्रय जो कि समस्त जगतमें उत्कृष्ट
और आगमके सम्पूर्ण कथनका सार है तथा अत्यंत निर्मल रूपको धारण कर जीवन्मुक्ति वा परममुक्तिकी प्राप्तिका उपाय होजाता है, उपादेय है । इसलिये उसकी उपादेयताका श्रद्धान ही तत्त्वश्रद्धान है। ऐसा ही आगममें भी कहा है, यथाः
णिग्गंथं पावयणं इणमेव अणुत्तरं सुपरिसुद्धं । ..
इणमेव मोक्खमग्गोत्ति मदी कायब्बिया तदा ।। नैन्थ्य ही उपादेय वस्तु है; क्योंकि यही लोकोत्तर अत्यंत विशुद्ध और मोक्षका मार्ग है । इसलिये
अध्याय
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वनमार
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अध्याय
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उसीका और वैसा ही श्रद्धान करना चाहिये । की प्राप्ति और विनयके द्वारा करनी चाहिये ।
इसीको तत्त्वश्रद्धा कहते हैं । इसकी पुष्टि दोषोंके त्याग गुणों अपनी कार्यकारिताकी हानि अथवा स्वरूपके कम होनेको दोष और इससे विपरीत भावको गुण कहते हैं । विनय शब्दका अर्थ नम्रता है । इन्हीके द्वारा पुष्ट किये जानेपर सम्यग्दर्शनका आराधन हो सकता है ।
पहले सम्यक्त्वके विषयमें उद्योतादिकका वर्णन कर चुके हैं। उनकी आराधना करने की इच्छा रखनेवाले मुमुक्षुओं को उनके अतीचारोंका त्याग करनेका उपदेश देते हैं
दुःखप्रायभवोपायच्छेदोद्युक्ता कृष्यते ।
ग्लेश्यते वा येनासौ त्याज्यः शङ्कादिरत्ययः ॥ ७० ॥
जिसमें प्रायः दुःख ही पाये जाते हैं ऐसे संसारके कारणभूत कर्मबन्ध अथवा मिथ्यात्वादिक भावोंका उच्छेद - विनाश करनेमें उद्यक्त सम्यग्दर्शनकी कार्यकारिणी शक्तिका जो अपकर्ष करते हैं और स्वरूपको कम करते हैं उन शंकादिक अतीचारोंको अवश्य ही छोडना चाहिये ।
अन्तवृत्ति या बहिर्वृचिके द्वारा इस तरहसे अंशतः सम्यग्दर्शनके खण्डित होनेको, कि जिसमें उसका समूल नाश न हो, अतीचार कहते हैं। इस तरहके अतीचार अनेक हैं। उनसे युक्त सम्यग्दर्शन कार्यकारी नहीं हो सकता । निरतीचार ही सम्यग्दर्शन दुःखप्राय संसार और उसके कारणों का उच्छेद कर सकता है। जैसा कि आगम में भी कहा है, यथा:
नाङ्गहीनमलं छेत्तं दर्शनं जन्मसंततिम् । हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ||
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बनगार
शङ्का नामके अतीचारका स्वरूप बताते हैं:
विश्वं विश्वविदाज्ञयाभ्युपयतः शङ्कास्तमोहोदयाज, ज्ञानावृत्त्युदयान्मतिः प्रवचने दोलायिता संशयः। दृष्टिं निश्चयमाश्रितां मलिनयेत्सा नाहिरज्ज्वादिगा,
या मोहोदयसंशयात्तदरुचिः स्यात्सा तु संशीतिदृक् ॥ ७१ ॥ शुभ परिणामोंके द्वारा जिसकी अनुभाग शक्तिका निरोध हो चुका है ऐसे मोहोदय-सम्यक्त्वनामकी दर्शनमोहन य प्रकृतिके उदयका अस्त हो जानेसे सर्वज्ञदेवकी आज्ञा- शासनके अनुसार समस्त वस्तुओंके विस्तारका यथावत् विश्वास करनेवाले जीवको ज्ञानावरण कर्मके उदयसे प्रवचन - सर्वज्ञोक्त तत्त्वोंके विषयमें होनेवाली दोलायमान-वस्तुके सत्यांश और असत्यांश दोनो ही तरफको समानरूपसे झुकती हुई प्रतातिको संशय कहते हैं। इस संशयको ही शंका नामका अतीचार कहते हैं। क्योंकि इस तरहकी ही शंका-प्रवचनोक्त तत्त्वोंके वि.. षयमें जो शंका है वही निश्चय--वस्तुतत्वके यथार्थ प्रत्ययसे सम्बन्ध रखनेवाले सम्यग्दर्शनको मलिन करती है । सर्प रज्जु आदिके विषयमें जो शंका होती है वह उसको मलिन नहीं करती । यहां यह प्रश्न हो सकता है कि शंका नामके अतीचार और संशयमिथ्यात्व इनमें क्या अन्तर है ? इसका उत्तर यह है कि जिस शंकासे सम्यग्दर्शन मलिन हो-अंशतः खण्डित हो उसको शंका अतीचार कहते हैं और जो शंका मोहनीय कर्मके उदयसे उत्पन्न हो और जिससे प्रवचनोक्त तत्वोंमें अश्रद्धा हो जाय उसको संघयमिथ्यात्व कहते हैं।
... 'भावार्थ-प्रवचनोक्त तत्वोंके विषयमें सत्यता और असत्यताके संशयको शंका कहते हैं जो कि सम्यग्दर्शनका एक अतीचार है।
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Curr
इस शंकाके निराकरण करनेकी प्रेरणा करते हैं:
प्रोक्तं जिनैर्न परथेत्युपयन्निदं स्यात, किं वान्यदित्यमथवाऽपरचेति शङ्काम् । खस्योपदेष्टुरुत कुण्ठतयानुषक्तां, सधुक्कितीर्षमधिरादवगाह्य मृग्यात ॥ ७२॥
. जो जिनेन्द्रदेव-वीतराग सर्वज्ञदेवने कहा है कि "समस्त वस्तु अनेकान्तात्मक हैं, "सो सत्य है। " उसका यह मत बिध्या नहीं होसकता ।" इस प्रकारसे श्रद्धान करनेवाले सम्यग्दृष्टि मुसा मयको शीघ्र ही समुचितीर्थ--समीचीन युक्रियोंसे सिद्ध आगममें कुशल उपाध्यायके अथवा उस समीबीन बुकिसिद्ध आगमके हृदयमें प्रवेशकर अपनी मन्द बुद्धिके कारण अथवा उपदेष्टा गुरुओंकी कृष्ठताके कारण हृदयमें उत्पन्न हुई इस तरहकी अंकाका मार्जन- शोधन करडालना चाहिये कि 'जो जिनेन्द्र देवने कहा है कि धर्मादिक द्रव्य इतने हैं, सो वह ठीक है, अथवा दूसरे वैशेषिकोंके कहे हुए द्रव्यादिक, यद्वा सांख्यके कहे हुए प्रधान पुरुषादिक अथवा बोड़ोंके कहे हुए दुश्वसमुदायादिक स्वरूप ठीक हैं।' इसी तरह ऐसी शंकाका भी मार्जन करना चाहिये कि " जिनेन्द्र देवने जो तत्त्वोंका स्वरूप कहा है कि वह सामान्यविशेषात्मक है सो वह ठीक है अथवा, कोई दूसरा ही मैदैकान्तादिक ठीक है?
अध्याय
ऊपर उपाध्याय और आगमको तार्थ बताया है सो ठीक ही है। क्योंकि तीर्थ शब्दका अर्थ नदी आ. दिका घाट होता है । जिस प्रकार सद्याक्तितीर्थ--जिसकी भले प्रकार योजना कीगई है ऐसे घाटको पाकर सासारिक मनुष्य प्रमादसे लगे हुए मल या कीचड आदिको धोकर साफ करदेते हैं उसी प्रकार जैनागम और
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बनगार
उसके आधारभत उपाध्यायको पाकर-इन दोनोंकी सेवा करके भव्यगण सांसारिक तथा उसकी कारण मलिनताको दूर करदेते हैं-संसारसमुद्रसे तर जाते हैं। जैसा कि कहा भी है:
जैनश्रततदाधागै तीर्थ द्वावेव तत्त्वतः ।
संसारस्तीयते ताभ्यां तत्सेवी तीर्थसेवकः ।। इस तीर्थको सयुक्ति कहनेका अभिप्राय यह है कि वह पूर्वापर अथवा प्रत्यक्षादिक प्रमाणके द्वारा बाधित नहीं है।
शंका नामके अतीचारसे क्या अपाय होता है सो बताते हैं:
अध्याय
सुरुचिः कृतनिश्चयोपि हन्तुं द्विषतः प्रत्ययमाश्रितः स्पृशन्तम् ।
उभयीं जिनवाचि कोटिमाजौ तुरगं वीर इव प्रतीयते तैः ॥ ७३ ॥ - जिस प्रकार अत्यंत तेजस्वी और जिसने वैरिओंके बध करनेका दृढ निश्चय कर लिया है ऐसा भी वीर पुरुष, यदि युद्धभूमिमें ऐसे घोडेपर चढा हो जो कि कभी पूरव और कभी पश्चिम इस तरह बडे वेगसे भागता फिरता हो तो, वह वैरिऑके द्वारा मारा जाता है । इसी प्रकार जिसने मोहादिक वैरिओंके घात करनेका नि. श्चय कर लिया है ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव यदि जिनवचनके विषयमें दोनो ही कोटियों-वस्त्वंशोंका स्पर्श करनेवाले ज्ञान-" ऐसा ही है अथवा अन्यथा है" इस तरहके संशयज्ञानपर आरूढ हो तो वह उन वैरिओंके द्वारा प्रतिहत हो जाता है।
या २०१
.घ. २६
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अध्याय
भावार्थ- संशयी जीव अपना कल्याण नहीं कर सकता; क्योंकि संशय के कारण ही वह निश्चित समीचीन हितमार्गपर नहीं चल सकता ।
भय और संशयरूप अथवा इन दोनोंके विषय में उत्पन्न हुई शंकाका निरास करने केलिये प्रयत्न करनेका उपदेश देते हैं:--
भक्तिः परात्मनि परं शरणं नुरस्मिन्,
देव: स एव च शिवाय तदुक्त एव । धर्मश्च नान्य इति भाव्यमशङ्कितेन, सन्मार्गनिश्चलरुचेः स्मरताऽञ्जनस्य ॥ ७४ ॥
भय और संशय इन दो बातोंके निमित्तसे शंका हुआ करती है । अत एव उसके दो भेद हैं । अपने लिये किसीको शरण न समझकर भय शंका और कार्यसिद्धि अथवा उसके कारणों में संदेह उपस्थित होने पर संशय-शका उत्पन्न होती है । जो मोक्षकी इच्छा रखनेवाले भव्य हैं उनको सन्मार्ग — मुक्ति प्राप्ति के उपाय निश्चल निष्कम्प - अत्यंत दृढ रुचि - श्रद्धा रखनेवाले अंजन चोरका स्मरण कर इन दोनों ही शंकाओंसे रहित होना चाहिये। क्योंकि इस संसार में जीवकेलिये केवल परमात्माकी भक्ति ही शरण है । एवं जो सज्ञ और वीतराग हैं वे ही देव हैं और वे ही मोक्षकेलिये आराध्य हो सकते हैं, और नहीं। इसी तरह उन सर्वज्ञ देवका उपदिष्ट धर्म ही निर्वृतिका कारण हो सकता, औरका नहीं ।
भावार्थ - अत्यंत विशुद्ध भावोंसे हृदयमें जो परमात्मा और उसके गुणोंके प्रति पवित्र अनुराग होता है।
१ - “ संशयात्मा विनश्यति " ।
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अनगार
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उसीको भक्ति कहते हैं । यह भाक्त ही संसारमें जीवके अपायकी रक्षाका उपाय हो सकती है। अत एव उसीको शरण मानकर और मोक्षकेलिये सर्वज्ञ वीतराग देवकी आराध्यता तथा उनके उपादष्ट धर्मकी कारणतामें निःसन्देह होकर मुमुक्षुओंको उक्त दोनो ही शंकाओंसे रहित होना चाहिये जैसा कि अंजन चोर हुआ । शंका अतीचारके बाद कांक्षा नामके अतीचारका स्वरूप बताते हैं।
या रागात्मनि भगुरे परवशे सन्तापतष्णारसे, दुःखे दुःखदबंधकारणतया संसारसौख्ये स्पृहा । स्याज्ञानावरणोदयैकजनितभ्रान्तेरिदं दृक्तपो,माहात्म्यादुदियान्ममेत्यतिचरत्यषैव कांक्षा दशम् ।। ७५ ॥
इष्ट वस्तुओंके विषय में जो प्रीतिरूप अनुराग होता है उसको सांसारिक सुख कहते हैं। यह सुख स्वभावसे ही नश्वर और परवश-पुण्यकर्मके उदय के अधीन है। संताप और तृष्णा ये दो उसके रस-अनु. भवमें आनेवाले फल हैं । दुःखके कारणभूत अशुभ कर्मके बंधका यह कारण है, अथवा स्वयं भी दुःखरूप है। क्योंकि उसके साथमें अनेक दुःखोंका मिश्रण रहता है। इस तरहके इस सांसारिक सुखमें उस जीवकी, जिसकी कि बुद्धि प्रधानतया या एक ज्ञानावरण कमके उदयसे भ्रांत होगई है, जो स्पृहा होती है उसको कांक्षा कहते हैं । इस भ्रांत बुद्धिके कारण उक्त सांसारिक सुखमें, जो कि वस्तुतः दुःखरूप है, सुखका आभास होता है
अध्याय
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१- अर्थात् दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे रहित । क्योंकि जो सम्यग्दृष्टि हैं उनके मिथ्यात्वके उदयसे होनेवाली भ्रांति नहीं हो सकती, अन्यथा उनके ज्ञानको मिथ्याज्ञान कहना मडेगा। जैसा कि आगममें भी कहा है, यथा
उदये यद्विपर्यस्तं ज्ञानावरणकर्मणः । तदस्थास्तुतया नोक्तं मिथ्याज्ञानं सुदृष्टिषु ॥
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और इस तरहके भाव होते हैं कि “ सम्यग्दर्शन और तपके माहात्म्यसे मेरे संसार के सुख अहमिन्द्रादिक पद अथवा अनेक प्रकारके अभ्युदयों और विभूतियोंकी उद्भूति किस प्रकारसे हो " । ये भाव ही आकांक्षा हैं, और इन्ही से अंशतः सम्यक्त्वका खण्डन होता है ।
•
इस प्रकारकी आकाङ्क्षा करनेवाले जीवोंके जो सम्यक्त्वरूपी फलकी हानि होती है उसको बताते हैं । :---
यल्लीलाचललोचनाञ्चलरसं पातुं पुनर्लालसाः,
स्वश्रीणां बहु रामणीयकमदं मृहन्त्यपीन्द्रादयः । तां मुक्तिश्रियमुत्कयद्विदधते सम्यक्त्वरत्नं भव, -
. श्रीदामीरतिमूल्यमाकुलाधियो धन्यो ह्यविद्यातिगः ॥ ७६ ॥
अनित्य अशुचि दुःख और अनात्मरूप सांसारिक विषयों में विपरीत भान - नित्य शुचि सुख और आत्मरूपता के प्रत्ययको अविद्या कहते हैं। इस अविद्यासे जो सर्वथा दूर हैं वे ही पुरुष धन्य हैं। अत एव जिसकी लीला - यदृच्छासे चञ्चल हुए नेत्राञ्चल के रसका पान करनेके लिये लालसा - अत्यंत लम्पटता रखनेवाले इन्द्रादिक भी अपनी अपनी लक्ष्मियों देवियों के रतिकारिता के संभोगप्रवृत्तिके विपुल मदको चूर्णित करदेते हैं उस मुक्तिलक्ष्मीको उत्कण्ठित करनेवाले सम्यक्त्व - रत्नको वे पुरुष, जिनकी कि अन्तःकरणप्रवृत्ति विषय सेवन करने के लिये उत्सुक रहा करती है, संसारलक्ष्मीरूपी दासीकी रतिका मूल्य बनादेते हैं ।
भावार्थ - जिस प्रकार संसारमें कामवासनासे संतप्त हुए पुरुष किसी दासी आदिको उसके साथ कीगई रतिका मूल्य दिया करते हैं, उसी प्रकार संसारकी भोगोपभोगसामग्री से रति- प्रेम करनेवाले लोक उसको उस प्रेमके बदले में अपने उस सम्यक्त्वरत्नको दे डालते हैं, जो कि उस मुक्तिलक्ष्मीको उत्कण्ठित करनेवाला है और जिसके रसका पान करनेकेलिये अत्यंत उत्कण्ठित हुए स्वर्गके देव और इन्द्रादिक
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बनगार
भी अपनी अपनी अंगनाओंके साथ रमणकी इच्छाको छोडदेते हैं। क्योंकि यह समझकर कि जो अविद्यासे दूर रहनेवाला है वही संसारमें धन्य है । और जिस प्रशम सुखका तपस्वी अनुभव करते हैं उसी आत्मिक सुखका अनुभव करनेकेलिये देव और इन्द्रादिक भी स्वर्गीय विभूतियोंके सुखसे विरक्त होकर यह इच्छा किया करते हैं कि " मोक्षलक्ष्मीका सुख जिसके द्वारा प्राप्त हो सकता है उस तपस्याका आचरण करनेकेलिये मैं इस देव इन्द्रपर्यायको छोडकर कब मनुष्य पर्यायमें अवतीर्ण होऊं।"
सम्यक्त्वादिकके निमित्तसे जिनके पुण्यकर्मका संचय हो ही जाता है ऐसे जीवोंको संसारसुखकी आकाङ्क्षा करना व्यर्थ है । क्योंकि उस पुण्य के निमित्तसे उनको उस सुखकी प्राप्ति स्वयं होजाती है। फिर उसके लिये आकाङ्क्षा करनेसे क्या प्रयोजन ? कुछ भी नहीं। यही बात दिखाते हैं:- .
तत्त्वश्रद्धानबोधोपहितयमतपःपात्रदानादिपुण्यं, यद्गीर्वाणाग्रणीभिः प्रगुणयति गुणैरहणामहणीयैः । तत्प्राध्वंकृत्य बुाई विधुरयति मुधा कापि संसारसारे,
तत्र खैरं हि तत् तामनुचरति पुनर्जन्मनेऽजन्मने वा ॥ ७७ ॥ उपर्युक्त जीवादिक सात तत्त्वोंके श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे युक्त संयम तप पात्रदान और परोपकार प्रभृति साधनोंके द्वारा उत्पन्न हुआ पुण्य इतना महान् होता है कि वह देवों इन्द्रों तथा अहमिंद्रोंके द्वारा भी पूजनीय तीर्थकरत्वादि गुणोंसे अपने स्वामीकी पूजा करवादेता है। क्योंकि इस पुण्यके प्रसादसे लोकोत्तर फल देनेवाले तीर्थकरत्वादिक ऐसे ऐसे गुण प्राप्त होते हैं कि जिनके निमित्तसे इंद्रादिक भी आकर उस मनुष्यकी पूजा किया करते हैं । अत एव हे भव्य ! यह पुण्यकर्म संसारके सारभूत विषयोंमें और पुनर्भव तथा अपुनर्भवकेलिये जैसी कि तेरी कल्पना-इच्छा है वैसा स्वयं ही-विना तेरी आकाङ्क्षाके ही तेरी इच्छानुसार ही अनुगमन करता है । -इस महान् पुण्यके निमित्तसे विना किसी तरहकी इच्छा किये ही-स्वयं ही संसारके अभ्युदय और उत्तम
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देव मनुष्य भवकी प्राप्ति, तथा जहांसे फिर जन्म ग्रहण नहीं करना पडता ऐसे मोक्षपदकी सिद्धि हो ही जाती है। फिर भी तू जो इस पुण्य कर्मका बंध करके इन संसारके विषयोंमें बुद्धि लगाता है-- इस " पुण्यसे मुझको अमुक अभ्युदय या अतिशय प्राप्त हो" ऐसी कल्पना करता फिरता है सो व्यर्थ है। आकाङ्क्षाका निरोध करनेकेलिये अत्यंत प्रयत्न करनेका उपदेश देते हैं:--
पुण्योदयैकनियतोभ्युदयोत्र जन्तोः, प्रेत्याप्यतश्च सुखमप्यभिमानमात्रम् । तन्नात्र पौरुषतृषे पावागुपेक्षा,
पक्षो ह्यनन्तमतिवन्मतिमानुपेयात् ॥ ७८ ॥ मनुष्योंका इस लोकमें या परलोकमें सर्वत्र अभ्युदयोंका प्राप्त होना एक पुण्यकर्मके उदयके ही अधीन है। क्योंकि यदि पुण्यकर्मका उदय न हो तो चाहे जितना भी पुरुषाथ किया जाय, उससे अभ्युदयोंकी सिद्धि नहीं हो सकती। और पुण्यका उदय होनेपर वह पुरुषार्थ सफल हो सकता है और अभ्युदयोंकी भी प्राप्ति हो सकती है । अत एव जीवोंके इस लोक और परलोकके अभ्युदय पुण्योदयके ही अधीन हैं। अर्थात् संसारी जीवोंके सभी अभ्युदय पराधीन हैं। एवं इन अभ्युदयोंसे जो सुख प्राप्त होता है वह भी आभमानमात्र ही है—मैं सुखी हूं इस तरहकी एक अनुरक्त कल्पनामात्र ही है । अत एव विचारशील पुरुषोंको चाहिये कि वे अभ्युदय और तजनित सुखके विषयमें क्रमसे पौरुष और तृष्णाको छोड दें । अनन्तमति नामकी सेठकी पुत्रीके समान परवचन - सर्वथा एकान्तवादियोंके अभिमतमें उपेक्षायुक्त-रागद्वेषहित पक्ष रखकर सांसारिक अभ्युदय के सिद्ध करनेमें परिश्रम और तज्जनित सुखकोलिये आकाङ्क्षा न करना चाहिये।
विचिकित्सा नामके अतीचारका स्वरूप बताते हैं:
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कोपादितो जुगुप्सा धर्माङ्गे याऽशुचौ स्वतोऽङ्गादौ ।
विचिकित्सा रत्नत्रयमाहात्म्यारुचितया दृशि मलः सा ॥ ७९ ॥ शरीरादिक द्रव्य और क्षुधा तृषा आदिक भाव स्वभावसे ही अपवित्र और असुन्दर हैं। किंतु वे धर्मके भी अङ्ग-साधन हैं। क्योंकि शरीरादिके द्वारा ही अनशनादिक कायक्लेशान्त बाह्य तप और प्रायश्चित्तसे लेकर ध्यानतक अन्तरङ्ग तप करके परम निःश्रेयसकी सिद्धि हो सकती है । इस तरह के धर्मके साधनभूत द्रव्य और भावमें क्रोधादिक कपायके वश होकर रत्नत्रयके माहात्म्यमें -सम्यग्दर्शनादिकके निमित्तसे उत्पन्न हुए प्रभावमें अरुचि रखकर ग्लानि करना इसको विचिकित्सा कहते हैं । यही विचिकित्सा सम्यग्दर्शनका-मल अतीचार है।
भावार्थ - एक मुनिका शरीर स्वभावसे ही अपवित्र या असुन्दर है किन्तु वह रत्नत्रयके माहात्म्यसे भूषित है। उसमें कषायवश अरुचि धारण कर ग्लानि करना रत्नत्रयसे ही ग्लानि करना है । अत एव यह सम्यग्दर्शनका विचिकित्सा नामका अतीचार है। क्योंकि इससे सम्यग्दर्शनका जो स्वरूप बताया है कि देव गुरु शास्त्रमें रुचि रखना, उसमें हानि पहुंचती है। महापुरुषोंको अपने शरीरमें विचिकित्साराहित्यके कारण जो माहात्म्य प्राप्त होता है उसको बताते हैं:
यदोषधातुमलमूलमपायमूलमङ्गं निरङ्गमहिमस्पृहया वसन्तः । सन्तो न जातु विचिकित्सितमारभन्ते,
सविद्रते हृतमले तदिमे खलु स्वे ॥ ८ ॥ जो सत्पुरुष शरीररहित मुक्तात्माओंकी महिमा-अनन्तज्ञानादि-गुणसम्पत्तिमें स्पृहा-अभिलाषा
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Kaar Kahaasakasaisaisansamalassionasias
m
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रखते हैं; किंतु दोष-वात पित्त कफ धातु-रस रूधिर मांस मेदा अस्थि मजा और शुक्र, मल-नाक घृक पसीना आदिकी खानि और अपाय-दुःखोंके मूल कारण शरीरमें रहते हैं वे कभी भी कर्ममलहित आत्मामें ग्लानि नहीं करते । यही कारण है कि वे आत्मसंपीत्तको प्राप्त करलेते हैं।
POATTANTANTRASILENSTREATRESERVAERS
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___ भावार्थ-स्वभावतः अशुचि शरीरमें रहते हुए भी जिनका अभीष्ट, अशरीरावस्थाकी महिमा प्राप्त करना है, वे महापुरुष शरीरके संबंधसे आत्मामें क्यों कर ग्लानि कर सकते हैं ? यही कारण है कि सत्पुरुष इस निर्विचिकित्साके अभीष्टसिद्धि और आत्मसीवत्तिके माहात्म्यको प्राप्त करलेते हैं। जो महात्मा हैं उनके जुगुप्साका निमित्त मिलनेपर भी जुगुप्सा नहीं होती; यह बात दिखाते हैं :
किंचित्कारणमाप्य लिङ्गमुदयन्निदमासेदुषो, धर्माय स्थितिमात्रविध्यनुगमेप्युच्चैरवद्याद्भिया । स्नानादिप्रतिकर्मदुरमनसः प्रव्यक्तकुत्स्याकृति,
कायं वीक्ष्य निमज्जतो मुदि जिनं स्मर्तुः क शूकोद्गमः ॥ ८१ ॥ इष्टवियोग वज्रपात मेघदर्शन आदि विविध कारणोंमेंसे किसी भी कारणको पाकर विरक्त हो आचेलक्य और केशलोचसे व्यक्त होनेवाले उस निग्रंथ लिङ्गको, जिसमें कि वैराग्य बढता चला जाता है, धारण करने वाले तपस्वी धर्मकेलिये शरीरकी स्थितिमात्र प्रयोजन रखकर आहारादि विधिका आचरण करते हैं। क्योंकि आहारके विना शरीर स्थिर नहीं रह सकता। और उसकी स्थिरताके विना धर्मकी सिद्धि नहीं हो सकती। और तपस्वी धर्मको सिद्ध करना चाहते हैं । अत एव चाकचिक्यादिकेलिये नहीं, किंतु शरीरकी स्थितिमात्रकेलियेजिससे कि शरीर टिका रहे उस तरहसे, आहारमें प्रवृत्ति करते हैं। और पापसे भयभीत होकर स्नान अभ्यङ्ग प्रभृति प्रसाधनोंसे वे अपनी मनोवृत्तिको सर्वथा और अतिशयित रूपसे अत्यंत दर रखते हैं । इस तरहके
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EURONGSTERTIENTRASANSARJANSH
एकान्तसे धर्मका ही साधन करनेवाले तपस्वियोंके शरीरको, जिसकी आकृतिको देखते ही अत्यंत ग्लानि उत्पन्न होजाय, देख करके भी जो सम्यग्दृष्टि जिन भगवान् अर्हद्भट्टारकका स्मरण कर आनन्दमें निमग्न होजाता है; क्या उसके कभी भी जुगुप्साकी उभृति हो सकती है ?
भावार्थ-जो आत्मा और उसके धर्मको देखनेवाला है वह शरीरको अशुचि देखकर उससे कभी भी ग्लानि नहीं कर सकता।
विचिकित्साके त्याग करनेमें प्रयत्न करनेका उपदेश देते हैं: --
द्रव्यं विडादि करणैर्न मयति पक्तिं, भावः क्षुदादिरपि वैकृत एव मेऽयम् । तत्कि मयात्र विचिकित्स्यामिति स्वमृच्छ,
दुदायनं मुनिरुगुद्धरणे स्मरेच्च ॥ ८२ ॥ . यदि किसी कारणवश कदाचित् विचिकित्साका उद्गम भी होजाय तो सम्यग्दृष्टिको उचित है कि वह अपनी आत्माको इस प्रकार समझावे-ऐसा विचार करे कि -वमन मूत्र पुरीष आदि जो द्रव्य हैं उनका मुझसे स्पर्श नहीं होरहा है, जो कि शुद्ध चिद्रूप-ज्ञानदर्शनात्मक हूं; किंतु इन्द्रियों व शरीरादिकके साथ उनका स्पर्श हो रहा है, जो कि जडरूप हैं। क्योंकि ये द्रव्य मूर्त हैं और इन्द्रियां व शरीर भी मूर्त हैं; किंतु मैं अमूर्त हूं । अत एव मेरे साथ नहीं किंतु इन्द्रियादिकके साथ ही इन पुरीषादिका सम्बन्ध है। क्योंकि मूर्त पदार्थका मूर्त पदार्थके साथ ही सम्बन्ध हो सकता है । इसी प्रकार मेरे-मुझसे सम्बन्ध रखनेवाले जो ये क्षुधा तृषा आदिक भाव हैं वे भी ऐसे समझे जाते हैं कि वे मेरे हैं । किंतु वास्तवमें वे मेरे नहीं, वैकृत ही हैं-कर्मके उदयसे उत्पन्न हुए विकारजनित ही
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हैं । अत एव इन दोनोंमें-द्रव्य और भावमें कौनसी चीजसे मुझे विचिकित्सा-जुगुप्सा करनी चाहिये? कोई भी चीज तो मेरे लिये जुगुप्स्य नहीं है । ये अशुद्ध द्रव्य और भाव यदि मेरे होते तो कदाचित् उनसे ग्लानि करना भी उवित होता। पर ये मेरे नहीं हैं। अत एव इनसे ग्लानि करना भी ठीक नहीं है।
इसी प्रकार किसी मुनिके रोगका इलाज करते समय-यदि किसी मुनिको वमन आदि हो जाय तो उसका इलाज या सफाई आदि करनेमें कदाचित् जुगुप्सा उत्पन्न हो जानेपर सम्यग्दृष्टिको चाहिये कि वह निजुगुप्सा अंगमें प्रसिद्ध हुए उद्दायन राजाका स्मरण करे ।
ऐसी भावना करनेवाला और स्मरण करनेवाला ही सम्यग्दृष्टि शुद्ध चिद्रूपको प्राप्त कर सकता है। अन्यदृष्टिप्रशंसा नामके सम्यक्त्वके अतीचारको छोडनेका उपदेश देते हैं:
एकान्तध्वान्तविध्वस्तवस्तुयाथात्म्यसंविदाम् ।
न कुर्यात्परदृष्टीनां प्रशंसां दृक्कलङ्किनीम् ॥ ८३ ॥ " वस्तु सर्वथा क्षणिक है " अथवा " सर्वथा नित्य है" इस तरहके एकांतवाद अनेक प्रकारके हैं; जैसा कि पहले दिग्दर्शन कराया जाचुका है। इस एकांतके अभिनिवेश-आग्रहरूपी अन्धकारसे जिन लोगोंने वस्तुके याथात्म्य - यथार्थ स्वरूपके ज्ञान व श्रद्धानको आच्छादित कर रक्खा है या ढकदिया है ऐसे मिथ्यादृष्टियोंकी प्रशंसा न करनी चाहिये । क्योंकि ऐसा करनेसे उनके जैसे मिथ्या श्रद्धानकी तरफ आत्मा झुकता है; अथवा सम्यक्त्वमें निर्मलता होना रुक जाता है । अतं एव सम्यग्दर्शनमें कलंक लगता है।
अनायतनसेवा नामके अतीचारका भी त्याग करनेकेलिये उपदेश देते हैं:
TENERAR VAVERTERSNE KE REME SEEKENDRA NANELVETASHAMAREYANAKAMANARAYAN
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मिथ्याग्ज्ञानवृत्तानि त्रीण त्रीस्तद्वतस्तथा । षडनायतनान्याहुस्तत्सेवां दृङ्मल त्यजेत् ॥ ८४॥
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मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान मिथ्याचारित्र ये तीन भाव और तीन ही इन भावोंके धारण करनेवाले । अर्थात् मिथ्यादृष्टि मिथ्याज्ञानी और मिथ्याचारित्री इन छहोंको आचार्य अनायतन कहते हैं। क्योंकि ये मिथ्या श्रद्धानके आयतन-स्थान हैं; न कि समीचीन श्रद्धानके । यही कारण है कि इनकी उपासना करनेसे सम्यग्दर्शनमें मल-दोष उत्पन्न होता है । अत एव सम्यग्दृष्टिओंको चाहिये कि वे इस अनायतनसेवाका परित्याग ही करें।
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आराधनाशास्त्रमें सम्यक्त्वके पांच अतीचार बताये हैं-शंका कांक्षा विचिकित्सा अन्यदृष्टिप्रशंसा और अनायतनसेवा । यथा--
"सम्मत्तादीचारा संका कंखा तहेव विदिगिंछा ।
परदिठ्ठीण पसंसा अणायदणसेवणा चेव ॥" इन्ही पांच अतीचारोंका यहांपर भी सम्यग्दर्शनाराधनाके प्रकरणमें संक्षपसे स्वरूप बताया है। अब मिथ्यात्व नामके अनायतनके निषेध करनेका प्रयत्न करते हैं जो अपना कल्याण चाहते हैं उन्हें इस मिम्यात्वरूप अनायतनका त्याग ही करना चाहिये ऐसा उपदेश देते हैं:
सम्यक्त्वगन्धकलभः प्रबलप्रतिपक्षकरटिसंघट्टम् ।
कुर्वन्नेव निवार्यः स्वपक्षकल्याणमभिलषता ॥ ८५॥ जिस प्रकार अपने यूथकी कुशल चाहनेवाला यूथनायक-सेनापति अपने यूथके मदोन्मत्त हाथीके
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बच्चेको प्रतिपक्षियों के प्रबल हाथीसे प्रतिजिघांसाका भाव रखकर भिड़ते ही बचा लेता है - भिडने नहीं देता; क्योंकि वह इस समय बच्चा है, किंतु भविष्य में इतना पुष्ट होनेवाला है कि सहज ही में उस प्रबल हाथीका घात कर देगा । इसी प्रकार जो भव्य स्वयं धारण किये हुए व्रतादिका कल्याण चाहता है, उनकी रक्षा करना चाहता और सम्यक्त्वकी आराधना करनेमें उद्यत है उसको चाहिये कि वह अपने सम्यक्त्वरूपी मदोन्मत्त हस्तिपोतको प्रतिजिघांसा से दुर्निवार मिथ्यात्वरूपी प्रतिपक्षकरटी से भिड़ते ही बचाले - भिडने न दे । क्योंकि वह भविष्य में इतना पुष्ट होनेवाला है कि सहज ही में उस प्रति पक्षीका दलन कर ज्ञानचारित्ररूपी सम्पत्तिको पुष्ट करदेगा ।
प्रौढ सम्यग्दर्शनके धारण करनेवालोंके मद - ज्ञान पूजा कुल जाति आदि अभिमानरूपी मिथ्यात्वके आवेशकी शंका हो सकती है; अत एव उसका निरसन करते हैं। :
मा भैषष्टिसिंहेन राजन्वति मनोवने ।
न मदान्धोऽपि मिध्यात्वगन्धहस्ती चरिष्यति ॥ ८६ ॥
जहां पर दुष्टोंका निग्रह और शिष्टोंका पालन करनेवाला राजा मौजूद है वहां पर दूसरे किसी प्रकार भी आकर पराभव नहीं कर सकते और न कोई भी मदान्ध वहां विप्लव ही कर सकता है । अत एव वहांके जी aat किसी भी प्रकारका त्रास या भय नहीं हो सकता। सिंहके मौजूद रहते हुए क्या गन्ध और मदोन्मत्त भी हस्ती वनको विप्लावित कर सकता है ? कभी नहीं । इसी प्रकार हे अत्यंत दृढ सम्यग्दर्शन के धारण करने. वाले भव्य ! जिस तेरे इच्छानुसार फल देने वाले मनरूपी वनमें सम्यग्दर्शनरूपी केसरी विराजमान है और इसीलिये जिसका कोई दूसरा पराभव नहीं कर सकता; क्या उसको यह मदान्ध -- जाति आदिके मद-अभिमानसे मनुष्योंको अन्धा -- युक्त क्या है और अयुक्त क्या है इसके देखने में असमर्थ, बनादेनेवाला मिथ्यात्व
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रूपी गंधहस्ती विप्लावित कर सकता है ? कभी नहीं । अत एव तू किसी प्रकारका भय मत करे और निर्भय होकर सम्यग्दर्शनका आराधन कर !
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CERTHREATENCE9252392398398
जो मनुष्य जाति आदिके मदसे अपनेमें उत्कर्षकी संभावना करता है वह सधर्माओंका अभिभवपराभव करता है । इसीलिये कहना चाहिये कि वह सम्यत्क्वके माहात्म्यमें हानि पहुंचाता है। यही बात दिखाते हैं:
संभावयन् जातिकुलाभिरूप्यविभूतिधीशक्तितपोर्चनाभिः ।
स्वोत्कर्षमन्यस्य सधर्मणो वा कुर्वन् प्रधर्ष प्रदुनोति दृष्टिम् ॥ ८७ ॥ जाति-मातृपक्ष, कुल-पितृपक्ष, आभिरूप्य-सौरूप्य, विभूति-ग्राम नगर सुवर्णादि समृद्धि, धी-शिल्पकलादिका ज्ञान, शक्ति-पराक्रम, तप--अनशनादिक अनुष्ठान, अर्चना-पूजा, इन सब कारणोंसे अथवा इनमेंसे किसी एक दोके द्वारा " मैं इससे उत्कृष्ट हूं" ऐसी उत्प्रेक्षा करनेवाला मनुष्य अपने में केवल उत्कर्षकी संभावना ही करता है। इतना ही नहीं किंतु, इनके द्वारा वह दूसरे साधर्मियोंका तिरस्कार भी करता है। यही कारण है कि वह सम्यक्त्वको अपने माहात्म्य-महत्वसे गिरा देता है-कम करदेता है-समल बना देता है-. कलांकित कर देता है। जातिमद और कुलमदके त्याग करनेका उपदेश देते हैं: ....
पुंसोऽपि क्षतसत्त्वमाकुलयति प्राय: कलङ्कः कलौ, सदृग्वृत्तवदान्यतावसुकलासौरूप्यशौर्यादिभिः । स्त्रीपुरैः प्रथितैः स्फुरत्यभिजने जातोऽसि चैदैवत,
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स्तज्जात्या च कुलेन चोपरि मृषा पश्यन्नऽधः खं क्षिपेः ॥ ८८ ॥ हे जाति और कुलसे अपनेको ऊंचा माननेवाले ! यद्यपि तू सम्यग्दर्शन. सदाचार दानशूरता धन कला सौन्दर्य वीरता नय विनय गाम्भीर्य शौण्डीर्य प्रभृति गुणोंके कारण बडे बडे प्रख्यात-प्रसिद्ध स्त्री पुरुषोंके द्वारा मनुष्योंके हृदयमें चमत्कार पैदा करदेनेवाले कुलमें पूर्वजन्ममें संचित किये हुए पुण्य कर्मके उदयसे उत्पन्न हुआ है। फिर भी स्त्रियोंकी तो बात ही क्या, पुरुषोंको भी प्रायः करके उनके सत्त्वमनोगुणका क्षय करते हुए कलङ्कों-अपवादोंसे दूषित करनेवाले इस कलिकालमें तू जो जाति और कुलके द्वारा साधर्मियोंसे अपनेको उत्कृष्ट समझता है सो तेरी यह समझ ठीक नहीं है। क्योंकि परमार्थसे कुल और जाति की शुद्धिका निश्चय नहीं हो सकता। जैसा कि आगममें भी कहा है
अनादाविह संसारे दुवारे मकरध्वजे । - कुले च कामिनीमूले का जातिपरिकल्पना ॥
संसारमें जब तीन बातोंपर विचार करते हैं कि-संसार अनादि है, कामदेव दुर्वार है, और कुलका मूल कामिनी है। तब जातिकी कल्पना क्या ठहरती है ? किसी भी कालमें कामदेवके वशीभूत होकर किसी भी कामिनीने कुलको कलंकित न किया होगा इसका क्या निश्चय है ? अत एव निश्चित समझ कि इस जातिमद और कुलमदके कारण तू अपनेको हीन पदमें ही पटक रहा है। क्योंकि सम्यक्त्वकी विराधना होनेपर हीन पदका प्राप्त होना सुघट है। जैसा कि कहा भी है:--
जातिरूपकुलैश्वर्यशीलज्ञानतपोबलः ।
कुर्वाणोऽहंकृति नीचं गोत्रं बध्नाति मानवः ।। इन जात्यादिक अष्ट मदोंको धारण करनेवाला पुरुष नीचगोत्रका बंध करता है।
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सौंदर्यके मदसे आविष्ट रहनेवाले पुरुषके सम्यग्दर्शनमें जो दोष उत्पन्न होता है उसको दिखाते हैं:
यानारोप्य प्रकृतिसुभगानङ्गनायाः पुमांसं, पुंसश्चास्यादिषु कविठका मोहयन्त्यङ्गनां द्राक् । तानिन्द्वादीन्न परमसहन्नुन्मदिष्णून्वपुस्ते, स्रष्टाऽस्राक्षीद ध्रुवमनुपमं त्वां च विश्वं विजिष्णुम् ॥ ८९॥ .
लोकोत्तर वर्णन करनेम निपुण कवियोंको ठगके समान समझना चाहिये । क्योंकि वे अपने पुरुषार्थका उपमर्द---दुरुपयोग करते हैं और अपनी कृतिसे स्त्री पुरुषोंको सच्चे कर्तव्यसे वश्चित रखते हैं। इस तरहके ये कविठग अङ्गनाओंक मुख और नेत्र प्रभृति उपमेय पदार्थों में जिन स्वभावसे ही रमणीय चन्द्रमा कमल किसलय कलश (सुवर्णघट ) आदि उपमानभृत पदार्थोकी कल्पना करके शीघ्र ही--वर्णन करते ही मनुष्यों - पुरुषोंके हृदयको मोहित करदेते हैं और इसी प्रकार पुरुषोंके मुखादिकमें भी जिन स्वभावसुंदर चन्द्रादिककी कल्पना कर स्त्रियोंको मोहित कर देते हैं। मुझे मालुम पडता है, मानों उन्मदिष्णु-अपने उत्कर्षकी संभावना करनेवाले उन चन्द्रमा कमल किसलय आदि पदार्थोंको सहन न करके विधाताने तेरा यह अनुपम शरीर बनाया है जिसमें कि ये मुखादिक चन्द्रमादिककी उपमासे भी परे हैं । किंतु चन्द्रमादिकको भी उपमेय बनानेकेलिये तेरे इस शरीरकी सृष्टि की है। किंतु इतना ही नहीं है ये चन्द्रादिक अपने उत्कर्षकी संभावना करने लगेंगे इस बातको न सह करके ही केवल विधाताने तेरा यह अनुपम शरीर नहीं बनाया है किंतु विश्वपर विजय प्राप्त करसकनेवाले तुझको भी सहन न करके बनाया है। क्योंकि इसमें सन्देह नहीं कि सम्यक्त्वके माहात्म्यसे तू अच्छी तरह समस्त जगत्पर विजयलाभ कर सकता या करलेतायदि
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। यह हतविधि-विधाता जिसकी जगत्में कोई उपमा नहीं है; ऐसे सौन्दर्यको उत्पन्न करके उसके मदसे तेरे सम्यक्त्वको दृषित न करदेता। - लक्ष्मीके मदका त्याग करनेकेलिये वक्रोक्तिसे वर्णन करते हैं:
या देवैकनिबन्धना सहभुवां यापहियामामिषं, या विस्रम्भमजस्त्रमस्यति यथासन्नं सुभक्तेष्वपि । या दोषेष्वपि तन्वती गुणाधियं युङ्क्तेनुरक्त्या जनान्, स्वभ्यस्वान्न तया श्रियाशु हियसे यान्त्यान्यमान्ध्यान्न चेत् ॥९॥
जिस लक्ष्मीकी प्राप्तिका कारण एक दैव ही है-पौरुषकी अपेक्षासे रहित पूर्वसंचित शुभ कर्मके निमित्तसे ही जो प्राप्त हुआ करती है, जिससे अनेक प्रकारकी आपत्तियां और उससे उत्पन्न होनेवाले नाना प्रकारके भयएक साथ उत्पन्न होने लगते हैं। जैसा कि कहा भी है
बह्वपायमिदं राज्यं त्याज्यमेव मनस्विनाम् । यत्र पुत्राः ससोदा वैरायन्ते निरन्तरम् ।।
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जहांपर पुत्र और सहोदर भाईतक हमेशह वैर किया करते हैं। जिसमें अनेक अपाय -बुरे काम करने पडते हैं, अथवा अत्यंत दुष्कर्म-पापका संचय होता है। ऐसा यह राज्य मनस्वियोंकेलिये त्याज्य ही है। जो लक्ष्मी अत्यंत भक्ति करनेवाले-मित्र पुत्र कलत्र भ्राता आदिमेंसे भी यथासन्न जो जो निकटवर्ती हैं उन सबमेंसे भी नित्य ही विश्वासको नष्ट करदेती है-जिस लक्ष्मीके प्रसादसे अत्यंत भक्त "पुत्रादिकमें भी धनापहारकी
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शंका होने लगती है । जो लक्ष्मी दोषोंमें भी गुणकी कल्पना कराती हुई मनुष्योंको अनुरक्त बनालेती है-यदि कोई ब्रह्महत्या जैसा दोष करनेवाला भी धनी है तो धनके लोभसे बडे बडे वृद्ध ज्ञानी और तपस्वी उसकी प्रशंसा करते और आश्रय लेते हैं। कहा भी है
. वयोवृद्धास्तपोवृद्धा ये च वृद्धा बहुश्रुताः ।
. सर्वे ते धनवृद्धस्य द्वारि तिष्ठन्ति किङ्कराः ॥ जो वयोवृद्ध और अनेक शास्त्रोंके ज्ञानसे वृद्ध हैं वे सब धनवृद्ध पुरुषके दरबाजेपर किङ्कर बनकर खड़े रहते हैं।
हे भाई ! इस तरहकी अनेक विशेषणोंसे विशिष्ट लक्ष्मीके द्वारा लक्ष्मीको पाकर तू अच्छी तरह अपनेको उत्कृष्ट समझ, जब तक कि क्षणिक स्वभावके कारण शीघ्र ही यह तुझको अन्ध युक्तायुक्तके विवेक से विकल न बना दे। क्योंकि यदि न इसने अंध-विवेकहीन तुझे करदिया तो " मेरी यह लक्ष्मी दूसरेके पास जा रही है" यह देखकर तुझको अवश्य ही दुःसह दुःख प्राप्त होगा। अत एव वह तुझको पहलेसे ही विवेकशून्य-अंधा बनादेती है।
देखा गया है कि प्रायः सभी मनुष्य लक्ष्मीका समागम होते ही देखते हुए भी अंधे होजाते हैं और उसके जाते ही अच्छी तरह आंखें खुल जाती हैं । जैसा कि कहा भी है:
संपयपडलहिं लोयणई वंभजेच्छायंजंति ।
ते दालिदसलाइयई अंजिय णिम्मल हुति ॥ मनुष्योंके नेत्र संपत्तिपटलसे आच्छन्न होजाया करते हैं-उनकी दर्शनशाक्त नष्ट होजाती है। किंतु दारिद्रयकी सलाई आंजते ही वे निर्मल होजाते हैं। उन्हें सब कुछ सूझने लगता है।
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शिल्प आदि कलाओंके ज्ञानियोंके मदावेशपर दुःख प्रकट करते हैं-विद्यामदकी हेयता बताते हैं।
शिल्पं वै मदुपक्रमं जडधियोप्याशु प्रसादेन मे, विश्वं शासति लोकवेदसमयाचारष्वहं दृङ् नृणाम् । राज्ञां कोहमिवावधानकुतुकामोदैः सदस्यां मनः, कर्षत्येवमहो महोपि भवति प्रायोद्य पुंसां तमः ॥ ९१ ॥ .
露露驗總總露露露露變繁露幾繳錢繳繳繳綴綴
यद्यपि कुछ लोग ऐसे हैं जो कि ज्ञानविशिष्ट होनेपर भी उसका गर्व--मद नहीं करते । किंतु आह ! बडे कष्टके साथ कहना पडता है कि प्रायः करके आज कलिकालमें मनुष्योंका ज्ञान-शिल्प प्रभृति कलाओंका ज्ञानाख्य तेज भी अन्धकार बन रहा है । क्योंकि मत्त होनेके कारण वह स्वपरिणाम और परपारणामके विषय में अविवेकका कारण होगया है । यही बात दिखाते हैं। :
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यह शिल्प- अमुक प्रकारका पत्रच्छेदादि करकौशल या नक्कासी वगैरहका काम जो देखनेमें आता है वह निश्चयसे मेरा ही तो उपक्रम है- इसका आविष्कर्ता मैं ही हूं। मेरे ही इस आविष्कारको ।. देखकर दूसरे लोग भी वैसा बनाने लगे हैं । मेरे प्रसादसे शीघ्र ही--मेरा अनुग्रह होते ही बडे बडे जडबुद्धि
भी इस चराचर जगत्के स्वरूपका दूसरोंको उपदेश देने लगते हैं-लोकस्थितिकी व्युत्पत्ति-भौगोलिक ज्ञान कराने में म ही गुरु हूं । लोक वेद और समय इन नाना लिंगियोंके मतोंके आचार भी विभिन्न हैं। इनमेंसे जिन जिनके अनुसार जो जो आचरण विहित हैं उन सबके बतानेमें मैं ही लोगोंकी दृष्टि हूं-मेरे ही द्वारा वे उन आचरणोंको देख व सुन सकते हैं-लोकादिके आचारोंको स्पष्ट रूपसे दिखानेमें भी मैं प्रवीण हूं । एवं मेरे
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समान और एसा कौन है जो कि सभामें अवानोंके कौतुकरूप आमोदसे राजाओंके मन इस तरहस अपनी तरफ खींचले-अपने अधीन बनाले । __ कुलीन पुरुष बलका मद नहीं करता-वह उसकी तरफ दुर्लक्ष्य रखता है, इसी : बताते हैं :
शाकिन्या हरिमाययाभिचरितान् पार्थः किलास्थद्विषो, वीरोदाहरणं वरं स न पुना रामः स्वयं कूटकृत् । इत्यास्थानकथाप्रसंगलहरीहेलाभिरुत्प्लावितो हत्कोडाल्लयमति दो:परिमलः कस्यापि जिह्वांचले ॥ ९२॥
शास्त्रोंमें इतिवृत्तके देखनेसे यह बात अच्छी तरह मालुम होजाती है कि वीर पुरुषोंका उत्तम उदाहरण अर्जुन ही है, न कि रामचन्द्र; क्योंकि रामचन्द्रने बालिवधके प्रसंगमें स्वयं कूट कपट किया था। किंतु अजुनने ऐसा नहीं किया । उसने अपने शत्रुओंका तिरस्कार या पराजय करनेमें स्वयं छल कपट कभी नहीं किया।
अध्याय
१-पाठ गीत नृत्य हिसाब घंटाकी आबाज प्रश्न आदि अनेक बातोंको युगपत् धारण करसकनको अवधान कहते हैं । यथाः
व्यावृत्तं प्रकृतं वियद्धि लिखितं पृष्टार्पितं व्याकृतं, मात्राशेषममात्रमंकशवलं तत्सवतोभद्रवत् । यः शक्तो युगपद् ग्रहीतुमखिलं काव्ये च संचारयन् वाचं सूक्तिसहस्रभंगसुभगां गृहणंतु पत्रं समे ॥
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अनगार
| धर्म
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उसने अपने जिन शत्रुओंका-कोरयों का पराभव किया था उनकी शक्तिको शाकिनी-चुडेलके समान कृष्णकी मायाने नष्ट किया था । अत एव जगत् के इन वीरोंको अर्जुनके समान ही होना चाहिये । इस तरहसे सभाओंमें बीररसकी बातें कथाओं के प्रसङ्गरूपी महान् ऊर्मियों-लहरोंकी अनियत प्रवृत्तिके द्वारा जो अपने हृदयके भीतर उत्प्लावित किया गया है आत्मबलकी प्रशंसा करनेकेलिये ऊपरको उकसाया गया है, ऐसा भी कुलीन-उत्तम कुलमें उत्पन्न होनेवाला, अपने बाहुपरिमल-प्रशस्त शरीरमामर्थ्यको जिव्हाश्चलका लक्ष्य नहीं बनाता । निमित्त मिलनेपर भी वह अपने मुख से अपने बलकी कभी प्रशंसा नहीं करता । वह उधर लक्ष्य भी नहीं देता।
तपका मद दुर्जय है; इस बातको स्पष्ट करते हैं:कर्मारिक्षयकारण तप इति ज्ञात्वा तपस्तप्यते, कोप्येतर्हि यदीह तर्हि विषयाकांक्षा पुरो धावति । अप्येकं दिनमीदृशस्य तपसो जानीत यस्तत्पद,- .
द्वंद्वं मूर्ध्नि वहेयमित्यपि दृशं मन्नाति मोहासुरः ॥ ९३ ॥ जैसा निरीहतया तप मैं करता हूं वसे तपके एक दिनको भी जाननेवाला-एक दिन भी उस तरहका तपश्चरण करनेवाला यदि कोई हो तो मैं उसके चरणयुगलको अपने शिरपर रखलू । तप करना सहज नहीं है । यह मोहप्रभृति कर्मशत्रुओंके क्षयका कारण है । ऐसा समझकर यदि कोई आजकल तपका संचय भी करता है-मोक्षके लक्ष्यसे-आत्मकल्याणकेलिये यदि कोई तप करे भी तो विषयोंकी आकाक्षा उसके आगे आगे दौडती है। उ. नका वह तप ऋद्धि समृद्धि के लाभ इच्छा, स्वर्गीय सुखके भोगकी लिप्सा और सांसारिक अभ्युदयोंकी आका
झाओंसे शीघ्र ही दूषित होजाता है। इस प्रकार मोह--तपोमदरूपी असुर केवल उनके तप या चारित्रको ही भ्रष्ट-नष्ट-दुषित नहीं करता किंतु सम्यक्त्वको भी कदर्थित करदेता है।
अध्याय
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भावार्थ--तपोमदसे चारित्र और सम्यक्त्व दोनो ही दूषित होते हैं । ।
अनगार
पूजामद करनेवालेके दोष दिखाते हैं :
JAVU TEINTEISTENTEITENVERENTSITEITANTEISTSUTERTE
स्वे वर्गे सकले प्रमाणमहमित्येतत्कियद्यावता, पौरा जानपदाश्च संत्यपि मम श्वासेन सर्वे सदा । यत्र काप्युत यामि तत्र सपुरस्कारां लभे सक्रिया,
मित्यर्चामदमूर्णनाभवदधस्तंतुं वितन्वन् पतेत् ॥ ९४ ॥ जब कि सभी नगरनिवासी और देशवासी लोग सदा मेरे श्वासके साथ ही श्वास लेते हैं, सबका मैं ही प्राण हूं। और एक मेरे ही आधीन सब ठहरे हुए हैं। एवं मेरे ही नेतृत्व में सब चलरहे हैं । अथवा जहां कही भी मैं जाता हूं वहीं मेरा सपुरस्कार सत्कार होता है-- सभी जगह उत्तम कर्मों में मुझको अगुआ बनाकर मेरी पूजा की जाती है । तब अपने ही इस समस्त वर्गमें--सजातीय समूहमें सदा और सर्वत्र मैं ही प्रमाण माना जाऊं-मैं ही अविसंवादी माने जानेकी प्रतिष्ठा प्राप्त करूं तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। इस प्रकार अपने पूजामद-पूज्यताके अहङ्कार को बढानेवाला मनुष्य इस तरहसे भ्रष्ट होकर हीन पदमें जाकर पडजाता है। जिस तरहसे तंतुओंको विस्तृत करता हुआ ऊर्णनाभ- मकडा ।
भावार्थ-जिस प्रकार अपनी लारको तंतु बनानेवाला मकडा नीचेकी तरफ गिरजाता है उसी प्रकार अपने ही अहंकार- पूजामदके कारण मनुष्य भ्रष्ट होकर पूज्यतासे गिरजाता है ।
इस प्रकार प्रसङ्गोपात्त जाति आदि आठ मदोंके साथ साथ मिथ्यात्व नामक अनायतनकी त्याज्यता साधर्मियोंको बताकर सात प्रकारके तद्वान्-मिथ्यादृष्टियोंकी त्याज्यता बताते हैं :
बध्याय
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RATHE
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धमे.
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सम्यक्त्वादिषु सिद्धिसाधनतया त्रिष्वेव सिद्धेषु ये, रोचन्ते न तथैकशस्त्रय इमे ये च द्विशस्ते त्रयः । यश्च त्रीण्यपि सोप्यमी शुभदृशा सप्तापि मिथ्यादृश,
स्त्याज्याः खण्डयितुं प्रचण्डमतयः सदृष्टिसम्राटपदम् ॥ ९५ ॥ . सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र ये तीन ही सिद्धि-मुक्तिके साधन-कारणत्वेन सिद्ध हैं । यह बात ग्रंथान्तरों में अच्छी तरह सिद्ध करके बताई गई है कि मोक्षका साक्षात् कारण इस रत्नत्रयकी पूर्णता ही है। किंतु फिर भी कितने ही जीवोंको इसका श्रद्धान नहीं होता । ऐसे ही जीवोंको मिथ्यादृष्टि कहते हैं। इनके सात भेद है जो कि इस प्रकार हैं:-- तीन तो वे जो कि इन तीनोंमेसे एक एक को ही केवल सम्यग्दर्शन या केवल सम्यग्ज्ञान अथवा केवल सम्यकचारित्रको ही मोक्षका कारण मानते हैं । इसी प्रकार तीन वे जो कि इनमेंसे दो दोको सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानको अथवा सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्रको यद्वा सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको मोक्षका कारण मानते हैं । इसी प्रकार सातवां वह जो कि सम्यग्दर्शनादिक तीनों ही को मोक्षका कारण नहीं मानता। इन सातो ही प्रकारके मिथ्यादृष्टियोंकी बुद्धि सम्यक्त्वरूपी साम्राज्यको स्वरूपसे तथा प्रभावसे विकल बनानेमें अच्छी दक्षता रखती है। इनका विपरीत ज्ञान सहज ही में सम्यक्त्वको नष्ट करदेता है। अतएव सम्यग्दृष्टि भव्योंको इन सातोंका दूर ही से परित्याग करदेना चाहिये। . भावार्थ, रत्नत्रयमेंसे एक तो तीनोंको न माननेवाला, तीन एक एकको न मानने वाले, और तीन दो दोके न माननेवाले इस तरहसे मिथ्यादृष्टियोंके सात भेद हैं, जिनके कि ज्ञान व उपदेशसे सम्यक्त्वका घात होता है। अत एव सम्यग्दृष्टिको उनका त्याग करना ही उचित है ।
१- प्रकारान्तरसे भी मिथ्यात्वके सात भेद होते हैं जैसा कि पहले बता चुके हैं।
अध्याय
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अनगार
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अध्याय
दूसरे और भी जो अनेक प्रकारके मिथ्यादृष्टि हैं उनके साथ भी संसर्ग न करनेका उपदेश देते हैं ।
मुद्रां सांव्यवहारिकीं त्रिजगतीवन्द्यामपोह्यातीं,
वामां केचिदयवो व्यवहरन्त्यन्ये बहिस्तां श्रिताः ।
लोकं भूतवदाविशन्त्यवशिनस्तच्छायया चापरे, म्लेच्छन्तीह तकैस्त्रिधा परिचयं पुंदेहमोहैस्त्यज ॥ ९६ ॥
आईती - जैनी अचेलक्यादि चिन्होंके द्वारा व्यक्त होनेवाली वीतराग मुद्रा ही सांव्यवहारिकी-समीचीन है; क्योंकि उसीसे वृत्ति - निवृत्तिरूप व्यवहार भले प्रकार सिद्ध होसकता है। अंत एव वही तीनो लोकोंकेलिये वन्द्य-नमस्कारके योग्य है। किंतु ऐसा होते हुए भी निग्रंथ लिङ्गके ही समस्त इष्ट प्रयोजनोंके साधन रहते हुए भी कोई कोई अहंयु- मैं भी कोई चीज हूं. ऐसा अहंकार - गर्व रखनेवाले तापस लोक प्रभृति उसका अपवाद निषेध कर के जटा रखना भस्म लगाना दण्ड त्रिदण्ड आदिका धारण करना इत्यादि नाना प्रकारकी विपरीत मुद्राओंव्रतचिन्होंको धारण किया करते हैं। जिस तरहसे कि लोकमें कोई पुरुष सच्चे सिक्काको छोडकर नकली सिक्का धारण करे | इनके सिवाय कितने ही ऐसे भी हैं जो कि द्रव्यसे जिनलिङ्गके ही धारण करनेवाले हैं जो कि अपनेको मुनि ही मानते हैं । किंतु वास्तवमें वे वशी - जितेंन्द्रिय नहीं हैं। यही कारण है कि उन्होंने युक्त आती मुद्राको बाहरसे—शरीरसे ही धारण कर रक्खा है; न कि मन भावसे। ये लोक धर्मकी कामना रखनेवाले जीवों में भूत या ग्रहकी तरहसे प्रवेश करजाया करते हैं और उनसे ऐसी ऐसी चेष्टायें कराते हैं जैसे कि कोई भृताविष्ट पुरुष किया करता है। इनके सिवाय तीसरी तरहके ऐसे भी लोग हैं जो कि द्रव्य जिनलिंगके धारक होकर भी मठोंके स्वामी हैं । ये जिनलिंगकी नकल बनाकर म्लेच्छके समान आचरणकरते हैं- लोक और शास्त्र दोनों ही से विरुद्ध क्रिया करते हैं । जैसा कि कहा भी है:--
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बनगार
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पण्डितंभ्रष्टचारित्रैवठरैश्च तपोधनैः ।
शासन जिनचन्द्रम्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥ . चारित्रसे भ्रष्ट हुए पंडित और मठपति तपोधन इन्होंने जिनचन्द्र के निर्मल शासनको मलिन करदिया।
. अत एव हे सम्यक्त्वके आगधना करनेवाले भव्य ! तू इन तीनो या इनके समान और भी अनेक कुत्सित व्यक्तियोंसे जो कि मनुष्यशरीरके आकारमें साक्षात् मोह हैं; संसर्ग करना बिलकुल-तीनो ही प्रकारसे-मन वचन और कायसे छोडेदे। मनसे इनका अनुमोदन वचनसे स्तुति और कायसे संगति करना छोडदे ।
क्रमप्राप्त मिथ्याज्ञान नामके अनायतनका त्याग कराते हैं - विद्वानविद्याशाकिन्या: क्रूरं गे मुपप्लवम् ।
निरुन्ध्यादपराध्यन्ती प्रज्ञां सर्वत्र सर्वदा ॥ ९७ ॥ . प्रज्ञा - भूत भविष्यत् और वर्तमान इन तीनो कालवर्ती विषयोंके अर्थका परिच्छेदन करनेवाली बुद्धिका काम है कि वह अविद्यारूपी शाकिनी-चुडेलके कर्कश-अत्यंत क्रूर उपसर्गको सदा और सर्वत्र रोके; किंतु यदि वह वैसा करनेमें अपराध कर-विभ्रमको प्राप्त होजाय तो विद्वान् विचारशील व्यक्तिको चाहिये कि वह उसको वैसा अपराध करनेसे रोके।
अध्याय
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१-जैसा कि कहा भी है
कापथे पथि दुःखानां कापथस्थेऽप्यसंमतिः।
।' असंपृक्तिरनुत्कीर्तिर मूढा दृष्टिरुच्यते ॥ . दुःखोंके कारणभूत खोटे मार्गकी या उस मार्गपर चलनेवालोंके प्रति अपनी समति प्रकट न करना, उनसे सम्बन्ध न रखना और उनकी प्रशंसादि भी न करना इसको सम्यग्दर्शनका अमूढदृष्टि अंग कहते हैं।
PERITERNET
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बनगार
धर्म
मिथ्याज्ञानियोंसे संपर्क करनेका निषेध करते हैं:
कुहेतुनयदृष्टान्तगरलोद्गारदारुणैः ।
आचार्यव्यञ्जनैः सङ्गं भुजङ्गैर्जातु न व्रजेत् ॥ ९८ ॥ " मोह मूछादेका कारण होनेसे गरल-तीव्र विषके समान विपरीत उदाहरणों खोटे पक्षों और कुत्सित हेतुओं-प्रमाणबाधित युक्तियोंके उद्गार-उत्सर्गसे दारुण-अत्यंत भयंकर इन आचार्योंको भुजङ्ग-विट-धूर्त या काला नाग समझना चाहिये। क्योंकि सच्चरित्रका आचरण करनेवाले आचार्योंके वेषमें ये अपने असली स्वरूपको छिपानेवाले हैं । अत एव सम्यग्दृष्टिको चाहिये कि वह इन भुजङ्गोंकी संगति कदाचित् भी न करे।
इसी बातको फिर भी प्रकारान्तरसे कहते हैं:
भारयित्वा पटीयांसमप्यज्ञानविषेण ये। विचेष्टयन्ति संचक्ष्यास्ते क्षुद्राः क्षुद्रमंत्रिवत् ॥ ९९॥
अध्याय ।
सर्पविष आदिकके झाडनेवालोंमेंसे जिस प्रकार क्षुद्र पुरुष जिनको कि उस विषयका सच्चा ज्ञान नहीं है और जो दुष्ट हैं वे कोई दृष्टपूर्व हो या अदृष्टपूर्व, विद्वान् हो या मूर्ख; कैसा भी कोई क्यों न हो, चाहे स्वयंको भी इस बातका संदेह ही क्यों न हो कि इसको सर्पने काटा है; तो भी किसी जहरीले पदार्थसे उसको विह्वल करके अनेक प्रकार उससे विपरीत प्रवृत्ति कराते हैं। उसी प्रकार ये क्षुद्र मिथ्यादृष्टि मिथ्योपदेष्टा सभी लोगोंको -मृोंकी तो बात ही क्या, बडे बडे चतुर विद्वानोंको भी अपने मिथ्याज्ञानरूपी जहरीले पदार्थसे मोहित कर उनसे विपरीत वर्तन कराते हैं। अत एव सम्पक्त्वका आराधन करनेवालोंको इनका त्याग ही करना चाहिये।
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बनगार
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मिथ्याचारित्रनामक अनायतनका निषेध करते हैं:
रागाद्यैर्वा विषाद्यैर्वा न हन्यादात्मवत्परम् ।
ध्रुवं हि प्राग्वधेऽनन्तं दुःखं भाज्यमुदग्वधे ॥ १० ॥ जो मिथ्याचारित्रनामक अनायतनका त्याग करना चाहता है ऐसे सम्यग्दृष्टिको चाहिये कि वह अपनी तरह दूसरेका भी-अपना और पराया किसीका भी रागद्वेषादिकके द्वारा -दृष्ट श्रुत अथवा अनुभूत भोगोंकी आकाङ्क्षारूप निदानबन्ध प्रभृति समस्त दोषोंसे, जो कि मोहनीय कर्मके उदयजनित विकार हैं, अथवा इन भावोंसे ही नहीं किन्तु विष शस्त्र जल अग्नि आदि द्रव्योंसे भी वध न करे। क्योंकि इन दोनों ही का फल अनंत दुःख अवश्यम्भावी है। हां, एक बात अवश्य है, वह यह कि दूसरे पक्षमें कदाचित् वह दुःखरूप फल प्राप्त न भी हो; क्योंकि यदि कोई विष शस्त्रादिके द्वारा मारा गया जीव पश्चनमस्कारमंत्रके स्मरण आदिमें दत्तचित्त रहा तो उसे वह अनन्त दुःख नहीं भोगना पडेगा; अन्यथा वह भोगेगा ही । अत एव स्वपरके द्रव्यवधमें कदाचित् विकल्प भी हो सकता है। किंतु स्व और परके भाववधका फल अनन्त दुःख तो भोगना ही होगा।
अध्याय
भावार्थ-स्व और परका वधरूप मिथ्याचारित्र नामका अनायतन दो प्रकारका है; भाव दूसरा द्रव्य । रागद्वेषादिके द्वारा होनेवाले स्वपरघातको भाव और विष शस्त्र आदिके द्वारा होनेवाले स्वपरघातको द्रव्य कहते हैं । रागादि परिणामोंसे अपने और पराये विशुद्ध परिणामरूप समताभावोंका घात होता है अत एव इस मिथ्या चारित्ररूप अनायतनसेवासे सम्यक्त्व मलिन हो जाता है । यही बात द्रव्यमिथ्याचारित्रसेवाके विषयमें भी समझनी चाहिये । क्योंकि द्रव्य और भाव दोनो ही परस्परमें सम्बद्ध हैं। जैसा कि परस्परके समुच्चय अर्थमें आये हुए दोनो वाशब्दोंसे प्रकट किया गया है ।
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अनगार
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हिंसा और अहिंसा दोनोंका माहात्म्य बताते हैं : - हीनोपि निष्ठया निष्ठागरिष्ठः स्यादहिंसया ।
हिंसया श्रेष्ठनिष्ठोपि श्वपचादपि हीयते ॥ ११ ॥ धनबल शरीरबल अथवा अन्य किसी शक्तिसे हीन-रिक्त भी पुरुष इस अहिंसाके कारण द्रव्यहिंसा और भावहिंसाकी निवृत्तिके द्वारा व्रतादिकका अनुष्ठान कर अपने विषयमें-व्रतानुष्ठानादिकमें अत्यंत महान्-उत्कृष्ट -या पूज्य हो जाता है। किंतु इसके विरुद्ध हिंसाप्रवृत्तिसे श्रेष्ठ आचरण-व्रतानुष्ठानादि करनेवाला भी पुरुष अत्यंत हीन-चाण्डालसे भी निकृष्ट हो जाता है। मिथ्या चारित्रका आचरण करनेवालोंके साथ संगति करनेका निषेध करते हैं:
केचित्सुखं दुःखनिवृत्तिमन्ये प्रकर्तुकामाः करणीगुरूणाम् ।
कृत्त्वा प्रमाणं गिरमाचरन्तो हिंसामहिंसारसिकैरपास्याः ॥ १०२ ॥ कोई तो इसलिये कि हमको और हमारे इष्ट मित्र बन्धुओंको सुख प्राप्त हो-हमारे और उनके यहां खुब आनंद रहे और कोई इसलिये कि हमारे तथा हमारे मित्रों के ऊपर जो दाख क्लेश या विपत्ति आई हुई हैं वे सब दूर हो,जाय । मतलब यह कि सुखकी प्राप्ति और दुःखकी निवृत्ति करने की इच्छासे बहुतसे लोग करणी-उपाधि-परिग्रहसे युक्त गुरुओं-मिथ्या आचार्योंके वचनोंको प्रमाण मानकर-यह विश्वास करके कि इनके उपदेशानुसार आचरण करनेसे हमें अवश्य ही सुखकी प्राप्ति होगी या हमारे दुःख दूर हो जायगे; हिंसामय आचरण करते हैं। ऐसे लोगोंकी संगति, जो अहिंसामय आचरणके रसमें आसक्ति रखलेवाले हैं, उन्हें छोडदेनी ही चाहिये।
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अध्याय
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अनगार
भावार्थ-हिंसामय आचरणके उपदेष्टा और कर्ता दोनोंकी संगतिसे सम्यग्दर्शन मलिन होता है। तीन मूढताओंका परित्याग होना सम्यग्दृष्टिका भूषण है, ऐसा उपदेश देते हैं:
यो देवलिङ्गिसमयेषु तमोमयेषु, लोके गतानुगतिकेप्यपथैकपान्थे । न द्वेष्टि रज्यति न च प्रचाद्विचारः,
सोऽमूढदृष्टिरिह राजति रेवतीवत् ॥ १०३ ॥ जिनमें बहुलतया अज्ञान पाया जाता है अथवा जो निबिड अन्धकारके समान साक्षात अज्ञानरूप हैं ऐसे देवों लिङ्गियों और समयोंमें-कुदेव कुगुरु और कुशास्त्रोंमें तथा न केवल इन्हीमें किंतु जगत्के उन सर्व साधारण व्यवहर्ता पुरुषों में भी, जो कि गतानुगतिक-विना किसी प्रकारका विचार किये ही किसीके भी उपदेशको सुनकर अथवा आचरणको देखकर उसीका अनुगमन या अनुवर्तन करने लगते हैं, तथा जो प्रायः करके नित्य उन्मार्गमें ही गमन करते हैं; विचारशील व्यक्तियों को राग तथा द्वेश न करना चाहिये । ऐसा करने से ही वे रेवती रानीकी तरहसे अमूढदृष्टि अंगको धारण कर इस लोकमें उद्दीप्त हो सकते हैं-सम्यक्त्वके आराधन करनेवालोंमें प्रकाशमान हो सकते हैं।
__ भावार्थ-प्रत्यक्ष अनुमान और आगम इनके द्वारा यथावस्थित वस्तुको व्यवस्थित करनेके कारणभूत क्षोदको विचार कहते हैं। प्रकर्षतया-देश काल और समस्त पुरुषोंकी अपेक्षासे जिसमें किसी भी प्रकारसे बाधा न आवे इस तरहसे विचारकी प्रवृत्ति करनेवालोंको उचित है कि वे कुदेव कुगुरु और कुशास्त्र तथा गतानुगतिक और सदा उन्मार्गगामी सर्वसाधारण लोगोंमें रागद्वेषको छोड-उपेक्षाभाव धारण करें तथा अमृढाष्टका पालन कर सम्यक्त्वका आराधन करें।
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अनगार
प्रश्न-यहांपर मृढदृष्टिके विषय चार बताये गये - कुदेव कुगुरु कुशास्त्र और लोक । सो यह किस तरहसे ? क्योंकि आगममें मूढताके भेद तीन ही सुननेमें आते हैं, जैसा कि स्वामी समंतभद्र आचार्यने भी कहा है:
आपगासागरस्नानमुच्चयः सिकताश्मनाम् । गिरिपातोग्निपातश्च लोकमूढ निगद्यते । चरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसाः । देवता यदुपासीत देवतामढमुच्यते । सग्रन्थारम्भहिंसानां संसारावर्तवर्तिनाम् ।
पाषण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाषण्डिमोहनम् । नदी और समुद्रमें स्नान करना, बालु या पत्थरोंका ढेर लगाना, पर्वतसे गिरना या अग्निमें जलना इत्यादि सब लोकमूढता है।
आशा रखकर वरको प्राप्त करनेकी इच्छासे जो राग द्वेषसे मलिन देवताओंकी उपासना करना इसको देवमूढता कहते हैं।
परिग्रह आरम्भ और हिंसामें प्रवृत्त तथा संसारसमुद्रके भमरमें पडे हुए पाखण्डियोंकी उपासनाको पाखण्डिमूढता कहते हैं।
उत्तर-यह प्रश्न ठीक नहीं है। क्योंकि कुदेव या कुगुरु कदागमका अन्तर्भाव हो जाता है। अन्यथा स्वयं समन्तभद्र स्वामी ही ऐसा क्यों कहते कि,
भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिङ्गिनाम् । . प्रणाम विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः ।।
बध्याय
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अनगार
शुद्ध सम्यग्दर्शनके धारण करनेवालोंको भय आशा स्नेह लोभ किसी भी तरहसे कुदेव कदागम और कुलिङ्गियोंको प्रणाम और उनका विनय न करना चाहिये । इसी बातको लेकर ठाकूरने भी कहा है कि:
लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे ।
नित्यमपि तत्त्वरुचिना कर्तव्यममूढदृष्टित्वम् ॥ सम्यग्दृष्टियोंको लोक कुशास्त्र कदागम और कुदेवमें नित्य ही अमृढ दृष्टि रखनी चाहिये ।
छह अनायतनोंके त्याग करदनसे जिनकी दृष्टि-श्रद्धा अभिभूत नहीं होती उनको और उस श्रद्धाको भी अमृढ दृष्टि कहते हैं। इससे दृष्टिकी अमृढताका सम्बन्ध अनायतनत्यागसे है। अत एव इस प्रकरणमें जो छह अनायतनोंके त्यागका उपदेश दिया गया है उससे स्मृतियोंमें प्रसिद्ध सम्यक्त्वके पांचवें अमूढदृष्टित्व गुणका भी यहांपर संग्रह करलेना चाहिये । क्योंकि वैसे उसकी विशुद्धिवृद्धिकेलिये सिद्धांतमें चार ही गुण बताये हैं, जैसा कि आराधनाशास्त्रमें कहा है:--
उवगृहणठिदिकरणं वच्छल्लपहावणा गुणा भणिया । सम्मतविसुद्धीए उवगृहणगारया चउरो॥
सम्यक्त्वकी' विशुद्धिकेलिये ये चार गुण बताये हैं-उपगृहन स्थितीकरण वात्सल्य और प्रभावना । इन उपगृहनादिकसे जो विपरीत भाव हैं वे ही चार सम्यग्दर्शनके दोष होजाते हैं । अत एव सम्यक्त्वके जो पच्चीस दोष दिखाये हैं वे विस्ताररुचि रखनेवाले शिष्योंकी अपेक्षासे हैं । यथाः--
बध्याय
१-श्री अमृतचन्द्र सूरिके ग्रन्थका उल्लेख करते हुए उन्हें ग्रंथकर्ताने कई जगह ठकुर या ठाकुर लिखा है. हिन्दी भाषामें ऊंचे अधिकारवाले और उत्तम वशोंके या राजघरानोंके क्षत्रियोंको अब भी ठाकुर कहते हैं.
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VERSENTRA
बनगार
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मूढत्रयं मदाश्चाष्टो तथानायतनानि षट् ।
अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः ॥ ३ मूढता, ८ मद, ६ अनायतन, ८ शङ्कादिक ये सम्यग्दर्शनके २५ दोष हैं । जो इन उपगूहन आदि गुणोंके धारण करनेवाले नहीं हैं वें सम्यक्त्वके वैरी हैं ऐसा बताते हैं:--
यो दोषमुद्भावयति स्वयूथ्ये यः प्रत्यवस्थापयतीममित्ये ।
न योनुगृह्णाति न दीनमेनं मागं च यः प्लोषति दृरिद्वषस्ते ॥ १० ॥ चार प्रकारके मनुष्य सम्यग्दर्शनके वैरी हैं-विराधक हैं। वे कौन कौनसे हैं सो बताते हैं। एक तो वे जो कि साधर्मियोंमें सत् या असत्-मौजूद या गैरमौजूद दोषको-सम्यक्त्व प्रभृतिके अतीचारको प्रकाशित करते हैं जो उपगूहन गुणको धारण नहीं करते । दूसरे वे जो कि सम्यग्दर्शनादिकसे च्युत होते हुए साधर्मीको पुनः पूर्ववत् उसी मोक्षमार्गमें स्थापित नहीं करते-~-जो स्थितीकरणको नहीं पा. लते । तीसरे वे जो कि धर्मादि पुरुषार्थोंके साधनकी सामर्थ्य जिनकी नष्ट होगई है ऐसे दीन साधर्मीको अनुग्रह कर उसके योग्य-समर्थ नहीं बनादेते । चौथे वे जो कि सांसारिक अभ्युदयों तथा परमनिःश्रेयस-मोक्षकी प्राप्तिके उपायभूत रत्नत्रयको दग्ध करते हैं-माहात्म्यसे भ्रष्ट कर लोकमें निष्प्रभावतया प्रकाशित करते हैं।
इस प्रकार सम्यक्त्वके दोषोंका वर्णन कर उनके त्यागका उपदेश दिया । अब यहांसे उसके गुणोंका वर्णन करते हैं। जिनमेंसे सबसे पहले उपगृहन गुणकी अवश्यकर्तव्यताका उपदेश देते हैं, जो कि अन्तर्वृत्ति और बहिवृत्तिकी अपेक्षासे दो प्रकारका है ।:
धर्म खबन्धुमभिभूष्णुकषायरक्ष:,
बध्याय
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बनंगार
२३२
अध्याय
२
क्षेप्तुं क्षमादिपरमास्त्रपरः सदा स्यात् । धर्मोपवृंहणधियाऽबलवालिशात्म, -
युध्यात्ययं स्थगायितुं च जिनेंद्रभक्तः ॥ १०५ ॥
/
जो मोक्षकी इच्छा रखेनवाले भव्य हैं उनको चाहिये कि वे अपने साधर्मी भाइयोंमें जो अशक्त या अज्ञानी हैं उनके उसे अशक्ति अथवा अज्ञानके कारण उत्पन्न हुए अत्ययों - दोषोंको धर्मोपबृंहणकी बुद्धिसे- मैं इनके इन अज्ञानजनित या अशक्तिजनित दोषोंको दूर कर उनकी जगह धर्मकी वृद्धि कर दूं - इस धर्मवृद्धिकी बुद्धिसे आच्छादित करने केलिये जिनेन्द्रभक्त बनें । जिनेन्द्रभक्त सेठके समान आचरण करें अथवा जिनेन्द्रदेवकी भक्ति करें । तथा अपने बन्धुकी तरहसे उपकार करनेवाले सम्यक्त्व या रत्नत्रयको अभिभूत - व्याहतश क्ति करदेनेवाले कषायका, जो कि अत्यंत दुर्निवार होनेके कारण बिलकुल राक्षस के समान है, निग्रह करने केलिये उत्तम क्षमा उत्तम मार्दव उत्तम आर्जव प्रभृति दिव्य और प्रधान अस्त्रोंको सदा धारण करें।
एक तो सम्यक्त्व या रत्नत्रय के
भावार्थ-मुमुक्षुओं को उपगूहनके पालन करनेमें दो काम करने चाहिये। विरोधी कषायका दलन, दूसरा साधर्मियोंके दोषोंका धर्मबुद्धिसे आच्छादन ।
स्व और परके स्थितीकरणका आचरण करनेका उपदेश देते हैं:
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दैवप्रमादवशतः सुपथश्चलन्तं, स्वं धारयेघु विवेकसुहृद्वलेन ।
तत्प्रच्युतं परमपि द्रढयन् बहुखं, स्याद्वारिषेणवदले महतां महार्हः ॥ १०६ ॥
धर्म ०
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अनगार
धर्म
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" दैव और प्रमाद- पूर्वजन्मका संचित ऐसा कोई कर्म कि जिसके उदयसे समीचीन मार्गमें प्रातबन्ध आजाय तथा असावधानता इन दोनों ही के वशसे समीचीन मार्ग-मोक्षमार्ग- सम्यग्दर्शनादिक तीनों ही अथवा इनमेंसे एक दोसे भी चलायमान होनेपर-च्युत होनेकेलिये उन्मुख होते ही विवेकरूपी सुहृद के बलसे-युक्तायुक्तके विचाररूपी मित्रकी सहायतासे शीघ्र ही मुमुक्षुओंको अपनेको फिर उसी सन्मार्गमें स्थिर कर देना चाहिये । इसी प्रकार-सन्मार्गसे च्युत होनेके लिये उन्मुख हुए दूसरे भी साधर्मियोंका जो वारिषेणकी तरह पुनः मोक्षमार्गमें दृढ करता है वह इन्द्राकिके द्वारा अच्छी तरह पूज्य हो जाता है।
भावार्थ-जिस प्रकार श्रेणिक महाराजके पुत्र वारिषणने पुष्पडालको धर्ममें स्थिर करके पूज्यता और प्रसिद्धि प्राप्त की उसी प्रकार जो कोई भी स्थितीकरण अङ्गका पालन करेगा वह भी सिद्धि और प्रसिद्धिको तथा पूज्यताको पर्याप्त रूपमें प्राप्त करेगा। धर्मसे च्युत होते हुए स्व या परको सन्मार्गमें हा स्थिर करनेका नाम स्थितीकरण है। अन्तरङ्ग और बाह्य दोनो ही प्रकारके वात्सल्य अंगका पालन करनेकेलिये प्रेरणा करते हैं:
धेनुः स्ववत्स इव रागरसादभीक्ष्णं, दृष्टिं क्षिपेन्न मनसापि सहेत्क्षतिं च। धर्मे सधर्मसु सुधीः कुशलाय बड,
प्रेमानुबन्धमथ विष्णुवदुत्सहेत ॥ १०७ ॥ जिस प्रकार धेनु-तत्काल व्याही हुई गौ अपने बच्चेपर निरंतर रागपूर्व दृष्टि रखती है-उसको हमेशह स्नेह भरी दृष्टिसे देखा करती है -- और उसकी क्षति हानिको मनसे भी नहीं सह सकती, वचन और कायकी तो बात ही क्या । अथच, प्रेमके साथ उसके कल्याण के लिये ही प्रयत्न किया करती है। उसी प्रकार विवेकी
अध्याय
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अ. घ.३०
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CTERS
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मुमुक्षुको भी अपने धर्म-रत्नत्रय और सधर्मा भाइयोंपर निरंतर राग रस-प्रीतिके अतिरेकसे पूर्ण दृष्टि-अन्तर्वृति रखनी चाहिये-उनसे मनसा प्रेम करना चाहिये, और वचन तथा कृतिकी तो बात ही क्या, मनसे भी उनपर आये हुए उपद्रवोंको न सहना चाहिये-उनकी क्षतिपर क्षमा न करनी चाहिये । अथच, विष्णुकुमार मुनिकी तहर प्रेमबन्धका अनुवर्तन करते हुए उनकी कुशलता-कल्याण-रक्षाकेलिये ही सदा उत्साह-उद्योग करना चाहिये।
भावार्थ---वात्सल्य दो प्रकारका है-अन्तरंग और बाह्य । धर्म और धर्मात्माओंपर हृदयसे स्नेह करना अन्तरङ्ग वात्सल्य और तदनुसार उनकी रक्षादिकेलिये प्रयत्न करना बहिरंग वात्सल्य है। मुमुक्षुओंको इन दोनो ही वात्सल्योंका. पालन करना चाहिये ।
अन्तरंग और बाह्य दोनो प्रकारकी प्रभावनाओंका स्वरूप बताते हैं:
रत्नत्रयं परमधाम सदानुबध्नन्, स्वस्य प्रभावमभितोडुतमारभेत । विद्यातपोयजनदानमुखावदाने,
वज्रादिवजिनमतश्रियमुडरेच्च ॥ १०८ ॥ मुमुक्षुको उचित है कि वह सर्वत्र और सर्वदा प्रकृष्ट तेजोरूप अथवा उसके कारण रत्नत्रयका अनुवर्तन करता हुआ हर तरहसे अपने-अपनी आत्माके अद्भुत-आश्चर्यकारी प्रभाव-अचिन्त्य शक्तिविशेषको बढानेका प्रयत्न करे । तथा वज्रकुमार प्रभृति जो जो प्रसिद्ध पुरुष हुए हैं उनके समान विद्या तप यजन दान इत्यादि अनेक अवदान-अद्भुत कर्म करके जिनमतकी श्रीका उद्धार करे, जिनशासनके माहात्म्यको जगत में प्रकाशित करे।
अध्याय
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AMARE
स्थाद्वादका ज्ञान, पठितसिद्ध मंत्र और जिसके द्वारा आकाशमें गमन आदि किया जा सकता है ऐसी साधितासिद्धको विद्या कहते हैं । इच्छाके निरोधको तप कहते हैं । नित्यमह आष्टान्हिक मह इत्यादि जिनयज्ञको यजन कहते हैं। और अपने तथा दूसरेके कल्याणकेलिये जो कुछ भी देना उसको दान कहते हैं । इन विद्यादिकोंके सिवाय सिद्धमंत्र दिव्यास्त्र सिद्धौषधियोंके प्रयोग इत्यादि और भी अनेक अद्भुत कर्म हैं कि जिनके निमित्तसे पूर्वज महापुरुषोंने जिनधर्मके तेजसे लोगोंको प्रभावित करदिया था उन कर्मों में प्रसिद्ध हुए पुरुषोंके उदाहरण आगमके अनुसार मालुम होसकते हैं । मुमुक्षुओंको भी उसी तरहसे प्रभावनाके द्वारा सम्यग्दर्शनको उद्दीप्त करना चाहिये।
इस प्रकार प्रभावना दो प्रकारकी है-अन्तरङ्ग और बाह्य । रत्नत्रयके द्वारा आत्माको प्रभावित करनको नाम अन्तरङ्ग प्रभावना है। और अद्भुत कार्योंके द्वारा उस धर्म तथा धर्मवालोंका जो जगत्में माहात्म्य विस्तृत करना इसको बाह्य प्रभावना कहते हैं। - मुमुक्षुओंको प्रकारान्तरसे भी गुणोंके ग्रहण करनेका उपदेश देते हैं :
देवादिष्वनुरागिता भववपुर्नोगेषु नीरागता, दुर्वृत्तेनुशयः स्वदुष्कृतकथा सूरेः क्रुधाद्यस्थितिः । पूजार्हत्प्रभृतेः सधर्मविपदुच्छेदः क्षुधादिते,
प्वङ्गिष्वार्द्रनमस्कृताष्ट चिनुयुः संवेगपूर्वा दृशम् ॥ १०९ ॥ संवेग निर्वेद प्रभृति आठ गुणोंके निमित्तसे मुमुक्षुओंकी शंकादि अाचारोंसे रहित सम्यग्दर्शन वृद्धिको प्राप्त हो-पुष्ट हो । भावार्थ-सम्यग्दर्शनकी पुष्टि केलिये मुमुक्षुओंको इन आठ गुणोंका संग्रह करना चाहिये जिनका कि स्वरूप इस प्रकार है:
१-संवेओ णिव्वेओ जिंदा गरुहा य उवसमो भत्ती। .
वच्छल्लं अणुकंपा गुणा हु सम्मत्तजुत्तस्स ।। संवेग निर्वेद निंदा गर्दा उपशम भक्ति वात्सल्य और अनुकंपा ये सम्यग्दृष्टिके आठ गुण हैं।
अध्याय
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वीतराग देव निग्रंथ गुरु चार प्रकारका संघ और दयामय धर्म उसका फल मोक्ष आदि इनमें ख्याति यश लाभ पूजा आदिकी अपेक्षा न रखकर अनुराग रखनेको संवेगे कहते हैं । संसार शरीर भोगोपभोगके विषयोंमें वीतरागता -रागद्वेषके परित्यागको निर्वेद कहते हैं। अपनेसे किसी प्रकारके दुवृत्त-अपराध होजानेपर आचार्यके सामने, उसके पश्चात्ताप करनेको निंदा और उसके कथन करनेको-अपने किये गये उस अपराधको आचार्यके सामने ज्योंका त्यों कहदनेको गर्दा कहते हैं । अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि कषायोंके अनुद्रेक - अस्थिरताको उपशम कहते हैं। अर्हत सिद्ध आचार्य आदि पंच परमेष्ठी तथा और भी जो । पूज्य वर्ग हैं उनकी पूजा स्तुति विनय आदि करनेको भाक्त कहते हैं। अपने साधर्मी भाइयोंपर आई हुई विपत्तियों व क्लेशोंका निरसन करनेको वात्सल्य कहते हैं । भूख प्यास आदि बाधाओंसे पीडित प्राणियोंको देखकर मनमें दयासे भीगजानेको अनुकंपा कहते हैं।
भावार्थ-ये ही संवेगादिक आठ गुण हैं जो कि सम्यग्दर्शनको बढाते और पुष्ट करते हैं। अत एव मुमुक्षुको इनका भी संग्रह करना चाहिये ।
विनय गुणको प्राप्त करनेका उपदेश देते हैं:धर्मार्हदादितच्चैत्यश्रुतभक्त्यादिकं भजेत् ।
दृग्विशुद्धिाववृद्धयर्थ गुणवद्विनयं दृशः ॥ ११ ॥ जिस प्रकार सम्यग्दशनकी विशुद्धिवृद्धिकेलिये उपगूहन आदि गुणोंको धारण किया जाता है उसी प्रकार-सम्यग्दर्शनमें शंकादि मलोंका निरास होजानेसे जो निर्मलतारूप विशुद्धि उत्पन्न होती है उसकी
अध्याय
१-ग्रन्थान्तरोंमें संसारसे भारुताको संवेग कहा है।
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विवृद्धि-उसको विशेष रूपमें बढानेके आभिप्रायसे मुमुक्षको उचित है कि वह सम्यग्दर्शनके उस विनय गुणका भी सेवन करे जो कि धर्मादिक विषयोंमें की गई भक्ति आदिके द्वारा अभिव्यक्त होता और उसमें माहात्म्य उत्पन्न करनेका अद्वितीय उपाय है ।
अनगार
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भावार्थ-विनय गुण भी अन्य उपगृहनादि गुणोंकी तरह सम्यग्दर्शनकी विशुद्धि-वृद्धिका कारण है । अत एव इसको सम्पन्न करनेकेलिये मुमुक्षुओंको धर्मादिक नव देवोंका भक्ति पूजा आदि पांच प्रकारसे अनुष्ठान करना चाहिये । धर्म रत्नत्रयरूप है जैसा कि पहले कहा जा चुका है । अर्हतादिक-अर्हत सिद्ध आचार्य उपाध्याय साधु ये पंच परमेष्ठी भी प्रसिद्ध हैं। चैत्य शब्दका अर्थ अहंतादिककी मूर्ति है । किंतु यहांपर चैत्य शब्द उपलक्षण है, इसलिये उससे चैत्यालय-मन्दरका भी ग्रहण करलेना चाहिये। श्रुत शब्दका अर्थ जिनागम या जिनवचन है । अस्पष्ट तर्कणाको श्रुत कहते हैं । इसके दो भेद हैं-द्रव्यश्रुत और भावश्रुत । पहला अक्षरात्मक-लिापरूप है और दूसरा शब्दात्मक है। जिसके कि दो भेद हैं; एक अंगप्रविष्ट दूसरा अंगबाह्य । इस प्रकार इन नव देवोंकी-पंच परमेंष्ठा चैत्य चैत्यालय धर्म और श्रुतकी भक्ति आदि पांच प्रकारसे उपासना करनी चाहिये ।
परिणामोंके विशुद्धियुक्त अनुरागको भक्ति कहते हैं। पूजा दो प्रकारकी है; एक द्रव्य दूसरी भाव । अर्हतादिकको उद्देश कर गंधाक्षतादि समर्पण करनेका नाम द्रव्यपूजा है। भावपूजा तीन प्रकारसे होती है-मन वचन और काय । मनसे अर्हतादिके गुणोंका स्मरण करना, वचनसे स्तुति करना और कायसे उनकी विनयकेलिये खडे होना प्रदक्षिणा देना प्रणाम करना इत्यादि भावपूजा है । उपासनाका तीसरा उपाय वर्णोत्पत्ति है-लोकमें अथवा विद्वानोंकी सभा आदिमें इन नव देवोंके यशोजनन --गुणकीर्तनको वर्णोत्पत्ति कहते हैं। चौथा उपाय अवर्णवादका नाश है,--इसके अनुसार, मिथ्यादृष्टि या अज्ञ लोकोंके द्वारा इन देवोंक विषयमें किये गये असद्भूत दोषोंके उद्भावनका निराकरण करना चाहिये । पांचवां उपाय आसादनाका परिहार है । जो कोई इन देवोंकी अवज्ञा या तिरस्कार अथवा अविनय करे उसका परिहार करना चाहिये।
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अध्याय
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बनगार
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.. ये ही नव देवोंकी उपासनाके पांच उपाय हैं जो कि सम्यग्दर्शनके विनयरूप हैं और उसकी विशुद्धि वृद्धिकेलिये मुमुक्षुओंको अन्य गुणोंकी तरह उपास्य हैं। आगममें भी ऐसा ही कहा है:-- .
अरहंतसिद्धचेदियसुदे य धम्मे य साहुवग्गे य । आधरियउवज्झायसु पव्वयणे दसणे चावि ॥ .. भत्ती पूया वण्णजणणं च णासणमवण्णवादस्स ।
आसादणपरिहारो दंसणविणओ समासेण ॥ अर्हत सिद्ध चैत्य श्रुत धर्म साधुवर्ग आचार्य उपाध्याय प्रवचन और सम्यग्दर्शनकी भी भाक्त पूजा वर्णोत्यत्ति अवर्णवादका नाश तथा आसदनाका परिहार करना चाहिये । संक्षेपसे यही सम्यग्दर्शनकी विनय समझनी चाहिये । इनका विस्तृत व्याख्यान देखना हो तो अपराजित आचार्यकृत मूलाराधनाकी टीका अथवा हमारे ( महापण्डित आशाधरकृत ) मूलाराधनादर्पण नामके निबन्धमें देखना चाहिये।
प्रकारान्तरसे दर्शनविनयको बताते हैं:धन्योस्मीयमवापि येन जिनवागप्राप्तपूर्वा मया, भो विष्वग्जगदेकसारमियमेवास्यै नखच्छोटिकाम् । यच्छाम्युत्सुकमुत्सहाम्यहमिहेवायेति कृत्स्नं युवन्, श्रद्धाप्रत्ययरोचनैः प्रवचनं स्पृष्टया च दृष्टिं भजेत् ॥ १११॥
बध्याय
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मुमुक्षुओंको श्रद्धा प्रत्यय रोचन और स्पर्शन-अनुष्ठान इन चार बातोंसे प्रवचनको युक्त करते हुए सम्यग्दर्शनका आराधन करना चाहिये।
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वर्ग
२३९
SAREERARMSोटा अERRORS-ISROSHRSHRINESS
भावार्थ-जो कि अबतक संसारमें प्राप्त नहीं हो सका ऐसा जिनवचन-अनेकान्तात्मकताका सिद्धान्त जिसको प्राप्त होगया ऐसा मैं अवश्य ही धन्य ई-सुकृती हूं। क्योंकि यह बात निश्चित है कि इस मतके बाधक प्रमाण कोई भी संभव नहीं हैं। इस प्रकार अपनी श्रद्धाके द्वारा और; अहो, ये निर्वाध जिनवचन ही उत्तम हैं सत्य हैं तथा मुमुक्षुओंके लिये हर तरहसे इस संसारमें अद्वितीय सारभूत उपादेय वस्तु हैं; इस प्रकार प्रत्यय-ज्ञानके द्वारा और मैं इसकी नखच्छोटिका-अंगुष्ठ तथा तर्जनीके नखोंके घटन विघटन शब्दके द्वारा पूजा करता हूं इस तरह रुचिके द्वारा एवं जिसको कि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष भान होगया है ऐसा मैं बडी उत्कण्ठाके साथ उत्साहपूर्वक आज इसी जिनवाणीका आराधन करता हूं। इस प्रकार अनुष्ठानके द्वारा प्रवचनको युक्त करनेवाले मुमुक्षुके सम्यग्दर्शनका आराधन है और यही सम्यक्त्वका विनय है । अत एव सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिवृद्धिकेलिये उसको इसका पालन करना चाहिये । इन चार कार्योंके द्वारा मनुष्य सम्यक्त्वका आराधक हो सकता है। यह बात आगममें भी कही है । यथा
सदहया पत्तियआ रोचयफासतया पवयणस्य ।
सयलस्स जे णरा ते सम्मत्ताराहया हंति ।। इस समस्त प्रवचन- निर्बाध जिनवचनकी जो श्रद्धा प्रतीति रुचि और स्पर्शन- अनुष्ठान प्रकट करने| वाले हैं वे मनुष्य सम्यग्दर्शनक आराधक समझ जाते हैं।
इस प्रकार सम्यग्दृष्टियोंके विनय गुणग्रहणका वर्णन कर अब दृष्टान्तद्वारा यह बात स्पष्टतया बताते हैं कि आठो अङ्गोंसे पुष्ट और संवेगादि गुणोंसे विशिष्ट सम्यग्दर्शन क्या क्या फल देता है: -
पुष्टं निःशङ्कितत्वाद्यैरङ्गैरष्टाभिरुत्कटम् । संवेगादिगुणैः कामान् सम्यक्त्वं दोग्धि राज्यवत् ॥ ११२ ॥ ।
वध्याय
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बनगार
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अध्याय
२
जिस प्रकार खोमी अमात्य सुहृत् कोर्षे राष्ट्र दुर्ग और बल-सेना इन सात अंगों से पुष्ट तथा साँध विग्रह यांन आसनं द्वेधीभाव और संश्रये इन छह गुणोंसे उत्कट राज्य अभीष्ट फलका देनेवाला होता है उसी प्रकार निःशङ्कितत्त्व निःकाङ्गितत्त्व निर्विचिकित्सत्व अमूढदृष्टित्व उपगूहन स्थितीकरण वात्सल्य और प्रभावना इन आठ अङ्कोंसे -माहात्म्यको सिद्ध करनेवाले उपायोंसे पुष्ट तथा संवेग निर्वेद निन्दा गर्दा उपशम भक्ति वात्सल्य और अनुकम्पा इन आठ गुणोंसे उत्कट अचिन्त्य प्रभावका धारण करनेवाला सम्यक्त्व मुमुक्षुओके अभीष्ट मनोरथों को पूर्ण करदेता है ।
भावार्थ - यद्यपि यहां पर राज्य के समान सम्यक्त्वको मनोरथ सिद्ध करनेवाला बताया है। फिर भी ऐसा है। किंतु सम्यक्त्वके समान राज्यको कामित पदार्थ सिद्ध करनेवाला कहना चाहिये। क्योंकि राज्यकी अपेक्षा सम्यक्त्व ही अधिक उत्कृष्ट है । राज्यसे केवल लौकिक प्रयोजन सिद्ध होते हैं किन्तु सम्यक्त्वसे लोकोउत्तर माहात्म्य प्रगट होता है । यह बात काकू अलंकार के द्वारा यहां स्पष्ट होजाती है ।
पहले सम्यग्दर्शनकी आराधनाके पांच उपाय बताये हैं- उद्योतन उद्यवन निर्वहण सिद्धि और निस्तरण । इनमेंसे चार उपायोंका किस प्रकार प्रयोग करना चाहिये सो यहांपर बताया । अब इन उपायोंके प्रयोक्ताको फल क्या प्राप्त होता है, यह बताते हुए पांचवें उपाय निस्तरणका स्वरूप बताते हैं :इत्युद्द्द्योत्त्य स्वेन सुष्टुकलोलीकृत्त्याक्षोभं विभ्रता पूर्यते दृक् । . येनाभीक्ष्णं संस्क्रियोद्येव बीजं तं जीवं साम्बेति जन्मान्तरेपि ॥ ११३ ॥
१ राजा, २ प्राइवेट सेक्रेटरी, ३ मंत्री ४ खजाना, ५ देश, ६ किला, ७ सुलह, ८ चढ कर आये हुए शत्रुके साथ अपनी या शरणागतकी रक्षाकेलिये युद्ध करना, ९ किसी शत्रुपर चढाई करना, १० कुछ कालकेलिये ठहरना - क्षणिक सान्ध, ११ दो या अनेक शक्तियों में परस्पर विरोध करादेना, १२ अपनेसे बलवान् शक्तिका आश्रय लेनः ।
धर्म -
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अनगार
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अध्याय
२
• जिस प्रकार किसी बीजके अन्तर्भाग और बहिर्भागमें व्याप्त होजानेवाला संस्कार केवल उस बीजमें ही नहीं रहजाता किंतु उसके फलतकमें उसका सम्बन्ध जाता है। उसी प्रकार जैसा कि “ मिथ्याहक यो न तत्त्वं श्रयति " - इत्यादि प्रबंधमें कहा गया है उसी तरहसे निर्मल बनाकर, और आत्माके साथ उसको अच्छी तरहसे ear रूपमें मिश्रित करके अपनी आत्माको दर्शनविशुद्धिमय बनोकर जो जीव उस सम्यग्दर्शनको निराकुaaer धारण करता और नित्य ही उसको सिद्ध करता पूर्णतया पालता है उस जीवका वह चार उपायोंके द्वारा संस्कृत हुआ सम्यग्दर्शन उसी भवमें नहीं किन्तु भवान्तरमें भी अनुगमन करता है। उस जीवके साथ जन्मान्तरोंमें सम्यग्दर्शन तबतक साथ जाता है जबतक कि उस जीवको मोक्ष प्राप्त नहीं हो जाती ।
भावार्थ - सिद्धांत में सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र और तप इनमेंसे प्रत्येककी पांच पांच आराधनाएं बताई हैं, यथा:
उज्जोवणमुज्जवणं णिव्वहणं साहणं च णिच्छरणं । दंसणणाणचरित्तत्तवाण माराहणा भणिया ||
दर्शन ज्ञान चारित्र और तप इनमें से प्रत्येककी उद्योतन उद्यवन निर्वहण साधन और निस्तरण ये पांच पांच आराधनाएं बताई हैं । प्रकृतमें सम्यग्दर्शनकी चार आराधनाओंका वर्णन करके इस पद्य में पांचवीं आराधनाका भी स्वरूय बताया है। मरणपर्यंत सम्यग्दर्शनको न छोड़कर उसके पालन करनेको पांचवी आराधना कहते हैं । इन आराधनाओंका फल यही है कि इनसे संस्कृत हुआ सम्यग्दर्शन मोक्षतक जीवके साथ रहता है ।
क्षायिक और दूसरे प्रकारके - औपशमिक अथवा क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन इन दोनों में परस्पर साध्यसाधनभाव है; यह बात बताते हैं:
१ - पहली उद्योतन आराधना । २ दूसरी उद्यवन आराधना । ३ तीसरी निर्वहण आराधना । ४ चौथी साधन आराधना । ५ पांचवी निस्तरण आराधना । अ. घ. ३.१
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अनगार
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अध्याय
सिद्धयोपशमिक्येति दृष्ट्या वैदिकयापि च ।
क्षायिकीं साधयेद् दृष्टिमिष्टदूतीं शिश्रियः ॥ ११४ ॥
इस प्रकार उद्योत उद्यवन आदि जो उपाय बताये हैं उनके द्वारा निष्पन्न हुई औपशमिक दृष्टिश्रद्धा अथवा क्षायोपशमिक श्रद्धाके द्वारा मुमुक्षुओंको क्षायिकी श्रद्धा सिद्ध करनी चाहिये। जो कि मोक्षलक्ष्मीकी, मानो, इष्ट दूती है ।
भावार्थ – औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन दोनो ही साधन हैं और क्षायिक सम्यग्दर्शन साध्य है । अत एव पहले दोनो ही सम्यग्दर्शनोंका आराधन करके मुमुक्षुको क्षायिक सम्यक्त्व सिद्ध करना चाहिये । तीन दर्शनमोहनीय - मिथ्यात्व मिश्र और सम्यक्त्व तथा चार अनन्तानुबंधी कषाय-- क्रोध मान माया लोभ इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे उत्पन्न होनेवाले तत्त्व श्रद्धानरूप आत्मपरिणामोंको औपशमिक सम्यग्दर्शन और सम्यक्त्वप्रकृतिकी अनुभागशक्तिका शुभ परिणामोंके द्वारा निरोध होजनिपर तथा शेष छह प्रकृतियोंका उपशम होजानेपर होनेवाले तत्वार्थश्रद्धारूप परिणामको क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं। इन सातो प्रकृतियोंका सर्वथा विनाश होजानेपर जो तत्वार्थश्रद्धान हो उसको क्षायिक सम्यग्दर्शन कहते हैं । इसीका नाम क्षायिकी दृष्टि अथवा क्षायिकी श्रद्धा है ।
जो वचनों का उल्लंघन नहीं कर सकती अथवा जिसके वचनों का कोई उल्लंघन नहीं कर सकता ऐसी इष्ट दूती अवश्य ही नायिकाका नायिक के साथ संयोग करा देती है । उसी प्रकार यह क्षायिक श्रद्धा भी केवलज्ञान आदि अनन्तचतुष्ट्यरूप जीवन्मुक्ति अथवा परममुक्तिका जीवके साथ सम्बन्ध करा देती है। क्योंकि अत्यंत मान्य होने से यह भी अभिमत तथा अनुल्लंघ्यवचना है । अत एव मुमुक्षुओंको औपशमिक अथवा क्षायोपशमिक श्र ath द्वारा क्षायिक श्रद्धा सिद्ध करनी चाहिये । जैसा कि श्री भट्टाकलंकदेवने भी कहा है:
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अध्याय
श्रतादर्थमनेकान्तमधिगम्याभिसंधिभिः ।
परीक्ष्य तांस्तांस्तद्धर्माननेकान् व्यावहारिकान् ॥ नयानुगत निक्षेपैरुपायैर्भेदवेदने । विरचय्यार्थवाक्प्रत्ययात्मभेदान् श्रतार्पितान् ॥ अनुयुज्यानुयोगैश्च निर्देशादिभिदां गतैः । द्रव्याणि जीवादीन्यात्मा विवृद्वाभिनिवेशतः ॥ जीवस्थान गुणस्थानमार्गणास्थानतत्त्ववित् । तपोनिर्जीणकर्मायं विमुक्तः सुखमृच्छति ॥ इति ।
כי
श्रुतके द्वारा अनेकान्तात्मक पदार्थका ज्ञान प्राप्त करके - प्रमाणके द्वारा पदार्थको ग्रहण करके और अपेक्षाविशेषों नयोंके द्वारा उनके उन उन अनेक व्यावहारिक धर्मों की परीक्षा करके तथा भेदज्ञानके उपायभूत और उन नयोंका अनुगमन करनेवाले निक्षेपोंके द्वारा उन श्रुतार्पित भेदोंमें अर्थ वचन और प्रत्ययरूप भेदोंकी रचना करके तथा निर्देश स्वामित्व साधन अधिकरण आदि अनेक भेदरूप अनुयोगोंके द्वारा उन भेदों तथा जीवादिक द्रव्योंकी योजना करके आत्माकी अभिवृद्धि के अभिप्रायसे जीवस्थान ( जीवसमास ) गुणस्थान और मार्गणास्थान Fast अथवा इन तीनो स्थानों और तत्वोंको जाननेवाला तथा तपके द्वारा समस्त कर्मोंको निजीर्ण करदेनेवाला ही यह जीव मुक्त होकर सुखको प्राप्त होता है ।
इस प्रकार निरंतर चिन्तवन रनेको प्रवृत्त होना चाहिये ।
करनेवाले मुमुक्षुको जिस तरह बने उस तरहसे सम्यग्दर्शनका आराधन क
॥ इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ ॥ इति भद्रम् ॥
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अथ तृतीयोऽध्यायः।
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"बीजके विना वृक्षकी तरह सम्यक्त्वके विना विद्या और वृत्त--सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी भी संभूति-उत्पति स्थिति और वृद्धि तथा फलप्राप्ति नहीं हो सकती। " अत एव पहले सम्यग्दर्शनाराधन का वर्णन करके अब सम्यग्ज्ञानाराधनाका प्रारम्भ करते हैं। उसमें भी सबसे पहले मुमुक्षुओंको श्रुतका आराधन करनेकोलिये प्रणित करते हैं । क्योंक परम-सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञानकी प्राप्तिका उपाय श्रुत ही है: ...
सद्दर्शनब्राह्ममुहूर्तदृप्यन्मनःप्रसादास्तमसा लवित्रम् । भक्तुं परं ब्रह्म भजन्तु शब्दब्रह्माञ्जसं नित्यमथात्मनीना: ॥१॥
सम्यग्दर्शनका आराधन करनेके बाद उन भव्योंको जो कि आत्माका मोक्षरूप हित चाहते हैं और जिनका मनःप्रसाद-मनोगत नैर्मल्य सम्यग्दर्शनरूपी ब्राह्म मुहूर्तके द्वारा उत्कटता-उद्बोधको प्राप्त हो रहा है। घातिकम-मोहनीय ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तरायके द्वारा उत्पन्न हुए अज्ञानरूप अंधकारका छेद न करनेवाले शुद्ध चिन्मय निज आत्मस्वरूपका आराधन करनेकेलिये पारमार्थिक-निजात्माकी तरफ उन्मुख हुई संवित्तिरूप शब्दब्रह्म-श्रुतज्ञानका निरन्तर आराधन करना चाहिये ।
भावार्थ-पंद्रह मुहूतकी रात्रि हुआ करती है। उसमें दो घडीके चौदहवें मुहूर्तको ब्राह्ममुहूर्त कहते हैं। यह इतना अच्छा समय है कि इसमें चित्तकी कलुषता बिलकुल दूर होजाती है। अत एव इस समयमें बुद्धि
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अध्याय
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१-"विद्यावृत्तस्य संभूतिस्थितिवृद्धिफलोदयाः।
न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ॥" (भगवान् समन्तभद्र.)
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में संदेहादिक न रहनेसे यथार्थ पदार्थ प्रतिभासित बुआ करते हैं।नीतिमें भी कहा है कि "ब्राह्म मुहूर्तमें उठकर कर्तव्यमें दत्तचित्त होना चाहिये। क्योंकि सुखपूर्वक ली गई निद्राके द्वारा प्रसन्न हुए मनमें ज्योंके त्यों पदार्थको विषय करनेवाली बुद्धियां प्रतिबिम्बित हुआ करती हैं। सस्यरदर्शन भी इस ब्राह्ममुहूर्तके समान ही है। क्योंकि वह भी शुद्ध चित्तवृत्तिकी प्रसत्तिका कारण है। इस सम्यग्दर्शनके उद्भूत होजानेपर ही जीवोंको शुद्ध निजात्मस्वरूपका संवेदन हो सकता है; अन्यथा नहीं । किंतु इस संवेदनको प्राप्त करनेकेलिये भी पहले श्रुतज्ञानका आराधन करना चाहिये। क्योंकि सम्यग्दर्शनका आराधन होजानेपर भी श्रुतज्ञानका आराधन किये विना वह संवेदन प्राप्त नहीं हो सकता । आगममें भी कहा है कि:
गहियंत सुयणाणा पच्छा संवेयणेण भाविज्जो । जो ण हु सुअमवलंबइ सो मुज्झइ अप्पसब्भावे ।। लक्खणदो णियलक्खं अणुहवमाणस्स जं हवे सुक्खम् । सा संवित्ती भणिया सयलवियप्पाण णिड्डण । लक्खमिह भणियमादा झ सम्भावसंगदो सो जि ।
वेयण तह उवलद्धी दंसणणाण च लक्खणं तस्स ।। जो सम्यग्दृष्टि श्रुतका अवलम्बन लेकर सम्यग्ज्ञानका आराधन करते हैं वे आत्मसद्भावमें मोहित होजात हैं-धोका खाते हैं । अत एव पहले श्रुतज्ञानका आराधन करके फिर सम्यग्ज्ञानका आराधन करना चाहिये । लक्षण-श्रुत-श्रुतज्ञानके द्वारा निज आत्मस्वरूप लक्ष्यका अनुभव करनेवालेको जो सुखकी प्राप्ति होती है उसको संवित्ति कहते हैं । यह संवित्ति समस्त विकल्पोंका निर्दहन करदेनेवाली है । यहांपर सद्भावोंसे युक्त ध्येय आत्माको लक्ष्य और संवेदन उपलब्धि दर्शन तथा ज्ञानको उसका लक्षण समझना चाहिये । इस कथनसे स्पष्ट है कि शब्दब्रह्मकी भावनाके निमित्तसे ही-श्रुतज्ञानका आराधन होजानेपर ही शुद्ध चिद्रूपका दर्शन हो सकता है। अन्यथा नहीं । जैसा कि आगममें भी कहा है:
स्यात्कारश्रीवासवश्यैनयाँधैः पश्यन्तीत्थं चेत्प्रमाणेन चापि ।
अध्याय
२४६
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नगार
२४७
पश्यन्त्येव प्रस्फुटानन्तधर्म स्वात्मद्रव्यं शुद्धचिन्मात्रमन्तः ॥ स्यात्कार-स्याद्वादरूपी श्रीवास-लक्ष्मीके निवासके अधीन नयोंके द्वारा आत्मद्रव्यको जिस प्रकारसे देखते हैं उसी प्रकारके वे प्रमाणके द्वारा भी अन्तरङमें उस निज आत्मद्रव्यको वैसा ही-अच्छी तरह स्फुट अनन्तधर्मात्मक और शुद्ध चिन्मात्र देखते हैं। अर्थात् प्रमाणके द्वारा शुद्ध निज चिन्मात्रका दर्शन होना भी स्थाद्वादसे सम्बद्ध नयोंके अधीन है, जो कि श्रुतज्ञानात्मक हैं । अत एव मुमुक्षुओंको पहले पारमार्थिक शब्दब्रह्म - श्रुतज्ञानका ही आराधन करना चाहिये ।
श्रुतका आराधन परंपरासे केवलज्ञानकी उत्पत्तिका कारण है; यह बताते हुए उसका आराधन करनेलिये मुमुक्षुओंको फिरसे अच्छी तरह उत्साहित करते हैं:
कैवल्यमेव मुक्त्यङ्गं स्वानुभूत्यैव तद्भवेत् ।
सा च श्रुतैकसंस्कारमनसातः श्रुतं भजेत् ॥ २॥ मुक्तिका उपाय कैवल्य है । असहाय ज्ञान-केवलज्ञान ही मोक्षका साक्षात् कारण है। और कैवल्य शुद्ध निजात्मस्वरूपकी अनुभूतिसे ही हो सकता है । तथा स्वानुभूति उस अन्तःकरणके द्वारा ही हो सकती है कि जिसमें श्रुत-श्रुतज्ञानका उत्कृष्ट खास संस्कार किया गया हो । अत एव मुमुक्षुओंको श्रुतका आराधन करना चाहिये।
भावार्थ- श्रुत परंपरासे मोक्षका कारण है अत एव मोक्षके अभिलाषियोंकेलिये वह सबसे पहले आराध्य है।
१-शब्दात् पदप्रसिद्धिः पदसिद्धरर्थनिर्णयो भवति ।
अर्थात् तत्त्वज्ञानं तत्त्वज्ञानात् परं श्रेयः॥ ..
अध्याय
२४७
ENGALORE
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अनगार
२४८
अध्याय
३
नमें श्रुतका संस्कार होजानेपर ही स्वसंवेदनरूप उपयोग के द्वारा शुद्ध चिद्रूपताका परिणमन हो सकता है । यह बात : दृष्टांतद्वारा स्पष्ट करते हैं:--
श्रुतसंस्कृतं स्वमहसा स्वतत्त्वमाप्नोति मानसं क्रमशः ।
विहितोषपरिष्वङ्गं शुद्धयति पयसा न किं वसनम् ॥ ३ ॥
श्रुतके द्वारा संस्कृत हुआ मन क्रमसे स्वसंवेदन के द्वारा शुद्ध निजात्मस्वरूपको इस तरह प्राप्त हो जाता है जिस तरह कि उप - एक विशेष खारी मट्टी (खर के द्वारा संश्लिष्ट - सोंदाया हुआ वस्त्र जलसे शुद्ध- स्वच्छ हो जाया करता है। कहा भी है कि:
अविद्याभ्याससंस्कारैरवश क्षिप्यते मनः । तदेव ज्ञानसंस्कारैः स्वतस्तरत्वेवतिष्ठते ॥
अज्ञानाभ्यासके संस्कारोंसे संस्कृत हुआ मन वशमें नहीं रहता । अत एव वह इधर उधर भटकता फिरता है । किंतु ज्ञानके संस्कारोंसे संस्कृत होकर वही मन स्वयं ही आत्मस्वरूप में अवस्थित होजाता है ।
भावार्थ – मुमुक्षुओं को सबसे पहले श्रुतज्ञानका अभ्यास करना चाहिये । क्योंकि क्रमसे इसका पहले संस्कार होजाने पर ही स्वसंवेदन की प्राप्ति होती हैं । और उसके बाद आत्माको उस स्वसंवेदन के द्वारा शुद्ध चिद्रूपकी प्राप्ति होती है । एवमुक्षुओंको श्रुतका अभ्यास पहले करना चाहिये !
आत्मकल्याणकी सिद्धिके लिये मुमुक्षुओंको मति अवधि और मन:पर्यय ज्ञानका भी उपयोग करना चाहिये । यथाप्राप्त इन ज्ञानोंके द्वारा भी आत्मकल्याण में प्रवृत्त होना चाहिये; ऐसा उपदेश देते हैं:
क
२४८
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अनगार
२४९
अध्याय
३
मत्यवधिमन:पर्ययबोधानपि वस्तुतत्वनियतत्वात् । उपयुञ्जते यथास्वं मुमुक्षवः स्वार्थसंसिद्धये ॥ ४ ॥
मुमुक्षुओंको केवल श्रुतज्ञानसे ही नहीं किंतु यथाप्राप्त अथवा यथायोग्य मति अवधि और मनःपर्यय ज्ञानसे भी काम लेना चाहिये। आत्मकल्याणकी सिद्धिकेलिये अनन्त सुखकी प्राप्ति अथवा दुःखोंकी आत्यन्तिक निवृत्तिकेलिये इन ज्ञानोंका भी उपयोग करना चाहिये । क्योंकि ये ज्ञान भी वस्तुतत्वमें नियत हैं । वस्तुओंके याथात्म्य - सामान्यविशेषात्मक स्वरूपके ग्रहण करने में मतिज्ञानादिक भी नियत हैं । मतिज्ञान इन्द्रिय और मन दोनोंसे ही उत्पन्न होता है । इसमें जो इंद्रियजन्य मतिज्ञान है वह यद्यपि कतिपय पर्यायविशिष्ट और मूर्त पदार्थ को ही, तथा मनोजन्य मतिज्ञान मूर्त अमूर्त दोनोंको, किंतु वैसे ही - कतिपय पर्यायविशिष्ट ही पदार्थों को विषय करता है; फिर भी वह, ग्रहण, पदार्थ के यथावत् स्वरूपका ही करता है। इसी प्रकार अवधिज्ञान भी कतिपय पर्याययुक्त ही पुद्गल अथवा पुद्गलसम्बद्ध जीवांको जानता है, किंतु यथावत् जानता है । मन:पर्ययज्ञान भी सर्वावधिके अनन्त भागको जानता है, किंतु यथावत् जानता है । अत एव आत्मकल्याणकेलिये इन ज्ञानोंको भी अपने अपने विषय में मुमुक्षुओंको व्यापृत करना चाहिये । यथा - कानों को शास्त्रश्रवणादिकमें, आंखोंको जिनप्रतिमादर्शन और भक्तपान तथा मार्गादिके निरीक्षणमें, मनको गुणदोषादिके विचार स्मरण आदिकमें, अवधिज्ञानको श्रुतके अर्थ में संदेह उपस्थित होजानेपर उसका निर्णय करनेमें अथवा अपनी या पराई आयुके परिमाणादिक निश्चय करनेमें, तथा मनःपर्ययको चिन्तित अर्धचिंतित पदार्थों के जाननेमें लगाना चाहिये ।
भावार्थ - आत्मकल्याणकेलिये मतिज्ञानादिकसे भी मुमुक्षुओंको यथायोग्य काम लेना चाहिये | मतिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होजानेपर इन्द्रिय और मनकी सहायतासे पदार्थ के जानने को या उपयुक्त आत्मा जिसके द्वारा पदार्थोंको जानता है उसको मति कहते हैं। इसके मति स्मृति संज्ञा चिंता अभिनिबोध प्रतिभा बुद्धि मेधा प्रज्ञा आदि
अ. ध. ३२
२४९
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अनगार
२५०
अनेक भेद हैं। बाह्य और अंतरङ्गमें स्फुटतया अवग्रहादिरूप जो स्वसंवेदन या इन्द्रियजन्य ज्ञान होता है उसको मति अथवा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। इसका दूसरा नाम अनुभव भी है । स्वयं अनुभूत अतीत पदार्थके ग्रहण करनेवाली "वह" इस तरह की प्रतीतिको स्मृति कहते हैं। अनुभव और स्मृति दोनोंके जोडरूप " यह वही है, यह उसके सदृश है, यह उससे विलक्षण हैं" ऐसे ज्ञानोंको संज्ञा कहते हैं । इसका दूसरा नाम प्रत्यभिज्ञान भी है। जहां जहां धूम होता है वहां वहां अग्नि जरूर होती है। विना अग्निके कहीं भी कभी भी धूम नहीं होता। अथवा जहां जहां शरीरमें व्यापार वचनादिक होते हैं वह्म वझं आत्सा जार होता है-विना आत्माके शरीरमें वचनादि व्यापार नहीं होसकता । इस तरहकी वर्कको चिंता या ऊह कहते हैं। धूमादिक साधनको देखकर अग्नि आदि साध्यका ज्ञानरूप जो अनुमान होता है उसको अमिनिबोध कहते हैं। रावमें या दिनमें अकस्मात् -बिना किसी बाध कायके, बो “ कल मेरा भाई आवेगा" इस तरहका हान होता है उसको प्रतिभा कहते हैं। पदार्थक प्रसाद मरतकी मालिका नाम बुद्धि और पाखण करकी पाकका नाम मेश्रा है। इसी तरह कुहामोहरूप मेग्यमाका नाम सका है। इसमकार सहि शोर मनकी अपेक्षाले उत्पन्न होनेवाले एकही मति जानके अनेक मेद हैं।
अवधिज्ञानावरणका क्षयोपशम होजानेपर अधिकतया अधोगत द्रव्यको किंतु नियत रूपी द्रव्यको ही जो विषय करता है उसको अवधि कहते हैं। इसके तीन भेद हूँ-देशावधि परमावधि और सर्वावधि । देशावधिके छह भेद हैं-अवस्थित अनवस्थित अनुगामी अननुगामी वर्धमान हयिमानं । इनमेंसे परमावधिमें अनवस्थित और हीयमानको छोडकर बाकी चार भेद हैं। सावधिमें अवस्थित अनुगामी और अननुगामी ये तीन ही भेद हैं । जैसा कि आगममें भी कहा है, यथाः
देशावधिः सानवस्थाहामिः स परमावधिः ।
-
अध्याय
१-नवनवोन्मेषशालिनी बुद्धिः प्रतिभा इति ग्रन्थान्तरम् । २-इन छहोंका स्वरूप गोमट्टसारमें देखना।
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अनगार
Bassailai
२५१
वर्धिष्णुः सर्वावधिस्तु सावस्थानुगमेतरः ।। देशावधि वर्धमान और हीयमान दोनो तरहका होता है। अत एव उसमें अनवस्थित और हीयमान ये दोनो भेद भी होते हैं। किंतु परमावधि वर्धिष्णु ही होता है । अत एव उसमें ये दो भेद नहीं होते; बाकी चार भेद होते हैं। तथा सर्वावधि अवस्थित अनुगामी इस तरह तीन ही प्रकारका होता है। समन्तभद्र स्वामीने भी अपने शासमें अबधिज्ञानके चिन्ह और भेद इस प्रकार बताये हैं:
अवधीयते इत्युक्तोऽवधिः सीमा सजन्मभूः । पर्याप्तवाभ्रदेवेषु सर्वाकोत्यो जिनेषु च ॥ गुणकारणको मत्यतिर्यस्वजादिचिन्हजः ।
सोवस्थितोनुगामी स्थावर्धमानश्च सेतरः ॥ नियत विषयके जाननेवाले ज्ञान विशेषको अवधि कहते हैं। अत एव इसका दूसरा नाम सीमाज्ञान भी है। क्योंकि अवधि शब्दका अर्थ सीमा होता है। यह ज्ञान दो प्रकारका है--एक भवप्रत्यय दूसरा गुणप्रत्यय । भवप्रत्यय अवधिज्ञान पर्याप्त देव नारक और जिन भगवान्के हुआ करता है, जो समस्त अंगसे उत्पन्न होता है । एवं गुणप्रत्यय अवधिज्ञान मनुष्य और तियचोंके होता है जो कि कमल शंख स्वस्तिक आदि चिन्हयुक्त स्थानोंसे ही उत्पन्न हुआ करता है। और जो अवस्थित अनुगामी तथा वर्धमान एवं इनसे उल्टा अनवस्थित अननुगामी तथा हीयमान इस तरह छह प्रकारका है।
भावार्थ- भवप्रत्यय अवधिज्ञान शरीरके किसी चिन्हयुक्त स्थानविशेषसे नहीं किंतु समस्त अंगसे उत्पन्न होता है। किंतु गुणप्रत्यय अवधिज्ञान चिन्हित स्थानोंसे ही उत्पन्न होता है । अवधिज्ञान जहांसे उत्पन्न होता है वे शंख कमल आदि चिन्ह नाभिके ऊपर हुआ करते हैं। विभंगज्ञानके सरट मर्कट आदि चिन्ह नाभिके नीचे हुआ करते हैं।
अध्याय
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अनगार
धर्म
२५२
मनोगत पदार्थको उपचारसे मन कहते हैं । इस मनको जो अच्छी तरह स्पष्टत्या जाननेवाला है उस ज्ञानको मनःपर्यय कहते हैं । यथाः
स्वमनः परीत्य यत्परमनोनुसंधाय वा परमनोर्थम् ।
विशदमनोवृत्तिरात्मा वेत्ति मनःपर्ययः स मतः ॥ विशद मनोवृत्ति-मनःपर्ययज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न विशुद्धिको धारण करनेवाला जीव पर पुरुषके उस मनोगत पदार्थको जो कि अपने अथवा दूसरेके मनके सम्बन्धसे विचार प्राप्त हुआ हो, जानता है, उस ज्ञानको मनःपर्यय कहते हैं। अवधिज्ञानकी तरह यह भी मुख्य देशप्रत्यक्ष ही है। इसका विशेष स्वरूप शास्त्रमें इस प्रकार कहा है कि:
चिन्तिताचिन्तितार्दादिचिन्तिताद्यर्थवेदकम् । स्यान्मनःपययज्ञानं चिन्तकश्च नृलोकगः ।। द्विधा हृत्पर्ययज्ञानमृज्व्या विपुलया धिया । अवक्रवाङ्मनःकायवत्यथर्जुमति त्रिधा ।। स्यान्मतिर्विपला षोढा वक्रावक्राणवाग्घृदि । तिष्ठतां व्यञ्जनार्थानां षड्मिदां ग्रहणं यतः ।। पूर्वास्त्रिकालरूप्यन्वर्तमाने विचिन्तके । वेत्त्यस्मिन् विपुला धीम्तु भूते भाविनि सत्यपि ॥ विनिद्राष्टदलाम्भोजसन्निभ हृदये स्थितम् । प्रोक्त द्रव्यमनस्तज्ज्ञमनःपययकारणम् ॥
अध्याय
चिन्तित आचन्तित या अद्वीचिन्तित आदि पदार्थोके जानने को मनःपर्यय ज्ञान कहते हैं। किंतु मनःपर्ययज्ञानके विषयभूत पदार्थका चिन्तवन करनेवाला नृलोक-अढाई द्वोपके भीतर ही रहनेवाला होना चाहिये ।
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बनगार
२५३
बध्याय
३
यह मन:पर्ययज्ञान दो प्रकारका है; एक ऋजुमति दूसरा विपुलमति । ऋजुमति अकुटिल-सरल मन वचन कायवर्ती पदार्थोंको विषय करता है अत एव उसके तीन भेद हैं । विपुलमति छह प्रकारका है, क्योंकि वह कुटिल और अकुटिल दोनो ही प्रकारके मन वचन कायवर्ती छह तरहके व्यंजन पदार्थोंका ग्रहण करता है । ऋजुमति मन:पर्यय त्रिकालवर्त्ती रूपी पदार्थोंको तभी विषय करता है जब कि उनका चिन्तवन करनेवाला वर्तमान हो । किन्तु विपुलमति, चिन्तवन करनेवाला भूत भविष्यत् या वर्तमान कैसा भी हो, त्रिकालवर्ती रूपी पदार्थोंको वि य करता है। खिले हुए अष्टदल कमलके समान हृदयमें जो द्रव्यमन विराजमान है वह इस मन:पर्यय ज्ञानका कारण है।
इस प्रकार इन मति अवधि और मनःपर्यय ज्ञानसे भी मुमुक्षुओं को यथायोग्य विषयमें श्रुतकी तरह उपयोग लेना चाहिये ।
श्रुतकी सामग्री और स्वरूप इन दोनोंका निरूपण करते हैं।
स्वावृत्त्यपायेऽविस्पष्टं यन्नानार्थप्ररूपणम् ।
ज्ञानं साक्षादसाक्षाच्च मतेर्जायेत तच्छ्रुतम् ॥ ५ ॥
श्रुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होजानेपर नाना पदार्थोंके - उत्पादव्ययधौव्यरूप अथवा अनेकांतात्मक वस्तुओंके समीचीन स्वरूपका निश्चय करसकनेवाले अस्पष्ट ज्ञानको श्रुत कहते हैं । यह श्रुत मतिज्ञानपूर्वक हुआ करता है; किन्तु श्रुतके पूर्वमें मति कहीं साक्षात् - अव्यवहित और कहीं असाक्षात् व्यवहित हुआ करती है ।
भावार्थ - श्रुतज्ञान दो प्रकारका है; एक शब्दजन्य दूसरा लिंगजन्य । घट शब्द के सुननेरूप मतिज्ञान के
धर्म
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बनगार
२५४
बाद जो घटपदार्थका ज्ञान होता है उसको शब्दजन्य श्रुत और चक्षुरादिके द्वारा यह धूम है ऐसा मतिज्ञान होजानेपर जो अगि आदिका ज्ञान होता है उसको लिङ्गजन्य श्रुत कहते हैं। इसके अनंतर घटज्ञानके बाद जो जलधारणादिकका और, अग्निज्ञानके बाद जो उसके पाकादिकका ज्ञान होता है उसको भी श्रुत कहते हैं । किंतु पहले श्रुतके मतिज्ञान साक्षात् पूर्व में है और दूसरे श्रुतके असाक्षात् पूर्वमें । फिर भी दोनो ही श्रुतज्ञानोंको मतिपूर्वक ही कहा है; क्योंकि आगममें मतिपूर्वक होनेवाले श्रुतज्ञानको भी उपचारसे मति कहा है | यथाः--
मतिपूर्व श्रुतं दक्षरुपचारान्मतिमता।
मतिपूर्व ततः सर्व श्रुतं ज्ञेयं विचक्षणः ॥ आचार्योंने मतिज्ञानपूर्वक होनेवाले श्रुतज्ञानको भी उपचारसे मति ही माना है। अत एव विद्वानोंको सभी श्रुतज्ञान मतिपूर्वक ही समझने चाहिये । और भी कहा है कि--
अर्थादर्थान्तरज्ञानं मतिपूर्व श्रुतं भवेत् ।
शाब्दं तल्लिङ्गज चात्र द्वधनेकद्विषडभेदगम् । मंतिज्ञानपूर्वक जो अर्थसे अर्थान्तरका ज्ञान होता है उसको श्रुत कहते हैं। वह दो प्रकारका है। शब्दजन्य और लिंगजन्य । तथा अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट इस तरहसे भी श्रुतके दो भेद हैं। अंगवायके अनेक भेद और अंगप्रविष्टकै बारह मेद हैं।
निरुक्तिकी अपेक्षा, जो सुना जाय उसको श्रुत कहते हैं । किंतु उसका अर्थ ज्ञानविशेष ही है, जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है। यह श्रुत दो प्रकारका होता है; एक ज्ञानरूप दूसरा शब्दरूप। ज्ञानरूपको भावश्रुत और शब्दरूप को द्रव्यश्रुत कहते हैं। जिस ज्ञानके होनेपर वक्ता शब्दोंका उच्चारण करता है या कर सकता है उसको अथवा श्रोताके शब्द सुननेके बाद जो ज्ञान होता है उसको भार्वश्रुत कहते हैं। इसीका नाम स्वार्थ भी है। क्योंकि
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गा
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A
अध्याय
३
वह विकल्पके निरूपणरूप है, और स्वयं [ श्रुतज्ञानी ] की जो उसके विषय में अज्ञान या विप्रतिपाले ही उसका निराकरण ही इसका फल हैं। भावश्रुतकेलिये निमित्तभूत जी वचन उसको द्रव्यश्रुत कहते हैं। इसकी परामैं भी कहते हैं। क्योंकि वह शब्दप्रयोगरूप है, और अपने विषयमें दूसरोंको जो अज्ञान या विप्रतिपत्ति है उसका निराकरण ही इसका फल वै ।
इस प्रकार भाव और द्रव्यकी अपेक्षा श्रुतके दो गेंद बतायें; किंतु उसके भी उत्तर मेंद होते हैं या नहीं ? इसके उत्तर में दोनोंके उत्तर भेदोका निरूपण करते हैं:
-
तद्भावतो विज्ञतिघा पर्यायादिविकल्पतः ।
द्रव्यतोङ्गप्रविष्टाङ्गबाह्यभेदाद् द्विधा मतम् ॥ ६ ॥
भाव -- अन्तस्तत्वकी अपेक्षा जो श्रुतका भेद बताया है वह — मावश्रुत, पर्याय पर्यायसमास अक्षर अक्षरसमास इत्यादि बस प्रकारका है। और द्रव्य वहिंस्तत्वकी अपेक्षा जो भेद है वह - - द्रव्यश्रुत मूलमें दो प्रकारका है; अङ्गमष्टि और अङ्गवाद्य ।
भावार्थ - भावश्रुतके पर्यायादिक बसि भेद और द्रव्यश्रुतके मूल में उक्त दो भेद हैं; जिनमेंसे अंगविष्टके आचारांङ्ग सूत्रकृताङ्ग आदि बारह भेद और अङ्गवाद्य के सामायिक आदि चौदह भेद हैं। इनका विशेष स्वरूप आगमके अनुसार समझना चाहिये ।
sotryर्यातक सूक्ष्म निगोदिया जीवके, उत्पन्न होने के प्रथम समयमें जो ज्ञान होता है उसको प र्याय कहते हैं । इसका दूसरा नाम लब्ध्यक्षर भी है। जैसा कि आगम में भी कहा है:--
सूक्ष्मापूर्ण निगोंदस्य जातस्याद्यक्ष णेप्यदः
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बनगार
श्रुतं स्पर्शमतेर्जातं ज्ञानं लब्ध्यक्षराभिधम्॥ सूक्ष्म अपर्याप्त निगोद जीवके उत्पन्न होने के प्रथम क्षणमें स्पर्शजन्य मतिज्ञानके द्वारा जो श्रुतज्ञान होता है उसको लब्ध्यक्षर कहते हैं। - इसका परिमाण अक्षरश्रुतके अनन्तवें भागमात्र है। अत एव यह सब ज्ञानोंसे जघन्य किंतु निरावरण है। इतना ज्ञान नित्य ही प्रकाशमान रहता है। इससे कम ज्ञान कभी भी और किसी भी जीवके नहीं हो सकता.। यदि इससे भी कम होने लगे तो ज्ञानका ही अभाव होजाय; क्योंकि यह ज्ञानकी सबसे छोटी पर्याय है। एवं, ज्ञानका अभाव होनेसे आत्माका भी अभाव होजायगा क्योंकि ज्ञानरूप उपयोग ही आत्माका लक्षण है। अत एव पर्यायज्ञान नित्य प्रकाशमान है।
जैसा कि (गोमटसारमें ) कहा भी है:
2RATHARASTRAXARMORERSExansar SATSANSARVAJMEANISATISHWAKARMANANDHARMA
BSERahimirsia-sar
सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स पढमसमयम्हि ।
हवदि हु सव्वजहण्णं णिच्चुग्घाडं णिरावरणं । सूक्ष्म निगोदिया अपर्याप्तकके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें जो सर्वजघन्य ज्ञान होता है वह नित्योद्धाटी और निरावरण है । यह ज्ञान सूक्ष्म निगोदजीवके सर्वजघन्य क्षयोपशमकी अपेक्षासे निरावरण है; न कि संर्वथा । वस्तुतः ऊपरके क्षायोपशमिक ज्ञानोंकी अपेक्षा और केवलज्ञानकी अपेक्षा सावरण ही है तथा क्षायोपशमिक भी है। क्योंकि संसारी जीवोंके क्षायिक ज्ञान हो ही नहीं सकता।
ध्याय
WALALESENSE
पर्यायज्ञानके ऊपर और अक्षरश्रुत ज्ञानके पहले अनन्तभागाद्ध असंख्यातभागवृद्धि संख्यातभागवृद्धि संख्यातगुणवृद्धि असंख्यातगुणवृद्धि एवं अनंतगुणवृद्धिके द्वारा जो असंख्येयलोकपरिमाण ज्ञान बढता जाता है उसको प
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बनगार
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र्यायसमास ज्ञान कहते हैं। इसके बाद एकअकार आदि अक्षरोंके अभिधेयके अवगमरूप जो ज्ञान है उसको अक्षरश्रुत कहते हैं। यह समस्त श्रुतके संख्यातवें भागमात्र है। क्योंकि पूर्ण श्रुतज्ञानके संख्यात ही अक्षर हैं। इसके ऊपर और पदज्ञानके पहले अक्षरवृद्धिके क्रमसे जो दो तीन चार आदि अक्षरोंके ज्ञानस्वभाव श्रुत बढता जाता है उसको अक्षरसमास कहते हैं। इसी तरह पद पदसमास आदि पूर्वसमासपर्यन्त भावभुतके बीसो भेदोंका स्वरूप आगमके अनुसार समझलेना चाहिये ।
श्रुतोपयोगकी विधि बताते हैं:
तीर्थादाम्नाय निध्याय युक्त्याऽन्तः प्रणिधाय च । श्रुतं व्यवस्येत् सद्विश्वमनेकान्तात्मकं सुधीः ॥ ७॥
बुद्धिधनके धारण करनेवाले भव्योंको तीर्थ-उपाध्यायसे आगमको ग्रहण करके और हेतुपूर्वक समझ करके तथा अन्तरङ्गमें भले प्रकार निश्चलतया धारण करके सद्-उत्पादव्ययधौव्ययुक्त और अनेकान्तात्मक-द्रव्यपर्यायस्वभाव विश्व -जीवादिक समस्त पदार्थों का अच्छी तरह निश्चय करना चाहिये ।
भावार्थ-गुरूपदेशद्वारा आगमसे तथा " पदार्थ अनेकांतात्मक हैं; क्योंकि वे सत् हैं। जो सत् नहीं होता वह अनेकांतात्मक भी नहीं होता, जैसे कि आकाशपुष्प " इत्यादि युक्तियोंसे जीवादि पदार्थोंका निश्चय करना चाहिये । इसीसे श्रुतोपयोगकी सिद्धि हो सकती है । और समस्त पदार्थोंका ज्ञान हो सकता है । क्योंकि श्रुतज्ञान परोक्षतया समस्त पदार्थोको प्रकाशित करता है । जैसा कि कहा भी है:
श्रुतं केवलबोधश्च विश्वबोधात्सम द्वयम् । स्यात्परोक्षं श्रुतज्ञानं प्रत्यक्षं केवलं फुटम् ।।
अध्याय.
अ.घ.३३
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अनगार
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समस्त पदार्थोके ज्ञान की अपेक्षा श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनो समान हैं। अंतर इतना ही है कि | श्रूतज्ञान परोक्ष है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष है। तीर्थ और आम्नायपूर्वक श्रुतका अभ्यास करना चाहिये, ऐसा उपदेश देते हैं:
वृष्टं श्रुताब्धेरुद्धृत्य सन्मेधैभव्यचातकाः ।
प्रथमाद्यनुयोगाम्बु पिबन्तु प्रीतये मुहुः ॥ ८॥ समस्त विश्वका उपकार करनेवाले मेघोंके समान सत्पुरुषों-शिष्टों-भगव जिनसेन प्रभृति आचार्योंके द्वारा श्रुत-परमागम - द्वादशाङ्गरूपी समुद्रसे उद्धृत कर-निकाल कर वर्षाये हुए-उपदिष्ट प्रथमादि अनुयोग पुराणादि अर्थके प्रश्नोत्तररूपी जलका भव्यरूपी चातकोंको जिनको कि चिरकालसे सदुपदेशरूपी जल पान करनेकेलिये प्राप्त नहीं हुआ है। पुनः पुनः एवं प्रीतिपूर्वक पान करना चाहिये । क्योंकि वह जल उनकी तृष्णाके विच्छेद करनेका प्रधान कारण है।
भावार्थ-भगवजिनसेन प्रभृति आचार्योंने प्रथमानुयोगादिकमें जो कुछ कहा है वह भगवद्भाषित और गणधरग्राथत परमागममें कहे हुए पदार्थोंको ही कहा है। अत एव वह तीर्थ ओर आम्नायपूर्वक ही है । इसीलिये मुमुक्षु भव्योंको रुचि-समीचीन श्रद्धापूर्वक उस प्रथमानुयोगादि श्रुतका बारम्बार अभ्यास करना चाहिये ।
अनुयोग चार हैं -प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग। इनमेंसे पहले प्रथमानुयोगके अभ्यास करने में भव्यों को नियुक्त होनेका विधान करते हैं। :
पुराणं चरितं चार्याख्यानं बोधिसमाधिदम् । सत्त्वप्रथार्थी प्रथमानुयोगं प्रथयेत्तराम् ॥९॥
अध्याय
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अनगार
हेय और उपादेयरूप समीचीन सबके प्रकाशको निरंतर चाहनेवाले भव्यको उस पुराण और चरिवरूप प्रथमानुयोगका अच्छी तरह प्रकाश करना चाहिये--दूसरे-करणानुयोगादिकी अपेक्षा अतिशय रूपसे अभ्यास करना चाहिये । क्योंकि दूसरे अनुयोगोंमें जिन जिन विषयोंका वर्णन किया गया है उन सबके प्रयोग दृष्टान्त आदिका अधिकरण यह प्रथमानुयोग ही है। जिसमें कि कल्पित विषयोंका नहीं किंतु अर्थ-परमार्थतः सद्भुत विषयों का प्रतिपादन किया जाता है; और जो कि बोधि-रत्नत्रय और समाधि--ध्यानका देनेवाला है। क्योंकि इसके सुननेसे जिनको रत्नत्रय प्राप्त नहीं हुआ है, उनको प्राप्त होता है और जिनको प्राप्त है उनका भले प्रकार निर्वहण होता है । इसी प्रकार उसके सुननेसे धर्मध्यान और शुक्लध्यानकी भी सिद्धि होती है । जो पहले होगया उसको--बीती हुई बातको पुराण कहते हैं। जिसमें ये बातें लिखी जाय उस ग्रंथको भी पुराण कहते हैं। अत एव वेसठ शलाकापुरुषोंकी कथाएं जिसमें लिखी गई हों उस महापुराण । हरिवंशपुराण पद्मपुराण आदि शास्त्रोंका नाम पुराण है । पुराणमें आठ बातोंका वर्णन होता है, जैसा कि आगममें भी कहा है:
लोको देशः पुरं राज्यं तीर्थ दानं तपोद्वयम् ।
पुराणस्याष्टधाख्येयं गतयः फलमित्य पि ॥ लोक देश नगर राज्य तीर्थ दान और दो प्रकारका तप इन आठ विषयोंका पुराणमें निरूपण किया जाता है । इसके सिवाय गतियों तथा पुण्यपापके फलका भी वर्णन होता है ।
लोकमें भी कहा है कि
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अध्याय
सर्गश्च प्रतिसगश्च वंशो मन्वन्तराणि च । वंशानुचरितं चेति पुराणं पञ्चळक्षणम् ॥
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अनगार
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अध्याय
३
सर्ग और प्रतिसर्ग तथा वंश औरै मन्वन्तर-कुलकरोंका मध्यकाल एवं वंशों में क्रमसे चला आया हुआ चरित्र, ये पुराणके पांच लक्षण हैं ये पांच बातें पुराण में होनी चाहिये ।
इस प्रकार जिसमें ये सब बाते पाई जांय उस प्रथमानुयोगको पुराण और जिसमें एक पुरुषके आश्रयसे कथा लिखी जाय - जिसमें एक पुरुषके चरित्रका वर्णन हो; जैसे चंद्रप्रभचरित्र प्रद्युम्नचरित्र यशोधरचरित्र इत्यादि उसको चरितरूप प्रथमानुयोग कहते हैं ।
करणानुयोग के अभ्यास करनेकी तरफ भव्यों को प्रयुक्त करते हैं:--
चतुर्गतियुगावर्तलोकालोकविभागवित् ।
हृदि प्रणेयः करणानुयोगः करणातिगैः ॥ १० ॥
करण- इन्द्रियोंका अतिक्रमण करके रहनेवाले जितेंद्रिय भव्योंको करणानुयोग अवश्य ही हृदयमें धारण करना चाहिये ।
गतिनामकर्मके उदयसे होनेवाली जीवकी पर्याय विशेषको गति कहते हैं। उसके चार भेद हैं- नारक तैo मानुष और दैव । उत्सर्पिणीरूप काल के सुमसुमा आदि युगोंके आवर्त - परिवर्तनको युगावर्त कहते हैं । उसके बाहर जितना अनन्त आकाशमात्र है उसको अलोक कहते हैं । इन चारो गतियों तथा युगात और लोकालोके विभागको जो जाननेवाला है उस ज्ञानपरिणत आत्माको करणानुयोग कहते हैं ।
भावार्थ - यहां पर भावश्रुतकी अपक्षासे ज्ञानरूप ही करणानुयोगका लक्षण बताया है; किन्तु द्रव्य श्रुत
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बनगार
की अपेक्षा इन,गति आदिकोंका जिसमें वर्णन लिखा जाय उस शाहको भी करणानुयोग कहते हैं । यह करणानुयोग मुमुक्षुओंको अवश्य ही हृदयंगत करना चाहिये ।
चरणानुयोगकी चर्चा करनेकेलिये भी भव्योंको प्रेरित करते हैं।
सकलेतरचारित्रजन्मरक्षाविवृद्धिकृत् ।
विचारणीयश्चरणानुयोगश्चरणादृतैः॥११॥ चारित्रके प्रतिबंधक मोहनीय कर्मका क्षयोपशम होजानेपर चरणानुयोगके द्वारा पूर्ण और अपूर्ण II चारित्रका जन्म रक्षा एवं वृद्धि होती है। अत एव चारित्रका पालन करनेकेलिये जो उद्यत हैं उन भव्योंको अवश्य ही 'इस चरणानुयोगका चित्तमें विचार करना चाहिये । आचारांग उपासकाध्ययन या दूसरे भी चारित्रसम्बन्धी शास्त्रोंका अध्ययन या स्वाध्याय करना चाहिये ।
भावार्थ:-चरण-चारित्रके जाननेवाले ज्ञानको अथवा उसके प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रको चरणानु, योग कहते हैं। हिंसादिक पापोंसे निवृत्तिका नाम चारित्र है। यह दो प्रकारका है-एक पूर्ण दुसरा अपूर्ण अप्रादुर्भूत इन दोनोंकी प्रादुर्भूतिका नाम जन्म, प्रादुर्भूत होनेपर उनमेंसे अतीचारके दूर होनेका नाम रक्षा, और रक्षितोंमें उत्कर्षताके प्राप्त होनेका नाम वृद्धि है। इस प्रकार इन दोनो चारित्रोंके जन्म रक्षा और वृद्धिकी सिद्धि चारित्रमोहनीयका क्षयोपशम होनेपर चरणानुयोगके द्वारा ही होती है । अत एव चारित्रकी इच्छा करनेवाले मुमुक्षु भव्योंको चरणानुयोगका अवश्य ही अभ्यास करना चाहिये।
द्रव्यानुयोगकी भावनाकेलिये भव्योंको व्यापृत करते हैं: -
जीवाजीवौ बन्धमोक्षौ पुण्यपापे च वेदितुम् ।
-
बध्याय
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बनगार
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द्रव्यानुयोगसमयं समयन्तु महाधियः ॥ १२ ॥ कुशाग्रीय बुद्धिके धारक भव्योंको जीव और अजीक्का तथा बंध और मोक्षका एवं पुण्य · और पापका ज्ञान प्राप्त करनेकेलिये या भले प्रकार निश्चय करनेकेलिये द्रव्यानुयोग समय का--सिद्धांतसूत्र मोक्षशास्त्र या पंचास्तिकाय प्रभृति ग्रंथोंका अच्छी तरह अभ्यास करना चाहिये ।
भावार्थ-मुमुक्षुओंकी अभिलाषा जिस मार्गसे पूर्ण हो सकती है उसकी सिद्धि तत्वज्ञानपर निर्भर है। और तत्त्वज्ञान, जिनमें जीवादिक तच्चों तथा पदार्थोंका वर्णन किया गया है ऐसे द्रव्यानुयोग शास्त्रोंके अभ्यास पर निर्भर है। अत एव मुमुक्षु एवं तीक्ष्ण बुद्धिके धारक भव्योंको द्रव्यानुयोग शास्त्रोंका अभ्यास अच्छी तरह करना चाहिये। इसके विना मोक्ष क्या है और वह किसकी होती है तथा उसका विरोधी कौन है और उसके विरुद्ध पर्यायके कारण क्या क्या हैं एवं निर्वृतिके कारण क्या क्या हैं यह मालुम नहीं हो सकता। और इसके विना निवृति नहीं हो सकती ।
इस प्रकार जिसमें चारो अनुयोगोंका संग्रह किया गया है ऐसे जिन भगवान्के उपदिष्ट आगमकी सदा समीचीनतया उपासना करनेवाले भव्योंको जो फल प्राप्त होते हैं उन्हें बताते हैं:
सकलपदार्थबोधनहिताहितबोधनभावसंवग, नवसंवेगमोक्षमार्गस्थिति तपसि चात्र भावनान्यदिक् । सप्त गुणाः स्युरेवममलं विपुलं निपुणं निकाचितं
सार्वमनुत्तरं वृजिनहजिनवाक्यमुपासितुः सदा ॥ १३ ॥ जिसमें पूर्वापरका विरोध या अन्य किसी प्रकारका दोष महीं पाया जाता। जिसमें लोकालोकके
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बनयार.
३
सब विषय व्याप्त हैं । पदार्थमात्रका जिसमें वर्णन पाया जाता है। जिसमें सूक्ष्म पदार्थोंका भी स्वरूप भले प्र. कार दिखाया गया है। और जो निकाचित-अर्थतः अवगाढ-ठोस है। जो सबकेलिये हितकर और परमोत्तम है-संसारमें जिसकी बराबर कोई भी उत्कृष्ट पदार्थ नहीं है । एवं जो समस्त पापोंको दूर करनेवाला है। ऐसे जिनवाक्यकी-अहंत भगवान्के उपदिष्ट प्रथमानुयोगादिक प्रवचनकी पूर्वोक्त रीतिसे जो सदा समीचीनतया उपासना करते हैं उन साधुओंको निम्नलिखित सात गुण प्राप्त होते है:
१-सकलपदार्थबोधन । त्रिकालवर्ती समस्त अनन्त पदार्थों और उनकी पर्यायोंके स्वरूपका ज्ञान ।
२-हिताहितबोधन । हित-मुख और उसके कारणोंकी प्राप्ति तथा अहित-दुःख और उसके कारणोंके परिहारका ज्ञान ।
३-भावसंवर | मिथ्यात्वादिक परिणामोंका, जिनसे कि कर्मोंका आस्रव होता है, निरोध-शुद्ध निजात्म खरूपके अनुभवरूप परिणामोंका होना ।
४-नवसंवेग । प्रतिक्षण नई नई तरहकी संसारसे भीरुता । ५-मोक्षमार्गस्थिति । व्यवहार एवं निश्चयरूप रत्नत्रयमें अविचलतया स्थिर रहना । ६-तपोभावना। रागादि कषायोंके निग्रह करनेके उपायका अभ्यास करना । ७-अन्यदिक् । दूसरोंको उपदेश देना। ज्ञानाराधनकेलिये आठ प्रकारके विनयका अभ्यास करना चाहिये ऐसा उपदेश देते हैं
ग्रन्थार्थतद्वयः पूर्ण सोपधानमनिह्नवम् । विनयं बहुमानं च तन्वन् काले श्रुतं श्रयेत् ॥ १४ ॥
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ग्रंथ-संदर्भ और अर्थ-वाच्य पदार्थ तथा उभय-ग्रंथ अर्थ दोनो इनसे पूर्ण और आगममें कहे हुए नियमाविशेषोंसे युक्त तथा गुरु आदिके निन्हवसे रहित श्रुत-जिनागमका विनय-माहात्म्यका उद्भव-प्रकाश करनकोलिये किये गये प्रयत्नविशेषको और बहुमान-बडे भारी आदर सत्कारको बढाते हुए मुमुक्षुओंको योग्य कालमें-आगममें कहे गये संध्या ग्रहण आदिसे रहित समयमें अभ्यास करना चाहिये।
भावार्थ-जिसके द्वारा श्रुतकी भले प्रकार प्राप्ति हो सके उस उपायविशेषको विनय कहते हैं । उसके आठ भेद हैं-१ ग्रंथपूर्णता २-अर्थपूर्णता, ३-उभयपूर्णता, ४-सोपधानता, ५-आनन्हव, ६-विनय, ७-बहुमान, ८-और योग्य काल ।
इस प्रकार ज्ञानाराधनाका वर्णन किया। किंतु सम्यक्त्वाराधनाके अनंतर उसके वर्णन करनेका क्या हते है सो बताते हैं:
आराध्य दर्शनं ज्ञानमाराध्यं तत्फलत्वतः। सहभावेऽपि ते हेतुफले दीपप्रकाशवत् ॥ १५ ॥
मुमुक्षुओंको सम्यग्दर्शनका आराधन करके ही ज्ञान-श्रुतज्ञानका आराधन करना चाहिये । क्योंकि ज्ञान सम्यग्दर्शनका फल है । ज्ञानकी समीचीनता सम्यग्दर्शनके ही अधीन है। अत एव वह उसका कार्य है। आगममें भी सम्यग्दर्शनकी प्रशंसा करते हुए कहा है कि " णाणं सम्मं खु होदि सदि जमि" अर्थात् जिसके होनेपर ज्ञान समीचीन होजाता है। अत एव सम्यक्त्वका आराधन करके ही ज्ञानका आराधन करना चाहिये ।
यहां प्रश्न हो सकता है कि गांक वांये और दांये दोनो सीगोंकी तरहसे एक ही कालमें उत्पन्न होनेवाले ज्ञान और सम्यक्त्वमें कार्यकारणभाव कैसा ? इसका उत्तर देते हैं किः--
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अध्याय
३
यद्यपि ये दोनो सहभावी हैं--युगपत् उत्पन्न होनेवाले हैं फिर भी दीपक और प्रकाशकी तरहसे उनमें कार्यकारण भाव है। जिस प्रकार प्रदीप और प्रकाश साथ ही उत्पन्न होते हैं। फिर भी प्रदीपका प्रकाश कार्य होता है। उसी प्रकार सम्यग्दर्शन और ज्ञानकी समीचीनता अथवा ज्ञान इनको परस्परमें क्रेमसे कारण और कार्य समझना चाहिये । जैसा कि आगममें भी कहा है:
कारणकार्य विधानं समकालं जायमानयोरपि हि । दीपप्रकाशयोरिव सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम् ॥
सम्यक्त्व और ज्ञान यद्यपि एक ही कालमें उत्पन्न होनेवाले हैं; फिर भी उनमें दीपक और प्रकाशकी तरहसे कारणता और कार्यता अच्छी तरह घटती है ।
I
ज्ञान के विना तप भी समीहित पदार्थोंको सिद्ध नहीं करसकता; यह दिखाते हैं: -
विभावमरुता विपद्वति चरद् भवाब्धौ सुरु,
प्रभुं नयति किं तपः प्रवहणं पदं प्रेप्सितम् । हिताहितविवेचनादवहितः प्रबोधोन्वहं, प्रवृत्तिविनिवृत्तिकृद्यदि न कर्णधारायते ॥ १६ ॥
तप एक बडे भारी जहाजके समान है; क्योंकि वह अथाह संसारसमुद्रसे पार पहुंचाने में कारण है । फिर भी रागद्वेषात्मक विभावभावोंके आवेशरूपी वायुके द्वारा अनेक 'आपत्तियोंसे घिरे हुए संसाररूपी समुद्रमें जब अत्यंत कुशको देते हुए इधर उधर चकर खाने लगता है-डगमगाने लगता है तब तरण कलामें अत्यंत कुशल नाविक के समान यदि सम्यग्ज्ञान पास न हो तो क्या यह कहा जा सकता है कि, वह अपने स्वामी-सु
अ. ध. ३४
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KE TRENA
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मुक्षु तपस्वीको, दूसरे पक्षमें यात्रीको, यथेष्ट स्थानपर या पदपर पहुंचा सकता है ? कभी नहीं । क्योंकि कर्णधार के समान यह सम्यग्ज्ञान ही निरंतर अप्रमत्त-सावधान रहता और अपने हिताहितके विवेकसे प्रवृत्ति निवृत्ति कराता है । यह हित है ऐसा जता कर हितमें प्रवृत्ति करानेवाला और, यह अहित है ऐसा प्रकाशित कर उस अहितसे निवृत्ति करानेवाला यह सम्यग्ज्ञान ही है।
भावार्थ-सम्यग्ज्ञानके द्वारा सुप्रयुक्त ही तप अभीष्ट स्थान या अर्थको सिद्ध कर सकता है; अन्यथा नहीं ।
सम्यग्दर्शनकी तरह ज्ञानकी भी उद्योतादिक पांच आराधनाए हैं। उनमेंसे आदिकी उद्योतन उद्यवन और निर्वहण इन तीन आराधनाओंका स्वरूप बताते हैं:--
热
ज्ञानावृत्त्युदयाभिमात्युपहितैः संदेहमोहभ्रमैः, स्वार्थभ्रंशपरैर्वियोज्य परया प्रीत्या श्रुतश्रीप्रियाम् । प्राप्य स्वात्मनि यो लयं समयमप्यास्ते विकल्पातिगः,
सद्यः सोस्तमलोच्चयश्चिरतपोमात्रश्रमैः काम्यते ॥ १७ ॥ जिस प्रकार कोई राजा अपनी प्रियाको शत्रुओंके भ्रष्ट करनेवाले साधनोंसे बचाकर और परम आनन्दके साथ आलिंगनको प्राप्त कराकर कुछ कालकेलिये अनिर्वचनीय आनन्दको प्राप्त हो जाता है तो उसकी संसार लोग प्रशंसा करते हैं । उसी प्रकार उद्योत आदि रूपसे ज्ञानका आराधन करनेवाला जो मुमुक्षु साधु, आगममें बताई हुई " एकों मे सासदो आदा" एक मेरा आत्मा ही शास्वत है, इस तरहकी श्रुतज्ञानकी भाव.
烈愛露露缴缴露露聽黨黨聽診總額露
अध्याय
१ अभिमाति-शत्रु ।
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नारूपी बल्लभाको, जो कि अपने स्वामीको अत्यंत आनन्दका कारण है, ज्ञानावरण कर्मके उदयसे, जो कि एक अपकारके ही करनेमें उद्यक रहनेके कारण शत्रके समान है, प्राप्त हुए संदेह मोह और भ्रम-संशय अनध्यवसाय और विपर्याससे, जो कि जीवोंके पुरुषार्थों का ध्वंस करने में ही तत्पर रहा करते हैं, बचाकर और परमोत्कृष्ट हर्षके साथ अपने चित्स्वरूपमें एकत्व परिणतिरूप आश्लेषको प्राप्त कराकर कुछ कालकेलिये निर्विकल्प वासनाओंसे रहित होकर- यह क्या है, किससे सिद्ध होता है, कहां रहता है, कव होता है, इत्यादि अन्तर्जल्पसे सम्बन्ध रखनेवाली अनेक उत्प्रेक्षाओंके जालसे च्युत होकर परम आनन्दका भोग कर लेता है। उसकी दूसरे लोग, जो कि केवल नयका ही अभ्यास करनेवाले हैं-ज्ञानाराधनासे रहित केवल कायक्लेशादिक अनुष्ठान करनेमें ही जो चिरकाल तक परिश्रम करनेवाले हैं, प्रशंसा किया करते हैं। यह बडा अच्छा तप करनेवाला है ऐसा कहकर उसकी अनुमोदना किया करते हैं, और वैसा ही स्वयं होना चाहते हैं । क्योंकि इस तरह ज्ञानाराधन करनेवाला तपस्वी तत्क्षण-बहुत ही जल्दी अशुभ कर्मोंके संघातको निजीर्ण करदेता है। जैसा कि आगममें भी कहा है कि:
जं अण्णाणी कम्म खवेइ भवसयसहस्सकोडीहिं ।
तं णाणी तिहि गुत्तो खवेइ णिमिसद्धमित्तण ।। जिन कर्मोको अज्ञानी सैकडों हजारों अथवा करोडों भवमें यद्वा लाखो कोटि भवमें भी नहीं खपा स. कता, उन्ही कोको ज्ञानी आधे निमेषमात्रमें-बहुत ही थोडे कालमें तीनो गुप्तियोंको धारण कर खपा देता है।
भावार्थ-ज्ञानका आराधन किये विना तप भी सफल नहीं हो सकता । अत एव तपस्वियोंको उसका भी आराधन करना ही चाहिये । सम्यग्दर्शनकी तरह सम्यग्ज्ञानकी भी उद्योतादिक पांच आराधनाएं हैं। उनमेंसे आदिकी तीन आराधनाओंका स्वरूप यहांपर बताया है। ज्ञानावरण कर्मके उदयजतित संदेहादिकसे श्रुतभावनाके बचानेको उद्योत, परम प्रमोदके साथ चित्स्वरूपमें उस भावनाके एकत्वपरिणतिको प्राप्त कसदेनेको उद्यवन, और कुछ कालतक निर्विकल्प होकर उस भावनाके द्वारा परमानंदरूपसे ठहरनेको निर्वहण कहेत हैं।
अध्याय
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भनगार
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अब यहां क्रमानुसार अंतकी दोनो आराधनाओंका-साधन और निस्तरणका स्वरूप बताना चाहिये किंतु उसके पहले ज्ञानरूप प्रकाशको दुर्लभता प्रकट करते हैं। :
दोषोच्छेदविजृम्भितः कृततमश्छेदः शिवश्रीपथः, सत्त्वोद्बोधकरः प्रक्लप्तकमलोल्लासः स्फुरद्वैमः । लोकालोकततप्रकाशविभवः कीर्ति जगत्पावनी, तन्वन् कापि चकास्ति बोधतपनः पुण्यात्मनि व्योमनि ॥ १८ ॥
__बोध- सम्यग्ज्ञानको बिलकुल सूर्यके समान समझना चाहिये । क्योंकि जिस प्रकार सूर्य अपने कार्य दोषा-रात्रिके क्षयके करनेमें निरंकुशतया प्रवृत्त हुआ करता है, उसी प्रकार ज्ञान भी संदेहादिक दोषोंके उच्छे. दरूप अपने कार्यके करनमें स्वतंत्रतया प्रवृत्त हुआ करता है। जिस प्रकार सूर्य अंधकारका नाश करता है उसी प्रकार ज्ञान भी अपने प्रतिबंधक कमके वांतका धंस करता है । जिस प्रकार सूर्य-शिवों-मुक्तात्माओंका श्रीपंथ-प्रधानमार्ग है उसी प्रकार ज्ञान भी शिवश्री मोक्षलक्ष्मीका मार्ग-प्राप्तिका उपाय है । जिस प्रकार सूर्य प्राणियोंकी निद्राको दूर करके उद्बोध-जागृतता उत्पन्न करनेवाला है उसी प्रकार ज्ञान भी सत्व-सात्विकता गुणका उद्बोध करनेवाला है-उसको आभव्यक्त-प्रकाशित करनेवाला है। जिस प्रकार सूर्य कमलोंके उल्लास-विकाशको प्रकाशित करनेवाला है उसी प्रकार ज्ञान भी कमला-लक्ष्मीको उद्गति-उभृतिका करनेवाला है। अथवा क-आत्माके मल-रागद्वेषादि विभावोंके उद्भवको अच्छी तरह क्षीण नष्ट करनेवाला है । जिसप्रकार सूर्य लोकालोक-निषधाचलपर अपनी आलोकसंपत्तिको विस्तृत करता है उसी प्रकार ज्ञान भी लोक
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१-इसका समर्थन अध्याय २ श्लोक ६५ में किया जा चुका है।
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बनगार
और अलोक दोनोंक ऊपर, जिनका कि स्वरूप पहले बताया जाचुका है, अपना प्रकाश डालता है-उनको अच्छी तरहसे विषय करता है -जानता है। जिस प्रकार सूर्य अपने वैभवके द्वारा जगतजनोंके मनमें अपूर्व चमत्कार उत्पन्न करता है उसी प्रकार ज्ञान भी करता है । इसी तरह जिस प्रकार सूर्य जगतको पवित्र करने वाली कीर्ति भक्त पुरुषोंके द्वारा कीगई स्तुतिको विस्तृत करता है उसी प्रकार ज्ञान भी लोकोंके मलको दर करनेवाली धर्मदेशनारूप वाणीको फैलाता है । इस तरह बिलकुल समानताको धारण करनेवाला यह ज्ञानरूपी सूर्य आकाशके समान किसी ही पवित्रात्मामें प्रकाशित-उदित हुआ करता है।
भावार्थ-दोषोच्छेदकत्वादि विविध गुणोंसे युक्त सम्यग्ज्ञानका उत्पन्न होना बहुत ही कठिन है । वह एक अपूर्व प्रकाशके समान है। अत एव जिस प्रकार सूर्य किसी मलरहित विशेष नभोदेशमें ही उदयको प्राप्त हुआ करता है, उसी प्रकार उक्त अनेक गुणोंसे युक्त सम्यग्ज्ञान भी किसी ही पवित्रात्मा-सम्यग्दृष्टिके उत्पन्न हुआ करता है । इस तरहसे ज्ञानरूपी प्रकाशसे ही सुमुक्षुओंकी अमीष्टसिद्धि हो सकती है। अत एव उनको इसकी आराधना करनी चाहिये। ज्ञानकी साधन और निस्तरण नामकी आराधनाका भी स्वरूप बताते हैं:
निर्मथ्यागमदुग्धाब्धिमुद्धत्यातो महोद्यमाः।
तत्त्वज्ञानामृतं सन्तु पीत्त्वा सुमनसोऽमराः ॥ १९ ॥ मन्दराचलसे क्षीरसमुद्रकी तरह शब्दतः और अर्थतः किये गये आक्षेप और समाधानक द्वारा आगम - द्वादशांग श्रुतका भले प्रकार आलोडन करके उससे तत्त्वज्ञान -परमौदासीन्य ज्ञानरूपी अमृतको निकाल कर
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१--तनि जगत्के आधिपत्य अथवा प्रभावविशेषको वैभव कहते हैं ।
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Kom
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धनणार
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बध्याय
३
MAZZA
और उसका पान करके बढते हुए महार उत्साहके धारक सुमना - मैत्री आदि भावनाओंसे प्रसन्नचित्त रहनेवाले भव्य पुरुष अथवा देवगण अमरपदको प्राप्त हों।
भावार्थ -- इस तरहसे निर्मथित आगमरूपी क्षीरसमुद्रसे निकाल कर तत्त्वज्ञानरूप अमृतका पान करनेवाले मुमुक्षु जन्ममरण और अपमृत्युसे रहित हो जाते हैं ।
महापर आगमका अवगाहन कर तवज्ञानके निकालनेको ज्ञानकी साधनाराधना समझना चाहिये । क्योंकि समग्र द्रव्यागमके अवगाहनसे उत्पन्न हुए भावागमका पूर्ण होना ही ज्ञानका उद्धार है, और ज्ञान-तत्त्वज्ञानपरिणतिके अनन्तर अमरपदका प्राप्त होना ही निस्तरण है ।
संयमका धारण करना अत्यंत कठिन है। फिर भी उसका पालन मनके निग्रहसे उत्पन्न हुए स्वाध्यायेोपयोगके द्वारा अच्छी तरहसे हो सकता है। इस बातको मनकी चंचलताका निरूपण करते हुए तीन श्लोकों में बताते हैं:
लातुं वीलन मत्स्यवद्गमयितुं मार्गे विदुष्टाश्वव — निम्ना मगापगौघ इव यन्नो वाञ्छिताच्छक्यते ।
दूरं यात्यनिवारणं यदणुवद् द्राग्वायुवच्चाभितो, नश्यत्याशु यदब्दवद्बहुविधैर्भृत्त्वा विकल्पैर्जगत् ॥ २० ॥
नो मूकवदति नान्धवदीक्षते य, - द्रागारं बधिरवन्न शृणोति तत्त्वम् ।
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धनमार
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अध्याय
यत्रायते यतवचो वपुषोपि वृत्तं, क्षिप्रं क्षरत्यवितथं तितवारिवाम्भः ॥ २१ ॥
व्यावशुभ वृत्तितोसुनयवन्नीत्वा निगृह्य त्रां, वश्यं स्वस्य विधाय तद्भुतकवत्प्रापय्य भावं शुभम् । स्वाध्याये विदधाति यः प्रणिहितं चित्तं भृशं दुर्धरं, चक्रेशैरपि दुर्वहं स वहते चारित्रमुच्चैः सुखम् ॥ २२ ॥
जो मन पतले चिकने चमकीले और चपल शरीरके धारण करनेवाले मत्स्यकी तरह सहसा पकडने में नहीं सकता । जिसका दुष्टस्वभाववाले घोडेकी तरह इष्ट और शिष्ट मार्गपर चलाना अत्यंत कठिन है। जो पर्वत से गिरनेवाली नदियोंके समूहकी तरह वांछित किंतु निम्न-नीच स्थान-विषयकी तरफ गिरनेसे रोका नहीं जा सकती । जो परमाणु की तरह वेरोक होकर अत्यंत दूरवर्ती देशों में भी जाकर प्राप्त हो जाता है। जो वायुकी तरह शीघ्र ही चारो तरफ फैल जाता और मेघोंकी तरह नाना प्रकारके विकल्पों - चिन्ताओंके जालसे समस्त जगतको व्याप्त कर शीघ्र ही नष्ट हाजाता । जो रागसे आतुर - इष्ट विषयोंकी रतिसे आक्रांत होकर वस्तुओंके यथार्थ स्वरूपको वचनशून्य - गूंगे मनुष्यकी तरह कह नहीं सकता, और अंधेकी तरह देख नहीं सकता, तथा बधिर
१ – संसारी जीवोंका' मन प्रायः ऊंचे--अच्छे कामोंकी तरफ से गिरकर - हटकर नीच विषयों की तरफ ही जाया
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करता है । और सहसा उसकी वह उन्मुखता छूट नहीं सकती । २- जिस प्रकार मेघ अनेक तरहके आकार रंग और प्रकार मन भी कल्पनाराजाके द्वारा सशीघ्र हां विलीन होजाता है ।
परिमाण आदिके द्वारा आकाशको व्याप्त करता और शीघ्र ही मस्त जगत्को व्याप्त करता - आशाओं और चिन्ताओंका विषय
नष्ट होजाता है उसी बनाता और फिर
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बनगार
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मनुष्यकी तरह उसको सुन भी नहीं सकता । जिसका कि नियन्त्रण न करनेपर वचन और कायका नियन्त्रण करनेवालेका भी वृत्त-बत समिति और गुप्तिरूप समीचीन भी चारित्र इस तरहसे निकल जाता है-नष्ट हो जाता है जैसे कि चलनी मेंसे जल निकल जाया कर तो है ।
और जिसका कि वश करना साधारण प्राणियोंकीलये बहुत ही काठन है। ऐसे भी मनको जो मुमुक्षु प्रमादचर्या कलुषता तथा विषयोंकी लोलुपता आदि व्यापारोंसे हटाकर और दुर्व्यवहार या दुर्जन पुरुषकी तरहये उसका ज्ञानसंस्काररूपी दण्डके बलसे दमन करके तथा उसको लज्जाको प्राप्त कराकर, एवं खरीदे हुए दास
गुलामकी तरह वशमें करके प्रशस्त गगादिरूप भावोंसे युक्त कर और एकाग्र-अकम्प या निश्चल बनाकर स्वाध्यायमें-वाचना पृच्छना आदिरूप तपमें लगा देता है वही पुरुष उत्कृष्ट चारित्रका-जिसका कि साधारण लोगोंकी तो बात ही क्या पूर्ण चक्रवर्ती भी पालन नहीं कर सकते, उस व्रत समिति और गुप्तिरूप तथा अशुभसे निवृत्ति और शुभमें प्रवृत्तिरूप संयमका अच्छी तरह पालन कर सकता है ।
भावार्थ -मन यद्यपि अत्यंत चंचल है फिर भी उसका निग्रह करके यदि उसको स्वाध्यायरूप उपयोगमें लगाया जाय तो उससे अत्यंत दुर्धर भी संयमकी सिद्धि हो सकती है और सुखसवित्तिकी प्राप्ति हो सकती है।
ध्यानको छोडकर बाकी जितने भी तप हैं उन सबमें स्वाध्याय ही एक ऐसा है जो कि आत्माकी उत्कृष्ट शुद्धिका कारण है । अत एव समाधिमरणकी शुद्धिकेलिये उसको नित्य ही करना चाहिये । ऐसा उपदेश देते हैं
१-तितओरिव पानीयं चारित्रं चलचेतसः । वचसा वपुषा सम्यक्कुवतोऽपि पलायते ।
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वचन और शरीरके द्वारा भले प्रकार चारित्रका पालन करते हुए भी चंचलचित्तवाले मनुष्यसे वह इस तरह पलायमान हो जाता है, जैसे कि चलनीसे जल ।
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अनगार
नाभृन्नास्ति न वा भविष्यति तपःस्कन्धे तपो यत्सम, कर्मान्यो भवकोटिभिः क्षिपति यद्योन्तर्मुहूर्तेन तत् । शुईि वानशनादितोऽमितगुणां येनाश्रुतेश्नन्नपि, खाध्यायः सततं क्रियेत स मृतावाराधनासिद्धये ॥ २३ ॥
धर्म
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अशनादिक तप करके जो विशुद्ध परिणाम प्राप्त होसकते हैं उनसे भी अनन्तगुणी विशुद्धिको स्वाध्यायके द्वारा यह जीव प्रतिदिन भोजन करता हुआ भी प्राप्त करलेता है । यथाशक्ति उपवासादि करते हुए यदि स्वा ध्याय किया जाय तब तो बात ही क्या है। इसी तरह जिन कर्मोको दूसरे तपोनिधि करोडो भवमें निर्जीर्ण कर सकते हैं उन्ही कर्मोंको यह स्वाध्याय केवलं अन्तर्मुहूर्तमें-कुछ कम दो घडी मात्र कालमें खिपा देता है। तथा यह स्वाध्याय एक अपूर्व ही तप है। जो कि अनेक अतिशयोंसे युक्त है। जैसा कि पहले बताया भी जा चुका है। अ. नशनादिक छह प्रकारके बाह्य तप और प्रायश्चित्तादिक पांच प्रकारके अन्तरङ्ग तप इन सबमें इस स्वाध्यायके समान न तो कोई तप हुआ, न है, न होगा। अत एव मरणसमयमें आराधनाकी सिद्धिकेलियेसम्यग्दर्शनादि परिणामोंमें सातिशय वृत्तिकी प्राप्तिकालये मुमुक्षुओंको नित्य ही स्वाध्याय करना चाहिये ।
भावार्थ--ज्ञानाराधनाके अनेक फलोंमें एक बड़ा भारी फल समाधिमरणकी सिद्धि भी है। किंतु वह तभी सिद्ध हो सकता है जब कि प्रतिदिन उसका आराधन किया जाय । अत एव मुमुक्षुओंको नित्य ही स्वाध्याय -ज्ञानका आराधन करना चाहिये ।
श्रुतज्ञानकी आराधना परम्परासे मोक्षका कारण है ऐसा बताते हैं:
अध्याय
श्रुतभावनया हि स्यात् पृथक्त्वैकत्वलक्षणम् ।
.
अ. ध. ३५
2.
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अनगार
शुक्लं ततश्च कैवल्यं ततश्चान्ते पराऽच्युतिः ॥ २४ ॥ . श्रुतभावना-व्यग्रतारहित ज्ञानकी अपेक्षा स्वाध्यायसे और एकाग्र ज्ञानकी अपेक्षा धर्मध्यानसे पृथक्त्व वितकवीचार और एकत्ववितर्कवीचार नामके दोनो शुक्लध्यान संपन्न हुआ करते हैं । और इन दोनोंका कैवल्यके साथ हेतुहेतुमद्भाव है । अत एव दोनो शुक्लध्यानोंसे कैवल्य असहाय ज्ञानदर्शनरूप पर्यायकी निष्पत्ति हुआ करती है। और इस पर्यायके प्राप्त होजानेपर अंतमें-संसारका अभाव होजानपर परम मुक्तिपदकी प्राप्ति हुआ करती है । अथवा अंत शब्दका अर्थ मरण भी होता है । सो भी यहां घटित हो सकता है क्योंकि पंडितपंडित मरणके द्वारा ही निवृतिकी प्राप्ति हुआ करती है।
भावार्थ - स्वाध्यायसे धर्मध्यान और उससे पृथक्त्ववितर्कवीचार नामका शुक्लध्यान और उससे एकत्ववितर्काचार नामका दूसरा शुक्लध्यान निष्पन्न हुआ करता है । क्योंकि हेतुहेतुमद्भाव ऐसा ही है । द्वितीय शुक्लध्यान होनेपर अनन्तज्ञानादिचतुष्टयरूप जीवन्मुक्ति और उसके बाद क्रमसे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति
और व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामके दोनो सातिशय शुक्लध्यान प्रवृत्त हुआ करते हैं। इसके भी वाद-सबके अंतमें समस्त कौका क्षय होजानेपर अनन्तसम्यक्त्व प्रभृति अष्टगुणविशिष्ट अवस्थाविशेषरूप परममुक्तिकी सिद्धि हुआ करती है। इस प्रकार श्रुतभावनाका परम्परा फल मोक्ष है।
॥ इति ज्ञानाराधनाधिगमो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥
॥ इति भद्रम् ॥
अध्याय
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अनगार
२७५
अध्याय
४
चौथा अध्याय ।
समर्थ है।
[ चारित्राराधना . ]
अब चारित्राराधना क्रमसे प्राप्त है । अत एव उसीके प्रति मुमुक्षुओंको उत्साहित करते हैं । :सम्यग्दृष्टिसुभूमिवैभवलसद्विद्याम्बुमाद्यद्दया, -
मूलः सहतसुप्रकाण्ड उदयद्गुप्त्यग्रशाखाभरः । शीलोद्यद्विपः समित्युपलतासंपद्गुणोद्धोद्गम, — श्छेत्तुं जन्मपथक्कुमं सुचरितच्छायातरुः श्रीयताम् ॥ १ ॥
दर्शनविशुद्धिरूपी प्रशस्त भूमिके वैभवसे स्फुरायमानताको प्राप्त होते हुए समीचीन श्रुतज्ञानरूपी ज. लसे जिसका दयारूपी मूल अपना कार्य करनेकेलिये उदृप्त रहा करता है, समीचीन व्रतोंका समूह ही जिसका सुंदर प्रकाण्ड - स्कन्ध है, और जिसकी गुप्तिरूपी अग्रशाखाओंका भार उदयको प्राप्त - उच्छ्रित रहा करता है, एवं शीलवतोंका रक्षण ही जिसका विटप - विस्तार है, तथा समितिरूपी उपलताएं-छोटी छोटी शाखाएं ही
१ – उस प्रभाव अथवा अचिन्त्य शक्तिविशेषको यहांपर वैभव समझना चाहिये जो कि अपना कार्य करने में
२ - दुःखोंसे पीडित हुए प्राणियों के त्राणकी अभिलाषाको दया कहते हैं ।
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२७५
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अनगार
२७६
अध्याय
४
GRADODRAMA의 원전기 시전해서 전선에 서서 전기가 감지된 RA
जिसकी संपत्ति है और अनेक प्रकार के उत्पन्न होनेवाले गुण ही जिसके प्रशस्त पुष्प हैं; ऐसे सम्यक् चारित्ररूपी छायावृक्षका, सम्यक्त्व और ज्ञानका आराधन करनेवाले मुमुक्षुओंको जन्म-जन्ममरण – संसाररूपी मामें चलने के कारण उत्पन्न हुए श्रम - ग्लानिको दूर करनेकेलिये अवश्य ही सेवन करना चाहिये ।
भावार्थ - " मैं समस्त सावद्ययोगसे विरत हूं " इस तरहके सामायिक भावको ही सम्यक् चारित्र समझना चाहिये। आजकल के ऋषियों वा व्रतियोंकी अपेक्षा से इस विषयमें और जो कुछ कहा गया है वह सब छेदोपस्थापना रूपसे इसीका विस्तार है । यह सम्यक्चारित्र छायावृक्षके समान है । क्योंकि संसारमार्ग संवरण उत्पन्न हुए श्रम और ग्लानिकी निःशेष शांति इसीसे होसकती है। सूर्यके फिर जानेपर भी जिसकी छाया नहीं फिरती ऐसे तरुको छायावृक्ष कहते हैं। जिस प्रकार वृक्षके पल्लवित होनेमें उतम भूमि और जल ये दो प्रधान कारण हैं उसी प्रकार सम्यक्चारित्रके भी समृद्ध होने में सम्यक्त्व और ज्ञानकी आराधनाएं - दर्शनविशुद्धि और श्रुताभ्यास ये दो मुख्य कारण हैं। इसके होनेपर ही चारित्रकी मूल दयासे अनेक अहिंसादि सद्व्रतों का स्कन्ध प्रादुर्भूत हो सकता हैं और उसमेंसे फिर गुप्तिरूपी मुद्दे - बडी बडी शाखाएं निकल सकती हैं, जिनमें से कि सुरक्षित रहनेपर समितिरूपी अनेक छोटी छोटी शाखाएं टहनियां निकलकर उस वृक्षकी संपत्तिको बढाती हैं। और अंत में उस वृक्षपर अनेक गुणरूपी सुंदर फूल फूलते हैं। जो मुमुक्षु उक्त सांसारिक क्लेदको दूर करना चाहते हैं उन्हे चाहिये कि वे इस सुंदर शीतल सघन सुगन्धित तरुकी अवश्य ही सेवा करें । सम्यक्त्व और ज्ञानके पूर्ण हो जानेपर भी जब तक चारित्र पूर्ण नहीं होता तबतक उस जीवको परममुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती । इसी बातको बताते हैं:
-
१- अत्यंत सघन । २- समीचीन योगनिग्रहका नाम गुप्ति है । ३ - आगममें बताये हुए क्रमके अनुसार की गई प्रवृत्तिको समिति कहते हैं ।
२७६
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बनगार
२७७
अध्याय
४
परमावगाढसुदृशा परमज्ञानोपचारसंभृतया । रक्तापि नाप्रयोगे सुचरितपितुरीशमेति मुक्तिश्रीः ॥ २ ॥
परमज्ञान- केवलज्ञानरूपी उपचार - सत्कारके द्वारा संभृत-सत्कृत - अच्छी तरह पुष्ट परमावगाढ सम्यग्दर्शन- अचल क्षायिक सम्यक्त्व वृत्तिरूप अतिचतुर दूतके द्वारा अनुकूल की गई भी मुक्तिश्री परममुक्ति - शरीररहित अनंतसम्यक्त्वादि गुणसंपत्तिको जबतक समस्त मोहनीय कर्मके क्षयसे उत्पन्न होनेके कारण निरंतर निर्मल स्वरूपके धारण करनेवाला आत्यंतिक समीचीन क्षायिक चारित्ररूपी पिता दान नहीं करदेता तब तक वह ( गुण(संपत्ति) जीवन्मुक्त के पास गमन नहीं करती ।
भावार्थ- जिस प्रकार अनेक सत्कारोपचार के द्वारा जिसका मनोरथ अच्छी तरह पूर्ण करदिया गया है। ऐसी अतिचतुर दूतीके द्वारा संभोग केलिये आकुलित भी कुलकन्या तबतक अपने उस अभीष्ट नायिकसे अभिगमन नहीं करती जबतक कि उसका पिता उसको दान नहीं कर देता । इसी प्रकार केवलज्ञानने जिसमें अत्यंत अतिशय उत्पन्न करदिया है ऐसे परमावगाढ सम्यग्दर्शनने यद्यपि उस परममुक्तिको अवश्यप्राप्य बनादिया है; फिर भी जबतक अघाति कमोंकी निर्जराके कारणभृत समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति नामका परम शुक्लध्यान होकर क्षायिक चारित्र संपूर्ण नहीं होजाता तबतक अपने उस जीवन्मुक्तरूपी शान्तोदात्त नायिकका वह आलिंगन नहीं करती । इस कथनसे यह बात स्पष्ट होजाती है कि परममुक्तिका साक्षात् कारण परम चारित्रका आराधन ही है।
ऊपर पहले श्लोक में सम्यग्दर्शनके द्वारा स्फुरायमान होनेवाले श्रुतज्ञानके विषय में जो कुछ कहा है उसका यहां विशेष समर्थन करते हैं: ---
ज्ञानमज्ञानमेव स्याद्विना सद्दर्शनं यथा ।
धर्म ०
२७७
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बनगार
२७८
अध्याय
8
चारित्रमप्यचारित्रं सम्यग्ज्ञानं विना तथा ॥ ३ ॥
जिस प्रकार सम्यग्दर्शनके विना ज्ञान ज्ञान नहीं, अज्ञान ही रहता है; उसी प्रकार सम्यग्ज्ञानके विना चारित्र भी अचारित्र ही माना जाता है ।
भावार्थ – सम्यक्चारित्रकी समृद्धि में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान ये दो प्रधान कारण हैं; यह बात पहले लिखी जा चुकी है । इसीका समर्थन करनेकेलिये यहां कहते हैं कि इन दोनों के बिना चारित्र में समीचीनता भी उत्पन्न नहीं हो सकती। क्योंकि चारित्रमें समीचीनता उत्पन्न कर उसको सफल बनानेके प्रति सम्यग्ज्ञानमें जो कार्यकारिणी शक्ति है वह सम्यग्दर्शनके बिना स्फुरायमान नहीं हो सकती ।
इसी बातका फिर भी समर्थन करते हैं:--
हितं हि स्वस्य विज्ञाय श्रयत्यहितमुज्झति । तद्विज्ञानं पुरश्वारि चारित्रस्याद्यमानतः ॥ ४ ॥
मुमुक्षु जीव आत्माहित - सम्यग्दर्शनादिको अच्छी तरह समझ करके ही उसके सेवन करनेमें और अहित - मिथ्यादर्शनादिकको जानकर उसके छोडने में प्रवृत्त हुआ करता है, - - अन्यथा नहीं । यह प्रवृत्ति ही • सम्यक् चारित्र है जो कि समस्त कमोंको निर्मूल करनेवाली है । अत एव यह बात स्वयं सिद्ध होजाती है कि हित और अहितके ज्ञानपूर्वक ही परमार्थतः चारित्र हुआ करता है । और ऐसा होनेपर ही वह अपना कार्य - कर्मक्षय सम्पन्न कर सकता है । अत एव सम्यग्दर्शन और ज्ञानका आराधन करके ही चारित्रके आराधन करमें प्रवृत्त होना चाहिये ।
सम्यग्ज्ञानपूर्वक चारित्रका पालन करनेमें प्रयत्न करनेवाला समस्त जगत्पर विजय प्राप्त करलेता है, ऐसा निरूपण करते हैं :--
धर्म ०.
२७८
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बनगार
२७९
अध्याय
४
देहेष्वात्ममतिर्दुःखमात्मन्यात्ममतिः सुखम् । इति नित्यं विनिश्चिन्वन् यतमानो जगज्जयेत् ॥ ५ ॥
जो मुमुक्षु सदा इस बात का निश्चय रखता है कि शरीर में आत्मबुद्धि दुःख या दुःखका कारण है। और आत्मामें आत्मबुद्धि रखना सुख अथवा सुखका कारण है, वही अपने उस निश्चयके अनुसार परद्रव्य से निवृत्त और शुद्ध निज आत्मस्वरूपमें प्रवृत्तिरूप प्रयत्न कर समस्त जगत्पर विजय - सर्वज्ञता प्राप्त कर लेता है ।
भावार्थ -- शरीर औदारिकादिक पांच प्रकारके हैं। इनमेंसे किसीके औदारिक तैजस कार्माण अथवा वैयिक तैजस कामण ये तीन होते हैं और किसीके औदारिक आहारक तेजस कार्मण इस तरह चार होते हैं । इनमेंसे स्व या पर जहां जिसके जैसे सम्भव हों उनमें आत्मप्रत्ययका होना- ये ही मैं हूं और मैं ही ये हैं- इस तरहकी कल्पना ही दुःख - संसार अथवा उसका कारण है । और उसके विरुद्ध आत्मा में आत्मप्रत्ययका होना- मैं मैं हीं हूं और पर पर ही है - इस तरहकी कल्पना सुख तथा सुखका कारण है। ऐसा निश्चय होना ही सम्यग्ज्ञान है। जो मुमुक्षु अपने इस भेदविज्ञान के अनुसार चारित्रका आराधन करता है वही चारित्रको सफल बना सकता और सर्वज्ञता प्राप्त कर सकता है ।
सम्यक चारित्ररूपी छायावृक्षका मूल दया है ऐसा पहले बता चुके हैं। इसी बातका विशेष रूपसे समर्थन करते हैं और बताते हैं कि विना दयाके सच्चारित्र हो ही नहीं सकताः
यस्य जीवदया नास्ति तस्य सच्चरितं कुतः ।
न हि भूतां कापि क्रिया श्रेयस्करी भवेत् ॥ ६॥
धर्म
3.
२७९.
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बनगार
२८.
जिन मनुष्योंके हृदयमें मुख्य अथवा आरोपित प्राणियोंके त्राणरूप करुणापरिणाम नहीं हैं उनके समीचीन चारित्र किस तरह हो सकता है ! क्योंकि इस चारित्ररूप धर्मका मूल दया है। जो व्यक्ति जन्तुओंसे द्रोह करता है-उनको कष्ट देता अथवा उनका बध करना चाहता है उसका कोई भी काम कल्याणकर नहिं हो सकता।
भावार्थ-दयाशून्य व्यक्तिके स्नान देवार्चन और दानाध्ययनादिक सभी कार्य धर्म या कल्याणके कारण नहीं हो सकते । मूलके विना फल किम तरह प्राप्त हो सकता है ? नहीं हो सकता।
सदय और निर्दय व्यक्तिमें कितना अन्तर है सो बताते हैं ।
दयालो'व्रतस्यापि स्वर्गतिः स्याददुर्गतिः।।
वतिनोपि दयोनस्य दुर्गतिः स्याददुर्गतिः ॥ ७ ॥ दयालु पुरुष यदि व्रताचरण नहीं भी करता तो भी उसकेलिये स्वर्गति अदुर्गति-सहज है। व्रतरहित भी सदय व्यक्तिको देवपर्याय अथवा वैसी ही और कोई भी अन्य उत्कृष्ट अभ्युदयकी प्राप्ति कष्टसाध्य नहीं-सुलभ है। एवं. इसके विरुद्ध जो व्रतोंका तो पालन करता है देवार्चन या उपवासादिक तो खूब करता है किंतु दयासे शून्य है-जिसका हृदय मदय नहीं है तो, उसकेलिये दुर्गति नरकादिक पर्याय अदुर्गति-सुलभ हैं।
भावार्थ-सदय और निर्दयमें यही अंतर है कि पहलेको तो विना साधन किये भी उत्तम फल प्राप्त हो सकता है और दूसरेको साधन.करनेपर भी उत्तम फल प्राप्त नहीं हो सकते; किंतु उल्टा फल प्राप्त होजाता है।
निर्दय व्यक्तिके तपश्चरणादिक व्यर्थ हैं, और दयालुको पालन न करनेपर भी उनका फल प्राप्त होता है, यही बात दिखाते हैं:
तपस्यतु चिरं तीव्र व्रतयत्वतियच्छतु । निर्दयस्तत्फलैर्दीनः पीनश्चैकां दयां चरन् ॥८॥
अध्याय
२८०
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भनगार
निर्दय व्यक्ति चिरकालतक तपश्चरण करे-सैकडों वर्षतक अनशन अवमौदर्य या वृत्तिपरिसंख्यानादिक. करता रहे, तथा ब्रतोंका भी वह चाहे जितना-घोर अनुष्ठान करे. एवं दान भी बह चाहे जितना ही क्यों न दे फिर भी वह उन कार्यों-तपश्चरण व्रत दानादिकोंके फलसे दीन -रिक्त-कोरा ही रहता है। किंतु इसके विरुद्ध तपश्चरणादिरहित परंतु एक दयाका पालन-सेवन करनेवाला उन (दानादि के फलोंसे पीन-पुष्ट होजाता है।
जिसका हृदय सदा दयासे आर्द्र रहा करता है और जो नृशंस-क्रूर व्याक्त है उन दोनों ही का सिद्धिकेलिये क्लेश उठाना व्यर्थ है। यही बात बताते हैं:
मनो दयानुविद्धं चेन्मुधा क्लिश्नासि सिद्धये ।
मनोऽदयानुविद्धं चेन्मुधा क्लिश्नासि सिद्धये ॥५॥ हे मुमुक्षो ! भन्ध ! यदि तेरा मन दयासे अनुविद्ध है, यदि उसमें करुणापरिणामोंकी भावना दी गई है तो सिद्धिकेलिये जो तू इतना क्लेश उठाता है सो व्यर्थ है। क्योंकि सिद्धिका सिद्ध होना एक दयाभावपर ही निर्भर है । इसी प्रकार तेरा यदि वह मन दयासे रहित है तो भी सिद्धिकेलिये तेरा क्लेश उठाना व्यर्थ ही है । क्योंकि निर्दय व्यक्तिके केवल कायक्लेशादिकसे वह सिद्धि सिद्ध नहीं हो सकती।
विश्वास और त्रासका मूल क्रमसे सदय और निर्दय परिणाम हैं ऐसा सूचित करते हैं - ...... "! विश्वसन्ति रिपवोपि दयालोवित्रसान्त सुहृदोप्यदयाच्च ।
___प्राणसंशयपदं हि विहाय स्वार्थमीप्सति ननु स्तनपोपि ॥१०॥ दयापर प्राणीका रिपुगण-अपकार करनेवाले भी विश्वास करते हैं। किंतु जो निर्दय है उससे मिअ. ध ३६.
अध्याय
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बनगार
२८२
त्रगण -उपकार करनेवाले भी डरते हैं। क्योंकि वे सोचते हैं कि कहीं हमारे उपकारका बदला उल्टा ही न निकले। .ठीक ही है जो बालक है वह भी-सांसारिक, व्यवहारको न जाननेवाला छोटासा बच्चा भी “अष्टिसिद्धि के लिये अमुक कार्यमें मैं जो प्रवृत्ति कर रहा हूं उसमें मेरे प्राण रहेंगे या जायगे" इस तरहके संदेहको छोडकर अपना इष्ट विषय ही प्राप्त करना चाहता है। ............ .....
भावार्थ --दयालुके पास जानेमें प्राणोंका संदेह नहीं है और सिद्धिकी आशा है। किंतु निर्दयके पास यह बात नहीं है। उसका स्वभाव दयालुसे उल्दा ही है। अत एव उससे सब डरते हैं।
दयाद्रं मनुष्यपर यदि कोई किसी प्रकारके दोषका आरोप लगाता है तो उससे उसका कुछ अपकार नहीं होता किंतु उल्टे उससे अनेक प्रकारके उपकार होते हैं, यही बात दिखाते हैं -
क्षिप्तोपि केनचिद्दोषो दयादें न प्ररोहति ।
तका तृणवत्किंतु गुणग्रामाय कल्पते ॥ ११ ॥ जिस प्रकार. छाछसे भीगी हुई जमीनपर तृणका अंकुर ऊग नहीं सकता उसी प्रकार दया-जिसका हृदय सदा करुणापरिणामोंसे मृदु रहा करता है उसपर यदि कोई असहिष्णु व्यक्ति प्राणिवध झूठ चोरी या पिशुनता आदि अपवादों से किसी भी प्रकारका आरोप लगावे तो वह ऊग नहीं सकता-ठहर नहीं सकता--
अध्याय
१-न विरोहंति गुदजाः पुनस्तक्रसमाहताः । निषिक्तं तद्धि दहति भूमावपि तृणोपलम् ॥
कोई भी रोग छाछका सेवन करनेपर अंकुरित-उत्पन्न नहीं होसकते । यदि भूमिपर उसको सोचा जाय तो वह वहांकी घासको भी जलादेती है।
२८२
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बनगार
२८३
संसारमें अपकीर्ति दुर्गति आदि फल नहीं देसकता । किंतु उससे उसके अनेक प्रकारके गुण-उपकार प्रगट हुआ करते हैं । उससे उसके अशुभ कर्मोंकी निर्जरा होती अथवा सत्पुरुषोंकी सभामें उसकी साधुता प्रसिद्ध होती, यद्वा जनतामें प्रमाणता प्रख्यात होती है । एवं उस क्षेत्रके अधिष्ठाता देव उसका पक्षपात कर साहाय्य भी किया करते हैं।
भावार्थ-दयालु पुरुषपर किसी प्रकारका अपराध नहीं लग सकता । किंतु जो निर्दय है उसके सिरपर दूसरेपर लगाया हुआ अपराध भी आपडता है; ऐसा आश्चर्यके साथ दृष्टांतपूर्वक बताते हैं:
अन्येनापि कृतो दोषो निस्त्रिंशमुपतिष्ठते ।
तटस्थमप्यरिष्टन राहुमर्कोपरागवत् ॥ १२ ।। दुसरेके द्वारा किया गया दोष-अपराध, तटस्थ भी निर्दय व्यक्तिके सिर आपडता है । जिस तरहसे कि अरिष्ट विमानके द्वारा होनेवाला अर्कोपराग-सूर्यग्रहण गहुके सिर पडता है ।
भावार्थ-सूर्यग्रहण राहुके द्वारा होता है, यह बात जगत्में प्रसिद्ध है। किंतु वह होता है वस्तुतः राहुके तटस्थ समान मंडलवाले अरिष्ट विमानके आच्छादनसे । यथाः- .
१- यहांपर ग्रंथकारने राहुको अरिष्टका तटस्थ जो बताया है सो दोनोंका समान मंडल है इसलिये बताया है न कि एक क्षेत्र की अपेक्षा । क्योंकि दोनोंके क्षेत्रमें बहुत अंतर है। आगमप्रमाणमें भी जा चंद्रमा और सूर्यके नीचे राहु और अरिष्टका विमान बताया है उसका भी अर्थ चंद्रमाके नीचे राहु और सूर्य के नीचे अरिष्ट विमान है । क्योंकि ग्रंथान्तरों में सूर्यसे अस्सी योजन ऊपर चंद्रमाका विमान बताया है। यथा
३
णवदुत्तरसत्तसया दससीदीचदुद्गतियचउकं ।। तारा रवि ससि रिक्खा बुह भागव अंगिरारसणी
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धनगार
८४
राहुस्स अरिदृस्स य किंचूर्ण जोयणं अधोगता ।
छम्मासे पव्वंते चंदरविं छादयन्ति कमा ॥ चंद्रमा और सूर्यके कुछ कम एक योजन नीचे राहु और अरिष्टका विमान है जो कि क्रमसे छह महीने बाद पर्वके अंतमें चंद्रमा और सूर्यका आच्छादन करते हैं। और भी कहा है कि:
राहुअरिट्टविमाणद्धयादुवरि पमाणअंगुलचउक्कं ।
गंतूण ससिविमाणा सूरविमाणा कमे होति ।। राहु और अरिष्टके विमानस्थानसे चार प्रमाणांगुल ऊपर क्रमसे चंद्रमाका विमान और सूर्यका विमान है । इस आगमकथनसे सिद्ध है कि अरिष्टका दोष तटस्थ राहुको लगता है । इसी प्रकार निर्दय पुरुष चाहे वह तटस्थ-निकटवर्ती अथवा उदासीन ही क्यों न हो, उसको दूसरेका भी दोप लगजाता है।
जिस जीवका एक बार कोई अपकार करे तो वह अपने उस अपकर्ताका अनेक वार अपकार करता है यह बात दृष्टान्तद्वारा स्पष्ट करते हैं:
विराधकं हन्त्यसकृद्विराद्धः सकृदप्यलम् । क्रोधसंस्कारत: पार्श्वकमठोदाहतिः स्फुटम् ॥१३॥
एक वार भी यदि किसी जीवका अपकार किया जाय तो अनंतानुबंधी क्रोधके संस्कार-वासनाके वश | होकर वह जीव अपने उस अपकर्ताका अनेक वार अपकार करता है । इसकेलिये उदाहरण ढूंढनेकी आवश्यकता नहीं, पार्श्व और कमठका उदाहरण स्पष्ट है।
अध्याय
१--" नामी चोर मारा जाय"।
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बनगार
२८५
बध्याय
8
भावार्थ - जिसका अपकार किया जाता है उसके मनमें बहुधा ऐसा कषायका संस्कार जम जाता है जो कि अनंत भव भी नहीं छूटता । और जब मौका पाता है तभी उस कषायके वश होकर वह जीव उससे बदला लेना चाहता है । पार्श्वनाथ भगवान् तेईसवें तीर्थंकर के जीवने मरुभूतिके भवमें अपने बड़े भाई कमठका अपकार भी नहीं किया था । फिर भी अपकार समझ कर उसके मनमें जो कषायवासना जमगई और उसके अनुसार समय समयपर जो उसने अपराध किये सो सब पुराणों में स्पष्ट हैं । अत एव किसी भी जीवका कभी भी एक बार भी अपकार नहीं करना चाहिये ।
जो व्यक्ति सदा दयाकी भावना - अनुस्मरण करनेवाली है उसको परम प्रमोदरूप फल प्राप्त होता है। ऐसा उपदेश देते हैं:
तत्त्वज्ञानच्छिन्नरम्येतरार्थप्रीति द्वेषः प्राणिरक्षामृगाक्षीम् ।
आलिङ्गयालं भावयन्निस्तरङ्गस्वान्तः सान्द्रानन्दमङ्गत्यसङ्गः ॥ १४ ॥ मनोज्ञ और अमनोज्ञ पदार्थों में क्रमसे होनेवाले राग और द्वेषको जो तत्त्वज्ञानके द्वारा नष्ट करके और मनको निर्विकल्प बनाकर प्राणिरक्षा - दयारूपी गुणोंका पुनः पुनः स्मरण करता हुआ आलिङ्गन करता है वह अत्यंत निविड आनंदको प्राप्त होता है।
व्यक्ति - परिग्रहरहित यति मृगाक्षी - मृगनयनीका उसके
भावार्थ -- दयाके द्वारा आनन्द फल प्राप्त करनेवालेको असङ्ग शब्दसे जो कहा है उसका अभिप्राय अचेतन परिग्रहोंमेंसे जितनेका त्याग किया जासके उतनेका त्यागी किंतु जिनका वह त्याग न कर सके उके विषय में ममत्वका त्याग करनेवाला है । इसी प्रकार दयाको मृगनयनी - कामिनी कहनेका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार कामिनीका प्रत्येक अंग आनन्दोत्पादक होता है उसी प्रकार दयाका भी प्रत्येक अंश सुखा. वह होता है।
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निमार
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| इस उक्त दयाधर्मकी रक्षाकेलिये विषयत्याग करनेका उपदेश देते हैं:
सवृत्तकन्दली काम्यासुद्भेदयितुमुद्यतः।
यैश्छिद्यते दयाकन्दस्तेऽपोह्या विषयाखवः ॥ १५ ॥ मुमुक्षुओंको वे विषयरूपी मूसे दूर ही से बिडारदेने चाहिये, जो कि उन भव्योंको स्पृहणीय सम्यक्चारित्ररूपी कन्दलीको आविर्भूत करनकोलिये उद्यत हुए दयारूपी कन्दको छिन्न भिन्न करडालते हैं।
भावार्थ-मुमुक्षुओंको इसकेलिये सदा सावधान होकर प्रयत्न करना चाहिये कि अभीष्ट चारित्रकी मूल दयाको कहीं ये विषयरूपी मूसे न कुतर जाय । इन्द्रियोंमें जो विवेकको नष्ट करनेकी सामर्थ्य है उसको बताते है:---
स्थार्थरसकेन ठकवद्विकृष्यतेऽक्षेण येन तेनापि । न विचारसंपदः परमनुम्पाजीवितादपि प्रज्ञा ॥ १६ ॥
स्वार्थलम्पट ठगोंके समान, अपने विषयोंमें लोलुपता रखनेवाली जो इन्द्रियां प्रज्ञा--यथावत अर्थक ग्रहण करनेकी शक्तिको धारण करनेवाली विशिष्ट बुद्धिको उसकी विचार संपत्तिसे दूर करदेती हैं । वे अपने निमित्तके वश बल पाकर, इतना ही नहीं--उस प्रज्ञाकी विवेकश्रीका अपहरण ही नहीं करती किंतु अनुकम्पा -दयासे भी उसको रहित करदेती हैं। जो कि उसका जीवन है।
बध्याय
... भावार्थ--जिस प्रकार कोई ठग अपना काम- स्वार्थ सिद्ध करनकोलिये किसी अतिविदग्ध भी स्त्रीकी संपत्ति भूषणादिका अपहरण करलेता और अंतमें उसको जीवनरहित बना देता है। उसी प्रकार विषयलो
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चनगार
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बध्याय
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लुप इन्द्रियां विशिष्ट भी बुद्धिकी संपत्ति - युक्तायुक्तकी विवेकशक्तिको अपहरण करलेती और अंतमें उसको क रुणा - परिणामसे भी प्रच्युत कर मिथ्यात्वदशाको प्राप्त करा देती हैं। अत एव मुमुक्षुओंको सदा इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करनेके ही लिये प्रयत्न करना चाहिये ।
विषयी पुरुषकी दुर्गति दिखाते हैं:
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विषयाभिलाषलाम्पट्यात्तन्वन्नृजु नृशंसताम् । लालामिवोर्णनाभोऽधः पतत्यहह दुर्मतिः ॥ १७ ॥
इष्ट विषयविशेष आभिष- मांसकी लम्पटता लोलुपतासे जो दुर्मति- विषयाभिलाषासे दूषित हो गई है। धिषणा - बुद्धि जिसकी ऐसा पुरुष सामने ही नृशंसताको बढाता है, आद! कितने कष्टकी बात है कि, वह अपनी लाला लारको बढानेवाले ऊर्णनाभ कीडे - मकडीकी तरह अधोगति - नरकादिकमें ही जा पडता है।
भावार्थ - जिस प्रकार मकडी प्राणिभक्षण के अभिप्रायसे अपने मुखमे ही लार निकाल कर जाल पूरती है किंतु स्वयं उसमें फंस जाती और लटक रहती है। उसी प्रकार मांसका लोलुपी मनुष्य नृशंसता करने के कारण स्वयं ही अधोगतिको प्राप्त हो जाता है।
जो विषयोंसे निस्पृह रहता है उसके इष्टकी सिद्धि होती है ऐसा बताते हैं:
यथाकथंचिदेकैव विषयाशापिशाचिका ।
क्षिप्यते चाप्यालं सिध्यतीष्टमविघ्नतः ॥ १८ ॥
Jaaaaaaaa T
धर्मं :
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अनगार
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अधिक कहनस क्या प्रयोजन ? क्योंक और आधिक बोलना प्रलाप ही समझा जायगा । अत एव इतना कहदेना ही पर्याप्त है कि मोक्षार्थी भव्य एक विषयाशा इन्द्रियोंके अभीष्ट विषयोंकी लिप्सारूपी पिशाची-चुडेलग ही यदि किसी तरहसे-ज्ञानाराधनासे वैराग्य भावनासे अथवा अन्य किसी उपायसे निराकण करदे-उसको दूर करदे तो उनका अभीष्ट-प्रकृतमें सम्यक् चारित्रका मूलभूत दयाधर्म निर्विघ्नतया--अच्छी तरह सिद्ध हो जाय । क्योंकि उसकी सिद्धिका एकमात्र निबंधन विषयनिस्पृहता ही है।
इस अध्याय और प्रकरण के प्रारम्भमें सुचारिवरूपी छायावृक्षका मूल दया और स्कन्ध समीचीन व्रत हैं। सों बना चुके हैं। उसमेंसे दयामूलका समर्थन किया। अब समीचीन बत क्रमप्राप्त है। अत एव व्रतोंका, स्वरूप बताते हैं:
हिंसाऽनृतचुराऽब्रान्वेन्यो बिरातिर्बतम् । ..
तत्सत्सज्ञानपूर्वत्वात् सदशश्चोपबृंहणात् ॥ १९ ॥ हिंसा झूठ चोरी कुशील और परिग्रह इन पांच पापोंसे उपरति होनेको-मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदनाके द्वारा इन पापोंके छोडने को बेत कहते हैं । ये व्रत सम्यग्ज्ञानपूर्वक होते हैं, इनके उत्पन्न होने में सम्यग्ज्ञान कारण है । तथा इनके द्वारा सम्यग्दर्शनकी वृद्धि होती है । अत एव ये समीचीन या प्रशस्त कहे जाते हैं। .
हिंसादि पापोंका विशेष लक्षण आगे चलकर लिखेंगे । फिर भी सामान्यसे इतना अवश्य समझलेना चाहिये कि प्रमादके संबंध प्राणोंके व्यपरोपणको हिंसा, असर्मा न वचनोंको झूठ, विना दी हुई वस्तुके ग्रहण करनेको चोरी, मैथुनकर्मको कुशील और मूपिरिणामोंको परिग्रह अथवा ग्रंथ कहते है।
अध्याय
NERHEARTHEARBLEKHNERE
१-ये पांची ही व्रत दो प्रकारके हैं-महाव्रत और अणुव्रत । किंतु अणुव्रतोंमें एक छडा व्रत रात्रिभोजन त्याग और भी बताया है।
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अनगार
२८९
अध्याय
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इन तसें पहला अहिंसा व्रत समस्त जीवोंके विषय में हुआ करता है। और अचौर्य तथा परिग्रहत्याग समस्त द्रव्य के विषय में हुआ करती है । एवं सत्यव्रत और मैथुनत्याग द्रव्यके एकदेश में हुआ करते हैं। जैसा कि आगम में भी कहा है; -
पदम सव्वजीवा विदिये चरिमे य सव्वदव्वाणि । सेसा महव्वदा खलु तदेकदेस िदव्वाणं ||
समस्त जीव पहले व्रत
विषय हैं, तीसरा और अन्तिम व्रत समस्त द्रव्योंके विषयमें हुआ करता है और बाकी व्रत द्रव्योंके एकदेश विषयमें होते हैं ।
इम व्रतोंके विषय में विशेष वर्णन करने के पहले उनके माहात्म्यका वर्णन करते हैं:
अहो व्रतस्य माहात्म्यं यन्मुखं प्रेक्षतेतराम् । उद्यातिशयाधाने फलसंसाधने च दृक् ॥ २० ॥
उद्योत - शंकादिकमलोंका दूर करना, अतिशयाधान-कमका क्षपण करनेवाली शक्ति में उत्कर्षताका संपादन, और फलसंसाधन - इन्द्रादि पदसे लेकर निर्वाणपर्यंत अथवा अनेक प्रकारके अपायनिवारणरूप फलका साक्षात् उत्पन्न करना; अपने इन कार्योंके करनेमें सम्यग्दर्शन को जिसका मुख अच्छी तरह देखना पडता हैजिसकी प्रधान सामर्थ्य की अतिशयरूपसे अपेक्षा रखनी पडती है उस व्रतके माहात्म्यका, अहो, कौन वर्णन कर सकता है ?
अ. घ. २७
मावार्थ – जब कि अचिन्त्य शक्तिके धारक सम्यक्त्वको भी व्रतों की अपेक्षा है तब इनका अचिन्त्य मा
179799777
धर्म०
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बनमार
S
हात्म्य स्वयं सिद्ध है । यद्यपि यहांपर संक्षेपसे एक सम्यक्त्व ही अथवा सम्यक्त्व और चारित्र दो ही आराध्य बताये हैं; किंतु प्रेक्षतेतरां इस शब्द के साथ जो तरां यह प्रत्यय लगा हुआ है-अपेक्षा रखनेमें अतिशयरूपसे ऐसा जो कहा है- उसमें ज्ञानकी ही अपेक्षा है। क्योंकि उद्द्योतादिक साध्योंके विषयमें सम्यक्त्वको ज्ञानमुखकी भी अपेक्षा रखनी पडती है।
व्रत दो प्रकारके हुआ करते हैं, एक महाव्रत दूसरे अणुव्रत । इन दोनो व्रतोंके स्वामियोंको बताते हैं:
स्फुरद्वोधो गलद्वृत्तमोहो विषयनि:स्पृहः ।
हिंसादेविरत: कात्याद्यतिः स्याच्छ्रावकोंशतः ॥ २१ ॥ स्फुरायमान ज्ञान, चारित्रमोहनीयका अभाव, और विषयोंमें निस्पृहता इन तीन गुणोंसे युक्त जो जीव हिंसादिक पापोंका सर्वथा त्याग करता है उसको यति और जो अंशत:--एकदेश त्याग करता है उसको श्रावक कहते हैं।
भावार्थ--महाव्रतोंका स्वामी यति और अणुव्रतोंका स्वामी श्रावक होता है। किंतु दोनों ही में तीन गुणों की आवश्यकता है । प्रथम तो यह कि उस जीवका ज्ञान जीवादिक तत्वोंमें जो हेय उपादेय
और उपेक्षणीय हैं उनमें उसी प्रकारसे प्रकाशमान--जाग्रत् होना चाहिये । दूसरा यह कि उसका चारित्रमोहनीय कर्म क्षयोपशमरूपसे हीन होता जाना चाहिये । महाव्रतके स्वामियोंके अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान मा
अध्याय
२९.
१-प्रत्याख्यानावरगके क्षयोपशमतक ही कहनेका प्रयोजन यह है कि आजकल यहांके जीवोंके सामायिक छेदोपस्थापना और संयमासंयम ही संभव है।
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अनगार
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अध्याय
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या लोभका क्षयोपशम होना चाहिये। तीसरा यह कि उसको विषयोंमें निस्पृहता हो । दृष्ट श्रुत और अनुभूत भोगोपभोगों में उसकी अभिलाषा न हो ।
इन व्रतका विशेष व्याख्यान करनेकी इच्छासे क्रमानुसार पहले चौदह श्लोकोंमें अहिंसा व्रतकी व्या या करते हैं । किंतु अहिंसाका स्वरूप समझनेकेलिये पहले हिंसा के स्वरूपका ज्ञान होना चाहिये । अत एव यहां पर पहले हिंसाका ही लक्षण बताते हैं :--
सा हिंसा व्यपराप्यन्ते यत् सस्थावराङ्गिनाम् । प्रमतयोगतः प्राणा द्रव्यभावखभावकाः ॥ २२ ॥
प्रमत्त योगसे त्रस और स्थावर जीवोंके यथासंभव द्रव्य और भाव प्राणका जो व्यपरोपण होता है उसको हिंसा कहते हैं।
अथवा तीव्र कषायके उदयसे युक्त प्रयत्न करता है उसको, यद्वा राजा प्रवृत्त होता है उसको प्रमस कहते
भावार्थ - इन्द्रियप्रचारको न रोककर जो प्रवृत्ति करता है उसको होकर जो हिंसादिके कारणोमें तो प्रवृत्ति करता किंतु अहिंसामें शठतासे चोर भोजन और स्त्री इनकी कथाओं पंच इन्द्रियों और निद्रा तथा स्नेहमें जो हैं। प्रमत्त पुरुषके मन वचन और कायके द्वारा होनेकाले कर्मको कार्यको प्रमतयोग कहते हैं । अथवा प्रमाद शब्दका अर्थ सकषायता भी होता है । अत एव रागद्वेषादिके वश होकर जो मनवचनादिकी प्रवृत्ति होती है उसको भी प्रमत्तयोग कहते हैं। इस प्रमतयोगसे जिन प्राणोंका व्यपरोपण होता है वे प्राण दश प्रकारके हैं । यथाः
१ - जिनका संयोग रहने तक " जीव जीता " और वियोग होनेपर " मरगया " ऐसा व्यवहार होता उनको प्राण कहते हैं ।
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बनगार
धर्म
पंचवि इंदियपाणा मणवचिकायेसु तिग्णि बलपाणा ।
आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण हुंति दह पाणा ।। पांच इन्द्रिय -स्पर्शन रसन घाण चक्षु श्रोत्र, तीन बल मन वचन काय, एक श्वासाच्छास और एक आयु, ये दश प्राण हैं । ये दो प्रकारके हुआ करते हैं-एक द्रव्यप्राण दूसरे भावप्राण । चित्सामान्य के सम्बन्धसे उसके अनुसार प्रवृत्ति करनेवाले पुद्गलपरिणामको द्रव्यप्राण, ओर पुद्गलसामान्यके सम्बन्धसे अनुप्रवृत्ति करनेवाले चित्परिणामको भावप्राण कहते हैं। संसारी जीव यथायोग्य इन दोनो ही प्राणों के धारक होते हैं। इन्ही संसारी जीवों के दो भेद हैं-एक त्रस दूसरे स्थावर । उक्त पांच इन्द्रियोंमेंमे आदिकी दो आदि इन्द्रियोंके धारकको त्रस ओर, एक पहली ही इन्द्रियके धारकको स्थावर कहते हैं। जो कि इन्द्रियां अपने अपने स्पर्शादिक विषयको पृथक् पृथक् विषय किया करती हैं-जानती हैं । अत एव त्रस चार प्रकारके हैं-द्वीन्द्रय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय ओर पंचेन्द्रिय । इनके भी उत्तर भेद अनेक हैं। यथाः
जलूकाशुक्तिशम्बूकगण्डूपदकपर्दिकाः। जठरकृमिशङ्खाद्या द्वींद्रिया देहिनो मताः ॥ कुन्थुः पिपीलिका कुम्भी यूकामत्कुणवृश्चिकाः । कर्के टकेन्द्रगोपाद्यास्त्रींद्रियाः संति देहिनः । पतङ्गा मशका दंशा मक्षिकाकीटगर्मुतः । पुत्रिकाचश्चरीकाद्याश्चतुरक्षाः शरीरिणः ।। नारका मानवा देवास्तियञ्चश्व चतुर्विधाः ।
सामान्येन विशेषेण पञ्चाक्षा बहुधा स्थिताः ॥ जोंक शीप शम्बूक गिडोले कौडी, पेट में पडजानेवाले कीडे और शंख प्रभृति जीव द्वीन्द्रिय हैं । कुन्थु चेंटी कुम्भी जूं खटमल विच्छू कर्कोटक इन्द्रगोप-वर्षातमें होनेवाले मखमली कीडे आदि त्रीन्द्रिय जीव हैं। पतंग मच्छड
अध्याय
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बनमार
डांस मक्खी कीट गर्मुत पुत्रिका भ्रमर इत्यादि चतुरिन्द्रिय जीव हैं । नारक मनुष्य देव और चार प्रकारके तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव हैं । ये सामान्यसे भेद गिनाये हैं। विशेषतासे बहुत भेद होते हैं।
उक्त इन्द्रियां दो प्रकारकी होती हैं-एक भाव दूसरी द्रव्य । भावेन्द्रिय लब्धि और उपयोगरूप हैं। द्रव्येन्द्रियोंका आकार बताते हैं:
यवनालमसूरातिमुक्तकेन्द्र्धसन्निभाः। .
ओबाक्षिघ्राणजिह्वाः स्युः स्पर्शनोऽनेकधाकृतिः ॥ र स्पर्शन जौकी नलीके समान, चक्षु मसूरके समान, घ्राण तिलके फूलसमान, और जिव्हा अर्ध चन्द्रमाके समान है । किंतु स्पर्शनेन्द्रियके आकार अनेक हैं । ..उक्त द्वीन्द्रियादिक त्रस जीव जहांपर पाये जाते हैं उस क्षेत्रको बताते हैं:
उववादमारणंतियजिणकवाडादिरहिय सेस तसा । तसनाडिबाहिरह्मि य स्थित्ति जिणेहि णिठ्ठि ।
उपपादजन्मवाले मारणान्तिक समुद्घातकके और केवल समुद्घातवाले जीवोंको छोडकर बाकि त्रस जीव सनाडीके बाहर नहीं पाये जाते ।
एकेन्द्रिय जीवोंका स्वरूप उ.पर लिख चुके हैं कि एक स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा ही जिनको ज्ञान होता है । इनके पांच भेद हैं। पृथिवी जल अग्नि वायु और वनस्पति । यद्यपि इनका कोई बुद्धिपूर्वक व्यापार देखने में नहीं आता; फिर भी जिस प्रकार अंडे में त्रस जीव सिद्ध है उसी प्रकार ये भी जीव हैं। यह बात निश्चित है । कहा भी है कि,
मध्याय
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अंडेसु पवठ्ता गम्भट्टा माणुसा य मुच्छगया।
जारिसया तारिसया जीवा एगिदिया णेया ।। जिस तरह अंडोंमें जर्जाव रहा करते हैं या गर्भ में जीव होते हैं अथवा मार्छित मनुष्य हुआ करते हैं उसी प्रकारके एकेंद्रिय जीव भी होते हैं।
इन्ही एकेन्द्रिय जीवोंको पांच स्थावर कहते हैं । ये दो प्रकारके होते हैं-एक सूक्ष्म दूसरे बादरस्थूल । सूक्ष्म स्थावर सर्वत्र लोकमें भरे हुए हैं । बादर स्थावरोंमेसे पृथिवी आदिके भेद क्रमसे इस प्रकार हैं:
मृत्तिका बालुका चैव शर्करा चोपलः शिला । लवणायस्तथा तामं वपुः सीसकमेव च ॥ रूप्यं सुवर्ण वन च हरितालं च हिंगुलम् । मनःशिला तथा तुत्थमञ्जनं च प्रवालकम् ।। झीरोलकाभ्रकं चैव मणिभेदाश्च बादराः । गोमेदो रुजकोऽश्व स्फटिको लोहितप्रभः । वैरिकश्चन्दनश्चैव बर्वरो वक एव च ।। मोचो मसारगल्वश्च सर्व एते प्रदर्शिताः ।
संरक्ष्याः पृथिवीजीवा यतिभिज्ञानपूर्वकम् ।। मट्टी बालू शर्करी उपल शिला लवण लोहा तांबा संग सीसा चांदी सोना बन हडताल हिंगुल मेनशिल तूतिया अंजन प्रवाल झीरोलके अभ्रक गोमेद रुचक अंक स्फटिक लोहितप्रभ वैडूर्य चन्द्रकान्त जलकान्त सूर्यकान्त
अध्याय
१-तिकौनी चौकोर आदि अनेक तरहकी आतिरूक्ष कंकडी । २- गोल पत्थरके टुकडे । ३-सुरमा । ४मंगा । ५-अभ्रककी बालू-मुडभुड । ६-गोरोचनकेसे रंगकी मणि जिसको कर्केतन भी कहते हैं । ७-राजावर्त मणि जिसका रंग अलसीके फूलकासा होता है। (-पुलिक मणि जिसका रंग प्रवालकासा होता है।९ पद्मराग ।
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अनगार
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बध्याय
गैरिक चन्देन र वक मोच और मसारंगल | ये सब पृथिवी कायिक जीवोंके भेद हैं जिनकी कि महा अहिंसा व्रत के पालक यतियोंको रक्षा करनी चाहिये । पृथिवीके इन्ही भेदों में आठो पृथिवी मेरु आदि पर्वत द्वीप विमान भवन वेदिका प्रतिमा तोरण स्तूप चैत्यवृक्ष जम्बूवृक्ष शाल्मलिवृक्ष घातकी वृक्ष और रत्नाकर आदि अन्तर्भूत हैं ।
इसी प्रकार जलकायके भी अनेक भेद हैं; यथा
अवश्यायो हिमं चैव मिहिका विन्दुशीकराः । शुद्धं घनोदकं चाम्बुजीवा रक्ष्यास्तथैव ते ।।
अवश्याय - ओस, हिम - तुषार, मिहिका - ओद - कुहर, बिन्दु, शीकर- सूक्ष्म बिन्दुकण, शुद्ध-चन्द्रकान्तादिकका अथवा हालका वर्षा हुआ जल, घनोदक- समुद्र तलाव और घनवातादिकसे उत्पन्न हुआ जल, एवं बावडी झरना ओला आदि जलकायिक जीवोंके अनेक भेद हैं। इनकी भी यतियोंको यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये ।
अग्निकायिक के भेद -
ज्वालाङ्गारस्तथाचैिश्च मुर्मुरः शुद्ध एव च । अनलचापि ते तेजोजीवा रक्ष्यास्तथैव च ॥
ज्वाला, अङ्गार, अर्चि-किरण, मुर्मुर -- अन्ने कण्डेकी अग्नि, शुद्ध – वज्र बिजली सूर्यकान्तादिकसे उत्पन्न
१- रुधिर मणि, इसका रंग गेरूकासा होता हैं । २- मणिविशेष, इसका वर्ण और गंध चंदनकासा होता है । ३-मरकत मणि- पन्ना । ४–पुखराज । ५ - नीलम । ६- मणिविशेष, जिसका रंग मूंगाकासा होता है । ७--सात नरकभूमि और एक सिद्धशिला ।
धर्म
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हुई, अनल-सामान्य, इसके सिवाय स्फुलिङ्ग बडवानल नन्दीश्वरधुमकुण्ड, और अग्निकुमारोंकी मुकुटानल आदि अग्निकायिक जीवोंके अनेक भेद हैं जिनकी कि यतियोको रक्षा करनी चाहिये ।
वायुकायिकके भेद- .
बनगार
वात उद्भवकश्चान्य उत्कलिर्मण्डलिस्तथा। महान् घनस्तनुगुञ्जास्ते पाल्याः पवनाडिनः ॥
वात उद्भ्रम उत्कालि मण्डलि महान् धन गुञ्जा इत्यादि वायुके अनेक भेद हैं । सामान्य वायुको वात, जो घूमती हुई ऊपरको चली जाती है उसको उद्धम, लहरियोंको उत्कलि, जमीनसे लगी हुई किंतु घूमती हुई जो चलती है उसको मंडलि, जो वृक्षादिकको भी उखार डाले ऐसी आंधीको महान्, सघनको घन, पंखे आदिके द्वारा की गई पनली वायुको तनु, उदरमें रहने वाली पांच प्रकारकी प्राण अपान व्यान संव्यानरूपको गुजा कहते हैं। लोकाच्छादक एवं भवन विमानोंकी आधारभूत जो वायु है वह भी इसी में अन्तर्भूत हो जाती है। इन वायुकायिक जीवोंकी भी यतियोंको रक्षा करनी चाहिये ।
वनस्पतिके भेद गिनाते हैं:मूलाप्रपर्वकन्दोत्थाः स्कन्धबीजसमुद्भवाः । सम्मूर्छिमास्तथानन्तकायाः प्रत्येककायिकाः ।।. स्वरमूलकन्दपत्राणि प्रवालः प्रसवः फलम् । स्कन्धो गुच्छस्तथा गुल्मस्तृणं वल्ली च पर्व च । । शवलं पणक: किण्व कवकः कुहणस्तथा। वादराः सूक्ष्मकायास्तु जलस्थलनभोगताः ।। गूढसन्धिशिरःपर्वसमभङ्गमहीरुकम् ।
BAMSREEHEENTERERENA NENERANS NSAREERE RASARAKAASHASTEHRELESARHEOREHEETARATE
अध्याय
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बनगार
छिन्नोद्भवं च सामान्यं प्रत्येकमितरद्वपुः ।। वल्लीवृक्षतृणाद्यं स्य देकाक्षं च वनस्पतिः ।
परिहायो भवन्त्येते यतिना हरिताङ्गिनः ।। वनस्पति दो प्रकारकी होती है। एक साधारण, दूसरी प्रत्येक । जिसका शरीर साधारण है-जहांपर एक ही शरीरमें सामान्य रूपसे अनन्त निगोद जीव रहते हैं उसको साधारण या अनन्तकाय कहते हैं । यथा स्नुही दुधी, गुडूची इत्यादि । जिस शरीरमें मुख्यतया एक ही जीव रहता है-जिन वनस्पति जीवोंका शरीर भिन्न भिन्न होता है उसको प्रत्येक शरीर कहते हैं; जसे सुपारी नारियल । इसके दो भेद हैं, एक सप्रतिष्ठित दूसरा अप्रतिष्ठित । जिसके आश्रयसे दूसरे निगोद जीव भी रहें उसको सप्रतिष्ठित और जिसके आश्रयसे निगोद जीव न रहें उसको अप्रतिष्ठित कहते हैं । यथाः
एकमेकस्य यस्याङ्गं प्रत्यकाङ्गः स कथ्यते ।
साधारणः स यस्यांगमपरैबहुभिः समम् ।। जिस एक जीवका एक ही शरीर होता है उसको प्रत्येकशरीर कहते हैं, और जिस शरीरमें दूसरे भी वहुतसे जीव साथमें रहें उसको साधारण कहते हैं। साधारण-अनन्तकाय वनस्पतियोंकी त्याज्यताके विषय में कहा है कि:
एकमपि प्रजिघांसुर्निहन्यनन्तान्यतस्ततोऽवश्यम् ।
करणीयमशेषाणां परिहरणमनन्तकायानाम् ॥ साधारणोंमें एकके मरने मारनेपर अनन्त जीवोंकी मृत्यु होती है अत एव उन सबका त्याग अवश्य करदेना चाहिये।
अध्याय
अ.प. ३८
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भनगार
२९८ |
उक्त वनस्पति अनेक प्रकारकी होती हैं-कोई तो मूलसे ही उत्पन्न होती हैं। जैसे हल्दी अदरक इत्यादि । कोई अग्रसे उत्पन्न होती हैं, जैसे गुलाब वेला चमली इत्यादि । कोई पर्वसे उत्पन्न होती हैं; जैसे ईख वेंत आदि । कोई कन्दसे उत्पन्न होती हैं। जैसे सकल कन्दी पिण्डालू इत्यादि । कोई स्कन्धसे उत्पन्न होती हैं। जैसे पलाश आदिक । और कोई बीजसे उत्पन्न होती हैं जैसे जौ गेहूं मूग मोठ आदि । ये मूलादिकसे उत्पन्न होनेवाली सभी वनस्पती सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित दोनो तरहकी होती हैं। इसके सिवाय सम्मर्छन वनस्पती भी होती हैं जो कि मूलादिक बीजके बिना ही अपनी उत्पत्तिके योग्य पुद्गलोंके मिलजानेपर उत्पन्न होजाया करती हैं। जैसे घास आदि । क्योंक देखा जाता है कि कितने ही जीव विना बीजके भी उत्पन्न होजाया करते हैं; जसे कि शृङ्गसे सार और गोवरसे विच्छू । उसी प्रकार सम्मूर्छन वनस्पति भी हैं । इससे वनस्पति दो प्रकारकी समझनी चाहिये एक बीजोद्भव दूसरी सम्मृर्छन ।
त्वचा मूल कन्द पत्र प्रबाल प्रसव फल स्कन्ध गुच्छा गुल्म तृण वल्ली पर्व शैवल पणक किण्व कव- ' क और कुहण । ये सब बादर वनस्पतियोंके भेद हैं । इनके सिवाय सूक्ष्म वनस्पति भी हैं जो कि स्थल और आकाश सर्वत्र व्याप्त हैं।
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वृक्षकी छालको त्वचा, जडको मूल और गड्डाको कन्द कहते हैं । पत्ते प्रसिद्ध हैं । जिसपर केवल पत्ते ही आते हैं, फल फूल नहीं आते उसको पत्र, जिसपर बिना फूलके ही फल आजाते हैं उसको फल, जिसपर केवल फूल ही आते हैं फल नहीं आते उसको पुष्प वनस्पति कहते हैं । स्कन्धसे पर्वपर्यन्त शब्दोंका अर्थ स्पष्ट है। जलमें जो हरी हरी काई होती है उसको शवल, गीली ईट जमीन और दीवालपर जो काई लग जाती है उसको पणक, वर्षाकालमें उत्पन्न होनेवाली छत्राकारादि वनस्पतियोंको किण्व, जटाकार वनस्पतिविशेषको कवक, और आहार कांजी आदिपर जो फफरूंदा आजाता है उसको कुहण कहते हैं।
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अध्याय
१- मूलमें पत्र शब्दसे वृक्षका अवयव पत्ता और प्रवाल शब्दसे पत्र जातिकी वनस्पतिके बतानेका प्रयोजन है।
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अनगार
उक्त पृथिवी कायिकादिक पाचों ही स्थावर बादर हैं, पांचों ही सूक्ष्मकाय भी होते हैं। जिनके कि अंगुलासंख्यातवें भाग शरीग्नाम कर्मका उदय रहता है ।
जिनकी संधि सिरा और पर्व गूढ अदृश्यमान रहता है, जो त्वचारहित और तन्तुवर्जित है, एवं छिन्न होनेपर भी जो उलह आती है उसको सप्रतिष्ठित प्रत्यक और बाकी बल्ली वृक्ष तृण आदिको अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं।
प्रत्येक शरीर और साधारण शरीरवाले जीवोंकी यतियोंको रक्षा करनी चाहिये। क्योंकि ये सब हरित कायके जीव हैं । ये जीव हैं यह बात आगम और युक्ति दोनोंसे सिद्ध है। क्योंकि संपूर्ण त्वचाके उपाट लेनेपर उनका मरण हो जाता है और उनमें आहारादि संज्ञाओंका अस्तित्व भी पाया जाता है । जलसे वनस्पतियां हरी रहती हैं। इममे उनमें आहार संज्ञाका, छूनेसे संकुचित होती हैं। इससे उनमें भयसंज्ञाका, कामिनियोंके कुरला आदिमे हर्ष विकासादिक होता है। इससे उनमें मैथुनसं ज्ञाका, और जिधर धन होता है उसी दिशामें जड अधिक जाती है। इससे उनमें परिग्रहसंज्ञाका सद्भाव सिद्ध होता है।
___ ऊपर निगोद जीवोंका उल्लेख किया है । अत एव उसका स्वरूप भी यहां बता देना उचित है । वह आगममें इस प्रकार बताया है:
साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहणं च । साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं भणियं ॥ . जत्येक्कु मरवि जीवो तत्य दु मरणं हवे अणंताणं । चंकमइ जत्थ इको चकमणं तत्थऽणताणं ॥ एकणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्पमाणदो दिठ्ठा । सिद्धहिं अणंवगुणा सम्वेण वि तीदकालेण ॥
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SENS
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बनगार
३
साधारण-निगोद जीवोंका लक्षण साधारण ही है। क्योंकि एक जगहपर जितने अनंतानंत निगोद जीव रहते हैं उन सबका समान आहार और समान ही श्वासोच्छ्वासका ग्रहण होता है। उनमें से यदि एक मरता है तो वे अनन्तानन्त भी मरजाते हैं । और एक यदि उत्पन्न होता है तो अनन्तानन्त उत्पन्न होते हैं। एक निगोदियाके शरीरमें द्रव्यप्रमाणकी दृष्टिसे सिद्धोंसे और समस्त भूतकालसे अनंतगुणे जीव रहते हैं । निगोद जीव दो प्रकारके होते हैं -नित्यनिगोद आर अनित्यनिगोद । यथा:
त्रसत्वं ये प्रपद्यन्ते कालानां त्रितयेपि नो । ज्ञया नित्यनिगोतास्ते भूरिपोपवशीकृताः ॥ कालत्रयेपि ये वस्त्रसता प्रतिपद्यते ।
सन्त्यनित्यनिगोतास्ते चतुर्गतिविहारिणः । अत्यंत पापके वश हुए जिन जीवोंने तीन काल में भी त्रस पर्याय नहीं प्राप्त की उनको नित्यनिगोद कहते हैं। और जिन्होंने तीन कालमें कभी भी त्रस पर्याय प्राप्त कर ली है उनको अनित्यनिगोद कहते हैं। . पृथिवी आदिक जो पांच स्थावरोंके भेद गिनाये हैं उनमें प्रत्येकके चार चार भेद हैं-सामान्य, काय, कायिक और जीव । जैसे कि पृथिवी, पृथिवी काय, पृथिवी कायिक, पृथिवी जीव । इनका लक्षण आगममें इस प्रकार बताया है:
अध्याय
१- गोमट्टसार जीवकाण्डमें नित्यनिगोदका स्वरूप इस प्रकार कहा है
अत्थि अणंता जीवा जेहिं ण पत्तो तसाण परिणामो,
भावकलंकसुपउरा णिगोदवासं ण मुंचंति ॥ जिन्होंने अबतक व्यवहार राशि प्राप्त नहीं की है उनको नित्यनिगोद कहते हैं ।
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बनगार
SRASSSS
धर्म
३.१
क्ष्माद्याः साधारणाःक्ष्मादिकाया जीवोज्झिताः श्रिताः।
जीवैस्तत्कायिकाः ज्ञयास्तज्जीवा विग्रहेतिगैः ।। सामान्य पृथिवीको पृथिवी, जिसको जीवने शरीर बनाकर छोडदिया है उसको पृथिवी काय, जिसको जीव शरीर बनाकर रह रहा है उसको पृथिवी कायिक, विग्रहगतिमें रहने वाले उन जीवोंको जिनके कि पृथिवी नाम, कर्मका उदय है। पृथिवी जीव कहते हैं। जिस प्रकार यहां पृथिवीके भेद बताये उसी प्रकार जलादिकके भी समझना । इनमें अन्त्यके जो दो जीव हैं उनकी संयमियोंको रक्षा करनी चाहिये । इन जीवोंके शरीरका आकार इस प्रकार बताया है:
समानास्ते मसूराम्भोबिन्दुसूचीव्रजध्वजः।।
धराम्भोग्निमरुत्कायाः क्रमाञ्चिन्त्यास्तरुत्रसाः॥ पृथिवीकायका मसूरके समान, जलकायका जलबिन्दुके समान, आग्नकायका सुइयोंके समूहके समान और वायुकायका आकार ध्वजाके समान है। किंतु वनस्पति और त्रस जीवोंका आकार एक प्रकारका नहीं; विविध प्रकारका है।
* ऊपर जो प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित भेद गिनाये हैं वे केवल वनस्पतिके ही नहीं; समस्त संसारियों के हैं। यथाः
प्रत्यककायिका देवाः श्वाभ्राः केवलिनोद्वयम् ।। आहारकधगतोयषावकानिलकायिकाः ।। निगोतबादरे: सूक्ष्मैरेते सन्त्यप्रतिष्ठिताः ॥
.. पञ्चाक्षा विकला वृक्षजीवाः शेषाः प्रतिष्टिताः ।। देव नारकी दोनो प्रकारके केवली पृथिवी जल अग्नि और वायुकायिक जीवोंके शरीर तथा आहारक श
बध्याय
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बनगार
रीर सूक्ष्म एवं बादर निगोदियाओंसे प्रतिष्ठित नहीं है। बाकीके पंचेन्द्रिय विकलेन्द्रिय और वनस्पति जीवोंके शरीर प्रतिष्ठित हैं।
जिन प्राणोंके व्यपरोपणसे हिंसाका महापाप लगता है वे प्राण दश हैं ऐसा पहले बताचुके हैं। कितु किस संसारी जविके कितने प्राण हैं यह बात आगमके अनुसार समझलेनी चाहिये । जो कि इस प्रकार है
सर्वेष्वङ्गेन्द्रियापि पूर्णेष्वानः शरीरिषु । वाग द्वित्र्यादिहृषीकेषु मनःपूर्णेषु संज्ञिषु ।। ते संज्ञिनि दशैकैको हीनोन्यध्वन्त्ययोद्वय ।
अपर्याप्तषु सप्ताधोरेकैकोन्येषु हीयते ॥ कायबल इंद्रिय और आयु ये तीन प्राण सभी जीवोंके होते हैं । श्वासोच्छास पर्याप्तकोंके ही होता है। वचनबल दींद्रिय त्रीन्द्रिय आदि पर्याप्तकोंके और मनोबल प्राण पर्याप्त संज्ञियोंके ही होता है। इस प्रकार पर्याप्तकोंमें संज्ञियोंके दश और, आगे चलकर एक एक प्राण कम होता गया है । किंतु अन्तिम-एकेन्द्रियके दो प्राण कम होते हैं। अपर्याप्तकोंमें संज्ञी असंज्ञी पंचेन्द्रियके मन वचन और श्वासोच्छासको छोडकर सात प्राण होते हैं । और आगे चलकर एक एक इन्द्रियप्राण कम होता गया है । अत एव चतुरिन्द्रियोंके छह, त्रीन्द्रियोंके पांच, द्वीन्द्रियोंके चार और एकेन्द्रियोंके तीन प्राण होते हैं।
१-संज्ञी पंचेंद्रियोंके पांच इंद्रिय, तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्रास ये दश, असंज्ञी पंचेंद्रियोंके मनको छोड कर || नव, चतुरिन्द्रियोंके श्रोत्रको छोडकर आठ, श्रीन्द्रियोंके चक्षुको छोडकर सात, द्वन्द्रियों के प्राणको छोड कर छह और एकेन्द्रियोके रसना तथा वचनको छोडकर चार प्राण होते हैं।
बध्याय
३०२
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बनगार
३०३
ऊपर पर्याप्तक और अपय तक दो भेद करके प्राणोंकी गणना की है। किंतु यह नहीं बताया कि पर्याप्त किसको कहते हैं । अत एव इन दोनोंका लक्षण आगमके अनुसार यहां बता देते हैं:--
गृहवस्त्रादिकं द्रव्यं पूर्णापूर्ण यथा भवेत् । पूर्णेतरास्तथा जीवाः पर्याप्ततरनामतः ।। आहारांगेद्रियप्राणवाचः पर्याप्तयो मनः । चतस्रः पञ्च षट् चैकद्वयक्षादौ संझिनां च ताः ।। पयाप्ताख्योदयाज्जीवः स्वस्वपयाप्तिनिष्ठितः । वपुयावदपर्याप्त तावनिर्वृत्त्यपूणकः ॥ निष्ठापयेन पयाप्तिमपूणस्योदये स्वकाम् ।
सान्तर्मुहूर्तमृत्युः स्याल्लब्ध्यपर्याप्तकः स तु ॥ जिस प्रकार संसारमें मकान वस्त्र वर्तन आदि द्रव्य पूर्ण और अपूण दो प्रकारके हुआ करते हैं । उसी प्रकार संसारी जीव भी पूर्ण अपूर्ण दो तरहके हुआ करते हैं । इन्हीको पर्याप्त अपर्याप्त कहते हैं । आहारादि परिणमन जिससे होते हैं उस शक्तिके कारणोंकी निष्पत्ति पूर्णताको पर्याप्ति कहते हैं । ये पर्याप्ति छह प्रकारकी हैं-आहार शरीर इन्द्रिय श्वासोच्छास भाषा और मन । जिन जीवोंकी पर्याप्तिनाम कर्मके उदयसे अपने अपने योग्य पर्याप्तयां पूर्ण होजाती हैं उनको पर्याप्त और जबतक उनकी शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तबतक उनको निवृत्त्यपर्याप्त कहते हैं । एकेन्द्रियोंके चार द्वीन्द्रियादिकोंके पांच और संञी पंचन्द्रियोंके छह पर्याप्ति होती हैं । जो जीव अपर्याप्तिनाम कर्मके उदयसे अपनी पर्याप्तियोंको पूर्ण नहीं कर सकते और अन्तर्मुहूर्तमें ही मृत्युको प्राप्त होजाते हैं उनको लब्ध्यपर्याप्तक कहते हैं।
१-आहारपरिणामादिशक्तिकारणसिद्धयः।
पर्याप्तयः षडाहारदेहाक्षोच्छासवाङ्मनः ।।
अध्याय
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इन्ही [ सर्व संसारी] जीवोंके चौदह जीवसमास भी गिनाये हैं। यथाः
बनगार
३०४
समणा अमणा या पंचेंदिय णिम्मणा परे सव्वे ।
बादरसुहुमे इदी सव्वे पजत्त इदरा य ।। पंचेन्द्रियोंके दो भेद-समनस्क और अमनस्क और सभी अमनस्क-चतुरिन्द्रिय त्रीन्द्रिय और द्वीन्द्रिय एवं एकेन्द्रियके दो भेद बादर और सूक्ष्म । ये सातो ही प्रकारके जीव पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी। अत एव जीवसमासके भेद चौदह हैं। गुणस्थान और मार्गणाओंकी अपेक्षासे भी जीवोंके चौदह चौदह भेद होते हैं । चौदह गुणस्थानोंके नामः
मिथ्याक सासनो मिश्रोऽसंयतोऽणुव्रतस्ततः । सप्रमादेतराऽपूर्वानिवृत्तिकरणास्तथा ।
सूक्ष्मलोभोपशान्ताख्यौ निमोहो योग्ययोगिनी । मिथ्यादर्शन सासन मिश्र असंयत अणुव्रत प्रमत्त अप्रमत्त अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मलोभ उपशांतमोह क्षीणमोह सयोगी अयोगी। ये संसारी जीवोंके चौदह भेद हैं । जो मुक्त जीव हैं वे इन गुणस्थानोंसे रहित हैं। चौदह मार्गणाओंके नामः
गतयः करणं कायो योगो वेदः कुधादयः । वेदनं संयमो दृष्टिलेश्या भव्यः सुदशनम् ॥ सजी चाहारकः प्रोक्तास्ताश्चतुर्दश मागणाः । मिथ्यागादयो जीवा मार्गणासु सदादिभिः ॥
अध्याय
३०४
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अनगार
३०५
गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान संयम दर्शन लेश्या भव्य सम्यक्त्व संज्ञा आहारक । ये चौदह मार्गणाएं हैं। इन गुणस्थानों और मार्गणाओं के द्वारा तथा मार्गणाओंमें सदादि अनुयोगोंके द्वारा गुणस्थानोंको लगाकर विस्तारके साथ और आगमके अनुसार जीव के भेदाभेदोंका और उनके स्वरूपका भले प्रकार निश्चय करके यतियोंको उन जीवोंकी रक्षा करनी चाहिये ।
सारांश -जीवोंके भेदों और उनके स्वरूपको भले प्रकार जाने विना अहिंसा महाव्रत नहीं पल सकता। अत एव यहांपर जीवतत्वके विषयमें संक्षपसे वर्णन किया है । आगममें उनका विशेष स्वरूप कहा है। वहांसे उसको देखकर विशेष निश्चय करना चाहिये । और जीवोंकी रक्षा कर यतियोंको पूर्ण अहिंसा व्रत पालना चाहिये ।
प्रमत्तयोगसे होनेवाले प्राणव्यपरोपणको हिंसा कहा है। किंतु वस्तुतः प्रमत्तयोग ही हिंसा है; ऐसा उपदेश देते हैं:
रागाद्यसङ्गतः प्राणव्यपरोपेऽप्यहिंसकः ।।
स्यात्तदव्यपरोपेऽपि हिंस्रो रागादिसंश्रितः॥ २३ ॥ यदि जीव राग द्वेष या मोहरूप परिणामोंसे आविष्ट नहीं है तो प्राणोंका व्यपरोपण होजानेपर भी वह आहंसक है । और यदि रागद्वेषादि कषायोंसे युक्त है तो प्राणोंका वियोग न होनेपर भी हिंसक है।
याय
१-गुणस्थान व मार्गणादिकका विशेष स्वरूप जीवकाण्डादिकोंमें देखना चाहिये । यहां संक्षेप कथनके कारण नाममात्र ही उल्लेख किया है।
२-दया दया सब ही कहें। दया न जाने कोय ।
जीवजाति जाने विना । दया कहांसे होय ।। अ. घ. ३९
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बनगार
३०६
अध्याय
8
भावार्थ - हिंसा और अहिंसा प्रमाद या कषायरूप परिणामोंके होने और न होनेपर निर्भर है। जैसा कि कहा भी है:
=
मरदु व जियदु व जीवो अजदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामत्तेण समिदस्स ||
जीव मरे या जिये, यत्नाचार न रखनेवाले के हिंसा निश्चित है । और जो यत्न रखनेवाला तथा समीचीन प्रवृत्ति करनेवाला है उसके हिंसामात्र से ही बंध नहीं हो जाता ।
प्रश्न- यदि परिणामोंपर ही हिंसा निर्भर है तो प्रमत्तयोगको ही हिंसा कहना चाहिये । उसके देना चाहिये । उसके साथ प्राणव्यपरोपण के भी उपदेश देनेसे क्या फायदा ?
उत्तर - हिंसा प्राणव्यपरोपणरूप ही है; किंतु उसका कारण प्रमत्तयोग है । और वह समर्थ कारण हैं । अत एव कारणमें कार्यका उपचार करके उसको हिंसा कहा है। क्योंकि प्रमत्त योगसे प्राणोंका व्यपरोपण होता ही है । यदि वा प्राणोंका घात न होगा तो भात्र प्राणोंका होगा, पर होगा अवश्य। इसी बातका समर्थन करते हैं:
-
प्रमत्तो हि हिनस्ति स्वं प्रागात्माऽऽतङ्कतायनात् ।
परो न म्रियतां मा वा रागाद्या ह्यरयोङ्गिनः ॥ २४ ॥
दुष्कर्मों का संचय करने के कारण अथवा व्याकुलतारूप दुःखको उत्पन्न करने वा बढाने के कारण प्रमत्त जीव पहले अपना तो घात कर ही लेता है । फिर दूसरा जीव मरो वा मत मरो । क्योंकि जीवों के वास्तविक वैरी तो रागादिक कषाय ही हैं; न कि दूसरोंका प्राणवध । क्योंकि दुःखोंकी प्राप्ति और उनके कारणोंका संचय इससे होता है । कहा भी है कि:--
३०६
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बनगार
न कर्मबहुलं जगन्न चलनात्मकं कर्म वा । न चैककरणानि वा न चिडचिद्वधो बन्धकृत् ।। यदक्यमुपयोगभूः समुपयाति रागादिमिः ।
स एव किल केवलं भवति बन्धहेतुनृणाम् ।। __ वंधका कारण न तो जगत ही है, जिसमें कि अनेक प्रकारके काम हुआ करते हैं। और न यह चंचल काम ही है । एवं न तो अनेक करण-इन्द्रियां ही बंधका कारण हैं और न चेतन तथा अचेतन जीवोंका वध ही उसका कारण है। उसका कारण निश्चयसे केवल वह उपयोगस्वरूप आत्मा ही है जो कि रागादिकके साथ एकता प्राप्त करलेता है। क्योंकि विशुद्ध परिणामोंके धारक जीवके उसके शरीरका निमित्त पाकर होजानेवाला परप्राणियोंके प्राणोंका व्यपरोपण ही यदि बंधका कारण हो जाय तब तो फिर कोई मुक्त ही नहीं हो सकता । क्योंकि योगियोंके भी बायुकायिकादि जीवोंका वध होता है। उस निमित्तके रहते हुए वे मुक्त किस तरह हो सकते हैं । यगः
जइ सुद्धस्स य बधो होदि हि बहिरंगवत्थुजोएण ।
णत्थि दु अहिंसगो णाम वाउकायादिवधहेदृ ॥ यदि केवल बहिरंग बस्तुके सम्बन्धसे शुद्ध जीवके भी वंध होने लगे तब तो कोई अहिंसक ही नहीं रह सकता । क्योंकि वायुकायिकादि जीव वधके कारण सर्वत्र मौजूद हैं । इसी अर्थको ग्रंथकार स्पष्ट करते हैं:
तत्त्वज्ञानबलाद्रागद्वेषमोहानपोहतः।
समितस्य न बन्धः स्याद् गुप्तस्य तु विशेषतः॥ २५ ॥ उपर्युक्त तत्वज्ञानके बलसे रागद्वेष और मोहरूपी वैभाविक परिणामोंका परित्याग करदेनेवाले जीवके, वह समितियोंमें प्रवृत्ति करे-अपना प्रत्येक गमनागमनादिक कार्य यत्न अथवा सावधानतापूर्वक करे तो,
बध्याय
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बनगार
३०८
कर्मका बंध नहीं होता। यदि वह गुप्तियोंमें परिणत हो जाय-मानसिक वाचिक और कायिक क्रियाओंका निरोध ही कर दे तब तो विशेष रूपसे बंध नहीं हो सकता ।
भावार्थ-समिति प्रवृत्तिरूप हैं । अत एव वहांपर योग और कुछ कषायांश दोनो ही पाये जाते हैं । - इसीलिये वहां कुछ शुभ काँका बंध भी होता है। किंतु गुप्ति योगके निग्रहरूप है। अत एव उसके होनेपर विशेपतया बंध नहीं हो सकता-पूर्ण योगनिरोध होजानेपर तो बिल्कुल ही बंध नहीं होता। अत एव समितिपरिणतकी अपेक्षा गुप्तिपरिणतके विशेषतया बंधका निषेध किया है।
रागादि कषायोंका उत्पन्न होना ही हिंसा है और उनका उत्पन्न न होना अहिंसा है; जिनागमके इस परमोत्कृष्ट रहस्यका निश्चय कराते हैं:
परं जिनागमस्येदं रहस्यमवधार्यताम् ।
हिंसा रागाद्युत्पत्तिरहिंसा तदनुद्भवः ॥ २६ ॥ हृदयमें इस बातको अच्छी तरह से धारण करला-निश्चित समझो कि सर्वज्ञ भगवान्के उपदिष्ट समस्त आगमका यही परमोत्कृष्ट रहस्य- अन्तस्तच है कि रागद्वेष और मोहरूप परिणामोंका प्रादुर्भूत होना ही हिंसा और इन कषायभावोंका उत्पन्न न होना ही अहिंसा है। हिंसाके कारण एकसौ आठ हैं। उनका त्याग करनेपर ही अहिंसक हो सकता है; ऐसी शिक्षा देते हैं:
कषायोद्रेकतो योगैः कृतकारितसम्मतान् । स्यात्संरम्भसमारम्भारम्भानुज्झन्नहिमकः॥ २७॥
अध्याय
३०८
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अनगार
३०९
मध्याय
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Kanya
धादि कषायों के उद्रेकसे और मन वचन कायके द्वारा किये गये कराये गये और अनुमोदित संरम्भ समारम्भ और आरम्भका छोडनेवाला ही अहिंसक हो सकता है ।
भावार्थ - प्राणव्यपरोपण आदिक कार्यों में प्रमादयुक्त पुरुषके प्रयत्नावेशको संरम्भ कहते हैं। और इन्द्रिय कषाय अवत आदि प्रवृत्तिकी कारण भूत अभिलाषाको अथवा साध्यरूप हिंसादिक क्रियाओंके साधनोंका अ भ्यास करनेको समारम्भ कहते हैं । तथा हिंसादिके संचित उपकरणों के कार्य में सबसे पहले प्रवृत्त होनेको आरम्भ कहते हैं । क्रोधके वश होकर कायके द्वारा इन तीनोंका स्वयं करना अथवा दूसरेसे कराना यद्वा कोई दूसरा करे तो उसकी प्रशंसा करना । इसी प्रकार मानादिकके वश होकर करने कराने आदिको गिना जाय तो छत्तीस भंग होते हैं। क्योंकि संरम्भादिक तीनो भेदोंको कृत कारित अनुमोदना इन तीनसे और क्रोध मान माया लोभ इन चारसे गुणा किया जाय तो छत्तीस भेद होते हैं । ये भेद कायकी अपेक्षासे हैं । किंतु इसी प्रकार वचन और मनकी अपेक्षा से भी होते हैं । अत एव उक्त छत्तीस भेदोंका यदि मन वचन काय इन तीनोंसे गुणा किया जाय तो जीवाधिकरणरूप आस्रव भेदोंके १०८ प्रकार होते हैं। इनमें से किसी भी भंगरूप परिणत जीव हिंसक ही है; क्योंकि वह अपने भावप्राणोंका और दूसरोंके द्रव्य तथा भाव दोनो ही प्राणोंका व्यपरोपण करता है । अत एव इन समस्त भावोंसे रहित ही जीव अहिंसक हो सकता है। जैसा कि कहा भी है:
रत्तो वा दुट्ठो वा मूढो वा जं पजए पउगं । हिंसावि तत्थ जायदि तम्हा सो हिंसओ होइ ||
जिस किसी भी कार्य में जीव रागी द्वेषी अथवा मोही होकर प्रवृत्ति करता है उसीमें हिंसा होती है
और ऐसा करनेवाला जीव हिंसक कहाता है ।
एकसौ आठ भेद गिनाये हैं; किंतु अनंतानुबन्धी आदिकी अपेक्षा विशेष भेद भी होते हैं । सो आगमके अनुसार पृथक् पृथक् समझलेने चाहिये ।
ऊपर सामान्य से क्रोधादिककी अपेक्षा
धर्म०
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धनगार।
३१.
ऊपर भावाहंसाका वर्णन किया है। किंतु उसके भी निमित्तभूत परद्रव्य हैं। अत एव परिणामोंकी विशुद्धिके लिये-अहिंसाभावकी निर्मलताकी सिद्धिके लिये उस परद्रव्यकी भी निवृत्ति करनेका उपदेश देते हैं:
हिंसा यद्यपि पुंसः स्यान्न स्वल्पाप्यन्यवस्तुतः ।
तथापि हिंसाऽऽयतनाद्विरमेद्भावशुद्धये ॥ २८ ॥ यद्यपि पर वस्तुके सम्बन्धसे-प्रमत्त परिणामोंके विना केवल बाह्य द्रव्यके ही निमित्तसे जीवको जरा भी हिंसाका दोष नहीं लगता, तो भी भावशुद्धिकेलिये-आत्मा और मनमें निर्मलताकी स्थिरता और वृद्धिकेलियेमोहनीय कर्मके उदयसे उत्पन्न हुए रागद्वेषरूप कालुप्यका उच्छेद करनेकेलिये भावहिंसाके निमित्तभृत बाह्य पदार्थमित्र शत्रु प्रभृतिसे भी मुमुक्षुओंको विरत होना चाहिये ।
भावार्थ-हिंसाके उपकरणभूत जीवाधिकरणोंकी तरह अजीवाधिकरणोंका भी त्याग करना चाहिये जो कि अजीवकी पर्यायरूप और हिंसाके आयतन--भावहिंसाके कारण हैं। इस अजीवाधिकरणके चार भेद हैं- निर्वर्तना निक्षेप संयोग और निसर्ग । किसी वस्तुके इस तरहसे प्रयुक्त करने अथवा बतानेको कि जिससे वह हिंसाका उपकरण-साधन : हो सके, निर्वर्तना कहते हैं। यह दो प्रकारकी होती है। एक शरीरनिर्वर्तना, दूसरी उपकरणनिर्वर्तना । शरीरको उस तरहसे दुष्प्रयुक्त करनेका नाम शरीरनिर्वर्तना और सच्छिद्रादिक उपकरणोंके उस तरहसे उपयुक्त करनेका नम उपकरणनिर्वर्तना है।
किसी भी वस्तुके इस तरहसे रखनेको कि जिससे वह हिंसाका साधन हो सके निक्षेप कहते हैं । यह चार प्रकार का है-सहसा अनाभोग दुःप्रमृष्ट ओर अप्रत्यवेक्षित । भय आदिके कारण पुस्तकादिक उपकरणों अथवा शरीरके
SHARITRATEHEATER REATRENA
अध्याय
१-निर्वर्तनादिक शब्दोंका अर्थ कर्मरू
और क्रियारूप दोनो तरहका हो सकता है।
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बनगार
म
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मलादिकोंके शीघ्र ही छोडदनेको सहसानिक्षेप और शीघ्रता न करके भी यहांपर जीव हैं या नहीं इस बातका पर्यालोचन किये बिना ही उपकरणादिके छोडदेनेको अनाभोगनिक्षेप, एवं बुरी तरहसे पर्यालोचन-प्रमार्जन करके उन वस्तुओंके छोडदेनेको दुःप्रमृष्टनिक्षेप, और प्रमार्जन करके भी उसके बाद फिर यहां जीव हैं या नहीं" यह न देखकर यों ही उपकरणादिके रखदनेको अप्रत्यवेक्षित निक्षेप कहते हैं। ये निक्षेप छहो कायके जीवोंकी बाधाके स्थान हो सकते हैं। एक पदार्थका दूसरे पदार्थके साथ होनेवाले संबंधविशेषको संयोग कहते हैं। इसके दो भेद हैं-उपकरण संयोग और भक्तपान संयोग । उपकरणों के परस्परमें ऐसे संयोगको जो कि हिंसाका साधन हो सके उपकरणसंयोग और भोजनपानकी वस्तुओंके ऐसे संयोगको भक्तपान संयोग कहते हैं; जैसे कि शीत पुस्तकका धूप आदिसे तप्त हुई पीछी आदिके द्वारा झाडना अथवा ढकना : इत्यादि उपकरण संयोग है। तथा सम्मुर्छनादिके सम्भव होनेपर किसी एक पेय वस्तुको दूसरी पेय वस्तुके साथ अथवा भोज नके साथ यद्वा किसी एक भोजनको दूसरे भोजनके साथ अथवा किसी पेय वस्तुके साथ मिलानेको भक्तपानसंयोग कहते हैं। जैसे कि उष्ण जलको शीत जलके साथ अथवा शीत भोजनके साथ मिलाना भक्तपान संयोग है। निसर्ग शब्दका अर्थ स्वभाव होता है। मन वचन और कायकी प्रवृत्ति स्वभावसे ही होती है। किंतु इनकी इस तरहसे दुष्ट प्रवृत्ति करना कि जो वह हिंसाका साधन हो सके उसको निसर्ग कहते हैं। और अत एव मन वचन कायकी अपेक्षा उसके तीन भेद हैं।
जैसा कि कहा भी हैसहसानाभोगितदुःप्रमार्जिताप्रेक्षितानि निक्षेपे । देहश्च दुःप्रयुक्तस्तथोपकरणं च निवृत्तिः ॥ संयोजनमुपकरणे पानाशनयोस्तथैव संयोगः ।
वचनमनस्तनवस्ता दुष्टा भेदा निसर्गस्य ॥ सहसा अनाभोगित दुःप्रमार्जित और अप्रत्यवेक्षित ये चार निक्षेपके, और दुःप्रयुक्त शरीर तथा उपकरण
अध्याय
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बनगार
ये दो निर्वर्तनाके, तथा उपकरण संयोग और भक्तपान संयोग ये दो संयोगके, एवं दुष्ट मन वचन काय ये तनि निसर्गके भेद हैं।
उपर्युक्त कथनका सारांश यही है कि जो मुमुक्षु, प्राणव्यपरोपण अपनी तरहसे दूसरेको भी असह्य दुःखका कारण है ऐसा निश्चित समझता है वह सभी प्राणियोंमें सम्यग्दी होकर समस्त हिंसाके साधनोंका सर्वथा परित्याग करदेता है। इस उपसंहृत अर्थको ही आगेके पद्यमें प्रकट करते हैं:
मोहादैक्यमवस्यतः स्ववपुषा तन्नाशमप्यात्मनो, नाशं संक्लिशितस्य दुःखमतुलं नित्यस्य यद्रव्यतः। स्याद्भिन्नस्य ततो भवत्यसुभृतस्तद्घोरदुःखं स्वव,
जानन् प्राणवधं परस्य समधीः कुर्यादकार्य कथम् ॥ २५ ॥ जिसके मोहनीय कर्मके उदयसे आत्मा और शरीर दोनोंका भेदज्ञान नहीं हुआ है और इसीलिये जो अपने शरीरके साथ अपनी आत्माकी एकताका निश्चय रखता है शरीर ही मैं हूं और मैं ही शरीर है ऐसा जो समझता है और जो शरीरके नाशको ही उस आत्माका भी नाश मानता है। जो कि द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे नित्य अविनाशी और उससे कथंचित् भिन्न है, एवं च जिसका हृदय शरीरके द्वारा प्रवृत्त होनेवाली व्याधि जरा मरणादिकी भीतियोंसे सदा संक्लिष्ट रहा करता है उस प्राणीको अपने उस अज्ञानके कारण अतुल दुःख हुआ करता है। अत एव जो पुरुष शत्रु और मित्र दोनोंमें समान बुद्धि रखता है-राग द्वेषसे रहित
बध्याय
१--तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान ।
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अनमार
३१३
धध्याय
४
है और जिसके इस बात का निश्चय है कि यह प्राण व्यपरोपण अपनी तरहसे दूसरों को भी अस दुःखका कारण वह पुरुष प्राणवर्ष जैसे अकार्य - शास्त्रसे निषिद्ध और नीतिविरुद्ध अकृत्यको किस तरह कर सकता है ?
भावार्थ - आत्मा शरीरसे कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न है । क्योंकि शरीर अनित्य और आत्मा नित्य है, तथा संज्ञा संख्या लक्षण और प्रयोजनकी अपेक्षासे भी दोनोंमें कथंचित् भेद है। जिससे दोनों का सहसा पृथक्करण नहीं हो सकता, ऐसे बंधके कारण कथंचित् अभेद हैं । किंतु मोहोदयजनित अज्ञान के कारण कितने ही लोग ऐसा नहीं समझते। और दोनोंमें सर्वथा भेद ही मानते हैं। ऐसे लोगों के मतानुसार धर्म दयाप्रधान ही है यह बात सिद्ध नहीं हो सकती। क्योंकि सर्वथा भेद होनेसे शरीरका नाश होजानेपर भी आत्माका नाश नहीं हो सकता । और इसके विना हिंसाकी उपपत्ति, तथा हिंसाके विना उसकी निवृत्तिरूप दयाकी सिद्धि नहीं हो सकती । जैसा कि कहा भी है
आत्मशरीरविभेदं वदन्ति ये सर्वथा यतविवेकाः । कायवधे हन्त कथं तेषां संजायते हिंसा ॥
जो अविवेकी आत्मा और शरीरमें सर्वथा भेद बताते हैं, आश्चर्य है कि उनके यहांपर शरीर के वधसे हिंसा किस तरह हो जाती है ?
इसी प्रकार कितने ही लोग उस अज्ञान के कारण ही आत्मा और शरीरमें सर्वथा अभेद मानते हैं । किंतु उनके मतानुसार भी दयाप्रधान धर्मकी सिद्धि नहीं हो सकती। क्योंकि उनके यहां शरीरका नाश होनेसे आत्माका ही नाश हो जायगा । और ऐसा होनेसे परलोक तथा उसकेलिये दयाधर्मका अनुष्ठान वन नहीं
सकता । यथाः -
अ. ध. ४०
धर्म •
३ | ३
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अनगार
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जीववपुषोरभेदो येषामैकान्तिको मतः शास्त्रं ।
कायविनाशे तेषां जीवविनाशः कथं वार्यः ।। जिनके शास्त्रमें आत्मा और शरीरमें एकान्तसे अभेद माना गया है वे लोग शरीरका नाश होनेसे आ. त्माका भी नाश हो जायगा, इस आपत्तिका वारण किस तरह कर सकते हैं ?
अत एव शरीरसे आत्मा कथंचित् भिन्न और कथंचित अभिन्न है। ऐसा माननेसे ही अहिंसारूप परम धर्मकी सिद्धि हो सकती है। उक्त अज्ञानके कारण भेदैकान्त और अभेदैकान्तके समान लोगोंमें नित्यत्वैकान्त और अनित्यत्वैकान्त भी है । किंतु उससे भी दयाधर्मकी सिद्धि नहीं हो सकती । क्योंकि आत्मा यदि नित्य है तो उसका वध ही नहीं हो सकता । और यदि अनित्य है तो सर्वथा विनाश हो जायगा । फिर परलोकके विना दयाधर्मका अनुष्ठान ही किस तरह बन सकता है ? जैसा कि कहा भी है:
जीवस्य हिंसा न भवेन्नित्यस्य परिणामिनः । क्षणिकस्य स्वयं नाशात्कथं हिंसोपपद्यताम् ।।
. जीव यदि नित्य है तो अपरिणामी भी अवश्य है । उसका नाश नहीं हो सकता। और यदि क्षणिक है तो स्वयं जीवका ही सर्वथा नाश हो जायगा। फिर हिंसा किस तरह सिद्ध हो सकती है ? नहीं हो सकती । अत एव प्रमाणसिद्ध जीवको कथंचित् द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा नित्य और कथंचित-पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा अनित्य मानना चाहिये। तभी अहिंसाधर्म सिद्ध हो सकता है क्योंक नित्यानित्यात्मक जीवमें ही हिंसा संभव हो सकती है। और उसके होनेपर ही उसके त्यागरूप दयाधर्मका पालन बन सकता है।
जिन जीवोंका मोहोदयजनित अबान नष्ट हो गया है उनके उपर्युक्त एकान्त प्रत्यय नहीं हो सकता। वे आत्माके अनेकान्त स्वरूपका ही निश्यय करते हैं। और सम्यग्ज्ञानपूर्वक ही व्रतोंका आचरण हो इसलिये
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भनगार
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वे हिंसा अहिंसाके वास्तविक स्वरूपको भले प्रकार समझकर अहिंसाका पालन कर सकते हैं। रागद्वेषरूप हिंसा और उसके साधनोंका त्याग कर समतापरिणामोंको धारण कर सकते तथा अपनी तरह दूसरोंकेलिये भी घोर दुःखके कारण प्राणवध जैसे अकृत्यका त्याग कर सकते हैं । अत एव ज्ञानी मुमुक्षुओंको हिंसा अहिंसाके स्वरूप साधनादिकको समझकर मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदनाके द्वारा हिंसाका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये । यथाः
पहजीवनिकायवधं यावज्जीवं मनोवचःकायैः ।
कृतकारितानुमननैरुपयुक्तः परिहर सदा त्वम् ।। हे भव्य ! इन षट्कायिक जीवोंकी हिंसाका तू मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदनाके सभी भंगोंसे यावजीव सर्वथा परित्याग कर ।
इस हिंसाके निमित्तसे इस लोक और परलोक दोनो ही जगह ऐसे दुःख और क्लेश उपस्थित होते हैं | जो कि अत्यंत ही दुर्निवार हैं । इसी बातको दिखाते हुए मुमुक्षुओंको उससे सर्वथा निवृत्तिका उपदेश देते हैं:
कुष्टप्रष्ठैः करिष्यन्नपि कथमपि यं कर्तुमारभ्य चाप्त,भ्रंशोपि प्रायशोत्राप्यनुपरममुपद्र्यतेऽतीव रौद्रैः । यं चक्राणोथ कुर्वन्विधुरमधरधीरेति यत्तत्कथास्तां,
कस्त प्राणातिपातं स्पृशति शुभमतिः सोदरं दुर्गतीनाम् ॥ ३० ॥ जो हिंसा दुर्गतियोंकी सहोदरी है, जिसके कि निमित्तसे जीवोंको नरकादिक गतियोंका भोग अवश्य ही करना पडता है। उसके करने करानेकी तो बात ही क्या; जो करनेकी इच्छा भी करता है वह भी इसी जन्म
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धर्म
RITERATE
में कोढ जलोदर भगंदर आदि नाना प्रकारके अत्यंत रौद्र-उग्र-दुर्निवार महारोगोंसे इस तरहसे पीडित होता है कि जिसमें कुछ कालकेलिये भी उनसे उपरात -उपशांति नहीं मिलती। निरंतर इन रोगोंसे आक्रांत रहकर दुःख भोगा करता है । इस प्रकार हिंसाकी इच्छा करनवाला ही दुःखी-पीडित नहीं होता किंतु जिसने उस हिंसाके करनेका प्रारम्भ तो करदिया पर उसके कारणोंमें किसी तरह विन्न आपडनेके कारण उसको कर न सका तो वह भी प्रायः इसी जन्ममें उन रोगजनित दुःखोंसे पीडित हुआ करता है। प्रायः इसलिये कि कदाचित् किसी दैववश वह इस जन्म में पीडित न भी हो तो भी जन्मान्तरों में वह अवश्य ही पीडित होता है । किंतु जो कुबुद्धि इस तरहकी हिंसा करता है या जिसने की है उसको जो क्लेश भोगने पड़ते हैं उनका तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। अत एव ऐसा कौन शुभमति-मोक्षार्थी भव्य होगा जो कि इस हिंसाका स्पर्श भी करे-कभी भी किसी भी प्रकारसे हिंसामें प्रवृत्त हो ।
भावार्थ-उपर्युक्त समस्त कथनका सारांश यही है कि जो मोक्षार्थी हैं उनको इस हिंसासे यावज्जी3] व सर्वथा विरत होना चाहिये ।
हिंसाका दुर्गतियोंका दुःखका एक फल है। इसी बात को उदाहरणके द्वारा स्पष्ट करते हैं:--
मध्ये मस्कर जालि दण्डकवने संसाध्य विद्यां चिरात, कृष्टं शम्बुकुमारकेण सहसा तं सूर्यहासं दिवः ।
बध्याय
१ चिकित्साशास्त्रम आठ महारोग गिनाये हैं । यथाः
FEAREERINARINE
वातव्याध्यश्मरीकुष्टमहोदरभगन्दराः । । अशांसि ग्रहणीत्यष्टो महारोगाः सुदुसराः ॥
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धृत्त्वायान्तमार्स बलाद्रभसया तां च्छिन्दता तच्छिर,. श्छिन्नं यत्किल लक्ष्मणेन नरके ही तत्खरं भुज्यते ॥ ३१ ॥
बनमार
यह बात आगममें प्रसिद्ध है कि दण्डकवन-पञ्चवटीमें वांसोंकी जालीके भीतर बैठकर चिरकाल-छह महनिमें विद्याको अच्छी तरह-विधिपूर्वक सिद्ध कर-खड्गाधिपति देवताको वशमें करके शम्बुकुमार-सूर्पणखाके पुत्रने जिस सूर्यहास खब्ज का आकर्षण किया था वह जब आकाशसे आने लगा तो उसको झटस उछल कर लक्ष्मणने बलपूर्वक अपने हस्तगत करलिया और उसको लेकर शीघ्रतासे-विना विचारे ही उस वंशजालीको काटते हुए शम्बकुमारका शिर भी काट डाला । उसीका फल है कि लक्ष्मण आज नरकमें अत्यंत दुःसह फल भोग रहे हैं।
भावार्थ-लक्ष्मणने विना विचारे-प्रमादपूर्वक जो शम्बुकुमारका शिरश्छेदन किया उससे आज तक उसको नरकके दुःख भोगने पड रहे हैं । इससे स्पष्ट है कि हिंसाका फल एक दुर्गतियोंका दुःख ही है।
हे भव्य ! हिंसाका त्याग न करके भी, मैं हिंसा करता नहीं हूं इसलिये मोक्षमार्गपर ही हूं, ऐसा भत समझ; क्योंकि हिंसासे अविरति भी हिंसापरिणामोंकी तरह हिंसा ही है और उससे भी वही फल होता है जो कि हिंसापरिणामोंसे होता है । इसी बातका ज्ञानलवदुर्विदग्ध पुरुषको ज्ञान कराते हैं
STALE
अध्याय
स्थान्न हिस्यां न नो हिंस्यामित्येव स्यां सुखीति मा !
अविरामोपि यद्वामो हिंसाया: परिणामवत् ॥ ३२॥ हे सुखार्थी भव्य! " मैं अहिंसाका पालन नहीं करता तो हिंसा भी नहीं करता हूं. अत एव मुझको अवश्य ही सुखोंकी प्राप्ति होगी" ऐसा समझकर तू स्वस्थ मत हो-चारित्राराधनकी तरफसे उपेक्षित मत हो। क्योंक हिंसाके परिणामोंकी तरह उसकी अनुपरति भी विरुद्ध-दुःखकर ही है।
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बनमार
३१८
अध्याय
भावार्थएव अहिंसा व्रतका कि यह बात नहीं है;
बहुत से लोगोंकी ऐसी समझ है कि “ दुःखका कारण हिंसा है, सो मैं करता नहीं हूं । अत पालन न करके भी अतिशयित सुख प्राप्त कर सकता हूं"। इस विषयमें ग्रंथकार कहते हैं क्योंकि हिंसा के अत्यागको अहिंसा नहीं कह सकते; वह हिंसा ही है । अत एव वह सुखका कारण नहीं, दुःखका ही कारण है । जैसा कि कहा भी है कि—
4
हिंसाया अविरमणं वघपरिणामोपि भवति हिंसेंव । तस्मात्प्रमत्त योगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा ||
वधपरिणामोंकी तरह हिंसा से अनुपरति भी हिंसा ही है; क्योंकि प्रमत्तयोग से होनेवाले प्राणव्यपरोपणको हिंसा कहते हैं । इसीलिये आत्मकल्याणके अभिलापियोंको अहिंसा व्रतरूपसे ही स्वीकार करनी चाहिये | हिंसा और अहिंसा के क्रमानुसार विशिष्ट फलको दृष्टान्तद्वारा स्पष्ट करते हुए आत्महितका साधन क रनेके लिये उद्यत हुए भग्योंको नितांत अहिंसापरिणतिकेलिये ही उद्यम करनेकी प्रेरणा करते हैं ।
धनश्रियां विश्रुतदुःखपाका,-- माकर्ण्य हिंसां हितजागरूकाः । छेत्तु विपत्तर्मृगसेनवच,
श्रियं वतुं व्रतयन्त्वहिंसाम् ॥ ३३ ॥
आत्महित सिद्ध करनेकेलिये सदा जागृत रहनेवाले मुमुक्षुओं को उस हिंसाका स्वरूप कि जिसका फल वोर दुःखों का अनुभवन प्रसिद्ध है, और जो कि धनश्रीको भोगना पडा था; आप्त पुरुषोंसे सुनकर - समझकर उन विपत्तियों का नाश करनेकेलिये और लक्ष्मीका वरण करनेकेलिये मृगसेन नामके धीवर की तरहसे अहिंसाको व्रतरूपसे ही स्वीकार करना चाहिये ।
धर्म
३१८
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अनगार । सरूपको मामाक जानकावर कापसेच के हिसाबसको सिा जीवन कर्मिनाकाठच देखकर और गुरुओसे उन
बनगार
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धर्म
भावार्थ-धनश्री और मृगसेनके उदाहरणसे हिंसा और अहिंसाका फल देखकर और गुरुओंसे उनके स्वरूपको समझकर आत्मकल्याणकेलिये अहिंसावतका ही आराधन करना चाहिये ।
वाग्गुप्ति मनोगुप्ति ईर्यासमिति आदाननिक्षेपणसमिति और आलोकित पानभोजन इन पांच भावनाओंकी जिसमें भावना दीगई-संस्कार किया गया है ऐसा अहिंसाव्रत स्थिर होकर परमोत्कृष्ट माहात्म्यको प्राप्त कराता है। ऐसा बताते हैं
निगृह्णतो वाङ्मनसी यथाव,न्मार्ग चरिष्णोविधिवद्यथाहम् ।
आदाननिक्षेपकृतोन्नपाने,
दृष्टे.च भोक्तुः प्रतपयहिंसा ॥ ३४ ॥ जो पुरुष यथार्थ रीतिसे वचन और मनका निरोध करता है, संक्लेशरहित होकर और सत्कार तथा लोकमें ख्याति लाभ पूजा आदिकी अपेक्षा-आकांक्षा न करके जो वाग्गुप्तिका पालन करता है, तथा जो शास्त्रोक्त विधिके अनुसार मार्गमें गमन करता है, शरीरप्रमाण भूमिको शोधता हुआ चलकर ईर्यासमितिका पालन करता है, एवं च जो ज्ञान और संयममें विरोध न आवे इस तरहसे उनके उपकरणोंका आदान तथा निक्षेपण करता है, जो पुस्तकादिक ज्ञानसंयमके साधन हैं उनको असंयमका परिहार करते हुए उठाकर या रखकर आदाननिक्षेपण समितिका पालन करता है, और जो भोजन करते समय अन्न और पानको ये योग्य हैं या नहीं यह अपनी आंखोंसे देखकर ग्रहण करता-आलोकित पान भोजन करता है। ऐसे मुमुक्षुकी अहिंसाका प्रभाव अव्याहत होजाता है। उसकी अहिंसा अमोघशक्ति होकर सर्वोत्कृष्ट माहात्म्यको प्रकट कर देती है।
अध्याय
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मनगार
भावार्थ-अहिंसाव्रतको स्थिर रखनेकेलिये और उसके माहात्म्यको उजीवित करनेकेलिये मुमुक्षुओंको उपयुक्त पांच भावनाओंसे व्रतको संस्कृत करना चाहिये।
इन उक्त भावनाओंके भानेवाले साधुओंका निजानुभवके भारपर निर्भर रहनेवाला अहिंसा महाव्रत अच्छी तरह प्रकाशित होता है। ऐसा बताते हैं
सम्यक्त्वप्रभुशक्तिसंपदमलज्ञानामृतांशुदतिनि:शेषव्रतरत्नखानिरखिलक्लेशाहितार्थ्यांहतिः । आनन्दामृतसिन्धुरद्भुतगुणामांगभोगावनी,
श्रीलीलावसतिर्यशःप्रसवभुः प्रोदेत्यहिंसा सताम् ॥ ३५ ॥ यह अहिंसा सम्यक्त्वरूपी प्रभुकी शक्तिसंपत्तिके समान है, जिस प्रकार कोई विजिगीषु राजा अपनी मन्त्रशक्ति प्रभुशक्ति और उत्साहशक्ति के द्वारा वैरिओंको निर्मूल करता है। उसी प्रकार सम्यक्त्व भी इस अहिंसाके द्वारा कोको निर्मूल कर देता है । अथवा यह अहिंसा मानो निर्मल ज्ञानरूपी चन्द्रमाका उदय है। क्योंकि जिस प्रकार चन्द्रमाके उदयसे जगत्को आल्हाद उत्पन्न होता है उसी प्रकार अहिंसासे भी शुद्ध ज्ञानके द्वारा संसारमें परम प्रमोद प्रकाशित होता है । यद्वा यह अहिंसा समस्त व्रताचरणरूपी रत्नोंकी खानि है। क्योंक जि
१-मन्त्रशक्तिर्मतिबलं कोषदण्डबलं प्रभोः।
प्रभुशक्तिश्च विक्रान्तिबलमुत्साहशक्तिता ।। बुद्धिबलको मंत्रशाक्ति, धन और दण्ड बलको प्रभुशक्ति, तथा पराक्रम-शारीरिक बलको उत्साहशक्ति कहते हैं।
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अनगार
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. अध्याय
४
स प्रकार रत्न खानिमें ही उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार समस्त चारित्र और व्रत नियमादिक भी इस अहिंसा के रहते हुए ही उत्पन्न हो सकते हैं। जैसा कि कहा भी है
सर्वेषां समयानां हृदयं गर्भश्च सर्वशास्त्राणाम् । गुणशीलादीनां पिण्डः सारोपि चाऽहिंसा ||
यह अहिंसा समस्त सिद्धांतोंका हृदय, समस्त शास्त्रोंका गर्म, और व्रत गुण शीलं आदि गुणोंका पिण्ड है । इस प्रकार समस्त जगत् में सारभूत पदार्थ एक अहिंसा ही है ।
यह समस्त क्लेशरूपी सर्पराजोंके लिये गरुडका आघात है। क्योंकि जिस प्रकार गरुडकी चोंचके आघातसे बडे बडे भी सर्प विलीन होजाते हैं उसी प्रकार इस अहिंसा के माहात्म्यसे विशेष भी क्लेश निःशेष हो जाते हैं। यह आनन्दरूपी अमृतका समुद्र है । क्योंकि जिस प्रकार अमृतको सभी लोग चाहते हैं किंतु उसके उत्पन्न होनेका स्थान समुद्र ही है; उसी प्रकार आनन्द-प्रमोदको सभी संसारी चाहते हैं किंतु उसका उत्पत्ति स्थान अहिंसा ही है। यह अद्भुत गुणरूपी कल्पवृक्षोंकी भोगभूमि है । क्योंकि जिस प्रकार कल्पवृक्षोंसे साक्षात् इच्छित पदार्थ प्राप्त हुआ करते हैं उसी प्रकार अद्भुत -- जगत् में चमत्कार दिखा देनेवाले तपःसंयमादिक गुणोंसे भी अभीष्ट विषयोंका संपादन होता है। किंतु जिस प्रकार कल्पवृक्ष भोगभूमि – देवकुरु उत्तरकुरुमें ही उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार अद्भुत गुण भी अहिंसा - भूमिपर ही उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार यह अहिंसा लक्ष्मी क्रीडा करनेका स्थान है। क्योंकि इसीमें वह निरातङ्कतया सुखपूर्वक रह सकती है और क्रीडा कर सकती है । इसी प्रकार यह यशके उत्पन्न होनेका भी स्थान है - कीर्तिकी जन्मभूमि है। क्योंकि इसके रहते हुए ही कीर्तिलता उत्पन्न हो सकती और प्रकाशित हो सकती है। ऐसी यह आठ विशेषणोंसे विशिष्ट अहिंसा साधुओंके ही अनन्य सामान्यतया प्रकाशित हो सकती है ।
भावार्थ - अहिंसाव्रतका उपसंहार करते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि इस अहिंसाका माहात्म्य कहांतक
अ. ध. ४१
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बनगार
धर्मः
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कहें । समस्त गुणोंकी खानि और सभी इष्टसिद्धियोंका साधन यह अहिंसा ही है । अत एव साधुओंको इसका आराधन करना ही चाहिये । क्योंकि पूर्ण अहिंसाका पालन साधु ही कर सकते हैं, जिसका कि विशेष स्वरूप पहले बताया जाचुका है।
___ अहिंसा महाव्रतके अनंतर सत्य महाव्रत क्रमप्राप्त है । अत एव बारह पद्योंमें उसीका व्याख्यान करना चाहते हैं । किंतु उसके पहले यह बताते हैं कि असत्यादि सभी हिंसाकी ही पर्याय है । अत एव उनका त्याग भी अहिंसावतमें ही अन्तर्भूत होता है।
आत्महिंसनहेतुत्वाईसैवासूनृताद्यपि ।
भेदेन तद्विरत्युक्तिः पुनरज्ञानुकम्पया ॥ ३६ ।। केवल प्राणव्यपरोपण ही हिंसा नहीं है, अनृत वचनादिक-असत्य भाषण प्रभृति भी हिंसा ही हैं। क्योंकि वे आत्मघातके हेतु हैं। उनसे आत्माके शुद्ध परिणामोंका उपमर्द ही होता है । क्योंकि प्रमत्तयोगके बिना असत्य भाषणादिक भी हो नहीं सकते । प्रमत्तयोग अथवा हिंसाका समर्थ कारण भी हिंसा ही है।
प्रश्नअसत्य भाषणादिक भी यदि हिंसा ही हैं तो आगममें दोनोंको पृथक पृथक क्यों बताया है ? आचार्योंने अहिंसा महाव्रतसे भिन्न ही सत्य महावतादिका उपदेश दिया है। और यहां भी पहले ऐसा ही लिखा है। उत्तर-हिंसा और झूठ आदिके त्यागका भेदरूपसे जो उपदेश दिया है उसका कारण केवल यही है कि कहीं अज्ञ-- मन्दमति पुरुष मोहित न होजांय--उनकी बुद्धि असत्यादिकी अनुपरतिकी तरफ उन्मुख न हो जाय; इसलिये उनके ऊपर कृपा करके ऐसा उपदेश दिया है । आगममें भी कहा है कि:
आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् । अनृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यवोधार्थम् ।।
अध्याय
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जितने असत्य वचनादिक हैं वे भी सब हिंसा ही हैं। क्योंकि वे आत्मपरिणामोंके घातके कारण हैं। हिंसासे भिन्न जो उनको दिखाया है सो केवल शिष्योंको ज्ञान करानेकेलिये-मन्दबुद्धि शिष्योंकी अपेक्षासे ।
सत्यव्रतके स्वरूपका निरूपण करते हैं:-- अनृताद्वीरतिः सत्यव्रतं जगति पूजितम् । अनृतं त्वभिधानं स्याद्रागाद्यावेशतोऽसतः ॥ ३७ ॥
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रागद्वेषरूप परिणामोंके आवेशसे अप्रशस्त वचनोंके बोलनेको अन्त कहते हैं । इस अनृतके त्यागको ही सत्यत्रत कहते हैं। यह व्रत समस्त जगत में पूज्य माना गया है । भावार्थ, अप्रशस्त वचन वे ही हो सकते हैं जो कि कर्मबंधके कारण हों । जिन वचनोंको रागद्वेष या मोहसे आक्रांत होकर मनुष्य बोलता है वे ही वचन कर्मबंधके कारण हो सकते हैं । अत एव सत्यव्रतमें भी आत्मपरिणामरूप असत्य वचनयोगका त्याग ही मुख्य समझना चाहिये । क्योंकि वही कर्मबंधका कारण है और इसलिये वस्तुतः त्याज्य तो वही है । पौद्गलिक वचन जो कि उक्त वचनयोगके कारण हैं वे तो व्यवहारसे ही त्याज्य बताते हैं; न कि वस्तुतः।
___ असत्य चार प्रकारका है उनका उदाहरणपूर्वक स्वरूप बताकर मन वचन और काय तीनों ही के द्वारा उनके त्याग करनेका दो पद्यों में विधान करते हैं:
अध्याय
नाकालेस्ति नृणां मृतिरिति सत्प्रतिषेधनं शिवेन कृतम् । क्ष्मादीत्यसदुद्भावनमुक्षा वाजीति विपरीतम् ॥ ३८ ॥ सावद्याप्रियगर्हितभेदात् त्रिविधं च निंद्यमित्यनृतम् । दोषोरगवल्मीकं त्यजेच्चतुर्धापि तत् त्रेधा ॥ ३९ ॥
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अनगार
जिला मकान का करें जब कोने और उनी निवास किया करने की कला के शरीवर्ष || -
च
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जिस प्रकार सर्प वल्मीकमें ही उत्पन्न होते और उसी में निवास किया करते हैं। उसी प्रकार वे दोषरूपी सर्प जिनका कि आगे वर्णन करेंगे और जो अनेक प्रकारसे अपायके ही कारण हैं; असत्यरूपी वल्मीकमें ही उत्पन्न होते और निवास किया करते हैं । अत एव मुमुक्षुओंको इस दोषोंके उत्पत्ति और निवासके स्थान असत्यका मन वचन और कायसे त्याग ही करना चाहिये ।
असत्य चार प्रकारका है-सत्यनिषेध, असदुद्भावन, विपरीत और निंद्य । चरमशरीरी मनुष्योंको छोड कर बाकी कर्मभूमिमें उत्पन्न हुए मनुष्योंका अकालमें-आयुकर्मकी स्थिति पूर्ण हुए विना-मरण नहीं होता इस तरहके वचनोंको सत्यनिषेध कहते हैं। क्योंकि जीवोंका मरण विषवेदनादिक निमित्तोंसे अकालमें भी होता है। ऐसा लोक और आगम दोनो ही में देखनेमें आता है। यथाः
विमवेयणरत्तक्खयसत्थगहणाइस किलेसेहिं ।
आहारोस्सासाणं णिरोहओ छिज्जए आऊ ।।* विष वेदना रक्तक्षय शस्त्रग्रहण संक्लेश परिणाम और आहार तथा श्वासोच्छासका निरोध इन कारणोंसे आयुकर्म छीज जाता है-कम होजाता है अथवा उदीरणामें आकर पूर्ण हो जाता है।
इसी विषयमें दूसरे तो ऐसा कहते हैं कि:
मरणं प्राणिनां दृष्टमायुःपुण्योभयक्षयात् । तयोरप्यक्षयाद् दृष्टं विषमाऽपरिहारिणाम् ।।
अध्याय
*-“विसवेयणरत्तक्खयभयसत्थग्गहणसंकिलेसेहिं ।
उस्सामाहाराणं णिरोहदो छिजदे आऊ" । ऐसा भी पाठ है। इसमें भयको भी गिना है ।
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आयु और पुण्य दोनोंके क्षीण होनेसे प्राणियोंका मरण होता है। किंतु विषम आयु और पुण्यके धारण करने वालोंका उन दोनों के क्षीण हुए विना भी मरण हो जाता है । अर्थात् या तो आयु पुण्यके विपरीत होजाय अथवा पुण्य आयुके विपरीत हो जाय तो भी जीवोंका मरण हो जाता है। क्योंकि जीवनके कारण अनुकूल आयु और पुण्य दोनो हैं । इस कथनसे तथा विष भक्षणादि करनेवाले तथा शस्त्रसे आहत होनेवाले आदि जीचोंका मरण होता हुआ लोकमें भी देखने में आता है। इससे सिद्ध है कि अकालमें भी जीवोंका मरण होता है । अत एव इस प्रकारके सभूत पदार्थके निषेध करनेको सत्प्रतिषेध नामका असत्य समझना चाहिये !
जो पदार्थ नहीं है -असत् है उसके निरूपण करनेको असदुद्भावन नामक असत्यका दूसरा भेद समझना चाहिये। जैसे कि यह निरूपण करना कि “ इस जगत्को - पृथिवी पर्वत वृक्षादिकों को महेश्वरने बनाया है । " अथवा " देवताओंका अकालमें भी मरण होता है। " क्योंकि जगत्का महेश्वरके द्वारा बनाया जाना असत् है । क्योंकि वह प्रमाण से बाधित है- किसी भी प्रमाणसे यह बात सिद्ध नहीं होती कि जगत्का कर्त्ता महेश्वर है । और स्वयं उन्होंने भी कहा है कि " न कदाचिदनीदृशं जगत् । " यह अनुपम जगत् कभी नहीं बना । " अत एव यह बात असत् है । इसी प्रकार अकालमें देवताओंका मरण भी असत् है । ऐसे ही असभूत पदार्थों के निरूपण करनेको असदुद्भावन नामका असत्य कहते हैं । किसी पदार्थको दूसरा पदार्थ वताना इसको विपरीत नामका असत्य कहते हैं। जैसे कि गौको घोडा कहना । शास्त्र अथवा लोकसे विरुद्ध वचनको निंद्य नामका असत्य कहते हैं। इसके तीन भेद हैं- सावद्य अप्रिय और गर्हित | हिंसोत्पादक वच. नको सावध, अरुचिकर भाषणको अप्रिय, और धिक्कारके योग्य अथवा अनादरणीय शब्दोंको निन्द्य कहते हैं । ऊपर चार प्रकारके असत्यको जिन दोषरूपी सपकी वामी बताया था उन्ही दोषोंका निरूपण करते हैं
यद्विश्वव्यवहारविप्लवकरं यत्प्राणघाताद्यघ, -
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बनगार
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HEARTHEAKINNRELATASTEM
द्वारं यद्विषशस्त्रपावकतिरस्कारो राहंकृति । यन्म्लेच्छेष्वपि गर्हितं तदनृतं जल्पन्न चेद्रौरव
प्रायाः पश्यति दुर्गती: किमिति ही जिह्वाच्छिदाद्यान् कुधीः ॥ ४० ॥ सत्प्रतिषेध असदुद्भावन और विपरीत इन तीन प्रकारके असत्योंसे सभी लौकिक और शास्त्रीय व्यवहारों-प्रवृत्ति निवृत्तिकी पद्धतियोंका विप्लव होजाता है। जगत्का समस्त व्यवहार अथवा वर्णाश्रम धर्मका आचार व्यवहार इन असत्योंसे नष्ट अथवा विपरीत होजाता है। सावध नामका जो असत्य है वह हिंसा चोरी और कुशील आदिसे उत्पन्न होनेवाले पापोंका द्वार है। क्योंकि " जमीनको खोद डाल, ठंडे पानीसे ही स्नान करले, पूआ तो पकाले, थोडे फूल तोडले, यह चोर है" इत्यादि अनेक प्रकारके वचनों के मार्गसे ही उन पापोंका आस्रव होता है | अप्रिय नामका जो असत्य है उसका अहंकार तो इतना उत्कट है कि जो विष शस्त्र और अग्निका भी तिरस्कार करता है। क्योंकि विषसे मनुष्य उतने मोहित नहीं हो सकते जितने कि अप्रिय वचनोंसे होते हैं । उसी प्रकार शस्त्रसे आहत होकर मनुष्योंको उतना असह्य दुःख नहीं हो सकता जितना कि आप्रिय वचनोंको सुनकर होता है । एवं च, अग्निसे भी मनुष्य उतने संतप्त नहीं हो सकते जितने कि अप्रिय शब्दोंसे होते हैं। . गर्हित वचनोंको निंद्य कहते हैं। इस विषयमें कहा है किः -.
“पैशुन्यहास्यगर्भ कर्कशमसमञ्जसं प्रलपितं च ।
अन्यदपि यदुत्सूत्रं तत्सर्व गर्हितं गदितम् ॥" चुगली या हास्यपूर्ण वचन अथवा कर्कश अयोग्य, और भी जो उत्सूत्र भाषणादिक हैं वे सभी ग
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१-सचित्त पानीसे।
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हित वचन कहे जाते हैं। इस तरहके वचन, आर्य पुरुषोंकी तो बात ही क्या, म्लेच्छोंमें भी निन्द्य समझे जाते हैं। जो सर्व धर्मोंसे बहिष्कृत हैं उनको म्लेच्छ कहते हैं। ऐसे लोग भी जिस वचनका आदर नहीं करते
और उसको घृणाकी दृष्टिसे देखते हैं। तो उस वचनको आर्य लोग तो बोल ही किस तरह सकते हैं ? इन असत्य वचनोंके बोलनेवाला कुबुद्धि मनुष्य जब रौरव प्रभुति नरकादिक दुर्गतियोंको ही नहीं देख सकता तो हाय, वह जिव्हाछेदादिक अपायोंको तो देख ही किस तरह सकता है।
भावार्थ-असत्य भाषण करनेसे संसारमें अनेक अनर्थ तो होते ही हैं, किंतु जो ऐसे वचनोंके बोलनेवाला है, स्वयं उसको भी इस भवमें जिव्हाछेदन स्वजनवियोग मित्रतिरस्कार और सर्वस्वहरण प्रभृति दण्ड मिलते हैं और पर भवसे अनेक नरकादिक दुर्गतियां भोगनी पडती हैं। अत एव मुमुक्षुओंको उक्त दोषरूपी साँसे पृथक् रहनेकेलिये चारो ही प्रकारके असत्यका त्याग करना चाहिये ।
जिससे लोकमें चमत्कार दिखा देनेवाले फल बहुलतया प्राप्त होते हैं उस सत्य और प्रशस्त वचनका ही नित्य सेवन करनेका उपदेश देते हैं:
विद्याकामगवीशकृत्करिमरिपातीप्यसौषधं, कीर्तिस्वस्तटिनी हिमाचलतटं शिष्टाब्दषण्डोष्णगुम् । वाग्देवीललनाविलासकमलं श्रीसिन्धुवेलाविधुं,
विश्वोद्धारचणं गृणन्तु निपुणाः शश्वद्वचः सूनृतम् ॥ ४१ ॥ जो विधिपूर्वक साधन करनेसे सिद्ध होती हैं उनको विद्या कहते हैं। ये विद्याएं इच्छित पदार्थोंको दिया करती हैं इसलिये इनको कामधेनुके समान समझना चाहिये । किंतु जिस प्रकार बच्चेसे पसुराये विना गौ ध नहीं
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देती उसी प्रकार सत्य वचनके विना ये विद्याएं भी इच्छित पदार्थ नहीं दे सकतीं। अत एव विद्यारूपी कामधे. नुका बच्चा, यह सत्य वचन ही है। कहा भी है कि:
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सत्यं वदन्ति मुनयो मुनिमिर्वद्या विनिर्मिता सर्वाः।
म्लेच्छानामपि विद्याः सत्यभृतां सिद्धिमायान्ति ।। जितनी विद्याएं हैं वे सब मुनियोंकी बनाई हुई हैं। और मुनिलोग सत्य ही बोलते हैं । अत एव जो | सत्य भाषण करनेवाले हैं उन्हीको वे सिद्ध होती हैं। जो म्लेच्छ होनेपर भी सत्यभाषी हैं तो उनको भी वे विद्याएं सिद्ध हो जाती हैं।
शत्रुओंद्वारा किये गये अपकाररूपी अपायके कारणभूत सर्पका यह सत्य वचन प्रतीकार- इलाज है। और अत्यंत निर्मल तथा जगत्को आल्हादित करनेवाली कीर्तिरूपी गङ्गाका मानो यह हिमवान् पर्वत है। क्योंकि जिस प्रकार गङ्गाकी उत्पत्ति हिमवान्से ही होती है उसी प्रकार कीर्तका जन्म और प्रकार भी इस सत्य वचनसे ही होता है । यह शिष्टपुरुषरूपी कमलवनकेलिये मानो सूर्यके समान है। क्योंकि लोकका उपकार करनेवाले सत्पुरुष जब कि कमलवनके सदृश हैं तो जिस प्रकार सूर्यको देखकर कमलवन खिल जाता है उसी प्रकार सत्य वचनको . पाकर सत्पुरुष भी विकसित हो जाते हैं। प्रीतिके उत्पन्न करनेवाली वाग्देवी-सरस्वतीरूपी ललनाका मानो यह विलासकमल--क्रीडाकमल ही है। जिस प्रकार क्रीडाकमल ललनाओंकी रतिका कारण होता है उसी प्रकार सत्य वचन भी सरस्वतीकी प्रीतिका कारण है । लक्ष्मीरूपी समुद्रकी वेलाकेलिये मानो यह चंद्रमाके समान है। क्योंकि जिस प्रकार चंद्रमाको पाकर समुद्रकी वेला बढ़ने लगती है उसी प्रकार सत्य वचनके निमित्तसे लक्ष्मीकी भी वृद्धि होने लगती है। इस प्रकार समस्त जगतका विपत्तियोंसे उद्धार करदेने में समर्थ इस सत्य वचनका ही मुमुक्षुओंको निरंतर भाषण करना चाहिये ।
भावार्थ-यह सत्य वचन छह विशेष गुणोंसे युक्त है। १ इससे विद्याएं सिद्ध होती, २ शत्रुओका प्रतीकार होता, ३ कीर्ति विस्तृत होती, ४ सत्पुरुष आल्हादित होते, ५ सरस्वती प्रसन्न
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होती, और ६ लक्ष्मी सिद्ध होती है । अत एव जगत्का उद्धार करनेमें समर्थ और अद्भुत चमत्कारोंसे युक्त इस सत्य वचनका ही सूक्ष्म दृष्टि रखनेवाले मुमुक्षुओंको निरंतर भाषण करना चाहिये ।।
उपर्युक्त सत्य वचनके स्वरूपका निरूपण करते हैं:
सत्यं प्रियं हितं चाहः सूनतं सुनतव्रताः।
तत्सत्यमपि नो सत्यमप्रियं चाहितं च यत् ॥ ४२ ॥ सत्यका व्रत रखनेवाले " मैं सत्य ही बोलूंगा " इस तरहकी दृढ प्रतिज्ञामें निष्णात व्यक्तियोंने सत्यका स्वरूप इस प्रकार कहा है कि- सत्-उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक पदार्थके ऐसे निरूपण करनेको सत्य कहते हैं जो सत् - प्रशस्त योग्य तथा प्राणियों के कल्याणका कारण हो; जो सुननेवालोंको आल्हाद उत्पन्न कर. नेवाला हो; और जिससे जीवोंका उपकार हो। किंतु उस सत्य को भी सत्य न समझना चाहिये जो कि अप्रिय और अहितकर हो। चोरको चोर कहना यद्यपि यथावत् पदार्थका निरूपण करना ही है । फिर भी अप्रिय बचन होनेके कारण उसको असत्य ही कहा है। क्योंकि असत्य भाषण के जो दोष बताये हैं वे कर्कशादिक वचन बोलनेवालेको भी लगते हैं । यथाः--
___ असत्य वचनके जो लौकिक और पारलौकिक दोष बताये हैं वे ही सब कर्कश वचनादिकोंके भी समझने चाहिये।
. साधुओंको सज्जन पुरुषोंका समीचीन कल्याण करनेकेलिये समयानुसार ही बोलना चाहिये ऐसी शिक्षा देते हैं:
साधुरत्नाकरः प्रोद्ययापीयूषनिर्भरः। अ.ध. ४२
वध्याय
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जनगार
RASANNE
समये सुमनस्तृप्त्यै वचनामृतमुद्रेित् ॥ ४३ ॥ उछलते हुए दयारूपी पीयूष-अनुकम्पारूपी अमृतसे निरंतर पूर्ण रहनेवाले और गाम्भीर्यादिक अनेक गुणोंसे युक्त तथा सिद्धिका साधन करनेकेलिये उद्यत, अत एव रत्नाकर-समुद्रके समान साधुको, देवोंके समान सजनोंके तृप्त करनेकेलिये अपना वचनरूपी अमृत समयानुसार ही प्रकट करना चाहिये । प्रकरण और आगमके अनुरूप ही बोलना चाहिये ।
साधुओंको मुख्यतया मौन ही धारण करना चाहिये । किंतु यदि कदाचित् बोलना भी पडे तो जिससे आत्मकल्याणमें विरोध न आव इस तरहसे ही बोलना चाहिये। ऐसा उपदेश देते हैं:
मौनमेव सदा कुर्यादार्यः स्वार्थैकसिद्धये । स्वैकसाध्ये परार्थे वा ब्रूयात्स्वार्थाविरोधतः ॥ ४४ ॥ .
अनेक गुण अथवा गुणवान् पुरुष जिसका आश्रय लेते हैं ऐसे साधुको परोपकारकी अपेक्षा न करके केवल अपनी आत्माका कल्याण सिद्ध करनेकेलिये निरंतर मौन ही धारण करना चाहिये । अथवा यदि कोई ऐसा परोपकारका कार्य हो जो कि एक अपने द्वारा ही सिद्ध हो सकता हो तो, उस विषयमें बोलना भी चाहिये । किंतु स्वार्थ-आत्मकल्याणमें किसी तरहका विरोध न आवे इस तरहका बोलना चाहिये ।
अध्याय
___भावार्थ-साधुओंको परोपदेशादिक भी करना चाहिये किंतु आत्मसिद्धिमें किसी तरह विरोध न आवे-बाधा उपास्थित न हो इस तरहसे ही वह करना उचित है । क्योंकि यह कार्य यौण है। मुख्यतया तो साधुओंको मौन ही धारण करना चाहिये । कहा मी है कि:
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बनगार
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श्रध्याय
४
मौनमेव हितं पुंसां शश्वत्सर्वार्थसिद्धये । वचो वातिप्रियं तथ्यं सर्वसत्वोपकारि यत् ॥
समस्त पुरुषार्थोंकी सिद्धिकेलिये मनुष्यों को निरंतर मौन ही धारण करना चाहिये । अथवा समस्त जीवोंका उपकार करनेवाला अत्यंत प्रिय और सत्य वचन बोलना चाहिये । और भी कहा है कि:धर्माशे क्रियाध्वंसे स्वसिद्धान्तार्थविप्लवे । अपृष्टेरपि वक्तव्यं तत्स्वरूपप्रकाशने ॥
जहां पर धर्मका नाश होता हो, या क्रियाकाण्डका ध्वंस होता हो, अथवा आत्मसिद्धांत के अर्थका विलव होता हो, वहां पर उनका सत्य स्वरूप प्रकाशित करनेकेलिये विना पूछे भी बोलना चाहिये ।
क्रोध लोभ भीरुत्व और हास्य इन चार भावोंका प्रत्याख्यान - त्याग तथा अनुत्रीचे भाषण इस तरह पांच भावनाओं को करनेवाले साधुको अपने सत्यव्रतका माहात्म्य अच्छी तरह उद्दीप्त करना चाहिये। इस बात की शिक्षा देते हैं:
--
हत्वा हास्यं कफवल्लोभमपास्यामवद्भयं भित्त्वा ।
वातवदपो कोपं पित्तवदनुसूत्रयेद्विरं स्वस्थः ॥ ४५ ॥
स्वस्थ साधुओं को उचित है कि वे हास्य कषायको कफकी तरह नष्ट करके, और लोभ कषायको आम विकारकी तरह दूर करके, तथा भयको वातदोषकी तरह छोड़ कर अथवा कोप- क्रोधको पिचकी तरह त्याग कर सूत्रानुसार ही वचन बोलें ।
भावार्थ - व्याधिरहित पुरुषको स्वस्थ कहते हैं -- यथा:--
धर्म -
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प्रनगार
समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः । प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते ।।
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जिसके वात पित्त और कफ समान हैं तथा जिसकी अग्नि समान है और जिसकी धातु तथा मलकी क्रियाएं भी समान एवं जिसके आत्मा इन्द्रिय और मन सदा प्रसन्न रहते हैं उस मनुष्यको स्वस्थ समझना चाहिये । किंतु प्रकृतमें स्व-अपने स्वरूपमें ही स्थित होने या रहनेवालेको जो परद्रव्यके सम्बन्धसे सर्वथा रहित है उसको-स्वस्थ कहते हैं। ऐसा अर्थ समझना चाहिये । अत एव जो समस्त परद्रव्योंसे सम्बन्ध छोडचुका है ऐसे साधुको हास्य कषाय इस तरहसे छोडदेनी चाहिये जिस तरहसे कि लोग कफको छोडदेते हैं । क्योंकि कफ-श्लेष्माकी तरह हास्य भी जाड्य और मोह-मूछा आदिको उत्पन्न करनेवाला है। इसी प्रकार लोभको आमकी तरह अत्यंत दुर्जय विकार समझ कर, और भयको वातविकारके समान मनमें विप्लव पैदा करदेनेवाला समझकर तथा क्रोधको पित्तकी तरह अत्यंत संताप उत्पन्न करनेवाला समझकर दूर करदेना चाहिये । ऐसा करनेपर ही वह मुमुक्षु पूर्णतया स्वस्थ हो सकता है । कफादिकके उदाहरण देकर हास्यादिके त्याग करनेका जो उपदेश दिया है. उससे यह अभिप्राय भी समझलेना चाहिये कि साधुको इन बाह्य विकारोंसे भी रहित होना चाहिये । क्योंकि व्याधिरहित होकर ही वह आत्मपदका साधन अच्छी तरह कर सकता है ।
अध्याय
१- आमाशयको प्राप्त दूषित रसको आम कहते हैं । यथाः
ऊष्मणोल्पबलत्वेन धातुमान्द्यमपाचितम् ।
दुष्टमामाशयगतं रसमामं प्रचक्षते । कोई कोई अतिदूषित वात पित्त कफके परस्परमें मिलनेसे आमकी उत्पत्ति मानते हैं । यथाः -
अन्ये दोषेभ्य एवातिदुष्टेभ्योन्योन्यमूर्छनात् । कोद्रवेभ्यो विषस्येव वदन्त्यामस्य संभवम् ॥
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अनगार
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अध्याय
सत्य वचन और मृषा भाषणका उदाहरणद्वारा फल विशेष दिखाते हैं:
सत्यवादीह चामुत्र मोदते धनदेववत् ।
मृषावादी सधिक्कारं यात्यधो वसुराजवत् ॥ ४६ ॥
जो सत्य भाषण करनेवाला है वह पुरुष इस लोक में और परलोकमें दोनो ही जगह धर्मदेवकी तरहसे प्रमोदको प्राप्त होता और सुखी होता है। किंतु जो मृषा भाषण करनेवाला है वह वसुंराजाकी तरह जगत् में निन्दित होता और अंत में अधोगति - नरकादिकको जाकर प्राप्त होता है ।
सत्य दश प्रकारका है - जनपद- देश, सम्मति, स्थापना, नाम, रूप, प्रतीति, संभावना, भाव, व्यवहा र, और उपयान । उदाहरणद्वारा इनका स्वरूप प्रकट करते हैं: -
सत्यं नाम्नि नरीश्वरो, जनपदे चोरोन्धसि, स्थापने
देवोक्षादिषु दारयेदपि गिरि शीर्षेण संभावने ।
भावे
प्रासु, चौदनं व्यवहृतौ दीर्घः प्रतीत्येति ना
पल्यं चोपमितौ सित: शशधरो रूपेम्बुजं सम्मतौ ॥ ४७ ॥
ऐश्वर्य न रहनेपर भी व्यवहारमात्र प्रयोजन सिद्ध करनेकेलिये किसी साधारण मनुष्यकी ईश्वर संज्ञा रखदेना इसको नामसत्य कहते हैं। किसी देश या प्रांतविशेषकी अपेक्षा विषयविशेषमें रूढ शब्दको जनपद सत्य कहते हैं। जैसे कि भातको किसी किसी देशमें चोर कहते हैं। यह कहना उस देशकी अपेक्षासे सत्य है । किसी एक पदार्थमे दूसरे पदार्थकासा व्यवहार करनेकेलिये उस दूसरे पदार्थके भावको निक्षिप्त करनेका नाम स्थापना है । और तदनुसार निरूपण करनेको स्थापना सत्य कहते हैं। किसी द्वन्द्रिय कायविशेषको अथवा १ – २ – इन दोनोंकी कथाएं ग्रन्थान्तरोंमें प्रसिद्ध हैं ।
SARAINING
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शतरंजके मुहरोंको यद्वा पाषाणादिकको, यह देव है, ऐसा कहना। जो पदार्थ या कार्य जिस रूपमें हो सकता है उस रूपमें कभी न होनेपर भी उस पदार्थ या कार्यकी उस योग्यताके निदर्शनको संभावना सत्य कहते हैं। जैसे कि यह कहना कि " अपने शिरसे यह पर्वतका भी भेदन कर सकता है ।" कोई कोई आचार्य इसकी जगह संयोजना सत्य बताते हैं । जैसा कि चारित्रसारमें भी कहाहै कि-"धूप चूर्ण वासना लेप चटनी आदिकमें किस पदार्थ का कितना भाग रखना उसके विधान करनेवाले वचनको अथवा पद्म मकर हंस सर्वतोभद्र क्रौंच चन्द्र शकट आदिक सेनाके व्यूह-रचनाविशेष प्रभृतिमें चेतन और अचेतन पदार्थके कितने भागको और कहांपर विभक्त करना, इस बातके बतानेवाले शब्दोंको संयोजना सत्य कहते हैं।" किसी पदार्थकी यथार्थ सूक्ष्म अवस्थाविशेषके प्रकट करनेवाले शब्दोंको भावसत्य कहते हैं। जैसे कि छद्मस्थ ज्ञानी-अल्पज्ञानके धारण करनेवाले संयमी अथवा श्रावकोंसे जो कि द्रव्यके पूर्ण स्वरूपको देख नहीं सकते, उनके संयमादिक गुणोंका पालन करनेकेलिये सचित्त वस्तुको, यह अप्रासुक है, ऐसा कहना तथा अचित्त वस्तुको, यह प्रासुक है, ऐसा कहना । जिनसे अहिंसादिक भावोंका पालन हो सकता है उन वचनोंको भी भाव सत्य कहते हैं। जैसे कि यह कहना कि देख सोध कर अपने आचारमें प्रवृत्त हो और सावधान रह । लोकव्यवहारके अनुरूप वचनको व्यवहार सत्य कहते हैं । जैसे कि पके हुए भी चावलों-भातके विषयमें यह कहना कि "चावल करलो-पकालो" अथवा, " चावल किये हैं" इत्यादि । एक पदार्थमें किसी दूसरे पदार्थकी अपेक्षासे कुछ भी वर्णन करनेको प्रतीत्य सत्य कहते हैं । जैसे कि यह कहना कि " यह आदमी लम्बा है।" यद्यपि उससे भी अधिक लम्बाई पाई जाती है तथा प्रत्येक आदमीमें भी कुछ न कुछ लम्बाई रहती ही है। फिर भी सर्व साधारणकी अपेक्षासे कुछ अधिक लम्बाई बतानेके लिये ही ऐसा कहा है। यही प्रतीति इस शब्दसे होती है। अत एव ऐसे सत्य वचनको प्रतीत्य सत्य कहते हैं । तुलनास्मकता दिखानेवाले शब्दको उपमिति सत्य कहते हैं । जैसे कि पल्य-खासकी सदशताकी अपेक्षासे नाप-विशेषको भी पल्य कहना । अन्य वर्णोंके रहते हुए भी किसी विवक्षित वर्णकी अपेक्षासे उस पदार्थको वैसा ही कहना इसको
बध्याय
१-उपमा मानके आठ भेदोंमेंसे एक भेदरूप संख्याविशेष | इसका प्रमाण गोमट्टसारादिकमें देखना चाहिये ।
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बनगार
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अध्याय
AAAAAAALDA의 전기
रूप सत्य कहते हैं । जैसे कि चन्द्रमामें काले दागके रहते हुए भी उसकी अपेक्षा न करके उसको सफेद कहना । जिसमें लोकोंका किसी प्रकार विवाद न हो, सभी उसको सत्य समझें ऐसे वचनको संमति सत्य कहते हैं । जैसे कि कीच आदि कारणोंसे उत्पन्न होनेपर भी कमलको अम्बुज - अम्बु - जलसे उत्पन्न होनेवाला कहना |
आगम में भी इसी प्रकार सत्य दश भेद गिनाये हैं । यथा:
देशेष्टस्थापनानामरूपापेक्षाजनोक्तिषु । संभावनोपमाभावेष्विति सत्यं दशात्मना ॥ ओदनोप्युच्यते चोरो राज्ञी देवीति संमता । दृषदप्युच्यते देवो दुर्विधोपीश्वराभिधः ॥ दृष्टाधरादिरागपि कृष्णकेश्यपि भारती । प्राचुर्याच्छ्रतरूपस्य सर्वशुक्लेति सा स्तुता ॥
स्वापेक्षो भवेद्दीर्घः पच्यन्ते किल मण्डकाः । अपि मुष्टया पिनष्टन्द्रो गिरीन्द्रमपि शक्तितः ।। अतद्रूपापि चन्द्रास्या कामिन्युपमयोच्यते । चौरे दृष्टेप्यदृष्टोक्तिरित्यादि वदतां नृणाम् ॥ स्यान्मण्डलाद्यपेक्षायां सत्यं दशविधं वचः ।
सत्य दश प्रकारका है- १ जनपद, २ संमति, ३ स्थापना, ४ नाम, ५ रूप, ६ अपेक्षा, ७ व्यवहार, ८ संभावना, ९ उपमा, १० भाव । इनके उदाहरण क्रमसे इस प्रकार हैं। -> भातको चोर कहना, २ रानीको देवी कहना, ३ पत्थरको देव कहना, ४ भाग्यहीन अथवा कुरूपको भी ईश्वर कहना, ५ यद्यपि भारतीके अधर रक्त और केश काले होते हैं फिर मी श्वेत रूप प्रचुरतासे पाया जाता है, इसलिये उसको सर्वशुक्ला कहना, ६ किसी वस्तुको उससे भी छोटी वस्तुकी अपेक्षा दीर्घ कहना, ७ बनी हुई रोटीके विषय में यह कहना कि रोटी पक रही है. ८ इन्द्र
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यदि शक्तिसे काम ले तो वह अपनी मुष्टिसे सुमेरुका भी चूर्ण कर सकता है, ९ चन्द्रमाके सदृश रूप न रहते हुए भी किसी कामिनीको चन्द्रमुखी कहना, १० देखे हुए भी चोरको विना देखा हुआ कहना।
ऊपरके श्लोकमें उपमासत्यके उदाहरणका उल्लेख करते हुए पल्य शब्दके साथ जो चशब्दका प्रयोग किया है सो वह अनुक्तविषयक भी समुच्चय दिखानेकेलिये है । अत एव उसमें यह अर्थ भी संगृहीत होजाता है । नौ प्रकारके असत्यमृषारूप अनुभय वचनको भी यदि साधु आगमसे अविरुद्ध बोले तो उससे उसके सत्यव्रतकी हानि नहीं होती । क्योंकि ऐसे इन वचनोंसे सत्यका अतिवर्तन नहीं होता । यथाः
सत्यमसत्यालीकव्यलीकदोषादिवय॑मनवद्यम ।
सूत्रानुसारि वदतो भाषासमितिभवेच्छुद्धा ।। असत्य अलीक व्यलीक आदि दोषोंसे रहित अनवद्य और सूत्रके अविरुद्ध बोलनेवाले साधुकी भाषासमिति शुद्ध समझी जाती है । ऊपर जिनका उल्लेख किया है उन नौ प्रकारके अनुभय वचनोंको गिनाते और स्पष्ट करते हैं:
याचनी ज्ञापनी पृच्छानयनी संशयिन्यपि । आह्वानीच्छानुकूला वाक् प्रत्याख्यान्यप्यनक्षरा ।। असत्यमोषभाषेति नवधा बोधिता जिनैः ।
व्यक्ताव्यक्तमतिज्ञानं वक्तुः श्रोतुश्च यद्भवेत् ।। १ याचनी २ ज्ञापनी ३ पृच्छा ४ आनयनी ५ संशयिनी ६ आह्वानी ७ इच्छानुकूला ८ प्रत्याख्यानी ९ और अनक्षरा । इस प्रकार असत्यमृषाभाषाके जिनेन्द्रदेवने ९ भेद गिनाये हैं। इन ९ प्रकारक वचनोंको असत्यमृषा इसलिये कहते हैं कि इनके वक्ता और श्रोता दोनोंको इनके वाच्यविषयका जो मतिज्ञान होता है वह कुछ व्यक्त और कुछ अव्यक्त होता है।
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इन नौ भेदोंका विवरण करते हैं-
त्वामहं याचयिष्यामि ज्ञापयिष्यामि किंचन । प्रष्टुमिच्छामि किंचित्त्वमानेष्यामि च किंचन । बालः किमेष वतीति व्रत संदेग्धि मे मनः ।
व्याम्येहि भो भिक्षो करोम्याज्ञां तव प्रभो ॥ किंचित्वां त्याजयिष्यामि हुं करोत्यत्र मौः कुतः | याचन्यादिषु दृष्टान्ता इत्थमेते प्रदर्शिताः ॥
१ मैं तुमसे याचना करवाऊंगा, ३ मैं कुछ पूछना चाहता हूं, ४ मैं कुछ लाऊंगा, ५ यह बालक क्या कह रहा है ? बताओ तो मेरा मन संदेहमें पडगया है, ६ हे साधो ! मैं तुमको बुला रहा हूं, यहां आओ, ७ जो आपकी आज्ञा होगी वही करूंगा, ८ मैं तुमसे कुछ छुडवा दूंगा, ९ यहांपर गौ हुं हुं क्यों कर रही है। ये क्रमसे याचनी आदि भाषाके उदाहरण । इसी तरह और भी समझलेने चाहिये ।
अ. घ. ४२
इस प्रकार सत्यका स्वरूप और भेद प्रभेद समझकर साधुओंको सत्य महाव्रतका पालन करना चाहिये । मैं कुछ अयोग्य वचन नहीं बोलता; एतावता मेरे सत्यव्रतका पालन होगया; ऐसा मुमुक्षुओं को समझकर संतोष धारण न करलेना चाहिये । उन्हें असत्य वचनों का सुनना भी छोडना चाहिये; क्योंकि उनको सुनकर अशुभ परिणामोंका होना संभव है और उनसे फिर महान् कर्मबन्ध हो सकता है । अतएव साधुओंको यत्नके साथ उन वचनों का सुनना छोडदेना चाहिये कि जिनसे अशुभ परिणामोंका होना संभव हो । जैसा कि आगममें भी कहा है कि:
1
तव्विवरीदं सथं कज्जे काले मिदं सविसए य । भत्तादिकारहिदं भणाहि तं चेन य सुणाहि ॥
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अनगार
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साधुओंको योग्य कार्य योग्य काल और अपने विषयमें मित और भक्तादि कथाओंसे रहित सत्य वचन बोलना चाहिये और ऐसे ही वचन उन्हे सुनने भी चाहिये। . इस सत्य महाव्रतका व्याख्यान पूरा करके क्रमप्राप्त अचौर्य महाव्रतका ग्यारह पद्योंमें व्याख्यान करनेकी इच्छासे पहले चोरीके दोष दिखाते हुए उससे त्याग करनेका उपदेश देते हैं:
दौर्गत्याद्यग्रदुःखाग्रकारणं परदारणम् ।
हेयं स्तेयं त्रिधा राद्धुमहिंसामिष्टदेवताम् ॥४८॥ इच्छित पदार्थोको देनेवाली तथा अभिमत देवताके समान अहिंसाका आराधन करनेकेलिये मुमुक्षुओंको उस स्तेय-चौरकर्मका सर्वथा त्याग करदेना चाहिये जो कि दुर्गति-नरकादिकोंके उग्र-महान् दुःखका प्रधान कारण, और दूसरोंका अच्छी तरह विनाश करनेवाला है। क्योंकि चोरीमें प्रवृत्ति करनेवालेको परलो. कमें नरकादिककी जो प्राप्ति होती है वह और उसके सिवाय इस लोकमें दारिद्रथ वध बंधन आदि शारीरिक तथा मानसिक जो संतापरूप फल प्राप्त होते हैं वे सब स्पष्ट हैं । यथाः
"वधबन्धयातनाश्च छायाघातं च परिभवं शोकम् ।
स्वयमपि लभते चौरो मरणं सर्वस्वहरणं च ॥" चोरी करनेवाला मनुष्य वधबंधनकी यातनाओं अथवा और भी अनेक प्रकारकी यातनाओं-दुःखोंको, तथा छायाघात-अपनी या पराई छायाके देखनेसे ही आहत हो जाना , परिभव-तिरस्कार, और शोकको स्वयं ही प्राप्त होता है। किंतु इनके सिवाय मरण और सर्वस्वहरण जैसे फल भी उसको प्राप्त होते हैं।
इसी प्रकार चोरीके निमित्तसे जो दसरोंका घात होता है सो भी स्पष्ट है। क्योंकि:
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पनगार
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अर्थेपहृते पुरुषः प्रोन्मत्तो विगतचेतनो भवति ।
मियते कृतहाकारो रिक्तं खलु जीवितं जन्तोः ।। धनका हरण हो जानेपर मनुष्य अत्यंत उन्मत्त और चेतनाशून्य होजाता है तथा हाय हाय करता हुआ मर जाता है।
और भी कहा है किःजीवति सुख धने सति बहुपुत्रकलत्रमित्रसंयुक्तः ।
धनमपहरता तेषां जीवितमप्यपहृतं भवति । धनके रहते हुए ही मनुष्य अपने बहुतसे पुत्र कलत्र मित्र प्रभृति बंधु बान्धवोंके साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकता है । अत एव जो मनुष्य उसके धनका अपहरण करता है वह क्या उसके जीवनका ही अपकरण नहीं करता? अवश्य करता है। इससे सिद्ध है कि चोरी करनेवाला मनुष्य परघात जसे अकृत्यको भी करता ही है।
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धनका अपहार करना मानो उन प्राणियोंके प्राणोंका अपहरण करना है, यह बात दिखाते हैं
त्रैलोक्येनाप्यविक्रेयानऽनुप्राणयतोङ्गिनाम् ।
प्राणान् रायोऽणकः प्रायो हरन् हरति निघृणः ॥ ४९ ॥ जिन प्राणोंको प्राणी त्रिलोकीके मूल्यसे भी बेचना नहीं चाहते उन प्राणोंका अनुवर्तन करनेवाले ध नका जो निकृष्ट पापी निघृण-करुणारहित होकर हरण करता है वह प्रायः उन मनुष्योंके प्राणोंका ही हरण करता है । क्योंकि यदि किसीसे यह कहा जाय कि " हम तुमको तीन लोककी संपत्ति देंगे उसके बदलेमें तुभ
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अनगार
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हमको अपने प्राण दे दो" तो कोई भी इस बातपर राजी न होगा। इससे मालुम होता है कि मनुष्योंको अपने प्राण सबसे अधिक प्रिय हैं। और साथ ही प्रत्येक मनुष्य धनको भी अपने प्राणोंसे अधिक ही समझता है। क्योंकि प्राण जाते भी वह धनको जाने देना नहीं चाहता। इससे यह बात भी मालुम होती है कि मनुष्योंका धन उनके श्वासोच्छ्रासके साथ ही श्वासोच्छ्रास लेता है- जीवित रहता है। जिस प्रकार मनुष्य स्वयं अ.पने प्राणोंका अनुगमन करता है उसी प्रकार अपने धनको वह प्राणोंका अनुगमन कराता है-प्राणोंके साथ ही धनको रखता है। अतएव जो मनुष्य किसीके धनका हरण करता है. वह उसके प्राणोंका हरण करता है और वह निकृष्ट पापी तथा निर्दय व्यक्ति है ऐसा ही समझना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि
पापास्रवणद्वारं परधनहरणं वदन्ति परमेव ।
चौरः पापतरोसा शोकनिकव्याधजारेभ्यः ।। ___ चोरी करनेवाला मनुष्य अहेरिया व्याध और जार पुरुषसे कहीं अधिक पापी है। क्योंकि आगममें दूसरोंके धनके हरणको अत्यंत उत्कृष्ट ही पापास्रवका द्वार बताया है ।
चोरी करनेवालेके माता पिता प्रभृति भी यही चाहते हैं कि यह हमसे सदा और सर्वत्र दूर ही रहे । यही बात दिखाते हैं
दोषान्तरजुषं जातु मातापित्रादयो नरम् ।
संगृह्णन्ति न तु स्तयमषीकृष्णमुखं क्वचित् ॥ ५० ॥ यदि कोई मनुष्य चोरीके सिवाय आर कुछ अपराध करे तो कदाचित् उसके माता वहिन भाई आदि बान्धव उसको आश्रय दे सकते हैं। -छिपा सकते हैं। किंतु जिसका मुख चौरकर्मरूपी कजलसे काला होगया है उसको वे कभी आश्रय नहीं दे सकते ।
AAJanuarzanvAREnergurmeermarcomeTO
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बनगार
भावार्थ-चोरी करनेवालेको संसारमें कोई भी शरण नहीं दे सकता । जब माता पिता ही नहीं दे सकते तष और कौन दे सकता है। कहा भी है कि:
अन्यापराधवाधामनुभवतो भवति कोपि पक्षेपि । गया पगधभाजो भवति न पक्षे निजोपि जनः ।। अन्यस्मिन्नपगधे ददति जना वासमात्मनो गेहे ।
मातापि निजे सदने यच्छति वासं न चौरस्य ।। दसरे अपराधोंसे पीडित होनेवालेके पक्षमें कदाचित् कोई आदमी हो भी जाय पर चोरीका अपराध करनेवालेके पक्षमें निजका-कुटुम्बका भी आदमी नहीं हो सकता ।
दसरे अपराधोंके होनेपर मनुष्य उस अपराधीको अपने घरमें जगह-आश्रय देदिया करते हैं। किंतु चोरीका अपराध करनेवालेको मा भी अपने घरमें जगह नहीं दिया करती । • चोरी करनेवालेके अत्यंत दुःसह दुःखोंके कारणभूत कर्मोका जो बंध होता है उसको बताते हैं:
भोगस्वाददुराशयाऽर्थलहरीलुब्धोऽसमीक्ष्यहिकी:, स्वस्य स्वैः सममापदः कटुतराः स्वस्यैव चामुष्मिकीः । आरुह्यासमसाहसं परधनं मुप्णन्नधं तस्कर,
स्तत्किंचिच्चिनुते वधान्तविपदो यस्य प्रसूनश्रियः ॥ ५१ ॥ चोरी करनेवाला मनुष्य उस अनिर्वचनीय पापकर्मका संचय करता है कि जिसकी वध-प्राणदण्ड पर्यन्त होनेवाली विपत्तियां ही पुष्पसंपत्ति हैं : क्योंकि अपने कुटुम्बियों-बन्धु बान्धवोंके साथमें जो स्वयं
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भोगनी पडती है उन इहलोकसम्बन्धी उक्त प्राणदंडान्त विपत्तियोंको तथा उनसे भी अधिक कटु और जो केवल अपनेको ही भोगनी पडती हैं ऐसी परलोकमें प्राप्त होनेवाली आपत्तियोंको न देखकर उनपर किसी प्रकारका विचार न करके और असाधारण साहसपर आरूढ होकर जो वह पर धनका हरण करता है सो केवल विषयभोगोंका स्वाद लेनेकी दुष्ट आशासे और एक साथ ही प्रचुर धनके आनेमें लुब्ध होकर-गृद्धि रखकर ही करता है।
भावार्थ-चोरी करनेवालेको जिन कर्मोंके उदयसे ऐहिक तथा पारलौकिक असह्य यातनाओंका सहनकरना पडता है उनके बंधके कारण वे दुर्भाव हैं जो कि विषयभोगोंकी लोलुपताको तृप्त करनेकेलिये युगपत् प्रचुरधन प्राप्त करनेकी इच्छासे दूसरों के धनापहारकी गृद्धिरूप होते हैं । इन अभिकांक्षारूप परिणामोंसे तीव्र कर्मोंका संचय होता और फिर उनके उदयसे असह्य दुःस्व प्राप्त होते हैं । अत एव यह स्पष्ट है कि चोरी करनेवालके जो दुर्भाव होते हैं उनके अनुसार दोनो भवोंमें प्राप्त होनेवाले दुःसह दुःखोंके कारणभूत घोर पापकर्मका बंध हुआ करता है। चोरी और उसका परित्याग दोनोंका दृष्टांतपूर्वक फल बताते हैं:
श्रुत्वा विपत्ती: श्रीभूतेस्तद्भवेन्यभवष्वपि ।
स्तेयात्तव्रतयेन्माढिमारोढुं वारिषेणवत् ॥ ५२ ॥ श्रीभूतिकी तरह इस चोरीके निमित्तसे इस भवमें तथा भवान्तरोंमें भी जो विपत्तियां प्राप्त होती हैं उनको सुनकर मुमुक्षुओंको पूज्यतापर आरूढ होनेकेलिये वारिषेणकी तरहसे चौरकर्मका त्याग ही करना चाहिये।
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, भावार्थ-चोरीके निमित्तसे दोनो ही भवमें जीवको श्रीभूतिकी तरह विपत्तियां प्राप्त होती और उसके त्यागसें वारिषेणकी तरह पूज्यता प्राप्त होती है। अत एव अचौर्यव्रत धारण करना उचित है।
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मनगार
और भी चोरीके दोषोंको प्रकाशित करते हुए उसका त्याग करनेकेलिये दृढ करते हैं:
गुणविद्यायशःशर्मधर्ममर्माविधः सुधीः । अदत्तादानतो दूरे चरेत्सर्वत्र सर्वथा ॥ ५३
गुण विद्या यश शर्म-कल्याण और धर्म इन सबके मर्मका छेदन करनेवाले अदत्तादानसे सम्यग्ज्ञानियोंको सर्वत्र-समस्त देश और समस्त कालमें तथा सर्वथा-सभी भंगोंसे दूर ही रहना चाहिये।
भावार्थ-दूसरेकी विना दी हुई किसी भी धनादिक वस्तुके ग्रहण करलेनेको चोरी कहते हैं। जिस प्रकार प्राणियोंके मर्मपर आघात होते ही उनका मरण हो जाता है उसी प्रकार चौर कर्ममें प्रवृत्ति होते ही मनुष्योंके कुलीनता नम्रता धीरता आदि गुण तथा अनेक प्रकारकी विद्याएं और सुख तथा धर्म सब नष्ट होजाते हैं।
ज्ञान और संयमादिकके साधनोंको यदि कोई विधिपूर्वक दे तो उनको ग्रहण करना चाहिये ऐसी शिक्षा देते हैं:
認認微盤鐵盤鐵盤鐵盤鐵盤盤鐵盤觀
वसतिविकृतिबर्हवृसीपुस्तककुण्डीपुरःसरं श्रमणैः ।
श्रामण्यसाधनमवग्रहविनाग्राह्यमिन्द्रादेः ॥ ५४ ॥ ___ आगममें मुनियोंको कोई भी पदार्थ ग्रहण करनेका जो विधान बताया है उसी विधिके अनुसार यदि कोई देवेन्द्र या नृपति प्रभृति श्रामण्यके साधन-अध्ययन, कायशुद्धि, तथा संयमादिककी सिद्धिके कारणभूत वसति-प्रतिश्रय, विकृति-भष्म, वई-पिच्छ, वृसी-व्रतियोंका आसन, पुस्तक कमण्डलु आदि पदार्थ दे तो तपस्त्रियोंको वे ग्रहण करने चाहिये ।
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भावार्थ-साधुओंको रंचमात्र मी अदत्त वस्तु ग्रहण न करनी चाहिये । यदि कोई दे भी तो आगमोक्त विधिके अनुसार दी हुई और ज्ञान तथा संयमका जो साधन हो ऐसी ही वस्तु ग्रहण करनी चाहिये । ..
विधिपूर्वक दिये हुए संयमादिके साधनोंको ग्रहण करके जो साधु यथोक्त संयमका पालन करता | है उसीका अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध हो सकता है, ऐसा उपदेश देते हैं: -
शचीशधात्रीशगृहेशदेवतासधर्मणां धर्मकृतेस्ति वस्तु यत् ।
ततस्तदादाय यथागमं चरन्नऽचौर्यचंचुः त्रियमेति शाश्वतीम् ॥ ५५ ॥ शचीश-इंद्र-प्रकृतमें पूर्व पश्चिम और दक्षिण दिशाका स्वामी सौधर्मेन्द्र तथा उत्तर दिशाका अधिपति ऐशानेन्द्र और भूपति-राजा, एवं वसतिकाका स्वामी-गृहेश, तथा क्षेत्रका अधिष्ठाता देव, और अपने संगके साधु, इनकी ऐसी वस्तु जो धर्मका साधन हो उसको उसके स्वामीकी आज्ञासे ग्रहण करके आगमानुसार संयमका अनुष्ठान करनेवाला साधु अचौर्यव्रतमें दृढ रह सकता और शास्वत--अविनश्वर लक्ष्मी- मुक्तिश्रीको प्राप्त कर सकता है।
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___ मावार्थ-साधुको कोई भी अदत्त वस्तु ग्रहण न करनी चाहिये । यदि इंद्र राजा गृहेश देवता और साथी साधु इनमेंसे किसीकी ऐसी कोई वस्तुहो कि जिसके निमित्तसे अपने ज्ञान संयमका साधन हो सकता हो तो वह भी उस वस्तुके स्वामीकी आज्ञासे लेकर ही अपने उस ज्ञानसंयम साधनके काममें लेनी चाहिये। ऐसा करनेपर ही उसका अचौर्यव्रत स्थिर रह सकता है।
अचौर्यव्रतको स्थिर रखनेकेलिये और उसके माहात्म्यको उद्दीप्त करनेकेलिये साधुओंको १ शून्यागार
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अनगार
२ विमोचितावास ३ परोपरोधाकरण ४ भैक्ष्यशुद्धि ५ और सधर्माविसंवाद, इन पांच भावनाओंके भानेका उपदेश देते हैं:
शून्यं पदं विमोचितमुतावसेट्टैक्षशुद्धिमनुयस्येत् ।
न विसंवदेत्सधर्मभिरुपरुन्ध्यान्न परमप्यचौर्यपरः ॥ ५६ ॥ तृतीय अचौर्य व्रतका पालन करनेवाले साधुको शून्य-निर्जन गुहा गृह प्रभृति तथा विमोचित-परचक्रादिक जिसको खाली करके चले गये हैं ऐसे स्थानमें निवास करना चाहिये। और भैक्ष्य-भिक्षाओंमें अथवा भिक्षासे प्राप्त अन्नमें शुद्धिका विचार करके-पिण्ड शुद्धिके प्रकरणमें जो भिक्षाके दोष बताये हैं उनका परिहार करके प्रवृत्ति करनी चाहिये । तथा यह तेरा है यह मेरा है यह समझकर अथवा ऐसा प्रकरण उपस्थित करके साधर्मी साधुओं अथवा श्रावकादिकसे विसंवाद-झगडा उपस्थित न करना चाहिये । एवंच दूसरोंको रोकना भी न चाहिये-अभ्यर्थनादिकके द्वारा किसीका संकोच न करना चाहिये। यदि कोई श्रावकादिक अन्य पुरुष भी उस स्थानादिपर आवे तो उनके प्रतिबंधका प्रयत्न न करना चाहिये। इन पांच भावनाओंके निमित्तसे साधुओंका अचौर्यव्रत स्थिर रहता और उद्दीप्त होता है।
अचौर्यव्रतकी भावनाओंको प्रकारान्तरसे बताते हैं:
योग्यं गृह्णन् स्वाम्यनुज्ञातमस्यन्, सक्ति तत्र प्रत्तमप्यर्थवत्तत् । गृह्णन् भोज्येप्यस्तग?पसङ्गः,
खाङ्गालोची स्यान्निरीहः परस्वे ॥ ५७ ॥ अ.ध. ४४
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-
अध्याय
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अनगार
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३१६
स्वामीके द्वारा अनुज्ञात और योग्य-संयम अथवा ज्ञानकी साधक वस्तुका ही ग्रहण करते हुए, तथा उसके ग्रहण करनेमें भी आसक्तिका त्याग करते हुए, एवंच दी हुई वस्तुको भी प्रयोजन मात्र ग्रहण करते हुए साधुओंको पर वस्तुमें सर्वथा निरीह होना चाहिये । इसी प्रकार भोज्य वस्तुके ग्रहणमें तथा शरीरमें गृद्धिका परित्याग कर और परिग्रहसे रहित हो तथा अपने शरीरका आलोचन करते हुए अथवा आत्मा और शरीरमें भेदावलोकन करते हुए मुमुक्षुओंको पर वस्तुओंमें आकांक्षा न करनी चाहिये ।
भावार्थ- यहांपर दो प्रकारसे पांच पांच भावनाएं बताई हैं । एक आचार शास्त्रके अनुसार, दूसरी प्रतिक्रमण शास्त्र के अनुसार । आचार शास्त्रमें कहा है कि -
उपादानं मतस्यैव मते चासक्तबुद्धिता । ग्राह्यस्यार्थकृतो लानमितरस्य तु वर्जनम् ॥ अप्रवेशोऽमतेऽगारे गृहिभिर्गोचरादिषु ।
तृतीये भावना योग्ययाच्या सूत्रानुसारतः ॥ तृतीय-अचौर्यव्रतमें ये पांच भावनाएं भानी चाहिये । १ अनुमत-स्वामीके द्वारा अनुज्ञात और योग्य ही वस्तुका ग्रहण करना, २ और अनुमत वस्तुमें भी आसक्त बुद्धि न रखना, ३ तथा जितनेसे अपना प्रयोजन सिद्ध हो उतना ही उसको ग्रहण करना बाकीको छोड देना, ४ गोचरादिक करते समय जिस गृहमें प्रवेश करनेकी उसके स्वामीकी अनुमति नहीं है उसमें प्रवेश न करना, ५ और सूत्रके अनुसार योग्य विषय की ही याचना करना।
.. इन्ही पांच भावनाओंका ग्रंथकारने पूर्वार्धमें निदर्शन किया है । स्वामीके द्वारा अनुज्ञात इस विशेषणसे तीन भावनाओंका संग्रह होता है। १ आचारशास्त्रमें कही हुई विधिके अनुसार योग्य वस्तुका याचन २ और योग्य ग्रहण, ३ तथा जिस गृहमें उसके स्वामीकी प्रवेशाज्ञा नहीं है उसमें प्रवेश न करना । क्योंकि
अध्याय
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बनगार
ये तीनो ही विषय स्वामीकी अनुज्ञासे सम्बन्ध रखते हैं। इसी प्रकार योग्य और अनुज्ञात वस्तुके भी ग्रहण करनेमें आसक्ति न रखनेरूप चतुर्थ भावना तथा प्रयोजनमात्र ही उस वस्तुके ग्रहण करनेरूप पांचवीं भा. .. वना स्पष्ट है । ये भावनाएं आचारशास्त्रके अनुसार हैं। . उत्तरार्धमें प्रतिक्रमण शास्त्रके अनुसार पांच भावनाओंका स्वरूप बताया है । प्रतिक्रमण शास्त्रमें कहा
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है कि:
- देहणं भावणं चावि उग्गहं च परिग्गहे।
संतुठ्ठो भत्तपाणेषु तदियं वदमस्सिदो ॥ तृतीय-अचौर्य व्रतको आश्रित प्राप्त साधुकेलिये आगममें ये पांच भावनाएं बताई हैं। १ देहन-शरीर की अशुचिता या अनित्यता आदिका विचार, २ भावन-आत्मा और शरीरको भिन्न भिन्न समझना और निरंतर पुन: पुनः ऐसा विचार करना कि ये शरीरादिक मानों आत्माके एक प्रकारके खोल हैं । कर्मके उदयसे आत्मापर इनका व्यर्थ ही बोझ लदा हुआ है जिनसे कि उसका कुछ भी उपकार नहीं होता, इत्यादि। ३ परिग्रहका निग्रह-त्याग, जितने भी चेतन या अचेतनरूप पर पदार्थ हैं उनके सम्पर्कसे अथवा उनमें ममत्व रखनेसे आत्मा अपने हितमें माछित होजाता है अपने वास्तविक कल्याणकी सिद्धि नहीं कर सकता। अत एव इनका परिहार करना ही उचित है। ऐसा विचार करना। ४ भक्तसंतोष-विधिपूर्वक जैसा भी भोजन प्राप्त होजाय; चाहे खीर हो चाहे शाक हो उसीमें संतोष धारण करना और ऐसा समझना कि यह तो केवल शरीरकी स्थिरताका उपाय मात्र है। यदि न लिया जाय तो शरीर स्थिर नहीं रह सकता । और उसके विना तपश्चरणद्वारा कोका निर्जरण नहीं किया जा सकता। अत एव उसकी स्थिरताकेलिये निरन्तराय और विधिपूर्वक जो योग्य शुद्ध भोजन मिल गया वही ठीक है । अथवा भोजन न मिलनेपर ऐसा विचार करना कि अच्छा हुआ, अन्तराय कर्म उदयमें आकर निर्जीर्ण होगया । अतः मुझको भोजन नहीं मिला । इसलिये मेरी कुछ हानि नहीं हुई, इत्यादि । ५ पानसंतोष-भोज्य वस्तुकी तरह पेय वस्तुके लाभालाभमें भी संतोष धारण करना और उसकी प्राप्तिकेलिये गृद्धि-लोलुपता न रखना।
सध्याय
३४७
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अलमार
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इन्ही पांच भावनाओंको ग्रंथकारने इस पद्यके उत्तरार्धमें बताया है। जिनमेंसे भोज्यमें गृद्धिका त्याग बताकर भक्तसंतोष और पानसंतोष इन दो भावनाओंको, और अपिशब्दसे देहमें अशुचित्वादिकी भावनाको, तथा अपसङ्गशब्दसे परिग्रहत्यागकी चौथी भावनाको, और स्वाङ्गालोची शब्दसे आत्मा और शरीरके भेदविज्ञानरूपी पांचवीं भावनाको दिखाया है। इन भावनाओंके निमित्तसे ही अस्तेय व्रत स्थिर रह सकता है । अत एव साधुओंको आचार शास्त्र के अनुसार योग्य याचन योग्य ग्रहण अननुप्रवेश अनासक्ति और अर्थवद्हण इन पांच भावनाओंको तथा प्रतिक्रमण शास्त्रके अनुसार भक्तसंतोष पानसंतोष देहन अपसङ्ग और स्वाङ्गालोचन इन पांच भावनाओंको भाना चाहिये । और इनका भावन करते हुए परवस्तुके विषयमें सर्वथा निरीह होना चाहिये। ऐसा करनेपर ही अस्तेयव्रत स्थिर रह सकता और उसका माहात्म्य उद्दीप्त हो सकता है।
जिस प्रकार अस्तेय व्रतकी भावनाओंको प्रकारान्तरसे यहां बताया है उसी प्रकार दूसरे व्रतोंकी भी भावनाएं प्रकारान्तरसे ग्रन्थान्तरोंमें और भी बताई हैं। उनको आगम और प्रकरणके अनुसार समझलेना चाहिये। , अस्तेय व्रतकी अत्यंत दृढतापर अच्छी तरह आरूढ हुए और प्रौढ महिमाके धारण करनेवाले साधुओंको जो परम पदकी प्राप्ति होती है उसकी प्रश्नंसा करते हैं:
ते संतोषरसायनवयसनिनो जीवन्तु यैः शुद्धचि,मात्रोन्मेषपराङ्मुखाऽखिलजगदौर्जन्यगर्जद्भुजम् । जित्वा लोभमनल्पकिल्बिषाविषस्रोतः परस्थं शकृन्,
मन्वानैः खमहत्त्वलुप्तखमदं दासीक्रियन्ते श्रियः ॥ ५८ ॥ शुद्धचिन्मात्र-समस्त विकल्पोंसे रहित निश्चल चतन्यके उन्मेष-साक्षात् अनुभवोपयोगसे पराङ्मुख ।
बध्याय
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बनगार
धर्म
अतएव अशुद्ध चिद्विवर्तका ही अनुभवन करनेवाले इस समस्त जगत्में-बहिरात्म प्राणिगणोंमें जिसकी भुजाएं अपने दौर्जन्य-अपकारकर्तृत्वकी गर्जना कर रही हैं-इस संसारमें हम ही प्राणियोंका सबसे अधिक अपकार करने में समर्थ हैं ऐसा उद्घोषण करनेवाले-तीन जगत्के विजेता लोभ कबायको-गृद्धिरूप परिणामको जीत कर जो तपस्वी दसरोंके धनको शकृत-विष्टाके समान अथवा ऐसा समझते हैं मानों यह बडे भारी पापरूपी विषका सोत-नदीका पूर है। और इसीलिये जो अपने महत्त्वसे आकाशके भी महत्वका लोप करते हुए लक्ष्मियों-संपदाओंको दासी-किंकरी बनालेते हैं। ऐसे संतोषरूपी रसायनका ही सेवन करनेमें निरन्तर तत्पर रहनेवाले साधुगण सदा जीवित रहें-दया दम त्याग समाधिरूप पाणोंको निरंतर धारण करें।
भावार्थ-यद्यपि लोभकषाय जगद्विजयी है और उसने इस जगत्को-शुद्धात्मस्वरूपके अनुभवनसे दूर कर रक्खा है. फिर भी वह संतोषके द्वारा जीता जा सकता है । यथाप्राप्त योग्य वस्तुके उपयोगमें ही अपना समीचीन हित समझनेको संतोष कहते हैं । यह संतोष रसायनके समान है। क्योंकि इसका सेवन दीर्घायुरादिक गुणोंकी प्राप्तिका कारण है। इसीके निमित्तसे साधु पुरुष दूसरोंके धनमें निरीह होकर-अस्तेय व्रतका दृढताके साथ पालन करके आकाशसे भी अधिक महत्ता प्राप्त करलेते हैं। क्योंकि जो दूसरोंके धनमें स्पृहा नहीं रखता उससे भी अधिक महान् और कौन हो सकता है। ऐसे पुरुषकी समस्त संपत्तियां दासी बनजाती हैं और वह दया दम त्यागादिकरूप प्राणोंको धारण कर चिरजीवी हो, परम पदको प्राप्त करलेता है।
इस प्रकार अचौर्य महाव्रतका व्याख्यान पूर्ण करके अब क्रमप्राप्त ब्रह्मचर्य महाव्रतका पेंतालीस पघोंमें व्याख्यान करना चाहते हैं। किंतु मुमुक्षुओंको उसका पालन करनेकेलिये विशेष रुचि उत्पन्न हो इसलिये पहले उसके माहात्म्यका वर्णन करके नित्य ही उसका पालन करने में उद्यम करनेकी प्रेरणा करते हैं
प्रादुःषन्ति यतः फलन्निजगुणाः सर्वेप्यखौंजसो यत्प्रव्हीकुरुते चकास्ति च यतस्तद्राह्ममुच्चैर्महः ।
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अध्याय
३४९
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बनगार
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अध्याय
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homema
त्यक्त्वा स्त्रीविषयस्पृहादि दशधा ब्रह्मामलं पालय, स्त्रीवैराग्यनिमित्तपञ्चकपरस्तद् ब्रह्मचर्यं सदा ॥ ५९ ॥
जिसके निमित्तसे अथवा जिसके होनेपर आत्माके अहिंसादिक भाव वृहत् होते- बढते हैं उस शुद्ध निजात्माकी अनुभूतिरूप परिणतिको ब्रह्म, और उससे भिन्न मैथुनभावको अब्रह्म कहते हैं। जिस प्रकार - के निमित्तसे अहिंसादिक भाव बढते उसी प्रकार अब्रह्मके होनेपर हिंसादिक भाव बढते हैं। क्योंकि मैथुन सेवनमें उद्यत हुवा मनुष्य स्थावर और त्रस दोनो ही प्रकारके प्राणियोंकी हिंसा करता; मृषा भाषण करता; अदत वस्तुका ग्रहण करता; और चेतन तथा अचेतन परिग्रहका संग्रह भी करता है । इस तरह स्वभावसे ही दूषित इस अब्रह्मके, स्त्रीसम्बन्धी रूप रस गन्ध स्पर्श शब्द प्रभृति विषयों में स्पृहा - अभिलाषासे लेकर बस्ति - मोक्षादिक दश भेद हैं जिनका कि आगे चलकर वर्णन करेंगे। इस दशो प्रकारके अब्रह्मको हे मोक्षार्थी भव्य तू देव गुरु और सघर्माओंकी साक्षीसे छोड कर मानुषी तिरश्ची दैवी और उनकी प्रतिमा इस तरह चारो ही प्रकारकी स्त्रियों में वैराग्य - रिरंसा - रमण करनेकी इच्छाका निग्रह करनेकेलिये जो कामके दोषोंका पुनः पुनः विचार प्रभृति पांच निमित्त कारण बताये हैं जिनका कि स्वरूप आगे चल कर लिखेंगे उनमें प्रधानतया तत्पर रहकर उस ग्रहण किये हुए निर्मल निरतीचार ब्रह्मचर्यका सदा - यावज्जीवन पालन कर उसको अच्छी तरह उद्दीप्त कर | क्योंकि इस ब्रह्मचर्यके ही निमित्तसे व्रत शील प्रभृति गुण संयमके भेद प्रादुर्भूत होते और फलते हैं- आत्मा के प्रयोजनको सिद्ध करने में समर्थ होते हैं । तथा जितने भी अखर्व तेजके धारण करनेवाले हैं वे सब इसके सामने नम्र होते हैं। और इसीके निमित्तसे शब्द अथवा केवलज्ञानरूपी ब्रह्मका वह श्रुतकेवलित्व अथवा केवलित्व पर्यंत उत्कृष्टताको प्राप्त हुआ और स्वपरप्रकाशक तेज प्रकाशित होता है जो कि प्रसिद्ध है।
भावार्थ- ब्रह्मचर्य के होनेपर ही संयम उत्पन्न और सफल हो सकता तथा सांसारिक प्रभुता भी जा
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मनगार
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गृत हो सकती है। क्योंकि इसके तेजके सामने नारायण प्रतिनारायण चक्रवर्ती और प्रतीन्द्रादिककी तो बात ही क्या, अखर्व-बढते हुए और उन्नत तेज तथा उत्साहके धारण करनेवाले इंद्र अथवा अहमिन्द्रादिक भी खडे नहीं रह सकते, नत हो जाते हैं। और इसीके निमित्तसे आत्माका वास्तविक ज्ञानस्वरूप आविर्भूत होता है। अतएव हे मुमुक्षो ! इस तरहके ब्रह्मचर्यका तुझको देव गुरु और सधर्माकी साक्षीसे ग्रहण कर यावजीवन पालन करना चाहिये । और उसके विरोधी स्त्रीविषयाभिलाषा प्रभृति अब्रह्म भावोंका सर्वथा त्याग करना चाहिये। .
_ ब्रह्मचर्यके स्वरूपका निरूपण कर उसका पालन करनेवालोंको जो परमानन्द प्राप्त होता है उसको बताते हैं:
या ब्रह्माणि स्वात्मनि शुद्धबुद्धे चर्या परद्रव्यमुचः प्रवृत्तिः । तद्ब्रह्मचर्य व्रतसार्वभौमं ये पान्ति ते यान्ति परं प्रमोदम् ॥६॥
बध्याय
दृष्ट श्रुत और अनुभूत इन तीनो ही प्रकारके भोगोंकी आकांक्षारूप निदान तथा और भी जो रागादि रूप वैभाविक मल-दोष हैं उन सबसे रहित होनेके कारण यह आत्मा शुद्ध और समस्त पदार्थों का युगपत् साक्षात्कार-प्रत्यक्ष अवलोकन करनेमें समर्थ है इसलिये बुद्ध है । ऐसे शुद्ध और बुद्ध निजात्मा-अपने चित्स्वरूप ब्रह्ममें पर द्रव्योंका त्याग करनेवाले-अपने और परके शरीरसे भी ममत्वरहित व्यक्तिकी जो प्रवृत्ति-अमतिहत परिणतिरूप चर्या होती है उसीको ब्रह्मचर्य कहते हैं। क्योंकि " ब्रह्ममें चयों सो ब्रह्मचर्य" ऐसा ही निरुक्तिपूर्व अर्थ वैयाकरण भी करते हैं । यह व्रत समस्त व्रतोंमें सार्वभौमके समान है। क्योंकि समस्त भूमिके अधिपति चक्रवर्तीको सार्वभौम कहते हैं। जिस प्रकार पृथ्वीके सभी राजा मुकुटबद्धतक भी चक्रवर्तीके ही अधीन रहा करते हैं उसी प्रकार शेष सभी व्रतोंकी वृत्ति-प्रवृत्ति ब्रह्मचर्य के ही अधीन हो सकती है । इसके विना कोई व्रत पल नहीं सकता । अत एव जो मुमुक्षु इस ब्रह्मचर्यका पालन-रक्षण करते हैं-उसको अतीचारोंसे दूषित नहीं होने देते वे ही पुरुष परम प्रमोद-सर्वोत्कृष्ट आनन्द--मोक्षसुखको प्राप्त किया करते हैं।
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V
अनगार
ISISTERSTURES
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SENTENTRA
भावार्थ- सरत वैभाविक भावों और उनके कारणोंसे रहित होकर शुद्ध बुद्ध आत्मस्वरूपमें रमण करने को ब्रह्मचर्य कहते हैं । जैसा कि कहा भी है किः ..
निरस्तान्याङ्गरागस्य स्वदेहेपि बिरागिणः ।
जीवे ब्रह्मणि या चर्या ब्रह्मचर्यं तदीयते ॥' __ अपने और दूसरेके भी शरीरमें रागरहित पुरुषको जो आत्मस्वरूप ब्रह्ममें चर्या होती है उसको ब्रह्म चर्य कहते हैं । यह सब व्रतोंमें प्रधान है । अत एव इसके निरतीचार पालनेसे ही अविनश्वर अनन्त आत्मिक सुख प्राप्त हो सकता है। दश प्रकारके ब्रह्मचर्यकी सिद्धिकेलिये दश प्रकारके अब्रह्मका त्याग करनेकी प्रेरणा करते हैं:
मा रूपादिरसं पिपास सुदृशां मा वस्तिमोक्षं कृथा, वृष्यं स्त्रीशयनादिकं च भज मा मा दा वराङ्गे दृशम् । मा स्त्री सत्कुरु मा च संस्कुरु रतं वृत्तं स्मरस्मार्य मा, वत्स्यन्मेच्छ जुषस्व मेष्टविषयान् द्विःपञ्चधा ब्रह्मणे ॥ ६१ ॥
अध्याय
। हे आर्य ! दश प्रकारके ब्रह्मचर्यका पालन करनेकेलिये-देव गुरु और सधर्माओंकी साक्षीसे ग्रहण किये हुए मैथुनविरतिरूप व्रतकी सिद्धिकलिये इन दश कार्मोको तू मत कर-एक तो सुंदरियोंके रूपादिक रसका पान करनेकी अभिलाषा मत कर। उनके मुख प्रभृति अंगोंके सौंदर्यका चक्षुओंके द्वारा, बिम्बाफलके समान ओष्ठोंके रसका जिह्वा इंद्रियके द्वारा, निःश्वसितादिककी सुंदर गंधका घ्राणेंद्रियके द्वारा, पीन-घन और उन्नत
१-इन्द्रियग्राह्य पदार्थोंके स्वादको रस कहते हैं ।
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जनगार
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स्तनादिकोंके स्पर्शका सर्शनेन्द्रिय के द्वारा, गीतादिकके मनोहर शब्दोंका श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा परिभोग करनेकी इच्छा मत कर । दूसरे, वम्तिमोक्ष-लिङ्गकी विकारक्रियाको तू मत कर ! क्योंकि लिङ्गकी विकाराक्रिया के त्याग करनेको ही तो ब्रह्मचर्य कहते हैं । अत एव ब्रह्मचर्यका पालन करने के लिये तू इस क्रियाको मत कर । तीसरे, वृष्य पदार्थीका सेवन मत कर । दूध वगैरह अवा अन्नमें उर्द वगैरह जो ऐसे पदार्थ कि शुक्रकी वृद्धि करनेवाले हैं उनका सेवन मत कर । चौथे, वृष्य पदार्थका ही नहीं कितु स्त्रीशयनासनादिकका भी सेवन मत कर । क्योंकि जिस प्रकार कामिनियोंके अङ्गके स्पर्शसे प्रीतिकी उत्पत्ति होती है उसी प्रकार उनके शयनासनादिक भी प्रीतिकी उत्पत्तिके निमित्त हैं । जैसा कि कामियों को होता हुआ देखते हैं । अत एव स्त्रीसम्बंधी शर्यन और आसनका भी सेवन न करना चाहिये-उनपर बैठना न चाहिये। पांचवें, तू अपनी दृष्टी को उनके वराङ्ग-योनिस्थानकी तरफ मत लगा। टिसे मतलब कवल द्रव्यचक्षुको ही नहीं किंतु भावचक्षुको भी मत लगा। क्योंकि उसका विचार भी रागोद्रेक तथा अब्रह्मका बडा भारी कारण है । अत एव उनके कामाङ्गको तू निगाहमें भी मत ला । छठे, तू उनका सत्कार-सम्मान मतकर । सातवें, वस्त्र माला आदि शृङ्गारसामग्रीसे उनका संस्कार-भूषण-शृङ्गार मत कर। आठवें तू अपने पूर्वानुभूत मैथुनका स्मरण मत कर । मैंने पहले अपनी कमनीय कामिनियों के साथ इस तरह और ऐमा रमण किया था ऐसा स्मरण मत कर । नोवें, आगामी-भविष्यत्के लिये रमणकी इच्छा मत कर । मैं स्वर्गीय अङ्गनाओंके साथ इस इस तरह से रमण करूंगा ऐसी कल्पना या आकांक्षा मत कर । दशवें, इन्द्रियोंको अभिलषित और मनोहर विषयों का सेवन मत कर।
भावार्थ-इन दश प्रकारके अब्रह्मभावोंका परित्याग करनेपर ही ब्रह्मचर्यकी सिद्धि हो सकती है। अत एव मुमुक्षु तपस्वियोंको इनका त्याग ही करना चाहिये ।
अध्याय
१-यहांपर शयन और आसन शब्दसे अभिप्राय जिसपर स्त्रियां सोती या उठनी बैठती हों उस पदार्थसे है। खट्टा-चारपाई अथवा प्रसिद्ध आसनका. ही अभिप्राय नहीं है।
अं. ध. ४५
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जनमार
३५४
अध्याय
४
संसारके विषय दुर्निवार हैं, उनका परित्याग करना सहज नहीं है। वे मुनियोंके भी मनमें विकार उस्पा कर देते हैं। अत एव उनका परिहार करने के लिये जो समर्थ नहीं हैं ऐसे विनेयोंको उस परिहारके बि पयमें सावधान -- उयुक्त करते हैं:--
बल्यसुं घुणवद्वजमीष्टे न विषयव्रजः ।
मुनीनामपि दुष्प्रापं तन्मनस्तचमुत्सृज ॥ ६२ ॥
जिस प्रकार धुन बज्रको नहीं बंध सकता उसी प्रकार जिस मनको मे इन्द्रियोंके विषय रूपादिक नहीं वैध सकते - विकृत नहीं कर सकते वह मन सुनियों- तपस्वियोंको भी दुर्लम है । अत एव हे मुसो ! तू इन दुर्निवार विषयोंको छोड ।
भावार्थ - जिस मनको वेधनेकेलिये ये संसारके दुर्निवार भी विषय सर्वथा असमर्थ और दुर्बल समझे जा सकें ऐसे सुदृढ मनको प्राप्त करना ही मुनियोंका कर्तव्य है । इसलिये है मुमुक्षो ! तू इन विषयोंको ऐसा छोड कि जिससे ये तेरे मनको रंचमात्र भी विकृत न करसकें और तेरे सुदृढ मनके सामने ये दुर्निवार होनेपर भी ऐसे समझे जा सकें जैसे कि वज्रके सामने घुण । घुम वज्रको बेधनेकेलिये बिलकुल असमर्थ और दुर्बल है; क्योंकि वह काष्ठको वेघ सकता है; वज्रको नहीं । उसी प्रकार ये विषय भी चाहे दुर्बल हृदयके संसारी प्राणियोंको विकृत करा कर सकें पर तेरे मनको बिलकुल भी नहीं। तभी ब्रह्मचर्य व्रत पल सकता और आन्महित सिद्ध हो सकता है त्रियों में वैराग्यका होना ब्रह्मचर्यका मूल है । अत एव पांच भावनाओंके द्वारा उस वैराग्यको प्राप्त ब्रह्मचर्यको बढाने की शिक्षा देते हैं: -
नित्यं कामाङ्गनासङ्गदोषाशौचानि भावयन् । कृतार्थसङ्गतिः स्त्रीषु विरक्तो ब्रह्म वृंहय ॥ ६३ ॥
१ - इस श्लोक के प्रथम चरणका पाठ " कामाङ्गनाङ्गमासङ्ग - " ऐसा भी है। किंतु अभिप्राय एक ही है।
यह
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अनगार
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अध्याय
४
काम अङ्गना और सङ्ग-स्रीसंसर्ग इन तीनोंके दोषों व अशौचका निरंतर विचार और आर्यसङ्गति तथा स्त्रीविरक्ति इन पांच भावनाओंके द्वारा हे मुमुक्षो ! तू अपने ब्रह्मचर्य व्रतकी वृद्धि कर
मात्रार्थ - ब्रह्मचर्यकी वृद्धि श्रीवैराग्यसे होती और इस वैराग्यकी उत्पत्ति व वृद्धि इन भावनाओंसे होती है; अत एव तपस्वियों को इनका निरंतर ही अभ्यास करना चाहिये । क्योंकि कामविकार और स्त्रियों तथा उनके संसर्ग में जो दोष - आत्माका अपकार करनेवाले धर्म-स्वभाव हैं उनका और उनकी अपवित्रताका विचार ही ब्रह्मचर्यको निर्मल बना सकता है। इसी प्रकार ज्ञान और तप आदिकी अपेक्षा जो वृद्ध हैं, उनकी संगतिमें रहना और सदा स्त्रियों में विरक्त भाव रखना भी ब्रह्मचर्यव्रतकी वृद्धिका कारण है । अत एवं इस महाव्रतको
सुरक्षित रखने व बढानेकेलिये साधुओंको स्वमित्र और उनसे सम्बन्ध रखनेवाले सभी भावोंसे त्रिरक्त रहन चाहिये । जैसा कि कहा भी है:
मातृस्वस्तातुल्यं दृष्टं सीत्रिकरूपकम् |स्त्रीकथा विनिवृत्तिर्या ब्रह्म स्यात्तन्मतं सतम् ॥
अपने से बडी अपनी बराबरकी और अपने से छोटी इन तीनो प्रकारकी स्त्रियोंको देखकर उनको क्रमसे
भी निवृत्त होना इसको ही सत्पुरुषोंने
माता बहित और लडकीके समान समझना और स्त्रीकथादिकसे
ह्मचर्यव्रत माना
है ।
यहाँ से आठ पद्योंमें कामके दोषाकों निरूपण करना चाहते हैं । किंतु इसले पहके योनि आदिकमें
रमण करने की इच्छा तीव्र दुःखको उत्पन्न करनेवाली है, इसी बातको उसमें प्रवृत्तिके निमित्तोंका कथन क रते हुए प्रकाशित करते हैं: -
張絲雞雞雞&&&&&&&路觀雞雞湯 蘿影殺
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अनगार
वृष्यभोगोपयोगाभ्यां कुशीलोपासनादपि ।
पुंवेदोदोरणात्स्वस्थः कः स्यान्मैथुनसंज्ञया ॥ ६४ ॥ वृष्य पदार्थोके भोग और उपयोगसे तथा कुशील पुरुषोंके सेवनसे और अंतरङ्गमें उदयको प्राप्त हुए पुवेद कषायके निमित से होनेवाली मेथुन संज्ञासे, क्या कोई भी पुरुष स्वस्थ-सुखी हो सकता है ? कभी नहीं।
-चारित्रमोहनीय कर्मकी उस नोकषाय प्रकृतिको पुवेद कहते हैं कि जिसके उदय या उदीरणा होनेपर जीवको योनि अदिकमें रमण करने की इच्छा या तीत्र मोह उत्पन्न होता है । प्रकृतमें पुरुषको ही विनेय-~-पात्र श्रोता समझकर मैथुनसंज्ञ की उत्पत्तिका अन्तरङ्ग कारण पुंवेदकी उदीरणा बताया है। किंतु सामान्य मथुन संज्ञाका अंतरङ्ग कारण सामान्य से वेद नोकषाय ही है । अत एव यथास्थान स्त्रीवेद या नपुंसकवेदका ग्रहण करना चाहिये । कोमलता, अस्फुटता, कामदेवका तीव्र आवेश, नेत्रविभ्रम और सुखपूर्वक पुरुषके साथ रमण करने की कामना ये सब जीवेदके भाव हैं । इसके उल्टे पुरुषवेदके भाव हुआ करते हैं। और दोनों के मिश्ररूप नपुंसकवेदके हुआ करते हैं।
प्रकृतमें पुंवेदकी उदीरणा होने के बाह्य कारण तीन बताये हैं-वृष्य पदार्थोंका भोग और उपयोग तथा कुशीलसेवा । जो पदार्थ काम के बढानेवाले तथा उद्दीप्त करनेवाले हैं ऐसे दूध बतासे आदिके भोजन पानसे तथा रमणीय उद्यानादिकका सेवन करनेसे और स्त्रीलम्पट तथा व्यसनी पुरुषोंकी सेवा उपासना करने अथवा उनके अधीन होकर रहने से पुंवेदकी उदीरणा होती है। यहांपर अपि शब्द भिन्न क्रमका बोधक है । अत एव इन तीनों अथवा इन में से एक दो निमित्त से भी पुंवेदकी उदीरणा होती है ऐसा समझना चाहिये. अथवा इन कारणोंसे और पुत्रदकी उदारणासे मैथुन संज्ञा उद्भूत होती है ऐसा समझना चाहिये । जैसा कि आगममें चार कारणोंसे मैथुन संज्ञाका उत्पन्न होना बताया है। यथाः
अध्याय
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अनगार
३५७
पणिदरसभोयणाए तस्सुवओगा कुसीलसेवाए। .
वेदस्सुदीरणाए मेहुणसण्णा हवे चउहिं ।। पुष्ट गरिष्ठ और सरस पदार्थों का भोजन करनेसे, तथा ऐसे ही जो कि कामके उद्दपिक या वर्धक हों उसका सेवन करनेसे, एवं कुशील पुरुषोंकी सेवा करनेसे, और वेद-नोकषायकी उदारणा होनेसे, अर्थाय इन चार कारणोंसे मैथुन संज्ञा उत्पन्न होती है।
निरुक्तिकी अपेक्षा भी मैथुन संज्ञा शब्दका अर्थ ऐसा ही होता है । मिथुन-दम्पति-स्त्री और पुरुष इन दोनोंके कर्मको मैथुन कहते हैं। किंतु रूढिवश उनका विशेष कम जो कि रतिसुखका अनुभव करने के लिये चेष्टा की जाती है उसीको मैथुन कहते हैं । संज्ञा शब्दका अर्थ बांछा होता है। अत एव मैथुनकी इच्छाको ही मैथुनसंज्ञा कहते हैं । अर्थात् चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे रागविशेषसे आक्रांत हुए स्त्री और पुरुषकी जो परस्परमें स्पर्श करनेकी अभिलाषाविशेष होती है उसीको मैथुन संज्ञा कहते हैं। किंतु यहां एक बात और भी है वह यह कि ऐसे रागयुक्त चाहे स्त्री और पुरुष ये दो हों अथवा दो पुरुष ही हों, यद्वा दो स्त्रियां ही हों; जो कि परस्परमें एक पुरुषके अथवा स्त्रीके स्तनादिक अवयवोंका मैथुनके अभिप्रायसे संघटन करें तो ऐसा सभी कर्म जो कि मैथुनकेलिये किया जाता है, उपचारसे मैथुन ही कहा जायगा। इसको लोकमें संभोग श्रृंगार कहते हैं । यथाः--
अन्योन्यस्य सचित्तावनुभवतो नायको यदिद्धमुदौ । .
आलोकनवचनादि स सर्वः संभोगशृङ्गारः ॥ ___ बढे हुए हर्ष या प्रतिसे युक्त दोनो सहृदय व्यक्ति जब परस्परमें अनुभव करते हुए आपसमें प्रेक्षण संभाषण आदि करते हैं उस समय उनका वह समस्त कर्म संभोगशृंगार कहा जाता है।
आहारादिक संज्ञाओंकी तरह यह मैथुन संज्ञा भी तीव्र दुःखका कारण है। यह बात आगम और अनुभव दोनों ही से सिद्ध है । यथाः
ENERSITERAHATANETARYANBIKENARE
खध्याय
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इह जाहिं बाहिया वि य जीवा पावंति दारुणं दुक्खं ।
सेवंतावि व उभये वाओ चात्तरि सण्णाओ॥ आगममें कहा है कि-जिनसे बाधित होकर अथवा जिमका सेवन करनेवाले मनुष्य दारुण दुःख को प्राप्त होते हैं वे संज्ञाएं चार हैं।..
अनगार
__ और भी कहा
परितप्यते विषीदति शोचति विलपति च खिद्यते कामी। .....!
नक्तदिवं न निद्रा लभते ध्यायति च विमनस्कः ।। कामी पुरुष विमनस्क होकर ; क्योंकि उसका मन विक्षिप्त होजाता है अत एव संतप्त होता विषण्ण होता शोच करता बिलाप करता और खिन्न होता है। अधिक क्या निद्रा भी नहीं लेता और . दिन रात उसका ध्यान करता रहता है।
लोकमें भी प्रसिद्ध है कि:- .. उत्कण्ठा परितापो रणरणकं जागरस्तनोस्तनुता। . . फलमिदमहो मयाप्तं सुखाय मृगलोचनां दृष्टा ।।।
मुखका अनुभव करनेकेलिये मैंने मृगनयनीको देखा तो अहो उसके, फलरूपमें मुझको ये वस्तुएं प्राप्त -उत्कण्ठा परिताप रणरणक-उद्वेग जागरण और शरीरकी कृपता।
अध्याय
१-आहार भय मैथुन और परिग्रह ।
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बनगार
REE
और भी कहा है कि:असणं पति दीहं ससंति विरहाणलेण उज्जति ।
सिविणेवि मुर्णिदसुईण हंति णियविणीमूढा ।। भोजन छोड देता, दीर्घ निःश्वास लेने लगता, और विरहानलसे तप्त भी होता फिर भी निताम्बानियों मोहित हुआ यह पुरुष मुनींद्रोंके सुखको खप्नमें भी नहीं पा सकता । अर्थात् वह मुनियोंकीसी क्रिया करके भी मैथुनसंज्ञाके वश हर तरहसे दुःखी ही है। , ! .
इन्ही उपयुक्त सब बातोंको ध्यानमें रखकर ग्रंथकार कहते हैं कि-ऐसा कौन मनुष्य है जो कि वृष्य पदार्थोंका भोग और उपयोग तथा कुशीलसेवा इन तीन बहिरङ्ग कारणोंसे और पुरुषवेदके उदयरूप अन्तरङ्ग कारणसे उद्भूत हुई मैथुन सज्ञासे स्वस्थ - सुखी हुआ हो या हो सकता हो ? अर्थात् सभी मनुष्योंको इसके । कारण दुःखका ही अनुभव करना पडता है।
... बहिरात्मा-शरीरमें ही आत्मबुद्धि रखनेवाले प्राणिगण जो कि कामके दुःखोंसे ऐसे अभिभूत होजाते है कि जिनका निवारण नहीं किया जासकता, उनके उस दुर्निवार अभिभवपर दुःखके साथ शोक प्रकट करते हैं:
संकल्पाण्डकजो द्विदोषरसनश्चिन्तारुषो गोचर,- ' च्छिद्रो दर्पबृहद्रहो रतिमुखो ही कञ्चुकोन्मोचकः । कोप्युद्यद्दशवंगदुःखगरलः कन्दर्पसर्पः सम,
ही वन्दृष्टि हठंद्विवेगरुडकोडापेत जगत ॥ १५ ॥ . यह कामदेव एक अपूर्व सर्पके समान है जो कि संकल्परूपी अण्डेसे उत्पन्न हुआ करता है। इस अङ्गना
अध्याय
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बनगार
धर्म
३६०
ओंके देखने सुनने आदिसे जो उसके प्रति उत्कंठागर्भित मानसिक व्यापार होते हैं उनको संकल्प कहते हैं। नखकी त्वचाके समान कठिनताको प्राप्त होजानेवाले शुक्र और शोणित-पिताके वीर्य और माताके रजका जो चारा तरफ गोल परिवरण विशेष होजाता है उसको अण्डा कहते हैं। कामदेवरूपी सर्पकी उत्पत्ति इस संकल्परूपी अंडेसे ही होती है। इसी तरह राग और द्वेष ये दोनों ही इस कामदेवरूपी सर्पकी दो जिहाएं हैं। चिन्ताएं ही इसका रोष है। जिस प्रकार किसी व्यक्तिको काटनेके विषयमें अथवा साधारणः भी सपमें रोष-कोपविशेष हुआ करता अथवा रहा करता हैं उसी प्रकार कामदेव में चिंताएं रहा करती हैं । अभिलषित अंगनाओंके गुणोंका समर्थन और दोषोंका परिहार करनेकेलिये जो विचार होता है उसीको चिंता कहते हैं । सर्पमें रोषकी तरह कामी पुरुषमें यह चिन्ता प्रतिक्षण जाग्रत रहा करती है ! जिस प्रकार सपके विषय-रहनेके या प्रवेश करनेके स्थान वल्मीकादिके रन्ध्र छिद्र हुआ करते हैं उसी प्रकार कामदेवके विषय रूपादिक हैं । छिद्रको पाकर वल्मीकमें सूकी तरह रूपादिकको पाकर कामदेव अपने अभिलपित विषयमें प्रवेश कर जाया करता है । जिस प्रकार सर्पके तालुस्थान में एक डाढ-एक महान दात हुआ करता है जिससे कि वह जीवों को काटा करता है उसी प्रकार इस कामदेवरूपी सर्पके भी महान दर्प-वीर्योद्रेक रहा करता है जिससे कि जीवोंकी कुकृत्यमें प्रवृत्ति हुआ करती है । रतिमनका प्रीतिपूर्वक अवस्थान ही इस कामदेवरूपी सर्पका मुख है और ही-लजा ही इसकी केंचुली है । जिस प्रकार सर्प केंचुलीको छोडदिया करता है उसी प्रकार कामदेव या कामी पुरुप लज्जाको छोडदिया करता है । प्रतिक्षण बढते हुए शोकप्रभृतिदश वेग ही इसका जहर है । ऐमा यह अपूर्व कामदेवरूपी सर्प कितने दःखकी बात है कि देदीप्यमान विवेकरूपी गरुडकी कोड-दोनों भुजाओंके अन्तराल -मादसे बहिर्भूत इस जगतको सारे संसारको बडी बुरी तरहसे काट रहा है।
भावार्थ-विवेकशून्य मनुष्य ही इस कामदेवके वश हुआ करते और उससे दुनिवार दुःखोंका अ. नुभव किया करते हैं । अत एव उन दुखोंका अनुभव न करना पड़े इसलिये मुमुक्षुओंको विवेकपूर्वक उ. स कामका परित्याग ही करदेना चाहिये- उससे बिलकुल दूर ही रहना चाहिये जो कि अपूर्व सर्पके सगान
ENTSTS
अध्याय
६.
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अनगार
भयंकर है । क्योंकि सर्पकी अपेक्षा कामदेवकी भयंकरता बहुत अधिक है । सर्प के काटनेपर उतना दुःख नहीं होता जितना कि कामदेव के उद्रे पर हुआ करता है। इसी प्रकार सर्प के जहरका उतना वेग नहीं होता जितना कि कामदेवका हुआ करता है । शास्त्र में सर्पक विषक सात ही वेग प्रसिद्ध हैं। यथाः
" पूर्व दर्वीकृतां वेगे दुष्टं श्यावीभवत्यसृक् । श्यावता तेन वक्रादौ सपन्तीव च कीटकाः।। द्वितीये अन्थो वेगे तृतीये मूधगारवम् । दुगधो दशविक्ल दश्चतुथ ष्टोवन बमिः ॥ संधिविश्लपण तन्द्रा पमे पर्वभेदनम् । दाहो हिमा च षष्ठे तु हृत्पीडा गात्रगौरवम || मूछा विपाकोऽतीसारः प्राप्य शुक्रं तु सप्तमे ।
स्कन्धपृष्ठकटीभङ्ग सर्वचेष्टानिवर्तनम् ॥" सपॉके पहले वेगमें मनुष्यका रक दुषित होकर काला पडता है और वह कालापन क्रमसे मुखादिकमें भी आजाता है। तथा शरीरके भीतर ऐमा मालुम पड़ने लगता है मानो कीडे चल रहे हैं रेंग रहे हैं । दूसरे वेगमें शरीरमें गांठे पड जाती हैं और तीसरे वेगमें शिर भारी होजाता, दुर्गध आने लगती और देशविक्लेद होजाता है। चोथे वेगमें मुखसे फमूकर गिरने लगता, वमन होता और सन्धिस्थानोंका विश्लेषण होने लगता है। पांचवें वेगमें पवस्थानोंका भेदन होने लगता, शरीरमें दाह होता और हिचकी आने लगती हैं। छठे धेगमें हृदयमें पीडा होने लगती, शरीर भारी होजाता ओर मुछी विक तथा सीसार होजाता है । सातवें वेगमें वह शुक्रतक पहुंचकर स्कन्ध पृष्ठ और कटीका भंग कर देता है और समस्त चेष्टाओंको निहाते-मृत्यु होजाती है।
१-काटी हुई जगहमें शीर्णता होता डाट पड जाना । २-अलग अलग होजाना-खिल जाना। ३-ग्रंथियोंका भिन्न २ होजाना।
अ. घ. ४६
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अनगार
इस प्रकार सर्पके विसके मात ही वेग हैं। किंतु कामदेवके दश वेग हैं जिनका कि आगे वर्णन करेंगे । अत एव यह अपूर्व सर्पके समान है। यह ममस्त बहिरात्म जगत् को एक साथ ही और बुरी तरहसे काट रहा है । बुरेपनका अ-िप्राय यह कि वृद्ध पुरुषों में भी यह अपनी अत्यंत तीव्रता दिखाता और उनको अनुचित कामोंमें प्रवृत्त करादेता है । इस प्रकार बहिरात्म प्राणियोंपर इसका एकच्छत्र राज्य हो रहा है। जैसा कि कहा भी है कि:
इच्छि सरासणु कुसुम सह अंगु ण दीसइ जासु ।
हलितसु मयणमहाभहहु तिहुवणि कवणु ण दासु ॥ स्त्री शरासन-धनुष है और कुसुम-पुष्प वाण हैं । यद्यपि जिस के ये धनुष्य और वाण हैं उस पार्नुक का शरीर नहीं दीखता; फिर भी लोक उस को मदन महाभट कहत हैं। तीनो लोकमें ऐसा कौनसा मनुष्य है जो उसका दास न हो।
और भी कहा है कि:अनमः पञ्चमिः पाठपार्वश्व व्यजयतेषुमिः।
इत्यसंभाव्यमवेतद्विचित्रा वस्तुशक्तयः । यह बात असंभव ही है कि अनंगने और पांच ही वाणोंसे सो भी फलके वाणोंसे और समस्त जगत् को जीत लिया । अथवा ठीक भी है। क्योंकि वस्तुओं की शक्तियां विचित्र हुआ करती हैं।
कामके दश वेगोंको हेतुपूर्वक बताते हैं:४- शरीररहित-कामदेव ।
अध्याय
| ३६२
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अनगार
शुग्दिदृक्षायतोच्छ्रासज्वरदाहाशनारुचीः । संमूर्योन्मादमोहान्ताः कान्तामाप्नोल्सनाप्य ना ॥ ६ ॥
3e3
कामके वशीभूत हुआ मनुष्य अभिलषित अङ्गनाको न पाकर क्रमसे इन दश अवस्थाओंको प्राप्त होता है। १. शोक, २ दिदृक्षा-अपनी प्रियतमाके देखनेकी अभिलाषा, ३ आयतोच्छास-लम्बे २ श्वास लेना, ४ ज्वर-शारीरिक संतापरूपी व्याधि, ५ दाह समस्त शरीरमें जलन पडना, ६ अशनारूचि-भोजनपानकी अभिलाशाका दुर होजाना, ७ मूछी चेष्टाओंका नष्ट होजाना, १० अंत-नाश-मृत्यु । ये ही दश दशा कामी पुरुष की कामिनीके न मिलनेपर हुआ करती हैं । कहा भी हे कि:
शोचति प्रथमे वेगे द्वितीचे तां दिदृक्षते । तृतीये निःश्वसित्युचश्चतुर्थे ढाकते ज्वरः ।। पश्चमे दाते गात्रं षष्ठ भक्तं न रोचते । प्रयाति सप्तमे मूडामुन्मत्तो जायतेष्टमे ॥ न वेत्ति नवमे किंचिन्मियते दशमेऽवशः । संकल्पस्य षशेमैव वेगास्तीवास्तवान्यथा ॥
अध्याय
कामी पुरुष कामके पहले वेगमें शोक करता, दूपरे वेगमें अमीष्ट कामिनीको देखना चाहता और तीसरे वेगमें दीर्घ निःश्वास लेने लगता है। चौथे वेगमें उसको घर कामज्वर आजाता, पांचवें वेगमें शरीर जलने लगता और छठे वेगमें उसकी भोजनके ऊपरसे रुचि हट जाती है। तथा सातवें वेगमें मूर्छित होता, बाठमें उन्मत्त होता और नौवेंमें ज्ञानशून्य होकर दश धेगमें मृत्युको प्राप्त हो जाता है। कामी पुरुषके ये तीन मंद या
। केवल संकल्पके ही निमित्त दशव थेगमें मृत्युको प्राप्त होतात वेगमें मार्छित होता, बाने
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बनगार
३६४
आदावभिलाषः स्याचिन्ता तदनन्तरं ततः स्मरणम् । तदनु च गुणसंकीर्तनमुदगोथ प्रलापश्च ।। उन्मादस्तदनु ततो व्याधिर्जडता ततस्ततो मरणम् । .
इत्थमसंयुक्तानां रक्तानां दश दशा क्षेयाः॥ विरही कामुक पुरुषोंकी क्रमसे ये दश दशाएं हुपा करती हैं । सबसे पहले अभिलाषा, उसके बाद चिन्ता, और उसके अनन्तर स्मरण, उसके पीछे गुणसंकर्तिन, आर उसके भी पीछे उद्वेग, और फिर प्रलाप, तथा प्रलापके बाद उन्माद व्याधि जडता और मरण ।
कामसे पीडित हुए मनुष्यके लिये संमारमें ऐसा कोई कृत्य नहीं है कि जिएको वह न करडाले-बुरेसे बुरे काममें भी उसकी प्रवृत्ति होजाती है। यही बात बताते हैं:
अविद्याशाचकासमरमनस्कारमरुता , ज्वलत्युञ्चभोक्तुं स्मरशिखिनि कृत्स्नामिव शितम् । रिरंसुः स्त्रीपङ्के कृमिकुलकलङ्के विधुरितो ,
नरस्तन्नास्त्यास्मिन्नहह सहसा यन्न कुरुते ॥ ६७ ॥ जिस समय अविद्या-अज्ञान निमित्तसे उत्पन्न हुई आशाओं-भविष्य विषयोंके भोगकी आकांक्षाओंके बडे भारी प्रसाररूपी मनस्कार-संकल्प विकल्पकी वायुसे प्रेरित होकर कामदेवरूपी अग्नि माना समस्त चेतनाका भक्षण करजानेकेलिये ही जोरसे जलने लगती है। उस समय व्याकुल यह प्राणी सहसा . क्ष्म कृमियोंके कुलके स्थान स्त्रीरूपी कर्दममें संसारका रमण करने की इच्छा करना-प्रवेश करना चाहता है। हा, ऐसे समयमें संसारका ऐसा कौनसा अकृत्य है कि जिसको यह नहीं कर डालता।
अध्याय
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भावार्थ-जिस प्रकार अविद्या-जिसका ज्ञान नहीं हो सकता ऐसी अनिर्धारित विशेष आशाओं दिशाओंसे वहनेवाले वायुमण्डलके द्वारा प्रेरित होकर अग्नि मानो अभी सबका भक्षण करजायगी-सबको भस्मसात करदेगी इस तरह तीव्र रूपसे जब जलने लगती है तब उससे अत्यंत घबडाया हुआ आदमी पा समें यदि नितांत कीडोंका घर हो तो उसमें भी वह शीघ्र ही गिरना चाहता है। उस समय वह कृत्य और अकृत्यको कुछ भी नहीं देखता। इसी तरह प्रकृतमें भी समझना चाहिये।
यहांपर स्त्रीको कर्दम--कीचके समान बताया है। क्योंकि जिस तरह कीचमें असंख्यात सूक्ष्म जंतु रहा करते हैं उसी प्रकार स्वीके योनिस्थानमें भी जंतु होते हैं जैसा कि कामशास्त्रमें भी कहा है । यथा:--
रक्तजाः कुमयः सूक्ष्मा मृदुमध्याधिशक्तयः ।
जन्मवर्त्मसु कण्डूतिं जनयन्ति तथाविधाम् ।। स्त्रियोंके अंगविशेषों में सूक्ष्म जंतु हुआ करते हैं जो कि रक्तसे ही उत्पन्न होते और जन्मस्थानयोनिमें रिसाको कारणभूत कडूति-खुजलीको पैदा किया करते हैं।
जिसकी बुद्धि या मन ग्राम्य सुखका अनुभव करनकोलये उत्सुक रहा करता है ऐसा मनुप्य उस सुखके कारण धनका उपार्जन करनेके जितने निमित्त हैं उन सभी कामों में दिनरात परिश्रम करता है और उसका मन समस्त स्त्रियो विषयमें अनियंत्रित ही रहता है-सभी स्त्रियों को प्राप्त करनेकेलिये विकृत रहा करता है-यही बात बताते हैं:
आपातमृष्टपरिणामकटौ प्रणुन्नः, किंपाकवन्निधुवने मदनग्रहेण ।
अध्याय
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किं किं न कर्म हतशर्म धनाय कुर्यात, क क स्त्रियामपि जनो न मनो विकुर्यात् ॥ ६८ ॥
बनगार
३६६ ।
जो किंपाकफलकी तरह क्षणमात्रतक ही मधुर मालूम पडता है--जबतक उसका सेवन किया जाय या जिस समय में सेवन किया जारहा है तभी तक वह सुखावह मालूम पडता है! किन्तु परिणाममें जो अत्यन्त कटु है-अंतमें अथवा रसान्तरका अनुभव करते समय जो दुःखावह ही है। ऐसे निघुवन मैथुनकर्ममें परतन्त्रताके निमित्त भूतादिकके समान मदन-कामदेवसे प्रेरित हुआ यह प्राणी धनका उपार्जन करनेका ऐसा कौनसा कर्म है कि जिसको यह नहीं करता । तथा ऐसी कौनसी स्त्री है सि जिसमें यह अपने मनको दुरभिप्रायोंके कारण विकृत नहीं बनालेता।
भावार्थ- मदनके अधीन हुआ दीन पुरुष तीन प्रकारकी चेतन मानुषी दैवी और तिरश्ची तथा चौथी अचेतन इन चारो ही प्रकारकी स्त्रियों में अपने मनको विकृत बना डालता है। जैसा कि कहा भी है कि -. " अभिप्रवद्धकामस्तन्नास्ति यन्न करोति । श्रूयते हि किल कामपरवशः प्रजापतिरान्मदुहितरि, हरिगोपवधूषु, हरः संतनुकलत्रे, सुरपतिौतमभार्यायां, चन्द्रश्च बृहस्पतिपत्न्यां मनश्चकारेति” कामदेवके उद्दीप्त होनेपर ऐसा कोई काम नहीं है कि जिसको मनुष्य न करडाले । सुनते हैं कि ब्रह्मा अपनी लडकीके विषयमें, कृष्ण गोपिकाओंमें. महादेव संतनुराजाकी स्त्रीमें, इन्द्र गौतमऋषीकी भार्या अहिल्यामें, और चन्द्रमा गुरुपत्नीके विषयमें चचलचित्त होगया था। इसीलिये तो कहते हैं कि मुमुक्षुओंको आपातरम्य किंतु परिपाकमें दुःखकर समझ कर कामसुखका परित्याग ही कर देना चाहिये। जैसा कि कहा भी है कि:
認識認識讀認認識認識認識認識認認認識認識論認驗
अध्याय
रम्धमापातमात्रेण परिणामे ऽतिदारुणम् । किंपाकफलसंकाश तत्कः सेवेत मैथुनम् ।।
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ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो कि किंपाक फलके समान सेवनसमयमें ही सुंदर मालुम पडनेवाले किंतु परिणाममें दारुण मैथुनर्मका सेवन करना चाहे।
ज्येष्ठज्योत्स्नेऽमले व्याम्नि मृले मध्यन्दिने जगत् ।। दहन कथंचित्तिग्मांशुश्चिकित्स्यो न स्मगनलः ॥ ६९
अनगार
__ ज्येष्ठमास शुक्लपक्ष और मूल नक्षत्रमें तथा दिनको दो पहरके समयमें एवं जव आकाश निरभ्र मेषशून्य हो ऐसे भी समयमें अपने तीव्र तेजसे जगत् को दग्ध-संतप्त करते हुए प्रचण्डरश्मि - सूर्यका किसी प्रकार इलाज किया जा सकता है । शीतल जलका सेक करके या तलघर निकुंज पुष्पवाटिकादिकमें बैठकर अथवा दूसरे शीतोपचार करके उसका आतापजन्य क्लेश दूर किया जा सकता है। किंतु जिस समय यह कामदेवरूपी अग्नि प्रदी. प्त होती है उस समय इसका कोई भी प्रतीकार नहीं हो सकता । प्रत्युत ऐपा दखा गया है कि ज्या ज्यों इस अ. ग्निका शीतोपचार किया जाता है त्यों त्यों वह और भी अधिक प्रदीप्त होती है । जैसा कि कहा भी है कि:
हारो जलार्द्रवसनं नलिनीदलानि, प्रालेयशीकरमचस्तुहिनांशुभासः । यस्येन्धनानि सरसानि च चन्दनानि,
निर्वाणमेष्यति कथं स मनोभवाग्निः॥ ___ हार. जलसे भीगा हुआ वस्त्र, कमलिनीके पत्ते, शीतल जलकणोंका सिंचन करनेवाली हिमांशु-चन्द्रमाकी किरणें और सरस चन्दन इत्यादि वस्तुएं जिसके लिये ईधनका काम करती हैं वह मनोभवाग्नि-कामाग्नि निर्वाणको किस तरह प्राप्त हो सकती है। और भी कहा है कि
अध्याय
akokaalia
६७
१- यह समय सूर्यके सबसे अधिक प्रखर होनेका है।
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अनगार
३६८
अध्याय
४
Masa
MUSTYLION
चन्द्रः पतङ्गति भुजङ्गति हारवल्ली, -- स्रक् चन्दनं विषति मुर्मुरतीन्दुरेणुः । तस्याः कुमार भवतो विरहातुरायाः, किं नाम ते कठिनचित्त निवेदयामि ||
हे कठोरहृदय कुमार ! तेरे विरहसे आतुर हुई - घबडाई हुई उस कामिनीका हाल मैं तुझको कहांतक बताऊं । आज कल उसको चन्द्रमा चण्डरश्मि सूर्य की तरह संताप देनेवाला बन रहा है । हारलता भुजङ्गनी की तरह पाडित कर रही है । पुष्पमाला और चन्दन जहरका काम कर रहे हैं । एवं इन्दुरेणु चन्द्रमाकी धूलि - चांदनी भूसी की आग की तरह झुलसा रही है ।
कामदेवका उद्रेक समस्त गुणोंके समूहका शीघ्र ही उपमर्दन कर डालता है; ऐसा बताते हैं: -
कुलशीलतपोविद्याविनयादिगुणोच्चयम् ।
दन्दह्यते स्मरो दीप्तः क्षणातृष्णामिवानलः ॥ ७० ॥
कुल- पितादिक के संतानक्रमसे चला आया हुआ आचरण, शील- सदाचार और पवित्रता, तप- इन्द्रिय और अन्तःकरण के नियमन - विषयप्रवृत्ति से निशेध करनेका अनुष्ठान, विद्या- ज्ञान, विनय-तप अथवा ज्ञानादिककी अपेक्षा जो बडे हैं उनके सामने नम्रता रखना, तथा और भी जो प्रतिभा मेधा स्मृति वादित्व वाग्मिता तेजस्विता आरोग्य बलवीर्य लजा दाक्षिण्य प्रभृति अनेक लौकिक या पारलौकिक गुण हैं उन सबके समूहको यह प्रदीप्त हुई कामानि क्षणमात्रमें इस तरहसे भस्म करदेती है जैसे कि साधारण अनि घासके ढेर को भी झटसे जलाकर भस्म करदेती है ।
भावार्थ:- मनुष्यका इस लोक और परलोक दोनो ही जगह उपकार - कल्याण जिनसे हो ऐसे स्वभा
SEN BEMET MY MESSE KEEM
धर्म०
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वाका गुण कहते हैं। इन गुणोंका कामके साथ विरोध है । हृदयमें इस कामदेवके जागृत होते ही सभी गुण सहसा विलीन होजाते हैं।
अनगार
जबसे संसार है तभीसे अर्थ त अनादिकालो मैथुनसंज्ञा लगी हुई है। इसके निमित्तसे ही उद्भूत हुए समस्त दुःखोंका मुझे अनुभव करना पडा ! अत एव इसको धिक्कार है । इस तरह जो मैथुन संज्ञा और उससे होनेवाले दुःखानुभवकी तरफ अतिशय रूपसे धिकृत बुद्धि रखनेवाला है वही उसपर विजय प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार मैथुनसंज्ञाकी तरफ धिक्कारके भाव रखना ही कामभावके निग्रह करनेका उपाय है; ऐसा बताते हैं:
नि:संकल्पात्मसंवित्सुखरसशिखिनानेन नारीरिएंसा,संस्कारेणाद्ययावद्धिगहमधिगतः किं किमस्मिन्न दुःखम् । तत्सद्यस्तत्प्रबोधच्छिदि सहजचिदानन्दनिष्पन्दसान्द्रे, मज्जाम्यस्मिन्निजात्मन्ययमिति विधयेकाममुत्पित्सुमेव ॥ ७१॥
अध्याय
अन्तर्जल्पसे युक्त उत्प्रेक्षाओंको संकल्प कहते हैं । इन संकल्प विकल्योंके जालसे बहिर्भूत-रहित आत्मसंवेदन-शुद्ध निज चित्स्वरूपके अनुभवरूप अथवा उससे उत्पन्न होनेवाले सुखरस केलिये जो अनिके समान है, जिसका थोडासा भी स्पर्श होते ही आत्मिक सुखरूपी पारद सहज ही में उडजाता है ऐसे इस नारीरिरंसाके संस्कार-स्त्रियों में रमण करनेकी अभिलाषारूप भावनाको ही धिक्कार है कि अबतक मैं अधीन रहा हूं। जबसे संसार है तबसे आजतक मैं इसके वशमें रहा हूं। इसलिये मुझको धिक्कार है। इसके वशीभूत होकर ऐना कोनसा दुःख है कि जिसको मैंने नहीं पाया। इसके कारण ही मैंने नरक और निगोदतकके भी दुःखोंको भोगा है । अत एव अब मैं वारवारके आविर्भावके कारण अत्यंत निबिड और नैसनिक-स्वाभाविक ज्ञानानंदरूप अपने स्वसेवेदन प्रत्यक्षके द्वारा अनुभवमें आनेवाले चित्स्वरूपमें जो कि उस मैथुन संज्ञाके संस्कारको शीघ्र ही-प्रकर
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अनगार
SASNENTISTSSATAE
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होते ही नष्ट करदेनेवाला है; निमग्न होता हूं । इस प्रकार कामके दोषोंका विचार कर साधुओंको जिस समय वह कामदेव उद्धृत होनेके सम्मुख हो तभी उसका निग्रह करदेना चाहिये । क्योंकि उत्पन्न होजानेपर फिर उसकी कोई भी चिकित्सा नहीं हो सकती; जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है। और कहा भी है कि "न कामस्यास्ति किंचिचिकित्सितम् । " कामदेवका कोई इलाज ही नहीं है । अत एव साधुओंको उत्पन्न होते ही, जैसा कि ऊपर बताया है वैसी भावनाओं के द्वारा, कामवासनाका निग्रह कर डालना चाहिये-उसको दबा देना चाहिये । यही उसपर विजय प्राप्त करनेका उपाय है।
पहले ब्रह्मचर्यकी वृद्धिके लिये स्त्रीवैराग्यकी कारण पांच भावनाओंको निरंतर भानेका उपदेश दिया था । उनमेंसे पहली कामदोषभावनाका यहां व्याख्यान किया । अब स्त्रीदोष भावना प्रकरणप्राप्त है अत एवं छह पद्योंमें उसीका व्याख्यान करना चाहते हैं। किंतु पहले जो स्त्रियोंके दोषोंको जानता है वही वस्तुतः पं. ण्डित है, यह बात मुमुक्षुओंको अभिमुख करके कहते हैं:
पत्यादीन् व्यसनार्णवे स्मरवशा या पातयत्यञ्जसा, . रुष्टा न महत्त्वमस्यति परं प्राणानपि प्राणिनाम् । तुष्टाप्यत्र पिनष्टयमुत्र च नरं या चेष्टयन्तीष्टितो, दोषज्ञो यदि तत्र योषिति मखे दोषज्ञ एवासि तत् ॥ ७२ ॥
छह पोंमें उसीका व्याख्या भावनाका यहां व्याख्यान किया पाच भावनाओंको निरंतर भाने
अध्याय
जो स्त्री स्मरके वश में होकर-कामदेवके अधीन होकर पति पुत्र पिता तथा पितृतुल्य गुरु आदिकोंको भी व्यसनके समुद्र में पटक देती है-उनकी अकल्याणमें प्रवृत्ति करादेती है। और जो रोष और तोष दोनो ही अवस्थाओंमें मनुष्यका अहित ही करनेवाली है। यदि वह वस्तुतः रुष्ट हो जाय, थुर्सता अथवा अनुनयादि करानेके अभिप्रायसे नहीं किंतु यथार्थमें ही वह कुपित होजाय तो वह दूसरे प्राणियोंके महत्वका ही नहीं किंत
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UIDASHARE
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प्राणोंका भी अपहरण कर डालती है। और यदि वह बोष संतोष करने लगे-प्रसन्न होजाय तो उस मनुष्यसे इस लोक और परलोक-दोनो ही जगहपर अपनी इच्छानुसार चेष्टाएं कराकर उसको पीस डालती है । उसके समस्त पुरुषार्थीका उपमर्दन कर चूर्ण कर देती है-उसको बिलकुल भ्रष्ट कर देती है। इस तरहकी इस सीप र्यायके विषयमें हे मित्र ! यदि तू दोषज्ञ है-जिनका कि पहले उल्लेख किया जा चुका है उनको तथा और भी स्त्रीदोषोंको यदि तू जानता है तब तो सचमुचमें ही तू दोषद-पण्डित है। .
भावार्थ:--जो वस्तुओंके यथावस्थित दोषोंको जानता है उसको दोषज्ञ कहते हैं । अत एव दोषज्ञ नाम पण्डितका है। और इसी सामान्य अर्थकी अपेक्षासे कोषादिकमें भी पण्डितके पर्यायवाचक शब्दोंके साथ दोपत्र शब्दका भी पाठ किया है । यथा “ विद्वान् विपश्चिद् दोषज्ञः" । किंतु ग्रंथकार कहते हैं कि मैं वस्तुतः दोषज्ञपण्डित उसको समझता हूं जो कि स्त्रियोंके दोषोंको जानता है। दूसरे दोषोंको वह जाने या न जाने, यदि खा. दोषोंको जानता है तो वह जरूर पण्डित है। और यदि दूसरे पदार्थों के दोषोंको जानते हुए भी स्त्रीदोषोंको नहीं जानता तो वह वस्तुतः दोषज्ञ--- पण्डित नहीं है । अतएव मुमुक्षु विद्वानोंको सबसे पहले सीदोषोंके जाननेका प्रयत्न करना चाहिये । इसके विना उनके स्त्रीवैराग्यकी सिद्धि ब्रह्मचर्यकी वृद्धि नहीं हो सकती!
स्त्रियां खभावसे ही चंचला-प्रतारणा करनेवाली है और इसी लिये वे एक दुःखको ही कारण हैं। इस वाको दिखाते हुए भी प्रकट करते हैं कि फिर भी लोक उनपर निरन्तर मुग्ध ही होते हैं:
लोकः किं नु विदग्धः किं विधिदग्धः स्त्रियं सुखाङ्गेषु ।
यद्धरि रेखयति, मुहुर्विश्रम्भं कृन्ततीमाप निकृत्या ॥७३ ॥ बहा मालूम नहीं ये संसारी प्राणी विदग्ध-व्यवहारकुशल पुरुष हैं अथवा विधिदग्ध हैं. पूर्वसंचित दुष्कर्मने इतनी बुद्धि भ्रह करदी है ? क्योंकि ये लोग सुखके कारणोंकी गणना करते समय सबसे पहले उस खोकी गणना किया करते हैं जो कि बचना प्रतारणाके द्वारा वारवार विश्वासका घात किया करती है।
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भावार्थ-जो पुरुष स्त्रियोंके द्वारा पुनः पुनः प्रतारित होजाता है वह अपनेको चाहे विदग्ध भले ही समझे
किंतु उसको विदग्ध नहीं, मुग्ध ही समझना चाहिये । और कहना चाहिये दुष्कर्मने उसकी बुद्धिको भ्रष्ट कर. || दिया है। तभी तो अपने अहितकरको भी हितकर और सुखका साधन समझकर पुनः पुनः उसमें राग करने लगता है।
स्त्रियोंका चरित्र इतना दुर्गम और दुरूह है कि सहसा योगियोंके भी लक्ष्यमें वह नहीं आसकता, इसी बातपर लक्ष्य दिलाते हैं:
परं सूक्ष्ममपि ब्रह्म परं पश्यन्ति योगिनः । . न तु स्त्रीचरितं विश्वमतद्विद्य कुतोन्यथा ॥ ७४॥
योगिजन-अष्टांग योगके विषयमें निष्णात मुमुक्षु जन जा मनका भी विषय नहीं हो सकता ऐसे अत्यन्त सूक्ष्म और परमात्मस्वरूप ब्रह्मको खसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा भले प्रकार देख सकते और उसका अनुभव भी कर सकते हैं। किंतु स्त्रीचरित्रको वे भी नहीं देख सकते । क्योंक यदि देख सकते होते तो यह विश्व-समस्त संसार इस विषयकी विद्यासे शून्य किस तरह रह सकता था।
भावार्थ-संसारमें जितनी भी विद्याएं हैं वे सब महर्षियोंके ज्ञानपूर्वक ही प्रवृत्त हुई हैं। यदि उनको स्त्रीचरित्रका भी ज्ञान होता तो उनके उपदेशके अनुसार इस विषयकी भी कोई विद्या अवश्य प्रवृत्त होती । किं तु ऐसी कोई भी विद्या संसारमें प्रवृत्त नहीं है । इससे मालूम पडता है कि उन योगियोंके भी लक्ष्यमें स्त्री चरित्र आया नहीं था । अत एव वह अत्यंत दुर्लक्ष्य है यह बात स्पष्ट है। जैसा कि कहा भी है किः -
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मायागेहं ससंदेहं नृशंसं बहुसाहसम् । कामान्धैः स्त्रीमनो लक्ष्यमलक्ष्यं योगिनामपि ॥
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त्रियोंका मन संदेहसे पूर्ण, नृशंसता-- क्रूरतासे युक्त और अत्यंत साहससे भरा हुआ मायाचारका घर है। यह योगियोंकेलिये भी अलक्ष्य है। किंतु कामसे अंधे हुए पुरुष इसको देख सकते हैं।
स्त्रियोंमें मायाचार प्रभृति दोष प्रचुर रूपसे पाये जाते हैं अत एव उनको नरकके मार्गका अग्रेसर -प्रधान कारण बताते हुए इस बातका निरूपण करते हैं कि जितने दुष्कर्म हैं वे सब उस मार्गमें जानेवालोंके लिये सूत्रधारका ही काम करनेवाले हैं:
दोषा दम्भतमस्सु वैरगरलव्याली मृषोद्या तडिन्,मेघाली कलहाम्बुवाहपटलप्रावृड् वृषौजोज्वरः । कन्दर्पज्वररुद्रभालगऽसत्कर्मोमिमालानदी,
स्त्री श्वभ्राध्वपुरःसरी यदि नृणां दुर्दैव किं ताम्यसि ॥ ७५ ॥ जो दम्भ-मायाचार-प्रतारणारूपी अन्धकारका प्रसार करनेकेलिये दोषा-रात्रिके समान है। जो वैर-विद्वेषरूपी जहरको उगलनेकेलिये भूजङ्गी-सर्पिणीके समान है जो मृषावाद -- असत्यभाषणरूपी विजलीका चमत्कार दिखानेकेलिये कादम्बिनी-मेघमालाके समान है। जो कलह-आपसी झगडे या युद्धरूपी मेघपटलका अच्छी तरह उद्भव होनेकेलिये वर्षा ऋतुके समान है। जो धर्मरूपी ओज-शुक्रपर्यन्त धातुओंको परम तेजका संहार करनेकेलिये मानो महादेवका तीसरा नेत्र ही है। जो असत-सावध कर्मरूपी ऊर्मीमाला-तरङ्गपंक्तियोंकी पुनः पुनः प्रवृत्ति करनेकेलिये मानो नाके ही समान है। इस प्रकार सात विशेषणोंसे विशिष्ट स्त्री यदि मनुष्योंको नरकके मार्गमें लेजानेकेलिये सबसे अग्रेसर उपस्थित है, तब हे दुर्दैव ! तू अपनेको व्यर्थ ही क्यो खिन्न बनाता है? क्योंकि तेरा जो कार्य है वह तो इस प्रकारकी स्त्रीसे ही सिद्ध होजायगा।
भावार्थ- मनुष्योंको नरकमें लेजानेवाला सबसे प्रधान यदि कोई है तो वह स्त्री ही है । दुष्कर्मोंको जो
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| उसके कारण कहते हैं सो केवल इसीलिये कि वे उसके सूत्रधार हैं । स्त्रियोंके रागद्वेपकी उत्कृष्ट कोटी-अन्तिम सीमा बतानेकेलिये उसकी उपपत्ति दिखाते हैं:
व्यक्तं धाना भीरसावशेषौ रागद्वेषौ विश्वसर्गे विभक्तौ ।
यद्रक्ता स्वानप्यसून व्येति पुंसे पुंसोपि स्त्री हन्त्यसुन् द्राग्विरक्ता मालुम पडता है मानो विश्व-जगतको उत्पन्न करते समय सृष्टिकर्ता-प्रमाने जब स्त्रीको उत्पन्न किया तब राग और द्वेषके सम्पूर्ण स्कन्धसे ही उसको बनाया और उसके बन चुकनेपर राग और द्वेषका जो भाग अवशेष रहा वह सब उसने अपनी समस्त सृष्टि में विभक्त करदिया। क्योंकि राग और द्वेषकी अन्तिम सीमा स्त्रीमें ही पाई जाती है। यदि वह राग करने लगे-किसी पुरुषपर आसक्त होजाय तो धनधान्यादिककी तो बात ही क्या वह उस पुरुषको अपने प्राणतक भी दे डालती है । और यदि वह विरक्त हो जाय- द्वेष करने लगे तो शीघ्र ही उस पुरुषके प्राणोंका संहार भी करडाले।
भावार्थ--खियोंके राग और द्वेष दोनों ही सर्वोत्कृष्ट होकर भी सबसे अधिक भयंकर भी हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
ददाति रागिणी प्राणान हरति द्वेषिणी पुनः।
रागोवा यदि वा द्वेषः कोपि लोकोत्तरः खियः ॥ स्त्री यदि राग करने लगती है तो अपने प्राणोंको देदेती है और यदि द्वेष करने लगती है तो वह दूसरों के प्राणोंको लेलेती है । इस प्रकार स्त्रियोंका राग हो यद्वा द्वेष, दोनो ही लोकोत्तर हैं।
“सम्यकचारित्रका आराधन करनेवालोंको सदाचारकी विशुद्धिकेलिये दृष्टांतरूपसे स्त्रीचरित्रकी भावनाका उपदेश देते हैं:
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रक्ता देवरतिं सरित्यवानपं रक्ताऽक्षिपत्पङ्गुके, कान्तं गोपवती द्रवन्तमवधीच्छित्त्वा सपत्नीशिरः शूलस्थेन मलिम्लुचेन दलितं स्वोष्ठं किलाख्यत्पति,
च्छिन्न वीरवतीति चिन्त्यमबलावृत्तं सुवृत्तैः सदा ॥ ७७ ।। राजा देवरतिकी रानी रक्ताने पंगु पुरुषपर आसक्त होकर अपने पतिको नदीमें पटक दिया था; यह बात प्रसिद्ध है । गोपवतीने अपनी सपत्नी-सौतके शिरको काटकर भागते हुए पतिको भी मारडाला था, इस बातको भी सब लोग जानते ही हैं। और वीरवतीने कुशूलमें छिपकर बैठे हुए मलिम्लुच-अङ्गारक नामके चोरद्वारा अपने ओष्ठके खण्डित किये जानेपर भी अपने पतिद्वारा उसका काटा जाना जाहिर किया था, यह बात भी आगमानुसार प्रायः विदित ही है। ऐसी ही बातोंको देखकर कहना पडता है कि स्त्रियोंके दोष और उनका चरित्र बिलकुल दुर्गम है । अत एव सम्यक् चारित्रका आराधन करनेवाले मुमुक्षुओंको अपने सदाचारको शुद्ध रखनेके लिये और उसकी वृद्धिकेलिये अबलाओंके चरित्र और दोषोंका निरंतर विचार करना चाहिये । जिससे कि लि. योंमें वैराग्यकी सिद्धि और ब्रह्मचर्यकी वृद्धि हो।
इस प्रकार स्त्रीदोष भावनाका वर्णन करके अब क्रमप्राप्त स्त्रीसंसर्गका वर्णन करना चाहते हैं। उस में यहाँपर सबसे पहले, स्त्रियोंको दूर ही से छोडदेना चाहिये-उनकी संगति न करना चाहिये। यह बात उपपत्तिपूर्वक बताते हैं:
सिद्धिः काप्यजितेन्द्रियस्य किल न स्यादित्यनुष्ठीयते, सुष्ठामुत्रिकसिद्धयेऽक्षविजयो दक्षैः स च स्याद् ध्रुवम् ।
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चेतःसंयमनात्तपःश्रुतवतोप्येतच्च तावद्भवेद्,
यावत्पश्यति नांगनामुखमिति त्याज्याः स्त्रियो दूरतः ॥ ७८ ॥ जिसने इन्द्रियों को नहीं जीता-जो उनको अपने वशमें नहीं कर सका है ऐसे मनुष्य के इस लोकसम्बन्धी अथवा परलोकसम्बन्धी कोई भी सिद्धि-अभीष्ट अर्थकी प्राप्ति नहीं हो सकती । यह बात आगममें कही हुई है। नीतिशास्त्रमें भी ऐसा ही कहा है। यथा “ नाजितेन्द्रियस्य कापि कार्यसिद्धिरस्ति "-जो इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त नहीं कर सका है उस मनुष्यके किसी भी कार्यकी सिद्धि नहीं हो सकती। अत एव जो दक्ष पुरुष हैं जो अपने आत्महित जैसे परलोकसंबंधी कार्यके सिद्ध करनेमें उद्यत हैं वे अपने उस प्रयोजनको सिद्ध करनेकेलिये इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करनेका अच्छी तरह अनुष्ठान किया करते हैं-चक्षुरादिक इन्द्रियोंको अच्छी तरह अपने वशमें करनेका प्रयत्न किया करते हैं। किंतु यह बात निश्चित है कि यह इन्द्रियविजय तब तक नहीं हो सकता जबतक कि चित्तका संयमन न किया जाय । मनका निरोध करनेपर ही इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त हो सकता है । इसी प्रकार उन साधारण पुरुषोंकी तो बात ही क्या, जो कि तप और ज्ञानके अभ्याससे शून्य हैं; किंतु जो तपका और श्रुतका निरंतर आराधन करनेवाले हैं जो इन विषयोंमें निष्णात हैं उनके भी मनका निरोध तभी तक हो सकता है जबतक कि वे अङ्गनाओंका मुख नहीं देखते । इससे सिद्ध है कि आत्महित चाहनेवाले भव्योंकेलिये ये स्त्रियां सदा छोडदेनेके ही योग्य हैं।
भावार्थ- जब इन्द्रियों के अधीन हुए पुरुषका कोई भी कार्य सिद्ध नहीं हो सकता है। तब आत्महित जैसा सर्वोत्कृष्ट कार्य तो सिद्धही किस तरह हो सकता है । वह तो तभी मिद्ध हो सकेगा जब कि स्त्रीसंसर्गका भी परित्याग कर दिया जाय । क्योंकि स्त्रीसंसर्गसे योगियों और ज्ञानियोंका भी मन चंचल हो जाता है, उसका वे निरोध नहीं कर सकते, और उनका चित्त संयत नहीं हो सकता। एवंच मनके संयत हुए बिना वे मेक्षको भी प्राप्त नहीं कर सकते । अत एव सिद्ध है फि मुमुक्षुओंको अङ्गनाओंका मुख भी न देखना चाहिये और स्त्री मात्रकी संगति भी न करनी चाहिये ।
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अनगार
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अध्याय
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SEEMAM Math aasha aasara
अङ्गना शब्दका अर्थ प्रशस्त अङ्गवाली -सुंदरी होता है । अत एव कोई कह सकता है कि यहांपर सुन्द रियोंके ही मुख देखने का निषेध किया है, जो सुन्दरी नहीं हैं उनके मुख देखने आदिका इससे निषेध नहीं होता । किन्तु उसे समझना चाहिये कि यांपर अङ्गना शब्द केवल उपपत्ति केलिये ही आया है । त्याज्यता के उपदेश में सामान्यसे स्त्रीशब्दका ही पाठ है । क्योंकि सदाचार में विप्लव स्त्रीमात्रके संसर्ग से होजाया करता है । अत एव लिये स्त्रीमात्रकी संगति त्याज्य है; ऐसा ही समझना चाहिये। कहा भी है किः -
ज्ञानियोंने तपःसिद्धिके दो ही कारण बताये हैं । एक तो स्त्रियोंको न देखना - स्त्रीमात्रकी संगति न करना, और दूसरा शरीर को अच्छी तरहसे क्षीण बनाना अनश आदि करके अथवा आतापनादि योगके द्वारा उसको कृष करना ।
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द्वयमेव तपः सिद्वौ बुधाः कारणमूचिरे । यदनालोकन स्त्रीणां यच संग्लापनं तनोः ॥
रागी जीव पहले कामिनियोंके कटाक्षपातका निरीक्षण करनेकी तरफ उन्मुख होता और उसके बाद फिर भी दुर्भाबों में प्रवृत्त होता है। इसी क्रमसे अंत में जाकर वह तत्वरूप परिणत हो जाता है, इस बातको दिखाते
अ. ध. ४८
सुविभ्रमसंभ्रमो भ्रमयति स्वान्तं नृणां धूर्तवत, तस्माद् व्याधिभरादिवेोपरमति व्रीडा ततः शाम्यति । शङ्का वन्हिरिवोदकात्तत उदेत्यस्यां गुगेः स्वात्मवद्, विश्वासः प्रणयस्ततो रतिरलं तस्माचतस्तल्लयः ॥ ७९ ॥
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धर्म
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जिनकी भृकुटियां देखते ही मनको हर लिया करती हैं- आपात-रमणीय हैं उन वराङ्गनाओंका विभ्रमसादर या सामिलाप निरीक्षण मनुष्योंके स्वान्त-मनको भ्रान्त बना देता है- व्याकुल करदेता अथवा अयथार्थ भावकी तरफ इस तरहसे झुका देता है, जैसे कि धतूरा पीनेवालेका मन भ्रान्त और व्याकुल हो जाता है, तथा उसको सफेद भी वस्तु पीली दीखने लगती है । इसी प्रकार कामिनी कटाक्षका निरीक्षण कर भ्रांत और व्याकुल हुआ मनुष्य अहितकर भी स्त्रियोंको हितकर समझने लगता है। चित्तके भ्रांत हो जानेपर उससे लज्जा इस तरहसे निवृत्त होजाती है जैसे कि रागके उद्रेकको पाते ही वह दूर होजाया करती है। क्योंकि अत्यंत रागी मनुष्यको किसी प्रकार की भी लज्जा नहीं रहती। लज्जाके दूर होजानेपर मनमें शंका-भय, जलसे अग्निकी तरह, शांत होजाती -नष्ट होजाती है। उसको लोकनिंदा या गुरु आदिका भय नहीं रहता। इस प्रकार निर्भय होकर वह कामी अपनी अभीष्ट कामिनीपर इस तरहसे विश्वास करने लगता है जैसे कि मुमुक्षु पुरुष गुरुओंसे अध्यात्मतत्वका उपदेश सुनकर निज स्वरूपमें श्रद्धा करने लगता है । विश्वासके उद्भूत होते ही कामिनीमें उसका प्रणय-प्रेमपरिचय भी उसी तरहसे होने लगता है जसे कि गुरुके निमित्तसे आत्मस्वरूपमें भव्योंके हुआ करता है। इसके अनंतर जैसे कि कोई साधु आत्मस्वरूप में अच्छी तरह रमण करने लगता और अंतमें उसमें लीन--एकतान होजाता है उसी प्रकार कामी पुरुष भी प्रेमपरिचयके बाद अपनी अभीष्ट नायिकामें पर्याप्त रूपसे रतिकर्म करने लगता
और अंतमें लीन हो जाता है। क्योंकि जिस प्रकार साधुओंको अपने शुद्धात्म स्वरूपमें ममरस हुए विना आत्मिक सुखका अनुभवन नहीं हो सकता उसी प्रकार कामियोंको भी कामिनियोंमें लीन हुए विना सुखानुभव नहीं हो सकता । अत एव वे तल्लीन होजाते हैं-समरसीभावको धारण करने लगते हैं।
कहा भी है कि:-- लब्धायतिप्रगल्भा रतिकर्मणि पण्डिता विभुर्दक्षा। आक्रान्तनायकमना निम्यूढविलासविस्तारा। सुरते निराकुलासौ द्रवतामिव याति नायकायाज। न च तत्र विवेक्तुमलं कोयं काहं किमेतदिति ॥
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स्नेह अथवा वशित्वको प्राप्त हुई प्रगल्भा नायिका जो कि रतिकर्ममें पण्डित विभु दक्ष और आधिकार प्राप्त करचुकी है, जो विलासका विस्तार करनेमें नियूंढ-पूर्णतया समर्थ है नायिकके मनपर वह सुरतमें निराकुल होकर नायकके अंगमें इस तरहसे प्रविष्ट होजाती है जैसे कि कोई पतला पदार्थ । उस समयमें भिन्नताका भान बिलकुल नहीं होता। यहांतक कि यह कौन है, मैं कौन हूं, और यह क्या हो रहा है इसकी तरफ भी उसका लक्ष्य नहीं जाता।
और भी कहा है किः - समरसरसरंगुं गमिण जिह रइया वझति ।
समरसरसरंगुग्गमिण तिह जोइय सिझंति ।। __ जिस प्रकार रागी पुरुष-नायक और नायिका मिल कर समरसके आनंदका अनुभव कर कर्मबंधको प्राप्त होते हैं उसी प्रकार योगिजन आत्मस्वरूपमें लीनताके आनन्दका अनुभव कर सिद्धि प्राप्त करते हैं।
कामिनियोंके कटाक्षका निरीक्षण देखनेमात्रमें ही मनोरम किंतु परिणाममें अत्यंत दारुण -भयानक. । है। यह बात वक्रोक्तिकी उपपत्तिद्वारा बताते हैं:
चक्षुस्तेजोमयमिति मतेप्यन्य एवाग्निरक्ष्णो,रेणाक्षीणां कथामितरथा तत्कटाक्षा: सुधावत् । लोढा दृग्भ्यां ध्रुवमपि चरद्विष्वगप्यप्याय:,
स्वान्तं पुंसां पविदहनवदग्धुमन्तवलन्ति ॥ ८॥ वैशेषिकोंका सिद्धान्त है कि दीपकके समान चक्षुरिन्द्रियमें भी रश्मि-किरणें पाई जाती है। अत एव वह
PAREEKOREARRERARREREKARRANTHREAKERARIAREAKERARENAKETERENERENERA
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बनबार
तैजस है। तर्कके लिये इस सिद्धांतको मानकर यदि इसपर विचार करें तो मालुम पडता है कि इन मृगनयनी का मिनियोंके नेत्रोंमें यह अग्नि नहीं पाई जाती । भासुररूप और उण्ण स्पर्श गुण से युक्त बाद्य स्थूल स्थिर और मूर्त द्रव्य जिसका कि दाहकता ही लक्षण है, अग्नि नामपे संसारमें प्रसिद्ध है । यह अग्नि तो इन अङ्गनाओंके नेत्रोंमें नहीं पाई जाती, किंतु इससे विलक्षण ही कोई अग्नि इनमें अवश्य पाई जाती या रहती है। क्योंकि अन्य. था- यदि विलक्षण आग्न नहीं है तो देखिये कि, उन अङ्गनाओंके जिन कटाक्षोंको लोग अमृतकी तरहसे स्वादु समझ कर पहले अपने नेत्रोंके द्वारा पीजाते हैं - उनका रसास्वादन करलेते हैं; वे ही कटाक्ष उन मनुष्यों के उस मनको जो कि ध्रुव--नित्यरूपकी अपेक्षा सदा अविकृत रहनेवाला और विश्वमात्रमें अलातचक्रकी तरहसे चारो तरफको घूमनेवाला और इसपर भी जो अत्यंत अणु-जो योगियोंके भी सहसा लक्ष्यमें न आसके ऐसा परमाणुसे भी अधिक सूक्ष्म है उसको भी भस्मसात् करनेकेलिये वज्राग्निकी तरहसे आत्माके भीतर प्रज्वलित क्यों हुआ करते हैं ?
भावार्थ-यदि साधारण अग्नि ही उसमें पाई जाती या होती जैसी कि वैशेषिकोंने बताई है, तो उसका कार्य प्रकाश या दाह आदि भी होता; सी नहीं होता बल्कि अमृतकी तरह लोग उसका रसास्वादन करने लगते हैं। इससे मालुम पडता है कि चक्षुओंमें जिस तैजसताकी कल्पना वैशेषिकोंने की है वह उसमें नहीं पाई जाती । किंतु यह कहा जा सकता है कि इन मृगनयनियोंके नयनोंमें कोई विलक्षण अग्नि रहती है जो कि ऊपरसे तो अमृतके समान मधुर मालुम पडती है और भीतर जाकर वज्राग्निके समान काम करती है । विवे कको नष्ट कर अन्तरात्माके हितको भस्म करदेती है । इसी लिये तो कहते हैं कि कामिनियोंके कटाक्षका निरीक्षण देखने मात्रमें रमणीय किंतु परिणाममें अत्यंत दारुण है।
कटाक्षनिरीक्षणके द्वारा क्षणमात्रमें ही मनुष्यके हृदयमें जो अपने स्वरूपको अभिव्यक्त करदेने की कामिनियों में शक्ति है उसको विदग्धोक्तिके द्वारा प्रकट करते हैं: -
हृद्यभिव्यञ्जती सद्यः खं पुंसोऽपाङ्गवलिगतः ।
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सत्कार्यवादमाहत्य कान्ता सत्यापयत्यहो ॥ ८१ ॥ अपाङ्ग वल्गन-कटाक्षपातके द्वारा दर्शकके हृदयमें तत्क्षण ही अपने स्वरूपको अभिव्यक्त करदेनेवाली कान्ता-प्रमदा, अहो, कितने कष्ट और आश्चर्यकी बात है कि बिना प्रमाणके जबर्दस्ती ही सांख्योंके सत्कार्यवादको सत्य साबित करदिया करती है।
भावार्थ-सांख्योंका सिद्धान्त है कि:
असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात्।
शक्तस्य शक्यकरणात्कारणभावाञ्च सत्कार्यम् ॥ जितने भी कार्य हैं वे सभी सतरूप हैं-सदा उपस्थित रहनेवाले हैं। क्योंकि एक तो यह नियम है कि असत्की उत्पत्ति नहीं हो सकती-जो पदार्थ नहीं है वह कभी उत्पन्न भी नहीं हो सकता । दूसरे वह कार्य अपने उपादानको ग्रहण करता है । यह नियम है कि उपादानके गुण कार्यमें आया करते हैं। और यह बात तभी हो सकती है जब कि कार्य सत् हो । क्योंकि जो स्वयं असत् होगा वह उपादानके गुणोंको भी ग्रहण किस तरह कर सकेगा। तीसरे, एक पदार्थसे सभी कार्योंकी उत्पत्ति नहीं होती, यदि कार्य असतरूप होता तो सभी पदार्थोंसे सब कार्य उत्पन्न हो सकते थे। चौथे, जो पदार्थ जिस कार्यके उद्भूत करनेमें समर्थ है उसीसे वह उत्पन्न-व्यक्त होता है. अन्यसे नहीं। यदि कार्य असत् होता तो चाहे जिस पदार्थसे, चाहे जो पदार्थ उत्पन्न हो सकता था। पांचवें, कार्यकारणभाव भी तभी बन सकता है जब कि कार्य सद्प हो । यदि कार्य असत् हो तो चाहे जिससे भी वह उत्पन्न हो सकता है। किंतु ऐसा नहीं है । इससे मालुम पडता है कि कार्य सद्प ही है । यह सांख्योंका सिद्धान्त यद्यपि अमत्य है प्रमाणसिद्ध नहीं है। फिर भी ये प्रमदाएं अपनी चेष्टाके द्वारा जबर्दस्ती उसको सिद्ध करनेका प्रयत्न करती हैं कि उनके कटाक्षका निरीक्षण करते ही मनुष्यके हृदयमें उनका स्वरूप अभिव्यक्त हो जाता है। और फिर वे ही वे दीखने लगती हैं।
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जो मनुष्य इन कामिनियोंके कटाक्षका निरीक्षण करनेमें प्रवृत्त होते हैं वे अनेक भवतक युक्तायुक्त के विवेक से शून्य होजाते हैं, यह बात वक्रोक्तिके द्वारा बताते हैं:
नूनं नृणां हृदि जवान्निपतन्नपाङ्गः,
स्त्रीणां विषं वमति किंचिदचिन्त्यशक्ति |
नो चेत्कथं गलितसद्गुरुवाक्य मन्त्रा
जन्मान्तरेष्वपि चकास्ति न चेतनाऽन्तः ॥ ८२ ॥
यह बात निश्चित मालुम होती है कि स्त्रियोंका अपाङ्ग कटाक्ष मनुष्योंके हृदयपर पडते अपूर्व-लोकोतर- और जिसकी शक्ति अचिन्त्य है ऐसे विषको उगलता है । अन्यथा उसके पडते ही आत्मामें चेतनाशक्तिको इतनी गाढ मूर्च्छा क्यों आजाती है जो कि वह सद्गुरुओंके वाक्यरूपी मंत्रके प्रभावको भी भ्रष्ट कर, इसी जन्मकी तो बात क्या वह चेतना जन्मान्तर में भी प्रकाशित - प्रबुद्ध नहीं होती ।
भावार्थ - ललनाओं के कटाक्षका असर इतना तीव्र है कि उससे मनुष्योंका विवेक जन्मजन्मान्तरके लिये भी नष्ट हो जाता है । और उसके सामने सद्गुरुका उपदेश भी अपना कुछ प्रभाव नहीं दिखा सकता । अत एव कहना चाहिये कि वह ऐसा अलौकिक- विष है कि जिसकी शक्ति अचिन्त्य है- विचारमें नहीं आसकती । क्यों कि यदि लौकिक विष होता तो उसकी शक्ति मालुम पड सकती थी और मन्त्रद्वारा दूर भी हो सकती थी । विषका अपहरण करने की शक्ति रखनेवाले अक्षरसमूहको मंत्र कहते हैं। लौकिक विष कैसा भी हो, मंत्रद्वारा वह दूर हो सकता है । किंतु गुरूपदेश जैसे मंत्र को भी जो इतप्रभ कर परलोकतक साथ जाता और अपना कार्य-चेतनाशक्ति - विवेकका नाश करता है ऐसा तो कोई अचिन्त्यशक्तिका अलौकिक ही विष हो सकता है।
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संयमका सेवन - साधन करनेवाले साधुओंके भी मनको ये स्त्रियां आलोकन संभाषण आदि किसी भी
धमे
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प्रकारसे उसके भीतर आकर ऐसा विकृत करदेती हैं कि जिसका सहसा प्रतीकार नहीं हो सकता । ऐसा भय उत्पन्न करके उनका परिहार करनेकेलिये मुमुक्षुओंको सावधान करते हैं:
Fill धर्म
अनगार
चित्रमेकगुणस्नेहमपि संयमिनां मनः । यथातथा प्रविश्य स्त्री करोति स्वमयं क्षणात ॥ ८३
संयमियोंका मन यद्यपि एकगुणस्नेह है फिर भी आश्चर्य है कि जिस किसी भी तरहसे स्त्रियां उसमें प्रविष्ट होजातीं और क्षणमात्रमें उसको अपने रूप करलेती हैं।
भावार्थ--जिस पदार्थमें स्निग्धत्त्व या रूक्षत्त्व गुणका एक ही गुण-अंश-अविभाग प्रतिच्छेद रहता है उसका किसी भी दूसरे पदार्थके साथ बंध नहीं हो सकता। जैसा कि कहा भी है कि " न जघन्यगुणानाम् " जघन्यगुण - एक अविभागप्रतिच्छेदसे युक्त पदार्थका किसीके भी साथ बंध नहीं होता ऐसा नियम है।
और यह नियम है कि बंध होनेपर अधिक गुणवाला कम गुणवालेको अपनेरूप परिणत करलेता है । तथाच "बन्धेऽधिको परिणामिको"। किंतु प्रकृतमें यह बात विरुद्ध नजर आनी है कि स्त्रियोंका एकगुणस्नेहवाले भी संयमियोंके मनसे सम्बन्ध होजाता है और वे उसको अपने रूप करलेती हैं। अत एव इस विरोधाभासका परिहार करनेकेलिये ऐसा अर्थ समझना चाहिये कि--संयमियोंका मन यद्यपि सम्यग्दर्शनादिक गुणों में ही उत्कृष्टतया अथवा इन उत्कृष्ट गुणोंमें ही अनुराग रखनेवाला है। यद्वा एकगुण--एकत्वमें ही स्नेह रखनेवाला है; क्योंके मुमुक्षु साधु समस्त बाह्य उपाधियोंसे रहित एकाकी होना चाहते हैं अथवा शरीर और कर्म नोकर्मके सम्बन्धसे भी रहित होकर शुद्धात्मस्वरूप ही होना चाहते हैं। फिर भी आलोकन संभाषण आदिके द्वारा उसकी प्रवृत्ति स्त्रियों की तरफ झुकजाती है और उससे वह विकृत होजाता है। अत एव साधुओंको अपने ब्रह्मचर्य महाव्रतकी वृद्धिकेलिये और उसके कारणभूत स्त्रीवैराग्यकी सिद्धिकेलिये स्त्रियोंके साथ आलोकन संभापण भी न करना चाहिये।
अध्याय
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HEATMASAJHASMANMATPATI
__ थोडासा भी स्त्रीसंपर्क--उनकी संगति या संसर्ग, संयत पुरुषके स्वार्थ-आत्मकल्याणको भ्रष्ट करदेता है, ऐसी शिक्षा देते हैं:- .
कणिकामिव कर्कट्या गन्धमात्रमपि स्त्रियाः।
स्वादुशुद्धां मुनेश्चित्तवृत्तिं व्यर्थीकर त्यरम् ॥ ८४ ॥ जिस प्रकार कचरीकी गन्धमात्रसे ही स्वादु-मधुर और शुद्ध-स्वच्छ पवित्र भी गोधूमचूर्ण-आटा खराब होजाता है उसी प्रकार स्त्रियोंकी गंधमात्रसे ही मुनियोंकी स्वादुशुद्ध-आनन्द और वीतरागतासे युक्त मी मनोवृत्ति क्षणमात्रमें खराब होजाती है। .'
भावार्थ-मुनियोंकी समस्त प्रवृत्तियां कर्मक्षपणकेलिये हुआ करती हैं। अत एव शुद्धात्मस्वरूपके अनुभवसे उत्पन्न हुए आनंद और वीतरागतासे युक्त मनोवृत्तिका भी प्रयोजन कर्मक्षपण ही है। किंतु त्रियाका आलोकन स्पर्शन संभाषण कथोपकथन आदिकी तो बात ही क्या, गंध भी उस मनोवृत्तिको मलिन बनाकर व्यर्थ करदेती है। क्योंकि उससे जो प्रयोजन सिद्ध होना चाहिये सो न होकर विरुद्ध ही अर्थ-प्रयोजन सिद्ध होता है। कोका क्षय न होकर संचय ही होता है । अत एव साधुओंको स्त्रियोंका संसर्ग ऐसा दरसे ही छोड देना चाहिये कि जहाँसे उनकी गंध भी न आसके । तभी उनका प्रयोजन सिद्ध हो सकता है। अन्यथा नहीं ।
स्त्रीसंगतिके दोषोंको दृष्टांतद्वारा स्पष्ट करके बताते हैं:
बध्याय
सत्त्वं रेतश्छलात्पुमां घृतवद् द्रवति द्रुतम् । विवेकः सूतवत्वापि याति योषानियोगतः ॥ ८५ ॥
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अनगार
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. स्त्रियां अग्निके समान हैं. अतएव उनके सम्बन्धसे -सगतिसे मनुष्योंका सत्व-प्रशस्त मनोगुण रेत - वीर्यके छलसे घीकी तरह उड जाता ह । मालुम भी नहीं पड़ता कि वह कहां गया ।
भावार्थ मनुष्यों के सच और विवेकको नष्ट करनेकेलिये स्त्रीसंपर्क ऐसा समझना चाहिये जैसे कि घी और पारेकेलिये अग्निका सम्बन्ध ।
अभीष्ट कामिनियोंकी विशिष्ट चेष्टाएं बडे भारी मोहके आवेशको उत्पन्न करदेती हैं, यह बात वक्रो क्तिके द्वारा बताते हैं:
वैदग्धीमयनर्मवक्रिमचमत्कारक्षरत्स्वादिमाः, सधूलास्यरसाः स्मितद्युतिकिरों दूरे गिरः सुभ्रुवाम् । तच्छ्रोणिस्तनभारमन्थरगमोद्दामक्वणन्मेखला,
मञ्जीराकुलितोपि मछु निपतेन्मोहान्धकूपे न कः ॥ ८६ ॥ रसिक चेष्टाएं ही जिनका प्रकृत प्रयोजन है ऐसे नर्म और वक्रिमा-परिहासकोलि और कुटिलताओंके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले चमत्कार-विसयके आवेशसे जिनमें मधुरता-श्रोत्र और हृदयकी आह्लादकताका रस झर रहा है । और जिनके साथ साथ भृकुटियोंके लास्य-नृत्य-स्निग्ध संचालनका भी रस आरहा है। एवं जिनसे स्मित-ईषद् हास और द्युति-कान्ति चारो तरफको फैल रही है । सुन्दरी ललनाओंके वचन तो दूर ही
अध्याय
१-अकर्कश प्रेमोत्पादक ।
अ. ध. ४९
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रहो क्योंकि वे तो मोक्षमार्गके अत्यंत प्रतिबंधक हैं, अत एव उनके विषयमें तो यहां कुछ कहनेकी आवश्यकता ही नहीं है। किंतु कहना यह है कि ऐसा कौन मनुष्य है जो कि इन प्रमदाओंके श्रोणि-कटि और स्तनके भारसे-कटि और कुचोंकी गुरुताको न सहनेके कारण गमनके मन्थर-मन्द होजानेसे उद्दाम-उदार गम्भीर मधुर धीमी ध्वनि-रण झण शब्द करते हुए मेखलाके मंजीरोंसे-रशना, नूपुरोंके शब्दोंको सुनते झटिति विक्षिप्तचित्त होकर मोहके अन्धकूपमें नहीं गिरपडता ।
भावार्थ-- कामिनियोंके भृकुटिसंचालनका रसानुभव आदि तो आत्महितका साक्षात् ही विरोधी है। अत एव उसकी त्याज्यताका तो उपदेश ही क्या दें; क्योंकि मुमुक्षुओंको वह तो सबसे पहले ही त्याज्य है। किंतु उन्हें चाहिये कि कामिनियोंका संपर्क करना-संगतिमें रहना भी वे इस तरहसे छोडदें कि जहांसे उनकी मेखलादिका शब्द कानोंमें पडकर कहीं उनके मनको विक्षिप्त-मूर्छित न करदे । क्योंकि जब नूपुरोके शब्दको सुनकर ही मनुष्योंका मन व्याकुल होजाता है तब उसके उस तरह के वचनोंकी तो बात ही क्या है।
स्त्रियोंके साथ संभाषण करनेके दोष बताते हैं:मम्यग्योगाग्निना रागरसो भस्माकृतोप्यहो ।
उज्जीवति पुनः साधोः स्त्रीवाक्सिद्धौषधीबलात् ॥ ८७ ॥ समीचीन योग-समाधिरूपी अग्नि-प्रयोगबन्हिके द्वारा भस्मरूप-दग्ध किया गया भी साधुओंका रागरूपी रस - मोहरूपी पारद, अहो, आश्चर्यकी बात है कि स्त्रियोंके वचनरूपी सिद्धौषधीके बलसे फिर उज्जीवित होजाता है-प्राण धारण करलेता है।
भावार्थ-जिस कषायको साधुगण बडी मुश्किलसे ध्यान धारणा और समाधी आदि अनेक उपायोंके द्वारा शांत या क्षीण करपाते हैं वही कषाय स्त्रियोंके साथ संभाषण करनेसे क्षणमात्रमें फिर उद्दीप्त होजाता है।
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जैसे कि अनेक प्रयोगों- आग्नसंस्कारोंके द्वारा भष्म बनाया गया भी पारा सिद्धौषधीके द्वारा फिर पारा होजाता है।
निताम्वनियोंके आलिङ्गनसम्बन्धी फलका विचार कराते हैं:- . पश्चाहहिर्वरारोहादो:पाशेन तनीयसा ।
बध्यतेन्तः पुमान् पूर्व मोहपाशेन भूयसा ॥८॥ यह पुरुष इन नितम्बिनियोंके अत्यंत तुच्छ बाहुपाशमें तो बाहिरसे और पीछेसे बंधता है किंतु भीतरआत्मा या हृदयमें तो उसके पहले ही बडे भारी मोहपाशमें बंध जाता है।
भावार्थ --बाहिरसे यद्यपि देखनेमें शरीरसे स्त्रियोंका आलिंगन तुच्छ मालुम पडता है किंतु इसके कारणभूत मोहके निमित्रसे आत्माका कर्मके साथ जो बंध होजाता है वह बडा भारी है, जो कि बहिदृष्टियोंकी दृष्टिमें नहीं आसकता, और जो उसके पहिले ही होजाता है । क्योंकि आलिङ्गनके लिये मूञ्छित परिणामोंके होते ही कर्मबन्ध तो हो ही जाता है। फिर चाहे आलिङ्गन हो या न हो।
___ स्त्रियोंके अवलोकनादिसे होनेवाले दोषोंका उपसंहार करते हैं:-- .
दृष्टिविषदृष्टिरिव हक्कृत्यावत्संकथाग्निवत्सङ्गः।
स्त्रीणामिति सूत्रं स्मर नामापि ग्रहवदिति च वक्तव्यम् ॥ ८९ ॥ हे साधो ! तुझको स्त्रियोंके विषयमें इन सूत्रोंका सदा स्मरण करना चाहिये--निरंतर अध्ययन और । विचार करना चाहिये । क्योंकि इन सूत्रोंसे अनेक अर्थ सिद्ध हो सकते हैं। नाना अर्थोके प्ररूषक वाक्योंको ही
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सूत्र कहते हैं। वे सूत्र इस प्रकार हैं कि--त्रियोंकी दृष्टि दृष्टिविष सर्पकी दृष्टिके समान है। जिस प्रकार कितने ही विशिष्ट सपौकी दृष्टि में ही इतना उग्र विष होता है कि उसके पडते ही मनुष्य मूञ्छित होजाते हैं और उनका बल क्षीण होजाता है। उसी प्रकार स्त्रियोंके कटाक्षका भी पात होते. ही मनुष्य मोहित हो जाते हैं और उनके सत्व--पराक्रम या मनोबलका मर्दन होजाता है । इसी प्रकार खियोंकी कथा-पारस्परिक भाषणको, कृत्याके समान समझना चाहिये। जिस प्रकार मारण विद्या मनु प्योंके प्राणोंका सहसा संहार करडालती है, उसी प्रकार यह कथा भी साधुओंके संयमरूपी प्राणोंका तुरंत अपहरण कर लेती है। और उनका संसर्ग अग्निके समान है। जिस प्रकार अग्निमें यदि रत्नको डाल दिया जाय तो वह भस्म हो जाता है, उसी प्रकार स्त्रियोंके शरीरका स्पर्श होते ही संयमरत्न खाकमें मिल जाता है। ' इस प्रकार ये तीन सूत्र हैं । किंतु इनके ऊपर एक वक्तव्य भी है। उसका भी साधुओंको सदा स्मरण करना
चाहिये । वह इस प्रकार है कि-स्त्रियोंका नाममात्र भी ग्रह के तुल्य है । क्योंकि जिस प्रकार भूतादिकसे आविष्ट हुआ पुरुष विक्षिप्तमन हो जाता है उसी प्रकार स्त्रियोंका नाममात्र सुननेसे भी विक्षिप्त हो जाता है।
स्त्रियोंके संसर्गजन्य दोषोंका उपसंहार करते हैं
किं बहुना चित्रादिस्थापितरूपापि कथमपि नरस्य । हृदि शाकिनीव तन्की तनोति संक्रम्य वैकृतशतानि ॥ ९॥
अध्याय
.
१- पहिला सूत्र । २-दूसरा सूत्र । ३-तीसरा सूत्र | ४- सूत्रामें जो अभिप्राय न आसके उसको बतानेकेलिये जो सूत्रसे अतिरिक्त वचन कहा जाता है उसको वक्तव्य
अथवा वार्तिक कहते हैं।
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RAREHENERMANRAMESH
मुख्यरूप जो सचेतन स्त्रियां हैं उनकी तो बात ही क्या किंतु जिनकी केवल आकृति ही देखनेमें आती है ऐसी चित्र पुस्त काष्ठ आदिकमें स्थापित-आरोपित भी ललनाएं किसी तरहसे-प्रज्ञादोषसे अथवा अन्य किसी प्रकारसे मनुष्योंके हृदयमें शाकिनीकी तरहसे संक्रान्त होकर उससे सैकडों ही विकृत चेष्टाएं करादेती हैं। और अधिक क्या कहें ?
भावार्थ-अज्ञानी और रागी मनुष्य स्त्रियोंके चित्रको देखकर ही जब विकृतमन होकर अनेक कुचेष्टाएं करने लगते हैं जिनमें कि केवल उनकी आकृतिका ही आरोपण किया जाता है। तो साक्षात् स्त्रियोंके संसर्गसे तो, न मालुम, क्या क्या अनर्थ नहीं हो सकते । शाकिनीके शरीरमें प्रवेश करजानेपर जो जो चेष्टाएं मनुष्य करता है वे सब मन्त्रमहोदधि आदि ग्रंथों में बताई हुई हैं। तथा स्त्रियोंके संसर्गसे जो चेष्टाएं करता है उनको हम पहले लिख ही चुके हैं।
इस प्रकार स्त्रीसंसर्गके दोषोंका व्याख्यान कर अब क्रमप्राप्त उनकी अशुचिताका वर्णन पांच पद्योंमें करना चाहते हैं। उसमें पहले सामान्यसे स्त्रियोंके केशपाश मुख और आकृति-शरीरका जो कि आहार्यरमणीय किंतु झटिति विपर्यासके उत्पन्न करनेवाले हैं, व्याख्यान करते हैं। जिससे कि मुमुक्षुओंको मुक्तिका उद्योग करनेमें सहायता प्राप्त होसके। क्योंकि अशुचिताकी भावना-विचार वैराग्यका कारण है
गोगर्मुद्वयजनैकवंशिकमुपस्कारोज्ज्वलं कैशिकं, पादुकृद्गृहगन्धिमास्यमसकृत्ताम्बूलवासोत्कटम् ।
बच्चाय
.
/
१- यथा -
खधो खधो पभणइ लुंचइ सीसं ण याणए किंपि। . गय चेयणो हु विलवइ उड्ढं जोएइ अह ण नोएइ ॥
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बनमार
मूर्तिश्चाजिनकृदूहातप्रतिकृतिः संस्काररम्या क्षणाद्,
ब्यांजिष्यन्न नृणां यदि स्वममृते कस्तषुदस्थास्यत ॥ ९१ ॥ स्त्रियों और पुरुषोंके केशपास मुख और शरीरका वास्तविक स्वरूप देखा जाय तो कुछ और ही है । केशसमूह तो, गौ बैल भैंस आदि पशुओंकी मक्खियोंको उडानेका जो व्यंजन अथवा पूंछ के बालोंका जो गुच्छा उसी वंशमें, उत्पन्न हुआ है। क्योंकि जो उस व्यजनका गोत्र है वही निन्द्य गोत्र स्त्री और पुरुषों के बालोंका भी है। इसी प्रकार यदि मुखको देखा जाय तो जैसी चमारोंके घरमें दुर्गन्ध आया करती है वैसी ही इसमें आती है। शरीरको यदि देखा जाय तो उसको भी ठीक वैसा ही समझना चाहिये जैसी कि चमारोंके यहांपर रंगी मशक हुआ करती है। किंतु देखते हैं कि ये तीनों ही अपने इस वास्तविक रूपको लोगोंके सामने प्रकट न कर उन्हे विपर्यास ही उत्पन्न कराते हैं। स्त्रियोंके सामने पुरुषोंके और पुरुषोंके सामने स्त्रियोंके केशसमूह अपनेको संस्कार-अभ्यङ्ग स्नान सुगन्धित धूपनादिके द्वारा उज्ज्वल-सुन्दर सुगन्धित मनोहर और प्रदीप्त प्रकट करते हैं । मुख अपनेको ताम्बूलकी सुगन्धसे सुगन्धित मनोहर और महान् प्रकट करता है । तथा शरीर भी स्नानामुलेपनादिके द्वारा अपनेको रमणीय प्रकाशित करता है । परन्तु क्षणभरकेलिये भी यदि ये ऐसा न करें-संसारके स्त्रियों और पुरुषोंको अपने स्वरूपके विषयमें विपर्यास उत्पन्न करानेका प्रयत्न न करें तो फिर कौन बुद्धिमान् मनुष्य होगा जो कि अमृतपद-मोक्षकलिये तपस्यादि करनेका प्रयत्न करे ।
भावार्थ:- यद्यपि ये तीनों ही लोगोंको विपर्यास ही उत्पन्न कराते हैं फिर भी मुमुक्षुओंको चाहिये कि वे इनके विपर्यासमें न आकर इनके वास्तविक स्वरूपका ही विचार किया करें; जिससे कि उनके निर्वेदकी सिद्धि होकर अभीष्ट प्रयोजन-मोक्षके साधनमें भी सहायता प्राप्त हो।
जो कामसे अन्धा हुआ पुरुष अपनेमें उत्कर्षकी संभावना करता है, अपनेको महान् समझने लगता है उसके प्रति धिक्कार प्रकट करते हैं:
बध्याय
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अनगार
धर्मः .
कुचौ मांसग्रन्थी कनककलशावित्यभिसरन्,सुधास्यन्दीत्यङ्गत्रणमुखमुखक्लेदकलुषम् । पिबन्नोष्ठं गच्छन्नपि रमणमित्यार्तवपथं,
भगं धिक् कामान्धः स्वमनु मनुते स्वःपतिमपि ॥ ९२ ॥ खियोंके कुचोंको जो कि गदाके आकारमें बन जानेवाली मांसकी ग्रंथी-गाठे हैं उनको पीनता उन्नतता और कठिनता गुणके कारण सुवर्णका कलश समझ कर जब आलिङ्गन करने लगता है, तथा शरीरके व्रणके समान अत्यंत अशुचिरूप पदार्थके बहने या निकलनेके द्वारके सदृश मुखके क्लेदसे कश्मल हुए ओष्ठको जब अमृतका झरना समझ कर पीने-चूसने लगता है-उनके रसका स्वाद लेने लगता है, और जब रजके वहनेके मार्ग योनिरन्ध्रको अत्यंत रमणीय स्थान समझ कर भागने लगता है, उस समय कामसे अन्धा हुआ यह पुरुष--जिसको कि मन्मथ-मोहके कारण वस्तुका वास्तविक स्वरूप सूझता ही नहीं है। धिक्कार है कि दूसरे साधारण मनुष्योंकी तो बात ही क्या, स्व
पति-इन्द्रसे भी अपनेको अधिक उत्कृष्ट समझने लगता है। भावार्थ-जो इतना कामसे अन्धा होजाता है कि अत्यंत अशुचि और अस्पृश्य पदार्थों में भी रमण करने लगता है तथा उनके सेवन करने में भी जो इतना राग करने लगता है कि इन वस्तुओंकी प्राप्तिके सामने उत्तम व्यक्तियोंको भी हीन मानने लगता है उसको अब धिक्कार देनेके सिवाय और क्या कहें।
जिस समय दृष्टि स्त्रियोंके शरीरमें अनुराग करनेकी तरफ प्रवृत्त हो कि उसी समय - झटिति प्रबुद्ध हुआ उनके स्वरूपका परिज्ञान ही उत्पन्न होनेवाले मोहको दूर कर सकता है, यही बात दिखाते हैं:
रेतःशोणितसंभवे बृहदणुस्रोतःप्रणालीगलद्गोंगारमलोपलक्षितनिजान्तर्भागभाग्योदये ।
IS
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घा
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तन्वीवपुषीन्द्रजालवदलंभ्रान्तौ सजन्त्यां दृशि,
द्रागुन्मीलति तत्त्वदृग् यदि गले मोहस्य दत्तं पदम् ॥ ९३ ॥ तन्वङ्गी-ललनाओंके शररिका यदि वास्तविक स्वरूप देखाजाय तो वह शुक्र और शोणितको उत्पन्न करनेका स्थान अथवा इनको उत्पन्न करनेवाला है । तथा इसमें प्रणालिकाओं-मोरिओंके समान जो बडे और छोटे छिद्र पाये जाते हैं उनसे अत्यंत ग्लानिके उत्पादक विष्टा मूत्र नाक थूक श्लेष्मा प्रस्वेद प्रभृति बहते हुए मल लोगोंको इस बातका अनुभव या ज्ञान करादेते हैं कि इनके अन्तर्भागमें-भीतर कितना और कैसा माग्यका उदय है। फिर भी यह शरीर जैसा कि ऊपर भी कहा जा चुका है लोगोंको भ्रांति-विपर्यास करानेमें पूर्णतया समर्थ है। किंतु इसकी तरफ दृष्टिके अनुरक्त-विपर्यासकी तरफ उन्मुख होते ही, निगाह जाते ही यदि साधुओंका तत्त्वज्ञान झटिति जागृत हो उठता है--शरीरके वास्तविक स्वरूपकी तरफ उनका लक्ष्य चला जाता है, तो कहना चाहिये कि उन्होंने मोहके गलेपर पैर देदिया । लात मारकर चारित्रमोहनीय कर्मका तिरस्कार करदिया और उसपर विजय प्राप्त करली ।
भावार्थ--जो स्त्रियोंके शरीरमें अनुरागका निमित्त पाते ही तत्त्वज्ञानसे काम लेते हैं और उसमें राग न करके उनके वास्तविक स्वरूप-अशुचिताका विचार करने लगते हैं वे ही साधु मोहकर्भको जीतकर अपने ब्रह्मचर्यमें वृद्धि और अभीष्ट पदकी सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं।
स्त्रियोंका शरीर वस्तुतः सुन्दर नहीं है किंतु रमणीय आहार वस्त्र भूषण अनुलेपनादिकी सजावटसे वैसा मालुम पडने लगता है, इसी बातको प्रौढोक्ति के द्वारा प्रकट करते हैं: -
वर्च:पाकचरुं जुगुप्स्यवसतिं प्रस्वेदधारागृहं, बीभत्सैकविभावभावनिवहनिर्माय नारीवपुः ।
अध्याय
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अनगार
DHMIRASRAMERAKHELKHANKalinsa
वेधा वेद्मि सरीसृजीति तदुपस्कारकसारं जगत,
को वा क्लेशमवैति शीण रतः संप्रत्ययप्रत्यये ॥ ९४ ॥ जिसके निमित्तसे हृदय संकुचित होने लगता है ऐसे बीभत्स रसके ही उत्पन्न होनेमें आलम्बन या उदीपनरूप दोष धातु मल प्रभृति कारणभूत पदार्थोंके संघातों-स्कन्धोंसे स्त्रियोंके ऐसे शरीरको, जो कि उपमुक्त आहारादिके पकानेकेलिये मानों चरु-बटलोईके समान है और मूत्र पुरीष आर्त प्रभृति ग्लानिके उत्पादक पदार्थोके ही रहनेका मानों स्थान है, नथा प्रस्वेद-पसीनाके निकलने के लिये मानों धारागृह-निर्झरस्थानके तु. ल्य है, बनाकर अब जो विधाता भोगोपभोगके साधनभूत पदार्थोंके ही प्रपञ्चरूप इस जगत्को पुनः पुनः बनाता है उसका सारभूत प्रयोजन एक ही मालुम पडता है । वह यह कि, अब उस शरीरका उपकार करदिया जाय-इन जगत्के समस्त उत्तम पदार्थोंसे उस स्त्रीशरीरको सुगन्धित और रमणीय बना दिया जाय । क्योंकि यह चराचर जगत् कामिनियोंके शरीरमें रमणीयताके संपादनद्वारा ही कामी पुरुषोंके मनमें परम निवृत्ति-उपरतिको उत्पन्न कर सकता है। देखते हैं भी कि लोकमें उन्होंने रमणियोंके उपभोगको ही परम पुरुषार्थ माना है। जैसा कि भट्ट रुद्रटने भी लिखा है कि
राज्ये सारं वसुधा वसुन्धरायां पुरं पुरे सौधम ।
सौधे तल्पं तल्पे वराङ्गनानङ्गसर्वस्वम् ।। राज्यमें सारभूत पदार्थ वसुधा- पृथ्वी है। वसुंधराका भी सार नगर, और नगरका भी सार महल है। एवं महलमें सारभूत पदार्थ पलंग, और पलंगका भी सारभूत रमणीय रमणियोंका .रमणसर्वस्व है।
अत एव कहना पडता है कि असुन्दर स्त्रीशरीरको सुंदर बनाने अथवा उसकी जुगुप्स्यता या अशुचिः ताको छिपानेकेलिये ही मानों ब्रह्मा भोगोपभोगके साधन ही जिसमें एक सार हैं ऐसे जगत्की बार वार रच
अध्याय
ANEKALKakakakakaal
अ. ध. ५०
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अनगार
३९४ |
ना करता है। अथवा ठीक ही है, संप्रत्यय-अतद्गुण वस्तुमें तद्गुणताका आभनिवेश ही है प्रत्यय-कारण जिसका ऐसे सुखमें आसक्त हुआ ऐसा कौन पुरुष होगा जो कि क्लेश-दुःखका अनुभव करसके कोई नहीं।
भावार्थ-जुगुप्स्य भी स्त्रीशरीरको वस्त्रादिकोंके द्वारा सजाकर और उसमें मनोज्ञताका प्रत्यय कर संसारी जन जो सुखका अनुभव करते हैं उसका कारण केवल मिथ्याभिनिवेश ही है ।
जो बहिरात्मा या ऐसे अज्ञानी मनुष्य हैं कि जिनकी बुद्धि निरंतर विषयों में ही अच्छी तरहसे मूर्छित रहा करती है और जो स्त्रियोंके अत्यंत निन्दनीय उपस्थ स्थानमें ही लालसा रखते हैं उनके दुःसह दुःखोंका उपभोग कराने की योग्यतासे युक्त असाधारण कारणरूप उद्योगपर खेद प्रकट करते हैं।--
विष्यन्दिक्लेदविश्रम्भसि युवतिवपुःश्वभ्रभुभागभाजि क्लेशाग्निक्लान्तजन्तुव्रजयुजि रुधिरोद्गारग) रायाम् । णाद्यनो योनिनद्यां प्रकुपितकरणप्रेतवर्गोपसगैं, मूर्छालः स्वस्यबालः कथमनुगुणये? तरं वैतरण्यम् ॥ ९५ ॥
अध्याय
तरुणी रमणियोंके शरीररूपी नरकभूमिके एक नियत स्थानमें अवस्थित, एवं क्लेद-उबला हुआ-उष्णद्रव द्रव्यरूपी दुर्गन्धियुक्त जल निरन्तर बहता रहता है, तथा जो क्लेश-नाना प्रकारके दुःखरूपी अग्निसे संतप्त हुए प्राणिसंघातसे पूर्ण है और जो बाहिर निकलते हुए-बहते हुए रुधिरकी गर्दा ग्लानिसे उद्रिक्त है, ऐसी योनिरूपी नदीमें जो लम्पट-लालसायुक्त रहता है और जो अत्यंत कुपित हुए इन्द्रियरूपी प्रेतवर्ग-नारकियोंके उपसर्ग-उपद्रवोंसे मूर्छित होजाता है, ऐसा यह अज्ञानी मनुष्य खेद और आश्चर्य है कि वैतरणी नदीमें अपनेको तरने या तरकर पार होने योग्य किस तरह बना सकेगा। .
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घमेल
AUTOurroupreETroupremASTERESPEPSIRAHMENTSXES
भावार्थ --स्त्रियोंकी योनि बिल्कुल वैतरणी नदीके समान है जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है। जब कि संसारके साधारण अज्ञानी जन इसको नहीं तर सकते और इंद्रियोंके उपसर्गोंको भी नहीं सह सकते तब यह किस तरह कहा जा सकता है कि वे नरकमें वैतरणीको तरने में क्षम हो सकेंगे और नारकियोंके उपद्रवोंको भा सह सकेंगे, कभी नहीं । वे अवश्य ही नारकियोंके द्वारा दिये गये दुःखोंको भोगते हुए वैतरणी में पडे पडे सडेंगे । इन दुःखोंसे इनके बचनेका उपाय तो यही है कि ये इस योनिनदीको तरकर पार होजाय-उसमें रमण करने की इच्छा ही न करें और इन्द्रियोंसे पराजित न होकर उनपर विजय प्राप्त करें। क्योंकि स्त्रियोंके अत्यंत जुगुप्स्य स्थानमें रमण करनेकी लोलुपता रखन। और इन्द्रियोंके ही पराधीन रहना नरकमें जानेका ही प्रयत्न करना है।
इस प्रकार अशुचित्व भावनाका निरूपण करके अब क्रमानुसार वृद्ध पुरुषोंकी संगति करनेका पांच पद्योंमें व्याख्यान करना चाहते हैं। जिसमें पहले निरन्तर ही अपना कुशल-आत्महित चाहनेवाले मुमुक्षुओंको मोक्षमार्ग - रत्नत्रयका निर्वहण करनेमें निष्णात साधुओंकी परिचर्या-वैयावृत्यके अतिशयरूप करनेका उपदेश देते हैं:
स्वानूकाङ्कशिताशयाः सुगुरुवाग्वृत्त्यस्तचेतःशयाः, संसारार्तिबृहद्भयाः परहितव्यापारनित्योच्छ्रयाः । प्रत्यासन्नमहोदयाः समरसीभावानुभावोदयाः, सेव्या: शश्वदिह त्वयातनयाः श्रेयःप्रबन्धेप्सया ॥ ९६ ॥
अध्याय
१-सम्यग्दर्शनादिका उद्योतादि रूपसे आराधन करनेका निरूपण करते हुए निर्वहणका भी स्वरूप पहले
लिखा जा चुका है।
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बनगार
३९६
हे मुमुक्षो साधो ! इस ब्रह्मचर्यके विषयमें श्रेय कल्याण अथवा सम्यक्चारित्रके प्रबन्ध-अव्युच्छित्तिका प्राप्त करने की इच्छासे- यदि तू आत्महित और ब्रह्मचर्य व्रतको पूर्ण करना चाहता है तो तुझको निरंतर सद्गुरुओं-उन वृद्ध आचार्योकी सेवा-आराधना करनी चाहिये जो कि नीतिका सदा आदर करने वाले हैं उसके जाननेवाले और तदनुकूल सदा व्यवहार करनेवाले हैं। तथा जिनका कुल पिता या गुरुका वंश उनके आशयों मनोवृत्तियों को सदा उत्पथमें जानेसे अंकुशकी तरहसे रोके रहता है । क्योंकि जो कुलीन पुरुष हैं वे दुरपबादके भयसे- अपकीर्तिके डरसे कभी भी अकृत्यमें प्रवृत्ति नहीं करते-वे सदा दुष्कृत्योंसे ग्लानि ही किया || करते हैं । और जिनका मनोभू-कामदेव या उसका संस्कार, सद्गुरुओं-समीचीन उपदेष्टाओंके वचनपर अवस्थान करनेके कारण -उनके उपदेशानुसार चलनेसे सर्वथा अस्त हो चुका है। तथा जिनकी संसारकी पीडाओंसे भीति विपुल होगई-जिनका संवेग प्रतिक्षण बढता ही जाता है। और परोपकार - दूसरोके हितके सिद्ध करने में प्रवृत्ति करनेमे ही जिनको नित्य हर्षका अतिरेक हुआ करता है । जो हर्षके साथ सदा परोपकारमें प्रवृत्ति किया करते हैं। जिनका महान् उदय-मोक्ष निकटकालवत्ती होचुका है-जो उसी भवमें या कुछ ही भवमें मोक्षको प्राप्त करेंगे । जिनके शुद्ध चिदानन्दानुभवके अनुभावों-तत्काल उत्पन्न हुए रागादिकोंके प्रक्षय तथा जातिवर और सकारणवैरके उपशमन और उपसर्गोंके निवारण आदिकोंका उदय - उत्कर्ष सदा बना रहता है, यद्वा जिनको समरसौभावके कार्य बुद्धि तप बल विक्रिया औषधि प्रभृति ऋद्धिरूप अभ्युदयकी प्राप्ति होचुकी है।
भावार्थ-कुलीनताके कारण संयत मनोवृत्ति, और गुरूपदेशानुसार निष्कामताकी सिद्धि, बढता हुआ संवेग, सानन्द परोपकारमें प्रवृत्ति, निकटभव्यता, शुद्ध चिदानन्दानुभवके कार्यकारणकी प्राप्ति, इन छह विशेषणोंसे युक्त वृद्धाचार्योंकी साधुओंको अपने ब्रह्मचर्यकी सिद्धिकेलिये अवश्य ही और निरंतर आराधना करनी चाहिये क्योंकि ऐसा करनेपर ही उनका ब्रह्ममहाबत निर्मल रह सकता है । जैसा कि कहा भी है किः
अध्याय
. य: करोति गुरुभाषितं मुदा संश्रये वसति वृद्धसंकुले ।
मुञ्चते तरुणलोकसंगतिं ब्रह्मचयममलं स रक्षति ॥
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बनगार
३९७
जो व्यक्ति हर्षके साथ गुरूपदेशके अनुसार सदा व्यवहार करता है और तरुण पुरुषोंकी संगति छोडकर वृद्ध पुरुषों के बीच सदा उनके निकट ही रहता है, कहना चाहिये कि वह व्यक्ति अपने ब्रह्मचर्य व्रतको निर्मल रखता है। वृद्ध और इतर पुरुषोंकी संगतियोंके फलमें जो अन्तर है उसको बताते हैं: -
कालुष्यं पुस्युदीर्ण जल इव कतकैः संगमाद्वयेति वृद्धरश्मक्षेपादिवाप्तप्रशममपि लघुदेति तषिङ्गसङ्गात् । । वाभिर्गन्धो मृदीवोद्भवति च युवभिस्तत्र लीनोपि योगाद्, .
रागो द्राग्वृद्धसङ्गात्सरटवदुपलक्षेपतश्चैति शान्तिम् ॥ ९७ ॥ यथायोग्य निमित्तको पाकर मनुष्योंके हृदयमें उद्धृत हुआ कालुष्य-द्वेष शोक भयादिरूप संक्लेश अथवा इनके द्वारा प्रकट होनेवाला कष्मलभाव वृद्ध पुरुषोंकी संगतिसे--बढते हुए ज्ञान संयमादि गुणोंसे युक्त पुरुषोंकी संगतिसे इस तरहसे प्रशमको प्राप्त होजाता है जसे कि निर्मली फलके चूर्णका सम्बन्ध पाकर जलकी पङ्किलता प्रशान्त होजाया करती है। किंतु यह प्रशान्त भी कालुष्य विट पुरुषोंके संसर्गसे शीघ्न ही फिर उद्भूत हो जाता है। जसे कि उस प्रशान्त जलमें यदि पत्थर डाल दिया जाय तो उसका गदलापन शीघ्र ही फिरसे ऊपर आजाया करता है।
इसी प्रकार दूसरी बात यह भी है कि यदि मनुष्योंके हृदयमें कषायभाव लीन-अनुद्भूत हो-जो अबतक जागृत न हुआ हो तो वह तरुण-विट पुरुषोंकी संगतिसे इस तरहसे उद्भूत-उदित होजाता है जैसे कि जलके सम्बन्धसे मीमें गन्ध प्रकट होजाया करती है । किंतु वह अभिव्यक्त भी कालुष्य वृद्ध पुरुषोंकी संगतिसे शीघ्र ही इस तरहसे प्रशान्त होजाया करता है जैसे कि रंग बदलनेवाले करकेंटाका उदभूत भी वर्ण वैचित्र्य एक पत्थरके फेंकदेने पर झटिति दूर होजाता है।
अध्याय
३९७
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बनगार
३९८
भावार्थ-इस श्लोकके पूर्वार्धमें पहले वृद्ध पुरुषों और पीछे विट पुरुषोंकी संगति करनेसे जो मनुष्योंको फल प्राप्त होता है उसको दृष्टांतद्वारा प्रकट किया है। और उत्तरार्धमें पहले विट पुरुषों और पीछे वृद्ध पुरुषोंकी संगति करनेसे जो फल प्राप्त होता है उसको उदाहरण देकर बताया है । इन दोनों उदाहरणोंसे वृद्ध और इतर पुरुषोंकी संगतिके फलका अन्तर स्पष्ट होजाता है कि मुमुक्षुओंको और अपने ब्रह्मचारी व्रतकी निर्मलता बढानेकी इच्छा रखनेवालोंको सदा वृद्ध पुरुषोंकी ही संगति करनी चाहिये।
यहां एक बात और भी ध्यान में रखनी चाहिये । वह यह कि, इस प्रकरणमें वयकी प्रधानताके साथ साथ जिसमें ज्ञान संयमादिक गुण भी प्रकर्ष रूपसे पाये जाय उसीको वृद्ध कहा है । जैसा कि पहले भी लिखा जा चुका है।
प्रायः यह बात प्रसिद्ध है कि यौवन अवस्थाके निमित्तसे विकार उत्पन्न हो ही जाते हैं । अत एव जो तरुण पुरुष हैं वे यदि अतिशयित गुणोंसे युक्त भी हों तो भी उनकी संगतिपर विश्वास न करना चाहिये । इसी बातको ग्रन्थकार प्रकाशित करते हैं:
बध्याय
अप्यद्यदगुणरत्नराशिरुगपि स्वस्थः कुलीनोपि ना. नव्येनाम्बुधिरिन्दुनेव वयसा संक्षोभ्यमाणः शनैः । आशाचक्रविवर्तिगर्जितजलाभोगः प्रवृत्त्यापगाः, पुण्यात्मा प्रतिलोमयन्विधुरयत्यात्माश्रयान् प्रायशः॥९॥
|| ३९८
जिस प्रकार आशाचक्र-दिङ्मण्डलमें फैले हुए और गर्जना करते हुए जलके विस्तारसे सब तरफको भरा हुआ, और जिसके भीतर रत्नराशि अपनी दीप्तिको प्रकाशित करने के लिये सदा उद्यत रहा करती है, जो स्वस्थ--अतिशय प्रसन्न तथा कुलीन--पृथ्वीमें संश्लिष्ट है ऐसा समुद्र चन्द्रमाके उदयको पाकर धीरे धीरे अत्यंत
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बनगार
22.6524ZREAKE
क्षोभको प्राप्त होजाता है-विकृत होकर अपनी स्वाभाविक प्रकृतिसे चलायमान होजाता है। और पवित्र गङ्गादिक नदियोंको उन्मार्गगामिनी बनाता हुआ अपना आश्रय लेकर रहनेवाले मत्स्यादिकोंको भी प्रायः करके कुशलतासे भ्रष्ट करदेता है। उसी प्रकार जो मनुष्य स्वस्थ-सदा अच्छी तरह प्रसन्न अथवा निर्मल रहनेवाला है, और कुलीन लोकपूजित कुलमें उत्पन्न भी हुआ है, तथा जिनके ज्ञान संयमादिक गुणोंकी दीप्ति भी अपना प्रकाश करनेकेलिये प्रतिक्षण बधती जाती है वह भी नवीन वय-तारुव्यको पाकर-युवावस्थामें धीरे धीरे क्षुब्ध होजाया करता है। निर्मलता कुलीनता और ज्ञानसंयमप्रभृति गुणों से युक्त अपनी साविक प्रकृतिसे चलायमान होकर अनेक प्रकारके विकृत भावोंसे युक्त होजाया करता है । तथा सोत्सेक गर्जना करनेवाले मूढ लोकोंके आशाचक्रप्रत्याशा-अभिलाषाकी परम्पराओंमें विविध प्रकारसे फसे हुए, भोगों इष्टविषयके उपयोगोको अच्छी तरहसे पूर्ण करनेवाला बनकर गङ्गादिक नदियों के समान पवित्र प्रवृत्तियों-मन वचन कायकी कृतियोंको उन्मार्गगामी बनाता हुआ विषयसेवनमें प्रवृत्त कराता हुआ प्रायः करके अपने आश्रित रहनेवाले शिष्यादिकोंको भी श्रेयोमार्ग-आत्महितसे भ्रष्ट करदेता है।
भावार्थ-यौवन अवस्थामें प्रायः मनुष्य कुलीन अथवा ज्ञान संयमादिके अभ्यासमें निरंतर रहने पर भी विकृत हो ही जाता है और सगर्व गर्जना करनेवाले जड मनुष्योंके आशान्वित भोगोंकी पूर्ति करनेमें उन्मुख हो ही जाता है - सिद्धि या यन्त्र मन्त्रादि बताकर उनकी भोगोपभोगसम्बन्धी अभिलाषाओंके सफल बनानेमें सहायक हो ही जाता है। यह इस अवस्थाका ही दोष है कि वह इस प्रकारसे अपनी प्रवृत्तियोंका दुरुपयोग कर डालता है। ऐसे मनुष्यकी संगतिसे अथवा सेवा आदि करनेमें रहनेसे मनुष्य श्रेयोमार्गसे भ्रष्ट ही हो सकता है । अत एव साधुओंको वृद्धोंकी ही संगति करनी चाहिये; क्योंकि युवावस्थाका विश्वास नहीं है। जैसा कि लौकिक पुरुष कहा भी करते हैं कि:
अवश्यं यौवनस्थेन क्लीबेनापि हि जन्तुना । विकारः खलु कर्तव्यो नाविकाराय यौवनम् ।।
बध्याय
KOK
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युवावस्थामें तो नपुंसकोंको भी अवश्य ही कुछ न कुछ विकार करलेना चाहिये । क्योंकि यौवन निर्विकार रहनेकलिये संडा ही है। .
और भी कहा है कि
बनगार
यस्मिन्त्रजः प्रसरति स्खलितादिवोच्च,रान्ध्यादिव प्रबलता तमसश्चकास्ति । सत्त्वं तिरोभवति मीकमिवाबजामे,
स्तद्यौवनं विनयसज्जनसङ्गमेम ॥ यौवनको पाकर मनुष्य स्खालत होने लगता है, जिससे मालुम पडता है कि उसमें रजोगुण अच्छी तरहसे अपना प्रसार कर रहा है। इसी प्रकार युक्तायुक्तके विवेकसे रहित होकर उसमें अन्धता भी आजाती है जिसमे मालुम पडता है कि उसमें तमोगुण भी अपनी प्रबलताको प्रकाशित कर रहा है। किंतु उसका सत्वगुण मानों उसके शरीरकी अग्रिसे डरकर ही छिपा जाता है । इस प्रकारका यौवन विनयगुण और सत्पुरुषोंकी सङ्गतिसे ही निर्विकार रह सकता है।
जो मनुष्य इस तारुण्यको पाकर भी निर्विकार रहते हैं उनकी प्रशंसा करते हैं:
अध्याय
दुर्गेपि यौवनवने विहरन् विवेक,चिन्तामणि स्फुटमहत्त्वमवाप्य धन्यः । चिन्तानुरूपगुणसंपदुरुप्रभावो, वृद्धो भवत्यपलितोपि जगाद्विनीत्या ॥ ९९॥
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अनगार
यह यौवनरूपी वन यद्यपि दुर्गम है-दुःखके साथ भी लोग इसको पार नहीं कर सकते और इसका अतिक्रमण नहीं करसकते; फिर भी जो मनुष्य इसमें विहार करते हुए भी, स्फुट है महत्व जिसका ऐसे विवेकरूपी चिन्तामणिको पाकर, चिन्ताके अनुरूप गुणसंपत्तिके महान् प्रभावसे युक्त होजाते हैं वे धन्य हैं । और ऐसे पुरुषोंको जरा विकारसे रहित रहनेपर भी जगतको शिक्षादि देनेकी अपेक्षा वृद्ध ही समझना चाहिये ।
भावार्थ:-जो युवा होकर भी विवेकसे युक्त रहते हैं और गुणोंसे प्रभावित होजाते हैं वे धन्य हैं। योग्य और अयोग्य अथवा हित और अहित विषयमें विचार करनेकी चतुरताको विवेक कहते हैं । यह विवेक चिन्तामाणि रत्नके समान है। क्योंकि इससे अभिलषित पदार्थोकी प्राप्ति होसकती है। इसकी महिमा और जगत्पूज्यता प्रकट है । क्योंकि मोक्षके कारण संयमका भी इसीके निमित्तसे साधन हो सकता है। अत एव इस विवेकचिन्तामणिके निमित्तसे मनुष्योंको एसी गुणसंपत्तियां इच्छानुरूप प्राप्त होजाती हैं कि जिनका प्रभाव-शक्तिविशेष अचिन्त्य है । जो यौवनमें ही इस विवेकके द्वारा प्राप्त हुए गुणप्रभावसे भूषित होजाते हैं उन्हे युवा न समझकर वृद्ध ही समझना चाहिये । क्योंकि वे भी जगत्को वृद्धोंकी तरहसे ही शिक्षादिक देसकते हैं । किंतु ऐसे धन्य पुरुष विरल ही हो सकते हैं।
___ असाधु और साधु पुरुषों के साथ संभाषण या संसर्गादि करनेसे जो फल प्राप्त होता है उसको दृष्टांतद्वारा प्रकट करते हैं:
सुशीलोपि कुशीलः स्यादुर्गोष्टया चारुदत्तक्त् । कुशीलोपि मुशीलः स्यात् सद्गोष्टया मारिदत्तवत् ॥ १..॥
S
अध्याय
ANNEL
समीचीन और प्रशस्त
आचरणवाला भी पुरुष दृष्ट जनोंकी संगतिमें पडकर अथवा उनके साथ संभा
अ. ध. ५१
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बनगार
षणादि करके इस तरहसे कुशील-दुर्वृत्त या दुराचारी होजाता है जैसे कि चारुदत्त सेठ होगया था । तथा दुराचारी भी मनुष्य सत्पुरुषों-सजनोंकी संगति पाकर यद्वा उनके साथ संभाषणमात्र ही करके इस तरहसे सुशील बनजाता है जैसे कि मारिदत्त राजा बनगया था।
इस प्रकार वृद्ध पुरुषोंकी संगति करनेका उपदेश पूर्ण हुआ और उसके साथ साथ पहले जो ब्रह्मचर्यव्रतकी वृद्धिके कारणभूत स्त्रीवैराग्यकी पांच भावनाएं बताई थी उनका स्वरूप निरूपण भी समाप्त हुआ। किंतु इनके सिवाय पांच भावनाएं और भी बताई हैं। यथा-१ स्त्रीरागकथा श्रवण त्याग, २ तन्मनोहराङ्ग निरीक्षण त्याग, ३ पूर्वरतानुस्मरण त्याग, ४ वृष्येष्टरस त्याग, ५ खशरीरसंस्कार त्याग । साधुओंको अपने ब्रह्मचर्य महाब्रतकी स्थिरताके लिये इन भावनाओंका भी पालन करना चाहिये ऐमा उपदेश देते हैं:
रामागगकथाश्रुतौ श्रुतिपरिभ्रष्टोसि चेद्भष्टदृक्, तद्रम्याङ्गनिरीक्षणे भवसि चत्तत्पूर्वभुक्तावसि । नि:संज्ञो यदि वृष्यवाञ्छितरसास्वादेऽरसज्ञोसि चेत्
संस्कारे स्वतनोः कुजोसि यदि तत्सिदोसि तुर्यव्रते ३ १.१॥ हे माधो ! स्त्रियों के द्वाग अथवा स्त्रियोंके विषयमें रागपूर्वक किये गये ऐसे किसी भी कथोपकथनके जो कि उन रमणियोंके विषय में गगतिको उत्पन्न कर सकता है। सुननेके लिये यदि तु ऐसा बनगया है मानो तेरे कान ही नहीं हैं-- अत्यंत बधिर और उनके मुख कुच त्रिवली जवा नितम्ब प्रभृति रमणीय--मनोहर अङ्गाके
बध्याय
1---इन दोनो कथाओंको क्रमसे चारुदत्त चरित्र और यशोधर चरित्रमें देखना चाहिये । ३-" नित्य कामाङ्गनादोषाशौचानि भावयन् " इस श्लोकों ।
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मनगार
देखने के लिये नेत्रहीन- अन्धा सरीखा बननया है--उनका निरीक्षण करनेके लिये कभी भी अपनी दृष्टिका तू निक्षेप नहीं करता। तथा पहले जो तेने उन रमणीय रमणियोंके साथ रमण किया था उसका अब स्मरण करनेके लिये यदि तू ऐसा बनगया है मानो असंज्ञी-अमनस्क है-कभी उसका स्मरण नहीं करता और वृष्य दुग्धादिक शुक्रके बढानेवाले पदार्थों और अभीष्ट मधुरादिक रसोंका आस्वाद लेनेके लिये अभ्यासतः सेवन करनेके लिये यदि तू अरसज्ञ या ऐसा बन गया है मानों तेरे जिह्वा ही नहीं है। तथा अपने शरीरका संस्कार करनेके लिये उसको मनोहर अतिशयित और कान्तियुक्त बनानेके लिये यदि तू बिल्कुल ही पराङ्मुख होगया है मानों बृक्षसरीखा बनगया है; तो कहना चाहिये कि तू चौथे महाव्रत-ब्रह्मचर्यकी प्रौढ महिमाको प्राप्त कर चुका ।
पूर्वरतानुस्मरण और वृष्येष्ट रसका त्याग करने केलिये पहले भी लिखा जाचुका है । किंतु यहांपर दूसरी बार फिर वर्णन करनेका प्रयोजन यह है कि ब्रह्मचर्य व्रत अत्यंत दुःसाध्य है अतएव उसका पालन करनेके लिये सावधानी रखकर अधिक प्रयत्न करना चाहिये। क्योंकि समस्त व्रतोंमें ब्रह्मचर्य व्रत ही क्लिष्ट और महान माना है । जैसा कि कहा भी है किः ।
अक्खाण रसणी कम्माण मोहणी तह वाण बभं च ।
गुत्तीण य मणगुत्ती चउरो दुक्खेण सिझति ।। इन्द्रियोंमें रसना, कोंमें मोहनीय, व्रतोंमें ब्रह्मचर्य, आर गुप्तियोंमें मनोगुप्ति, ये चारो ही भाव बडी ही कठिनतासे सिद्ध हुआ करते हैं।
अध्याय
वृष्य द्रव्पका सेवन करनेसे जो तृती होती है उसका प्रभाव मनुष्यपर कैसा पडता है या उसका फल कैसा मिलता है सो बताते हैं:
को न वाजीकृतां दृप्तः कंतुं कंदलयेद्यतः ।
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ऊर्ध्वमूलमधःशाखमृषयः पुरुष विदुः॥१.२॥
बनगार
धर्म
मनुष्योंको घोडेके समान बनादेनेवाले दुग्ध प्रभृति वीर्यवर्धक पदार्थोंको वाजीकरण कहते हैं। इसमें ऐसा कौनसा पदार्थ है जो कि उद्दुत-उत्तेजित होकर कामदेवको उद्भूत नहीं करदेता । सभी सगर्व वाजीकरण पदार्थ ऐसे ही हैं कि जिनके उपयोगसे अवश्य ही कामदेव जागृत होजाया करता है। क्योंकि ऋषियोंने पुरुषका स्वरूप उर्ध्वमूल और अधःशाख माना है। जिव्हा और कण्ठ प्रभृति अवयव मनुष्यके मूल हैं और हस्तादिक अवयव शाखाएं हैं । जिस प्रकार वृक्षके मूलमें किये गये सिञ्चनका परिणाम उसकी शाखऑपर पडता है उसी प्रकार जिव्हादिकके द्वारा उपयुक्त आहारादिकका प्रभाव हस्तादिक शरीरके अंगोंपर पड़ता है। यदि मनुष्य वाजीकरण पदार्थोंका सेवन करेगा तो अवश्य ही उसके शुक्रकी वृद्धि होकर कामदेव भी उत्तेजित होगा। अत एव साधुओंको ब्रह्मचर्य के साधनमें वृष्य पदार्थोके सेवनको विघ्नकारक समझकर अवश्य ही छोडदेना चाहिये । और समस्त इन्द्रियोंमें प्रधान रसनाको वशमें करना चाहिये ।
पूर्व कालमें ऐसे बहुतसे पुरुष होगये हैं जो कि मोक्षमार्गका अनुसरण करते थे किंतु ब्रह्मचर्य व्रतमें प्रमाद करनेके कारण संसारमें अत्यंत उपहासके ही पात्र हुए । अत एव इस महाव्रतके साधन करनेमें तत्पर रहनेवाले साधुओंको अच्छी तरह सावधानता रखनेका उपदेश देते हैं:--
दुर्धर्षोद्धतमोहशौल्किकतिरस्कारेण सद्माकराद्, भृत्त्वा सद्गणपण्यजातमयनं मुक्तेः पुरः प्रस्थिताः । लोलाक्षीप्रातसारकैर्मदवशैराक्षिप्य तां तां हठा,न्नता: किन्न विडम्बना यतिवराश्चारित्रपूर्वाः क्षितौ ॥ १०३ ॥
अध्याय
anA
किसी विक्रेय वस्तुके राज्यमें लानेपर अथवा राज्यसे बाहिर लेजानेपर यद्वा खान आदिमेंसे निकलनेवाले
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बनगार
यतिश्रेष्ठोंकी भी जगत में विडम्बना हुआ कर दिया जाता है-लायुक्त मदोन्मत्त सिपाहि
किसी अन्य पदार्थपर जो राज्यका ग्राह्य भाग नियत रहता है-कर लगता है उसको शुल्क और उसके बसूल करनेवाले अधिकारीको शौल्किक कहते हैं । यदि कोई मनुष्य उस शौल्किकको छलकर-कर न देकर किंतु खानमेसे रत्नादिकको लेकर मार्गमें जानेका प्रयत्न करे तो वह शौल्किकके नियुक्त मदोन्मत्त सिपाहियों द्वारा पकडा जाता है
और जबर्दस्ती वहांसे ढकेलकर पछिको कर दिया जाता है-लौटा दिया जाता है। वहांसे लौटते ही जिस प्रकार उस मनुष्यकी जगत्में विडम्बना हुआ करती है उसी प्रकार पूर्व कालमें कितने ही शकट कूर्चवार और रुद्रप्रभृति यतिश्रेष्ठोंकी भी जगत्में वह वह विडम्बना हुई है जो कि लोकमे और शास्त्रमें सर्वत्र प्रसिद्ध है। क्योंकि यद्यपि ये यतियोंमें श्रेष्ठ थे । जो केवल शरीरमात्र परिग्रहका धारण कर सम्यग्ज्ञानरूपी नौकाके द्वारा तृष्णारूप नदीसे पार लगानेवाले योगकेलिये यत्न किया करते हैं उनको यति कहते हैं । इस तरहके यतियोंमें यद्यपि ये शकट कूर्चवारादिक प्रधान और श्रेष्ठ थे, तथा मुख्यतया चारित्रका ही पालन करनेवाले थे, किंतु ज्यों ही उन्होंने दुर्घर्ष जिसका पराभव नहीं किया जा सकता और उद्धत मोहरूपी शौल्किकको छलनेका उपक्रम किया और सम्यग्दर्शन प्रभृति समीचीन गुणरूपी पण्यजात-विक्रेयद्रव्योंको गृहरूपी आकर-खानमेंसे लेकर मोक्षके मार्गमें जानेका प्रारम्भ किया कि त्यों ही उस शौल्किकके मदोन्मत्त लोलाक्षी-रमणीरूपी प्रतिसारकों-भटोंने उनको जबर्दस्ती उस मार्गसे पछिको ढकेल दिया-संसारकी तरफ ही लौटा दिया । इस प्रकार लौटाये जानेपर जगत्में उनकी कौन कौनसी विडम्बना नहीं हुई हर प्रकारसे उनका उपहास ही हुआ।
भावार्थ-शौकिकके वेतनभोगी भटोंके समान जो यहांपर कामिनियोंको मोहकर्मके सहायक बताया है सो ठीक ही है। क्योंकि जिस प्रकार भट शौल्किकके कार्यमें पूरा योग देते हैं उसी प्रकार कामिानियां भी मोहकर्मके कार्यमें-संसारी प्राणियोंको विषयभोगोंमें ही मूर्छित करनेमें पूरा योग देती हैं । इन्हींके निमित्तसे मनुष्य अभीष्ट स्थानपर जानेका प्रयत्न करनेपर भी नहीं जा सकता, प्रत्युत अनिष्ट स्थानकी तरफ ही लौट जाता है।
जिस प्रकार रत्नादिक विक्रेय द्रव्य खानमें उत्पन्न हुआ करते हैं उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादिक गुण भी
अध्याय
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बनमार
घरमें उत्पन्न होजाते हैं । किंतु जिस प्रकार विक्रेय द्रव्य जहाँ लेजानेसे विशिष्ट अर्थ लाभके कारण हो सकते हैं वहांपर शौलिककके भट उनको लेजाने नहीं देते, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादिक जिस मोक्षमार्गमें चलनेपर विशिष्ट मोक्षरूप अर्थक लाभके कारण हो सकते हैं उसमें ये कामिनी-भट जाने नहीं देते-चारित्रका आराधन करने नहीं देते । अत एव साधुओंको उचित है कि वे इन भटोंसे सदा सावधान रहकर अपने चारित्र-ब्रह्मचर्य महाव्रतका निरंतर आराधन करनेका प्रयत्न करें।
इस प्रकार ब्रह्मचर्य महाव्रतका व्याख्यान पूर्ण हुआ । अब क्रमानुसार आकिञ्चन्य महाव्रतका अडतालीस पद्योंमें वर्णन करना चाहते हैं । किंतु उसमें सबसे पहले मुमुक्षुओंनो उसका पालन करनेकेलिये अच्छी तरह उत्साहित करनेके अभिप्रायसे उसका लोकोत्तर माहात्म्य प्रकट करते हैं:
मूर्जा मोहवशान्ममेदमहमस्येत्येवमावेशनं, तां दुष्टग्रहवन्न मे किमपि नो कस्याप्यहं खल्विति । आकिंचन्यसुसिद्धमन्त्रसतताभ्यासेन धुन्वति ये ते शश्वत्प्रतपन्ति विश्वपतयश्चित्रं हि वृत्तं सताम् ॥ १०४॥
बध्याय
४०६
मोहनीय कर्मके उदयसे " यह मेरा है" और " मैं इसका हूं" ऐसा जो परिणाम विशेष होता है । उसको मूर्छा कहते हैं । जो महापुरुष दुष्ट ग्रहके समान इस मूर्छाका, “न मेरा कोई है" और " न मैं किसीका हूं, तथा "आत्मखरूपको छोडकर मैं और कुछ नहीं हूं। और संसारमें भी निजात्मरूपके सिवाय और कुछ भी उपादेय नहीं है" इस प्रकारके आकिञ्चन्य व्रतरूपी सुसिद्ध मंत्रका निरंतर अभ्यास करके, निग्रह करदेते हैं वे ही साधु तीन लोकके स्वामी बनकर अव्याहत तेजके धारक होजाते हैं । क्योंकि साधुओंका चरित्र विचित्र ही हुआ क-. रता है।
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अनमार
४०७
अध्याय
४
भावार्थ- मूर्छा के सर्वथा परित्यागको ही आकिञ्चन्य महामत कहते हैं। मोहनीय कर्मके उदयसे आत्मा के वास्तविक स्वरूपसे भिन्न समस्त अन्तरङ्ग और बाह्य पदार्थों में होनेवाले ममत्व परिणामको मूर्छा कहते हैं । मूर्च्छाका आकार बतानेके लिये इति और एवं इन दो शब्दोंका प्रयोग किया है. जिनमेंसे इति शब्द स्वरूप अर्थी अपेक्षासे हैं। तदनुसार " यह जगत मेरा ही स्वरूप है, " अथवा " इस जगत्स्वरूप ही मैं हूं, " इस तरहके आवेशको मूर्च्छा कहते हैं । एवं शब्द प्रकार अर्थकी अपेक्षासे है। तदनुसार मैं याज्ञिक हूं, मैं परिवाड हूं, मैं राजा हूं. मैं पुरुष हूं, मैं स्त्री हूं, इत्यादि मिथ्यत्वादिक परिणामरूप अभिनिवेशोंको मूर्छा कहते हैं । कहा भी कि
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या मुच्छ नामेयं विज्ञातव्यः परिग्रहोयमिति । महोदयादुदीणा मूर्छा तु ममत्त्वपरिणामः ॥
मोहके उदयसे होनेवाले ममत्यपरिणामोंको मूछी कहते हैं। और इसका नाम परिग्रह भी है । यद्यपि यहां पर सामान्य शब्द मोह ही लिखा है किन्तु फिर भी मूर्छाकी उत्पत्तिमें विशेष कर लोभपरिणाम ही कारण है। क्योंकि अन्तरङ्ग और बाह्य पदार्थोंके प्राप्त करनेकी अभिलाषारूप परिग्रहसंज्ञा प्रधानतया लोभके ही निमित्तसे हुआ करती है। जैसा कि आगममें भी कहा है कि
उवयरणदंसणेण य तम्सुवओगेण मुच्छिदाए य । लोहसुदीरणाए परिग्गद्दे जायदे सण्णा ॥
भोगोपभोगके साधनभृत पदार्थों के देखनेसे अथवा उनका उपयोग करनेसे यद्वा ममत्व परिणामोंके होनेपर और अन्तरङ्गमें लोभ कषायका उदय या उदीरणा होनेपर, इन चार कारणों से जीवको परिग्रहमें मंज्ञा - वांछा हुआ करती है ।
१. क्योंकि मिध्यात्व रागद्वेष तथा हास्यादिक कषायोंको अंतरंग परिग्रह में ही गिना है ।
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बनगार
४.८
जो महापुरुष इन मूछीपरिणामोंके विरुद्ध निरंतर इस तरहकी भावनाका अभ्यास किया करते हैं कि "ये बाह्य और अन्तरङ्ग कोई भी पदार्थ मेरे नहीं है, और न मैं इनका हूं, मैं किसी अन्य पदार्थरूप भी नहीं हूं, और न कोई अन्य पदार्थ ही मुझ स्वरूप हैं।" वे ही महात्मा दुष्ट ग्रहके समान इस परिग्रहका निग्रह कर सकते हैं। और तीन लोककी स्वामिताको प्राप्त कर सकते हैं। क्योंकि यह आकिञ्चन्य भाव कोई न ह. मारा, हम न किसीके, यह परिणाम मुंसिद्ध मंत्रके समान है जो कि गुरूपदेशके अनन्तर ही अपना कार्य कर दिया करता है। यहांपर यह प्रश्र हो सकता है कि जो अकिंचन है वह तीन लोकका स्वामी किस तरह हो सकता है ? क्यों कि ये दोनो ही बातें परस्पर विरुद्ध हैं। अतएव उक्त अर्थ न करनेके लिये ग्रंथकार कहते हैं कि साधुओंका चरित्र विचित्र ही हुआ करता है।
परिग्रह दो प्रकारका है- एक अन्तरंग दूसरा बाह्य । इन दोनों ही प्रकारके परिग्रहोंके दोषोंको बताते हुए मुमुक्षुओंको उनके त्याग करनेका उपदेश देते हैं
शोध्योऽन्तन तुषेण तण्डुल इव ग्रन्थेन रुहो बहि,जीवस्तेन बहिर्मुवापि रहितो मूर्जामुपार्छन् विषम् ।
मध्याय
१-मंत्र तीन प्रकारके होते हैं सिद्ध, साध्य और सुसिद्ध । इनका स्वरूप इस प्रकार है कि
सिद्धः सिध्यति कालेन साध्यो होमजपाविना ।
सुसिद्धस्तत्क्षणादेव अरिं मूलानिकृन्तति ॥ जिसके सिद्ध होनेमें कालकी अपेक्षा रहती है उसको सिद्ध, और जो होम जप आदि करनेसे सिद्ध हो जाता है उसको साध्य, तथा जो तरक्षण ही-गुरुपदेशके बाद ही अपना कार्य कर सके उसको सुसिद्ध कहते हैं।
२-" भवति मुनीनामलौकिकी वृत्तिः" ।
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बनगार
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निर्मोकेण फणीव नाहति गुणं दोषैरपि त्वेधते,
तद्ग्रन्थानबहिश्चतुर्दश बहिश्चोज्झेदश श्रेयसे ॥ १०५ ॥ जिस प्रकार बाह्य तुष--मोटे छिलकेसे रुद्ध-वेष्टित तण्डुल-धान अन्तरङ्गसे भी शुद्ध नहीं किया जा सकता -पतली भूसी उतार कर शुद्ध चावल नहीं बनाया जा सकताउसी प्रकार बाह्य ग्रन्थ-अपने में ममकारके उत्पन्न करानेवाले चेतन और अचेतनरूप परिग्रहसे युक्त-आच्छादित अथवा आसक्तिको प्राप्त जीव भी अन्तरङ्गमें शुद्ध नहीं हो सकता-कर्मकलङ्कसे रहित निर्मल नहीं बन सकता । कहा भी है किः -
शक्यो यथापनेतुं न कोण्डकस्तण्डुलस्य सतुषस्य । न तथा शक्य जन्तोः कर्ममलं सङ्गसक्तस्य ।।
अध्याय
जिस.प्रकार तुषसहित तण्डुलके भीतरकी भूसी दूर नहीं की जा सकती उसी प्रकार सग्रन्थ मनुष्यका कर्ममल भी दूर नहीं हो सकता।
इस कथनसे किसी किसीका यह शंका हो सकती है कि अन्तरङ्ग परिग्रह कोई चीज ही नहीं है, किन्तु बाह्य परिग्रह ही सब कुछ है । और आत्मिक विशुद्ध अवस्था प्राप्त करनेकेलिये उसीका त्याग करना चाहिये ? अत एव ग्रंथकार इस शंकाका परिहार करनेकेलिये कहते हैं कि-जिस प्रकार निर्मोक-केंचुलीसे रहित भी विषसहित सर्प गुणी नहीं हो जाता-केंचुली उतरजानेसे ही वह निर्विष या शुद्ध जीव होगया ऐसा नहीं कहा जा सकता बल्कि विष रहनेसे दोषी ही रहता है या और भी अधिक दोषी हो जाता है। उसी प्रकार बाह्य परिग्रहसे रहित भी जीव यदि अन्तरङ्गमें मू युक्त है तो वह अहिंसादिक गुणोंसे युक्त नहीं हो सकता बल्कि उसमें दोष ही अधिक वृद्धिको प्राप्त हो सकते हैं। ऐसा जीव भी आत्माकी विशुद्ध अवस्थाको प्राप्त नहीं कर सकता । अत एव
अ. प. ५२
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बनगार
साधुओंको अभीष्ट पद-मोक्ष प्राप्त करनेकेलिये अथवा उसके साधन चारित्रका आगधन करनेकेलिये अन्तरङ्ग और बाह्य सभी परिग्रहका त्याग करना चाहिये । अन्तरंग परिग्रहके चौदह भेद हैं । यथाः
मिल्छसनेदरागा हस्सादीया य तय छरोसा ।
चत्तारि सह कसाया चउहसाब्भंतरा गंथा ।। मिथ्यात्व, और तीन वेद-स्त्री पुरुष नपुंसक, हास्यादिक छह नोकषाय-हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा, तथा चार कषाय-क्रोध मान माया लोम, ये चौदह अन्तरङ्ग परिग्रह हैं। बाह्य परिग्रहके दश भेद हैं। यथाः
क्षेत्र धान्यं धनं वास्तु कुप्यं शयनमासनम् ।
द्विपदाः पक्षषो भाण्डं बाह्या दश परिग्रहाः ।। क्षेत्र-खेत, धान्य-गेहू आदि अन्न, धन-सोना चांदी आदि, वास्तु-मकान, कुप्य-वस्त्र, शयन-खाट आदि, आसन सिंहासन प्रभृति बैठने की चीजें, द्विपद-दास दासी आदि, पशु-घोडा हाथी ऊंट आदि. भाण्ड वर्तन-ये दश प्रकारके बाह्य परिग्रह हैं। ये अन्तरङ्ग परिप्रहके उत्पन्न करनेमें, जो कि कर्मबन्धका साक्षात्कारण है, निमित्त हैं । अत एव इनका भी त्याम ही करना चाहिये । जैसा कि कहा भी ह कि:
मूछीलक्षणकरणात् सुघटा व्याप्तिः परिग्रहस्वस्य । सग्रन्थो मूर्खावान् विनापि किल शेषसंगेभ्यः। यद्येवं भवति तदा परिग्रहो न खलु कोपि बहिरङ्गः।
अध्याय
१-सर्वार्थसिद्धि में धनशब्दसे गा आदिक लिये हैं। यदि यही अर्थ लिया जाय तो यहांपर पशु शब्दका ग्रहण व्यर्थ होजाता है । अत एव भेदविवक्षासे धनशब्दका अर्थ यहांपर सो ग चांदी ही किया है।
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अनगार
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अध्याय
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新勝電盤膠雞絲粉蘿鮮 藍 go#augi• 綠鮮蒸雞雞
भवति नितरां मतोसौ धत्ते मूर्द्धानिमित्तत्वम् ॥ एवमतिव्याप्तिः स्यात् परिग्रहस्येति चेद्भवेन्नैवम् । यस्मादकषायाणां कर्मग्रहणे न मूांस्ति ॥
परिग्रहका लक्षण मूर्च्छा किया गया है । अत एव दोनों में व्याप्ति अच्छी तरह से घटित होती है । और
इसीलिये बाह्य पदार्थका ग्रहण न करनेपर भी जो मूर्च्छायुक्त है उसको सग्रंथ ही माना है । कहा जा सकता है कि यदि बात है तो बाह्य परिग्रह कोई चीज ही नहीं है। क्योंकि अन्तरङ्गमें मूर्छा के रहनेपर सपरिग्रह और न रहने पर अरिग्रह माना जाता है। किंतु यह बात ठीक नहीं है; क्योकि बाह्य परिग्रह अन्तरङ्ग मूर्छाका निमित्त है | बाह्य परिग्रहके रहनेपर अन्तरङ्गमें भी मूछ हो ही जाती है क्योंकि अन्तरङ्ग मूर्च्छाके विना बाह्य परिग्रहका ग्रहण नहीं हो सकता । अत एव बाह्य पदार्थोंके ग्रहण करनेको भी परिग्रह ही कहते हैं । इस कथनमें भी अतिव्याप्ति दोष दिया जा सकता है । क्योंकि इस लक्षणके अनुसार कर्मग्रहणको भी मूर्छा कह सकते हैं। क्योंकि वह भी आत्मस्वरूपसे भिन्न बाह्य पदार्थके ग्रहणरूप ही है । किन्तु यह दोष ठीक नहीं है । क्योंकि अकषाय व्यक्तियों के कर्मके ग्रहण करनेमें मूर्छा नहीं होती वह मूर्च्छापूर्वक नहीं होता ।
परिग्रहका त्याग करनेकी विधि बताते हैं: -
परिमुच्य करणगोचरमरीचिकामुज्झिताखिलारम्भः ।
त्याज्यं ग्रन्थमशेषं त्यक्त्वापरनिर्ममः स्वशर्मं भजेत् ॥ १०६ ॥
जिस प्रकार प्यास से बाधित हुए मृगगण जङ्गलकी चीली भूमिमें जलका श्रम कर बाधित २– लक्षणके तीन दोष होते हैं - अव्याप्ति अतिव्याप्ति असंभव । लक्ष्य के एकदेशमें लक्षणके रहनेको अन्याप्ति, और अलक्ष्य में भी रहनेको अतिव्याप्ति तथा लक्ष्यमात्र में न रहनेको असंभव दोष कहते हैं ।
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अनगार
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हुए शांति की अभिलाषासे उसकी तरफ उत्सुकतासे दौडते हैं, उसी प्रकार विषयवासनासे संसारी प्राणी इन्द्रियविषयोंको सुखकर समझकर उनको प्राप्त करनेके लिये चेष्टा किया करते हैं। अत एव ये इन्द्रियों के विषय मृगतृष्णाके समान हैं, वास्तवमें ये सुख और शांतिके कारण नहीं हैं । अथवा कर्मके क्षयोपशम के अनुसार इन इन्द्रियोंके प्रतिनियत विषयोंमें यदि कुछ प्रकाश भी होता है तो वह बहुत ही थोडा है-आभासमात्र है । इस ताहकी इन्द्रियविषयरूपी मरीचिकाको छोडकर- इन्द्रियविषयोंसे संयत होकर, और समस्त सावध क्रियाओंको-आरम्भादिकोंको छोडकर तथा जो छोडे जा सकते हैं ऐसे समस्त गृह गृहिणी प्रमृति बाह्य पदार्थों को सर्वथा छोडकर बालके अग्रभागकी बराबर भी त्याज्य परिग्रहसे अपना सम्बन्ध न रखकर, और जो छोडे नहीं जा सकते-जिनका त्याग करना अशक्य है एसे शरीरादिक परिग्रहोंके विषयमें निर्मम होकर- " ये मेरे हैं" इस संकल्पको छोडकर साधुओंको निज आत्मस्वरूपसे उत्पन्न सुखका सेवन करना चाहिये ।
भावार्थ--यहांपर निर्मम शब्द उपलक्षण अर्थमें आया है। जिससे साधुओंको "ये मेरे हैं" इस संकल्पकी तरह "ये मैं हूं" और " मैं ये हैं" इस संकल्प भी रहित होना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
जीवाजीवणिबद्धा परिग्गहा जीवसंभवा चेव । तेसिं सक्कच्चाओ इयरह्मि य णिम्ममोऽसंगो ॥
अध्याय
परिग्रह दो प्रकारका है, चेतन और अचेतन अथवा अंतरंग और बाह्य । इनमेंसे जिनका त्याग किया जा सकता है उनका सर्वथा त्याग करना चाहिये । और बाकीके जो परिग्रह हैं उनमें निर्मम होना चाहिये । इसी का नाम नैन्थ्य है । क्योंकि जो जीवसे असम्बद्ध उपधि है उसीका सवथा त्याग हो सकता है। सम्बद्धका नहीं। अत एव जो जीवसे सम्बद्ध हैं ऐसे शरीरादिक परिग्रहमें ये मेरे हैं अथवा ये मैं ही हूं इस तरहकी संकल्परूप मूर्छा. का ही परित्याग करना चाहिये।
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मिथ्याज्ञान जिसका अनुसरण करता है ऐसे मोहक के उदयसे जीवके दो प्रकारके भाव हुआ करते हैं-एक ममकार, दूसरा अहंकार । इन दोनोंका लक्षण इस प्रकार है:
शश्वदनात्मीयेषु स्वतनुप्रमुखेषु कर्मजनितेषु । आत्मीयाभिनिवेशो ममकारो मम यथा देहः ।। ये कर्मकृता भावाः परमार्थनयेन चात्मनो भिन्नाः। तत्रात्माभिनिवेशोहंकारोहं यथा नृपतिः ।।
कर्मके उदयसे उत्पन्न हुए अपने शरीर प्रभृति उन पदार्थों में जो कि आत्मासे भिन्न होनेपर भी सदा उससे सम्बद्ध रहते हैं, आत्मीयताके अभिनिवेशको ममकार कहते हैं। जैसे कि ये मेरा शरीर है। तथा कर्मोदयसे प्राप्त हुए उन पदार्थों में जो कि परमार्थसे आत्मासे भिन्न हैं-असम्बद्ध हैं उनमें आत्मीयताके अभिनिवेशको अहंकार कहते हैं । जैसे कि मैं राजा हूं।
आत्मासे भिन्न परद्रव्यका ग्रहण करना ही बंधका कारण है और खद्रव्यमें संवृत्त रहना ही मोक्षका कारण है। जैसा कि कहा भी है कि
परद्रव्यग्रहं कुर्वन् वध्येतैवापराधवान् ।
बध्येतानपराधो न स्वद्रव्ये संवृतो यतिः ।। परद्रव्यका ग्रहण करनेवाला साधु अपराधी है अत एव वह बंधता है। किंतु जो यति स्वद्रव्यमें ही संवृत रहता है वह अपराधी नहीं है अत एव वह बंधता भी नहीं है। जिस प्रकार परद्रव्यका अपहरण करनेवाला चोर अपराधी होनेके कारण पकडा जाता है-बंधता है। किंतु जो स्वद्रव्यमें ही संतुष्ट रहनेवाला मजन है वह निरपराधी होनेके कारण बँध नहीं सकता। और भी कहा है किः
भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । तस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ।।
बध्याय
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धर्म
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HOSRESTMISSITES
जितने भी सिद्ध-संसारसे रहित हैं वे सब भेदविज्ञानके निमित्तसे ही सिद्ध हुए हैं। और जितने संसारी प्राणी हैं वे सब नियमसे इस भेदज्ञानके न रहनेके कारण ही कोंसे बंधते हैं।
धनधान्यादिक परिग्रहरूपी ग्रह जिसपर सवार है ऐसे मनुष्यके जो मिथ्यात्व हास्य वेद रति अरति शोक भय जुगुप्सा मान कोप माया लोमके निमित्तसे जिस किसी भी विषयों परतन्त्रता उत्पन्न होकर प्रवृत्त हुआ करती है उसको क्रमसे छोडनेका उपदेश देते हैं:
श्रद्धत्तेनर्थमर्थ हसनमवसरप्येत्यागम्यामपीच्छ,त्यास्तेऽरम्यपि रम्येप्यहह न रमते दौष्टकेप्यति शोकम् । यस्मात्तस्माबिभेति क्षिपति गुणवतोप्युद्धति क्रोधदम्भा,
नऽस्थानेपि प्रयुक्त ग्रसितुमपि जगदृष्टि सङ्गग्रहातः ॥ १०७ ॥ परिग्रहका अभिनिवेश-ममकार अहंकाररूप परिणाम भूतावेशके समान है। इससे पीडित या आक्रान्त हुआ मनुष्य अतत्त्वभूत पदार्थका भी श्रद्धान करने लगता है। प्रमाणसिद्ध हेय और उपादेयरूप तथाभूत वस्तु को अर्थ कहते हैं । जो छोडने योग्य निश्चित है उसको हेय और जो ग्रहण करने योग्य निश्चित है उसको उपादेय कहते हैं। परिग्रहरूपी ग्रहसे संक्लिष्ट हुआ पुरुष अर्थको अनर्थ और अनर्थको अर्थ समझकर श्रद्धान करने लगता है । तत्त्वभूत पदार्थमें भी अतत्त्वभूतकी तरह रुचि नहीं करता और अतत्त्वभूतमें भी तत्वभूतकी तरह रुचि करने लगता है। जो धनधान्यादिक आत्माका हित सिद्ध करनेमें बिल्कुल भी उपयोगी नहीं हैं उनमें परिग्रहपीडित मनुष्य इतनी रुचि करने लगता है और ऐसा रत होजाता है कि जिससे वह अपने स्वामीका धनलवसे खरीदा हुआ गुलाम जैसा बनजाता है। यदि स्वामी नाचता है तो आप मी नाचता है और यदि स्वामी भागता है तो आप भी उसके साथ परिकर लेकर और पसीनामें सराबोर होकर खूब भागने लगता है । यदि स्वामी किसी निर्दोष गुणी पुरुषकी निन्दा करता है तो आप भी निंदा करता है । स्वामी हसता है तो आप भी ह
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अध्याय
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सता है। स्वामी रोता है तो आप भी रोने लगता है और डकराता है तो आप भी डकराने लगता है। मतलब यह कि धनको आत्महित समझकर उसके प्राप्त करनेकी तीव्र लालसासे परिग्रहसंज्ञामें रत हुआ प्राणी धनपतिकी स्वच्छन्दताका भी अनुवतेन करनेमें रत होजाया करता है।
यह मिथ्यात्वका-अतत्त्वभूत पदार्थमें तत्त्वभूतकी तरह रुचि करनेका एकमात्र निदर्शन है। इसी प्रकार और भी समझने चाहिये, तथा हास्यादिक शेष अन्तरङ्ग परिग्रहों के भी उदाहरणोंको स्वयं समझलेना चाहिये। अत एव हात्यादिक परिग्रहोंके कार्यमात्रको ही यहांपर दिखाते हैं:--
हास्य कषायसे पीडित हुआ मनुष्य अवसरकी तो बात ही क्या, विना अवसरके भी हसने लगता है, पुरुषवेदसे पीडित होकर सर्वथा अगम्य-गुरुपत्नी राजपत्नी मित्रपत्नी आदिकसे भी गमन करने लगता है। यदि तू मेरे साथ संभोग करे तो मैं तुझको अमुक वस्तु दं, इस प्रकार लोभ दिये जानेपर उनका अभीष्ट सिद्ध करनेमें भी प्रवृत्त होजाता है। इसी प्रकार स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके विषयमें भी समझलेना चाहिये । रतिकषायसे पीडित मनुष्य मिल्लपल्ली आदि अमनोज्ञ स्थान या पदार्थ में भी प्रेम करने लगता है । और अरति कषायका उदय होनेपर राजधानी आदि रमणीय स्थान भी मनुष्यको रुचिकर नहीं होते । शोक नोकषायके उदयसे आक्रान्त होनेपर मनुष्य अहा, खेद है कि ऐसे विषयों या पदार्थों में भी शोक करने लगता है जिनमें कि केवल देव ही प्रमाण है-जो केवल कर्मके उदयसे ही होजाया करते हैं। भयका उदय होनेपर चाहे जिस पदार्थ से मनुष्य डरने लगता है, चाहे वह भयका कारण १-गला फाडकर चिल्लाना।
२-हसति हसति स्वामिन्युचै रुदत्यतिरोदिति,
गुणसमुदितं दोषापेतं प्रणिन्दति निन्दति । कृतपरिकर स्वेदोगारि प्रधावति, धावति, धनलवपरिक्रीतं यन्त्रं प्रनृत्यति नृत्यति ।।
अध्याय
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हो चाहे न हो। जुगुप्साका उदय होनेपर दोषसहितकी तो बात ही क्या गुणविशिष्ट पुरुषसे भी जीव ग्लानि करने लगता है। इसी प्रकार मान क्रोध और माषाका उदय होनेपर मनुष्य अस्थान-गुरु आदिके विषयमें भी स्तब्धता क्रूरता और प्रतारणाका प्रयोग करने लगता है । लोभके उदयकी तो बात ही कहांतक कहें। इसके निमित्तसे तो जीव समस्त जगतको अपने पेटमें ही रखलेना चाहता है ।
अनगार
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इस प्रकार ये अन्तरङ्ग भावरूप चौदह परिग्रह हैं जिनका कि साधुओंको त्याग करना चाहिये । चेतन और अचेतन इस तरह दो प्रकारकी दुस्त्याज्यताका सामान्यरूपसे निरूपण करते हैं: -
प्राग्देहस्वग्रहात्मीकृतनियतिपरीपाकसंपादितैत,देहद्वारेण दारप्रभृतिभिरिमकैश्चामुकैश्चालयायैः । लोकः केनापि बाबैरपि दृढमबहिस्तेन बन्धेन बद्धो
दुःखार्तश्छेत्तुमिच्छन् निबिडयतितरां यं विषादाम्बुवषैः ॥ १०८ ॥ शरीरमें आत्मत्व या आत्मीयताका अभिनिवेश या निश्चय करनेसे जो पूर्व जन्ममें नामकर्मका संचय अथवा बंध हुआ था उसके उदयसे वर्तमान भवमें जो शरीर प्राप्त हुआ है उसके द्वारा, आश्चर्य है कि बाह्य-आत्मासे असम्बद्ध भी इन कुत्सित प्रतीयमान स्त्रीप्रभृति और इसी प्रकार-दुःखकर ही अनुभवमें आनेवाले उन गृहादिक परिग्रहोंने इस संसारी बहिरात्मा प्राणीको किसी अलौकिक ऐसे बन्धनसे अन्तरङ्गमें दृढतासे बांध लिया है जिसका कि इन्ही परिग्रहोंके द्वारा प्राप्त होनेवाले दुःखोंसे पीडित होनेपर छेदन करने की इच्छा रखते हुए भी वह प्राणी उसका छेदन नहीं करता बल्कि विषादरूपी जलका सिञ्चन कर उस बंधनको और भी अधिक दृढ बनालेता है।
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भावार्थ-जीव जैसा विचार करता है वैसा ही उसको फल भी मिलता है। क्योंकि परिणामोंके अनुरूप ही कर्मोंका संचय और उनका फल हुआ करता है। जैसा कि कहा भी है कि:
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अविद्वान् पुदलद्रव्यं योमिनन्दति तस्य तत् । 'न जातु जन्तोः सामीप्यं चतुर्गतिषु मुश्चति ॥
जो अविवेकी पुद्गलद्रव्यकी प्रशंसा करता है और उसको प्राप्त करना चाहता है उस प्राणीका वह चारो गतियोंमें कदाचित् भी साथ नहीं छोडता। क्योंकि जीव जिन पुद्गलोंको आत्मा या आत्मीय समझकर उनमें अभिनिवेश किया करता है वे ही उसके दीर्घ संसारके कारण हुआ करते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
चिरं सुषुप्तास्तमसि मूढात्मानः कुयोनिषु ।
अनात्मीयात्मभूतेषु ममाहमिति जापति ॥ जिनके हृदयमें आत्मासे असम्बद्ध पदार्थोंमें ममकार और आत्मसम्बद्ध पदार्थोंमें अहंकाररूपी निदिड अंधकार जाग्रत होजाता है या रहता है वे मूढात्मा कुयोनियों में चिरकालके लिये अच्छी तरह सोजाते हैं-निमय होजाते हैं। इसी प्रकार पूर्वमवमें शरीरमें आत्मत्वका अध्यवसाय करके जीवने जिस पुद्गलविपाकी नामकर्मका उपार्जन किया था उसीके उदयसे वर्तमानमें जो शरीर प्राप्त हुआ उसीके द्वारा स्त्रीपुत्रादिक कुटुम्बी जन तथा गृहादिरूपी बाह्य परिग्रहोंने उस बहिर्बुद्धि प्राणीको अति दृढरूपसे किसी अलौकिक बंधनद्वारा बांधलिया है। क्योंकि शरीरके द्वारा अथवा उसके निमित्तसे ही समस्त बन्ध और तज्जनित दुःख हुआ करते हैं । यह आश्चर्यकी बात है कि आत्मासे अत्यंत भिन्न रहनेपर भी इन परिग्रहोंने भीतरसे आत्माको बांधलिया है । जिसने जीवको अपने साथ गाढरूपसे नियंत्रित कर रक्खा है वह बंधन भी ऐसा अलौकिक है कि जिसको काटने की इच्छा रखते हुए भी वह प्राणी उल्टा उसको दृढ बना देता है । जिस प्रकार लोकमें रस्सी आदिक बंधन पानीके निमित्तसे अधिक
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धर्म
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मजबूत होजाता है उसी प्रकार विषादरूपी जलका सिञ्चन होजानेसे-छींटा लगजानेसे अलौकिक बंधन भी दृढ होजाता है । क्योंकि देखते हैं कि अज्ञानी जन जब स्त्री आदिके निमित्तसे उपस्थित होनेवाले दुःखोंसे पीडित होते हैं तब वे उनको कदाचित् छोडना चाहते हैं किंतु उनके विरहसे उन्हे ऐसा विषाद होता है कि जिसके निमित्तसे वे और भी अधिक तीव्र असाता वेदनीय कर्मका बंध करलेते हैं जो कि अधिक दुःखका ही कारण होता है । अत एव ममकार या अहंकाररूप परिग्रहका बंधन ही जीवोंके लिये दुःखका मूल है। ऐसा समझकर अन्तरङ्ग परिग्रहोंकी तरह बाघ परिग्रहोंका भी त्याग ही करना चाहिये ।
बाद्य परिग्रह चेतन और अचेतन इस तरह दो प्रकारका जो बताया है उसमें चतन परिग्रहको पृथक विभक्त करके सोलह पद्यों में उसके दोष बताना चाहते हैं। किंतु उसमें भी पहले पांच पद्योंमें स्त्री परिग्रहके दोषोंका वर्णन करते हैं। क्योंकि अत्यंत गाढ रागका निमित्त स्त्री ही होती है
वपुस्तादात्म्येक्षामुखरतिसुखोत्क: स्त्रियमरं, पगमप्यारोप्य श्रुतिवचनयुक्तयात्मनि जडः। तदुच्छ्रासोच्छ्रासी तदसुखसुखासौख्यसुखभाक्,
कृतम्रो मात्रादीनथ परिभवत्याः परधिया ॥ १.९ ॥ बहिरात्मबुद्धि मूढ प्राणी शरीरके साथ अपनी आत्माका तादात्म्य समझता है । अतएव वह शरीर और आत्मा दोनोंको एक रूपमें ही देखता है । वह समझता है कि मेरा आत्मा ही शरीर है और शरीर ही आत्मा है, दानो भिन्न वस्तु नहीं हैं। इस विपरीताभिनिवेशरूप शरीर और आत्मामें होनेवाले एकत्व प्रत्ययके द्वारा ही यह अज्ञानी जीव रति मैथुन कमसे उत्पन्न होनेवाले सुख में सदा उत्सुक रहा करता है । यही कारण है कि वह आत्माकी तो बात ही क्या, शरीरसे भी सर्वथा भिन्न-अत्यंत अर्थान्तररूप स्त्रोका श्रुतिवचन-वेदवाक्योंकी
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अध्याय
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युक्तिसे अपनी आत्मामें आरोपण कर एकताका प्रत्यय करलेता है । क्योंकि ब्राह्मण लोग वैदिक मन्त्रोंके द्वारा विवाहसमयमें स्त्री और पुरुषके एकत्वका समर्थन किया करते हैं। इस योजनाके अनुसार ही मिथ्यादृष्टि लोग अपने में ही खीका संकल्प करके उसमें इतने अत्यंत आसक्त होजाते हैं कि उसके उच्छ्रासके साथ ही उच्चा लेने और उसके दुःखमें दुःख और सुख में सुखका ही अनुभव किया करते हैं । स्त्रीका उच्छ्वास बंद हो जानेपर -- उसके मरजानेपर आप भी मर जाते और उसके ऊपर विपत्तियां संक्लेश उपस्थित होनेपर अपनेको विपन्न या संक्लिष्ट समझने लगते तथा सुख और शांतिसे युक्त देखकर अपनेको सुखी मानने लगते हैं । हाय ! इस मिथ्या प्रत्यय के कारण यहांतक होता है कि वह मूढ स्त्रीको ही अपना सर्वस्व समझकर दूसरोंकी तो बा ही क्या, अपने मातापिता प्रभृति अत्यंत निकटवर्ती बंधुओं तथा गुरुजनोमें भी परबुद्धि करके उनको अ पना विपक्षी समझकर और उनके प्रति कृतन होकर – “ इनने मेरा किया क्या है ? कुछ नहीं, मैं तो स्वयं अपने पुण्यबलसे ऐसा होगया हूं " यह समझ उनके किये हुए उपकारोंका भी अपलाप करके उनका तिरस्कार करदेता है । भावार्थ - - बाह्य चेतन परिग्रहोंमें एक स्त्री ही ऐसा परिग्रह है कि जिससे आत्मामें इतना तीव्र राग उत्पन्न होजाता है कि जिसके निमित्तसे उसमें कृतघ्नता जैसा महादोष भी आजाता है ।
इस प्रकार स्त्रीपरिग्रह में आसक्ति रखनेवाले पुरुषमें माता पिता आदिके तिरस्कारद्वारा उत्पन्न होनेवाले कृतघ्नता दोषको दिखाकर यह बताते हैं कि यह जीव उसके मरणका भी अनुगमन कर दुरन्त दुर्गतियोंके दुःखका भोग किया करता है । यह बात वचनभङ्गीके द्वारा प्रकट करते हैं: -
चिराय साधारणजन्मदुःखं पश्यन्परं दुःसहमात्मनाग्रे ।
पृथग्जनः कर्तुमिवेह योग्यां मृत्यानुगच्छत्यपि जीवितेशाम् ॥ ११० ॥ स्त्री अत्यंत अनुराग रखनेवाला यह बहिरात्मा प्राणी यह देखकर कि अनन्तर जन्ममें मुझको चिरकाल
金魚鬆鬆鬆粉粥 鬆鬆酵粉絲雞
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बनगार
SSIS
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तक साधारण --निगोदपर्यायमें जन्मजनित अत्यंत उत्कृष्ट और ऐसे दुःख सहने पडेंगे जो कि दुःसह है-सहे नहीं जा सकते । अत एव मानों उनको सहनेका अभ्यास करनेके लिये ही वह अपनी प्राणाधिक प्रिया-वल्लभाके मरणका भी अनुवर्तन करता है- उसके मरनेपर आप भी प्राणपरित्याग करदेता है ।
भावार्थ--कितने ही रागी पुरुष स्त्रीके मरते ही उसके वियोगजनित दुःखको सह न सकनेके कारण अपने भी प्राण छोडदेते हैं। ऐसे जीव मरकर उस निगोद पर्यायको प्राप्त करते हैं जहांपर कि दूसरे साधारण दुःखोंकी तो बात ही क्या, जन्म मरण सम्बन्धी दुःसह दुःख चिरकालतक सहने पडते हैं ।
निगोदिया जीयोंका लक्षण पहले बताया जा चुका है कि इस पर्यायमें भी जीवोंकी सब क्रियाएं साधारण-समान ही होती हैं । जब एक शरीरमें एक जीव जन्म ग्रहण करता है तब उसी शरीरमें उसी समय अनन्तानन्त जीव और भी जन्म ग्रहण करते हैं । इसी प्रकार जब उनमें से एक जीव आहार ग्रहण करता है तो बाकीके सब जीव आहार ग्रहण करते हैं और श्वासोच्छ्रास लेता है तो सब श्वासोच्छास लेते तथा एक मरता है तो सब मरजाते हैं। इसी साधारण निगोदपर्यायके दुखोंको सहनेका स्त्रीपरिग्रही कामी पुरुष अपनी प्रेयसीके मरणका अनुकरण करके मानों अभ्यास करता है। इस प्रकार उत्प्रेक्षा अलंकारके द्वारा स्त्रीपरिग्रहका फल दुर्गतियोंके दुरन्त दुःखोंका भोग करना ही बताया है।
संभोग और विप्रलम्भ शृङ्गारके द्वारा स्त्रियां मनुष्योंके पुरुषार्थको नष्ट करदेती हैं। अत एव उनकी इस शक्तिपर उपालम्भ प्रकट करते हैं:--
अध्याय
१-" साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहणं च ।
साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं भणियं ॥ जत्थेक्क मरदि जीवो तत्थ हु मरणं हवे अणवाणं । चंकमह नत्थ एको चंकमणं तत्थणताणं॥"
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बनगार
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प्रक्षोभ्यालोकमात्रादपि रुजति नरं यानुरज्यानुवृत्त्या, प्राणैः स्वार्थापकर्ष कृशयति बहुशस्तन्वती विप्रलम्भम् । . क्षेपावज्ञाशुगिच्छाविहतिविलपनाद्युग्रमन्तदुनोति,
प्राज्यागन्त्वामिषादामिषमपि कुरुते सापि भार्याऽह हार्या ॥ १११ ॥ स्त्रियां केवल अपने खरूपको दिखा करके ही मनुष्योंको क्षुब्ध कर-उनके हृदयको अच्छी तरह चंचल बनाकर संतप्त-पीडित किया करती हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि पूर्वानुरागके द्वारा स्त्रियां पुरुषोंको प्रचुर दुःखका कारण ही होता है। क्योंकि पूर्वानुरागका स्वरूप ही ऐसा है । कहा है किः--
स्त्रीपुंसयोनवालोकादेवोल्लसितरागयोः ।
ज्ञेयः पूर्वानुरागोयमपूर्णस्पृहयोदृशोः ।। जहांपर स्त्री और पुरुषका परस्परमें नवीन दर्शन होते ही दोनोंके हृदयमें रागका उद्रेक हो जाता है और दोनों ही की परस्परमें देखनेकी स्पृहा पूर्ण नहीं हो पाती-अपूर्ण ही रह जाती है वहांपर पूर्वानुराग समझा जाता है। यह विप्रलम्भ शृङ्गारका ही एक भेद है । यथा
पूर्वानुरागमानात्मप्रवासकरुणात्मकः ।
विप्रलम्भश्चतुर्धा स्यात् पूर्वपूर्वो ह्ययं गुरुः ॥ विप्रलम्भ शृङ्गार चार प्रकारका है-पूर्वानुराग, मान, प्रवास, और करुणा । इनमें पहला पहला भेद अधिक अधिक तीव्र है। करुणासे प्रवासमें, प्रवाससे मानमें, और मानसे पूर्वानुरागमें रागकी सीव्रता अधिक रहा करती है।
अतएव स्पष्ट है कि पहले तो पूर्वानुरागके द्वारा ही पत्नी पुरुषको क्लेश उपस्थित करती है । और पीछे
यध्याय
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बनगार
धम.
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पतिकी इच्छानुसार चलकर उसको अपने ऊपर इस तरहसे अनुरक्त करके कि जिससे उसके स्वार्थका अपकर्षण हो जाय-वह धर्मादिक पुरुषार्थोंसे च्युत हो जाय, बल इन्द्रिय आयु तथा उच्छासरूप प्राणोंसे भी उसको कुश बना देती है-उसको सुख नहीं देती, सुखा देती है। इससे यह बात भी मालुम हो जाती है कि संभोग शृङ्गारके द्वारा भी स्त्रियां पुरुषोंके हितमें बाधक ही होती हैं। क्योंकि देखते हैं कि कामी पुरुषोंसे कामिनियां एकान्तमें उनकी इच्छानुसार व्यवहार कर यथेष्ट चेष्टा कराया करती हैं। यथा
यद्यदेव रुरुचे रुचितेभ्यः सुभ्रुवो रहसि तत्तदकुर्वन् ।
आनुकूलिकतया हि नराणामाक्षिपन्ति हृयानि रमण्यः ।। प्रिय पतियोंको जो जो विषय रुचिकर मालुम पडा सुन्दरियोंने वही वही एकान्तमें पूरा किया । क्योंकि अनुकूल व्यवहार करके रमणियां नियमसे पतियोंके हृदयोंपर आधिकार करलिया करती हैं।
इसी प्रकार जो स्त्रियां धिक्कार अनादर शोक इच्छाविघात विलाप और उत्कण्ठा प्रभृति भावोंसे उग्रअसह्य विप्रलम्भ-प्रणयभङ्ग या ईयादिकसे उत्पन्न होनेवाले मान अथवा प्रवासरूप शृङ्गारको वढाकर अच्छी तरहसे मनुष्यों के हृदयको पीडित किया करती हैं। तथा शत्रुप्रहारादिक प्रचुर आगन्तुक दुःखरूपी मांसभक्षक राक्षसोंका विषय या ग्रास बनादेती हैं । यह कितने आश्चर्य और खेदकी बात है कि कामी पुरुष फिर भी उन भार्याओंको आर्या कहते हैं अथवा उनको हार्या-अनुरञ्जनीया समझते हैं। जैसा कि कहा भी है कि
वघ्याय
वाग्मी सामप्रवणश्चाटुभिराराधयन्नरो नारीम् । तत्कामिनां महीयो यस्माच्छृङ्गारसर्वस्वम् ॥
वचनकुशल और सान्त्वनामें प्रवीण पुरुषको चाटुकार-खुशामदसे भरे हुए शब्दोंके द्वारा स्त्रियोंका आराधन करना चाहिये । क्योंकि कामियोंके लिये शृङ्गारका सर्वस्व यह आराधन ही महनीय या सेव्य विषय है।
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अनगार
भावार्थ-हाय, यह कितने दुःख और आश्चर्यकी बात है कि जो, पूर्वानुराग, संभोग और विप्रलम्भ तीनो ही प्रकारसे मनुष्यको क्रमसे संतप्त कृश और अन्तरङ्गमें पीडित किया करती है उसको मनुष्य उल्टा हायो और आर्या समझता है। इसके संयोगसे मनुष्य आयु बल इन्द्रिय आदिकसे रिक्त होजाता है और वियोग होनेपर अन्तरङ्गमें पीडित हो विलापादिक करने लगता है। यह बात शास्त्र और लोक दोनो ही में प्रसिद्ध है। यथा
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स्निग्धाः श्यामलकान्तिलिप्तवियतो वेल्लद्वलाका घना, वाताः शीकरिणः पयोदसुहृदामानन्दकेकाः कलाः काम सन्तु दृढं कठोरहृदयो गमोस्मि सर्व सहे,
वैदेही तु कथं भविष्यति हहा हा देवि धीग भव ।। इधर आकाशमें स्निग्ध मेघ छाये हुए हैं जिनमें कि बगुलोंकी पङ्क्ति उडरही है और उनकी शामल कान्तिसे आकाश आच्छन्न हो रहा है, और इधर जिसमें छोटे छोटे जलकण मिले हुए हैं ऐसी वायु वह रही है और मयूरोंकी आनन्दध्वनि हो रही है। ये सब कलाए यथेष्ट-अच्छी तरहसे हों-मुझे इनकी कुछ भी परवाह नहीं है। क्योंकि मेरा हृदय अत्यंत कठोर है, मैं रामचन्द्र हूं, सब कुछ सह सकता हूं। किंतु हाय हाय इस समय वैदेी किस तरहसे होगी। हा देवि ! धीर रहना धैर्यसे काम लेना।
और भी कहा है किःहारो नागेपितः कण्ठे स्पर्शविच्छेदभीरुणा ।
इदानीमन्तरे जाताः पर्वताः सरितो द्रुमाः ।। परस्परके आलिङ्गनमें कहीं जरा भी अन्तर न पडजाय इस लिये मैंने गलेमें हार तक नहीं पहराया था पर अब हम दोनोंके बीचमें हाय, कितने पर्वत नदी और वृक्षतक पडे हुए हैं।
सब कुछ सह सकता इनकी कुछ भी परवाह
। देवि ! धीर रहना
ध्याय
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इसी प्रकार आक्षेप अवज्ञा शोक और उत्कण्ठा आदिक भावोंके भी उदाहरण तत्तत महाकवियोंके ग्रन्थों में मिलते हैं। जिससे यह बात स्पष्ट होती है कि पत्नीका संयोग और वियोग दोनो ही दुःखजनक हैं। एवं च जो पत्नी हर तरहसे मनुष्यका अहित ही करती है, आश्चर्य हे कि, कामी पुरुष उसको आर्या किस तरह समझते हैं। क्योंकि गुणोंसे पूर्ण रहनेके कारण जिसका आश्रय लिया जाय उसको आर्या कहते हैं।
शृङ्गारके पूर्वानुरागादिक जो भेद बताये हैं उनके द्वारा स्त्रियां पुरुषोंको किस प्रकार पीडित किया करती हैं यह बात दृष्टान्तद्वारा क्रमसे स्पष्ट करते हैं:
स्वासङ्गेन सुलोचना जयमऽघाम्भोधौ तथाऽवर्तयत, खं श्रीमत्यऽनु वज्रजङ्कमऽनयद्भोगालसं दुर्मृतिम् । मानासद् ग्रहविप्रयोगसमरानाचारशङ्कादिभिः,
सीता राममतापयत्व न पति हा साऽऽपदि द्रौपदि ॥ ११२॥ अकम्पन राजाकी पुत्री सुलोचनाने जयकुमार-मेघेश्वरको अपने रूपपर आसक्त करके पाप-दुःखोत्पादक व्यसनरूपी समुद्रके भवरमें ऐसा पटका जिससे कि उसको अर्ककीर्तिके साथ महान् युद्ध में प्रवृत्त होना पड़ा। यह बात महापुराणमें अच्छी तरह बताई गई है। यह इस बातका उदाहरण है कि स्त्रियां पूर्वानुरागरूपी विप्रलम्म शृङ्गारके द्वारा किस प्रकार पुरुषोंको दुःखकी उत्पादक हुआ करती हैं। वज्रदन्त चक्रवर्तीकी पुत्री श्री. मतीने अपने साथ साथ अपने पति वज्रजङ्घको भी भागों में अलस बनाकर-विषयसेवनकी आसक्तिसे अशक्त कर बहुत बुरी मृत्युको पहुंचाया । जिस प्रासादमें दोनो ही विषयसेवनमें आसक्त होकर पडे थे उसमें केशोंको सुगन्धित करनेवाली धूपका धुआं भरजानेसे दोनोंका ही कण्ठ लखगया और वे बुरी तरह मृत्युको प्राप्त हुए। यह कथा भी महापुराणमें स्पष्टतया लिखी है। यह इस बातका उदाहरण है कि संभोगसुखके द्वारा भी स्त्रियां
अध्याय
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अनगार
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किस प्रकार पुरुषोंको दुःखकी उत्पादक हुआ करती हैं । सीताने रामचंद्र को भी कुछ कम दुःख नहीं दिया था। पहले तो प्रणयमङ्गजनित मानशृंगारके द्वारा और फिर युद्ध में प्रवृत्त लक्ष्मणकी पराजयका निवारण करनेकेलिये जो उसके पास जानेका रामचन्द्रजीसे उसने असद्ग्रह-दुरभिनिवेश किया उससे क्या रामचन्द्रको कुछ कम दु:ख हुआ। तथा रावणद्वारा हरण होजानेपर जो वियोगजनित दुःख हुआ और उसकी प्राप्तिकलिये रावणसे युद्ध करनेमें जो क्लेश उठाना पडा तथा लङ्केश्वरक साथ उपभोगकी संभावनासे जो मानसिक पीडा हुई वह क्या कुछ कम थी । अनाचारकी शंकासे अग्निपरीक्षा करनेपर जब सीताकी दिव्य शुद्धि की प्रसिद्धि होगई तब जो रामचंद्रजीका अपमान हुआ उससे क्या उन्हे कुछ कम दुःख हुआ। अंतमें जब रामचंद्रजी तपस्या कर रहे थे उस समय भी सीताके जीवने आकर उनके ऊपर घोर उपसर्ग किये ही थे । अत एव सीताने भी मान असद्ग्रह विरह संग्राम और अनाचारकी शंका तथा अपमान और उपसर्गादिक करके रामचन्द्रजीको कम संतप्त नहीं किया था । इनकी कथा रामायणमें प्रसिद्ध है। यह उदाहरण मान और प्रवासरूप विप्रलम्भ शृङ्गारके द्वारा स्त्रियां पुरुषोंको किस प्रकार दुःखकी उत्पादक हुआ करती हैं इस बातको प्रकाशित करता है । हाय, पञ्चाल राजाकी पुत्री द्रौपदीने तो जपने प्रिय पति अर्जुनको कौन कौनसी आपत्ति नहीं पटका था । उसे तो स्वयम्बरके समयमें ही हुए युद्धसे लेकर प्रायः सभी विपत्तियोंमें पडना पडा था। जिसकी कि कथा महाभारतमें प्रसिद्ध है। इस दृष्टांतसे पूर्वानुराग और प्रवासरूप विप्रलम्भद्वारा स्त्रियोंकी दुःखोत्पादकता स्पष्ट होती है।
भावार्थ--लौकिक अनुभव और शास्त्रीय उदाहरणोंसे यही बात सिद्ध होती है कि स्त्रीरूप चेतन परिग्रह रागी पुरुषोंको दुःखका ही कारण है।
स्त्रियोंकी रक्षा करना दुःशक्य है, उनके शीलभङ्ग हो जानेपर बडा भारी परिताप प्राप्त हुआ करता है। एवं वे सद्गुरुओंकी संगति करनेमें अन्तरायका कारण और परलोकके लिये उद्योग करनेमें प्रतिवन्धक हुआ
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करती हैं। इस बातका निरूपण कर यह बात व्यक्त करते हैं कि इस तरहकी वल्लभाओंका जबाओंको पाले से ही परिग्रहण न करना चाहिये।
तैरश्चोपि वधू प्रदूषयति पुंयोगस्तथेति प्रिया,सामीप्याय तुजेप्यऽसूयति सदा तद्विप्लवे दूयते । तद्विप्रीतिभयान्न जातु सजति ज्यायोभिरिच्छन्नपि,
त्यक्तुं सद्म कुतोपि जीर्यतितगं तत्रैव तद्यन्त्रितः ॥११३ ॥ औरोंकी तो बात ही क्या कहें। अपने खास पुत्रसे भी लोक, यदि वह उनकी प्रिया-वल्लभोक निकट रहा करता हो तो असूया करने लगते हैं। वह चाहे जितना भी गुणी क्यों न हो अपनी प्रेयसीके निकट सहवास करनेके कारण उससे रुष्ट हो लोक ईर्ष्यासे उसके गुणोंमें भी दोषोंका आरोपण किया करते हैं । और यह बात ठोक भी है; क्योंकि देखते हैं कि मनुष्योंकी तो बात ही क्या, तिर्यच पुरुषोंका भी संयोम में धुओंको अच्छी तरह दृषित कर दिया करता है। जैसा कि प्रमंजन चरितादिक शास्त्रोंमें प्रसिद्ध है। प्रभ जन चरित्रमें उस रानीकी कथा विदित है जो कि बन्दसर आसक्त हो गई थी। इसी प्रकार लोकोंके हृदयमें अपनी प्रियतमाका शीलभंग देखलेनेपर अथवा सुनलेनेपर सदा ही परिताप बना रहा करता है। वे नित्य ही उससे कुढते रहते हैं। तथा स्त्रीके निमित्तसे ही लोक इस भयसे कि कहीं प्रियाके प्रेमका भंग न हो जाय धर्माचार्यादिक गुरुजनोंकी भी संगतिमें नहीं रह सकता । वह सत्संगतिके फलसे वञ्चित रहता है । और किसी पुत्रवियोगादिक अगाढ कारणको पाकर घरका परित्याग करदेनेकी इच्छा करते हुए भी वह अपनी प्रियारूपी शृंखलासे जकडा रहनेके कारण उसको छोड नहीं सकता और घरमें पड़ा हुआ ही जरासे जर्जरित हो जाया करता है। इन सब बातोंको देख सुनकर विदग्ध पुरुष स्वयं ही ऐसा तात्पर्य समझ सकते हैं कि मुमुक्षुओंको पहलेसे ही स्वीका परिग्रहण न करना चाहिये । जसा कि कहा भी है कि
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अनगार
प्रागेव शक्तोऽशक्तोऽन्त्ये त्यक्त्वा राज्यं विपन्मयम् ।
धीरः समाधिना मृत्त्वा भवाम्भोधेः समुद्धरेत् ॥ मनुष्य पहली अवस्थामें शक्त और अन्त्यकी अवस्थामें अशक्त रहा करते हैं। अत एव धीर पुरुषोंको पहली अवस्थामें ही विपत्तियोंसे भरे हुए राज्यको छोड देना चाहिये और अन्तमें समाधिपूर्वक मरण. कर संसारसमुद्रसे पार हो जाना चाहिये। __इस प्रकार स्त्री परिग्रहके रागसे अन्धे हुए पुरुषों के दूषणोंको प्रकट कर अब पुत्रमोहसे अन्धे हुओंके दोष बताते हैं:
यः पत्नी गर्भभावात्प्रभृति विगुणयन् न्यक्करोति त्रिवर्ग, प्रायो वः प्रतापं तरणिमानि हिनस्त्याददानो धनं यः। मूर्खः पापो विपद्वानुपकृतिकृपणो वा भवन् यश्च शल्य,
त्यात्मा वै पुत्रनामास्ययमिति पशुभिर्युज्यते स्वेन सोपि ॥ १४ ॥ जीव जब पिताके वीर्य और माताके रजको ग्रहण करलेता है तब उसको गर्भ कहते हैं । यथाः
शुद्ध शुक्रात वे सत्त्वः स्वकमकुशचोदितः ।
गर्भः संपद्यते युक्तिवशादग्निरिधारणा ।। ___ अपने उपार्जित कर्मके उदयसे प्रेरित हुआ जीव जब शुद्ध रजवार्यके पिंडमें आकर उपस्थित होता है तब । उसको गर्भ कहते हैं। जिस प्रकार भस्मसे आच्छन्न अङ्गारमें अग्नि छिपी रहती है। इस स्वरूपके होबाने अथवा प्राप्त करलनेको ही गर्मभाव कहते हैं । इस गर्मभावसे लेकर-जबसे जीव माताके उदरस्थ रजनीक निको ग्रहण कर
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अनगार
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गर्भस्वरूपको प्राप्त करता है तभीसे वह भार्या--पिताकी पत्नी और अपनी जनन के शुभ शुभगता सौन्दर्य सौष्ठव आदि गुणोंका अपहरण करता हुआ पिताके अथवा मातापिता दोनोंके ही त्रिवर्गका-धर्म अर्थ काम इन तीन पुरुषार्थोंका भी न्हास करदेता है । और प्रायः यौवन अवस्था प्राप्त करले नेपर पिताके ग्राम सुवर्णादिक धनको छीन कर या लेकर प्रतापको भी नष्ट करदेता है--उसे निस्तेज बना देता है। कहा है किः -
जाओ हरइ कलत्तं वद्दतो वड्डमा हरइ ।
अत्थं हरइ समत्थो पुत्तसमो वेरिओ णस्थि ।। . गर्भमें आते ही स्त्रीका, बढनेपर वृद्धिका और समर्थ होनेपर धनका अपहरण करनेवाले पुत्री बराबर वैरी कौन हो सकता है।
इसी प्रकार यदि वह मूर्ख-अज्ञानी हो, अथवा पापी-ब्रह्महत्या परदाराभिगमन सरीखे पातकोंमें प्रवृत्त हो, यद्वा व्याधि काराग्रह आदि विपत्तियोंमें फस गया हो, अथवा मूर्खता या असामर्थ्यके कारण उपकार करनेमें कृपणता करता हो-अनुपकारी हो तो वह शरीरमें कांटेकी तरह हृदयके भीतर चुभा करता है। इस प्रकार जो पुत्र गर्भसे लेकर बडे होनेतक दुःखोंका देनेवाला और नाना प्रकारसे अपकार करनेवाला है उसकी भी मृढ .-गृहस्थाश्रमके वास्तविक व्यवहारसे अनभिज्ञ पुरुप अपने साथ योजना-अपनी आत्माके साथ एकत्त्वकी कल्पना करते हैं। कहते हैं कि--यह-मेरे सामने उपस्थित तू , मैं ही हूं-हे पुत्र ! तुझमें और मेरी आत्मामें कुछ भेद नहीं है । पुत्र इस नामकी अपेक्षासे ही तू साक्षात् मुझसे भिन्न है, स्वरूपसे नहीं । जातकर्ममें कहा है कि:
अङ्गदङ्गात्प्रभवसि हृदयादपि जायसे ।
आत्मा वै पुत्रनामासि संजीव शरदः शतम् ।। हे पुत्र ! तू मेरे अङ्ग अङ्गसे उत्पन्न हुआ है । तेरे शरीरका प्रत्येक अङ्ग मेरे उसी उसी अङ्गसे बना
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SEFERENTS
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बनमार
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बच्याय
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| तू मेरे साक्षात् हृदयसे निकला है। अत एव यह स्पष्ट है कि पुत्र इस नामके सिवाय तुझमें और मेरी आत्मामें कुछ भी अन्तर नहीं है। अत एव हे हृदयके टुकडे ! चिरंजीव ! तू सैकडों वर्ष की आयु भोग |
मनुने भी इस विषय में कहा है कि:
पतिर्भार्यां संप्रविश्य गर्भो भूत्त्वा जायते । जायायास्तद्धि जायात्वं यदस्यां जायते पुनः ॥
पति ही भार्यामें प्रवेश कर और फिर गर्भ बनकर उत्पन्न हुआ करता है। जायाका जायापन ही यह है कि उसमें पति प्रवेश कर पुन: उत्पन्न होता है । अत एव पिता और पुत्रकी आत्मामें अन्तर नहीं है ।
भावार्थ- पुत्र के साथ अपनी आत्मा के अभेदकी कल्पना वे मूढ पुरुष ही करते हैं जो कि चेतन परिग्रहों में पुत्रके मोइसे अन्धे हो रहे हैं। उन्हें उसका वास्तविक स्वरूप ही नहीं दीखता । उनकी इस बातकी तरफ दृष्टि ही नहीं जाती और वे नहीं जानते कि वह एक ऐसी परिग्रह है जो कि उत्पन्न होने के समय से लेकर ही माता पिताको पीडित करती, क्लेश देती और हितसे पराङ्मुख कर संतप्त ही किया करती है। I
नित्य
पुत्र के विषय में सांसिद्धिक- नैसर्गिक और औपाधिक इस तरह दो प्रकारकी जो भ्रान्ति लगी हुई है उनको दूर कर मुमुक्षुओं को मोक्षके मार्गमें स्थापित करते हैं - उन्हे वास्तविक पुत्र किसको समझना चाहिये सो बताते हैं:
--
यो वामस्य विधेः प्रतिष्कशतयाऽऽस्कन्दन् पितृञ्जीवतो,प्युन्मथ्नाति स तर्पयिष्यति मृतान्पिण्डप्रदाद्यैः किल ।
AAAAAAAAAA, AAA AR의 원소 계 최고가 되었다.
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बनगार
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इत्येषा जनुषान्धतार्य सहजाहाथि हार्या त्वया,
. स्फार्यात्मैव ममात्मजः सुविधिनोडर्ता सदेत्येव दृक् ॥ ११५ ॥ प्रतिकुल विधि-बाधक देव अथवा शास्त्रविरुद्ध विधान-आचरणका सहकारी बन कर जो जीवित -विद्यमान पिता पितामहादिकको कदर्थित कर-दुष्कर्मकी उदीरणा और तीव्र मोहकी उत्पत्तिसे पीडित कर शुद्ध चैतन्यरूप प्राणोंसे उन्हे वियुक्त करदेता है वह पुत्र उनके मरजानेपर उनको पिण्डदान जलतर्पण और ऋणशोधादिके द्वारा अच्छी तरह तृप्त करेगा ऐसी समझको अथवा इस आगमवाक्य या लोकोक्तिको भ्रांतिके सिवाय और क्या कहना चाहिये । हे आर्य ! साधो! इस तरहकी नैसर्गिक अथवा आहार्य-दुरुपदेशजन्य जात्यन्धताको तू छोड दे। तुझको तो यह निश्चित श्रद्धान करना चाहिये कि मेरा यह आत्मा ही मेरा वास्तविक पुत्र है । क्यों कि नित्य सम्यक्चारित्रका पालन कराकर यही संसारसमुद्रसे मेरा उद्धार करनेवाला है।
भावार्थ-बहुतसे लोगों के नैसर्गिक अथवा अज्ञानको फैलनेमें हस्तावलम्बन देनेवाले कदागमके आधापर मिले हुए दुरुपदेशके निमित्तसे ऐसी भ्रांति बैठी हुई है कि पुत्र मरकर परलोकको गये हुए पितृ पि-. तामहादिकको पिण्डदानादि कर्म करके तृप्त किया करता है। किंतु यह वास्तव में भ्रांति ही है। क्योंकि जो पुत्र, चाहे वह विनयी हो चाहे अविनयी, जीवित पितादिकको तृप्त करना तो दूर रहा उल्टा क्लेश उपस्थित किया करता है और आत्महितसे दूर ही रखता है वह उनके मरनेपर क्या उन्हे कभी तृप्त कर सकता है ? कभी नहीं। क्योंकि यदि पुत्र कदाचित विनयी हो तब तो वह अपने विषयमें मोहके ग्रहको पितादिकके ऊपर सबार कराकर उनसे परलोकके विरुद्ध आचरण कराता है। और यदि अविनयी हो तब तो वह दुःखों के देने में उन्मुख होकर पितादिकके दुष्कर्मोंकी उदीरणाका निमित्त हो ही जाता है। अतएव हे आर्य ! इस परिग्रहको भी तू दुःखकर और आत्माके लिये अहितकर ही समझ और उसके विषयमें उक्त नैसर्गिक अथवा औपाधिक भ्रांतिको छोड । तथा अपनी उस आत्माको ही अपना पुत्र समझनेकी श्रद्धाको दृढ कर जो कि
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बनगार
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सम्यक्चारित्रके द्वारा तेरा संसारसमुद्रसे उद्धार करदेनेवाला है ।
जो प्राणी पुत्रियोंके मोहसे ग्रस्त रहते हैं उनका भी स्वार्थ नष्ट हो जाता है इस बातको खेदके साथ प्रकट करते हैं
मात्रादीनामदृष्टद्रुघणहतिरिवाभाति यज्जन्मवार्ता सौरथ्यं यत्संप्रदाने क्वचिदपि न भवत्यन्वहं दुर्भगेव । या दुःशीलाइफला वा स्खलति हृदि मृते विप्लुते वा धवेऽन्त.
र्या दन्दग्धीह मुग्धा दुहितरि सुतवद् नन्ति धिक् खार्थमन्धाः ॥११॥ . जिसके जन्मकी वार्ता -यदि कोई आकर कहे कि तुमारे लडकी हुई है तो यह समाचार मातापिताको ऐसा मालुम पडता है मानो अदृष्ट मुद्गरका आघात हो-मानो इसने हमारे ऊपर अदृष्ट मुद्गरका प्रहार ही किया है । तथा जन्मके बाद उसका दान यदि वर योग्य न मिले तो माता पिताके चित्तको चैन नहीं लेने देता । समीचीन शास्त्रोक्त विधिके अनुसार, और प्रकर्षरूपसे जिसको कन्या दी जाय उसको संप्रदान कहते हैं । अत एव संप्रदान नाम वर. यिताका है। इस वरयितामें कुल शील बल विद्या धनादिक जिन जिन गुणोंकी आवश्यकता है वे यदि उचित न मिलें या तरतम रूपसे मिले तो उसका दान करते समय माता पिताके हृदयमें " हम योग्य स्थानमें अपनी कन्याको, नियुक्त कर रहे हैं" ऐसा सेतोष नहीं होता। उन्हें असंतोष या असफलताजनित क्लेश ही प्राप्त होता है जो कि जीवनपर्यन्त बना रहता है । इसके बाद, यदि कदाचित् वह कन्या दुःशीला-व्यभिचारिणी अथवा निःसंतान हो तो वह भी दुर्भगा-अनिष्ट कन्याके ही समान मातादिकके हृदय में दिनरात शल्यकी तरह खटक
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१-पूर्वसंचित दुष्कर्म अथवा दीखनेमें न आ सकनेवाला ।
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ती रहती है। क्योंकि जिस कन्याको कुरूप या कुलक्षणादिकके कारण यदि कोई ग्रहण करना नहीं चाहता तो वह जिस प्रकार दुःखका ही कारण होती है उसी प्रकार व्यभिचारिणी और निःसंतान भी कन्या मातादिकके हृदयमें व्यथा ही उत्पन्न करनेवाली होती है। उस समय तो कन्या मातादिकको हृदयमें बहुत ही बुरी तरह
और पुनः पुनः जलाया करती है जब कि उसका पति मर जाय, अथवा संन्यास लेजाय, यद्वा कहीं दूर देशको निकलकर चला जाय, अथवा ऐसा पति मिले जो कि त्रिवर्ग-धर्म अर्थ काम पुरुषार्थों का साधन करने में असमर्थ हो । इस प्रकार कन्या मी माता पिताको पुत्रके ही समान अनेक प्रकारके दुःखोंके देनेमें मूल कारण है। फिर भी जो पुरुष उस कन्यामें मुग्ध रहते हैं-- उसके ममत्वग्रहसे अन्धे हो जाते और तत्त्वस्वरूपको न देख सकनेके कारण अपने अभीष्ट प्रयोजन दुःखोच्छेदन और सुखप्राप्तिको नष्ट कर देते हैं, उन्हे धिक्कार है।
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भावार्थ-पुत्रकी तरह कन्यारूप चेतन परिग्रह भी मनुष्योंको जन्मसे लेकर जबतक जीती है तब तक क्लेश ही देती है। फिर भी लोग उसमें मुग्ध होकर आत्मकल्याणसे पराङ्मुख रहते हैं । यह उनके अज्ञानका ही माहात्म्य है।
____ माता पिता आदि जितने बन्धु बान्धव हैं वे सब आत्माका अपकार ही करनेवाले हैं । अत एव उनकी वक्रोक्तिके द्वारा निन्दा करते हुए विपक्षियोंका अभिनन्दन करते हैं। क्योंकि उनके निमित्तसे पूर्वसंचित दुष्कमकी निर्जरा ही होती है। अत एव बे आत्माके उपकारी ही हैं:
बीजं दुःखै कबीजे वपुषि भवति यस्तर्षसंतानतन्त्र,स्तस्यैवाधानरक्षाद्युपधिषु यतते तन्वती या च मायाम् । भद्रं ताभ्यां पितृभ्यां भवतु ममतया मद्यवद् घूर्णयद्भयः, स्वान्तं स्खेभ्यस्तु बद्धोञ्जलिरयमरयः पापदारा वरं मे ॥११७॥
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धर्म
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जो तृष्णासंततिके अधीन होकर-निरंतर और बढती हुई गृद्धि के वशमें पडकर जो मेरे इस दुःखोंके एक मात्र--असाधारण कारण शरीरके उत्पन्न होनेमें बीजभूत है उस पिताका कल्याण हो । और इस शरीरके ही धारण - गर्भाधान तथा पालन पोषण और वर्धनादिक उपकरणों में ही जो मिथ्या मोहजालको बढाती हुई निरंतर प्रयत्न किया करती है उस माताका भी भला हो। ऐसे पिता माताको दूर ही से नमस्कार है जो कि दुःखोंके प्रधान हेतुको उत्पन्न करनेवाले और उल्टे उसीके पालन पोषणादिकमें मोहित बनानेवाले हैं। क्योंकि समस्त दुःखोंका मूल या पिता मातासे उत्पन्न हुआ शरीर ही है, यह बात स्पष्ट है। गुणभद्र स्वामीने भी कहा है-" सर्वापदां पदमिदं जननं जनानाम्" । मनुष्यों का शरीर ही समस्त आपत्तियों का स्थान है। जिन्होंने उत्तरोत्तर अधिकाधिक तृष्णासंततिके अधीन हो मेरेलिये यह अनंत दुःखोंकी खान तयार की है और उसीके रक्षणादिककी तरफ मुझे प्रवृत्त कर आत्महितसे पराङ्मुख कर दिया है ऐसे पिता माता मुझे नहीं चाहिये । किंतु ऐसे और वैसे क्या, मैं अपने इन सभी बन्धुओंको हाथ जोडकर नमस्कार करता हूं और चाहता हूं कि मद्यके समान मोहित करनेवाले ममकारके द्वारा हिताहितके विचार--विवेकको नष्ट कर हृदयको संक्लिष्ट अथवा विघू. णित करदेनेवाले ये कोई भी बन्धुजन मुझे प्राप्त न हों। क्योंकि ये ऐसे अत्यंत दुष्ट हैं जो कि मोहित बनाकर आत्माको उसके वास्तविक हितसे वञ्चित रखते हैं। इन दुष्टोंको धिक्कार है । इनसे तो मेरे शत्रु ही भले, जिनके कि अपकारादिक करनेसे मेरा उपकार ही होता है । क्योंकि जब वे किसी प्रकारका अपकार करते या मुझको क्लेश देते हैं तो उनके उस व्यवहारसे मेरे पूर्व सश्चित दुष्कर्मोंकी उदीरणा होजाती है और फलतः आत्माका हित ही होता है। अधर्ममें प्रवृत्त करदेनेवाली दूसरोंके साथ की गई मित्रताकी निन्दा करते हैं:
अधर्मकर्मण्युपकारिणो ये प्रायो जनानां सुहृदो मतास्ते ।
स्वान्तर्बहिःसंततिकृष्णवर्त्यन्यस्त कृष्णे खलु धर्मपुत्रः ११८ अ. ध. ५५
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प्राय करके लोगोंके मित्र ऐसे ही हुआ करते हैं जो कि उनको अधर्मकर्म-पाप क्रियाओंमें ही प्रवृत करते तथा सहायक हुआ करते हैं । देखते हैं कि धर्मपुत्र-युधिष्ठिरने अपनी अन्तरङ्ग संतती-निजात्माके लिये पापकर्मकी प्राप्तिके उपायभूत और बहिःसंतति-निज कुल के िलये--कृष्णवर्मा अग्निके समान-कौरव कुलका संहार करनेवाले कृष्णके साथ प्रीति की थी।
भावार्थ---जब धर्मपुत्रकी विष्णु के साथ की गई मित्रताने अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग अहित ही किया तब दूसरे साधारण लोगोंकी मित्रताका तो कहना ही क्या है । अत एव समस्त पुरुषार्थोंके मूल कारण धर्मका जो पुत्र है उसको इस मित्रतापर कभी विश्वास न करना चाहिये। जो अपने धर्मका अनुवर्तन करना चाहते हैं उन्हे उचित है कि अन्तरङ्ग-आत्मा और बाह्य -कुलादिककेलिये कृष्णवा-पापमार्ग अथवा अग्निके समान समझकर इस लौकिक मित्रताको दहीसे छोडदें । क्योंकि यह हर प्रकारसे कृष्ण-काली ही है।
जो इस लोकमें संचयमें सहायता करनेवाले हैं वे सब मोहके ही उत्पन्न करनेवाले और बढानेवाले हैं अत एव उनकी त्याज्यता प्रकट करते हुए पारलौकिक कार्यों के साधनमें अवलम्ब देनेवाले मित्रोंका नीचली दशामें-सम्पूर्ण परिग्रहके छोडनेकी पूर्ण सामर्थ्य न होनेतक अनुसरण करनेका उपदेश देते है:--
निश्छद्म मेद्यति विपद्यपि संपदीव, यः सोपि मित्रमिह मोहयतीति हेयः । श्रेयः परत्र तु विबोधयतीति ताव
च्छक्यो न यावदसितुं सकलोपि सङ्गः ॥ ११९ ॥ संपत्ति के समय में स्नेही मित्र बन्धु बान्धव तथा सहायक बननेवाले तो बहुत हैं। किंतु उनकी यहांपर चर्चा नहीं है। क्योंकि ऐसोंको संसारमें कोई मित्र भी नहीं कहता । परन्तु जो व्यक्ति संपत्तिकी तरह विपत्तिम
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भी-अनेक प्रकारके कष्ट उपस्थित होनेपर भी निष्कपटरूपमे स्नेह करता और अवलम्ब देता है उसीको लोकमें मित्र कहते हैं । तत्त्वदृष्टि से यह भी आत्माको मोह ही उत्पन्न करता है । अत एव मुमुक्षुओंकेलिये वह भी त्याज्य ही है। फिर भी जबतक समस्त परिग्रहके छोडनेकी सामर्थ्य नहीं है तब तक उनको ऐसे सन्मित्रोंका आश्रय लेना चाहिये जो कि परलोकके विषयमें सहायता करनेवाले और आत्मा तथा शरीरके विशिष्ट भेदज्ञानको प्राप्त करानेवाले हैं।
जैसा कि कहा मी है कि:--
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सङ्गः सर्वात्मना त्याज्यो मुनिमिर्मोक्तुमिच्छुभिः । . सचेत् त्यक्तुं न शक्येत कार्यस्तात्मदर्शिभिः ॥ .
मुमुक्षु मुनियों को सङ्ग रखना सर्वथा वर्ण्य है । किन्तु जबतक वे उसको सर्वथा नहीं छोड़ सकते तबतक डन्हे आत्मदर्शियों के साथ सङ्ग रखना चाहिये । और भी कहा है कि:--
सङ्गः सर्वात्मना त्याज्यः स चेत् त्यक्तुं न शक्यते । स सद्भिः सह कर्तव्यः सन्तः सङ्गस्य भेषजम् ।।
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वस्तुतः सङ्ग सर्वथा छोडदेनेके ही योग्य है। किंतु जब तक वह छोडा नहीं जा सकता तब तक सत्पुरुषों के साथ वह करना या रखना चाहिये । कोंकि सत्पुरुष सङ्गकी औषध हैं। सङ्गतिके निमित्तसे जो दोष उत्पन्न होते हैं वे सब सत्पुरुषों के प्रसादसे दूर हो सकते हैं । अत एव वे आत्मकल्याणके सहायक हैं।
अत्यंत भक्तियुक्त भी भृत्य अकृत्य करानेमें ही अग्रेसर हो जाता है अत एव वह भी उपादेय नहीं है इस बातको दृष्टांतद्वारा बताते हैं:--
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योतिभक्ततयात्मेति कार्यिभिः कल्प्यतेङ्गवत् । सोप्यकृत्त्येग्रणीर्भृत्त्यः स्याद्रामस्यांजनेयवत् ॥ १२० ॥
जिस प्रकार बहिरात्मबुद्धि मनुष्य अत्यंत श्लिष्ट रहेनेके कारण शरीरमें मोहवश आत्मकल्पना करने लगता है, उसी प्रकार कार्य - स्वार्थमें तत्पर रहनेवाला मनुष्य अतिभक्ति- अत्यंत अनुराग रखनेके कारण जिसमें अपनी कल्पना करने लगता है यह और मैं दो नहीं हैं जो यह है सो ही मैं हूं ऐसा समझने लगता है; ऐसा भी. भृत्य अपने स्वामीसे, रामचंद्र के हनूमानकी तरहसे हिंसादि अकृत्य कराने में अग्रणी बनजाता है ।
भावार्थ - लोकमें जो स्वामीके प्रति भक्तिवश कार्यका अच्छी तरह संचालन करते हैं उन सेवकोंको लोग अपना प्रतिरूप ही समझते हैं। किंतु जब ऐसे स्वामिभक्त भी सेवक समयपर स्वामी के आत्महित के विरुद्ध दुष्कृत्य कराने में प्रधान कारण बनजाते हैं तब अभक्त सेवकोंकी तो बात ही क्या है । अत एव सेवकनामक चेतन परिग्रहको भी आत्माका अहितकर ही समझ कर मुमुक्षुओं को उसका संग्रह न करना चाहिये ।
दासी दास परिग्रहके ग्रहणसे भी मनमें संताप ही होता है यह बताते हैं:
अतिसंस्तवधृष्टत्वादनिष्ठे जाघटीति यत् । तदासीदासमृक्षीव कर्णात्ताः कस्य शान्तये ॥
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१२१ ॥
जो दासी और दास अत्यंत परिचय होजानेसे ढीठ होकर स्वामीके अनिष्ट - अनभिलषित भी कार्य के करने में पुनः पुनः प्रयत्न किया करते हैं क्या वे किसीको भी सुख या शांतिके कारण हो सकते हैं ? कभी नहीं । कानके पासतक पहुंचा हुआ भालू क्या किसीके भी अनिष्टका निवारण कर सकता है ? अतएव दासी दास परिग्रह भी अहितकर होनेके कारण त्याज्य ही है ।
ANART AT AN AAA 한다는 전
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शिष्योंका शासन करनेमें अथवा उनको शिक्षादिक देने में भी जो कभी कभी क्रोधका उद्भव हो आमा करता है उसपर ध्यान दिलाते हैं
यः शिष्यते हितं शश्वदन्तेवासी सुपुत्रवत् ।
सोप्यन्तेवासिनं कोपं छोपयत्यन्तरान्तरा ॥ १२२ ॥ जिस शिष्यको सत्पुत्रकी तरहसे गुरुजन दिनरात हित-आत्मकल्याणकी शिक्षा दिया करते हैं। देखते हैं कि वह भी कभी कभी-बीच बीचमें इस चाण्डाल क्रोधका स्पर्श करादिया करता है।
भावार्थ-कभी कभी ऐसा भी होता है कि योग्य भी शिष्य गुरु आदिका विनयादिक करनेमें प्रवृत्त नहीं हुआ करता । ऐसे समय में गुरुजनोंको भी कदाचित् क्रोधका उद्भव होजाता है । जिससे कि उनका अकल्याण ही होता है। अत एव शिष्य परिग्रह भी साधुओंकेलिये असंग्रहणीय है । जिस प्रकार उच्च व उत्तम पुरुष चाण्डालका स्पर्श नहीं किया करते और न करना चाहते हैं, उस प्रकार साधुजन भी क्रोधादिकका स्पर्श नहीं किया करते और न करना चाहते हैं। किंतु शिष्यादिकका सम्बन्ध रहनेपर उसका स्पर्श होजाया करता है। अतएव मुमुक्षुओंके लिये शिष्यपरिग्रह भी त्याज्य ही है।
चतुष्पद परिग्रहका निषेध करते हैंद्विपदैरथ सत्संगश्चेत् किं तर्हि चतुष्पदैः ।
तिक्तमप्यामसन्नाग्नेर्नायुष्यं किं पुनघृतम् ॥ १२३ ॥ जब द्विपदों-मनुष्यादिकोंके साथ किया गया भी संग-संसर्ग असत्-अप्रशस्त -अत्यंत अपायका ही
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कारण माना है या होता है तो चतुष्पदोंका तो कहना ही क्या है। इन हाथी घोडे आदिकोंका संसर्ग तो सुतरां दुःखका ही कारण होगा। दूषित और अपक्व रसके द्वारा जिसकी औदर्य अनि अभिभूत होगई है ऐसे मनुष्यको जब तिक्त द्रव्य-चिरायता नींव आदि भी आयुर्वर्धक जीवनकी स्थिरताकै कारण अथवा स्वास्थ्यकर नहीं हो सकते तो घीका तो फिर काना ही क्या है। क्योंकि तिक्त द्रव्य खभावसे ही आमला पा. चक है। जब उसीसे किसी आमपित व्यक्तिको स्वास्थ्य लाभ नहीं हो सकता तो घीसे जो कि स्निग्ध शीत होनेके कारण उल्टा आमदोषका वर्धक है पथ्यलाभ हो ही किस तरह सकता है।
भावार्थ-द्विपद परिग्रहके दोष पहले बता चुके हैं। जब दो पैरवालोंमें इतने दोष हैं तो चार पैरवालोंमें कितने होंगे सो अच्छी तरह समझमें आसकता है। अतएव द्विपदोंकी अपेक्षा चतुष्पदोंको दूना-बहुतर दुःखकर समझकर मुमुक्षुओंको दूर ही से छोड देना चाहिये। अचेतन परिग्रहकी अपेक्षा चेतन परिग्रह अधिक बाधा देनेवाला है यह बात बताते हैं
यौनमौखादिसंबन्धद्वारेणाविश्य मानसम् ।
यया परिग्रहश्चित्स्वान् मन्नाति न तथेतरः ॥ १२४ ॥ योनिकी अपेक्षा अथवा मुखादिककी अपेक्षासे होनेवाले संबन्धके द्वारा जिस प्रकार चेतन परिग्रह मनुष्यके. मनमें प्रवेश कर-उसके हृदयको अच्छी तरह आक्रांत कर पीडित किया करता है वैसा अचेतन परिग्रह नहीं करता।
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भावार्थ-सहोदर बहिन भाई आदिका जो सम्बन्ध है वह योनिकी अपेक्षासे है और शिष्य तथा साध्यायी आदिका जो सम्बन्ध है वह मुखकी अपेक्षासे है। इसी प्रकार जन्यजनक पोष्यपोषक भोज्यभोक्तृत्व
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आदि और भी अनेक सम्बन्ध हैं। चेतन परिग्रहके हृदयतक पहुंचनेका द्वार-उसमें ममत्त्वोत्पत्तिका कारण यह सम्बन्ध ही है। जब तक यह द्वार खुला हुआ है तबतक जैसा चतन परिग्रह स्वयं हृदयतक पहुंचकर उसको पीडित. कर सकता है या किया करता है वैसा अचेतन परिग्रह नहीं कर सकता । यही कारण है कि यहांपरचेतनके बाद अचेतन परिग्रहका निर्देश किया है। क्योंकि प्रायः जिस पदार्थसे जितना अधिक या निकट सम्बन्ध होगा वह पदार्थ उतना ही अधिक आत्माको पीडित करेगा और जितना दूर होगा वह उतना ही कम क्लेश उत्पन्न करेगा । जीवका जैसा चेतन परिग्रहोंके साथ साक्षात् सम्बन्ध होता है वैसा अचेतन परिग्रहके साथ नहीं। अचे तनके साथ परम्परा सम्बन्ध रहता है । अत एव चेतनकी अपेक्षा अचेतन परिग्रह कम बाय दिया करता है।
चेतन परिग्रहके दोषोंका निरूपण करके क्रमानुसार अचेतन परिग्रहके दोषों को दश पद्योंमें बताना चाहते हैं। जिसमें सबसे पहले घरके दोष दिखाते हैं। क्योंकि और चाकीके दोषोंका स्थान यह घर ही है:
पञ्चथूनाद् गृहाच्छून्यं वरं संवेगिनां वनम् । पूर्व हि लब्धलोपार्थमलब्धप्राप्तये परम् ॥ १२५॥
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गृहस्थाश्रममें जो अवश्य ही करने पड़ते हैं ऐसे हिंसाके माधनभृत या स्थान अवद्य कर्मोंको शूना कहते हैं। इसके पांच भेद हैं-उखली, चक्की, चूल, जल, बुरी । इन्ही कर्मों के कारण मनुष्य गृहस्थ कहाता और पूर्णतया मोक्षमार्गपर नहीं चल सकता । तथा इनके न रहते हुए मोक्ष प्राप्त कर सकता है । यथाः
"कण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुम्भः प्रमार्जनी । पञ्च शूना गृहस्थस्य तेन मोक्ष न गच्छति ॥"
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अतएव जो संवेगी-संसारसे भीरु और मोक्षके अभिलाषी हैं उनके लिये इन पांचो अवम कर्मोंसे
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पूर्ण घरकी अपेक्षा शून्य वन अच्छा। क्योंकि यद्यपि वह विविक्त स्थान है किंतु हिंसाका स्थान तो नहीं है। और इसके सिवाय इस घरमें रहनेसे तो प्राप्त भी संवेग नष्ट हो जाता है । किंतु उस वनमें रहनेसे संवेगीका संवेग बढता है । इतना ही नहीं किंतु अलब्ध जो अभी तक उन्हे कभी प्राप्त नहीं हो सका है ऐसा शुद्धात्मतत्व प्राप्त हो जाता है।
गृहकार्यमें जो निरंतर विशेष रूपसे आसक्त रहनेवाले हैं उन्हे जो निरंतर दुःख प्राप्त हुआ करते हैं उनपर अपशोच प्रकट करते हैं:--
विवेकशक्तिवैकल्याद् गृहद्वन्द्वनिषद्वरे ।
मग्नः सीदत्यहो लोकः शोकहर्षभ्रमाकुलः ॥ १२६ ॥ जिससे हिताहितका विवेचन किया जा सकता है ऐसी विवेकशक्तिसे विकल रहनेके कारण हाय ये बहिदृष्टि लोक गृहस्थाश्रमके कार्यकलापके झगडेरूपी कर्दममें फसकर शोक और हर्षके चक्करसे व्याकुल हुए व्यर्थ ही खेदको प्राप्त हो रहे हैं।
भावार्थः-जिस प्रकार कीचमें फसा हुआ कोई आदमी सामर्थ्यका प्रतिबन्ध होजानेसे अपनेको उसमेंसे अलग न करसकनेपर दुःखी हुआ करता है उसी प्रकार गृहस्थाश्चममें फसा हुआ मनुष्य जिसके द्वारा वह उससे अपने को पृथक् कर सकता है ऐसी विवेकशक्तिका प्रतिबन्ध होजानेपर उसमें फसा हुआ ही खिन्न--संक्लिष्ट रहा करता है। क्योंकि वह शोक हर्षके परिवर्तनसे व्याकुल होजाता है अथवा हर्ष विषाद और भ्रमसे उसका चित्त आस्थर होजाता है। जैसा कि कहा भी है कि:--
रतेररतिमायातः पुना रतिमुपागतः । तृतीयं पदमप्राप्य बालिशो वत सीदति ।।
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रतेररतिमायातः पुना रतिमुपागतः ।
तृतीयं पदमप्राप्य बालिशो बत सीदति ॥ ये अज्ञानी प्राणी रतिके बाद अरति ओर अरतिके बाद पुनः रतिको प्राप्त हो कर जो व्यर्थ ही क्लेश भोगरहे हैं उसका कारण यही है कि इन दोनोंके चक्करमें पडकर इन्होंने अभीतक तीसरे पदको प्राप्त नहीं किया है। राग द्वेषसे रहित उपेक्षातत्व-वीतराग अवस्थाको ये अभीतक प्राप्त नहीं कर सके हैं।
अथवा:--
वासनामात्रमेवैतत् सुखं दुःखं च देहिनाम् । तथा घजयन्त्येते भोगा रोगा इवापदि ।
प्राणियोंकेलिये यह सुख है और यह दुःख यह केवल वासना-कल्पना ही है-विषयोंको सुखकर या दुःखकर समझना भ्रम ही है। क्योंकि, देखते हैं कि आपत्तिमें ये सभी भोग रोगोंकी तरहसे प्राणियोंको उद्विग्न -पीडित किया करते हैं।
क्षेत्र परिग्रहके दोष बताते हैं:-- क्षेत्रं क्षेत्रभृतां क्षेममाक्षेत्रज्यं मृषा न त ।
अन्यथा दुर्गतेः पन्था बहारम्भानुबन्धानात् ॥ ११॥ . क्षेत्रज्ञ कोई पदार्थ नहीं है इस सिद्धान्तको आक्षत्रय कहते हैं । क्षेत्रज्ञ नाम आत्माका है। क्योंकि क्षेत्र शब्दका अर्थ शरीर होता है और उसके अनुभव करनेवालेको क्षेत्रज्ञ कहते हैं। बौद्धोंका सिद्धान्त है कि "जीव नामका कोई भी पदार्थ नहीं है"। इसी प्रकार चार्वाकोंका सिद्धान्त है कि गर्भस लेकर मरण तक ही
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ENTERTRENESENTERTAINMENT
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जीव रहता है आगे नहीं"। इन दोनों ही सिद्धांतोंको आक्षेत्रश्य कहते हैं । इस प्रकार बौद्धोंका नैरात्म्यवाद यद्यपि कल्पित है किंतु यदि वह असत्य न होता तथा चार्वाकोंका भी आक्षेत्रज्य सिद्धांत कल्पित नहीं होता तो संसारी शरीरधारियों के लिये यह क्षेत्र-धान्यादिकके उत्पन्न होनेका स्थान भी जरूर ही ऐहिक सुखसंपत्तियोंको उत्पन्न कर कल्याणका कारण हो जाता । किंतु यदि यह बात नहीं है और ये उक्त दोनों ही सिद्धान्त मिथ्या हैं तथा जीवपदार्थ शश्वत् रहनेवाला है तब तो इस क्षेत्र परिग्रहको नरकादिक दुर्गतियोंका ही कारण समझना चाहिये । क्योंकि इसके विषयमें अनेक प्रकारका बहुतसा आरम्भ पुनः पुनः करना पड़ता है जिससे कि षट्कायिक जीवोंका घात ही होता है । खेतके जोतने साचने निराने काटने आदिमें जो पापकर्मोंका अनुबंध होता और उससे हिंसा होती है उसीके निमित्त प्राणियोकों दुर्गतियोंका भोग करना पडता है।
कुप्यादिक परिग्रहोंके निमित्तसे जो मनुष्यमें औद्धत्य आजाता है अथवा उसको आशाओंका अनुबन्धन हुआ करता है उसको बताते हैं:--
यः कुप्यधान्यशयनासनयानभाण्ड,-- काण्डैकडम्बरितताण्डवकर्मकाण्डः । वैतण्डिको भवति पुण्यजनेश्वरेपि, तं मानसोर्मिजटिलोज्झति नोत्तराशाः॥ १२८॥
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कुप्य धान्य शयन आसन यान और भाण्ड इन परिग्रहोंके संघात-समूहसे अपने ताण्डव कर्मकाण्डको प्रकृष्टतया आडम्बरयुक्त बनानेवाला जो व्यक्ति धन और ऋद्धियोंके अधीश्वर-कुवेरका भी उपहास करने लगता है उस व्यक्तिको नाना विकल्पजालोंसे आन्वित उत्तराशा- भविष्यत् विषयोंके लिये बढती हुई तत्रि अभिलाषा छोड नहीं सकती।
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भावार्थ-जो पुरुष अपनी धनसंपत्तिके गर्वसे उत्तरदिशाके अधिपति कुवेरका तिरस्कार करदेता है या करना चाहता है वह मानसरोवरकी लहरियोंसे पूर्ण उत्तर दिशाको भला किस तरह छोड सकता है । वह अवश्य ही कैलासके साथ साथ उत्तर दिशाको भी अधिगत करना चाहता है । इसी प्रकार कुप्यादिक परिग्रहोंके निमित्तसे जिसको अभिमान जागृत हो गया है और इसीलिये जो उन्हीके आडम्बर बढानेमें लीन रहता है वह व्यक्ति दूपरे बडे बडे सम्पत्तिशालियों को भी अपने सामने तुच्छ समझने लगता है और इस तरहसे उनका उपहास किया करता है जैसे कि निरंतर ताण्डव नृत्यकी विचित्रता दिखानेके लिये अभिनय करनेवाले नटका बडे बडे शिष्ट पुरुष भी उपहास किया करते हैं । अथवा उपहास करनेके लिये ही-यह दिखानेकेलिये कि मेरी बराबर ऋद्धिधर कोई भी नहीं है। वह परिग्रहोंका आडम्बर बढाता है। क्या ऐसे पुरुषको कभी भी अनेक चिन्ताओंके जालसे युक्त अभिलाषाएं छोड़ सकती हैं ? कभी नहीं। वह दिनरात भविष्यत्-अर्थको प्राप्त करने की आशासे चिन्तित ही रहा करता है। उसको कुप्य धान्य शयन आसन और यानादिकके संग्रह करनेकी चिन्ता लगी ही रहती है।
इस प्रकार इन परिग्रहोंके निमित्त अभिमान उत्पन्न होता और दूसरोंको तुच्छ समझनेकी बुद्धि जागृत होती तथा उनका आडम्बर चढानेकी चिन्ताओंसे संक्लेश परिणाम उत्पन्न हुआ करते हैं।
सोना और चांदीको छोडकर बाकीकी धातुओं अथवा वस्त्रादिक द्रव्योंको कुप्य कहते हैं। गेंहू चावल आदि अन्नको धान्य कहते हैं । पलंग पालना आराम कुर्सी आदि सोनेके साधनोंको शयन कहते हैं । मुंढा तख्त पट्टा सिंहासन कुर्मी बेंच आदि बैठनेके साधनोंको आसन कहते हैं । पालकी पीनस तापझाम विमान आदि बैठकर जानेके साधनोंको यान कहते हैं । हींग मजीठ आदि मसाले अथवा किराने के सामानको भाण्ड कहते हैं।
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१-२ वस्तुतः इन शब्दोंका अर्थ ऐसा होता है कि जिसपर सोया जाय सो शयन और जिसपर बैठा जाय सो आ. सन । अत एव भूमि या पत्थरकी शिलाको भी शयन आसन कह सकते हैं। .
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धनमें गृद्धि रखनेवाले पुरुषकी महापापोंमें भी प्रवृत्ति होती है यह बताते हैं: -
जन्तून् हन्त्याह मृषा चरति चुरां ग्राम्यधर्ममाद्रियते । खादत्यखाद्यमपि धिग् धनं धनायन् पित्रत्यपेयमपि ॥ १२९ ॥
ग्राम सुवर्ण आदिक धनकी अभिकांक्षा -- तीव्र गृद्धि रखनेवाला मनुष्य क्या क्या अनर्थ नहीं करता ? वह उसको प्राप्त करनेकी अभिलाषाले महानसे महान् पाप कर्ममें भी प्रवृत्ति करने लगता है । प्राणिबध असत्य भाषण और चौरकर्मका आचरण करता, ग्राम्यधर्म - मैथुनका भी सेवन करता, सर्वथा अभक्ष्य काकमांसा दिकका भी भक्षण करने लगता और उच्चवर्ण तथा प्रशस्त कुलमें जिसका पीना सर्वथा निषिद्ध है ऐसे मद्यादिकका भी पा करने लगता है। जिस धनकी लिप्सासे मनुष्यकी इन हिंसा झूठ चोरी आदि सभी दुष्कर्मोमें प्रवृत्ति होने लगती है उस धनको अथवा गृद्धिवश इन महापापों में प्रवृत्ति करनेवाले मनुष्यको धिकार है। मुमुक्षुओंको यह धनपरिग्रह महापापका ही कारण समझकर दरहीसे छोडदेना चाहिये।
भूमिमें लुब्ध हुए पुरुष के जो अपाय और अवद्य - निन्द्यकर्म होते हैं उनको दृष्टांतद्वारा स्पष्ट करते हैं
तत्तादृग्साम्राज्यश्रियं भजन्नपि महीलवं लिप्सुः ।
भरतोऽवरजेन जितो दुरभिनिविष्टः सतामिष्टः ॥ १३० ॥
उस प्रसिद्ध और लोकोत्तर साम्राज्यलक्ष्मी-समस्त चक्रवर्तीकी विभूतिको भोगते हुए भी जब प्रथम चक्रवर्ती भरतने पृथ्वीके एक छोटेसे हिस्से केवल सुरम्य नामके देशको अपने छोटे भाई बाहुबलि कुमारसे लेकर अपने हस्तगत करना चाहा उस समय उस कुमारसे वह परिभवको ही प्राप्त हुआ और सत्पुरुषोंने भी उसको दुरभिनिवेशयुक्त ही समझा ।
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___ भावार्थ-नीतिमार्गको प्राप्त न करके केवल दूसरोंका परिभव करनेके ही परिणामोंसे जो कार्यका आरम्भ किया जाता है उसको दुरभिनिवेश कहते हैं। भरत जब समस्त पृथ्वीका उपभोग कर रहा था तब उ. सको अपने छोटे भाईसे वह जरासा भूमिखण्ड भी छीन लेने का आग्रह करना उचित नहीं था। फिर भीनीतिमार्गका अनुसरण न करके केवल बाहुबलीको जीत लेनेके ही अभिप्रायसे जो उसने युद्धका आरम्भ किया वह उसका दुरभिनिवेश ही था। यह उसकी निन्द्य कर्ममें प्रवृत्ति केवल भूमिके लोभवश ही हुई। जिसका परिणाम यह हुआ कि वह अपने उस छोटे भाईसे युद्ध में परिभूत हुआ और जगतमें निन्दाका पात्र बना ।
धन मनुष्यमें दीन वचन निर्दयता कृपणता तथा अनवस्थितचित्तता आदि दोषोंका उत्पन्न करनेवाला है अतएव इन दोषोंकी अपेक्षासे धनकी निंदा करते हैं -
श्रीभैरेयजुषां पुरश्चटुपटुहीति ही भाषते, देहीत्युक्तिहतेषु मुञ्चति हहा नास्तीतिबाग्घ्रादिनीम् । तीर्थेपि व्ययमात्मनो वधमभिप्रेतीति कर्तव्यता,चिन्तां चान्वयते यदभ्यमितधीरतेभ्यो धनेभ्यो नमः ॥१३१ ॥
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धनके द्वारा आतङ्कको प्राप्त होगई है बुद्धि जिसकी ऐसा मनुष्य हाय मद मोह स्खलन आदिको उत्पन्न करनेवाली लक्ष्मीरूपी मदिराका सेवन करनेवाले धनिकोंको सामने खुशामद भरे शब्दोंके बोलने में अति. चतुर बनकर " कुछ दो" इन दीन शब्दोंके बोलने में भी संकोच नहीं करता है। तथा “दो" इस अतिदीन शब्दका उच्चारण करते ही जो स्वयं आहत हो चुके हैं -प्रायः मरचुके हैं. उनपर हाय हाय यह धनसे आतङ्कितबुद्धि मनुष्य “ यहां कुछ नहीं है " ऐसा वचनरूपी वज्र ऊपरसे और भी पटक देता है। इसी प्रकार यह धनमें लोलुपता रखनेवाला मनुष्य, ओरोंकी तो बात क्या, तीथोंमें भी हो जानेवाले या · किये गये व्यय
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को अपना मरण मानने लगता है। धर्मके आयतन अथवा कार्यके साधक पुरुषोंको तीर्थ कहते हैं । अत एव तीर्थ दो प्रकारके हैं। एक धर्पसमवायी, दूसरे कार्य समवायी । इन दोनो ही प्रकारके तीर्थोंमें यदि द्रव्यका विनियोग होजाय तो वह कंजूस समझता है कि हाय मैं तो मरगया-मेरा धनरूपी माण तो निकल ही गया । तथा इसी प्रकार धनकी गृद्धिसे आकुलित रहनेवाला व्यक्ति निरंतर इतिकर्तव्यताकी चिंताओंसे ग्रस्त रहा करना है। मुझको यह कार्य इस प्रकारसे करना है और यह इस प्रकारसे करना है तथा इसके बाद अमुक कार्य करूंगा और उसके बाद अमुक कार्य करूंगा और उसको उस तरहसे करूंगा आदि अनेक प्रकारकी तर्कणाएं धनलुब्ध पुरुषके पीछे लगी ही रहती हैं।
भावार्थ-धनका लोभी पुरुष दिनरात चिन्ताओंसे संक्लिष्ट रहता और उसका संचय करनेमें ही लगा रहता है। वह सत्पात्रोंमें भी उसका विनियोग करना नहीं चाहता। यदि कदाचित् कोई अर्थी याचना करने आता भी है तो उसके ऊपर निषेधसूचक शब्द कहकर वह वज्र पटक देता है । द्धिवश जो याचना करने में प्रवृत्त होता है वह स्वयं अधमरा होजाता है, यथा
गतेभङ्गः स्वरोदीनो गात्रस्वेदो महद्भयम ।
मरणे यानि चिन्हानि तानि चिन्हानि याचने ॥ गतिमें स्खलन होना, स्वरमें दीनता आजाना, शरीरमें पसीना छूटना, और महान् भयका उत्पन्न होना आदि जो जो चिन्ह मरते समय होते हैं वे ही चिन्ह याचनाके समयमें भी हुआ करते हैं। किंतु इसपर भी जो लोग अर्थियोंको निषेध कर देते हैं उनकी गृद्धिका तो ठिकाना ही क्या है । इस प्रकार धनके निमित्तसे और अनेक दोषोंके सिवाय दैन्यभाषण निर्दयता कृपणता और अनवस्थितचित्तता ये चार महान् दोष भी उत्पन्न हुआ करते हैं।
धनके संचय रक्षण आदि करनेमें तीव्र दुःख ही उत्पन्न होता है अत एव उसकी प्राप्तिकेलिये उद्यम करनेका निषेध करते हैं:
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बनमार
REPENDENIERSPERTONENESH
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यत्पृक्तं कथमप्युपाय॑ विधुराद्रक्षन्नरस्त्याजित:, खे पक्षीव पलं तदर्थिभिरलं दुःखायते मृत्युवत् । तल्लाभे गुणपुण्डरीकमिहिकावस्कन्दलोभोद्भव,
प्रागल्भीपरमाणुतोलितजगत्युत्तिष्ठते कः सुधीः ॥ १३२ ॥ किसी तरहसे एक मांसके टुकडेको पाकर उसकी विघ्न बाधाओंसे रक्षा करते हुए पक्षीको यदि दूसरे फलार्थी पक्षी आकाशमें उमसे वियुक्त करदें-उससे वह मांसका टुकडा छुडादें तो उसको जिस प्रकार मृत्युके समान अत्यंत दुःख होता है इसी प्रकार जो मनुष्य धनमें तत्रि गृद्धि रखनेवाला है और अत्यंत कष्टोंसे किसी प्रकार धनका संचय करके उसकी अपायोंसे तथा कठिनताके साथ रक्षा कर रहा है । यह कष्टसे संचित किया हुआ धन किसी प्रकार नष्ट न हो जाय, चोरीमें न चला जाय, अथवा किसी प्रकार खर्च न होजाय इत्यादि अनेक अपायोंके विषयमें निरंतर सावधानी रखता है उस मनुष्यको यदि उस धनके अर्थी याचक या बन्धुबान्धव कदाचित् उससे वियुक्त करदें - उससे लेलें या कहीं त्याग-दानादिक करादें तो उस लुब्धको ऐसा तीव्र दुःख होता है जैसा कि मृत्युके समय-प्राणोंका वियोग होनेपर हुआ करता है। यह धनका संचय जिस लोभकर्मचतुर्थे कषायके उदयसे मनुष्य किया करता है वह पुण्डरीक-~-श्वेत कमलके समान हृदयको आल्हादित करनेवाले सम्यग्दर्शन प्रभृति प्रशस्त गुणों कोलिये तुषार वपाके समान है। इस लोभोदयकी प्रकृष्टता-निरंकुश प्रवृत्तिके कारण ही जीव नमस्त जगत की स्थावर जंगम संपत्ति के समूहरूप संपूर्ण लोककी भी परमाणुसे तुलना करने लगता है। तीन लोककी संपत्तिको भी गद्धिवश अणुतुल्य ही समझता और इसीलिये उसके अर्जन रक्षणमें ही निरंतर लगा रहकर क्लेशोंको ही उठाया करता है । अत एव कहना पडता है कि ऐसा कौन मुमुक्षु अथवा विचारकुशल पुरुष होगा जो कि ऐसे लोभके उदयमे प्राव होनेवाले दुःखकर धनका संचय करनेकालये उद्यम करे ।
१-आशागतः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमं । कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयषिता ।
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मालिक सिमावर्थ धना वर्जन और रक्षण
बनगार
भावार्थ धनका अर्जन और रक्षण करने में मनुष्योंको तीव्र क्लेश ही उठाना पडता है अत एव उसकी प्राप्तिके लिये उद्यम करना व्यर्थ है।
बहिर्दृष्टि मनुष्योंको धनके अर्जन और भोजनसे ऐसा उन्माद होता है जिससे कि वे निःशंक होकर पापकर्म करनेमें प्रवृत्ति होते और मैथुनका भी सेवन करने लगते हैं। इन्ही धन और भोजन सम्बन्धी दोषोंको यहां प्रकट करते हैं:
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धनादन्न तस्मादबक इति देहात्ममतयों, मर्नु मन्या लधु धनमधमशङ्का विदधते । वृषस्यन्ति स्त्रीरप्यदयमशनोदिन्नमदना, घनस्त्रीरागो वा ज्वलयति कुजानप्यमनसः॥ १३ ॥
" सम्पूर्ण जीवोंके प्राणोंकी स्थिति अनसे ही रह सकती है । भोजनके बिना कोई भी प्राणोंको स्थिर नहीं रख सकता । किंतु अन्न-भोजन भी प्राप्त होना धनपर निर्भर है । अत एव समस्त लोक और उसके व्यवहारका मूल धन ही है। " बस, ऐसा समझकर ही बहिदृष्टि लोक - शरीरको ही आत्मा समझनेवाले विपरीतबुद्धि जन अपनेको मनु-लोकव्यवहारके उपदेष्टा कुलकर मानने लगते और धनका उपार्जन करनेकेलिये निःशंक -परलोकादिकके भय से रहित होकर पापकर्मों में भी प्रवृत्ति करने लगते हैं। और उन्होंने जिसको धनका फल समझ रक्खा है ऐसे भोजनके करनेपर जब उनके तीव्ररूपसे कामदेवका उद्रेक होता है तब निर्दय.होकर स्त्रियोमें पशुकर्म--रति करनेकोलिये प्रवृत्त होते हैं । अथवा यह बात ठीक भी है। क्योकि देखते हैं कि अमनस्क वृक्षोंको भी यह धन और स्त्रीका राग जलाया करता है --धनका स्वीकार करने के लिये और स्त्रियों के साथ प्रविचार करनेकेलिये उद्युक्त किया करता है। जैसा कि नीतिमें भी कहा है कि "अर्थेषपभोगरहितास्तरवोऽपि साभिला
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षाः किं पुनर्मनुष्याः" । अर्थात उपभोगरहित वृक्ष भी जब धनमें अभिलाषा रखते हैं तब मनुष्योंकी तो बात ही क्या है। ऐसा देखते भी हैं कि यदि किसी वृक्षके मूलके पास धन गाढदिया जाय तो उसको उस वृक्षकी जटाएं बेष्टित करलिया करती हैं अथवा उधरको ही जडें अधिक बढा करती हैं। इसी प्रकार कामिनियोंके लिवना. की अभिलाषा तो अशोकादिक वृक्षोमें अच्छी तरह प्रसिद्ध ही है, जैसा कि कहा भी है कि:--
सन्नूपुरालक्तकपादताडितो द्रुमोपि यासां विकसत्यचेतनः ।
तदनसंस्पर्शरसद्रवीकृतो विलीयते यन्न नरस्तददभुतम् ॥ जिन स्त्रियोंके सुंदर नू पुर और महावरसे युक्त पैरसे ताडित होते ही अचेतन वृक्ष भी विकसित हो उठता है--खिलजाता है उन्ही स्त्रियोंके शरीरस्पर्शके रसके पिघलाये जानेपर भी मनुष्य विलीन न हो तो यह आश्चर्यकी बात है।
और भी कहा है कि:--- यासां सीमन्तिनीनां कुरबकतिलकाशोकमाकन्दवृक्षाः, प्राप्योच्चैर्विक्रियन्ते ललितभुजलतालिङ्गानादीन्विलासान् । तासां पूर्णेन्दुगौरं मुखकमलमलं वीक्ष्य लीलालसाढ्य
को योगी यस्तदानीं कलयति कुशलो मानसं निर्विकारम् ।। जिन सीमन्तिनियोंके मनोज्ञ भुजलताओंके आलिंगन प्रभृति विलासोंको पाकर कुरबक तिलक अशोक और माकन्दवृक्ष भी अच्छी तरहसे विकारको प्राप्त होजाते हैं उनके लीलारससे भरे हुए और पूर्ण चन्द्रमाके समान गौरमुख कमलको अच्छी तरह देखकर ऐसा कौनसा कुशल योगी है जो कि अपने मनको निर्विकार प्रकाशित कर सके या रखसके।
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अ. ध. ५७
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उक्त गृहादिक परिग्रहोंमें लगी हुई ममत्वबुद्धिरूप मूर्छाके निमित्तसे आये हुए और उसके रक्षणादिके द्वारा संगृहीत पापकर्म अत्यंत दुर्जर हैं-वे बडी ही कठिनतासे आत्मासे सम्बन्ध छोडते हैं, इस बातको प्रकट करते हैं:--
तद्गहाद्युपधौ ममेदामिति संकल्पेन रक्षार्जना,संस्कारादिदुरीहितव्यतिकरे हिंसादिषु व्यासजन् । दुःखोद्गारभरेषु रागविधु'प्रज्ञः किमप्याहर,-- त्यंहो यत्प्रखरेपि जन्मदहने कष्टं चिरायति ॥ १३४ ॥
गृहादिकोंमें लगी हुई तृष्णाके कारण अंधी या विपर्यस्त होगई है प्रज्ञा–बुद्धि जिसकी ऐसे गृहस्थके जो उन गृह क्षेत्रादिक उपधियों-परिग्रहोंमें "ये मेरे हैं " ऐसा संकल्प लगा रहता है उसके कारण ही वह उनके रक्षण अर्जन तथा संस्कारादिके करनेमें निरंतर पुनः पुनः दुश्चेष्टाएं किया करता है। यदि ये परिग्रह-गृहादिक पहलेसे पासमें होते हैं तब तो ये नष्ट न हो जाय या अपने हाथसे चले न जाय इस बातकी सावधानी रखता है। और यदि पहलेसे प्राप्त नहीं होते तो उनके प्राप्त करनेकेलिये प्रयत्न किया करता है। तथा प्राप्त होजानेपर अनेक प्रकारसे उनका संस्कार किया करता है। कभी झाडता कभी सींचता कभी लीपता कभी पोतता और कभी उनकी मरम्मत करता है। इस प्रकार सदा उनके समालने में ही लगा रहता है । और इन क्रियाओंके पुनः पुनः करनेमें जो दुःखोंके उद्गारसे अच्छी तरह भरे हुए हिंसादिक कर्म होते हैं उनमें अच्छी तरह और नाना प्रकारसे आमक्त होकर उस अनिर्वचनीय पापका संचय करता है जो कि अत्यंत तक्षिण भी संसाररूप अग्निमें बडी ही कठिनतासे और चिरकालमें जाकर दग्ध हो सकता है । घोर नरकादिक दुर्गतियोंके दुखोंका अनुभव कराके ही वे आत्मासे विच्छिन्न होते हैं।
चेतन और अचेतन परिग्रहों में जो राग द्वेषका सम्बन्ध लगा हुआ है वही अनादिकालीन अविद्या-अ
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ज्ञानका कारण है। फिर भी जो मनुष्य उन रागद्वेषों में ही प्रवृत्ति करता है उसके जो पुनः पुनः कर्मों का बंध हुया करता है उसका तिरस्कारपूर्वक निर्देश करते हैं:
आसंसारमविद्यया चलसुखाभासानुबद्धाशया, नित्यानन्दसुधामयस्वसमयस्पर्शच्छिदभ्यासया । इष्टानिष्टविकल्पजालजाटिलेष्वर्थेषु विस्फारितः ,
क्रामन् रत्यरती मुहुर्मुहुरहो बाबध्यते कर्मभिः ॥ १३५ ॥ जीवोंके अविद्या - अज्ञान या विपर्यस्त बुद्धि जबसे संसार है तभीसे-अनादिकालसे लगी हुई है। इसके अभ्यास-निकटमें रहनेसे मनुष्योंको नित्य-सदातन आनन्द-प्रमोद या सुखानुभवरूपी सुधा-अमृतसे मधुर शुद्ध चिद्रूपकी प्राप्ति तनिक भी नहीं होती । यह अविद्या नित्य एवं वास्तविक आत्मिक सुखका अनुभव जीवोंको अंशरूपमें भी नहीं होनेदेती । किंतु इसके ठीक विपरीत चल-क्षणिक अथवा अनित्य सुखाभासों-इन्द्रियोंके विषयों अथवा आत्मासे सर्वथा पर पदार्थों के साथ उन जीवोंकी आशा - तृष्णाको संयुक्त करदेती है। इसके निमित्तसे ही संसारी जीव आत्मिक सुखसे पराङ्मुख हुए इन्द्रियजनित विषयों अथवा उसके साधनभूत परिग्रहोंमें सुखकी भावनासे तृष्णान्वित हुआ करते हैं । और यह विपर्यस्त ज्ञान ही संसारके चेतन और अचेतन पदार्थों में जो कि वस्तुतः न इष्ट हैं और न अनिष्ट हैं उनमें इष्टानिष्ट बुद्धि उत्पन्न कराता है । क्योंकि इसके प्रसादसे ही' जीव किसी पदार्थको इष्ट और किसीको अनिष्ट समझने लगता है। जिनको इष्ट समझता है उनको प्राप्त करनेके लिये और जो प्राप्त हों तो उनका सदा संयोग बना रहनेकेलिये निरंतर चिंता किया करता है। और इसी प्रकार जिनको अनिष्ट समझता है उनकी सदा अप्राप्तिकेलिये हमेशह संकल्प विकल्प किया करता है। यह अज्ञान इन्ही विकल्पजालोंसे जटिल उक्त चेतन और अचेतन पदार्थोंमें प्रयत्नावेशको प्राप्त होनेकेलिये जीवोंको प्रेरित किया करता है । विकल्पजाल के विषयभूत इष्टानिष्ट पदार्थोकी क्रमसे प्राप्ति और अप्राप्तिकेलिये प्रयत्न करते रहनेकी
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प्रेरणा किया करता है। जिससे कि प्रेरित हुआ वह जीव अहो बारबार रागद्वेषरूप परिणत होता और ज्ञानावरणादिक कर्मोंसे पुनः पुनः बंधको प्राप्त होता है।
भावार्थ-बंधका कारण रागद्वेष है । चेतन और अचेतन परिग्रहके निमित्तसे हमेशह रागद्वेष हुआ करते हैं। अत एव परिग्रही जीवके कमोंका संचय भी प्रतिक्षण हुआ करता है। जैसा कि कहा भी है कि:--
कादाचित्को बन्धः क्रोधादेः कर्मणः सदा सङ्गात् ।
नातः क्वापि कदाचित् परिग्रहप्रहवतां सिद्धिः। क्रोधादिकके निमित्तसे कदाचित बंध हुआ करता है किंतु परिग्रहके निमित्तसे सदा ही हुआ करता है। यही कारण है कि जो परिग्रहरूपी ग्रहसे आविष्ट हैं उनकी कहीं भी और कभी भी सिद्धि-मुक्ति नहीं होसकती।
__ यह मोहकर्म इतना प्रबल है कि असमयमें काललब्धिके विना तत्त्वज्ञानियोंके लिये भी जिसका जीतना अत्यंत कष्टसाध्य है । इसी बातपर विचार करते हैं:
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महतामप्यहो मोहग्रहः कोप्यनवग्रहः।
ग्राहयत्यस्वमस्खांश्च योऽहममधिया हठात् ॥ १३६ ॥ मोह-चारित्रमोहनीय कर्म ग्रहके समान है। जिस प्रकार ग्रहके निमित्तसे जीव विविध प्रकारकी कुचेष्टाएं किया करता है उसी प्रकार इसके निमित्तसे भी जीव अनेक प्रकारके विकारोंको प्राप्त होकर दुर्व्यवहार किया करता है। यह इतना दुर्निवार या चिर-आवेशरूप है कि जिसका निरूपण नहीं किया जा सकता । आचर्य है कि यह बडे-महापुरुषोंको भी पर और परकीय पदार्थों में क्रमसे अहंबुद्धि और ममबुद्धिके द्वारा जबर्दस्ती विपरीत ग्रह करादेता है।
भावार्थ-दूसरे साधारण व्यक्तियोंकी बात क्या, छद्भस्थ गृहस्थ अवस्थामें अवस्थित तीर्थकर प्रभृति
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व्यक्ति भी जो कि तत्त्वस्वरूपको भले प्रकार जानते हैं इसके वशमें होकर अन्यथा व्यवहार करने लगते हैं । जो निजात्मस्वरूप नहीं है ऐसे शरीरादिकमें "मैं" इस तरहसे और अनात्मीय स्त्री पुत्र गृहादिक परिग्रहोंमें “ये मेरे हैं" इस तरहसे समझकर व्यवहार करने लगते हैं।
यद्यपि अपकार करनेवाला यह चारित्रमोहनीय ही है फिर भी इसका उच्छेद करनेकेलिये विद्वानोंको प्रयत्न काललब्धिके विषयमें ही करना चाहिये । ऐसी शिक्षा देते हैं:
दुःखानुबन्धैकपगनरातीन्, समूलमुन्मूल्य परं प्रतप्स्यन् । को वा विना कालमरेः प्रहन्तुं, धीरो व्यवस्यत्यपराध्यतोपि ॥ १३७ ॥
केवल दुःखोंके देनेमें ही तत्पर रहनेवाले या प्रधान कारणभृत मिथ्यात्वादिक शत्रुओंका समूल उन्मूलन कर-संवरके साथ साथ निर्जरा-एकदेश क्षय करके उत्कृष्टतया तप करनेकी इच्छा रखनेवाला ऐसा कौन धीर होगा जो कि अपना अपराध-अपकार करनेवाले भी कर्मशत्रु--चारित्रमोहनीयका नाश करने के लिये कालकी अपेक्षा किये बिना ही उद्युक्त उत्साहित हो ।
मावार्थ-यह बात लोकमें भी देखते हैं कि जो धीर-स्थिरप्रकृतिका नायक होता है वह इस प्रचलित नीतिको हृदयमें रखकर कि “जबतक योग्य समय-अवसर प्राप्त न हो तबतक अपने अपकर्ताके साथ भी सद्व्यवहार ही करना चाहिये," नित्य ही संतप्त करनेवाले चौर वरटादिकोंका निबंध-ध्वंस करके अपने प्रकृष्ट तेजको समस्त जगत्के ऊपर उपस्थापित करने की इच्छासे अपना अपराध करने में प्रवृत्त भी उन प्रतिनायक शत्रुओंका घात करनेकेलिये योग्य समयकी प्रतीक्षा किया करता है । इसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये । क्योंकि प्रत्येक कार्य अवसर
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पनगार
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पर ही उचित रूपसे सिद्ध हो सकता है । अत एव जो धीर मुमुक्षु भव्य मिथ्यात्वादिक शत्रुओंका नाश कर-संवरसहभावी निर्जरा--इन कर्मोंका एकदेश क्षय करके तपका आराधन करना चाहते हैं वे भी सबसे पहले उस तपके विरोधी चारित्रमोहनीयको निर्मूल करनेकेलिये योग्य समयकी ही प्रतीक्षा किया करते हैं।
लक्ष्मीका उपार्जन कर योग्य सत्पात्रोंमें उसका विनियोग करनेवाला जो सद्गृहस्थ उसका सर्वथा परित्याग कर मुख्यतया मोक्षमार्गमें चलने का प्रयत्न करता है - उत्कृष्ट निर्ग्रन्थ लिङ्गको धारण करता है उसकी प्रशंसा करते हैं:--
पुण्याब्धेर्मथनात्कथं कथमपि प्राप्य श्रियं निर्विशन, वैकुण्ठो यदि दानवासनविधौ शण्ठोस्मि तत्सद्विधौ । इत्यर्थैरुपगृह्णता शिवपथे पान्थान्यथास्वं स्फुर,
त्तादृग्वीर्यबलेन येन स परं गम्यत नम्येत सः ॥ १३८ ॥ पुण्यरूपी समुद्रका मन्थन करके किसी न किसी प्रकारसे-बडे कष्टोंसे लक्ष्मीका उपार्जन कर उसका उपभोग करनेवाला जो गृहस्थ यह सोच करके कि “ यदि दानके द्वारा सचमुचमें मैं अपनी आत्माका संस्कारविधान करनेमें मन्द रहा तो सदाचार-सम्यकक्चारित्रके पालन करनेके लिये प्रयत्न करने में भी भ्रष्ट ही रहूंगा। यदि अपनी इस लक्ष्मीका सत्पात्रोंमें व्यय नहीं कर सकता तो मुनिधर्मका भी धारण मैं किस तरह कर सकूँगा। अवश्य ही मैं उससे वञ्चित रहूंगा"। मोक्षमार्गमें नित्य ही प्रस्थान करनेवाले साधुओंको अपने उस धनके द्वारा यथायोग्य उपकार करता है वह सद्गृहस्थ अपने उस स्फुरायमान और मोक्षमार्गके लिये सर्वथा योग्य वीर्य और बलके द्वारा जब उस उत्कृष्ट मोक्षमार्गमें चलने लगता है उस समयमें उक्त सदाचारसे पूर्ण इस भव्यको मुमुक्षुजन भी नमस्कार किया करते हैं।
भावार्थ--जिस प्रकार क्षीरसमुद्रका मन्थन करके प्राप्त की हुई लक्ष्मीका स्वयं भोग करनेवाले
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भी विष्णु दान करनेवालोंमें प्रधान बननेमें यदि अलम रहें अथवा दानव--असुरोंका विनिपात करनेमें कुण्ठित रहें तो अवश्य ही वे सद्विधिसे भी नितान्त भ्रष्ट ही समझे जायगे, या रहेंगे । इसी प्रकार कठिन परिश्रम और पुण्यके द्वारा प्राप्त हुई लक्ष्मीका मैं स्वयं भोग करता हुआ भी यदि उसको दानमें खर्च न कर सका और उसके द्वारा सत्पुरुषोंपर आनेवाले संकटों का निराकरण न करसका और उनका उपकार न करसका तो मैं और उत्कृष्ट आचरणका पालन करनेसे तो अवश्य ही बश्चित रहूंगा, जब साधारण गृहस्थोचित धर्मका ही मै सेवन नहीं कर सकता तो सर्वोत्कृष्ट मोक्षमार्ग मुनिधर्मका तो धारण ही किस तरह कर सकूँगा । ऐसा सोचकर जो सद्गृहस्थ अपनी उस लक्ष्मीका भोग करता हुआ भी साधुओंका उपकार करनेमें व्यय करता है और उसके निमित्तसे प्रतिक्षण उद्दीप्त होते हुए मोक्षमार्गोपयोगी बल और वीर्यके द्वारा उत्कृष्ट मोक्षमागेमें गमन करने लगता है वही धन्य है।
गृहस्थाश्रमको छोडकर यदि तपका आराधन किया जाय तभी मोक्षमार्गमें प्रवृत्ति निर्विघ्नतया हो | सकती है, अन्यथा नहीं । इसी बातको प्रकट करते हैं:
प्रजाग्रद्वैराग्यः समयबलवलगत्स्वसमयः, सहिष्णुः सर्वोमीनपि सदसदर्थस्पृशि दृशि । गृहं पापप्रायक्रियमिति तदुत्सृज्य मुदित,
स्तपस्यन्निःशल्यः शिवपथमजस्रं विहरति ॥ १३९ ॥ जिमका वैराग्य-संसार शरीर और भोगों इन्द्रियविषयोंमें तृण्णाराहित्य-रागद्वेषरहित परमप्रशमरूप परिणाम प्रतिक्षण प्रकर्षरूपसे प्रदीप्त होता चला जाता है, लाभादिककी अपेक्षासे रहित होनेके कारण जिसके वैतृष्ण्यकी स्फूर्ति उत्तरोत्तर बढती ही जाती है। और जिम के अंतरङ्गमें काललब्धि तथा श्रुतज्ञानके सामNसे निज चित्स्वरूपकी प्राप्ति उछल रही है। आगे बढ़ने के लिये सगर्व गर्जना कर रही है। एवं जो स
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मस्त परीपहोंको साधुरूपसे जीतनेके लिये प्रवृत्त है, ऐसा मुमुक्षु अन्तर्दृष्टिको प्रशस्त और अप्रशस्त पदार्थोके भी स्पर्श करनेवाली होनेपर उस गृहको जिसमें कि अधिकतया ऐसे ही कर्म-क्रियाएं हुआ करती हैं या करनी पडती हैं जिनमें कि प्रायः पापका ही आरम्भ हुआ करता है। प्रसन्नताके साथ माया मिथ्या तथा निदान इन तीन शल्योंसे रहित होकर अन्तरङ्ग एवं बाह्य दोनो ही प्रकारके तपका आराधन करता है वही तपस्वी रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्गमें अविश्रांत रूपसे विहार कर सकता है।
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धर्म
पाहा.
भावार्थ-संसार शरीर भोगोंसे विरक्त होजानेपर भी और काललब्धिको प्राप्त कर पूर्वोक्त रीतिसे श्रुतज्ञानके द्वारा निजात्मस्वरूपकी उपलब्धिका अभ्यास करलेनेपर तथा अन्तरङ्गमें विवेक या भेदज्ञानरूप समीचीन दृष्टिके स्फुरायमान भी होनेपर जबतक अनेक पापारम्भसे युक्त घरका परित्याग न किया जाय तबतक निःशल्य होकर तपका आराधन नहीं किया जा सकता। गृहनिरत पुरुषके कोई न कोई शल्य लगी ही रह सकती है। जैसा कि गुणभद्र स्वामीने भी कहा है कि "गृहाश्रमे नात्महितं प्रसिध्यति" गृहस्थाश्रममें आत्माका हित-मोक्ष अच्छी तरह सिद्ध नहीं हो सकता। अतएव जो मुमुक्षु अविश्रांत रूपसे मोक्षमार्गमें विहार करना चाहते हैं-पूर्णरूपसे रत्नत्रयका आराधन करना चाहते हैं उन्हे चाहिये कि वे उक्त गुणोंसे युक्त होकर भी पापप्राय क्रियाओंसे युक्त गृहका सर्वथा और अवश्य ही परित्याग करें । बाह्य परिग्रहों में शरीर सबसे अधिक हेय है ऐसा उपदेश देते हैं: -
शरीरं धर्मसंयुक्तं रक्षितव्यं प्रयत्नतः ।
इत्याप्तवाचस्त्वग्देहस्त्याज्य एवेति तण्डुलः ॥ १४ ॥ धर्मसंयुक्त-जिससे धर्मका साधन हो सकता है अथवा जो धर्मका आराधन करनेवाले जीवसे युक्त । है उस शरीरकी प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये, इस शिक्षाको आप्त भगवान्के उपदिष्ट प्रवचनका तुष्-छिल
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का समझना चाहिये। क्योंकि आत्मसिद्धिके लिये शरीररक्षाका प्रयत्न सर्वथा निरुपयोगी है। तथा “ शरीर सर्वथा त्याज्य ही है" इस शिक्षाको उक्त प्रवचनका तण्डुल समझना चाहिये । क्योंकि सारभूत पदार्थ वही है।
भावार्थ, जिस प्रकार धानकी मुसी निरुपयोगी ही समझी जाती है. और भीतरका तण्डुल-चावल ही सारभूत एवं उपयोगी पदार्थ रहता है इसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये । प्रवचनकी शिक्षामें शरीररक्षाके उपदेशको भुसीके समान और शरीरत्यागके उपदेशको तण्डुलके समान समझना चाहिये । अत एव सारभूत शिक्षाको ग्रहण कर बाह्य परिग्रहोंमें अत्यंत हेय शरीरके त्याग करनेका ही प्रयत्न करना चाहिये । ऐसा करनेपर ही मुमुक्षुओंका अभीष्ट सिद्ध हो सकता है, अन्यथा नहीं। क्योंकि शरीरमें लगे हुए ममत्वका उच्छेदन करनेवाला ही पूर्णतया निग्रन्थ हो सकता है और उसको परम पुरुषार्थकी सिद्धि प्राप्त हो सकती है। क्योंकि कहा भी है कि
देहो बाहिरगंथो अण्णो अक्खाण विसयअहिलासो। तेसिंचाए खवओ परमढे हवइ णिग्गयो॥
शरीररूपी बाह्य परिग्रह और इन्द्रियोंके विषयोंकी अभिलाषारूप अन्तरङ्ग परिग्रह इन दोनोंका परित्याग करनेपर ही कर्मोंका क्षपण करनेकेलिये उद्यक्त साधु परमार्थसे निग्रंथ हो सकता है। अर्थात् बाह्य परिग्रहों में शरीर ही प्रधान है और उसका त्याग ही मुमुक्षुओंकेलिये आवश्यक है ।
शरीरको क्लेश देनमें जो जो गुण हैं और उसके लालन पालनमें जो जो दोष हैं उनको बताते हुए साधुओंको उपदेश देते हैं:
योगाय कायमनुपालयतोपि युक्त्या,
क्लेश्यो ममत्वहतये तव सोपि शक्त्या । अ. ध. ५८
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भिक्षोन्यथाक्षसुखर्जीवितरन्ध्रलाभात् ,
तृष्णासारद्विधुरयिष्यति सत्तपोद्रिम् ॥ १.४१ ॥ हे चारित्रमात्रगात्र ! भिक्षो!! योग-रत्नत्रयात्मकताको सिद्धिकेलिये पालन करते हुए भी-केवल उपेक्षाकरते हुए ही नहीं किंतु जिससे संयमके पालनमें किसी प्रकारका विरोध न आवे इस तरहसे रक्षा करते हुए भी शक्ति और युक्तिके साथ--बल और वीर्यको न छिपाकर तथा आगममें बताई हुई विधिके अनुसार ममत्वबु द्धिको दूर करनेकेलिये--शरीरसे लगे हुए ममकार भावका निराकरण करनेकेलिये उसका दमन ही करना चाहिये । उसको क्लेष देकर कृष ही करदेना चाहिये । अन्यथा यह निश्चित समझ कि जिस प्रकार साधारण भी नदी प्रवेश करनेकेलिये मार्गभूत जरासे भी छिद्रको पाकर दुरारोह और दुर्भेद्य भी पर्वतमें प्रवेश कर उसको जर्जरित करदिया करती है उसी प्रकार तुच्छ भी यह तृष्णा-विषयोंकी आकाङ्क्षारूप नदी ऐन्द्रिय सुख और जीवनस्वरूप दो छिद्रोंको पाकर सर्माचीन तपरूपी ऐसे पर्वतको, कि जिसपर कठिनतासे आरोहण किया जा सकता है एवं जिसका सहसा भेदन भी नहीं किया जा सकता, छिम मिन्न कर जर्जेरित कर डालेगी।
भावार्थ-- चक्षुरादिक इन्द्रियों के द्वारा अनुभूयमान अभिलषित अङ्गना प्रभृति पदार्थोंमे उत्पन्न होने वाले सुखकी और जीवन की आशा-तृष्णानदीको समीचीन तपरूपी पवतम प्रविष्ट होने के लिये दो छिद्रोंके समान हैं। क्योंकि वैषयिक सुखकी अभिलाषा और जीवनकी प्रत्याशाके द्वारा ही तृष्णारूप नदी दुरारोह और दुर्मेध भी समीचीन तपरूपी पर्वतको छिन्न भिन्न कर जर्जरित करदिया करती है। यही कारण है कि इन आशाओंके वशीभूत होकर जो शरीरके लालन पालन में लगे रहते हैं या तत्पर रहते हैं उनको तपकी सिद्धि नहीं हो सकती आर न उन्हें उसका संवर-निर्जरारूप फल ही प्राप्त हो सकता है । अत एव । भिक्षो ! यदि तुझको रत्नत्रयकी प्राप्ति व सिद्धिकेलिये तपरूपी पर्वतको स्थिर रखना है तो इस तरहसे युक्ति और शक्तिके अनुसार काय और कषायको कुप करनेमें ही प्रवृत्त होना चाहिये जिससे कि उसमें लगी हुई ममत्वबुद्धिका सर्वथा निराकरण हो जाय । किंतु यह बात ध्यान रखनी चाहिये कि विना शरीरके स्थिर रहे तपका भी आराधन नहीं हो सकता । अत
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एव शरीरका पालन भी करना चाहिये किन्तु वह इस प्रकारसे न करना चाहिये जिससे कि तप और संयम के आराधनमें विशेष आजाय ।
जो साधु नैर्ग्रन्थ्य व्रतको प्राप्त कर चुका है उसका भी माहात्म्य शरीर में स्नेह करनेके कारण नष्ट हो जाया करता है। ऐसी शिक्षा देते हैं:
नैर्ग्रन्थ्यव्रतमास्थितोपि वपुषि विद्यन्नसह्यव्यथा, - भीरुर्जीवितविचलालसतया पञ्चत्वचेक्रीयितम् । याच दैन्यमुपेत्य विश्वमहितां न्यक्कृत्य देवीं त्रपां निर्मानो घनिनिष्ण्य संघटनयाऽस्पृश्यां विधत्ते गिरम् ॥ १४२ ॥
देव गुरु और धर्मा पुरुषोंकी साक्षीसे नैर्ग्रन्थ्य- समस्त परिग्रहके परित्यागरूप व्रतको प्राप्त करके भी जो साधु शरीर के विषय में स्नेह - राग रखता है वह अवश्य ही असा - जिनका सहन नहीं किया जा सकता ऐसे परीषद और दुःखोंसे सदा भीत रहा करता है। और इसी लिये वह जीवन और धनमें तीव्र लालसा रखकर - अत्यंत लोलुपी होकर मरणके तुल्य-मानों मृत्युका मित्र या भाई ही हो ऐसे प्रार्थनाजनित दैन्यको प्राप्त कर- दीन बनकर और अतएव अत्यंत प्रभावसे युक्त देवीके समान लज्जाका अभिभव करके अपनी जगत्पूज्य भी वाणीको अन्त्यजोंके समान दयादाक्षिण्यादिसे रहित धनियोंसे संपर्क कराकर अस्पृश्य- अनादेय बनादेता है। क्या ऐसे भिक्षुका कभी भी महत्त्व स्थिर रह सकता है ? कभी नहीं ।
भावार्थ - केवल शरीरमें स्नेह करनेके कारण निर्ग्रथ भी साधुओंका महत्त्व सर्वथा क्षीण हो जाया करता है। क्योंकि ऐसा साधु तपस्वियोंके कर्तव्य परीषहोपसर्गादिकके ऊपर विजय प्राप्त करनेका पालन नहीं कर सकता किंतु वह सदा शरीरके पालन पोषण में ही दत्तचित्त और उनके साधनों में लालसायुक्त रह सकता
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अनगार
है। और उसके लिये वह ऐसे पदार्थोकी धनियोंसे याचना करने के लिये मरणतुल्य दीनताको धारण कर उस लज्जाको भी छोड दे सकता या छोडदेता ही है जो कि देवीके समान है। जैसा कि कहा भी है कि--
लज्जां गुणौघजननी जननीमिवान्या,मत्यन्तशुद्धहदयामनुवर्तमानाः। तेजस्विनः सुखमसूनपि संत्यजन्ति, .
सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् ॥ - जो तेजस्वी अत्यंत शुद्ध हृदयवाली दूसरी माताके समान गुणोंकी खानि लज्जाका अनुसरण करनेवाले हैं और सत्यस्थितिके व्यसनी हैं वे अपने प्राणोंको सुखपूर्वक छोड़ सकते हैं किंतु प्रतिज्ञाको नहीं । इससे मालुम होता है कि लज्जा प्रभावशालिनी देवताके ही सदृश है। जिसको कि लम्पटी पुरुष दीन याचक बनकर छोडदिया करते हैं। अतएव जो साधु शरीरमें स्नेह रखते हैं वे क्रमसे उसके निमित्तसे लम्पटी दीन निर्लज्ज और धनियोंके सामने याचक बनकर अपनी वाणीका ही नहीं किन्तु अपना भी महत्व खो देते हैं ।
जो धीर और महाप्रभावशाली तथा धर्मके विषयमें निरंतर वीर रससे पूर्ण रहनेवाले हैं वे अपने उस धार्मिक आचरणमें सहायभूत शरीरकी रक्षाके लिये जिनोपदेशके अनुसार भिक्षा गोचरी चर्याके आचरणको स्वीकार करके भी यदि उसमें प्रमाद करते हैं तो वह ठीक नहीं है। इस प्रकार साघुओंको भिक्षामे प्रमाद करनेका निषेध करते हैं:
प्राची माटुंमिवापराधरचनां दृष्ट्वा स्वकार्ये वपुः, सध्रीचीनमदोऽनुरोद्धुमधुना भिक्षां जिनोपक्रमम् । आश्रौषीर्यदि धर्मवीररसिकः साधो नियोगाद्गुरो,स्तत्तच्छिद्रचरौ न किं विनयसे रागापरागग्रहौ ॥ १४३ ॥
अध्याय
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बनगार
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हे साधो ! तेने रत्नत्रयस्वरूप आत्माके साध्यभूत कार्यको जो स्वीकार किया है सो मालूम पडता है, मानों पहले-गृहस्थ अवस्थामें किये गये अनेक अपराधोंकी रचनाका मार्जन-निराकरण करनेकेलिये ही किया है। किंतु इस कार्यमें सहायक शरीर है इस बातका निश्चय करके इस समयमें, जब कि संसार शरीर और वैराग्य परिणाम विशुद्धिकी तरफ बढता चला जा रहा है, आत्मकार्यके सहकारी रूपसे निश्चित इस शरीरको उसी कार्यमें प्रयुक्त करनेकेलिये धर्मका पालन करनेमें वीर रस-सोत्साह वृत्तिसे युक्त होकर गुरु-दीक्षाचार्यकी आज्ञा नुसोर यदि श्री तीर्थकर भगवान्के उपदिष्ट स्वरूपसे युक्त भिक्षाको तेने स्वीकार कर लिया है-साधुओंके योग्य गोचरी चर्याके करनेकी प्रतिज्ञा करली है तो तू इस भिक्षारूपी छिद्र या द्वारसे आनेवाले अथवा अमुकने अमुक वस्तु बहुत अच्छी दी और अमुकने अमुक वस्तु अच्छी नहीं दी इस तरहसे संक्रांत होनेवाले रागद्वेषरूपी भूतोंका उपशमन भी क्यों नहीं करदेता ? अवश्य ही तुझको भिक्षाके विषयमें होनेवाले प्रमाद--रागद्वेषका परित्याग करना चाहिये।
भावार्थ--विभावादिकोंके द्वारा व्यक्त होनेवाले उत्साहरूप स्थायी भावको वीर रस कहते हैं। कहा मी है कि
उत्साहात्मा वीरः स त्रेधा धर्मयुद्धदानेषु ।
विषयेषु भववि तस्मिन्नक्षोभो नायकः ख्यातः ॥ धर्म युद्ध और दान इन विषयोंमें उत्साहरूप परिणामोंको वीर रस कहते हैं । अत एव इसके तीन भेद
अध्याय
- १-यह बात उत्प्रेक्षा अलंकारके द्वारा कही गई है जिसका कि लक्षण इस प्रकार बताया है कि
कल्पना काचिदौचित्याद्यत्रार्थस्य सतोन्यथा । द्योत्यते वादिभिः शब्दैरुत्प्रेक्षा सा स्मृता यथा ॥
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बनगार
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हैं । जो पुरुष इन विषयों में क्षोमरहित रहा करता है वह इस रसका नायक माना जाता है। इसके अनुसार जो धर्म--रत्नत्रयका आराधन करनेमें सदा सोत्साह रहा करता है उसको सप्तम गुणस्थानवर्ती अथवा द्रव्यकी अपेवासे अप्रमत्त संयत समझना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:--. .
णठ्ठासेसपमाओ वयगुणसीलोलिमंडिओ णाणी ।
अणुवसमगो अखवगो माणणिलीणो हु अपमत्तो ॥ नष्ट होगया है समस्त प्रमाद जिसका और व्रत गुण तथा शीलोंसे युक्त रहकर भी जो ज्ञानी उपशम या क्षपक श्रेणीका आरोहण न कर निरंतर ध्यानमें लीन रहता उसको निरनिशय अप्रमत्त समझना चाहिये ।
इस प्रकार धर्मके विषयमें वीर रस अथवा वीर चर्यासे युक्त रहनेवाले, हे सिद्धके साधन करनेमें उद्यत ! यदि तेने गुरुकी आज्ञा और आगमके अनुसार शरीरके द्वारा क्रमसे धर्मका भी सहायक समझकर भिक्षा करना स्वीकार करलिया है तो उम विषयमें होनेवाली रागद्वेषपरिणतिको भी तुझे अवश्य ही छोडना चाहिये । क्योंकि इसने भोजनमें अमुक पदार्थ अच्छा दिया, अथवा, इसने अमुक पदार्थ अच्छा नहीं दिया इस तरहके मिक्षाके निमित्तसे जो परिणाम होते हैं वे भूतावेशके समान हैं और साधुओंको उक्त उत्तम पदसे गिरानेवाले हैं।
- शरीर और आत्मामें भेद भावनाके बलसे समस्त विकल्पजालको तोड देनेवाले साधुओंके जो शुद्ध । निजात्मस्वरूपकी प्राप्ति होती है उसकी प्रशंसा करते हैं।
नीरक्षीरवदेकतां कलयतोरप्यङ्गपुंसोराचि,ञ्चिद्भावाचदि भेद एव तदलं भिन्नेषु को भिद्भमः । इत्यागृह्य परादपोह्य सकलोन्मीलद्विकल्पच्छिदा,स्वच्छेनास्खनितेन कोपि सुकृती स्वात्मानमास्तिनुते ॥ १४४ ॥
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धनगार
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अध्याय
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Sa
यद्यपि शरीर और आत्मा नीरक्षीरकी तरह परस्पर में मिलकर अभिन्न सरीखे हो रहे हैं फिर भी उनमें मेद ही प्रमाणसिद्ध है । क्योंकि शरीर अचित्-जड है और आत्मा चित् चेतन है । जिस प्रकार जल और अन परस्पर में मिल जानेपर यद्यपि एक ही मालुम पडते हैं फिर भी द्रवता और दाहकता आदि गुण भेद या लक्षणभेदकी अपेक्षा दोनोंमें भेद निश्चित ही रहता है । उसी प्रकार जडता और चेतनता हेतुसे शरीर और आत्माकी भी विभिन्नता - प्रसिद्ध है । इस प्रकार जब अभिन्न सरीखे मालुम पडनेवाले शरीर और आत्मामें भेद प्रमाणतः सिद्ध हैं और वैसा ही मालुम भी होता है तब आत्मासे सर्वथा भिन्न कलत्र पुत्र गृह परिजन आदिमें तो अभेद भ्रम हो ही किस तरह सकता है । विवेकी पुरुषको आत्मासे सर्वथा भिन्न परिग्रहमें ये मुझस्वरूप ही हैं ऐसा प्रत्यय कभी नहीं हो सकता। इस तरहसे शरीरादिक परिग्रहोंसे निजात्माकी भिन्नताका दृढ निश्चय करके और उनसे सर्वथा आत्माको दूर रखकर कोई विरला ही पुण्यात्मा समस्त उछलते हुए या उद्भूत होते हुए विकल्पों - अन्तर्जल्पसे अच्छी तरह सिक्त विचारों संकल्पोंके नष्ट होजानेके कारण अत्यंत निर्मल हुई चेतोवृत्तिके द्वारा निजात्माका अभेदरूपसे अनुभव किया करता है ।
भावार्थ - जन्मान्तरमें किये गये योगाभ्यास के बलसे संचित पुण्यकर्मका जिसके उदय हो आया है ऐसा ही कोई निकटभव्य शरीर और उससे सम्बन्ध रखनेवाले सभी परिग्रहोंसे भिन्नताका दृढ निश्चय करके एवं अ पनेको उनसे हटाकर उनका सर्वथा परित्याग कर निर्विकल्प ध्यानके द्वारा शुद्धात्मस्वरूपका अभेदरूपसे अनुभव किया करता है ।
उक्त प्रकारकी भावनाके बलसे समरसीभावके द्वारा जिनकी स्वाभाविक आत्माकी ज्योति उन्मीलित हो उठी है उन पुरुषोंके मोहकर्मके ऊपर विजय प्राप्त करनेसे जो अतिशय प्रकट होता है उसको बताते हैं। . स्वार्थेभ्यो विरमय्य सुष्ठु करणग्रामं परेभ्यः पराक्, कृत्त्वान्तःकरणं निरुध्य च चिदानन्दात्मनि स्वात्मनि ।
धर्म ०
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यस्तत्रैव निलीय नाभिसरति द्वैतान्धकारं पुन- . स्तस्योद्दाममऽसीम धाम कतमच्छिन्दत्तमः श्राम्यति ॥ १४५ ॥
बनगार
समस्त इन्द्रियोंको तत्तत् विषयोंसे भले प्रकार हटाकर और अन्तःकरणको शरीरादिक पर पदार्थोंसे पराङ्मुख कर चिदानन्दस्वरूप-ज्ञानानन्दमय निज शुद्धात्मामें रोक कर-एकाग्रतया उपयुक्त करके तथा उसीमें अत्यंत लीन होकर जो निष्पन्नयोगवाला साधु द्वैतान्धकार-सविकल्प अवस्थारूपी अन्धकारकी तरफ आभिमुख नहीं होता, शुद्धात्मस्वरूपमें लीन होजानेके कारण ' यह मैं हूं और ये पर हैं, अथवा मैं ध्याता हूं और ये ध्येय हैं' इत्यादि विकल्पों की तरफ जो प्रवृत्त नहीं होता उसका निःसीम-निरवधि या अनन्त तथा निरावरणतया प्रकाशमान तेज, ऐसा कौनसा अन्धकार है कि, जिसको नष्ट नहीं कर सकता?
भावार्थ--इन्द्रियों व मनको अपने अपने विषयोंसे हटाकर निर्विकल्पतया निज शुद्धात्मस्वरूपमें लीन होनेवाले निष्पन्नयोगीके जो स्वाभाविक आत्मिक तेज जागृत होता है वह चिरकालसे लगे हुए-अनादिकालीन अविद्या-अज्ञान या मोहके समस्त विलासोंको सर्वथा ध्वस्त करदेता है। ऐसा कोई भी मोहकर्मका अंश नहीं है कि जिसको निरसन करनेमें वह आत्मज्योति असमर्थ हो । अत एव पूर्वोक्त भावनाके निमितसे आत्मलीनता
या समरसीभावके द्वारा स्वाभाविक आत्मज्योतिके प्रकट होते ही मोहकर्मपर विजय प्राप्त होनेसे आत्माका - अपूर्व ही अतिशय प्रकाशित होने लगता है।
शुद्ध निजात्मस्वरूपकी प्राप्तिकी तरफ उन्मुख हुए आरब्धयोगीको आगे चलकर होनेवाली निष्पन्न योगकी रमणीयताकी प्राप्तिके फलकी भावनापर विचार प्रकट करते हैं:--
भावैर्वैभाविकैौ परिणतिमऽयतोऽनादिसंतानवृत्त्या, कर्मण्यैरेकलोलीभवत उपगतैः पुद्गलैस्तत्त्वतः खम् ।
अध्याय
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अनगार
। धर्म
अनादि संतानक्रमसे चले आये-जबसे संसार है तभीसे मेरे साथ सदा सन्निहित रहनेवाले -अव्युच्छिन्न प्रवाहरूपसे मेरी आत्माके साथ लगे हुए ज्ञानावरणादि कर्मके योग्य पुदलद्रव्य इस ताह श्लिष्ट हो गये मानो मैं और वे एक ही है। और इन्हीके निमित्तमे मैं मोह या रागद्वेषरूप औपाधिक-वैमाविक भावोंसे भी परिणत होने लगा। इस प्रकार पर-पुद्गलद्रव्य से कथंचित् तादात्म्यको प्राप्त हुआ औरविभावरूप परिणत हुआ मैं अब यदि तचतः आत्मस्वरूपका श्रद्धान कर और ज्ञान प्राप्त कर उपाधिरहित साम्यावस्थाको धारण कालूं । निजात्माके शुद्ध चित्स्वरूपको भले प्रकार जानकर और वैसा ही उसका श्रद्धान भी करके रागद्वेष परिणतिकी निश्छल उपरतिको प्राप्त हो जाऊं। और शुद् निजात्मस्वरूपकी तरफ इस प्रकार उन्मुख हुए - मुझ आरब्धयोगीका गम्भीर आनन्दामृत के समुद्र में विना किसी परिश्रमके - लीलामात्रमे ही यदि अवगाहन होने लगे तो मोहादिको आविष्ट चित्पर्यायोंके न रहने पर यह फलके द्वारा अनुभवमें आनेवाली पापरूपी अग्नेि किसको दग्ध करेगी? किसीको भी नहीं। क्योंकि ये पापकर्म फलके द्वारा ही अपना परिचय कराया करते हैं । रागद्वेष या मोहसे आक्रान्त तथा विभावभावरूप परिणत आत्माओंको ही सताया करते हैं। किंतु जब मैं आरब्धयोगी होकर क्रमस योगकी परा काष्ठाको प्राप्त हो स्वाभाविक चिदानन्दका अच्छी तरह अनुभव करने लगूगा उस समय मेरे ये समस्त वैभाविक भाव नष्ट हो जायगे। फिर वह पापानि किसको संतप्त कर सकेगी? किसीको भी नहीं। जब तृण या काष्ठ ही न रहेगा तब अग्नि किस चीजको जलावेगी? किसी को भी नहीं । वह स्वयं शान्त होजायगी।
भावार्थ-मुझको आत्माके विषयमें वास्तविक सम्पदर्शन व ज्ञान प्राप्त कर तथा उनके शुद्ध स्वरूपको पाकर उसी में लीन होना चाहिये जिससे कि स्वाभाविक अनन्त सुख प्राप्त हो और संसारताप नष्ट हो ।
समाधिमें आरोहण करनेकी इच्छा रखनेवाले मुमुक्षुओंको अन्तरात्माकी तरफ ही उपयुक्त रहने का उपदेश देते हैं: -
मुझको आम जिससे कि स्वानवाले मुमुक्षु
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अन. ध. ५९
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अयमधिमदबाघो भात्यहंप्रत्ययो य,स्तमनु निरवबन्धं बद्धनिर्व्याजसख्यम् । पथि चरासे मनश्चेत्तर्हि तडाम ही,
भवदवविपदो दिङमृढमभ्येषि नो चेत् ॥ १४॥ अहंप्रत्ययके द्वाग जिसका भीतर--आत्मामें प्रतिभास होता है वह आत्मा सर्वथा निर्बाध है । अनुभविताओंको 'मैं' इस शब्दके द्वारा जिसका ज्ञान होता है वही आत्मा है ऐसा यद्यपि स्वयं प्रतीत होता है फिर भी उसकी अबाधता युक्ति और आगम दोनो प्रमाणोंसे भी सिद्ध है। क्योंकि जिस पदार्थका मैं इस शब्दके द्वा रा अपने भीतर ही भान होता है वह आत्मा नहीं है इस बातको अथवा उससे भिन्न दूसरा पदार्थ है इस बातको सिद्ध करनेवाला कोई भी प्रमाण नहीं है । तथा आगममें भी कहा है कि " यत्र अहमित्यनुपरितप्रत्ययः स आस्मा"। मैं इस शब्दके द्वारा जिसका अनुपरित ज्ञान होता है वही आत्मा है । हे मन ! इस प्रकार युक्ति और आगमके द्वारा अबाध सिद्ध आत्माके साथ निश्छल मित्रता जोडकर यदि तू अस्खलित रूपसे श्रेयोमार्गमें प्रवृत्त हो तो अवश्य ही तुझको वह प्रसिद्ध स्थान प्राप्त हो जो कि अनिर्वचनीय तथा केवल अनुभवद्वारा ही गम्य है । अन्यथा-- यदि तू अन्तरात्माके साथ उपयुक्त होकर मोक्षमार्गमें प्रवृत्ति न करेगा तो दिङ्मूढ--सद्गुरुओंके उपदेशमें व्यामोहित होकर संसाररूपी दावानलकी विपत्तियोंके ही अभिमुख प्राप्त होगा।
भावार्थ-जैसे कि दावानल जिसमें जल रहा है ऐसे वनमें दिशाभूल होजानेपर मनुष्य समीचीन मार्ग में न जाकर उल्टा उस मार्गकी तरफ जाने लगे जिसमें कि दावानल जस रहा है तो अवश्य ही उसको उस दावाग्निकी विपत्तियोंसे त्रस्त होना पडेगा। उसी प्रकार यदि मुमुक्षुजन अन्तरात्माके विषयमें मूढ होकर श्रेयोमार्गमें गमन न करें तो अवश्य ही वे संसारमार्गकी तरफ अभिमुख हो जायगे और उसके तापसे विपत्र होंगे।
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अनगार
इस प्रकार आकिश्चन्य महाव्रतका पालन करनेकेलिये पूर्णतया तयार होकर प्रवृत्त होनेवाले साधुओं को और भी आवश्यकीय शिक्षाएं दी, किंतु पहलेके-गृहस्थ अवस्थाके विभ्रम संस्कारके कारण उन शिक्षानुकूल प्रवृत्तियोंके करनेमें कहीं शिथिलता न होने लगे अत एव उसके प्रति तिरस्कार भाव रखनेकेलिये मनोज्ञ और अमनोज्ञ इन्द्रियविषयोंमें रागद्वेषके परित्यागरूप पांच भावनाओंको भाते हुए प्रयत्न करनेका उपदेश देते हैं:--
यश्चार्वचारुविषयेषु निषिध्य राग,द्वेषौ निवृत्तिमधियन् मुहुरा निवर्त्यात् । ईर्ते निवर्त्यविरहादनिवृत्तिवृत्ति,
तद्धाम नौमि तमसङ्गमसङ्गसिंहम् ॥ १४८ ॥ इन्द्रियोंके विषय स्पर्श रस गन्ध वर्ण और शब्द मनान और अमनोज्ञ दोनों ही प्रकारके होते हैं । संसारी प्राणियों को मनोज्ञ विषयों में राग और अमनोज्ञ विषयोंमें द्वेष हुआ करता है । किंतु जो मुमुक्षु इन विषयों में रागद्वेषरूप प्रवृत्ति--रति अरतिको छोडकर निवर्त्य पदार्थों के रहनेतक निवृत्ति और प्रवृत्तिसे रहित आत्मस्वरूपको प्राप्त होजाता है उस निरुपलेप निग्रन्थसिंहको मैं नमस्कार करता हूं अथवा उसकी निरंतर स्तुति करता हूं।
भावार्थ:-कर्मबन्ध और उसके कारणभृत पदार्थोंको निवर्त्य कहते हैं। क्योंकि उनको आत्मासे दूर करना है । जबतक निवर्त्य रागद्वेषरूप परिणति लगी हुई है तबतक साधुओंको निवृत्ति-रागद्वेषके छोडनेका ध्यान करना चाहिये । बार बार करनेपर जब यह ध्यान अभ्यस्त होजाय तब उस आत्मपदका ध्यान करना चाहिये जो कि प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनोंमे ही रहित है । किंतु इस अविनश्वर आत्मपदका ध्यान करनेके भी प. ले जिस निवृत्तिका ध्यान करना आवश्यक है उसके विषय निवर्त्य रागद्वेष हैं जिनका कि सम्बन्ध
बध्याय
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अध्याय
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Kathakathan
बाह्य पदार्थोंसे है । अत एव मुमुक्षु साधुओं को सबसे पहले मनोज्ञ और अमनोज्ञ इन्द्रियविषयमें क्रमसे होनेवाली रागद्वेष परिणतिको छोडनेका प्रयत्न करना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:--
निवृत्तिं भावयेद्यावन्निवन्त्यं तदभावतः । प्रवृत्तिर्न निवृत्तिश्च तदेव पदमव्ययम् ॥
रागद्वेषौ प्रवृत्तिः स्यान्निवृत्तिस्तन्निषेचनम् । तीच बाह्यार्थसंद्ध तस्मात्तान् सुपरित्यजेत् ॥
निवर्त्य रहने निवृत्तिका भावन- ध्यान करना चाहिये किंतु उसके छूटजानेपर आत्मासे उस अव्यय पदका ही ध्यान करना आवश्यक है जहां न प्रवृत्ति है और न निवृत्ति । रागद्वेषको प्रवृत्ति और उसके त्यागको निवृति कहते हैं । इन दोनोंका सम्बंध बाह्य पदार्थोंसे है। मनोज्ञामनीज्ञ विषयों में ही क्रमसे रागद्वेषकी परिणति होती है अत एव सबसे पहले मुमुक्षु भिक्षुओंको इनका ही परित्याग करना चाहिये ।
इस प्रकार परिग्रह के परित्यागरूप आकिंचन्य महाव्रतका वर्णन पूर्ण हुआ । अव साधुओंके व्रत, अपनी अपनी भावनाओंके द्वारा स्थिरताको प्राप्त होकर ही उनके अभिमतको सिद्ध किया करते हैं ऐसा उपदेश देते हैं:पञ्चभिः पञ्चभिः पञ्चाप्येते ऽहिंसादयो व्रताः ।
भावनाभिः स्थिरीभूताः सतां सन्तीष्टसिद्धिदाः ॥ १४९ ॥
हिंसा झूट चोरी कुशील और परिग्रह ये पांच पाप है । इन पांचों पापों के परित्यागको
ही अहिंसादिक पांच महाव्रत कहते हैं जिनका कि पहले सविस्तर व्याख्यान किया जाचुका है। इनमेंसे प्रत्येव्रतकी पांच पांच भावनाओंका भी स्वरूप पहले लिखा जा चुका है । उन भावनाओंके द्वारा स्थिर - निश्चलताको प्राप्त होकर ही ये महाव्रत साधुओंके अभिमत अर्थको सिद्ध कर सकते हैं, अन्यथा नहीं । अत एव आत्महितैषी भिक्षुओं को उन भावनाओंमें अवश्य ही अच्छी तरहसे दृढ रहना चाहिये ।
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बच्याय
उपर्युक्त पांचो व्रतोंके महत्वका समर्थनपूर्वक, जिन हेतुओंसे ये व्रत महान् माने गये हैं उनको दिखा*ते हुए और उनकी रक्षा करने के लिये रात्रिभोजनविरतिरूप छडे अणुव्रतका भी उपदेश देते हुए यह बताते हैं कि उत्तरोत्तर अच्छी तरह किये गये अभ्यासके द्वारा इन व्रतोंके संपूर्ण करदेनेपर या होजानेपर ही साधुओंको निर्वाणरूप फल प्राप्त हो सकता है:
पञ्चैतानि महाफलानि महतां मान्यानि विष्वग्विर, त्यात्मानीति महान्ति नक्तमशनोज्झाणुव्रताग्राणि ये । प्राणित्राणमुखप्रवृत्त्युपरमानुक्रान्तिपूर्णी भव, - त्साम्याः शुद्धशो व्रतानि सकलीकुर्वन्ति निर्वान्ति ते ॥ १५० ॥
उक्त अहिंसादिक पांचो व्रतोंका महान् शब्दके साथ जो उल्लेख किया है हला यह कि इनका फल महान् है, दूसरा यह कि ये महापुरुषों को भी मान्य हैं, मस्तविरतिरूप हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
आचरितानि महद्भिर्यच्च महान्तं प्रसाधयन्त्यर्थम् । स्वयमपि महान्ति यस्मान्महाव्रतानीत्यतस्तानि ॥
उसके तीन कारण हैं । पतीसरा यह कि ये महा-स
उत्तम पुरुष इन व्रतोंका पालन करते हैं। गणधर देवादिकों को भी ये अनुष्ठेय तथा सेव्य हैं । और इंद्रादिकों द्वारा भी पूज्य हैं; क्यों कि उनकी दर्शनविशुद्धिकी अतिशयित वृद्धिमें ये कारण हैं। दूसरी बात यह कि ये महान् अर्थ - प्रयोजनको सिद्ध करते हैं । इनके निमित्तसे । अनन्तज्ञानादिक अनन्त चतुष्टय स्वरूप तथा मोक्षरूप सर्वोत्कृष्ट महान् फल प्राप्त हो सकता है। तीसरी बात यह कि ये स्वयं भी महान् हैं । स्थूल ये । क्योंकि इसके विना उनका कोई भी उक्त व्रत सुरक्षित नहीं रह सकता। रात्रिभोजन करनेसे मुनियोंको हिंसा शङ्का और आत्मविपत्ति आदि अनके दोष उपस्थित होते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
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हो या सूक्ष्म, सम्पूर्ण भेदरूप ही हिंसादिकका इनमें परित्याग किया जाता है । क्योंकि ये सकलविरतिरूप हैं। इस प्रकार पूज्यता फल और स्वरूप तीनोंमें ही महत्ता रहनेके कारण इन व्रतोंको महान् कहते हैं ।
_और भी कहा है कि - महत्त्वहेतोगुणिभिः श्रितानि महान्ति मत्त्वा निदर्शनतानि ।
महासुखज्ञाननिबन्धनानि महाव्रतानीति सतां मतानि ।। आत्मिक महत्ता प्राप्त करनेके उदेशसे गुणी पुरुष इनका आश्रय लेते हैं, देवेन्द्रादिक भी महान् समझ कर इनको नमस्कार करते हैं, तथा महानू -अनन्त सुख ज्ञानादिको ये ही उत्पन्न करनेवाले हैं। यही कारण है कि सत्पुरुष इनको महाव्रत कहते हैं । .. ऐसे इन महावतोंकी रक्षाकेलिये मुमुक्षु भिक्षुओंको छठा अणुव्रत " रात्रिभोजनत्याग " प्रधानतया पालना चाहिये । क्योंकि इसके विना उनके किसी भी व्रतकी रक्षा नहीं हो सकती । जैसा कि कहा भी है कि:
तेसिं चेव वयाणं रक्खत्थं रायभोयणणियत्ती।
अठ्ठ य पवयणमादाउ भावणाओ य सव्वाओ॥ - इन व्रतोंकी रक्षाकेलिये रात्रिभोजननिवृत्ति, तथा आठ प्रवचन माताओं (पांच समिति तीन गुप्ति) और समस्त भावनाओंका पालन करना चाहिये । रात्रिभोजनत्यागको अणुव्रत कहनेका प्रयोजन यह है कि मुनियोंके भोजनका त्याग कालकी अपेक्षा सर्वथा नहीं, एक देशरूप ही पल सकता है । रात्रीकी अपेक्षासे ही उसका सर्वथा त्याग हो सकता है और गत्रिमें ही उसकी निवृत्ति बताई है, न कि दिन में । दिनमें तो साधुजन भोजनकेलिये योग्य समयमें प्रवृत्ति कर सकते हैं। रात्रिमें ही भोजनका त्याग सो रात्रिभोजनत्याग ऐसा ही इस शब्दका अर्थ है । अत एव उसको अणुव्रत कहना चाहिये। इस अणुव्रतका भी मुनियोंको अवश्य ही पालन करना चाहि
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अध्याय
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ते पंच पिय वयाणमावज्जणं च संखाओ । आदविवत्ती अह विजरादिभत्तप्पसंगति ॥
रात्रि में भक्तपानका संग्रह करनेपर मुनियोंको जो दोष लग सकते हैं वे इस प्रकार समझने चाहिये कि- पांचो व्रतों का परित्याग, शङ्का, और आत्मविपत्ति ।
ही
भोजनका रात्रि में संग्रह तीन प्रकार से हो सकता है। एक रात्रिमें जाकर दाताके यहां भोजन ग्रहण करना । दूसरा रात्रिमें लाकर दिनमें भोजन करना । तीसरा दिनमें लाकर रात्रिमें भोजन करना। ये तीनो पक्ष अपायकर हैं । क्योंकि यदि रात्रि में भोजन के लिये भ्रमण करेगा तो हिंसा अवश्यम्भावी है। रात्रिमें प्रकाश न रहने के कारण प्राणियोंको देखा नहीं जासकता और फिर ईर्यासमितिका भी पालन नहीं हो सकता । है, तथा कोनसा स्थान पवित्र है और कौनसा अपवित्र कहां चलना चाहिये कहां रूकना दाताके यहां जाने आने का मार्ग, उसके और अपने ठहरनेका स्थान, और कहां झूठन आदिक पडी चाहिये आदि बातों का अवलोकन रात्रिमें अच्छी तरह नहीं हो सकता । न योग्य अयोग्य आहाकाही निरूपण हो सकता है । अत्यंत सूक्ष्म त्रस जीव जब कि दिनमें भी कठिनतासे ही देखे और बचाये जा सकते हैं तब रात्रिमें तो उनका परिहार हो ही किस तरह सकता है ? इस प्रकार रात्रिभोजन में प्रवृत्ति करनेवाला आहारका शोधन नहीं कर सकता और हिंसा के दोष से बच नहीं सकता । अच्छी तरह बिना परीक्षा किये ही भोजन करनेवाला एपणा समितिका भी पालन किस तरह कर सकता है ? और ऐसी - अयुक्त ए पणासमितिविषयक तथा पादविभागिके आलोचना करता हुआ वह सत्यवती भी किस तरह रह सकता है !
१ – मुनियोंकी आहोरात्रिक समीचीन चर्याको पदविभागी कहते हैं । अत एव जिसमें उसका वर्णन किया जाय उस आलोचनाको पादविभागिक कहते हैं। अच्छी तरह अपरीक्षित विषयमें एषणा प्रवृत्ति करनेवाला अपनी प्रवृत्तिकी पाद विभागिक आलोचना करनेमें सत्यव्रतका पालन किस तरह कर सकता है ?
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नगर
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यदि गृहका स्वामी सो रहा हो और उसके दिये बिना भी आहार ग्रहण कर लिया जायगा तो चोरीका भी दोष लगेगा । विद्वेष रखनेवाले कुटुम्बी अथवा अन्य विरोधी लोक अनेक प्रकारकी शङ्का करके शाके समय मार्ग में गमन करनेवाले साधुके ब्रह्मचर्यको नष्ट कर देते हैं या कर दे सकते हैं। यदि भोजनको दिनमें लाकर और अपने पात्र में ढककर रख लिया जाय और रात्रिमें उसको खाया जाय तो परिग्रहका भी दोष उपस्थित होगा । इस प्रकार रात्रि भोजन के निमिचसे हिंसा झूठ चोरी कुशील और परिग्रह ये पांचो ही पाप लगते हैं जिससे कि इनके विरोधी व्रत रक्षित नहीं रह सकते । इसके सिवाय रात्रिभोजीको “मेरे हिंसादिक दोष तो नहीं लगगये " अथवा " मेरी इस क्रियामें हिंसादि हुई या बची " ऐसी शंका लगी रहती है । और कदाचित् स्थाणु सर्प कण्टकादिकके द्वारा मरण होजाना भी संभव है। इस प्रकार रात्रिभोजन करनेसे मुनियोंको व्रतघात शंका और आत्मविपत्ति दोष उपस्थित होते हैं। अतएव उनको अपने व्रतोंकी र क्षाके लिये रात्रिभोजनत्यागरूप अणुव्रतका पालन अवश्य ही करना चाहिये ।
जो शुद्ध क्षायिक सम्यग्दृष्टि आद्य अवस्थामें होनेवाली प्राणिरक्षा प्रभृति प्रवृत्तियों के उपरितन स्थानमें किये गये उपरमकी अनुक्रांति - गुणश्रेणि संक्रमणके द्वारा अपनी साम्यावस्था - सामायिक चारित्रको पूर्ण "कर व्रतको भी संपूर्ण करदेते हैं वे ही मुमुक्षु जीवन्मुक्त अवस्थाको पाकर परम मुक्तिको भी प्राप्त कर लेते हैं ।
भावार्थ - जो रात्रिभोजन त्यागरूप अणुव्रत के द्वारा सुरक्षित रहते और उपर्युक्त तीन हेतुओं से जिनकी महत्ता सिद्ध है ऐसे वे नत आद्य अवस्था में प्रवृत्तिरूपसे ही पाले जाते हैं । क्यों जीवोंकी प्राणि रक्षा सत्यभाषण दत्तग्रहण ब्रह्मचर्य का पालन और योग्य परिग्रहके ग्रहण करने में
ही प्रवृत्ति हुआ करती है । परंतु आगे चलकर ऊपर के स्थानों में इस प्रवृत्तिकी उपरति होजाती है और गुणश्रेणीका उपसर्पण होकर क्रमसे समस्त सावद्य योगकी निवृत्तिरूप सामायिक चारित्र पूर्ण होजाता है । किन्तु जो शुद्ध क्षायिक सम्यग्दृष्टि इस सामायिकको भी सूक्ष्मसांपराय की पराकाष्ठातक पहुंचाकर यथा ख्यात चारित्ररूप परिणत कर देते हैं वे ही योगी अयोगी होकर निर्वृति प्राप्त करते हैं। क्योंकि योग अचारि
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अध्याय
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का व्यापक है। जहांतक या जहां जहां योग रहेगा वहांतक या वहां वहां अचारित्र भी रहेगा ही । जिससे कि निर्वृति प्राप्त नहीं हो सकती। अयोग गुणस्थानके अन्तिम समय में ही चारित्र पूर्ण हुआ करता है। और उसीसे मोक्ष प्राप्त हो सकती है; जैसा कि कहा भी है कि:
अयोगकेवली में ये तीन को अयोगकेवली कहते हैं: -१ का सर्वथा राहित्य |
सीलेसिं संपत्तो णिरुद्धणिस्सेसआसवो जीवो । कम्मरयविप्पक्को गयजोगो केवली होइ ॥
बातें प्राप्त होती हैं अथवा जिस जीवमें ये तीन बातें प्राप्त होजाती हैं उससंपूर्ण चारित्र के स्वामित्व की प्राप्ति, २ - समस्त कर्मास्रवोंका निरोध, ३ - कर्मरज
और भी कहा है कि —
यस्य पुण्यं च पापं च निष्फलं गलति स्वयम् । स योगी तस्य निर्वाणं न तस्य पुनरास्स्रवः ॥
जिसका पुण्य
और पाप स्वयं ही निष्फल गलजाता है- विना फल दिये ही निर्जीर्ण होजाता है। उसका पुनः परावर्तन नहीं होता अथवा फिर उसके कर्मोंका आस्रव नहीं होता। इससे सिद्ध है कि साधुओको अपने आरंभिक अवस्थाके प्रवृत्तिरूप महाव्रत सुरक्षित रखकर अभ्यासक्रमसे चारित्रकी समग्रताको पहुंचा देने चाहिये | क्योकि ऐसा करनेपर ही उन्हें निर्वृति प्राप्त हो सकती है।
सत्व गुणाधिक क्लिश्यमान और अविनयी इनमें क्रमसे मैत्री प्रमोद कारुण्य और माध्यस्थ्य भावना रखनेवालों के ये सभी व्रत अच्छी तरह दृढताको प्राप्त होजाते हैं। अत एव मुमुक्षुओंको इन चारो भावनाओंमें नियुक्त रहनेका उपदेश देते हैं:
अ. ध. ६०
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अनगार
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अध्याय
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मा भूत्कोपीह दुःखी भजतु जगदसद्धर्म शर्मेति मैलीं, ज्यायो हृत्तेषु रज्यन्नयनमधिगुणेष्वेष्विवेति प्रमोदम् | दुःखाद्रक्षेय प्रार्तान् कथमिति करुणां ब्राह्मि मामेहि शिक्षा, काऽद्रव्येष्वित्युपेक्षामपि परमपदाभ्युद्यता भावयन्तु ॥ १५१ ॥
अनंत ज्ञान अनंत दर्शन अनन्त सुख और अनन्त वीर्य । इस अनंत चतुष्टयरूप परमपदकी प्राप्ति के लिये उद्यत - अभिमुख हुए साधुओंको मैत्री प्रमोद कारुण्य और माध्यस्थ्य भावनाओंका निरन्तर चिन्तन करना चाहिये । प्राणिमात्रमें दुःखोंके उत्पन्न न होनेकी आकांक्षा रखनेको मैत्री, अपने से अधिक गुणवालोंको देखकर हर्षित होनेरूप मनोरागको प्रमोद, दुःखोंसे पीडित प्राणियोंके अभ्युद्धार करनेकी बुद्धिको कारुण्य, और निर्गुण या विरुद्ध व्यक्तियोंमें रागद्वेषके प्रकट न करनेको माध्यस्थ्य कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
कायेन मनसा वाचा परा सर्वत्र देहिनि । अदुःखजननी वृत्तिर्मैत्री मैत्रीविदां मता ! तपोगुणाधिके पुंसि प्रश्रयाश्रयनिर्भरः । जायमानो मनोरागः प्रमोदो विदुषां मतः ॥ दीनाभ्युद्धरणे बुद्धिः कारुण्यं करुणात्मनाम् । हर्षामत्रोज्झता वृत्तिर्माध्यस्थ्यं निर्गुणात्मनि ॥
मन वचन और कायके
द्वारा संसारके सभी प्राणियोंके विषय में ऐसी प्रवृत्ति करनेको, जिससे किसीको भी दुःख उत्पन्न न हो, मैत्री कहते हैं। तप या दूसरे गुण सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र आदिक जिसमें अधिक पाये जाय ऐसे पुरुषके विषयमें होनेवाले उस मनोरागको प्रमोद कहते हैं जिससे कि उस व्यक्तिके विषय में प्रति भक्ति या विनय उत्पन्न हो; अथवा उनको अपने ऊपर प्रसन्न करने या उनके अनुकूल व्यवहार करने
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अनगार
तथा उन जैसा होनेका भाव जागृत हो जाय । दुःखी और पीडित प्राणियोंके अभ्युद्धारकी बुद्धिको कारुण्य कहते हैं । निर्गुण-मिथ्यादृष्टियोंके विषयमें हर्षामर्षरहित प्रवृत्तिको माध्यस्थ्य कहते हैं।
ये भावनाएं किस प्रकार भाई जाती हैं उसका स्वरूप नीचे लिखे मृजब है:-" संसारमें कोई भी प्राणी दुख-दुःख और उसके कारणभूत पापसे युक्त तथा संतप्त न हो, विश्वमात्रको निश्छल-पारमार्थिक कल्याण -आत्मिक सुख प्राप्त हो" ऐसे परिणामोंको मैत्री कहते हैं। जैसा कि कहा है कि:--
शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः ।
दोषाः प्रयान्तु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ।। समस्त जगतको कल्याणकी प्राप्ति हो, सभी प्राणी दूसरोंके हितमें निरन्तर रत रहें, संसारमेंसे दोष नष्ट होजाय, और सभी जीवोंको सर्वत्र और सर्वदा सुखकी प्राप्ति हो । तथाच
मा कार्षीत् कोपि पापानि मा च भूत्कोपि दुःखितः ।
मुच्यतां जगदप्येषा मतिमैत्री निगद्यते ।। ___ संसारमें कोई भी जीव पाप न करे और न कोई दुःखोंसे उत्पीडित हो । समस्त जगत् निवृति प्राप्त करे । ऐसी मतिको मैत्री कहते हैं।
पुरोवर्ती-दृश्यमान गुणाधिक पुरुषोमें अनुरक्त होनेवाले चक्षुओंकी तरह देशविप्रकृष्ट और कालविप्रकृष्टकेवल स्मृतिपश्वको प्राप्त हुए गुणोत्कृष्ट व्यक्तियोंके विषयमें अनुरक्त होनेवाला ही मन प्रशस्यतर समझना चाहिये। ऐसे सद्भावकोंको-इन प्रत्यक्षमें उपस्थित गुणशालियोंको देखकर मेरे नेत्र सफल होगये, और उन परोक्ष रत्नत्रयधारक पुनीत महात्माओंका स्मरण कर मेरा मन अत्यंत पवित्र होगया । इस तरहके विचार करने या होनेको
१--इसी तरहके अन्यत्र भी श्लोक हैं।
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बनगार
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प्रमोद कहते हैं । इसके होनेपर अन्तरङ्गमें जागृत हो उठनेवाली भक्ति विकसित होजानेवाले मुखादिकके द्वारा अ. भिव्यक्त होजाया करती है । इस विषयमें कहा है कि:
अपास्ताशेषदोषाणां वस्तुतत्त्वावलोकिनाम् ।
गुणेषु पक्षपातो यः स प्रमोदः प्रकीर्तितः ।। समस्त दोषोंको दूर कर वस्तुतत्वका अवलोकन करनेवालोंके ज्ञानदर्शनादिक गुणोंमें पक्षपात करनेको प्रमोद कहते हैं।
क्लेश भोगते हुए इन प्राणियों की मैं रथा किस तरह करूं ।-इन संक्लिष्ट जीवोंके दुःखोंका मैं निवारण किस तरहसे करदं, ऐसे सद्भाव रखने या विचार करने को करुणा कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
दीनेष्वार्तेषु भीतेषु याचमानेषु जीवितम् ।
. . प्रतीकारपरा बुद्धिः कारुण्यमभिधीयते ॥ दीन दुःखी भीत और जीवन की याचना करनेवाले-अभयके प्रार्थी जीवोंके उन दुःखोंका प्रतकिार कर नेमें तत्पर रहनेवाली बुद्धिको कारुण्य कहते हैं।
सत्पुरुषों के द्वारा जिनमें स्थापित किये गये गुण संक्रांत होजाते हैं उनको द्रव्यपात्र कहते हैं। किंतु जो इस लक्षणसे शून्य हैं और जिन्होंने तत्वार्थका श्रवण तथा ग्रहण करके श्रोतापने या पात्रताके गुणका संपादन नहीं किया है ऐसे व्यक्तियों को दीगई कोई भी शिक्षा फलवती नहीं हो सकती। अत एव हे ब्राझि ! वा देवि! आओ, साम्यभावनामें तत्पर मेरी आत्माको प्राप्त करो । अपना कार्य छोडकर मौनावस्थाको धारण करो । इस प्रकार साधुओंको अपात्रोंके विषयमें रागद्वेष छोडकर उपेक्षा-माध्यस्थ्यको स्वीकार कर मौन धारण करना चाहिये। कहा भी है कि:
क्ररकर्मसु निःशकं देवतागुरुनिन्दिषु । । आत्मशंसिषु योवेक्षा तन्माध्यस्थ्यमुदीरितम् ॥
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क्रूर कर्म करनेवाले, निःशङ्कहोकर देवता और गुरुओंकी निन्दा करनेवाले, तथा अपनी प्रशंसा करनेवालोंके साथ उपेक्षा-रागद्वेषरहित प्रवृत्ति-मौन धारणादि करनेको माध्यस्थ्य कहते हैं ।
इस प्रकार साधुओंको इन भावनाओं के द्वारा अपने उपर्युक्त महावत अच्छी तरह दृढ बनादेने चाहिये जिससे कि मुक्तिरूप फलको वे उत्पन्न करसकें ।
इन भावनाओंके सिवाय मोक्षशास्त्रमें " हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ” और “ दुःखमेव वा", इन दोनो सूत्रोंके द्वारा समस्त व्रतोंमें व्यापक-सामान्यतः सभी व्रतोंकेलिये उपयोगी और भी जिन भावनाओंका उपदेश दिया है उनको भी हम प्रत्येक व्रतके साथ पहिले दिखाचुके हैं । अत एव यहांपर उनके वर्णन करनेकी आवश्यकता नहीं है।
अव:
“अबती व्रतमादाय व्रती ज्ञानपरायणः । परात्मबुद्धिसंपन्नः स्वयमेष परो भवेत् ॥"
जो अवती हैं उनको व्रत स्वीकार करके और व्रती होनेपर ज्ञान-श्रुतका अभ्यास करके, तथा ज्ञानपरायण होजानेपर परमात्मध्यानसे संपन्न होकर मुमुक्षुओंको स्वयं ही परमात्मरूप होजाना चाहिये । इस वचनके अनुसार जो मोक्षमार्गमें विहार करनेकी प्रतिज्ञा कर मुनिपदको स्वीकार कर उक्त महाव्रतोंका निर्वाह करनेमें तत्पर हैं अथवा उनका निर्वहण करचुके हैं उनको मैत्री आदि भावनाओं तथा स्वाध्याय और व्यवहार निश्चयरूप ध्यानके करनेका फल बताते हुए इन विषयोंमें भी उपयुक्त होनेकेलिये सावधान करते हैं:--
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मैत्र्याद्यभ्यसनात् प्रसद्य समयादावेद्य युक्त्याञ्चितात्.
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यत्किचिद्रुचितं चिरं समतया स्मृत्त्वातिसाम्योन्मुखम् । ध्यात्त्वार्हन्तमुतस्विदेकमितरेष्वत्यन्तशुद्ध मनः,
सिद्धं ध्यायदहंमहोमयमहो स्याद्यस्य सिद्धः स वै ॥ १५२ ॥ ऊपर जिन मैत्री आदिक भावनाओं के विषयमें वर्णन किया गया है उनके विषयमें कहा है कि:-...
, एता मुनिजनानन्दसुधास्यन्दैकचन्द्रिकाः।
ध्वस्तरागादिसक्लेशा लोकाग्रपथदीपिकाः ।। ये भावनाएं मुनिजनोंकेलिये आनन्दामृतकी वर्षा या सिञ्चन करनेवाली अपूर्व चन्द्रिकाके समान हैं, रागादिक संक्लेशपरिणामोंको ध्वस्त करनेवाली और मोक्षमार्गको प्रकाशित करनेकेलिये दीपिकाके समान हैं। अत एव इन भावनाओंका अभ्यास करके अपनेको अप्रशस्त रागद्वेष कषायसे रहित कर संप्रदायके अविच्छेद और प्रत्यक्ष अनुमान प्रमाणादिक हेतुओंसे अनुगृहीत-पूजित आगमके अनुसार जीवादिक ध्येय व याथात्म्यरूपसे निर्णय-श्रद्धान कर रागद्वेषके अविषय किंतु उस श्रद्धाके विषयभूत किसी भी अनियत चेतन या अचेतन पदार्थका चिरकालतक-जबतक परमौदासीन्यकी योग्यता प्राप्त न हो जाय तबतक स्मरण-ध्यान करना चाहिये । जैसा कि कहा भी है किः
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अध्याय
यत्रैवाहितधीः पुंसः श्रद्धा तत्रैव जायते । यत्रैव जायते श्रद्धा चित्तं तत्रैव लीयते ।।
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जिस विषयमें मनुष्य अपनी बुद्धिको उपयुक्त किया करता है उसी विषयमें उसकी श्रद्धा होती है, उसी विषयमें उसका चित्त लीन हुआ करता है।
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और भी कहा है कि:
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किमत्र बहुनोक्तेन ज्ञात्वा श्रद्धाय तत्त्वतः। ध्येयं समस्तमप्येतन्माध्यस्थ्य तत्र बिभ्रता ॥
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अधिक क्या कहें. सभी पदार्थोंको याथात्म्यरूपसे जानकर और उनका श्रद्धान कर उनमें माध्यस्थ्यको धारण करनेवाले साधुओंको उन सभी पदार्थों का ध्यान करना चाहिये ।
इस प्रकार चेतन या अचेतन किसी भी पदार्थका ध्यान मुमुक्षुओंको अपनेको-निजात्मम्वरूपको परमादासन्यि परिणामकी तरफ उन्मुख-प्रयत्नपर करना चाहिये । और ऐमा होकर अहंत-जीवन्मुक्त भगवान्का अथवा आचार्य उपाध्याय साधु इन तीनोंमेंसे किसी भी एकका एकाग्रतया ध्मान करना चाहिये । इसपर पुनः पुनः ध्यान करके और परमौदासीन्यस्वरूप परिणत होकर परममुक्त श्रीसिद्ध भगवान्का एकाग्रतया ध्यान करनेमें रत होना चाहिये । कहा भी है किः
सति हि ज्ञातरि ज्ञेयं ध्येयतां प्रतिपद्यते । तती ज्ञानस्वरूपोयमात्मा ध्येयतमः स्मृतः ।। तत्रापि तत्त्वतः पंच ध्यातव्याः परमेष्ठिनः । चत्वारः सकलास्तेषु सिद्धस्वामी तु निष्कलः ।।
अध्याय
जिस समय ज्ञाता ज्ञेयविषयोंकी तरफ प्रवृत्त होता है उस समय उसके सभी ज्ञेय पदार्थ ध्येय होजाते हैं। किंतु इसके बाद होनेवाला यह ज्ञानस्वरूप आत्मा ही प्रशस्त ध्येय मानागया है। और उसमें भी पंचपरमेष्ठी ही वस्तुत. ध्येय समझने चाहिये। जिनमेंसे कि चार अर्हन्त आचार्य उपाध्याय और साधुपरमेष्ठी तो सश रीर ध्येय हैं और एक सिद्ध परमेष्ठी अशरीर ध्येय हैं।
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बनगार
इस क्रमसे ध्यान करते करते योगियोंका मन जिस आत्मज्योतिका वेवेदन करते हैं तन्मय होजाता है। जैसा कि कहा भी है किः
लवणं व सलिलजोए झाणे चित्तं विलीयए जस्स ।
तस्स सुहासुहडहणो अप्पा अणलो पयासेइ ॥ जिस प्रकार नमककी डली पान के सम्बन्धसे गलकर पानीरूप ही होजाती है उसी प्रकार जिस सांधुका मन ध्यानमें लीन होकर ध्येयरूप ही होजाता है उसके वह आत्मारूप अग्नि प्रकाशित होती है जो कि शुभ और अशुभ अथवा सुख और असुख तथा उनके कारणोंको जलाकर भस्म कर देती है।
हे महाव्रतोंके पालन करनेमें उद्यत मुने ! जिस साधुका मन इस प्रकारके आत्मतेजोमय स्वरूपको प्राप्त कर चुका है, निश्चयसे उसी साधुको सिद्ध समझना चाहिये । वह शुद्धनिश्चयवादियोंमें, अच्छी तरह धारण किये गये महाव्रतोंमें निष्णात होजानेके कारण प्रसिद्ध होजाता है । कहा है कि:
स च मुक्तिहेतुरिद्धो ध्याने यस्मादवाप्यते द्विविधोपि ।
तस्मादभ्यस्यन्तु ध्यानं सुधियः सदाप्यपास्यालस्यम् । आगमप्रसिद्ध दोनो ही प्रकारके मोक्षमार्गकी पूर्णतया प्राप्ति ध्यानमें अथवा उसके द्वारा ही हो सकती है । अत एव विवेकियोंको आलस्यगहित होकर निरन्तर उस ध्यानका ही अभ्यास करना चाहिये ।
अथवा पूर्वोक्त प्रकारसे शुद्धस्वरूपपरिणत ध्याताको निश्चयसे भावोंकी अपेक्षा सिद्ध-परममुक्त ही समझना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
परिणमते येनात्मा भावेन स तेन तन्मयो भवति । अर्हद्धथानाविष्टो भावाईन् स्यात् स्वयं तस्मात् ।।
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अनगार
धर्म.
जो आत्मा जिस रूपसे परिणत होता है-जिस विषयका ध्यान करता है वह उस ध्यानके द्वारा तन्मय होजाता है। यही कारण है कि अर्हन्तके ध्यानमें आविष्ट आत्मा स्वयं भावतः अर्हन हो जाता है । और भी कहा है कि
येन भावेन यद्पं ध्यायत्यात्मानमात्मवित् ।
तेन तन्मयतां याति सोपाधिः स्फटिको यथा ॥ जिस प्रकार स्फटिकके पीछे जैसी उपाधि लगाई जाय वह वैसा ही हो जाता है उसी प्रकार आत्मज्ञानी साधु जिस भावके द्वारा अपनी आत्माका जिस रूपसे ध्यान करता है उस भावके द्वारा वह उसी स्वरूप हो जाता है।
भावार्थ -साधुओंको मैत्री आदि भावनाओंके द्वारा रागद्वेषरहित होकर युक्तियुक्त आगमके अनु सार जीवादिक वस्तुओंका यथावत् श्रद्धान करना चाहिये । और उसके विषयभूत पदार्थोंका समतापूर्वक परमोदासीन्य योग्यता प्राप्त होनेतक ध्यान करना चाहिये । इसके बाद सकल परमेष्ठीका और अन्तमें सिद्ध भगवान्का ध्यान करना चाहिये । जिसके बलसे कि स्वयं सिद्धस्वरूपकी प्राप्ति हो जाय ।
इस प्रकार महाव्रतोंका और उनके विशेष सामान्य भावनाओं तथा रात्रिभोजनत्यागरूप परिकरोंका निरूपण किया । अब गुप्ति और समितिका व्याख्यान करना चाहते हैं । क्योकि इस अध्यायकी आदिमें सम्यक्चारित्ररूपी छायापक्षका व्रतोंको प्रकाण्ड, गुप्तियोंको अग्रशाखा और समितियों को उपशाखा लिखा जा चुका है। अत एव प्रकाण्डबतवर्णनके बाद गुप्ति और समितिका वर्णन क्रमप्राप्त है। तीन गुमि और पांच समिति इनको आगममें प्रवचनमाता कहा है। ऐसा क्यों कहा है इस बातकी उपजत्ति जताते हुए जलायत अक्षुओंको उनकी आराध्यताका उपदेश देते है:
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अहिंसा पञ्चात्म व्रतमथ यताङ्गं जनयितु,
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सुवृत्तं पातुं वा विमलयितुमम्बा श्रुतविदः । विदुस्तिस्रो गुप्तीरपि च समितीः पंच तदिमाः,
श्रयन्त्विष्टायाष्टौ प्रवचनसवित्रीब्रतपराः ॥ १५३ ॥ सावद्यकर्मसे विरत रहनेवाले अथवा योगानुष्ठान करनेकेलिये प्रवृत्ति करनेवाले साधुओंका शरीर ही जिसका शरीर है ऐसे अहिंसारूप अथवा अहिंसाप्रभृति पांच प्रकारके व्रतरूपी समीचीन चारित्रको उत्पन्न करने केलिये तथा सदा निर्मल बनाये रखनेकेलिये आगमके जाननेवाले आचार्य तीन गुप्तियों और पांच समितियोंको माता समझते हैं। अत एव उक्त व्रतोंमें निष्ठा रखनेवाले अथवा पूर्णतया पालन करनेकेलिये तत्परता रखनेवाले मुमुक्षुओंको अपना आभिमत प्रयोजन सिद्ध करनेकेलिये गुप्तिसमितिरूप आठो प्रवचनमाताओंका जो कि रत्नत्रयरूप प्रवचनकी जननी हैं अवश्य ही आश्रय लेना चाहिये, आराधन करना चाहिये ।
भावार्थ-संतान के प्रति माताके मुख्यतया तीन काम हुआ करते हैं, १ प्रसव, २ पालन, और ३ शोधन । संतानशरीरके उत्पन्न करनेका नाम प्रसव है तथा आपत्तिकर या हानिकर विषयोंसे उसके बचाव रखने एवं पोषक पदार्थोंके द्वारा पुष्टिलाभ करानेको पालन, और अन्तरङ्ग दोषोंको दूर कर शिक्षाभ्यासादिके द्वारा गुण उत्पन्न करनेको शोधन कहते हैं। जिस प्रकार माता अपनी संतानके प्रति इन तीनों कर्तव्योंका पालन करती है, उसी प्रकार गुप्ति और समिति भी उक्त व्रतोंके प्रति ये तीनो ही काम पूरे किया करती हैं । अत एव आगममें इनको माता कहा है । योगियोंका शरीर ही व्रतोंका शरीर है, उसको ये उत्पन्न करती हैं और पालन तथा नैर्मल्यके द्वारा उनको पुष्ट तथा समृद्ध बनाती हैं । अत एव उक्त व्रतोंके पालन करनेवालेको उचित है कि वह इष्टसिद्धिकेलिये इन आठ माताओंका-३ गुप्ति और ५ समितिका आराधन करे । क्योंकि ये रत्नत्रयकी जननी हैं।
गुप्तिका सामान्य लक्षण बताते हैं:-- गोप्तुं रत्नत्रयात्मानं स्वात्मानं प्रतिपक्षतः ।
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पापयोगान्निगृह्णीयाल्लोकपंक्त्यादिनिस्पृहः ॥ १५४ ॥
मिथ्यादर्शन प्रभृति जो तीन प्रकारके कर्मबन्धके कारण बताये हैं वे आत्माके प्रतिपक्षी हैं। उनसे - रत्नत्रयस्वरूप अपनी आत्माको सुरक्षित रखनेकेलिये लोकपूजा लाभ ख्याति आदि विषयोंमें स्पृहा न रखकर व्रतोद्यत साधुको षापयोम - व्यवहार नयसे पापकर्मके कारण और निश्चय नयसे शुभाशुभ कर्मोंके आत्रका कारण होनेसे निन्द्य मनवचनकायके व्यापारका निग्रह करना चाहिये ।
भावार्थ -- मनवचनकाय के द्वारा होनेवाले आत्मप्रदेशपरिस्पन्दरूप योग के समीचीन निग्रहको योगनिग्रह कहते हैं। जैसा कि आगभमें भी कहा है कि
- वाक्कायचित्तजानेकसावद्यप्रतिषेधकम् - त्रियोगरोधकं वा स्याद्यत् तद् गुप्तित्रयं मतम् ॥
मन वचन और कायके द्वारा होनेवाले अनेक सावद्य कर्मोंके रोकने को ही गुप्ति कहते हैं । अत एव गुप्ति तीन प्रकारकी बताई है – मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, और कायगुप्ति । मोक्षशास्त्रमें भी कहा है कि " म्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः "। यहांपर समीचीनताका अर्थ यही है कि लोकपूजादिक में स्पृहा न रखकर और रत्नत्रय अथवा तत्स्वरूप आत्माकी प्रतिपक्षियोंसे रक्षा करनेकेलिये । क्योंकि इस प्रकारसे किया गया ही योगनिग्रह मुमुक्षुओंके लिये इष्टका साधक और अत एव समीचीन हो सकता है, अन्यथा नहीं । व्यवहार नयसे जो पापकर्मके संचयका कारण है उसको किन्तु निश्चय नयसे योगमात्रको आचार्योंने निन्द्य कहा है ।
उपर्युक्त गुप्तियों का पालन करनेकेलिये दृष्टान्त देकर साधुओं को सावधान करते हैं:प्राकारपरिखावप्रैः पुरवद्रत्नभासुरम् ।
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पायादपायादात्मानं मनोवाक्कायगुप्तिभि: ॥ १५५ ॥
जिस प्रकार राजा रत्नों-तत्तजातिके उत्कृष्ट पदार्थोंसे भासुर - शोभायमान अपने नगरकी, उसके अभ्युदयको नष्ट करदेनेवाले अपायों से प्राकार परिखा और वप्रके द्वारा रक्षा किया करता है उसी प्रकार व्रतियो सम्यग्दर्शन प्रभृति रत्नोंसे भासुर - देदीप्यमान अपनी आत्माकी रत्नत्रयके विघातक अपायोंसे मनोगुप्ति वचनगुप्ति और काय गुप्तिके द्वारा रक्षा करनी चाहिये ।
भावार्थ -- परिखा शब्दका अर्थ खाई है, जो कि नगर के चारो तरफ कृत्रिम नदीके रूपमें बनाई जाती है । इसके भीतर किन्तु नगर के चारो तरफ जो परकोटा बनाया जाता है उसको प्राकार कहते हैं । इसी प्रकार खाई बाहिर किन्तु नगरके चारो तरफ जो धूलिका परकोटा बनाया जाता है उसको वप्र कहते हैं। जिस प्रकार इन तीनो उपायोंसे राजधानीके अभ्युदयकी रक्षा होती है उसी प्रकार तीनो गुप्तियोंसे आत्मा के रत्नत्रयकी रक्षा हुआ करती है । अत एव राजाओंके समान व्रतियों को भी क्रमसे प्राकार परिखा और वप्रके तुल्य मनोगुप्ति और का गुप्तिके धारण करनेमें अवश्य ही प्रयत्न करना चाहिये ।
मनोगुप्ति आदिका विशेष लक्षण बताते हैं:
रागादित्यागरूपामुत समयसमभ्याससद्ध्यानभूतां, चेतोगुप्तिं दुरुक्तित्यजनतनुमवाग्लक्षणां वोक्तिगुप्तिम् । कायोत्सर्ग स्वभावां विशररत चुरापोह देहामनीहा
कायां वा काय गुप्तिं समदृगनुपतन्पाप्मना लिप्यते न ॥ १५६ ॥
जीवन और मरणप्रभृति सभी हेय और उपादेय पदार्थों के विषय में समान बुद्धि रखनेवाला अथवा
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SPECIALGADDESS
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उनका यथावत् श्रद्धान करनेवाला वह साधु ज्ञानावरणादिक पापकर्मों से कभी भी लिप्त नहीं होता जो कि तीनो गुप्तियों का निरन्तर पालन किया करता है। इन गुप्तियों का स्वरूप इस प्रकार है:
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रागद्वेष कषायोंके और मोहके अभावको, यद्वा विनयपूर्वक समयका अच्छी तरह अभ्यास करनेको, अथवा समीचीन ध्यानको मनोगुप्ति कहते हैं। समय तीन प्रकारका बताया है-- शब्दसमय, अर्थसमय, और ज्ञानसमय जिसका कि अर्थ क्रमसे वाचक वाच्य और प्रत्यय होता है। इस विषय में एक जगह कहा है कि:
विहाय सर्वसंकल्पान् रागद्वेषावलम्बितान् । स्वाधीनं कुर्वतश्वेतः समत्वे सुप्रतिष्ठितम् ॥
सिद्धान्तसूत्र विन्यासे शश्वत् प्रेरयतोथवा । भवत्यविकला नाम मनोगुप्तिर्मनीषिणः ||
• रागद्वेष के निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले समस्त संकल्प विकल्पोंको छोडकर समताभावमें स्थिर होजाने वाले अपने मनको जो व्यक्ति अपने अधीन वशमें करलेता है, अथवा सिद्धान्तकी सूत्ररचना के विषयमें निरन्तर ही जो अपने मनको लगाता रहता है उसी विचारशील पुरुषके परिपूर्ण मनोगुप्ति पल सकती है।
कठोर वचनादिकके छोडदेने को अथवा मौन धारण करनेको वचनगुप्ति कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
साधुसंवृतवाग्वृत्तेमनारूढस्य वा मुनेः ।
संज्ञादिपरिहारेण वाग्गुप्तिः स्यान्महामतेः ॥
जो महामति मुनि संज्ञा- -इशारे आदिको छोडकर अपनी वचनप्रवृत्तिको अच्छी तरह संवरण करलेता है अथवा मौन धारण करलेता है उसीके वचनगुप्ति हो सकती या कही जा सकती है ।
NARAMRI SATSA
धर्म
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बनमार
धर्म
शरीरमें ममत्वबुद्धिके परित्यागरूप कायोत्सर्गको, अथवा हिंसा मैथुन और चोरी इन पापोंसे दूर रहने को, यद्वा समस्त शारीरिक चेष्टाओंकी निवृत्तिको कायगुप्ति कहते हैं । जैसा कि कहा भी है कि:-- -
· स्थिरीकृतशरीरस्य पर्यकं संश्रितस्य वा ।
परीषहप्रपातेपि कायगुप्तिर्मता मुनेः ॥ अत्यंत परीषहोंके आ उपस्थित होनेपर भी जो अपने शरीरको स्थिर बनाये रखता है अथवा पर्यकासनमें निश्चल रहता है-जो कायोत्सर्ग अथवा पर्यङ्कासनसे विचलित नहीं होता उस साधुके कायगुप्ति कही जाती है। और भी कहा है कि:
कायक्रियानिवृत्तिः कायोत्सर्गः शरीरके गुप्तिः। .
हिंसादिनिवृत्तिर्वा शरीरगुप्तिः समुरिष्टा ॥ शारीरिक क्रियाओंके परित्याग अथवा कायोत्सर्गको कायगुप्ति कहते हैं। यद्वा हिंसादिक पापोंकी निवृत्तिको मी कायगुप्ति कहते हैं।
वस्तुतः त्रिगुप्तियुक्तका स्वरूप बताकर उसीके उत्कृष्टतया संवर और निर्जरा हो सकती है ऐसा उपदेश देते हैं:
लुप्तयोगस्त्रिगुप्तोऽर्थात्तस्यैवापूर्वमण्वपि ।
कर्मास्त्रवति नोपात्तं निष्फलं गलति स्वयम् ॥ १५७ ॥ जिसका मानसिक वाचिक और कायिक तीनो ही प्रकारका व्यापार लुप्त हो चुका है-जो तीनो ही प्रकारके योगोंसे सर्वथा रहित हो चुका है वही आत्मा वस्तुतः गुप्तित्रयरूप परिणत समझना चाहिये। ऐसे
अध्याय
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त्रिगुप्त आत्माके एक परमाणुमात्र भी नवीन कर्मयोग-पुद्गलद्रव्यका आस्रव नहीं होता। और बिना किसी प्रकारका प्रयत्न किये ही पूर्वसश्चित कर्म अपना फल न देकर ही आत्मासे सम्बन्ध छोडजाते हैं।
.अनगार
१८७
भावार्थ- उपर्युक्त तीनों प्रकारकी योगपरिणति जिसकी सर्वथा नष्ट हो चुकी है उसीको वस्तुतः त्रिगुप्तिका धारक समझना चाहिये और उसीके परमसंवर तथा परमनिर्जरा हो सकती है या हुआ करती है ।। सिद्ध हुए योग-ध्यानके आश्चर्यजनक माहात्म्यको प्रकट करते हैं: -
अहो योगस्य माहात्म्यं यस्मिन् सिद्धेऽस्ततत्पथः ।
पापान्मुकः पुमाल्लब्धस्वात्मा नित्यं प्रमोदते ॥ १५८॥ जिस योग-ध्यानके सिद्ध होजानेपर जीव पापकर्मों के आने के मार्गका सर्वथा निरोध कर पूर्वसञ्चित पापकर्मोंसे भी सर्वथा रहित हो निज शुद्ध स्वरूपको प्राप्त कर अनन्त कालतक निरन्तर आत्मिक परमानन्दपदका अनुभव करता है, अहो उसके आश्चर्यकारी माहात्म्यका कौन वर्णन कर सकता है।
भावार्थ- परमसंवर सम्पूर्ण निर्जरा और परममुक्ति इन तीन लोकोत्तर तत्त्वोंकी प्राप्ति ध्यानके निमित्तसे ही हो सकती है। अत एव उसका माहात्म्य भी लोकोत्तर ही समझना चाहिये । यहाँपर पापशब्दसे सभी कोका ग्रहण किया है । क्योंकि निश्चय नयसे देखा जाय तो सभी कर्म आत्माके प्रतिपक्षी हैं और संसाररूप अथवा उसके कारण हैं। तथा संसारका अभाव हो जानेपर जो जीवको निज शुद्धात्मस्वरूपकी प्राप्ति होती है उसको मोक्ष कहते हैं । इसके कारण परमसंवर और निर्जरा हैं जिनकी कि सिद्धि उक्त ध्यानके द्वारा ही हो सकती है। यह ध्यान अप्रमत्त संयत गुणस्थानके प्रथम समयसे लेकर अयोगकेवलि गुणस्थानके प्रथम समय को प्राप्त कर क्रमसे व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यानरूप हो जाता है। यहींपर इसकी निष्पन्नता होती है और लोकोत्तर माहात्म्य प्रकट होता है।
अध्याय |
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मनोगुप्तिके अतीचारोंको बताते हैं:रागाधनुवृत्तिा शब्दार्थज्ञानवैपरीत्यं वा । दुष्प्रणिधानं वा स्थान्मलों यथास्वं मनोगुप्तेः ॥ १५९ ॥
बनमार
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पहले गुप्तियोंका विशेष लक्षण बताते हुए मनोगुप्तिका स्वरूप तीन प्रकारसे बताया जा चुका है । १-रागादिकके त्यागरूप, २ समयके अभ्यासरूप, और ३ रा समीचीन ध्यानरूप । इन्ही ३ प्रकारोंको ध्यानमें रखकर यहांपर मनोगुप्तिके क्रमसे तीन प्रकारके.अतीचार बताते हैं।
उस आत्मपरिणतिको जिसका कि रागद्वेषरूप कषाय तथा मोहरूप परिणाम अनुगमन करते हैं मनोगुप्तिका पहले लक्षणकी अपेक्षासे अतीचार समझना चाहिये । किंतु यह अतीचार उसी अवस्थामें कहा जासकता है जब कि मनोगुप्तिकी अपेक्षा रखते हुए इससे उसके एकदेशका ही भङ्ग हो। क्योंकि अंशभङ्गका ही नाम अाचार है । अतएव यह बात आगेके अतीचारोंके विषयमें भी ध्यानमें रखनी चाहिये ।
दूसरे लक्षणकी अपेक्षासे शब्दार्थज्ञानके वैपरीत्यको अतीचार बताया है । यह कई प्रकारसे होता है किन्तु सामान्यसे इसके तीन भेद हैं । शब्दवैपरीत्य, अर्थवैपरीत्य और ज्ञानवैपरीत्य । व्याकरणशास्त्रके विरोधको अथवा विवक्षित पदार्थक अन्यथारूपसे प्रकाशित करनेको शब्दवैपरीत्य कहते हैं । सामान्यविशेषात्मक आभिधेय वस्तुका नाम अर्थ है । अत एव सामान्यमात्र अथवा विशेषमात्र यद्वा दोनोंके स्वतन्त्र माननेको अर्थवैपरीत्य कहते हैं। जीवादिक द्रव्योंका जैसा स्वरूप बताया गया है वैसा न मानकर अन्यथा मानना इसको भी अर्थवैपरीत्य कहते हैं । शब्द अर्थ अथवा दोनोंके ही विपरीत प्रतिभासका नाम ज्ञानवैपरीत्य है।
अध्याय
तीसरे लक्षणकी अपेक्षासे आरौिद्रध्यानको अथवा समीचीन विषयमें उसके न लगानेको अतीचार कहा
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अनगार
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है। इस प्रकार मनोगुप्तिके लक्षणभेदकी अपेक्षासे तीन प्रकारके अतीर बताये हैं। किन्तु इतना अवश्य समझलेना चाहिये कि ऐसी कोई भी क्रिया अथवा परिणाम मनोगुप्ति के अतीचारोंमें ही परिगणित होंगे जो कि अपेक्षाविशेषके अनुसार मनोमुप्तिके आंशिक भंगका कारण हों। क्योंकि अंशभंगका ही नाम अतीचार है। यह बात आगेके अतचिारोंके विषयमें भी ध्यानमें रखनी चाहिये । क्रमप्राप्त वचनगुप्ति के अतीचारोंको दिखाते हैं।
कार्कश्यादिगरोद्गारो गिरः सविकथादरः ।
हंकारादिक्रिया वा स्याद्वारगुप्तेस्तद्वदत्ययः ॥ १६॥ भाषासामितिके विषयमें कर्कशा परुषा कड़ी आदि दश प्रकारके वचनदोष आगे चलकर गिनावेंगे। ऐसे वचनोंको विषके समान समझना चाहिये । क्योंकि जिस प्रकार विषके निमित्तसे उसके भक्षण करनेवालेको मोह अथवा संतापादिक हुआ करते हैं उसी प्रकार कर्कश आदि वचनोंके निमित्त उसके सुननेवालेको भी संतापादिक हुआ करते हैं। अत एव ऐसे वचनोंका श्रोताओंके प्रति उच्चारण करना वचनगुप्तिका अत्तीचार है। इसी प्रकार विकथाओंमें आदर-उनको प्रकाशित करनेकेलिये उद्यम करना भी वचनगुप्तिका अतीचार है। मोक्षमार्गके विरुद्ध कथोपकथनको विकथा कहते हैं । इसके स्त्री राजा चोर और भोजन इन विषयोंकी अपेक्षासे चार भेद हैं। मुखसे हुंकारादिकके द्वारा अथवा खकार करके यद्वा हाथ और भृकुटिचालन क्रियाओंके द्वारा इङ्गित करना भी वचनगुप्तिका अतीचार है।
पहिले वचनगुप्तिका स्वरूप दो प्रकारसे बताया है। एक तो दुर्वचनके त्यागरूप दूसरा मौनरूप । उपयुक्त आदिके दो अतीचार प्रथम लक्षणकी अपेक्षासे हैं और तीसरा अतीचार मौनरूप लक्षणकी अपेक्षासे है।
अ. घ. ६२
अध्याय
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कायगुप्तिके अतीचारोंको बताते हैं: .. कायोत्सर्गमलाः शरीरममतावृत्तिः शिवादिन्यथा, भक्तं तत्प्रतिभोन्मुखं स्थितिस्थाकीर्णेघ्रिणैकेन सा । जन्तुस्त्रीप्रतिमापरखबहुले देशे प्रमादेन वा,
सापध्यानमुताङ्गवृत्त्युपरतिः स्युः कायगुप्तमलाः ॥ १६ ॥ ___ आगे चलकर आठवें अध्यायमें आवश्यकोंका वर्णन करते हुए कायोत्सर्गसम्बन्धी जिन बत्तीस दोषोंका वर्णन करेंगे उनको कायगुप्तिका अचार समझना चाहिये । इसी प्रकार यह शरीर मेग है इस प्रकारकी प्रवृत्ति करनेको, अथवा महादेव विष्णु ब्रह्मा बुद्ध आदिकी मूर्ति के सामने इस तरहसे खडे होनेको मानों उनका आराधन करनेकेलिये खडे हुए हैं आराधककी तरहसे शिवादिकी मूर्ति के सामने हाथ छोडकर या किसी अन्य प्रकारसे खडे होनेको, यद्वा जनसमूहसे व्याप्त स्थानमें एक पैरसे खडे होनेको भी कायगुप्तिका अतीचार कहते हैं । किन्तु ये चारो ही अतीचार कायगुप्तिका जो कायोत्सर्गरूप लक्षण बताया है उसकी अपेक्षासे हैं । ये अतीचार समस्त अथवा व्यस्त दोनों ही प्रकारके हो सकते हैं। कायगुप्तिका दूसरा स्वरूप हिंसादिकके त्यागरूप बताया है । उसकी अपेक्षासे ऐसे स्थानमें जिसमें कि अनेक जन्तु-प्राणिगण स्त्रियों की प्रतिमाएं अथवा परकीय धनादिक प्रचुरतासे पाया जाता हो प्रमाद-अयत्नाचारपूर्वक रहनेको कायगुप्तका अतीचार समझना चाहिये । कायगुप्तिका तीसरा लक्षण समस्त चेष्टाओंका परित्याग बताया है। इस लक्षण की अपेक्षासे शरीर अथवा हस्तादिकके द्वारा परीषह अथवा उपसर्गादिकके दूर करनेकी चिन्तारूप अपध्यानके साथ साथ शरीरव्यापारके छोडनेको कायगुप्तिका अतीचार समझना चाहिय ।
जो मुनि गुप्तियोंके पालन करनेमें असमर्थ है और शरीरसे व्यापार करना चाहता है उसको समिति
KRE
अध्याय
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योंका पालन करना चाहिये ऐसा उपदेश देते हैं: --
गुप्तेः शिवपथदेव्या बहिष्कृतो व्यवहृतिप्रतीहार्या ।
भूयस्तद्भक्त्यवसरपर : श्रयेत्तत्सखी: शमी समितीः॥ १६२ ॥ जिस प्रकार अभीष्ट नायिकाको अपने ऊपर अनुरक्त-प्रसन्न करनेकी इच्छा रखनेवाला कोई नायक अवमर न मिलनेपर उसको अनुकूल करनेकेलिये अपनी उस प्रेयसीकी सखीका आश्रय लेता है, उसी प्रकार गुप्तियोंका आराधन करनेकी इच्छा रखनेवाले पतिको उनकी अप्राप्तिमें गुप्तियोंकी सखीके समान समितियोंका ही आश्रय लेना श्रेयस्कर है।
यहांपर समितियोंको गुप्तियोंकी सखी जो बताया है उसका अभिप्राय यह है कि समितियां गुप्तियोंके, स्वभावका अनुसरण किया करती हैं किन्तु गुप्तियां समितियों के स्वभावका अनुसरण कभी नहीं करतीं।
गुप्तियों को मोक्षमार्गकी अधिदेवता और शरीरादिककी चेष्टाको उनकी प्रतीहारिणी जो कहा है उसका भी अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार प्रतीहारिणी अपनी स्वामिनीका आराधन न करनेवाले अथवा विराधन करनेवालेको दूर करदिया करती है उसी प्रकार गुप्तियोंका आराधन करनेमें असमर्थ अथवा विराधन करनेवाले यतिको व्यवहारचेश मोक्षमार्गसे दूर करदिया करती है-यथेष्ट संवर निर्जरा नहीं होने देती। क्योंकि कहा भी है कि कर्मों के आगमनके द्वारका निराध करनेवाले यतिके -गुप्ति और शरीरचेष्टाविशिष्ट साधुके समितियां हुआ करती हैं । यथा--
कर्मद्वारोपरमणरतस्य तिम्रस्तु गुप्तयः सन्ति ।
चेष्टाविष्टस्य मुनेनिर्दिष्टाः समितयः पञ्च ॥ .. अत एव मुमुक्षु यतिओंको उचित है कि मोक्षमार्गकी अधिदेवता गुप्तिकी प्रतीहारिणी चेष्टाके द्वारा बहि
५. सान्ता
अध्याय
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कृत होनेपर वे उस देवताके आराधन करने का पुनः अवसर प्राप्त करने में तत्पर हों और उसके लिये उस देवता की सखीसदृश समितिका आश्रय लें। विशेष भेदोंका नामोल्लेख करते हुए समितिका निरुक्तिसिद्ध सामान्य लक्षण बताते हैं
ईर्याभाषणादाननिक्षेपोत्सर्गलक्षणाः ।
वृत्तयः पञ्च सूत्रोक्तयुक्त्या सामेतयो मताः ॥ १६३ ॥ सूत्र --श्रुत अथवा आगममें बताये हुए क्रमके अनुसार-समीचीनतया की गई प्रवृत्तिको समिति कहते हैं। क्योंकि निरुक्ति के अनुसार समिति शब्दका अर्थ ऐसा ही होता है कि सम्-संचीचीनतया की गई इति-प्रवृत्ति । इस समीचीन प्रवृत्तिके पांच भेद हैं - ईर्या भाषा एषणा आदाननिक्षेपण और उत्सर्ग । ईर्या शब्दका अर्थ गमन, भाषा शब्दका अर्थ वचन, एषणा शब्दका अर्थ भोजन, आदाननिक्षेपण शब्दका अर्थ क्रमसे ग्रहण करना और रखना तथा उत्सर्ग शब्दका अर्थ छोडना-मलमूत्रादिका परित्याग होता है ।
पांचो ही समितियोंका विशेष लक्षण बतानेकी इच्छासे क्रमानुसार पहिले ईर्यासमितिका लक्षण बताते
स्यादीयासमितिः श्रतार्थविदुषो देशान्तरं प्रेप्सतः, श्रेयःसाधनसिद्धये नियमिनः कामं जनैहिते । मार्गे कोक्कटिस्य भास्करकरस्पृष्टे दिवा गच्छतः, -
कारुण्येन शनैः पदानि ददतः पातुं प्रयत्याङ्गिनः॥ १६४ ॥ प्रायश्चित्तादि ग्रन्थरूप श्रुतके अर्थका भले प्रकार ज्ञान रखनेवाला जो व्रती या यति आत्मकल्याणके
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• अनगार
साधन सम्यग्दर्शनादिक अथवा उसके कारण अपूर्व चैत्यालय समीचीन उपाध्याय तथा धर्माचार्यादिककी सिद्धि-प्राप्तिके लिये अपने स्थानसे उस साधनके स्थानपर जानेकी इच्छा होनेपर ऐसे मार्गसे जो कि लोकोंके द्वारा अच्छी तरह विध्वस्त है-जिसमें कि मनुष्य हाथी घोडा गाढी आदि निरन्तर अच्छी तरह चलते हैं और जिसमें सूर्यको किरणे अथवा प्रकाश पडरहा हो; करुणाबुद्धिसे-दयार्द्रपरिणामोंसे और बडे प्रयत्न-सावधानताके साथ इस तरह मन्द मन्द पैर रखते हुए कि जिससे किसी भी जीवकी विराधना न हो-प्रत्येक जीवकी हर तरहसे रक्षा करते हुए और इसी लिये रात्रिमें नहीं किन्तु दिनमें तथा कुक्कटसंपात्य भृमि जूडाप्रमाण धरतीको शोधते हुए गमन करता है उसके ईर्या नामकी समिति होती है या समझनी चाहिये। जैसा. कि कहा भी है कि:
मग्गुज्जोउवओगालंबणसुद्धीहिं इरियदो मुणिणो ।
सुत्ताणुवीचिभणिया इरिपासमिदी पवयणम्हि ।। जो उद्योत उपयोग और आलम्बनशुद्धिके द्वारा मार्गमें गमन करता है उसी मुनिके सूत्रोक्त निर्दोष ईर्यासमिति हो सकती है ऐसा प्रवचनमें कहा है।
क्रमप्राप्त भाषा समितिका लक्षण दो श्लोकोंमें बताते हैं ....
कर्कशा परुषा कटी निष्ठुरा परकोपिनी । छेदङ्करा मध्यकृशातिमानिन्यनयङ्करा ॥ १५ ॥ भूतहिंसाकरी चेति दुर्भाषां दशधा त्यजन् । हितं मितमसंदिग्धं स्याद्भाषासमितो वदन् ॥ १६६ ॥
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जो साधु कर्कशादि दुर्भाषाओंको छोडकर हित मित और असंदिग्ध वचन बोलता है उसके भाषा नामकी समिति समझनी चाहिये । जो वचन अपना और दूसरेका उपकार करनेवाले हैं उनको हित, और जो विवक्षित अर्थकेलिये उपयोगी हों उनको मित, तथा जिनसे दूसरोंको संशयादिक उत्पन्न न हों उनको असंदिग्ध कहते हैं । दुर्भाषा दश प्रकारकी बनाई है । यथाः
१-त् मूर्ख है, विलकुल बैल है, कुछ नहीं समझता, इस तरहके संताप उत्पन्न करनेवाले वचनोंको कर्कशा भाषा कहते हैं। २-तू अनेक दोषोंकी खानि महादुष्ट है, ऐसे मर्मवेधी वचनोंको परुषा भाषा कहते हैं। ३--तू धर्मशून्य है, जातिहीन-कुजाति है, ऐसे उद्वेग उत्पन्न करनेवाले वचनोंको कटुभाषा कहते हैं। ४ -तुझे मार डालूंगा, तेरा शिर उडादूंगा, ऐसे कठोर शब्दोंको निष्ठुरा भाषा कहते हैं। ५-तू तो हसीका स्थान बिल्कुल निर्लज्ज है, तेरा तप किस कामका, ऐसे दसरेको क्रोध उत्पन्न करनेवाले वचनोंको परकोपिनी भाषा कहते हैं। -पराक्रमशाली और गुणवान् मनुष्योंका भी निर्मूल विनाश करदेनेवाले, अथवा असद्भुत दोषोंको भी प्रकट करनेवाले वचनोंको छेदंकरी भाषा कहते हैं ।७--ऐसे निष्ठुर वचनोंको जो कि हड्डियोंके भीतर भी कृष करडालें, मध्यकृषा भाषा कहते हैं। ८--अपने महत्वको और दूसरोंकी निंदाको प्रख्यात करनेवाले शब्दोंको अतिमानिनी भाषा कहते हैं। ९---शीलसंतोषादिकके खण्डन करनेवाले अथवा परस्परमें मिले हुए या प्रेमबद्ध व्यक्तियोंमें विद्वेष उत्पन्न करनेवाले वचनोंको अनयंकरा भाषा कहते हैं । १०--जिनके निमित्तसे जीवोंके प्राणोंका भी वियोग होजाय ऐसे वचनोंको भृतहिंसाकरी भाषा कहते हैं। .
___ एषणासमितिका लक्षण बताते हैं:- . विनाङ्गारादिशङ्काप्रमुखपरिकरैरुद्गमोत्पाददोषैः, प्रस्मार्य वीरचर्यार्जितममलमधःकर्ममुग् भावशुद्धम् । स्वान्यानुग्राहि देहस्थितिपटु विधिवत्तमन्यैश्च भक्त्या.
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कालेन्नं मात्रयाश्नन् समितिमनुषजत्येषणायास्तपोभृत् ॥ १६७ ॥ अधः नामके महादोषका आगे चलकर वर्णन करेंगे । पञ्चमूना और प्राणिहिंसा अथवा सूनाओंके द्वारा होनेवाली हिंसाको अधःकर्म कहते हैं। इसका परित्याग करनेवाले और अत एव इन्द्रिय तथा मनके नियमनकी अनुष्ठानरूप तपोलक्ष्मीको निरंतर - पुष्ट करनेवाले साधुके उस समय एषणा नामकी समीचीन प्रवृत्ति समझनी चाहिये जब कि वह मात्राके अनुरूप और योग्य काल में ऐसे अन्न- चतुर्विध आहारको ग्रहण करे जो कि दाताके घरसे वामभागके तीन घर और दक्षिण भागके तीन घर तथा एक उस दाताका घर जहां प्रतिग्रह किया गया हो इस तरह सात घरोंमें रहनेवाले ब्राह्मण क्षत्रिय वैदय अथवः सचन्द्र के द्वारा भक्तिपूर्वक-निष्कपट अनुरागसे एवं विधिपूर्वक-प्रतिग्रहादि नवधा भक्ति के द्वारा दिया गया हो, जो अपने और परके उपकार करने में समर्थ, शरीरको आयुःप्रमाणके अनुसार स्थिर रखने में क्षम हो, जो भोक्ताके परिणामोंके द्वारा दूषित न किया गया हो अथवा जिसके विषय में भोक्ताके परिणाम विशुद्ध हो, जो पूय रुधिगदिक मलोंसे तथा अधःकर्म महादोषसे रहित हो, जो वीरचर्या अदीन या अयाचकवृत्ति के द्वारा ग्रहण किया गया हो, तथा अन्तराय और अङ्गारादिक एवं शङ्काप्रभृत्ति उद्गमदोष तथा उत्पादना दोषोंसे सर्वथा अलिप्त हो। भोजन बनानेवाले अथवा दाताके प्रयोगसे भोजन बनाने में दोष होते हैं उनको उद्गम दोष कहते हैं। इसके औद्देशिकादिक सोलह भेद हैं। इसी प्रकार भोक्ताके द्वारा भोजन बनवानेमें या उसके सम्बन्धसे जो दोष होते हैं उनको उत्पादना दोष कहते हैं। इसके छात्रीदत आदि भेद हैं। एवं भोजनक्रियामें जो विघ्न उपस्थित होते हैं उनको अन्तराय कहते हैं। इसी प्रकार भोजनसम्बन्धी अङ्गारादिक तथा भोज्यवस्तुसम्बन्धी शङ्कादिक दोष भी हैं जिनका कि विशेष वर्णन आगेके अध्यायमें करेंगे।
भावार्थ--जो साधु भोजनके सम्बन्धमें बताई हुई आठ प्रकारकी शुद्धियोंके अनुसार छयालीस दोष चौदह मल और बत्तीस अन्तराय तथा अधःकर्म महादोषसे रहित और उपर्युक्त विशेषणोंसे युक्त भोजनको विधिपूर्वक ग्रहण करता है उसीके एषणा नामक समिति समझनी चाहिये ।
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आदाननिक्षेपण समितिका स्वरूप बताते हैंसुदृष्टसृष्टं स्थिरमाददीत स्थाने त्यजेत्तादृशि पुस्तकादि । कालेन भयः कियतापि पश्येदादाननिक्षेपसमित्यपेक्षः ॥ १६८ ॥
१९
जो साधु आदाननिक्षेपण समितिकी अपेक्षा रखता है और उसको सुरक्षित रखना चाहता है उसे उचित है कि वह पुस्तकादिक किसी द्रव्यको जब ग्रहण करना चाहे तब उसको अपने साक्षात् चक्षुओंसे अच्छी तरह देखले
और पीछे पिच्छिका आदिसे झाडले । फिर भी स्थिर-अनन्यचित्त होकर ग्रहण करे । इसी प्रकार जब कोई चीज जहां रखनी हो तब उस स्थानको भी उसी प्रकार देखले और झाडकर साफ करले । तथा रखनेके बाद भी फिरसे उसको कुछ समयमें जब कि सम्मर्छन जीत्र उत्पन्न हो सकते हैं, देखलेना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:--
आदाणे णिक्खेवे पडिले हिय चक्खुणा समासिज्जो। दव्वं च दवठाणं संयमसिद्धीइ सो भिक्खु । सहसाणाभोइददुप्पमजियापच्चुवेक्खणा दोसा। परिहरमाणस्स भवे समिदी आदाणणिक्खेवा ।।
अध्याय
जो साधु किसी भी वस्तुके ग्रहण करने अथवा रखनेमें सहसा अनाभोग दुःप्रमार्जित और अप्रत्यवेक्षण इन दोषोंको छोडकर तथा उस ग्राह्य अथवा निक्षेप्य वस्तुको और उसके स्थानको अच्छी तरह चक्षसे देखकर और पिच्छी आदिसे साफ करके ग्रहण करता अथवा रखता है उसके आदाननिक्षेपण समिति समझनी चाहिये।
उत्सर्गसमितिका स्वरूप बताते हैं:
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निर्जन्तौ कुशले विविक्तविपुले लोकोपरोधोज्झिते, प्लष्टे कृष्ट उतोषरे क्षितितले विष्टादिकानुत्सृजन् । युःप्रज्ञा प्रमणेन नक्तमभितो दृष्ट विभज्य विधा,
सुस्पृष्टेप्यपहस्तकेन समितावुत्सर्ग उत्तिष्ठते ॥ १६९ ॥ द्वीन्द्रियादिक जीवोंसे तथा हरित त्रणादिकमे रहित एवं प्रशस्त - सर्पकी वामी आदि भयके कारणोंसे रहित तथा विविक्त - एकान्त जनशून्य अथवा अशुचि आदि कूडे कचडे मे रहित, और जहांपर किसी प्रकारका संकट उपस्थित न हो, एवं जहां पर जाने अने या पैठने आदिमें किसी की किसी प्रकारकी रुकावट न हो, ऐसे दवाग्नि अथवा श्मशानाग्नि द्वारा दग्ध हुए स्थानमें, यद्वा हलके द्वारा बार बार जोते गए खेतमें, अथवा स्थाण्डिल-खारी मट्टीवाली चीली जमीनमें जो साधु दिन के समय अपने मल मूत्र नाक थूक केश सप्तम धातु पित्त वमन आदि मलों को छोडता है उसके उत्सर्ग नाम की ममिाते कही जाती है । यदि कदाचित् रात्रिके समय मलादिककी बाधा हो तो उसकी निवृत्ति केलिये माधुओं का उचित है कि वे प्रज्ञाश्रमणके द्वारा क्रमसे तीन भागोंमें विभक्त करके दिन के समय अच्छी तरह देखे गये स्थानमें ही मलादिकका उत्सर्ग करें। यदि फिर भी मलोत्सर्गके समय किसी जीवादिककी शंका हो तो उस शंकाको दूर करने केलिये अपने वाम हाथसे उस स्थानको मलोत्सर्गके पहिले ही स्पर्श करके देखलें।
मावार्थ- साधुओंको प्राशुक, निर्मय, एकान्त पवित्र, संकटरहित, और ऐसी अनुपरुद्ध भमिमें जो कि दग्ध अथवा जोती हुई यद्वा ऊपर हो, अपने उपर्युक्त मलोंका परित्याग करना चाहिये । और रात्रिके समय प्रज्ञाश्रमणके द्वारा निर्दिष्ट स्थानमें मलोत्सर्ग करना चाहिये ।
बध्याय
PSINDH
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जो साधु विनय करनेमें तत्पर और वैयाइत्यादिकमें चल तथा वैराग्यमावनाओंमें रत और समस्त संघका प्रतिपालन करनेवाला एवं जितेन्द्रिय होता है उसको प्रबाश्रमण कहते हैं । इसको उचित है कि जबतक सूर्यका अस्त न होजाय-उदय बना रहे तबतक साधुओंको दिनमें ही, रात्रिके समय मलमूत्रादिका उत्सर्ग करने केलिये क्रमसे तीन स्थानतक देखकर एक उचित स्थान निश्चित करले । यदि पहिला स्थान अशुद्ध हो तो दूसरा, और दूसरा भी अशुद्ध हो तो तीसरा स्थान निश्चित करे। इस निश्चित स्थानपर ही साधुओंको रात्रिके समय मलोत्सर्ग करना चाहिये । फिर भी कदाचित् किसी प्रकारकी शंका हो जाय तो वाम हाथसे उस स्थानका संस
कर अपना संदेह दूर करलेना चाहिये तब मलोत्सर्ग करना चाहिये । ऐसा करनेपर ही उत्सर्गसमिति साधुओंके मानी जा सकती है। जैसा कि कहा भी है कि
वणदाहकिसिमसिकरे मंडी अणुपरोपविचिणे । अबगदजंतुधिषिते उचारादी विसरिजनो। उच्चार पासवणं सिंघाणयादिजंदव्यं ।
अवित्तभूमिदेसे परिलेहिता विसबिनो। वनवनिके द्वारा दम्प, अथवा कष्ट-जो कि हलके द्वारा पुनः पुन विदीर्ण करदी गई हो, यद्वा स्मशानापिके द्वारा जली हुई, अथवा ऊपर भूमिमें जहाँपर कि किसीकी रोकटोक नहीं और जीवजन्तुजोंकी वाचा
मी नहीं है एवं बो अचित्त-प्राशुक है, साधुओंको प्रतिलेखन करके-उस स्थानको अच्छी तरह देखशेषकर | महाकालेप्पा आदिका विसर्जन करना चाहिये । तथा:--
रात्री तस्वस्थाने प्रहाश्रमणवीषिते । कुर्वन् महानिरासायापहवसर्शनं मुनिः । द्वितीयाचं भवेत्ता साधुरिति । गुत्वस्यावशे दोषो न पचाद् गुरुकं यतेः ।।
FRIDERENERAEEEEEEEEKERAREK
बचाव
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बनमार
मुनियोंको रात्रिके समय प्रज्ञाश्रमणके द्वारा निराधित स्थानमें मलोत्सर्ग करना चाहिये और अपनी का दूर करनेकेलिये उस स्थानको वाम हाथसे स्पर्श करके देखलेना चाहिये । यदि पहिला स्थान अशुद्ध हो तो दसरा और दूसरा मी अशुद्ध हो तो तीसरा स्थान देखना चाहिये। कदाचित् वीमारी या किसी विशेष कारणवश शीघ्र ही मलका उत्सर्ग होजाय तो आचार्यको उचित है कि साधुको विशेष दण्ड न दे।
जो मुनि अतिचाररहित समितियोंके पालन करनेमें तत्पर रहता है उसको हिंसादिक दोषोंका अभावरूप फल प्राप्त होता है । इस बातको प्रकट करते हैं:--
समितीः स्वरूपतो यतिराकारविशेषतोप्यनतिगच्छन् ।
जीवाकुलेपि लोके चरन्न युज्येत हिंसाद्यैः ॥ १० ॥ स्वरूप अथवा लक्षणकी अपेक्षासे यद्वा पूर्वोक्त उसके विशेषणोंकी अपेक्षासे भी जो साधु समितियोंमें रंचमात्र भी अतिचार नहीं लगनेदेता और सदा उनके पूर्णतया पालन करनेमें सावधान रहता है वह स्थावर और त्रसजीवोंसे व्याप्त संसारमें यथेच्छ विहार करते हुए भी हिंसादि दोषोंसे लिप्त नहीं होता। समितियोंके माहात्म्यका वर्णन करते हुए उनका सदा सेवन करनेकेलिये उपदेश देते हैं:
पापेनान्यवधेपि पद्ममणुशोप्युरेव नो लिप्यते, ययुक्तो यदनाद्वतः परवधाभावेप्यलं वध्यते । यद्योगादधिरुह्य संयमपदं भान्ति व्रतानि द्वया,न्यप्युद्धान्ति च गुप्तयः समितयस्ता नित्यमित्या: सताम् १७१
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बनगार
__ जो साधु समितियों का भले प्रकार पालन कर वह दैववश अपनेसे मरे प्राणियोंका वध होजानेपर भी. जिस प्रकार कमल या उसका पत्ता पानी मे लिप्त नहीं होता उसी प्रकार, पापकर्मसे रंचमात्र भी उपश्लिष्ट नहीं होता। किंतु इसके विरुद्ध जो इन समितियों में आदग्बुद्धि नहीं रखता और इनका पालन नहीं करता वह परप्राणियोंका व्यपरोपण न करके भी तजनित हिंसादोषसे अथवा पापकर्मसे लिप्त होजाता है । एवं इन समितियोंके ही माहात्म्यसे महाव्रत और अगुव्रत भी संयमस्थानको पाकर प्रकाशमान होते तथा पूर्वोक्त तीनों प्रकार की गुप्तियां भी जागृत होती हैं । अत एव जिनका निरतिचार प.लन अहिंसादिका, और न पालन हिंसादि दोषोंका कारण है और जिनके निमित्तसे व्रत संयमरूप होजाते तथा गुप्तियां उद्धृत होती हैं उन समितियोंका सत्पुरुषोंको नित्य ही-जब गुप्तियों का पालन न कर सके उस समय, अवश्य ही सेवन करना चाहिये। क्योंकि कहा भी है किः--
अजदाचारो समणो छस्सुवि काएसु बंधगोत्तिमदो।
चरति जदं जदि णिचं कमलं व जले णिरुवलेवो। जो श्रमण आचरण करने में असावधानता रखता है उसके षटकायसम्बन्धी पापका बन्ध होता है किंतु जो यत्नपूर्वक आचरण-संयमका पालन करता है वह पापकर्मसे इस तरह अलिप्त रहता है जैसे कि कमल जलसे ।
__ऊपर समितियों का एक फल यह भी बताया है कि इनके निमित्तसे व्रत संयमस्थानको प्राप्त होजाते हैं। यहांपर प्रश्न होसकता है कि व्रत और संयममें क्या अन्तर है ? इसका उत्तर वर्गणाखण्ड के बन्धनाधिकारमें इस प्रकार दिया है कि
"संयमविरईण को भेदो ? ससमिदि महब्ययाणुव्वयाई संयमो, समिदीहिं विणा महव्वयाणुव्वयाई विरदी ॥" इति ।
अध्याय
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बनगार
समिातियोंके साथ साथ महावत और अणुव्रतोंके पालन करनेका नाम संयम और विना समितियों के इनके पालन करनेका नाम व्रत है।
इस प्रकार समितियोंका वर्णन समाप्त हुआ। अब शीलका वर्णन क्रमप्राप्त है। क्योंकि इस अध्यायकी आदिमें समितियों के व्रत अथवा चारित्ररूपी वृक्षका रक्षक शीलको ही बताया है । अत एव यहांपर शीलका लक्षण और उसके विशेष भेदोंको बताते हुए उसकी उपादेयताका निरूपण करते हैं:
शीलं व्रतपरिरक्षणमुपैतु शुभयोगवृत्तिमितरहतिम् ।
संज्ञाक्षविरतिरोधी क्ष्मादियममलात्ययं क्षमादीश्च ॥ १७२॥ जिसके द्वारा व्रतोंकी रक्षा की जाय अथवा उनका पालन किया जाय उसको शील कहते हैं। इसके पालन करनेमें शुभयोगरूप प्रवृत्ति और अशुभयोगकी निवृत्ति करनी चाहिये, संज्ञाओंका परिहार और इन्द्रियों का निरोध करना चाहिये, पृथिवी आदि दश प्रकारके जीवों के प्राणव्यपरोपणका त्याग और उनके अतीचारोंका परिहार करना चाहिये, तथा उत्तमक्षमादि दशधर्मको धारण करना चाहिये ।
वध्याय
पुण्यास्रवकी कारणभूत मनवचनकायकी प्रवृत्तिको अथवा जिनसे समस्त कर्मोंका क्षय किया जा सकता है उन गुप्तियोंको शुभयोग कहते हैं । अतए। इसके तीन भेद हैं । इसी प्रकार अशुभयोगनिवृत्तिके भी तीन भेद हैं। आहार भय मैथुन और परिग्रहकी अभिलाषारूप संज्ञाओंकी निवृत्ति चार प्रकारकी है । तथा स्पर्शन रसन घ्राण चक्षु और श्रोत्र इनका निरोध पांच प्रकारका है। संयमके विषयकी अपेक्षा दश भेद हैं । यथा-पृथिवी जल तेज वायु प्रत्येक साधारण द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । एवं धर्मके भी दश भेद है-उत्तमक्षमा मार्दव आर्जव शौच सत्य संयम तप त्याग आकिश्चन्य और ब्रह्मचर्य । इन भेदोंका परस्परमें गुणा करनेसे शीलके अठारह हजार भेद होते हैं । यथा-तीन प्रकारकी शुभयोगप्रवृत्तिके तीन भेदोंके साथ
५०१
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बनगार
गुणा करनेपर नौ मेद और फिर इनका चार प्रकारकी संज्ञानिवृत्तिसे गुणा करनेपर ३१ मेद एवं इनका मी पांच इंन्द्रियनिरोषसे गुणा करनेपर एकसौं अस्सी मेद तथा इनका भी निरतीचार दश प्रकारके संयमसे गुणा करनेपर एक हजार आठसौ और इनका भी फिर दश धर्मसे गुणा करनेपर अठारह बार भेद होते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:--
योगे करणसंज्ञाक्षे धरादौ धर्म एव च।
अष्टादश सहस्राणि स्युः शीलानि मिथोवरे ।। तीन योग, तीन करण, चार संज्ञाएं, पांच इन्द्रिय, दश संयम और दश धर्म इनका परस्परमें गुणा करने पर शीलके अठारह हजार भेद होते हैं। जो मुनिश्रेष्ठ मनोयोग और आहारसंज्ञासे रहित तथा मनोगुप्तिका पालन करनेवाला स्पर्शनेन्द्रियसे संवृत, पृथिवीकायके संयमका पालक और उत्तम क्षमाका धारक होता है उस विशुद्ध पनिके अठारह हजार शीलके भेदोंमेंसे पहिला मेद समझना चाहिये । तथा जो मुनिश्रेष्ठ इन्ही विशेषगोंसे युक्त है किन्तु मनोगुप्तिकी जगह वाग्गुप्तिका पालन करनेवाला है उसके दूसरा भेद समझना चाहिये।
और जो वाग्गुप्तिकी जगह कायगुप्तिका पालन करता है उसके तीसरा भेद समझना चाहिये । जो वचनयोग रहित मनोगुप्तिका पालन करता किंतु शेष उपर्युक्त विशेषणोंसे युक्त है उसके चौथा भेद, और जो वचनयोगरहित वचनगुप्तिका पालन करते हुए शेष उक्त विशेषणोंसे युक्त है उसके पांचवाँ भेद तथा जो वचनयोगरहित कायगुप्तिका पालन करते हुए शेष विशेषणोंसे युक्त है उसके छट्टा भेद समझना चाहिये । इसी प्रकार गुप्ति योग संज्ञा और इन्द्रियादिकोंका अक्षसंचार करके क्रमसे सम्पूर्ण भेद समझलेने चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि
मनोगुप्ते मुनिश्रेष्ठ मनःकरणवर्जिते । थाहारसंज्ञया मुक्त स्पर्शनेन्द्रियसंवृते । सघरासंयमे मन्तिसनाथे शीलमादिमम् । तित्यविचलं शुद्ध तथा शेषेष्वपि क्रमः ।
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बचाय
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नगार
अध्याय
४
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इस प्रकार अठारह हजार शीलके भेदोंको बताकर अब गुणोका लक्षण और उनके चौरासी लाख उच्चर मेदोंको बताते हुए उनके पालन करनेका उपदेश देते हैं । -
गुणाः संयमविकल्पाः शुद्धयः कायसंयमाः । सेव्या हिंसाकम्पितातिक्रमाय मह्मवर्जनाः ॥ १७१ ॥
संगमके ही उत्तर मेदोंका नाम गुण है। कायसंयम, शुद्धि, हिंसादिवर्जन, आकम्पितादिवर्जन, अ विक्रमादिवर्जन, और अब्रह्मवर्जन, इन सबके मेदोका परस्परमें गुणा करनेसे चौरासी लाख मेद होते हैं। इन्हीका नाम ८४ लाख उत्तर गुण है ।
पूर्वोक्त संगमके विषयकी अपेक्षासे बताये हुए पृथिवीकाय पृथिवीकायिक आदि दश भेदोंका परस्परमें गुणा करनेपर कामसंयमके सौ भेद होते हैं। हिंसादित्यागके भी विषयकी अपेक्षा इक्कीस मेद हैं। इनका अतिक्रमादित्यागके चार भेदोंसे गुणा करनेपर ८४ भेद होते हैं और इनका भी उक्त सौ भेदोंसे गुणा करनेपर ८४०० माठ हजार चार सौ भेद होते हैं। पुनः इनका अब्रझत्यागके दश भेदोंसे गुणा करनेपर ८४००० चौरासी हजार और इनका भी आकम्पितादित्यागके दश भेदोंसे गुणा करनेपर आठ लाख चालीस हजार भेद, तथा इनका भी आलोचनादिक प्रायश्चित दश भेदोंसे गुणा करनेपर चौरासी लाख मेद होते हैं। गुणोंके इन सभी भेदोंका ओंको पालन और इनके विरुद्ध दोषोंका परित्याग करना चाहिये ।
हिंसादित्यागके इक्कीस भेद जिन विषयोंकी अपेक्षासे बताते हैं उनके नाम इस प्रकार हैं:
हिंसानृतं तथा स्तेयं मैथुनं च परिग्रहः । क्रोधादयो जुगुप्सा च भयमभ्यरती रतिः ॥
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५०३
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अनगार
१.४
मनोवाकायदुष्टत्वं मिथ्यात्वं सप्रमादकम् ।
पिशुनत्वं तथा ज्ञानमक्षाणां चाप्यनिग्रहः ॥ हिंमा झूट चोरी कुशील परिग्रह क्रोध मान माया लोभ जुगुप्सा भय अरति रति मनोमंगुल वचनमंगुल कायमंगुल मिथ्यात्व प्रमाद विशुनता अज्ञान आरे इन्द्रियों का अनिग्रह ।
विषयव्यासबसे अथवा संकेश परिणामोंसे आगममें बताये हुए कालकी अपेक्षा अधिक कालतक अवश्यकादिकके करते रहनेको अतिक्रम, और विषयव्यामङ्गादिकी अपेक्षाने ही नियत कालसे कम समयमै उस क्रिया के करनेको व्यतिक्रम, तथा क्रियाओंके करनेमें आलस्य करनेको अतिचार, और व्रतों के पालन करने अथवा खण्डित करदेने को अनाचार कहते हैं।
अब्रह्म-शीलविराधनाके दश भेद इस प्रकार हैं: - स्त्रीगोष्टी वृष्यभुक्तिश्च गन्धमाल्यादिवासनम् । शयनासनमाकल्पः षष्ठं गन्धववादितम् ।। अर्थसग्रहदुःशीलमङ्गती राजसेवनम् । रात्रौ सचरण चेति दश शीलविगधनाः ॥
अध्याय
५०४
स्त्रियोंकी संगति, पुष्ट आहारका ग्रहण, सुगंध द्रव्य अथवा पुष्पमाला आदि के द्वारा शरीरका संस्कार करना, कोमल शय्या, उत्तम मृदु आमन, कटक कुण्डल आदि भूपणोंका धारण, गीतादि गाना और वांपरी आदि बाजोंका बजाना, सुवादि धनका संग्रह करना, विट प्रभृति कुशीली पुरुषोंका सहवास, राजाकी सेवा, और रात्रिमें इतस्ततः संचरण करना, इस तरह कुलके दश भेद होते हैं। .
आकम्पितादिक आलोचनासम्बन्धी दश दोषोंके नाम इस प्रकार हैं:
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बनगार
आकम्पिय अणुमाणिय ज दिदै बादरं च सुहुमं च ।
छण्णं सहाउलिय बहुजणमब्वत्ततस्सेवी ।। आकम्पित, अनुमानित, दृर, बादर, सूक्ष्म, प्रच्छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त, और तत्सेवी ।
प्रायश्चित्तसम्बन्धी आलोचनादिक दश भेद इस प्रकार हैं:आलोचन, प्रतिक्रमण. उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार, और श्रद्धान । इन दश भेदोंका ही नाम शुद्धि भी है।
इस प्रकार हिंसादिक, अतिक्रमादिक, कायादिक, और अब्रह्मसम्बन्धी स्त्रीसंगमादिक, तथा आकपितादिक दोषों के नाम और उनकी संख्या यहाँपर बताई है । इन दोषोंके नामसे उल्टा गुणोंका नाम समझना चाहिये। और अत एव गुणोंकी संख्या भी उतनी ही समझनी चाहिये जितनी कि दोषोंकी है । इस तरह इन गुणों की संख्याका और दश प्रकारकी प्रायश्चित्तरूप शुद्धिका परस्परमें गुणा करनेपर गुणों के चौरासी लाख उत्तर भेद होते हैं जैसा कि ऊपर भी बताया जाचुका है। आगममें भी कहा है कि:--
बध्याय
इगवीसवदुरसहिदा दम दम दमगा य आणुपुब्बीए ।
हिंसादिकमकाया विगहणालोचणासोही । ' हिंसादित्यागके इक्कीस भेद, चार प्रकारके अतिक्रमादिक, और पृथिवीकायादिके सौ भेद, तथा शालीवराधनाके त्यागके दश मेद, एवं आलोचनके दश भेद आकम्पितादिक, और दशभेदरूप शुद्धि-प्राय
अ.ध. ६४
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बनगार
९०६
बध्याय
४
SPARTATUTE
चिच । इन सबका परस्परमें गुणा करनेपर चौरासी लाख भेद होते हैं । इन गुणोंके उच्चारणका विधानक्रम आगम में इस प्रकार से बताया है कि:
-
मक्के प्राणातिपातेन तथातिक्रमवर्जिते । पृथिव्याः पृथिवीजन्तोः पुनरारम्भसंयते ॥ निवृत्तवनितास चाकम्प्यपरिवर्जिते । तथालोचनया शुद्धे गुण आद्यस्तथा परे ।।
अर्थात गुणोंके भेदोंमेंने पहिले हिंसादित्यागके इक्कीम भेदों को उसके वाद अतिक्रमादित्यागके चार मेदों को इसके बाद पृथिवीत्यागादि सौ भेदों को उसके बाद स्त्रीमंगमादित्यागके दश भेदोंको, और उसके भी बाद कम्पितादित्यागके दश भेदोंको और अंतमें आलोचनादिक प्रायश्चित्तके दश भेदोंको पंक्तिक्रमसे स्थापन करना चाहिये । इनमें क्रममे अक्षमंचार करनेपर हिंमाके त्यागी अतिक्रमदाषमे रहिन पृथिवीकायिक जीवके भी आरम्भ मे संयम तथा स्त्रीसंमर्गमे निवृत और आकम्पित दोषने भी मुक्त एवं आलोचनाशुद्धिके धारक सा धुके चौरासी लाख उत्तर गुणों में का प्रथम भेद होगा। इसी प्रकार जाहिंमात्यागकी जगह मृषावाद से मुक्त हो तो दूसरा भेद, अचौर्यव्रतम युक्त विशेषणवर संचार करनेपर तीसरा भेद और कुशीलत्याग विशेषणपर संचार करने से चौथा भेद होता है। इसी तरह आगे भी अक्ष चार के क्रममे सम्पूर्ण भेदोंको निकाललेना चाहिये ।
इस प्रकार सम्यक् चारित्रका विस्तारपूर्वक वर्णन करके अब उसकी उद्योतना आराधनाका तीन पद्यों में वर्णन करना चाहते हैं । किंतु उसमें सबसे पहले मुमुक्षुत्रको अतिक्रमादिक उपर्युक्त चार दोषोंके त्याग करने का उपदेश देते हैं :
चित्रप्रभवं फलभितं चेतोगवः संयम, -- व्रीहिव्रातमिमं जिघत्सुग्दम: माद्भः समुत्सार्यताम् ।
PENNEALER SEHEELEMEN
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नगार
नो चेच्छीलवृति विलंध्य न परं क्षिप्रं यथेष्टं चरन्,
धुन्वन्नेनमयं विमोक्ष्यति फलैर्विष्वक् च तं भक्ष्यति ॥ १७ ॥ ब्रतोंके धारण करने, मन वचन और कायकी प्रवृत्तिका त्याग करने तथा कषायोंका निग्रह इन्द्रियोंका विजय और समितियोंके पालन करनेको संयम कहते है। जैसा कि कहा भी है कि
व्रतदण्डकषायाक्षसनितीनां यथाक्रमम ।
संयमो धारण त्यागो निग्रहो विजयोऽनम् ॥ इस संयमको शालि आदि धान्योंके समान समझना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार धान्य खेतमें उत्पन्न होता है. और जिम. प्रकार वह अपनी सस्यसम्पत्तिके द्वारा लोगों का प्रीतिकर होता है उसी प्रकार यह भी बुंधतिशयादिक ऋद्धिरूपी फलों के द्वारा आराधकों को रुचि उत्पन्न किया करता है। अत एव साधुओंको जो कि चारित्रका आराधन करनेकेलिए उद्यत हैं इस धान्यममूह के समान संयमका भक्षण करनेकेलिए उ. त्सुक हुए मनरूपी अदम्य बलीवर्द-सांडका दमन ही करदेना चाहिये । क्योंकि यदि इसका दमन न किया गया तो यह शीघ्र ही संयमरूपी धान्यममूहकी रक्षाकी कारणभूत शीलरूप वाडको लांघकर और यथेष्ट -अभिलषित विषयोंको चरता तथा नष्ट करता हुआ उस संयम-धान्यको केवल उनमे प्राप्त होनेवाले मुख्य और आनुषङ्गि क सस्यादिक फलोंसे वियुक्त करदेगा। इतना ही नहीं किन्तु खूद खाकर उसका चारो तरफसे मर्दन भी कर डालेगा। और इस तरह संयमधान्यको वह बिलकुल ही नष्ट करदेगी।
अध्याय
१ बुद्धितओविय लद्धीविउवणलदी तहेव ओमहिमा ।
ग्सवलअक्वीणा वि य रिद्धीओ मत पण्णता ॥ बुद्धि तप विक्रिया औषध रस बल अक्षीण इस तरह ऋद्धियो सात भंद हैं।
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अनगार
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बध्याय
४
यहांवर संयमको ऋद्धिरूप फरके द्वारा प्रीतिकर बताकर उसके विषय में अतिक्रमको सूचित किया है । इसी प्रकार ' लांघकर ' शब्द के द्वारा व्यतिक्रम, ययेादि शब्दों के द्वारा अतीचार तथा चारो तरफ से आदि वाक्य के द्वारा अनाचारको सूचित किया है। क्योंकि अतिक्रनादिकका स्वरूप आगन में इसी प्रकार कहा है कि:
क्षतिं मनःशुद्विरि घेरविक्रमं व्यतिक्रमं शीलवृतेर्विलड्डूनम् । प्रभोतिवारं विषयेषु वर्तनं वदन्त्यनाचारमिहाति स कताम् ॥
संयमके विषय में मानसिक शुद्धि न रहने को अतिकन, शीलकी वाडके उल्लंघन होनेको व्यतिक्रम, विषयों में प्रवृत्ति होने को अतीचार, और उन विषयोंमें अत्यंत आसक्त होनेको अनाचार कहते हैं।
चारित्रविनयका स्वरूप बताते हुए उसका पालन करनेके लिये साधुओंको प्रेरित करते हैं। सदसत्स्वार्थकोपादिप्रणिधानं त्यजन् यतिः ।
भजन्तमितिगुतीच चारित्रविनयं चरेत् ॥ १७५ ॥
यहां चारित्र शब्द काही ग्रहण किया है। अतएव चारित्र में कहिये अथवा व्रतोंमें कहिये निर्मलता उत्पन्न करने के लिये प्रयत करने को ही चारित्रविनय करते हैं। यतिओंको उचित है कि इष्ट और अनिष्ट दोनों ही प्रकार के इंन्द्रियविषयोंमें रागद्वेष करने का और क्रोध मान माया आदि कषायों तथा हास्या दिक नोपायों का परित्याग करें। प्रशस्त विषयों में राग और अप्रशस्त विषयों में द्वेष न करें। तथा आत्माको क पायरूप परिणत न होने दें। साथ ही पूर्वोक्त समितियों और गुप्तियों का पालन करे । क्योंकि ऐसा करनेपर ही उनके चारित्रविनयकी सिद्धि हो सकती है।
इस मरतक्षेत्र और दुःषमकाल में मी जो मोक्षमार्ग में विहार कर रहे हैं और उनमें प्राधान्यको प्राप्त क
धर्म ०
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वनमार
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र चुके हैं उनमें श्रामण्यका बोध करानेवाले संयमका निरूपण करते हुए भावतः उनकी स्तुति करते हैं
सर्वावद्यनिवृत्तिरूपमुपगुर्वादाय सामायिक, यश्छेदैर्विधिवद्व्रतादिभिरुपस्थाप्याऽन्यदन्त्रेत्यपि । वृत्तं बाह्य उतान्तरे कथमपि च्छेदेप्युपस्थापय, - त्यैतिह्यानुगुणं धुणमिह नौम्येदंयुगीनेषु तम् ॥ १७३ ॥
सम्पूर्ण सावद्ययोग के परित्याग करनेको सामायिक संयम कहते हैं। इसमें संक्षेपसे सभी महाव्रतों का संग्रह होजाता है । जैसा कि कहा भी है कि
क्रियते यदभेदेन व्रतानामधिरोहणम् । पायस्थूलतालीढः स सामायिक संयमः ॥
यद्यपि सामायिक संयममें बादर संज्वलन कषायका सम्बन्ध रहता है फिर भी इसके धारण करनेवाले के अभेदरूपसे सभी व्रतोंका धारण हो जाता है । अतएव जो साधु दीक्षाचार्य के समीप विधिपूर्वक इस संयमको धारण करके इसके दूसरे विकल्पोंका अभ्यास न रहनेके कारण उनके विषय में प्रमाद होनेपर अपनी आत्माका विधिपूर्वक उन विकल्पों में सामायिक संयमके ही विशेष भेद पांच महाव्रतोंमें और उनके भी परिकर रूप शेष तेईस मूल गुणोंमें आरोपण-उपस्थापन करके छेदोपस्थापना चारित्रको धारण करता है और कभी कभी सामायिक संयमका भी पुनः धारण करलेता है। क्योंकि ऐसी नीति भी है कि जो आदमी केवल सुवर्णमात्रको चाहता है वह कडा कुण्डल अथवा अंगूठी आदि किसी भी वस्तु के मिलजानेको श्रेयस्कर ही समझता है। हां, सर्वथा सुवर्णका अभाव उसको अभीष्ट नहीं रहता। इसी प्रकार सर्वमावद्य के त्यागरूप सामायिक संयम - का अभिलाषी साधु उसके परिकररूप अट्ठाईस मूल गुणोंमें अपनेको उपस्थित कर दूसरे छेदोपस्थापन संयम
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KEEMY MMSE MESORTEL
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बनगार
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बध्याय
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का पालन किया करता है। क्योंकि उसको सर्वथा संयमका अभाव इष्ट नहीं है । इसी तरह जो साधु किसी प्रकार से बाह्य द्रव्यहिंसारूप अथवा अन्तरङ्ग भावहिंस रूपमें व्रतोंका भंग होज नेपर आगमके अनुसार उनका पुनः उपस्थापन कर उसी छेदोपस्थापन नामके दूसरे संयमको धारण करता है, ऐसे वर्तमानकालीन साधुओं में प्रधान संयमीको मैं नमस्कार करता हूं ।
भावार्थ- संयम के पांच भेद आगममें बताये हैं- सामायिक छेदोपस्थापन परिहारविशुद्धि सूक्ष्ममापराय और यथाख्यात । इनमें से आजकल यहांपर - इस दुःषमकाल और भरतक्षेत्र में मुनियोंके आदिके दो ही संयम हो सकते हैं। अत एव जो मोक्षमार्गमें विहार करता हुआ इन दोनो ही संयमों का पालन करता है उसको आजकल श्रमणोत्तम समझना चाहिये। मैं भी उसको नमस्कार करता हूं ।
सामायिक संयमका स्वरूप ऊपर लिखा जा चुका है कि सम्पूर्ण सावद्य योगके त्यागको सामायिक कहते हैं। और इसमें सब मूलगुणोंका सङ्ग्रह हो जाता है । सामायिकके ही छेदो विकल्पों पांच महाव्रतों और उ नके परिकरूप तेईस मूलगुणोंमें अनभ्यासादिके कारण प्रमाद होनेपर उनमें पुनः अपनेको उपस्थित करनेका नाम छेदोपस्थापन संयम है। सामायिक में अशक्त हुआ श्रमण इस संगमको धारण करता है। इसकी विधि इस प्रकार है कि
जो मुमुक्षु श्रमण होना चाहता है वह पहले यथाजातरूपके धारकपनेके साधक तथा परमगुरु श्री अर्हद्भट्टारक अथवा तत्कालीन दीक्षाचार्य के द्वारा दिये हुए उपदिष्ट बहिरंग और अन्तरङ्ग लिङ्गको धारण करता है और सम्मानपूर्वक उसमें तन्मय होता है। यहां यह बात भी समझलेनेकी है कि यद्यरि लिंग कोई दीयमान वस्तु नहीं है - वह स्वतः सिद्ध है। फिर भी परमगुरु श्री अर्हद्भट्टारकके द्वारा अथवा तत्कालीनताकी दृष्टिसे या विचार किया जाय तो दीक्षाचार्य के द्वारा उसके ग्रहण करनेके विधानका प्रतिपादन किया जाता है । अत एव व्यवहारकी अपेक्षा - उपदेशकी अपेक्षा से उसको दीयमान कहते हैं । इस दिये हुए लिंगको आदान क्रियाके द्वारा
BMW MO膠& M盤勝&&&a«勝aoGD G EGG
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बनगार
धारण करने के बाद उम श्रमण के भाव्यभावक भावसे वो स्व और परक विभाग इस तरहमे प्रवृन होता है जिप. से कि आत्मा संवलनको और पर पदार्थ प्रत्यस्तमनको प्राप्त होन लगता है, उसमे वः सर्वस्व का दान-उपदंश करनेवाले उन मूल उत्तर और परमगुरुओंको नमस्क्रियाके द्वारा सम्भावित बगकर भावतः उनकी स्तुति और बन्दना करने में अत्यंत लीन हो जाता है । इसके बाद मस्त सावध योगका प्रत्याख्यान ही सर्वोत्कृष्ट महाव्रत है इस श्रवणरूप श्रुतज्ञानके द्वाग, जब कि वह अपनी आत्माका-समयद्वारा-आत्मस्वरूपमें लीन रहनेका अनुभव कर रहा हो, सामायिक मंयमपर आरोहण करता है। इसके बाद जब कि वह प्रतिक्रमण आलोचनके प्रत्याख्यानरूप क्रियाओं के श्रवणरूप श्रुतज्ञानक द्वारा अपनी अत्मा में तीन कालमम्बंधी कर्मों पृथक होने का-"भेग यह आत्मा कालिक कमोसे रहित हो रहा है" एपा अनुभव कर रहा हो उम समयमेवह भूतकाल में उत्पन्न हुए किंतु वर्तमान में अनुपस्थित काायक वाचिक और मानसिक कोंमे रहित अवस्थाका आगेहण करता है। इसके बाद जब वह स्त अवद्यकों के घर शरीरको भी छोडकर मर्वोत्कृष्ट यथाजातरुप-नाग्न्य स्वरूपका एका ग्रतामे अवलम्बन लेकर अवस्थित होने लगता है उस समय उसको :पस्थित कहते हैं । और उपस्थित होनेपर जब कि वह सम्पूर्ण विषयोंमें समदृष्टिको धारण करने लगता है उस समय उमको साक्षात् श्रमण कहते हैं। इस प्रकार सामायिकके छेदों विकल्पोंमें अथवा उनके द्वाग अपनी आत्माके स्वरूपको उपस्थित करनेवाले का नाम ही दोपस्थापक है। जैसा कि प्रवचनमारकी चूलिकामें भी कहा है कि:
जह जादरूखजाद उप्पाडिद केसमंसुगं सद्ध । रहिदं हिंसादीदो अप्पडिकम्मं ववदि लिङ्गं । मुच्छारंभविजुत्त जुत्त उवजोगजोगसुद्धीहिं। लिंग ण वगवेक्वं अपुणब्भवकारण जेण्हं । भादाय तं च लिंग गुरुणा परमेण तं णमंसिता ।
बध्याय
१भाव्य-पर स्वरूप और भावक-आत्मा ।
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बनगार
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बध्याय
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सोश्वासवदं किरियं वहिदो होदि सो समणो ॥ वदसमिदिदियरोधो लोचावम्सगमचेलमण्हाण |
खिसियणमदतवणं ठिदिभोयणमेयभत्त च ॥
एदे खलु मूलगुणा मणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता । तेसु पमत्ता समणो छेदोवठ्ठाव गो होदि ॥
केश और स्मशुओं का उत्पादन करदेनेपर तथा यथाजातरूपके धारण करनेपर जो शुद्ध स्वरूप उत्पन्न
होता है जो कि हिंसादिक तथा प्रतिक्रमणादिकसे भी रहित है, मूर्छा और आरम्भसे रहित किंतु उपयोग, योग और शुद्धियोंसे युक्त है, जो मरेकी अपेक्षा नहीं रखता और अपुनर्भव- मोक्षका कारण है उसको जैन लिङ्ग कहते हैं । परमगुरुके उपदेशानुसार उनको नमस्कार करके जो मुमुक्षु इस लिङ्गको धारण करके और व्रतों तथा क्रियाओं का स्वरूप सुनकर उनमें उपस्थित होता है उसको भ्रमण कहते हैं। पांच व्रत और शेष उनकी परिकररूप तेईस क्रियाएं हैं जिनके कि नाम इस प्रकार हैं- पांच व्रत, पांच समिति, पांच इन्द्रियनिरोध, छह आवश्यक, और एक लोच, एक आचलक्य एक अस्नान, एक पृथ्वीपर सोना, एक अदंतधावन, एक स्थित भोजन, तथा एक एकमुक्ति । इस प्रकार जिनेन्द्रदेवने श्रमणों के अठ्ठाईस मूलगुण बातये हैं। इनमें जो प्रमत्त रहता है वह श्रमण छेदोपस्थापन संयमका धारक समझा जाता है, अथवा होता है ।
छेदोपस्थान इस शब्द में छेद शब्दका अर्थ लोप भी होता है । अत एव साम विकके किसी विकल्पका धारण कर लेनेपर भी कारणवश उनका छेद भंग - लोप होजानेपर पुनः उसके धारण करने को उसमें उपस्थित होनेको छेदोपस्थापन संयम कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि-
व्रतानां छेदनं कृत्वा यदात्मन्यधिरोपणम् ।
शोधन वा विलोपे तरछेदापस्थापन मतम् ॥
अंश-विभाग करके जो अपनी आत्मामें व्रतोंका आरोपण करना, अथवा धारण करलेने के वाद लोप
होनेपर उनका शोधन करना, इसको छेदोपस्थापन संयम कहते हैं ।
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५१२
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नर्म
इस पद्यमें अपि शब्द जो दिया है उससे यह अभिप्राय भी ग्रहण करलेना चाहिये कि उक्त श्रमण केवल छेदोपस्थापन संयमका ही अनुसरण नहीं करता किंतु कमी कमी पुनः सामायिक संयमपर भी अधिरोहण किया करता है।
इस प्रकार चारित्रके उद्मोतनका निरूपण करके अब उसके उद्यमनादिक-उद्यमन, निर्वहण, सिद्धि और निस्तरणका भी निरूपण करते हैं:
ज्ञेयज्ञातृतथाप्रतीत्यनुभवाकारैकटग्बोधभाग्, दृष्टुज्ञातृनिजात्मवृत्तिवपुषं निष्पीय चर्यासुधाम्। . पक्तुं बिभ्रदनाकुलं तदनुबन्धायैव कंचिद्विधि,
कृत्वाप्यामृति यः पिबत्यधिकशस्तामेव देवः स वै ॥ १७७ हेयोपादेयरूप जाननेयोग्य तत्वोंको ज्ञेय कहते हैं और जाननेवाले शुद्ध चित्तस्वरूप आत्माको ज्ञाता कहते हैं । इन दोनोंका जैसा कि वस्तुतः स्वरूप है, अथवा जैसा कि सर्वज्ञ वीतरागके उपदेशानुसार आगममें वर्णित है तदनुसार इन दोनोंके विषयमें अथवा ज्ञाता भी ज्ञेयरूपसे भिन्न नहीं है, वह भी ज्ञेयत्वसे उपलाक्षत ही है अत एव ज्ञेयरूप ज्ञाताके विषयमें जो प्रतीति होती है उसको सम्यग्दर्शन कहते हैं। इसी प्रकार ज्ञेय
और ज्ञाताके विषयमें अथवा ज्ञेयरूप ज्ञाताके विषयमें जो तथाभूत अनुभवाकारका होना उसको सम्यग्ज्ञान कहते हैं। ये दोनो ही आकार-तात्विक सम्यक्त्व और ताखिक ज्ञान आत्माके मुख्य स्वरूप हैं । अत एव तादात्म्यरूपसे इनको धारण करनेवाला जो मुमुक्षु द्रष्टा-जैसा कि ऊपर तात्त्विक सम्यक्त्वका स्वरूप कहा गया है तदनुसार ज्ञेय ज्ञाताकी तथाप्रतीतिरूप परिणत, और ज्ञाता-यज्ञाताके विषयमें
बध्याय
अ.ध. ६५
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अनगार
| तथानुभातस्वरूप ज्ञानमय परिणत अपनी आत्मामें जो उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप अस्तित्व है वही जिसका स्व
रूप है ऐसे चारित्ररूपी अमृतका निरंतर और अतिशयेन पान करके-उसमें अत्यंत उपयुक्त होकर, जिस प्रकार संसारमें लोग अमृतमय-स्वादु भोजन पान करने के बाद उसको पकाने के लिये-भुक्त अन्नका अभीष्ट रस बने इसलिये निराकुलताको अथवा सवारी विनोद आदिके द्वारा प्रसन्नताको धारण किया करते हैं उसी प्रकार इस चारित्ररूपी अमृतको जो कि आत्माको अजरामर बनानेका कारण है पकानेके लिये-अभीष्ट फल देनेकी तरफ परिणत करने के लिये निराकुलताको अथवा ख्याति लाभ पूजा आदिकी अपेक्षारूप क्षोभसे रहित होकर-निराकुलतया उसीको धारण करता है और उसके पानका अनुवर्तन करनेके लिये ही आगमोक्त तीर्थयात्रादि किसी भी व्यवहारको करके भी मरणपर्यंत भी उसका नहीं छोडता, प्रत्युत अधिकाधिक रूपमें उ. सका पान करता रहता है, नियमसे उसको देव समझना चाहिये ।।
भावार्थ -- उद्यमनादिका सामान्य स्वरूप पहिले लिखचुके हैं किंतु प्रकृतमें जो ये चारो बातें बताई हैं उ. नका अभिप्राय इस प्रकार है कि:
जीवसहावं णाणं अप्पडिहददंसणं अणण्णमयं ।
चरियं च तेसु णियदं अस्थित्तमणिंदियं भणियं इसको ही मोक्षका कारण समझकर निरंतर और अत्यंत उसमें उपयुक्त होनेको चारित्रका उद्यमन स. मझना चाहिये। फल देनेतक आकुलतारहित होकर उसके धारण करनेको उसका निर्वहण, दसरे तीर्थयात्रादि व्यवहारचारित्रके न करनेपर तो बात ही क्या, करके भी मरणपर्यन्त उनके न छोडनेको निस्तरण, तथा उत्तरो.
अध्याय
५११
१-चारित्रको
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SKRI
लनमार
तर अधिकाधिक रूपमें उसमें उपयुक्त होते जानेको उसकी सिद्धि कहते हैं। इन चारो आराधनाओंके धारण करनेवालेको देव कहते हैं । यथा:--
मान्य ज्ञानं तपोहीनं ज्ञानहीनं तपोर्हितम् ।
द्वयं यस्य स देवः स्याद् द्विहीनो गणपूरणः ॥ तपरहित ज्ञान मान्य होता है. और ज्ञानरहित तप भी पूज्य माना गया है । अत एव जिसमें ये दोनों ही बातें पाई जाय उसको देव और जिसमें दोनों ही न हों उसको केवल संख्या पूरी करनेवाला ही स. मझना चाहिये । देवशब्दका निरुक्तिसिद्ध अर्थ भी यही होता है कि इन्द्रादिक भी जिसकी स्तुति और बंदना करें। अतएव शुद्धात्म द्रव्यको अथवा उसके मूल कारण इस चारित्रशुद्धिसे युक्त जीवको ही देव समझना चाहिये । फलतः मुमुक्षुओंको चाहिये कि वे इस चारित्रशुद्धि और उसका आराधन करनेमें फलसिद्धितक अवश्य ही निरंतर रत रहे । जैसा कि कहा भी है कि
द्रब्यस्य सिबिश्चरणस्य सिद्धी द्रव्यस्य सिद्धौ चरणस्य सिद्धिः।
बुद्ध्वेति कर्माविरताः परेपि द्रव्याविरुद्धं चरणं चरन्तु । इस प्रकार चारित्रके विषयमें उद्योतनादिक पांचो आराधनाओंका प्रकरण समाप्त हुआ।
यहाँसे चार श्लोकोंमें माहात्म्यका वर्णन करना चाहते हैं। किंतु उसमें सबसे पहिले चारित्रमें रुचि उत्पन्न करनेकेलिये उसके अभ्युदयरूप आनुषङ्गिक फलको और मोक्षरूप मुख्य फलको दिखाते हैं:--
सदृग्ज्ञप्त्यमृतं लिहन्नहरहर्भोगेषु तृष्णां रहन् । वृत्ते यत्नमथोपयोगमुपयन्निर्मायमूर्मीनऽयन्। .. तत्किचित् पुरुषचिनोति सुकृतं यत्पाकमूर्छन्नव, -
अध्याय
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बनमार
५१५
मध्याय
४
प्रेमास्तत्र जगच्छ्रियम्बलडशेपीर्ष्यन्ति मुक्तिश्रिये ॥ १७८ ॥
विषय— भोगोंमें तृष्णारहित होकर निरंतर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानरूपी अमृतका आस्वाद लेने बाला और सम्यक् चारित्रका आराधन करने में केवल उद्यम ही नहीं किन्तु उपयोग और सदा उसका अनुष्ठान करने वाला, तथा निष्कंप रूपसे क्षुधादि परीषहोंपर विजय प्राप्त करनेवाला पुरुष ऐसे पुण्यकर्मका संचय क रता है कि जिसके उदयसे बढता हुआ है नवीन प्रेम जिनका ऐसी संसारकी सम्पूर्ण सम्पत्तियां - लक्ष्मियां बीसुलभस्वभाव के कारण अपने स्वामीपर- उक्त चारित्रभक्तिके अनुरापसे विशिष्ट पुण्यकर्मका संचय करनेवाले पुरुषपर जब कि केवल कटाक्षपात ही करनेवाली मोक्षलक्ष्मीसे ईर्ष्या करने लगती हैं तब उसके संगम करनेपर तो बात ही क्या है ?
भावार्थ – उक्त प्रकार की चारिश्वाराधना के अनुराग से विशिष्ट पुण्यका संचय करनेवाला पुरुष जगत् के सम्पूर्ण मोगोंको भोगकर अंतमें कृतकृत्य होजाता है । जैसा कि कहा भी है कि:
संपज्जदि णिव्वाणं देवासुर मणुवराय विहवेहिं । जीवस्स चरितादो दंसणणाणप्पहाणाओ ||
दर्शन और ज्ञानका जिसमें प्राधान्य पाया जाता है ऐसे चारित्र के द्वारा जीवको सुर असुर मनुष्य और उनके राजवैभवों के साथ साथ निर्वाण भी सिद्ध होता है ।
तपका यद्यपि चात्रि में ही अन्तर्भाव है। तो भी उसकी विशेषता जाहिर करनेकेलिये यहांपर अथशब्द के द्वारा उसका पृथक् व्याख्यान समझेलना चाहिये। जैसा कि कहा भी है कि:
चरणं हितं हि जो उज्जमो आउज्जणाय जा होइ ।
सो चैव जिणेहिं तओ भणिओ असढं चरंतस्स ॥
५१६
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बनगार
चारित्रको ही ऊर्जित करनेकेलिए जो उद्यम किया जाता है उसको तप कहते हैं ।
इस सम्यश्चारित्रकी आराधनाके निमित्तसे पूर्वकालमें इस भरतक्षेत्रमें भी जो अपायरहित पदको प्राप्त कर चुके हैं उनसे सांसारिक क्लेशके उच्छेदकी याचना करते हैं:
ते केनापि कृताऽऽजवंजवजयाः पुंस्पुङ्गवाः पान्तु मां, तान्युत्पाद्य पुरात्र पञ्च यदि वा चत्वारि वृत्तानि यैः । मुक्तिश्रीपरिरम्भशुम्भदसमस्थामानुभावात्मना, केनाप्येकतमन बीतविपदि स्वात्माभिषिक्तः पदे ॥ १७९॥
जिन्होंने इस दुःषम कालसे पूर्वके युग-चतुर्थ काल और इसी भरत क्षेत्रमें उपर्युक्त पांचो संयमोंको अथवा चारको उत्पन्न करके या धारण करके शुद्ध निश्चय नयकी अपेक्षा एक-अभिन्न ही किंतु अशुद्ध निश्चय नयकी अपेक्षा रत्नत्रयरूप आत्माके द्वारा संसारका सर्वथा नाश करदिया और जिन्होंने उक्त उत्पन्न संयमोमेंसे मोक्षलक्ष्मीके आलिङ्गनसे शोभमान असाधारण शक्तिके माहात्म्यरूप और अत्यंत उत्कृष्ट किसी भी एक-अनिर्वचनीय भेदके द्वारा अपनी आत्माको विपत्तिरहित --मोक्षस्थानमें प्रतिष्ठित करदिया वे पुरुषोत्तम मेरी संसारके व्यसनोंसे रक्षा करें।
मावार्थ-मोक्षकी सिद्धि यद्यपि यथाख्यात संयमसे ही होती है अन्यसे नहीं | फिर मी ब्यबहारसेवकअणि मांडनेके पूर्व जो संयम रहता है उससे भी उसकी सिद्धि कही जाती है। अत एव यहाँपर किसी भी एक संयमके द्वारा आत्माको निर्वाणपदमें उपस्थित करलेना किंतु अशुद्ध निश्चय नयकी अपेक्षा रत्नत्रयात्मक और शह निश्चय नयकी अपेक्षा अभियात्माके ही द्वारा संसारका नाश होना बताया है।
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बमगार
११८
पांच संयमोंमेंसे आदिके दो सामायिक और छेदोपस्थापनका स्वरूप पहले लिख चुके हैं। शेष तीनका स्वरूप आवश्यक समझकर लिखते हैं:
त्रिंशद्वर्षवया वर्षपृथक्त्वे वा स्थितो जिनम् । यो गुप्तिसमित्यासक्तः पापं परिहरेत् सदा ॥ स पञ्चैकयमोधीतप्रत्याख्यानो बिहारवान् । स्वाध्यायद्वयसंयुक्तो गव्यूत्यर्धाध्वगो मुनिः ।। मध्याहृद्विगव्यूतिगच्छन्मन्दं दिनं प्रति । कृषीकृतकषायारिः स्यात् परीहारसंयमी ॥ सूक्ष्मलोभं विदन् जीवः झपकः शमकोपि वा। किंचिदूनो यथाख्यातास सूक्ष्मसांपरायकः ।। सर्वकर्मप्रभो मोहे शान्ते क्षीणेपि वा भवेत् ।
छद्मस्थो वीतरागो वा यथाख्यातयमी पुमान् ॥ तीस वर्षकी आयुतक सुखपूर्वक घरमें ही रहनेके बाद पृथक्त्व वर्षतक तीर्थकर भगवान्के पादमूलमें रहकर गुप्ति और समितियोंके पालन करनेमें आसक्त हुआ जो साधु पापकर्मोसे सदा परिहत रहता और पांच प्रकार के संयमोंमें किसी भी एक संयमका पालन करता हुआ प्रत्याख्यान पूर्वका अध्ययन करके विचार करता है, और एक आध कोस मार्गमें चलकर दो प्रकारका स्वाध्याय करता तथा प्रतिदिन सन्ध्याकालोंको मन्दगतिसे दो कोस गमन करता है ऐसे कषायरूप शत्रुओंको कृष करदेनेवाले मुनिके परिहारविशुद्धि नामका संयम होता है । जो क्षपक अथवा उपशमक श्रेणीका आरोहण करचुका है और जिसका कषाय अत्यंत सूक्ष्म रहगया है ऐसे साधुके
बध्याय
१-तीनसे नौ तककी संख्याको पृथक्त्व कहते हैं।
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अनगार
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अध्याय
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AATRISTINE THEATRE
यथाख्यातसे कुछ ही कम जो संयम होता है उसको सूक्ष्मसांपराय कहते हैं । सम्पूर्ण कर्मों में प्रधान मोहकर्मके सर्वथा उपशांत होजानेपर अथवा क्षीण होजानेपर जो छद्मस्थ अथवा वीतराग साधुओंके संयम होता है उसको यथाख्यात संयम कहते हैं ।
संयम के विना केवल कायक्लेशरूप तपके अनुष्ठानसे कर्मों की निर्जरा होती तो है किन्तु वह बन्धसह भाविनी होती है । अत एव सिद्धिके अभिलाषियोंको इस संयमका आराधन अवश्य ही करना चाहिये। ऐसा उपदेश देते हैं:--
तपस्यन् यं विनात्मानमुद्वेष्टयति वेष्टयन् ।
मन्थं नेत्रमिवाराध्यो धीरैः सिद्ध्यै स संयमः ॥१८०॥
जिस प्रकार महा विलोनेका दण्ड अपने खींचनेवाली रस्सीसे एक साथ ही बन्धता भी है और खुलता भी है। उसी प्रकार संयम के बिना हिंसादिक विषयोंमे की गई प्रवृत्तिके साथ तप - आतापनादिक कायक्लेशको करता हुआ यह जीव भी बन्धसहभाविनी निर्जरा किया करता है । जिस समय कुछ कर्मोंसे मुक्त हुआ करता है उसी समय दूसरे कर्मोंसे वेष्टित भी हुआ करता है । फलतः संयम के विना तप भी निरर्थक है - आत्मसिद्धिका साधक नहीं हो सकता । अत एव अक्षोभ्य प्रकृतिके धारण करनेवाले साधुओंको आत्म सिद्धिकेलिये निश्चय नयसे रत्नत्रय में एकसाथ प्रवृत्त एकाग्रतारूप और व्यवहार नयसे प्राणिरक्षा और इन्द्रिय निरोधरूप संयमका आराधन करना ही चाहिये ।
संयमरहित तप करनेवालेके जितने कर्मोंकी निर्जरा होती है उससे अधिक कर्मोंका संचय हो जाता है । इस बातको दिखाते हुए और इसीलिये सुतरां साधुओंको संयमाराधन के प्रति उद्यत करने के लिये उनको पूजातिशयसे पूर्ण तीन लोककी अनुग्रहतारूप उसका फल बताते हैं:--
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जनगार
कुर्वन् येन विना तपोपि रजसा भूयो हृताद् भूयसा, . नानोत्तीर्ण इव द्विपः स्वमपधीरुद्धूलयत्युद्धरः ।
यस्तं संयममिष्टदेवतमिवोपास्ते निरीहः सदा,
किं-कुर्वाणमरुद्गणः स जगतामेकं भवेन्मङ्गलम् ॥ ११ ॥ ___ सरोवरमें स्नानावगाहन करके बाहर निकला हुआ मदोन्मत्त हस्ती जिस प्रकार कुछ धुलजानेवाली धूलिकी अपेक्षा कहीं अधिक धूलिसे अपनेको धूसरित बनालेता है, उसी प्रकार मदके उद्रेकको प्राप्त हुआ जडबुद्धि जीव, जिसके विना, तप करके भी निजीर्ण कर्मोंकी अपेक्षा बहुत अधिक पाप कर्मोंसे अपनी आत्माको उल्टा मलिन बनालेता है, उस संयमकी जो साधु ख्यातिलाभादिकी अपेक्षासे रहित होकर नित्य ही इष्ट देवताकी तरह उपासना करता है वह संसारके सभी बहिरात्मा प्राणियोंकेलिये उत्कृष्ट मङ्गलरूप हो जाता है। क्योंकि उसके निमित्तसे संसारी जीवोंके पापका क्षय और पुण्यका संचय होता है। इसी प्रकार संयमाराधकके सम्मुख देव और उनके इन्द्र भी किंकरकी तरह-" हम क्या करें"-इस तरहसे आदेशकी प्रार्थनाकेलिये निरंतर उन्मुख हुए खडे रहते
तपका चारित्रमें अन्तर्भाव किस प्रकार होजाता है उसकी उपपत्ति बताते हैं:
कृतसुखपरिहारो वाहते यच्चरित्रे, न सुखनिरतुचित्तस्तेन बाह्यं तपः स्यात् । परिकर इह वृत्तोपक्रमेऽन्यत्तु पापं, क्षिपत इति तदेवेत्यस्ति वृत्ते तपोऽन्तः ॥ १८२ ॥
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अनगार
धर्म०
'तप दो प्रकारका है-एक बाह्य दूसरा अन्तरङ्ग । यह दोनो ही प्रकारका तप चारित्रम अन्तभूत हो जाता है । क्योंकि अनशनादिक जो बाह्य तप हैं उनका सम्बन्ध भोजनप्रभृति बहिर्भूत पदार्थोंके ही त्यागादिकसे है। इसी प्रकार चारित्रके विषयमें भी बाह्य पदार्थों का त्याग करना ही पड़ता है। क्योंकि जो पुरुष शरीरके द्वारा भोगमें आनेवाले विषयों अथवा सुखौंका परित्याग करदेता है वही चारित्रका आराधन करसकता है, न कि शारीरिक सुखोंमें आसक्तचित्त रहनेवाला । इससे सिद्ध है कि बाह्य तप इस प्रकरणमें निर्दिष्ट चारित्रका ही परिकर है। इसी प्रकार अन्तरङ्ग तप भी चारित्रमें अन्तर्भूत है। क्योंकि जिस प्रकार चारित्र नवीन कौंको आनेसे रोकता है और संचित कोको नष्ट करता है उसी प्रकार तप भी करता है । प्रायश्चित्तादिक अन्तरङ्ग तपके द्वारा भी संवर और निर्जरा दोनो ही कार्य होते हैं । जैसा कि " तपसा निर्जरा च" इस सूत्रके द्वारा भी बताया है।
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इसी अर्थको प्रकारान्तरसे स्पष्ट करते हैं:त्यक्तसुखोनशनादिभिरुत्सहते वृत्त इत्यघं क्षिपति । प्रायश्चित्तादीन्यपि वृत्तेन्तर्भवति तप उभयम् ॥ १८३ ॥
अनशनादिकके द्वारा बाह्य सुखोंका परित्याग करदेनेवाला ही चारित्रके विषयमें सोत्साह प्रवृत्त हो सकता है और प्रायश्चित्तादिक भी चारित्रकी तरहसे ही पापकर्मोका क्षय करते हैं । अत एव दोनो ही प्रकार के तपको चारित्र में ही अन्तर्भूत समझना चाहिये।
RSS
अध्याय
इति चतुर्थोऽध्यायः॥
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अ.घ.६६
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अनगार
५२२
अध्याय
५
पंचम अध्याय । है
सम्यक् चारित्राराधनाका व्याख्यान चतुर्थ अध्यायमें समाप्त हुआ। किन्तु उसके प्रकरण में विभाङ्गारादि इस सूत्र द्वारा जिस एषणा समितिका वर्णन किया था उसकी अङ्गभूत पिण्डशुद्धिका वर्णन अब इस अध्यायमें करना चाहवे हैं। आग में पिण्डशुद्धि आठ प्रकारकी बताई है। यथा :--
के
" उद्गमोत्पादनाहारसंयोगः सप्रमाणकः । अङ्गारधूमौ हेतुश्च पिण्डशर्मिष्टधा ॥ "
उद्गमशुद्धि, उत्पादशुद्धि, आहारशुद्धि, संयोगशुद्धि, प्रमाणशुद्धि, अङ्गारशुद्धि, धूमशुद्धि और हेतुशुद्धि । इन आठोंका वर्णन करनेके पूर्व संक्षेपसे पिण्ड की योग्यता और अयोग्यताका विधिमुख और निषेधमुख से निर्देश करते हैं । षट्चत्वारिंशता दोषैः पिण्डोध: कर्मणा। मलैः । द्वितैोज्झितविघ्नं योज्यस्त्याज्यस्तथार्थतः ॥ १ ॥
पिण्ड नाम आहारका है । जिस आहारको मुनिजन आगमोक्त विधिके अनुसार ग्रहण करसकें उसको योग्य और जिसको ग्रहण न करसकें उसको अयोग्य कहते हैं आगमके अनुसार अन्तरायोंके न होनेपर छयालीस दोषों, चौदह मलों और अधः कर्मसे रहित ही पिण्ड साधुओंके लिये ग्राह्य है । किन्तु इसके विरुद्ध अन्तरायोंके होनेपर अथवा दोष मल और अधः कर्मसे युक्त होनेपर वह अग्राह्य अथवा अयोग्य कहा जाता है ।
उपर्युक्त उद्गमादिक, विषयोंके नाम हैं । ये यदि ऐसे हों जिनसे कि पिण्ड ग्रहण करनेमें बाधा न हो
१ - अध्याय ४ श्लोक १६७
धमे०
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अनगार
तब तो इनको उद्गमशुद्धि आदि शब्दोंसे कहते हैं। और ये यदि आगमके अनुसार ठीक न हों तो इनको ही दोष शब्दसे कहते हैं । उद्गमादिशब्दोंका अर्थ आगे चलकर यथास्थान करेंगे। यहांपर केवल उनके भेद बताते हैं, सो भी दोषोंकी अपेक्षासे । क्यों कि पिण्डशुद्धिमें दोषोंका न रहना ही अभीष्ट है । इन भेदोका स्वरूप भी आगे चलकर लिखेंगे।
५२३
उद्गमदोषके सोलह मेद हैं, और उत्पादना दोषके भी सोलह भेद हैं, किंतु आहारसम्बन्धी शङ्कितादि क दश दोष हैं और संयोजना प्रमाण अङ्गार तथा धूम इनका एक एक ही भेद है । इस तरह कुल मिलाकर दोषोंके छयालीस भेद हैं । हेतुदोषको ही अधाकर्म कहते हैं । इनके सिवाय पिण्डके ही विषयमें पूयादिक चौदह मल और भी होते हैं जिनका कि वर्णन आगे चलकर करेंगे । इसी प्रकार अन्तरायके भी बत्तीस भेदोंका व्याख्यान मलोंके बाद ही करेंगे । अब यहांपर क्रमप्राप्त उद्गम और उत्पादना दोषोंका स्वरूप तथा उनकी संख्या बताते हैं:
दातुः प्रयोगा यत्यर्थे भक्तादौ षोडशोद्गमाः।
औदेशिकाद्या धाग्याद्याः षोडशोत्पादना यतेः॥२॥ दाताके द्वारा आहार औषध वसतिका और उपकरण प्रभृति देय वस्तुओंके देने में जो दोष होते हैं उनको उद्गम दोष कहते हैं । इनके औद्देशिकादिक सोलह भेद हैं । अपने लिये भोजनादि बनवाने आदिके लिये किये गये प्रयोगोंको उत्पादना दोष कहते हैं। इसके भी धात्री दूत आदि सोलह भेद हैं।
शेष दोषोंका भी उद्देश-स्वरूपकथन करते हैं :
शङ्किताद्या दशानन्ये चत्वारोगारपूर्वकाः। षट्चत्वारिंशदन्योधःकर्म सूनाङ्गिहिंसनम् ॥३॥
अध्याय
१२३
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अनगार
५२९
अन-मोज्यपदार्थ के सम्बन्ध जो दोष होते हैं उनको आहारदोष कहते हैं । इसके शाङ्कित पिहित आदि दश मेद हैं। इनके सिवाय भुक्तक्रियासम्बन्धी चार दोष और भी हैं। यथा-अङ्गार धूम संयोजन और प्रमाण । इस प्रकार इन उपर्युक्त दोषों के कुल छयालीस भेद हुए । इन सबसे भिन्न अधःकर्म नामका एक दोष और भी है जिसको कि हेतदोष भी कहते हैं । इसको छयालीस दोषोंसे भिन्न बतानेका कारण यह है कि यह उन सब दोषोंसे बडा-महादोष है क्यों कि इसमें हिंसाका सम्बन्ध रहता है । चूल चक्की ओखली बुहारी और पानी भरना इन पांच क्रियाओंको पंचसूना कहते हैं। जिस काम करने में इन पंच सूनाओंके द्वारा प्राणियोंकी-पदकायिक जीवोंकी हिंसा होती है उसको अथवा स्वयं सूना और प्राणिहिंसाको ही अधःकर्म कहते हैं। अतएव वसतिकादिके बनवाने या सुधारने आदिमें जो हिंसा होता है उसको अधःकर्म ही समझना चा हिये । इस शब्दका अनुगत अर्थ भी ऐसा ही होता है कि जो कर्म अधोगतिका निमित्त है उसको अप्रकर्म कहते हैं। यह गृहस्थोचित निकृष्ट व्यापार माना गया है। साधुओंको न तो यह कर्म करना ही चाहिये और यदि कोई करता हो तो उसकी अनुमोदना भी न करना चाहिये । फलतः संयमियोंको तो यह दूर ही से छोड देना चाहिये । यदि कोई साधु वैयावृत्यको छोडकर अपने भोजनकेलिये इस गृहस्थोंके कामको करने लगे तो उसको श्रमण न कहकर गृहस्थ कहना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
छज्जीवणिकायाणं विराहणोद्दावणेहि णिप्पण्णं ।
आधाकम्म णेयं सयपरकदमादसंपण्णं ।। षटकायिक जीवोंकी विराधना अथवा पीडासे उत्पन्न हुई आहारादि वस्तको अधःकर्म कहते हैं। चाहे तो वह स्वयं बनाई हो अथवा दूसरेने बनाई हो। उद्गम और उत्पादना ये दोनो शब्द अन्वर्थ हैं इसी बातको दिखाते हैं।
भक्ताद्युद्गच्छत्यपथ्यैर्ययैरुत्पाद्यते च ते । दातृयत्योः क्रियाभदा उद्गमोत्पादनाः क्रमात ॥४॥
अध्याय
५२४
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अनगार
१२५
उद्गम शब्दमें उत् उपसर्गका अर्थ उन्मार्ग और गमधातुका अर्थ गमन करना होता है। यहांपर करण अर्थमें घ प्रत्यय किया गया है । अतएव जिन क्रियाओंके द्वाग भोज्य द्रव्य उन्मार्गकी तरफ चला जायआगमकी आज्ञारूप मार्गके विरुद्ध रत्नत्रयका घातक सिद्ध हो ऐसी दाताकी क्रियाओंको उद्गमदोष कहते हैं । इसी प्रकार उत्पादना शब्दका अर्थ उत्पन्न कराना होता है । यहांपर उत्पूर्वक ण्यंत पद् धातुसे करण अर्थमें युद् प्रत्यय हुआ है । अतएव जिन मार्गीवरुद्ध क्रियाओंके द्वारा भोजन उत्पन्न कराया जाय ऐसी यति-पात्रकी क्रियाओंको उत्पादना दोष कहते हैं । अब यहांपर दो श्लोकोंमें उद्गमके भेदोंका नाम गिनाते और उनमें दोषपनेका समर्थन करते हैं।
उद्दिष्ट साधिकं पूति मिश्रं प्राभृतकं बलिः। न्यस्तं प्रादुष्कृतं क्रीतं प्रामित्यं परिवर्तितम् ॥५॥
निषिद्धाभिहतोद्भिन्नाच्छेद्यारोहास्तथोद्गमः।
... दोषा हिंसानादरान्यस्पर्शदैन्यादियोगतः॥६॥ - उद्दिष्ट औद्देशिक ' साधिक पूति मिश्र प्राभृतक बलि न्यस्त प्रादुष्कृत (प्रादुष्कर ) क्रीत प्रामित्य परिवर्तित निषिद्ध अभिहत उद्भिन्न अच्छेद्य और आरोह । इस प्रकार उद्गमके सोलह भेद हैं। इनमें हिंसा अना. दर अन्यस्पर्श और दीनता आदिका सम्बन्ध पाया जाता है इसलिये इनको दोष कहते हैं। किंतु इन बातोंका सम्बन्ध इनमें किस तरहसे पाया जाता है यह बात तब तक समझमें नहीं आ सकती जब तक कि इन प्र. त्येकका स्वरूप समझ न लिया जाय । अतएव इनका यथाक्रमसे सामान्य और विशेष रूपसे स्वरूपनिर्देश
अध्याय
तदौदेशिकमन्नं यदेवतादीनलिङ्गिनः । सर्वपाषण्डपार्श्वस्थसाधून वोद्दिश्य साधितम् ॥ ॥ .
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अनगार
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अध्याय
५
जो अन्न यक्ष राक्षस नाग आदि देवताओंके उद्देशसे अथवा दुःखित दरिद्र व्यक्तियोंके उद्देशसे यद्वा जैन दर्शन से बहिर्भूत आचरण करनेवाले या वेश रखने वालोंके उद्देशसे बनाया गया हो उसको औद्देशिक कहते हैं। इसी प्रकार जो सर्व साधारण के उद्देशसे अथवा पाषण्डियों पार्श्वस्थों और साधुओंके उद्देश से भोजन बनाया जाता है उसको भी औदेशिक कहते हैं ।
पाषण्डियोंका स्वरूप पहले बता चुके हैं। पार्श्वस्थ पांच प्रकार के होते हैं, अवसन पार्श्वस्थ मृगचरित प्रकट और कुशील । यथा,
" वृत्तेऽलसोऽवसन्नः पार्श्वग्थो मलिनपरशेष्टेऽनिष्टे । संसको मृगचरितः स्वकल्पिते प्रकटकुचरितस्तु कुशीलः ॥
चारित्र में प्रमादी रहनेवालेको अवसन्न, जिसका सम्यग्दर्शन मलिन हो जाय उसको पार्श्वस्थ, जो इष्टानिष्ट विषयोंमें आसक्त रहनेवाला है उसको मृगचरित, स्वकल्पित आचरण करनेवालेको प्रकट, और खोटे आचरण करनेवालेको कुशील कहते हैं ।
पूर्वोक्त जिनलिङ्गके धारक २८ मूलगुणोंका पालन करनेवाले निर्ग्रन्थों को साधु कहते हैं। अत एव निमित्तभेदसे औदेशिक अमके चार भेद होजाते हैं । सर्व साधारणके उद्देशसे दिया हुआ, पाषंडियों के उद्देश से दिया हुवा, पार्श्वस्थोंके उद्देशसे दिया हुआ, और साधुओंके उद्देशसे दिया हुआ । आगम के अनुसार इनके क्रमसे चार नाम हैं, - उद्देश, समुद्देश, आदेश, और समादेश ।
उद्गम दोषके दूसरे भेद साधिकका स्वरूप दो प्रकार से बताते हैं
स्यादोषोध्यधिरोधो यत्स्वपाकं यतिदत्तये । प्रक्षेपस्तण्डुलादीनां रोधो वाऽऽपचनाद्यतेः ॥ ८ ॥
धमे०
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यदि दाता अपनोलये पकते हुए भात दाल आदि धान्यमें अथवा उसकेलिये पकते हुए जल-अधेनमें स. नियोंको दान देनेके अभिप्रायसे-" आज तो हम साधु महाराजको आहार देंगे" इस संकल्पसे वावल दाल आदि डाले तो उसकी इस क्रियाको साधिक दोष कहते हैं । अथवा भोजनके पकने-तयार होनेतक पूजा धर्म आदि विषयोंके प्र. नादिके छलसे साधुओंके रोक रखनेको भी साधिक दोष कहते हैं। इस दोषका दूसरा नाम अध्यधिरोध भी है।
दो प्रकारके पूतिदोषको बताते हैं।
| धर्म
अनगार
५२७
प्रति प्रासु यदप्रासुमिश्रं योज्यमिदंकृतम् । नेदं वा यावदार्येभ्यो नादायीति च कल्पितम् ॥ ९॥
जो द्रव्य स्वरूपसे प्रासुक है. उसमें यदि अप्रासुक वस्तु भी मिला दी जाय तो उसको पूति दोषसे दूषित समझना चाहिये। इसको पूतिदोषका अप्रासुकमिश्रण नामका पहला भेद समझना चाहिये । इसी प्रकार किसी वस्तुकी अपेक्षासे ऐमी कल्पना करना कि " इस पात्रद्वारा अथवा इसमें बनाये हुए अमुक पदार्थका यद्वा इस भोजनका दान साधुओंको न होजाय तबतक इसका उपयोग किसीको भी न करना चाहिये" इसे प्रतिदोष कहते हैं । यह पूनिदोषका पूतिकर्मकल्पना नामका दूसरा भेद है । इसका उदाहरण इस प्रकार समझना कि-" हमारे यहांपर यह नवीन चूल जो बनी है उसपर बने हुए भोजनका, अथवा यह नवीन पात्र जो आया है उसका साधुमहाराजके दानमें जब तक उपयोग न करलिया जायगा तबतक दूसरे किसीको भी इसका उपयोग न करना चाहिये," दाताकी ऐमी कल्प. नाको पूतिकर्मकल्पना नामका दोष कहते हैं । इसके चक्की उखली चूल दर्वी और पात्रकी अपेक्षासे पांच भेद होते हैं। यथा:--
मिश्रमप्रासुना प्रासु द्रव्यं पूतिकमिष्यते ।
- चुल्लिकोदूखलं दर्वी पात्रगन्धौ च पञ्चधा । इसी विषयमें और भी कहा है कि:
अध्याय
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अनगार
अप्पासुएण मिस्सं पासुयदव्वं तु पूतिकम्मं तु ।
चुल्लीउखलीदव्वीमायणगंधित्ति पंचविहं । इनके उदाहरणोंकी कल्पना स्वयं करलेनी चाहिये।
मिश्र दोषका स्वरूप बताते हैं :पाषण्डिभिहस्थैश्च सह दातुं प्रकल्पितम् । यतिभ्यः प्रामुकं सिद्धमप्यन्नं मिश्रमिष्यते ॥१०॥
१२८
मासुक-अचित्त भी बनाये हुए उस अनको आचार्योंने मिश्र दोषसे दूषित ही कहा है, यदि वह दाताने पापाण्डियों और गृहस्थोंके साथ साथ यतियोंको देनेके लिये तयार किया हो ।
कालकी हानि और वृद्धिकी अपेक्षासे प्राभृत दोषके दो भेद होते हैं। एक स्थूल दसरा सूक्ष्म । इन दोनोंका स्वरूप बताते हैं :
यदिनादौ दिनांशे वा यत्र देयं स्थितं हि तत् ।
प्राग्दीयमानं पश्चाद्वा ततः प्राभृतकं मतम् ॥ ११ ॥ आगममें जो वस्तु जिस दिन जिस पक्ष या जिस वर्षमें देने योग्य बताई है अथवा दिनके जिस पूर्वाह्न या अपराह्नमें देने योग्य बताई है उससे पहले या पीछे यदि उस वस्तुको दिया जाय तो उसको आगममें प्राभृत दोषसे दूषित माना है। पहले पीछेको ही कालकी हानि और वृद्धि कहते हैं। इसकी अपेक्षासे ही प्राभृत दोषके दो भेद होजा. ते हैं-एक स्थूल दूपरा सूक्ष्म । स्थूल भी कालकी हानि वृद्धिकी अपेक्षासे होता है और सूक्ष्म भी । अन्तर इतना ही है कि दिन पक्ष मास आदिकमें हानि वृद्धिका होना स्थूल ग्राभृत है और दिन के अंशोंमें पहले पीछे होना सूक्ष्म प्राभृत है । यथा :
अध्याय
५२८
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अनगार
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अध्याय
५
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15
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जिस वस्तुको आगममें शुक्ल पक्षको अष्टमीको देने योग्य बताया है उसको उस दिन न देकर उस से पहले ही शुक्ला पंचको ही यदि दाता दे अथवा जो चैत्र शुक्ल पक्षमें देने योग्य निर्धारित है उसको उससे पहले कृष्ण पक्षमें ही यदि दिया जाय, तथा इसी तरह और भी जो कालहानिकी अपेक्षासे होने वाले दोष हैं उन सबको स्थूल प्राभृत कहते हैं। इसी तरह शुक्ल पंचमी के दिन देने योग्य वस्तुको उसके बाद शुक्ल अष्टमी के दिन देना अथवा चैव कृष्ण पक्ष में देने योग्य हो चैत्र शुक्ल में देना तथा और भी जो इसी तरह का वृद्धि की अपेक्षा होने वाले दोष हैं उन सबको भी स्थूल प्राभृत ही कहते हैं। मध्यान्ह में देने योग्यको पूर्वान्ह में . देना और अपराण्में देने योग्यको मध्यान्ह में देना, हत्या दे कालहानिकी अपेक्षा से होनेवाले दोषों को सूक्ष्म प्राभृत कहते हैं। इसी प्रकार पूर्वाह में देने योग्य वस्तुको जो मध्यान्हादिकमें देना वह सब भी कालवृद्धिकी अपेक्षासे होनेवाला सूक्ष्म प्राभृत कहा जाता है। कहा भी है कि---
द्वेधा प्राभृतकं स्थूलं सूक्ष्मं तदुभयं द्विधा । अवसस्तथोत्सर्पः कालहान्यतिरेकतः ॥ परिवृत्त्या दिनादीनां द्विविधं बादरं मतम् । दिनस्याद्यन्तमध्यानां द्वेधा सूक्ष्मं विपर्ययात् ॥
प्राभृत दोष के दो भेद
हैं-- एक स्थूल दूपरा सूक्ष्म । इनमें भी प्रत्येक काडानि और कालवृ-*
द्धिकी अपेक्षा क्रमसे दो दो भेद होते हैं - एक अवसर्प दूसरा उत्सर्प दिन पक्ष मासादिकमें हानिवृद्धि होनेसे
स्थूल प्राभृतके दो भेद, और दिनके ही आदि मध्य अन्तमें हानि वृद्धि होनेसे सूक्ष्म प्राभृतके दो भेद होते हैं।
चल और न्यस्तका लक्षण बताते हैं:--
यक्षादिबलिशेषोर्चासावद्यं वा यतौ बलिः ।
न्यस्तं क्षिप्त्वा पाकपात्रात्पात्यादौ स्थापितं कचित् ॥ १२
अ. ध.
૭
鹽湖劵菜豬豬豬飛豬豬豬雞雞
धर्म०
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अनगार
५३.
यक्ष नाग माता कुलदेवी और पित्रादिकेलिए बनाये हुएमेंसे अवशिष्ट आहार यदि संयमियों को दिया जाय तो उसको बलि दोषसे दूषित समझना चाहिये । यद्वा यतियोंके निमित्तसे सावद्य पूजनका आरम्भ करना भी बलिदोष माना जाता है । जिस वर्तनमें भोजन पकाया या बनाया गया हो उसमेंसे निकालकर कटोरी कटोरा आदि किसी दूसरे वर्तनमें रखकर यदि उसको किसी दूसरे स्थानमें- अपने ही घरमें अथवा परघरमें रखदिया जाय तो उसको न्यस्त कहते हैं। इसको इसलिये दूषित कहा है कि यदि रखनेवालेकी अपेक्षा कोई भन्न मनुष्य उसको दे तो वह उसमें गडबड कर सकता है।
प्रादुष्कार और क्रीतका स्वरूप बताते हैं:पात्रादेः संक्रमः साधौ कटाद्याविष्क्रियाऽऽगते । प्रादुष्कार: स्वान्यगोर्थविद्याद्यैः क्रीतमाहृतम् ॥ १३ ॥
प्रादुष्कारके दो भेद है-एक संक्रम दुसरा प्रकाश । साधुके घर आनेपर भोजनके भाजन आदिको का एक जगहसे दूसरी जगह लेजाना संक्रम दोष है । और किबाड मंडप आदिका दूर करना, भस्मादिकसे अथवा जलादिकसे वर्तनादिकोंका माजना यद्वा दीपकका जलाना आदि प्रकाश दोष है । जैसा कि कहा भी है किः
संक्रमश्च प्रकाशश्व प्रादुष्कारो द्विधा मतः । एकोत्र भाजनादीनां कटादिविषयोऽपरः ॥
अध्याय
अपने अथवा पराये यद्वा दोनोंके यथासम्भव गौ अर्थ विद्यादिकोंके बदलेमें जो भोज्यद्रव्य लाया जाय उसको क्रीत कहते हैं। अर्थात् भिक्षार्थ साधुके घरमें प्रविष्ट होजानेपर उनके लिये उक्त गौ आदिको देकर जो भोज्य सामग्री लाई जाय उसको क्रीत दोषसे दूषित समझना चाहिये ।
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यहांपर गौ शब्द उपलक्षण है अत एव इससे गाय बैल भेस घोडा बकरी आदि.सभी चेतन द्रव्य समझने चाहिये । पारिशेष्यात् अर्थ शब्दसे मोना चांदी रुपया पैसा आदि अचेतन पदार्थ समझना चाहिये । विद्याके प्रज्ञप्ति आदि अनेक भेद है। यहांपर आदिशब्दसे नेटक मंत्र आदिको समझना चाहिये। ये चीजें अपनी हों या दूसरेकी अथवा दोनोंकी-साजे की, किन्तु उनके द्वारा यदि भिक्षार्थ साधुके आनेपर कोई भोज्य सामग्री लाई जाय तो उसको क्रीत दोषसे दषित समझना चाहिये । यथाः
क्रीतं तु द्विविध द्रव्यं भावः स्वकपरं द्विधा ।
सचित्तादिभवो द्रव्यं भावो विद्यादिकं तथा ।। प्रामित्य और परिवर्तितका स्वरूप बताते हैं:--- उद्धारानीतमन्नादि प्रामित्यं वृद्ध्यवृद्धिमत् ।
बीह्यन्नाद्यन शाल्यन्नाद्युपात्त परिवर्तितम् ॥ १४ ॥ मुनियोंके दानकेलिये किसी भी उधार लाये हुए अन्न आदिको प्रामित्य कहते हैं। उधार लानेमें और उसके चुकानेमें दाताको अनक क्लेश उठाने पड़ते हैं परिश्रा करना पडता और कदर्थित होना पडता है। अत एव माधुकरी वृत्ति धारण करनेवाले माधुओं के लिये यह दोष माना है। यह दो प्रकारका माना है एक वृद्धिमत् दूसरा अवृद्धिमत् । क्योंकि कोई भी चीज जो उधार लाई जाती है वह दो प्रकारकी हो सकती है एक व्याजू दूसरी विना व्याजू । यथा:
भक्कादिकमृणं यच तत्वामित्यमुदाहृतम् ।
तत्पुनर्द्वि विधं प्रोक्तं सवृद्धिकमथेतरत् ॥ एक चीजके बदलेमें यदि दूसरी चीज लाई जाय जैसे कि साठीके बदरेमें शालीके चावल अथवा उ.
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बनगार
के बदलेमें मंग तो उसको परिवर्तित करते हैं। ऐसा करने में भी दाताको संक्लेश होता है अत एव यह मी रनियोंकेलिये दोष ही है। यथाः--
श्रीदिभक्तादिभिः शालिभक्ताचं स्वीकृतं हि यत् । संयतानां प्रदानाय तत्परीवत मिष्यते ॥ निषिद्ध दोष और उसके भेदप्रभेदोंको बताते हैं:-- निषिद्धमीश्वरं भी व्यक्ताव्यक्तोभयात्मना । वारितं दानमन्येन तन्मन्येम त्वनीश्वरम् ॥ १५॥
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जो चीज किसीके मना करनेपर भी मुनियों को आहारकेलिये दी जाय उसको निषिद्ध कहते हैं । इसके दो भेद हैं एक ईश्वर दूपरा अनश्वा । वस्तुके स्वामीसे निषिद्ध वस्तुको ईश्वर और जो वस्तुतः स्वामी तो नहीं है किन्तु अपने को स्वामी समझता है ऐसे पुरुषके द्वारा निषिद्ध हो उस वस्तु को अनीश्वर कहते हैं। स्वामीके तीन भेद हैं--व्यक्त अव्यक्त और उभय । जो अपने अधिकार अथवा रक्षणादि कार्यके करनेमें किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता ऐसे सबन्ध स्वतन्त्र अधिकारीको व्यक्त और जो दुसरेकी अपेक्षा रखनेवाला है उसको अव्यक्त कहते हैं । किन्तु जो व्यक और अव्यक्त दोनों प्रकार का कहा जा सकता हो अथवा ऐसे दो संयुक्त व्यक्ति हों तो उनको उभय कहते हैं। इसी प्रकार अनीश्वर दोपके भी ये तीन भेद होते हैं । अत एव व्यक्तेश्वरनिषिद्ध आदि निपिद्ध दोषके छह भेद हो जाते हैं। इस विषयका आचार टीकामें,
' "अणिरािष्टुं पुण दुविहं ईसरमहणीसरं च दुवियप्पं ।
पढमेस्सरसारखं वत्तावत्तं च संघाई।" इस सूत्रकी व्याख्या करते हुए बहुत विशेष वर्णन किया है । किन्तु बुद्धिमान् लोक उस सम्पूर्ण व्या :
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अध्याय
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अनगार
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ख्यानकी अपनी बुद्धिसे यहांपर ही घटना कर सकते हैं अत एव प्रकृतमें किसी प्रकारके सूत्रविरोध आदिकी शंका न करनी चाहिये।
अविहत दोषका व्याख्यान करते हैं:-- त्रीन सप्त वा गृहान् पङक्त्या स्थितान्मुक्त्वान्यतोऽखिलात ।
देशादयोग्यमायातमन्नाद्यभिहृतं यतेः ॥ १० ॥ एक सरल पक्तिमें स्थित तीन अथवा सात मकानोको छोडकर बाकी सब जगहोंसे मुनियोंके भोजन केलिये आई हुई अयोग्य अन्नादिक भोज्य सामग्रीको अमिहृत कहते हैं। ऐसी सामग्रीके ग्रहण करनेमें ईर्यासमिति आदिका पालन नहीं हो सकता किंतु उसमें प्रचुरतया दोष आता है अत एव साधुओंकेलिये ऐसे भोजनके ग्रहण करनेमें अभिहत दोष है।
इस दोषके मूलमें दो भेद हैं-एक देशाभिहत दूसरा सर्वाभिहत । देशाभिहतके दो भेद हैं-एक आदत दूसरा अनादृत । सर्वामिहतके चार भेद हैं-स्वग्रामागत परग्रामागत स्वदेशागत परदेशागत । जिस ग्राम नगर या देशमें मोक्ता यति उपस्थित हो उसको स्वग्राम या स्वदेश और बाकीको परग्राम तथा परदेश समझना चाहिये। एक ही पक्तिमें स्थित तीन अथवा साथ मकानों से जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि एक दाताका मकान और उसके दोनो तरफ तीन तीन मकान इस तरह एक ही सरल पंक्तिके सात मकानोंमेंसे आये हुएको आदत और उनके सिवाय दूसरे मकानों या स्थानों से आये हुए औषधाहारादिको अनादृत कहते हैं । एक मुहल्लेसे दूसरे मुहल्ले में लाये गये भोजनादिको स्वग्रामागत और पाकीको परग्रामागत कहते हैं। इसी तरह स्वदेशागत और परदेशागतका भी स्वरूप समझना चाहिये ।
उद्धन और आच्छेब दोषके स्वरूपका निरूपण कर हैं:--
बध्याय
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अनगार
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पिहितं लाञ्छितं वाज्यगुडाघद्घाट्य दीयते ।
यत्तदुद्भिन्नमाच्छेद्यं देयं राजादिभीषितैः ॥ १० ॥ .. ऐसी कोई भी धी गुड खांड या छुआरा आदि वस्तु जो कि भट्टी या लाख आदिसे ढकी हुई हो अथवा किसी तरहकी नामकी मील मुहर की गई हो वह खोलकर साधुओंको भोजनके लिये दीजाय तो इसका उद्भित्र दोषसे दक्षित कहा है क्योंकि देखा जाता है कि चींटी आदि जीवोंका प्रवेश प्राय हो जाया करता है । इसी प्रकार यदि राजा या मंत्री आदिके भयसे गृहस्थ लोग साधुओंको आहार दें तो उस दी हुई वस्तुको आच्छेद्य दोषसे दूषित समझना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
संयतश्रममालोक्य मीपयित्वा प्रदापितम् ।
राजचौरादिमिर्यत्तदाच्छेद्यमिति कीर्तितम् ।। संयतोंके भिक्षाश्रमको देखकर यदि कोई राजा अथवा उसके समान प्रभुता रखनेवाला मंत्री आदि कोई भी व्यक्ति यद्वा चौर आदि गृहस्थोंको यह भय दिखाकर कि इन आये हुए संयतोंका यदि तुम लोग भिक्षा न कराओगे तो हम तुम्हारा सम्पूर्ण द्रव्य लूट लेंगे या ग्रामसे निकाल देंगे भोजन करवावे, ता उस दी हुई वस्तुको आच्छेद्य दोषसे दूषित समझना चाहिये।
मालारोहण दोषको बताते हैं:निश्रेण्यादिभिरारुह्य मालमादाय दीयते। यद द्रव्यं संयतेभ्यस्तन्मालारोहणमिष्यते ॥८॥
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A
अध्याय
KASHESABKEasiaNER
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नसेनी या जीना-दादरा आदिके द्वारा मकानके ऊपरके खन-मालेपर चढकर और वहांसे लाकर जो
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ASSAGE
· द्रव्य संयमियोंको आहारकेलिये दिया जाय उसको मालारोहण कहते हैं। इस क्रियाके करनेसे दाताका अपाय दीखता है अत एव इसको दोष माना है।
अनगार
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से पहले उनके नामका उल्लेख करते हैं । यहाँपर यह बात स्मरणमें रखना चा िये कि ये दोष भोक्ता संयमी
इस प्रकार उद्गम दोषका प्रकरण समाप्त हुआ। अब उत्पादना दोषोंका व्याख्यान करनेकेलिये सब से पहले उनके नामका उल्लेख करते हैं । यहाँपर यह बात स्मरणमें रखनी चाहिये कि ये दोष भोक्ता संयमी के प्रयोगकी अपेक्षासे होते हैं। चाहे तो उसने उस देय वस्तुको तयार होनेमें स्वयं प्रयोग किया हो या कराया हो अथवा उसकेलिये उपदेश दिया हो।
उत्पादनास्तु धात्री दतनिमित्ते वनीपकाजीवौ । क्रोधाद्याः प्रागनुनुतिवैद्यकविद्याश्च मन्त्रचूर्णवशाः ॥ १९ ॥
उत्पादन दोषके सोलह भेद हैं। धात्री दूत निमित्त बनीपकवचन आजीव क्रोध मान माया लोभ र्व स्तुति पश्चात्स्तुति वैद्यक विद्या मन्त्र चूर्ण वश ।
___ पांच प्रकारके धात्री दाषका बताते हैं:--
मार्जनक्रीडनस्तन्यपानस्वापनमण्डनम् । बाले प्रयोक्तुर्यत्प्रीतो दत्त दोष: स धात्रिका ॥२०॥
अध्याय
धात्री शब्दका अर्थ धाय होता है । जो बालकका पोषण करे उसको धाय कहते हैं। उसके मिन्न भिन्न कार्यकी अपेक्षा पांच भेद हैं; मार्जन मंडन खेलन स्वापन और क्षीर । स्नानादिक द्वारा बालकके पोषण करने वालीको मार्जन धाय, जो भूषणादिकके द्वारा करे उसको मण्डन धाय, जो नाना प्रकारसे क्रीडा करावे उसको खेलन धाय, जो माताकी तरह सुलावे उसको स्वापन धाय, और जो दूध पिलाकर पुष्ट करे उसको क्षरिधाय कहते
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अनगार |
हैं। इनमेंसे एक या अनेक कार्यों का यदि भोक्ता संयमी बालक में प्रयोग करे और अनुरक्त हुआ गृहस्थ उस प्रयोग द्वारा उत्पन्न कराये हुए भोजनको द तथा उसको वह संयमी ग्रहण करे तो उसके वह धात्री नामका उत्पादन दोष समझना चाहिये । जैसा कि कोई संयमी गृहस्थके व लकको खिलाने का इस तरहसे स्वयं प्रयोग करे या करावे अथवा उसकेलिये उपदेश दे कि जिससे भोजनक उत्पन्न होने में सहायता पहुंचे और अनुरक्त गृहस्थके द्वारा दिये हुए उस उत्पन्न भोजनको ग्रहण करे तो उस संयमीक खेलनधात्री नामका उत्पादन दोष लगेगा। जैसा कि कहा भी है कि:
समझना
धर्म
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स्नानभूषापयःक्रीडामातृधात्रीप्रभेदतः ।
पञ्चधा धात्रिकाकार्यादुत्पादो धात्रिकामलम् ।। इन कार्योंसे दोषका आना इसलिये बताया है कि इनसे स्वाध्यायका विनाश होता और जिनमार्गमें पण लगता है।
दूतदोष और निमित्तदोषको स्पष्ट करते हैं:दृतोऽशनादेगदानं संदेशनयनादिना । तोषितादातु'ष्टाङ्गनिमित्तेन निमित्तकम् ॥ २१ ॥
सम्बन्धी पुरुप दिकोंके वचन - वृनान्त - संदेशको स्थानान्तरमें पहुंचाना दतकर्म कहाजाता है। ऐस कर्म करके संतुष्ट किये गय दाताके द्वारा दिये हुए भोजनादिका ग्रहण करना दूतदोष है । जैसा कि कहा भी
अध्याय
जलम्थस्नभःस्वान्यग्रामस्वपरदेशतः।
संबन्धिवचसो नीतिदूतदोषो भवेदसौ ॥ अपने ग्राम या अपने देशसे जलस्थल या आकाशमार्गसे दूसरे ग्राम या दूसरे देशमें जाकर और वहां
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अनगार
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अध्याय
५
पहुंचकर किसीके समाचारोंको उसके सम्बन्धी के पास पहुंचाकर भोजन ग्रहण करे तो वहां दूत दोष समझा जाय गा । इस कर्म करने मे शापनमें दूषण लगता है अत एव जिनलिङ्गियोंके लिये अष्टाङ्ग निमित्तके द्वारा संतुष्ट किये गये दाताके द्वारा दिये हुये कहते हैं ! अष्टाङ्ग निमित्तके नाम इस प्रकार हैं:
यह दोष माना है ।
भोजनके ग्रहण करनेको निमित्त दोष
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लाञ्छनाङ्गस्वरं छिन्नं भौमं चैव नभोगतम् । लक्षणं स्वपनश्चेति निमित्तं त्वष्टधा भवेत् ॥
मसा तिल लहसन आदिको लाञ्छन या व्यञ्जन कहते हैं। हाथ पैर सिर पेट अङ्गुली आदि शरीर के किसी भी भागको अङ्ग कहते हैं। स्वर शब्दका अर्थ शब्द स्पष्ट है । अस्त्र शस्त्रादिकके घावको अथवा वस्त्रादि में छेद वगैरह के होजानेको छिन्न कहते हैं। पृथ्वीके किसी विभागविशेषको मौम कहते हैं । सूर्य चन्द्रादिके ग्रहण उदय अस्त आदि होनेको अन्तरिक्ष कहते हैं । शरीरमें नन्द्यावर्त कमल चक्र हाथी आदिके आकारके पडजानेको लक्षण कहते हैं । और सोते हुए मनुष्यको हाथी विमान महिष आदि जो दीखा करते हैं उसको स्वप्न कहते हैं । इन व्यंजनादिकों को देखकर भविष्य में होनेवाले शुभाशुभ फलका जो ज्ञान होता है उसको निमित्तज्ञान कहते हैं। इस ज्ञानके द्वारा तथाभूत फलको बताकर दाताको संतुष्ट करके उसके दिये हुए आहारौषधादिका ग्रहण करना निमित्तनामका उत्पादनदोष समझना चाहिये। क्योंकि ऐसा करनेमें रसास्वादन दीनता आदि दोष दीखते हैं !
वनीपक और आजीवदोषोंका लक्षण करते हैं:
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दातुः पुण्यं श्वादिदानादस्त्येवेत्यनुवृत्तिवाक् । वनीपकोक्तिराजीव वृत्तिः शिल्पकुलादिना ॥ २२ ॥
याचना करनेवालेको वनीपक कहते हैं । अत एव भोजन ग्रहण करने के अभिप्रायसे दाताके अनुकूल
धर्म -
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अनगार
वचन बोलकर जहां आहारादि ग्रहण किया जाय वहां वनीपक वचन नामका उत्पादन दोष समझना चाहिये। जैसे कि दाताके यह पूछनेपर कि कुत्ता काक कोढी मांसासक्त द्विज दीक्षोपजीवी पार्श्वस्थ तापस श्रमण छात्र इत्यादिकोंको दान देनेमें पुण्य होता है या नहीं ? उत्तर में आहारके आभिप्रायसे ऐसे अनुकूल वचन बोलना कि " इस में क्या सन्देह ई, होता ही है, ऐसे. ही वचनोंको वनीपकवचन नामका दोष कहते हैं । जैसा कि कहा भी है कि
साण-किविण-तिहिमाहण-पासत्थिय-सवण-काग-दाणादि ।
पुण्णं णवेति पुढे पुण्णं ति य वणिवयं वयणं ।। ऐसे वचनोंके बोलनेसे दीनता प्रकट होती है अत एव इसको दोष माना है। ___अपने हस्तरेखादिके अथवा शिल्पशास्त्रादिके ज्ञानको यद्वा कुल जाति ऐश्वर्य तपोऽनुष्ठानादिको प्रकट करके भोजन ग्रहण करनेमें आजीव नामका दोष होता है । यथाः
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आजीवस्तप ऐश्वर्य शिल्पं जातिस्तथा कुलम् ।
तैस्तूत्पादनमाजीव एष दोषः प्रकथ्यते ।। ऐसा करनेमें वीर्य--सामर्थ्यका अनिगृहन और दीनता प्रकट होती है अत एव इसको दोष माना है।
क्रोध मान माया लोभ इन चार दोषोंका, पूर्व कालमें हस्तकल्यादिक नगरोंमें होजानेवाले इनके आख्यानोंको बताते हुए, स्वरूपनिर्देश करते हैं।
अध्याय
क्रोधादिबलादादतश्चत्वारस्तदभिधा मुनेर्दोषाः।
पुरहस्तिकल्यवेन्नातटकासीरासीयनवत् स्युः ॥२३॥ ऋद्ध होकर भोजनादिके ग्रहण करनेमें क्रोध दोष, अभिमानके वशीभूत होकर ग्रहण करनेमें मान दोष,
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अनगार
समाचारको धारण करके भोजनादि करनेमें माया दोष, और लुब्ध परिणामोंसे आहार आषधादिके ग्रहण करने में लोभ दोष होता है। जैसा कि पूर्व कालमें हस्तिकल्यादिक नगरोंमें हो भी चुका है। हस्तिकल्य नामके नगरमें क्रोधके बलसे भोजन करनेवाले मुनिको क्रोध नामका दोष, और वेत्रातट नामक नगरमें मानके बलसे भोजन करनेवालेके मान दोष, काशी नगरीमें मायाचारके बलसे भोजन करनेवालेके मायादोष, तथा लोभके बलसे रासीयन नामके नगरम भोजन करनेवालेके लोभ नामका दोष घटित हो चुका है। उसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये।
पूर्वस्तुति और पश्चात्स्तुति दोषोंको बताते हैं:-- स्तुत्वा दानपतिं दानं स्मरयित्वा च गृह्णतः ।
गृहीत्वा स्तुवतश्च स्तः प्राक्पश्चात्संस्तवौ क्रमात् ॥ २४ ॥ तुम बडे दानवीर हो, तुह्मारी कीर्ति सम्पूर्ण जगत्में व्याप्त होरही है, इत्यादि अनेक प्रकारसे दाताकी प्रशंसा करके अथवा " पहले तो तुम बड़े दानशूर थे. मुक्तहस्त होकर लोगोंको दान किया करते थे, पर अब तो कुछ न मालुम, क्यों भूलसे गये हो", इत्यादि अनेक प्रकारसे उसको पहले दानका स्मरण दिलाकर भोजन करनेमें पूर्वस्तुति नामका दोष होता है । तथा भोजन करनेके अनन्तर उसी प्रकार स्तुति करना दानका स्मरण दिलाना उसको पश्चात् स्तुति नामका दोष कहते हैं । ऐसा करने में जिनलिङ्गके कर्तव्योंसे विरुद्ध कृपणता प्रकट होती है अत एव इसको दोष माना है।
अध्याय
चिकित्सा विद्या और मन्त्र इन तीन दोषोंको बताते है:चिकित्सा रुक्प्रतीकाराद्विद्यामाहात्म्यदानतः। . विद्या मन्त्रश्च तदानमाहात्म्याभ्यां मलाश्नतः ॥२५॥
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ज्वरादिक व्याधि अथवा ग्रहादिकोंकी बाधा दूर करनेको चिकित्सा कहते हैं इसके आठ अङ्ग हैं-रसायन विष क्षार बाल शरीर भूत शल्य और शलाका । यथाः
धर्म
अनगार
रसायनविषक्षागः कौमाराङ्गचिकित्सिते । चिकित्सा दोष एषोऽस्ति भूतं शल्यं शिराष्टधा ।।
अत एव इस चिकित्साविधिके द्वारा उक्त व्याधिवाधाका स्वयं प्रतीकार करके अथवा उसके निराकरण का उपदेश देकर जो साधु भोजन करता है उसके चिकित्सा नामका उत्पादन दोष लगता है । क्यों कि ऐसा करनेसे सावद्यादिक अनेक दोषोंकी उद्भूति होती है ।
आकाशगामिनी आदि अनेक प्रकारकी विद्याएं प्रसिद्ध हैं। उनका माहात्म्य दिखाकर अथवा उनका दान करके-सिद्ध कराकर, यद्वा मैं तुझको अमुक विद्या दे दंगा ऐसा आश्वासन देकर भोजन करनेवाले साधुके विद्या नामका दोष लगता है । जैसा कि कहा भी है कि:
विज्जो साधिदमिद्धा तिस्से आसापदाण करणेहिं ।।
तिस्से माहप्पेण य विज्जादोसो दुउप्पादो॥ इसी प्रकार मन्त्रका माहात्म्य दिखाकर यद्वा उसका दान करके-सिद्ध कराके अथवा सिद्ध करादेनेका आश्वासन देकर भोजन करनेवाले साधुके मन्त्र नामका दोष लगता है। ऐसा करनेमें लोकप्रतारण, रसनेन्द्रियकी गृद्धि आदि अनेक दोष प्रकट होते हैं अत एव इनको दोष माना है।
विद्या और मन्त्र इनके दोषोंका स्वरूप प्रकारान्तरसे बताते हैं:--
विद्या साधितसिद्धा स्यान्मत्रः पठितसिद्धकः । त भ्यां चाहूय तौ दोषौ स्तोश्नतो मुक्तिदेवताः ॥ २६ ॥
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अनगार
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अध्याय
५
as
जपहोम आदि के द्वारा आराधन करनेपर जो मिद्ध दर्शाभूत हुई हो उसको विद्या कहते हैं । उसके द्वारा भुक्तिदेवता - भोजन प्रदान करनेवाले व्यन्तरादिदेवोंक आव्हान करके उनसे प्राप्त हुई आहारोपधादिक सामग्रीके ग्रहण करनेवाले साधुके विद्यानामका दोष होता है। इसी प्रकार जिसका पहले गुरुमुखसे अध्ययन किया हो किन्तु पीछे वह सिद्ध होगया हो अपनी शक्तिके अनुसार कार्यका साधक बनगया हो उसको मन्त्र कहते हैं। इसके द्वारा उक्त भुक्तिदेवताका आमन्त्रण करके उसके द्वारा सम्पन्न हुई आहार्य सामग्रीका ग्रहण करनेवालेके म नामका दोष लगता है । जैसा कि कहा भी है कि,
विद्यामन्त्रैः समाहूय यद्दानपतिदेवताः । साधितः स भवेदोषो विद्यामन्त्रसमाश्रयः ॥
चूर्ण और मूलकर्म दोषों को बताते हैं :--
दोषो भोजनजननं भूषाञ्जनचूर्णयोजनाच्चूर्णः ।
स्यान्मूलकर्म चावशवशीकृतिवियुक्तयोजनाभ्यां तत् ॥ २७ ॥
वस्तुओंकी रजविशेषको चूर्ण कहते हैं । प्रकृतमें यह दो प्रकारका कहा जा सकता है, एक भूषाचूर्ण दूसरा अंजनचूर्ण। जिससे शरीर शोभायमान या अलंकृत हो ऐसी द्रव्यरजको भूषाचूर्ण और जिससे नेत्रों में निर्मलता आदि उत्पन्न हो उसको अंजनचूर्ण कहते हैं। इस तरहके चूर्णोंका दाताकेलिये सम्पादन करके उसके यहां भोजन ग्रहण करनेवाले साधुके चूर्ण नामका दोष लगता है । क्योंकि यह क्रिया जीविकाके द्वारा जीवन करनेमें प्रवृत्त करती है aara इसको दोष माना है । जो अपने अधीन नहीं है उसको वशमें करनेका उपाय बताकर या वैसा होनेकी योजना करके, और परस्पर में वियुक्त हुए विरही स्त्री पुरुषोंका मेल कराकर अथवा उसका उपाय बताकर भोजन ग्रहण करनेवाले साधुके मूल कर्म नामका उत्पाद दोष लगता है। क्योंकि ऐसा करनेमें लज्जादिका आभोग-स्वीकार किया जाता 1
धर्म०
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इस प्रकार उत्पादन दोषोंका प्रकरण समाप्त हुआ। अब क्रमप्राप्त दश प्रकारके अश्शन दोषोंके नाम गिनाते हैं
शङ्कितपिहितम्रक्षितनिक्षिप्तच्छोटितापरिणताख्याः ।
दश साधारणदायकलिप्तविमित्रैः सहेत्यशनदोषाः ॥ २८॥ भोज्यसामग्रीसे सम्बन्ध रखनेवाले दोषोंको अशन कहते हैं। इसके दश भेद हैं.:-शंकित पिहि म्रक्षित निक्षिप्त छोटित अपरिणत साधारण दायक लिप्त और विमिश्र । इनका स्वरूप बतानेकी इच्छासे क्रमके अनुसार पहले शङ्कित और पिहित इन दोषोंका लक्षण करते है ।
संदिग्धं किमिदं भोज्यमुक्तं नो वेति शंकितम् । पिहितं देयमप्रासु गुरु प्रास्वपनीय वा ॥२९॥
इस वस्तुको आगममें ग्रहण करनेके योग्य बताया है अथवा अयोग्य ऐसा जिस वस्तके विषयमें संशय हो उसके ग्रहण करनेमें शङ्कित नामका दोष माना है । अथवा यह वस्तु कहीं अधःकर्मके द्वारा तो निष्पन्न नहीं हुई ऐसा जिसके विषयमें संदेह होजाय, फिर भी उसको यदि ग्रहण करलिया जाय तो भी शंकित नामका दोष होता है।
अप्रासुक वस्तुके द्वारा अथवा प्रासुक किन्तु गुरु-भारी पदार्थके द्वारा ढकी हुई भोज्यसामग्रीको उ. घाडकर दिये जानेपर ग्रहण करनेमें पिहित नामका दोष लगता है । जैसा कि कहा भी है कि:
पिहितं यत्सचित्तन गुर्वचित्तेन वापि यत् ।
तत् त्यक्त्वेव च यद्देयं बोद्धव्यं विहितं हि तत् ।। प्रक्षित और निक्षिप्त दोषोंका लक्षण बताते हैं:
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अध्याय
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म्रक्षितं स्निग्धहस्तायैर्दत्तं निक्षिप्तमाहितम् । सचित्तक्ष्माग्निवा/जहरितेषु त्रसेषु च ॥ ३०॥
अनगार
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घी तेल आदिके द्वारा स्निग्ध-सचिक्कण हुए हाथ अथवा चमचा करछली आदि पात्रोंके द्वार दी गई भोज्यसामग्रीके ग्रहण करनेमें प्रक्षित नामका दोष लगता है। जो वस्तु सचित्त पृथिवी जल अग्नि बीज और हरितकाय इन पांचके ऊपर अथवा छठे त्रसकाय-द्वींद्रियसे लेकर पंचेन्द्रियतकके ऊपर रक्खी हुई हो उसके ग्रहण करनेमें निक्षिप्त नामका दोष लगता है । जैसा कि कहा भी है कि:
सचित्त पुढवि आऊ तेऊ हरिदं च बीज तसजीवा। जं तेसिमुवरि ठविदं णिक्खित्तं होदि छब्भेयम् ।। छोटित दोषका स्वरूप बताते हैं:
अध्याय
भुज्यते बहुपातं यत्करक्षेप्यथवा करात ।
गलद्वित्त्वा करौ त्यक्त्वाऽनिष्टं वा छोटितं च तत् ॥ ३१ ॥ प्रकारभेदसे छोटित दोष पांच तरहका है। क्योंकि बहुतसी मोज्यसामग्रीको गिराकर अथवा छोडकर थोडे आहारके ग्रहण करनेमें, और परोसनेवाले दाताके द्वारा हाथपर छोडी गई किन्तु तक्र आदिके द्वारा झरती हुई वस्तुके ग्रहण करनेमें, तथा जिससे भोज्य सामग्री टपक रही है ऐसे हाथसे भोजन करनेमें, एवं दोनो हाथोंको अलहदा अलहदा करक भोजन करनेमें, और अनिष्ट आहारको छोडकर इष्ट पदार्थके ग्रहण करने में छोटित दोष लगता है।
अपरिणत दोषको बताते हैं।
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तुषचणतिलतण्डुलजलमुष्णजलं च स्ववर्णगन्धरसैः । अरहितमपरमपीदृशमपरिणतं तन्न मुनिभिरुपयोज्यम् ॥ ३२ ॥
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भूपी चना तिल अथवा चावलके धोवनका जल यद्वा ऐसा जल जो कि गरम होकरके पुनः ठंडा होगया हो जिसके कि वर्ण गन्ध और रसका परिवर्तन नहीं हुआ है एवं और भी जो इसी तरहका जल हो जो कि हरीतकी चूर्णादिके द्वारा अच्छी तरह विध्वस्त नहीं हुआ हो-अपने वर्णादिको छोडकर वर्णान्तरको प्राप्त न हुआ हो उसको अपरिणत कहते हैं। अत एव संयमियोंको उसका ग्रहण न करना चाहिये । ग्रहण कर नेपर अपरिणत नामका दोष लगता है । यथाः----
तिलादिजलमुष्णं च तोयमन्यच्च तादृशम् । कराद्यऽताडित नैव ग्रहीतव्यं मुमुक्षुमिः॥ साधारण दोषका स्वरूप बताते है:
यद्दातुं संभ्रमाद्वस्त्राधाकृष्यान्नादि दीयते । असमीक्ष्य तदादानं दोषः साधारणोऽशने ॥ ३३ ॥
. आकुलता भय अथवा आदरसे वस्त्रादिकोंका आकर्षण करके अच्छी तरह पर्यालोचन किये विना ही दाताके द्वारा दीगई आहार औषधादिक वस्तुके ग्रहण करने में साधारण दोष माना है । यथाः
संभ्रमाहरणं कृत्त्वाऽऽदातुं पात्रादिवस्तुनः । असमीक्ष्यव यद्देयं दोषः साधारणः स तु ।। दायक दोषका स्वरूप बताते हैं:
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अध्याय
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मलिनीगर्भिणीलिङ्गिन्यादिनार्या नरेण च । शवादिनापि कीबेन दत्तं दायकदोषभाक् ॥ ३४॥
धर्म
रजस्खला गर्भभारसे युक्त अथवा जिनालङ्ग आदिके धारण करनवाली आर्यिकाओं तथा दूसरी भी रक्तपटिका आदि अनेक प्रकारकी स्त्रियोंके द्वारा ही नहीं किन्तु शबको श्मशानमें छोडकर आये हुए मृतक सूतकसे युक्त यद्वा व्याधियुक्त तथा क्लीब-नपुंसक आदि पुरुषोंके द्वारा भी दिये हुए आहारको दायक दोषसे युक्त समझना चाहिये।
यहांपर स्त्री पुरुष वेदोंके साथ जो आदि शब्द दिया है उससे और भी आगममें बताये हुए भेदोंका ग्रहण करलेना चाहिये । यथाः--
सूती शौण्डी तथा रोगी शवः षण्ढः पिशाचवान् । पतितोच्चारनमाश्च रक्ता वेश्या च लिङ्गिनी : बान्ताऽभ्यतालिका चातिवाला वृद्धा च गर्भिणी। अदंयन्धा निषण्णा च नीचोच्चस्था च सान्तरा ॥ फूत्कारं ज्वालनं चैव सारणं छादनं तथा। विध्यापनाग्निकार्ये च कृत्वा निश्च्यावघट्टने ॥ लेपनं मार्जनं त्यक्त्वा स्तनलग्न शिशुं तथा ।
दीयमानेपि दानेस्ति दोषो दायकगोचरः । सूती - जननहारी -जिसके सन्तान उत्पन्न हुई हो, जो मद्यपान करनेमें लम्पट हो, जो वातादिककी बाधासे पीडित अथवा भूतपिशाच आदिके द्वारा मूञ्छित हो, जो रक्ता-मासिक धर्मसे युक्त हो, जो पंचश्रमणिका रक्तपटिका आर्यिका आदिका लिङ्ग धारण करनेवाली हो, जिसने वान्ति की हो, अथवा शरीरमें अभ्यङ्ग लगा रक्खा हो यद्वा पात्रके स्थानसे नीचे या ऊंचे प्रदेशपर खडी हो, जो मीत वगैरहके आडमें आगई हो, जो
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अनगार
अग्निको फूंककर जलाकर बढाकर भस्मादिके द्वारा दवाकर जलादिकके द्वारा बुझाकर या इधर उधर बखेरकर अथवा उसमेंसे लकडी वगैरह कम करके यद्वा किसीसे उसको घिट्ट करके, इसी प्रकार घर आंगन दीवाल आदिके मट्टी गोवर आदिपे लीपनेको या स्नानादिको अथवा दूध पीते हुए बच्चेको छोडकर दान करनेमें प्रवृत्त हुई हो यद्वा जो विलकुल बालिका है या गर्मिणी अथवा अन्धी है, इसी प्रकार जो पुरुष रोगी है अथवा मृतको स्मशानमें छोडकर आया है यद्वा नपुंसक या पतित है अथवा मलमूत्रादिका परित्याग करके आया है, जिसने एक ही वस्त्रको धारण कर रक्खा है या जो नग्न है जो पिशाचादिसे आक्रान्त है, उसके द्वारा आहारके देनेमें दायक दोष बतलाया है। यहांपर कुछ विशेषण ऐसे दिये हैं जो कि स्त्रीके होकर मी पुरुषमें भी घटित हो सकते हैं, जैसे कि मद्यपान करनेवाली आदि । इसी प्रकार कुछ विशेषण ऐसे भी दिये हैं जो कि हैं तो पुरुषके किन्तु वे स्त्रीमें भी घटित हो सकते हैं। जैसे कि रोगी आदि । क्योंकि पुरुष भी मद्यप हुआ करते हैं और स्त्रियां भी रोगिणी हुआ करती हैं । अत एव सम्पूर्ण विशेषणोंको यथासम्भव घटित करलेना चाहिये ।
लिप्त दोषका स्वरूप बताते हैं:यद्वैरिकादिनाऽऽमेन शाकेन सलिलेन वा । भद्रेण पाणिना देयं तल्लिप्तं भाजनेन वा ॥ ३५॥
गेरू हडताल खडिया मेनशिल आदि पदार्थोके द्वारा अथवा गेहूं चावल आदिके कच्चे आटेसे, यद्वा हरित शाक और अग्रासुक जलसे लिप्त हुए अथवा भीगे हुए हाथ यद्वा पात्र अथवा दोनों ही के द्वारा भोजनके देनेमें लिप्त नामका अशनदोष माना है। जैसा कि कहा भी है कि:
गेल्यहरिदालेण व सेढियमण्णो सिलामपितॄण । सपवालयगुल्लेणव देयं करभाजणे लित्तं ॥ मिश्रदोषका स्वरूप बताते हैं:-- .
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पृथ्व्याऽप्रासुकयाऽद्विश्व बीजेन हरितेन यत्र । मिश्रं जीवस्त्रसैश्वान्नं महादोषः स मिश्रकः ॥ ३६॥
बनगार
सचित्त पृथिवी जल बीज (गेंहू जौ आदि ) हरितकाय । फल फूल पत्ते आदि ) और प्रस-जिसमें कि साक्षात् जीते हुए द्वींद्रियादिक जीव दृष्टिगोचर हों, ये पांच वस्तुएं जिसमें मिली हुई हैं उस अन्नको मिश्रदोषसे युक्त माना है, और इसको आचार्योंने महादोष कहा है।
___ इस प्रकार अशनदोषोंका निरूपण करके क्रमप्राप्त भुक्ति क्रियासम्बन्धी चार दोषोंका व्याख्यान करने के उद्देशसे अङ्गार धूम और संयोजना नामक तीन भेदोंका स्वरूप बताते हैं:
गृयाङ्गागेऽश्नतो धूमो निन्दयोष्णहिमादि च । मिथो विरुद्धं संयोज्य दोष: संयोजनाह्वयः॥ ३७॥
यह वस्तु बडी अच्छी है, रुचिकर है, मुझे इष्ट है, कुछ और मिले तो बड़ा अच्छा हो इस प्रकार आहारमें अत्यंत लम्पटता रखकर भोजन करनेवाले साधुके अङ्गार नामका भुक्तिदोष माना है । यह वस्तु बडी खराब बनी है, मुझे बिलकुल अच्छी नहीं मालुम होती, इस प्रकार आहारमें जुगुप्सा रखकर भोजन करनेवाले साधुके धूम नामका भुक्तिदोष माना है । गरम और ठंडा अथवा स्निग्ध और रूक्ष इस तरह परस्पर विरुद्ध पदा. थोंको आपसमें गरमको ठंडे के साथ अथवा ठंडेको गरमके साथ तथा स्निग्धको रूक्षके साथ अथवा रूक्षको त्रिग्धके साथ मिलाकर ग्रहण करनेमें, यद्वा आयुर्वेद में बताये हुए विरुद्ध पदार्थीको दूध आदिके साथ ग्रहण करनेपर साधुके संयोजना नामका मुक्तिदोष माना है। जैसा कि कहा भी है कि:
उक्तः संयोजनादोषः स्वयं भक्तादियोजनात् । आहारोतिप्रमाणोस्ति प्रमाणगतदूषणम् ॥ .
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अतिमात्र नामक भुक्तिदोषके चौथे मेदका स्वरूप बताते हैं:सव्यञ्जनाशनेन द्वौ पानेनैकमंशमुदरस्य । भृत्त्वाऽभृतस्तुरीयो मात्रा तदतिक्रमः प्रमाणमल: ।। ३८ ॥
अनगार
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- साधुओंको उदरके दो भाग-भूख के आधे प्रमाणको व्यंजन दाल शाक आदि और अशन--भात रोटी लड्डू आदिक द्वारा भरना-पूर्ण करना चाहिये । ता एक अंश-एक चतुर्थाशको पानी आदि द्रव पदार्थोंसे पूर्ण करना चाहिये । किन्तु उदरका एक चतुर्थाश खाली ही रखना चाहिय, परन्तु जो साधु इस प्रमाणका अतिक्रमण करता है उसके अतिमात्र नामका भुक्तिदाष लगता है । जैसा कि कहा भी है कि:
अन्नेन कुक्षेविंशौ पानेनैकं प्रपूरयेत् । ।
आश्रमं पवनादीनां चतुर्थमवशेषयेत् ।। पेटका चतुर्थभाग वायु आदिका स्थान माना है । अत एव उसको रिक्त रखना ही उचित है । उसको भी भरलेनेपर आलस्य निद्रा आदि विकार होने लगते हैं, ज्वरादि व्याधियां भी उद्भूत हो सकती हैं, जिससे कि स्वाध्याय आदि आवश्यक कर्मों की क्षति ही होती है । इसी लिये अतिप्रमाण भोजनको दोष माना है ।
इस प्रकार पिण्डदोषके छयालीस भेदोंका निरूपण करके अब क्रमप्राप्त चौदह मलोंका निरूपण करते हैं:
पूयास्रपलास्थ्यजिनं नखः कचमृतविकलत्रिके कन्दः । बीजं मूलफले कणकुण्डौ च मलाश्चतुर्दशान्नगताः ॥ ३९ ॥
अध्याय
जिनसे कि संसक्त- स्पृष्ट होनेपर अनादिक आहार्य सामग्री साधुओंको ग्रहण न करनी चाहिये उनको | मल कहते हैं। उनके चौदह भेद हैं जिनके कि नाम इस प्रकार हैं--पीव-फोडे आदिमें होजानेवाला कच्चा
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CARRANGESAR
रुधिर, तथा साधारण रुधिर-रक्त-खून, मांस, हड्डी, चर्म, नख. केश, मरा हुवा विकलत्रय-द्वीन्द्रिय त्रींद्रिय चतुरिन्द्रय, कन्द सूरण आदि, जो उत्पन्न हो सकता हो ऐसा गेंहू आदि बीज, मूली अदरख आदि मूल, बेर आदि फल तथा कर्ण-गेहूं जौ आदिका बाह्य खण्ड, और कुण्ड-शाली आदिके अभ्यंतर सूक्ष्म अवयव अथवा बाहरसे पक्क भीतरसे अपक्कको कुण्ड कहते हैं। आठ प्रकारको पिण्डशुद्धि में पाठ न रहनेके कारण इन मलोंका पृथक् निरूपण किया है।
- इनमेंसे उत्तम मध्यम जघन्य भेदोंको गिनाते हैं:-- पूयादिदोषे त्यक्त्वापि तदन्नं विधिवच्चरेत ।
प्रायश्चित्तं नखे किश्चित केशादौ त्वन्नमुत्सृजेत् ॥ ४॥ उक्त चौदह मलों से आदिकं पीव रक्त मांस हड्डी और चर्म इन पांच दोषोंको महादोष माना है ।अत एव इनसे संसक्त आहारको केवल छोड ही न देना चाहिये किन्तु उसको छोडकर आगमोक्त विधिके अनुसार प्रायाश्चत्त भी ग्रहण करना चाहिये । नखका दोष मध्यम दर्जेका है, अत एव नखयुक्त आहारको छोड तो देना ही चाहिये किन्तु कुछ प्रायाश्चत्त भी ग्रहण करना चाहिये । केशादिकका दोष जघन्य दर्जेका है अत एव साधुओंको उनसे युक्त आहार केवल छोड देना चाहिये।
केशादिकसे अभिप्राय केश और मृत विकलत्रयका है । अत एव शेष कन्दादिकके विषयमें विधिका भेद है क्योंकि इस विषयमें ऐसा विधान है कि कन्दादिकको आहारते अलहदा करदेना चाहिये । यदि वे अलहदा न हो सकते हो तो आहारको भी छोड देना चाहिये । इसी विधिविशेषको बताते हैं:
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१-कहीं २ बीजशब्दसे अंकुरित अवस्था ली है। २-कहीं कहीं वण शब्दका अर्थ चावल आदि किया है।
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कन्द
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हमित्यन्नाद्विमेजन्मुनिः। । न शक्यते विभक्तुं चेत् त्यज्यतां तर्हि भोजनम् ॥ ४ ॥ कन्द बीज मूल फल कण और कुण्ड ये छह वस्तुएं ऐसी हैं जो कि आहारसे पृथक की जा सकती हैं। अत एव साधुओंको आहारमें यदि ये वस्तुएं मिलगई हों तो उन्हे निकालकर दर ही कर देना चाहिये । यदि कदाचित् उनका पृथक् करना अशक्य हो तो वह आहार ही छोडदेना चाहिये।
बत्तीस अन्तरायोंका निरूपण करते है-- प्रायोन्तरायाः काकाद्याः सिद्धभक्तेरनन्तरम् । द्वात्रिंशद्वयाकृताः प्राच्यैः प्रामाण्या व्यवहारतः ॥ ४२ ॥
काक अमेध्य छर्दि रोधन रुधिर अश्रुपात इत्यादि अन्तरायके ३२ भेद हैं । जिनके निमित्तसे साधुजन भोजनका परित्याग करदेते हैं उनको अन्तराय कहते हैं! ये अंतराय प्रायः करके सिद्धभक्तिका उच्चारण करने के अनन्तर हुआ करते हैं। प्रायः कहनसे कोई कोई अन्तगय सिद्धभक्तिके पहले भी होते हैं यह सूचित होता है। जैसे कि अभाज्यगृहन वेश । इस नामका अन्तराय जिसका कि लक्षण आगे चलकर करेंगे, सिद्धभक्तिके पूर्व ही हो सकता है । इन अन्तरायोंका प्राचीन ऋषियोंने सूत्ररूपमें नहीं किन्तु टीकाग्रन्थों में व्याख्यान दिया है । यद्यपि यहाँपर अन्तरायोंके नाम ३. ही गिनाये हैं किन्तु आनायके अनुसार इनके सिवाय और भी अन्तराय हो सकते हैं।
काकनामक अन्तरायका खरूप बताते हैं। काकवादिविडत्सों भोक्तुमन्यत्र यात्यधः। यतौ स्थिते वा काकाख्यो भोजनत्यागकारणम् ॥ ४३॥
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जहांपर सिद्धभक्तिका उच्चारण किया हो वहांसे किसी कारणवश यदि वह संयमी जिसने कि सिद्धभक्तिका उच्चारण, करलिया है भोजन करनेके लिये किसी अन्य स्थानपर जाय अथवा सिद्धभक्ति करके भोजन ग्रहण करनेके लिये वहीं अथवा अन्यत्र खडा हो जाय और ऊपरसे कोई काक या कुत्ता आदि जानवर मलोत्सर्ग करदे तो काक नामका अन्तराय समझना चाहिये.जो कि भोजन छोडदेनेका कारण है।
अमेध्य छर्दि और रोधन नामक तीन अन्तगयोंका स्वरूप बताते हैं:
लेपोऽमेध्येन पादादेरमेध्यं छदिरात्मना । छर्दनं रोधनं तु स्यान्मा मुद्भवेति निषेधनम् ॥ ४॥
भोजनके लिये स्थानान्तरको जाते हुए अथवा खडे हुए साधुके यदि किसी तरह चारण जवा जानु आदि किसी भी शरीरके अवयवसे अमेध्य-विष्टा आदि अशुचि पदार्थका स्पर्श होजाय तो अमेध्य नामका अन्तराय होता है। यदि किसी कारणसे स्वयं साधुको वमन होजाय तो छार्दनामका अन्तराय माना है। आज भोजन मत करना, इस प्रकार रोकदेनेपर रोधननामका अन्तगय होता है। रुधिर अश्रुपात और जान्वधःपात इन तीन अन्तरायोंका स्वरूप दो श्लोकोंमें बताते हैं:--
रुधिरं स्वान्यदेहाम्यां वहतश्चतुरंगुलम् । उपलम्भोऽस्लपूयादेपश्रुपातः शुचात्मनः ॥ १५॥ पातोश्रूणां मृतेन्यस्य क्वापि वाक्रन्दतः श्रुतिः ।
स्याज्जान्वधःपरामर्शः स्पर्शो हस्तेन जान्वधः ॥ १६ ॥ अपने या परके शरीरसे चार अङ्गुलतक या उससे अधिक रुधिर पीव आदिको वहता हुआ देखनेसे सा.
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धुको रुधिर नामका अन्तराय होता है । और शोकसे अपना अश्रुपात होजानेको अथवा अपने सम्बन्धीके मरजानेपर जोरसे रोते हुए स्त्री अथवा पुरुषके आक्रन्दनके सुनाई पडनेको भी अश्रुपात नामका अन्तगय कहते हैं । तथा सिद्धभक्तिके अनन्तर अपनी जानुके नीचेके भागका हाथसे स्पर्श होजानेको जान्वधःपरामर्श नामक अन्तराय कहते हैं।
जानूपरिव्यतिक्रम, नाम्यधोनिर्गमन, प्रत्याख्यातसेवन, और जन्तुवध इन चार अन्तरायोंका स्वरूप दो श्लोकों में बताते हैं:--
जानुदनतिरश्चीनकाष्ठाद्यपरिलङ्गनम् । जानुव्यतिक्रमः कृत्वा निर्गमो नाभ्यधः शिरः ॥ १७ ॥ नाभ्यधोनिर्गमः प्रत्याख्यातसेवोज्झिताशनम् ।
स्वस्याग्रेन्येन पञ्चाक्षघातो जन्तुवधो भवेत् ॥ ४८ ॥ घोंट्रतक ऊंचे अथवा उससे अधिक ऊंचे किन्तु तिरछे लगे हुए काष्ट-अर्गल या पाषाणादिको लांघकर जानेमें जानूपरिव्यतिक्रम नामका अन्तराय होता है । यदि अपने शिरको नाभिसे नीचे करके निकलना पडे तो नाम्यधोनिर्गम नामका अन्तराय होता है । देवगुरुकी साक्षीसे छोडा हुआ पदार्थ यदि खानेमें आजाय तोम त्याख्यातसेवा नामका अन्तराय होता है। यदि अपने ही (संयमीके ही) सन्मुख कोई दूसरा-चिल्ली कुत्ता आदि मूसे आदि पञ्चेन्द्रिय जीवका घात करे तो जन्तुवध नामका अन्तराय होता है।
काकादिपिण्डहरण, पाणिपिण्डपतन, पाणिजन्तुवध, मांसादिदर्शन, उपसर्ग और पादान्तर पञ्चन्द्रियागम न, इन छह अन्तरायोंका स्वरूप तीन श्लोकोंमें बताते हैं:
काकादिपिण्डहरणं काकगृडादिना करात् । पिण्डस्य हरणं ग्रासमात्रपातेश्नतः करात् ॥ ४९ ॥
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स्यात्पाणिपिण्डपतनं पाणिजन्तुवधः करे । स्वयमेत्य मृते जीवे मांसमद्यादिदर्शने ॥ ५ ॥ मांसादिर्शनं देवाद्युपसर्गे तदाहयः । पादान्तरेण पंचाक्षगमे तन्नामकोऽश्नतः ॥५१॥
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यदि भोजन करते हुए माधुके हाथपरसे काक गृद्ध आदि कोई भी जानवर भोज्य द्रव्यका हरण करले तो काकादिपिण्डहरण नामका अन्तरस्य होता है। यदि भोजन करते हुए साधुके हाथसे ग्रास गिरजाय तो पाणिपिण्डपतन नामका अन्तराय होता है। यदि भोजन करते हुए साधुके हाथपर कोई जीव आकर विना किसीके प्रयोगके ही मरजाय तो पाणिजन्तुवध नामका अन्तराय होता है। भोजन करते हुए मांस मद्य आदि दीखजाय तो साधुको मांसादिदर्शन नामका अन्तराय होता है । इसी प्रकार--भोजन करते समय देव मनुष्य या तिर्यश्च इनमें से किसीके भी द्वारा यदि उत्पात हो तो देवाद्युपसर्ग नामका अन्तराय होता है। और चलते समय यदि चरणों के अन्तरालमें पञ्चन्द्रिय जीव आजाय तो पादान्तरपंचेन्द्रियागमन नामका अन्तराय होता है। भाजनसंपात और उच्चार नामक दो अन्तरायों का स्वरूप बताते हैं:
भूमौ भाजनसंपाते परिवेषिकहस्ततः । तदाख्यो विघ्न उच्चारो विष्टायाः स्वस्य निर्गमे ॥ ५२ ॥
अध्याय
__संयमीके हस्तपुटपर जलादि सामग्रीका प्रक्षेपण करनेवालेके हाथसे कोई भी पात्र भूमिपर गिरजाय तो भाजनसंपात नामका अन्तराय होता है और यदि स्वयं संयमीके गुदद्वारसे मल-विष्टा निकल जाय तो उच्चार नामका अन्तराय होता है।
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अनगार
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प्रस्रवण और अभोज्यगृहप्रवेश इन दो अन्तरायोका स्वरूप बतात हैं:
मूत्राख्यो मूत्रशुक्रादे श्वाण्डालादिनिकेतने ।'
प्रवेशो भ्रमतो भिक्षोरभोज्यगृहवेशनम् ॥५३ ।। . यदि संयमीके मूत्र शुक अश्मरी आदि निकलजाय तो मूत्रनामका अन्तराय होता है । और मिक्षाकेलिये पर्यटन करते हुए यदि चाण्डाल आदि अस्पृश्य जीवोंके गृहमें प्रवेश होजाय तो उस संयमीके अमोज्यगृहप्रवेश नामका अंतराय माना है। पतन उपवेशन और संदंश इन तीन अन्तरार्योका स्वरूप बताते हैं:
भूमौ मूर्छादिना पाते पतनाख्यो निषद्यया।
उपवेशनसंज्ञोसौ संदंशः श्वादिदंशने ॥ ५४॥ यदि स्वयं संयमी मूी भ्रम क्लम श्रम आदिके द्वारा भूमिपर गिरजाय तो पतन नामका अन्तराय होता है और किसी कारणसे भूमिपर बैठना उपवेशन नामका अन्तराय है । कुत्ता तथा बिल्ली आदिके द्वारा काटे जानेपर संदंश नामका अन्तराय होता है।
भूमिस्पर्श निष्ठीवन उदरक्रिमिनिर्गमन और अदत्तग्रहण इन चार अन्तरायोंका स्वरूप दो श्लोकोंमें बताते है:
भूस्पर्श: पाणिना भूमेः स्पर्शे निष्ठीवनाव्हयः । स्वेन क्षेपे कफादेः स्यादुदरक्रिमिनिर्गमः ॥ ५५ ॥ उभयद्वारतः कुक्षिक्रिमिनिर्गमने सति । स्वयमेव गृहेऽन्नादेरदत्तग्रहणाव्हयः ॥ ५ ॥
५५४
अध्याय
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हाथसे भूमिका स्पर्श करनेपर भूमिस्पर्श नामका अन्तराय होता है और स्वयं ही, न कि खांसी आदिके वशसे कफ थूक नाक आदिका निरसन करनेपर निठीवन नामका अन्तराय होता है। तथा ऊर्ध्वमार्ग-मुखकी तरफसे अथवा अधोमार्ग-गुदद्वारसे उदरगत क्रिमिके निकलने पर उसी नामका-उदरक्रिमिनिर्गमन अन्तराय होता है।
और दाताके दिये विना ही भोजन पान औषध आदि यदि ग्रहण करलिया जाय तो अदत्तग्रहण नामका अन्तराय होता है।
प्रहार ग्रामदाह पादग्रहण और करग्रहण इन चार अन्तरायोंका स्वरूप दो पद्योंमें बताते हैं:
प्रहारोऽस्यादिना स्वस्य प्रहारे निकटस्य वा । ग्रामदाहोग्निना दाहे ग्रामस्योद्धत्य कस्यचित् ॥ ५७ ॥ पादेन ग्रहणे पादग्रहणं पाणिना पुनः।
हस्तग्रहणमादाने भुक्तिविनोन्तिमो मुनेः ।। ५८॥ अपना (संयमीका । अथवा निकटवर्ती किसी अन्य व्यक्तिका खड्ग बर्डी आदिके द्वारा प्रहार होनेपर प्रहार नामका अन्तराय होता है । जिसमें स्वयंका निवास हो रहा हो एसे ग्रामके अग्निसे जलनेपर अग्निदाह नामका अन्तराय होता है । किसी भी रत्न सुवर्ण आदि वस्तुको पैरसे उठाकर ग्रहण करनेमें पादग्रहण नामका अन्तराय होता है। यदि किसी वस्तुको भूमिपरसे हाथके द्वारा उठाकर ग्रहण किया जाय तो करग्रहण नामका अन्तरा य माना है। इस प्रकार बत्तीस अन्तरायोंका वर्णन किया, किन्तु दो पद्योंमें शेष अन्तरायोंका भी संग्रह करते हैं: -
तद्वच्चाण्डालादिस्पर्शः कलहः प्रियप्रधानमृती । भीतिर्लोकजुगुप्सा सधर्मसंन्यासपतनं च ॥ ५९ ॥
ध्याय
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सहसोपद्रवभवनं स्खमुक्तिभवने स्वमौनभङ्गश्च । संयप्रनिर्वेदावपि बहवोऽनशनस्य हेतवोन्येपि ॥०॥
अनगार
५५६
अन्तराय शब्दका अर्थ ऊपर बताया जाचुका है कि भोजन छोडदेनेके कारणोंको अन्तराय कहते हैं । इस अर्थपर विचार करनेसे अन्तरायके ३२ ही भेद हैं ऐसा निर्धारण-नियम नहीं किया जा सकता। उपर्युक्त काकप्रभृति अन्तरायोंकी तरह और भी बहुत मे भेद हो सकते हैं। यथा-चाण्डालादिका स्पर्श होजाना, कलह होना, अपने इष्ट अथवा मुख्य व्यक्तिका मरण होजाना, जिस किसीसे पापमय होना, लोगोंमें निन्दाका होना तथा साधर्मीका संन्यासमरण होजाना, यद्वा जिस गृहमें भोजन कर रहे हों उसमें अकस्मात् उपद्रवका हो उठना, जो कि मोजनके समय अवश्य ही पालनीय है ऐसे अपने मौनका अज्ञानसे अथवा प्रमादसे भङ्ग होजाना, इसी प्रकार संयम-प्राणिरक्षा और इन्द्रियोंका दमन करने के लिये परिणामोंका निग्रह करना, तथा निर्वेद-संसार शरीर
और भोगोंके विषय में वैराग्यकी सिद्धि और वृद्धिके लिये जो प्रयत्न किया जाय वह भी अन्तराय कहा जा सकता है। अत एव यद्यपि अन्तरायके ३२ भेद गिनाये हैं किन्तु अर्थकी अपेक्षासे उसके अनेक भेद हो सकते हैं।
आहार ग्रहण करनेके कारणोंको बताते हैं:-- अच्छमं संयम स्वान्यवैयावृत्त्यमसुस्थितिम् । वाञ्छन्नावश्यकं ज्ञानध्यानादींश्चाहरेन्मुनिः ॥११॥
अध्याय
क्षधाबाधाका उपशमन, संयमकी सिद्धि और स्वपरकी वैयावृत्य-आपत्तियोंका प्रतीकार करनेके लिये तथा प्राणोंकी स्थिति बनाये रखनेके लिये एवं आवश्यकों और ध्यानाध्ययनादिको निर्विघ्न चलते रहने के लिये मुनियों को आहारग्रहण करना चाहिये. भावार्थ- साधुओंको आत्मकल्याणका सहायक समझकर ही आहार ग्रहण करना चाहिये नकि शरीरको सुदृढ सुंदर और सतेज बनाये रखनेकेलिये अथवा रसनेंद्रियादिकोंकी वृप्तिकेलिये । जैसा कि कहा भी है कि,
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अनगार
१९७
बध्याय
देते हैं:
वेयणवज्जावचे किरियुठ्ठाणे य संजमठ्ठाए । तपाणधम्मचिंता कुज्जा एदेहिं आहारं ॥
जो मनुष्य बुश्चक्षासे पीडित है उसके दया क्षमा आदिक कोई भी गुण स्थिर नहीं रह सकते ऐसा उपदेश
बुभुक्षाग्लपिताक्षाणां प्राणिरक्षा कुतस्तनी ।
क्षमादयः क्षुधार्तानां शंक्याश्चापि तपस्विनाम् ॥ ६२ ॥
जिन मनुष्योंकी इंद्रियोंको क्षुधावाधाने सर्वथा अशक्त बना डाला है उनके भीतर प्राणिरक्षा - दया कहांसे आसकती है. इसी प्रकार चिरकालसे तपस्या करनेवाले भी किन्तु बुभुक्षापीडित साधुके क्षमादिक गुणके स्थिर रहनेमें संदेह ही समझना चाहिये ।
योगियोंमें भी जो क्षुधासे अशक्त है उसके लिये वैयावृत्त्यका करना कठिन होजाता है। इसी प्रकारें उनके प्राणोंका सुरक्षित रहना भी आहारपर ही अवलम्बित है । अत एव उनको आहारमें प्रवृत्ति करनेका उपदेश देते हैं:
क्षुत्पीतवीर्येण परः स्ववदार्ते दुरुद्धरः । प्राणाश्चाहारशरणा योगकाष्ठाजुषामपि ॥ ६३ ॥
क्षुधा द्वारा नष्ट हो गई है शक्ति जिसकी ऐसा मनुष्य जब कि स्वयं ही दुःखी अथवा पीडित हो रहा है तब क्या उसके लिये दूसरे दुःखपीडित लोगों का उद्धार करना अशक्य नहीं है-अवश्य है। इसी प्रकार जो आरब्धयोगी हैं अथवा जिन्होंने अभी योगका आरम्भ भी नहीं किया है उनकी तो बात ही क्या, जो घटमानयोगी हैं और जिन्होंने यम नियम आसन प्रणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान और समाधि इस अष्टाङ्ग योगका अभ्यास किया है उनके भी प्राणों को निःसन्देह आहार ही शरण है ।
$
५५७
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अनगार
भोजन छोडनेके निमित्तोंको दिखाते हैं:आतङ्क उपसर्गे ब्रह्मचर्यस्य गुप्तये ।
कायकायंतपःप्राणिदयाद्यर्थं च नाहरेत् ॥ ६४ ॥ किसी भी आकस्मिक व्याधि-मारणान्तिक पीडाके उठ खडे होनेपर, देवादिकके द्वारा किये गये उत्पातादिकके उपस्थित होपेपर, अथवा ब्रह्मचर्यको निर्मल बनाये रखनेकेलिये यद्वा शरीरकी कृषता तपश्चरण और प्राणिरक्षा आदि धर्मोंकी सिद्धि के लिये भी साधुओंको भोजनका परित्याग करदेना चाहिये । साधुओंको स्वास्थ्यकी स्थिरताकालये सर्वैषणादिकोंके द्वारा भोजन करनेका उपदेश देते हैं:--
द्रव्यं क्षेत्रं बलं कालं भावं वीर्य समीक्ष्य च।
स्वास्थ्याय वर्ततां सर्वविशुद्धाशनैः सुधीः ॥ ६५ ॥ विचारपूर्वक आचरण करनेवाले साधुओंको आरोग्य और आत्मस्वरूपमें अवस्थान रखनेके लिये द्रव्य क्षेत्र काल भाव बल और वीर्य इन छह बातोका अच्छी तरह पर्यालोचन करके सर्वाशन विद्धाशन और शुद्धाशन के द्वारा आहारमें प्रवृत्ति करना चाहिये।
आहारादिक सामग्रीको द्रव्य, और पृथ्वीके जाङ्गलादिक प्रदेशको क्षेत्र कहते हैं । यह क्षेत्र तीन प्रकारका माना है-जाङ्गल अनूप और साधारण, जिनका कि लक्षण इस प्रकार है
देशोल्पवारिद्रनगो जाङ्गल: स्वल्परोगदः । अनूपो विपरीतोऽस्मात्समः साधारणः स्मृतः ।। जाङ्गलं वातभूयिष्ठमनूपं तु कफोल्बणम् । साधारणं सममलं त्रिधा भूदेशमादिशेत् ।।
अध्याय
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अनगार
पृथ्वीके जिस भागमें जल वृक्ष और पर्वत अल्प प्रमाणमें पाये जाते हैं उसको जागल कहते हैं । इसमें रोगोंकी उत्पत्ति प्रायः कम हुआ करती है । इससे ठीक विपरीत प्रदेशको अर्थात जिसमें जल वृक्ष और पर्वत अधिक प्रमाणमें पाये जाय उसको अनूप कहते हैं। और जहांपर ये जलादिक वस्तुएं समरूपमें पाई जाती हैं कम या अधिक नहीं पाई जाती उस प्रदेशको साधारण कहते हैं । जाङ्गल देशमें वातकी और अनूपदशमें कफकी प्रधानता रहा करती है, किन्तु साधारणप्रदेशमें वात पित्त और कफ तीनोंही समानरूपमें रहा करते हैं।
हेमन्त शिशिर वसन्त ग्रीष्म वर्षा और शरद् इन छह ऋतुओंको काल समझना चाहिये । इनके भेदसे भी चर्या में भेद हुआ करता है। यथा--
शरद्वसन्तयो-रुक्षं शीतं धर्मघनान्तयोः । अन्नपान समासेन विपरीतमतोन्यदा ।।
शरद् और वसन्त ऋतुमें रूक्ष तथा ग्रीष्म और वर्षा ऋतुमें शीत अन्नपान ग्रहण करना चाहिये । और | भिन्न समयमें इससे विपरीत भोजन पान करना चाहिये । यथाः--
शीते वर्षाप्त चाद्यांखीन्वसन्तेऽन्यान् रसान्भजेत् । स्वादुं निदाघे शरदि स्वादुतिक्तकषायकान् ।। रसाः स्वादुम्ललवणतिक्तोषणकषायकाः ।
षड्द्रव्यमाश्रितास्ते च यथापूर्व बलावहाः ।। पृथिवी जल अग्नि वायु और वनस्पति आदिके सम्बन्धमे रहनेवाले रस छह प्रकारके माने हैं-मधुर अम्ल लवण तिक्त उषण और कषाय । इनको उत्तरोत्तर कम कम बलवर्धक माना है । फलतः मधुर रस सबसे अधिक
और कषाय सबसे कम बलवर्धक माना है । इनमे आदिके तीन रसोंको शीत और वर्षामें तथा अन्तके तीन रसोंको वसन्तमें तथा ग्रीष्म ऋतुमें मधुर रस और शरद ऋतुमें मधुर तिक्त और कषाय रसका सेवन करना चाहिये।
भावशब्दका अर्थ श्रद्धा उत्साह आदि तथा बलशब्दका अर्थ अन्नपानादिके निमित्तसे उत्पन्न हुई शा.
अध्याय
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बनगार
रीरिक सामर्थ्य और वीर्यशब्दका अर्थ स्वाभाविक शक्ति होता है।
एषणा समितिके द्वारा शुद्ध भोजनको सर्वाशन, और गुड तैल तथा घी द्ध दही आदिसे रहित किन्तु छाछ आदिसे युक्त निर्विकृत भोजनको विद्धाशन, तथा पककर जैसा तयार हुआ हो वैसेके वैसे ही-जिसमें किसी भी प्रकारसे-व्यञ्जनादिकके द्वारा अन्यापन नहीं लाया गया है ऐसे भोजनको शुद्धाशन कहते हैं।
इस श्लोकमें च शब्दके द्वारा जो विशेष बात बताई है वह यह है कि सर्वाशनादिकसे विपरीत-असर्वाशन अविद्वाशन और अशुद्धाशन कदाचित् योग्य किंतु कदाचित् अयोग्य दोनों ही प्रकारका हो सकता है । अत एव उनका भले प्रकार पर्यालोचन करके ही ग्रहण करना चाहिये ।
जो भोजन विधिपूर्वक किया जाता है उससे ख और पर दोनोंका उपकार होता है, इस बातको प्रकट करते हैं:-.
यत्प्रत्तं गृहिणात्मने कृतमपेतैकाक्षजीवं त्रसै,निर्जीवैरपि वर्जितं तदशनाद्यात्मार्थसिद्धयै यतिः । युञ्जन्नुद्धरति स्वमेव न परं किं तर्हि सम्यग्दृशं, दातारं द्यशिवश्रिया च सचते भोगैश्च मिथ्यादृशम् ॥ ६६ ॥
अध्याय
जिस भक्तपान औषध आदिको गृहस्थने स्वयं अपने ही लिये बनाया हो और जो कि मृत अथवा जीवित द्वीन्द्रियादिक जीवोंसे तथा एकेन्द्रिय प्राणियोंसे सर्वथा रहित है ऐसे उस भक्त पानादिको नवधा भक्ति के द्वारा गृहस्थके द्वारा दिये जानेपर आत्मकल्याणको सिद्ध करनेके अभिप्राय से विधिपूर्वक ग्रहण करनेवाला यति संयमी केवल अपना ही नहीं किन्तु उस दाताका भी उपकार किया करता है। क्योंकि यदि वह दाता सम्यग्दृष्टि हो तब तो उसको स्वर्ग मोक्षरूपी लक्ष्मीसे युक्त बनादेता है और यदि मिथ्यादृष्टि हो तो उसे अभीष्ट विषयोंकी प्राप्ति करादेता है।
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अनगार
५६१
अध्याय
५
ब्राह्मणादिकों में से जो गृहस्थ नित्य नैमित्त अनुष्ठान करनेवाले हैं वे दाता हो सकते हैं; किन्तु शिल्पी आदि नहीं हो सकते जैसा कि कहा भी है कि-
शिल्पिका रुकवाक्पण्यशंफली पतितादिषु । देहस्थितिं न कुर्वीत लिङ्गि लिङ्गोपजीविषु ॥ दीक्षायोग्यास्त्रयो वर्णाश्चत्वारश्च विधोचिताः । मनोवाक्कायधर्माय मताः सर्वेपि जन्तवः ॥
जिस नवधा भक्तिसे दाता दान देता है उसको नवपुण्यशब्दसे कहा है। जिसके कि नाम इस प्रकार हैं
पडिगहमुचठ्ठाणं पादोदयमचणं च पणमं च । मणवयणकायसुद्धी एसणसुद्धीय नवविहं पुण्णं ॥
प्रतिग्रह उच्चस्थान पादप्रक्षालन पूजन प्रणाम और मन वचन कायकी शुद्धि तथा मोजनसम्बन्धी शुद्धि इस प्रकार नौ कर्तव्यों को नवपुण्यशब्द से कहा है ।
द्रव्यशुद्धि और भावशुद्धिमें क्श अन्तर है सो बताते हैं:
द्रव्यतः शुद्धमप्यन्नं भावाशुद्धया प्रदुष्यते ।
भावो शुद्धो बन्धाय शुद्धो मोक्षाय निश्चितः ॥ ६७ ॥
यदि अन्न -- भोज्य सामग्री द्रव्यतः शुद्ध-प्रासुक भी हो किन्तु भावतः ' मेरे इसने यह बहुत अच्छा किया' इत्यादि परिणामोंकी दृष्टिसे अशुद्ध हैं तो उसको अशुद्ध-सर्वथा दूषित ही समझना चाहिये। क्योंकि बन्धमोक्ष के कारण परिणाम ही माने हैं । आगममें अशुद्ध परिणामोंको कर्मबन्धका और विशुद्ध परिणामोंको मोक्षका कारण बताया है । अत एव जो अन द्रव्यसे शुद्ध रहते हुए भी भावसे भी शुद्ध है उसीको ग्रहण करना चाहिये। जैसा कि कह मी है कि
5. MEEN
धर्म०
५६१
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अनगार
५६२
अध्याय
५
प्रगता असवो यस्मादन्नं तद् द्रव्यतो भवेत् ॥ प्रासुकं किं तु तत्स्वस्मै न शुद्धं विहितं मतम् ॥
दूसरेके लिये बनाये हुए अनका ग्रहण करनेवाला भोक्ता यति दूषित नहीं होता इस बातको दृष्टान्तद्वारा दृढ करते हैं
अथवा
योक्ताऽधः कर्मिको दुष्यन्नात्र भोका विपर्यात् ।
मत्स्या हि मत्स्यमदने जले माद्यन्ति न प्लवाः ॥ ६८ ॥
अादिककी योजना करने बनाने तथा रखने उठाने संचय आदि करनेमें प्रवृत्ति दाताकी हुआ करती है अत एव अधः कर्मसम्बन्धी दूषण दाताको ही लगता है, न कि भोक्ताको; क्योंकि उसका अधः कर्म से बिलकुल भी सम्बन्ध नहीं रहता । ठीक ही है-यदि जल मत्स्यों के लिये मदका कारण बनजाय तो उससे मत्स्य ही मदको प्राप्त हो सकते हैं, न कि मण्डूक । जैसा कि कहा भी है कि
मत्स्वार्थ प्रकृते योगे यथा माद्यन्ति मत्स्यकाः । न मण्डूकास्तथा शुद्धः परार्थ प्रकृते वृतिः ॥ अधः कर्मप्रवृत्तः सन् प्राद्रव्येपि बन्धकः । अधः कर्मण्यसौ शुध्दो यतिः शुद्धं गवेषयेत् ॥
आधाकम्मपरिणदो पागद्वेषि बंधगो भणिदो । सुद्धं समाणो आधाकमेति सो सुद्धो ॥
प्राक द्रव्यको ग्रहण करते हुए भी यदि साधु अधः कर्मसे प्रवृत्त होता है तो वह कमका बन्ध ही करता है । अत एव शुद्ध आहारकी गवेषणा करनेवाले साधुको अभ्रः कर्मके विषय में भी विशुद्ध ही रहना चाहिये ।
५६२
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अनगार
इस प्रकार इस अध्यायमें पिण्डराद्विका वर्णन करके अन्तमें शुद्ध आहारके निमित्तसे प्राप्त हई सामर्थ्यके द्वारा त्रिकालसम्बन्धी-भत भविष्य और वर्तमान सिद्धिविषयक उत्साहको उद्योतित करनेवाले मुक्षुओंसे ग्रन्थकर्चा-आचाधर अपनी सिद्धिकी प्रार्थना करते हैं
विदधति नवकोटीशुद्धभक्ताधुपाजे,कृतनिजवपुषो ये सिद्धये सजमोजः । विदधतु मम भूता भाविनस्ते भवन्तो,प्यसमशमसमुद्धाः साधवः सिद्धिमद्धा ॥१९॥
१६३
कृत कारित अनुमोदनाको मन वचन और कायसे गुणा करनेपर नवमङ्ग होते है। इन्हीको नवकोटी कहते हैं। इन नवकोटियोंसे शुद्ध भोजन पानादिके द्वारा अपने शरीरको बलाधान पहुंचानेवाले और अद्वितीय उपशमरूप समृद्धिको धारण करनेवाले जो साधु अपने उत्साहको सिद्धि के प्राप्त करनेमें साक्षात समर्थ बना रहे हैं अथवा बना चुके हैं या जो आगे चलकर बनायेंगे वे परम साधु मुझको भी शीघ्र ही निज आत्मस्वरूपकी प्राप्ति करावें ।
__यहाँपर " कृतनिजवपुषः" की जह विकल्पमें " कृततनुसुहृदः" ऐसा भी पाठ रक्खा है । क्योंकि सिद्धि प्राप्त करनेमें अनुकूल कारण बनकर आत्माकेलिये शरीर मित्रकी तरह उपकारक है।
ऊपर जो नवकोटीके भेद बताये हैं उसके सिवाय आर्ष आगममें प्रकारान्तरसे भी उनको गिनाया है। यथा:
दातुर्विशुद्धता देयं पात्रं च प्रपुनाति सा । शुद्धीर्दयस्य दातारं पुनीते पात्रमप्यदः ॥ पात्रस्य शुद्धिातारं देयं चैव पुनात्यतः । नवकोरिविशुद्धं तदानं भूरिफलोदयम् ॥
अध्याय
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अनगार
५६४
अध्याय
५
दाता देय और पात्र इनकी शुद्धिका सम्बन्ध परस्पर में जोडनेसे नव भेद होजाते हैं । यथा: - दाताकी शुद्धिसे देय और पात्रकी शुद्धि होना तथा देयकी शुद्धिसे दाता और पात्रकी शुद्धिका होना, एवं पात्रकी शुद्धिसे दाता और देवकी शुद्धिका होना । 'जिस दानमें ये नव शुद्धि पाई जाती हैं वह अत्यंत उत्कृष्ट फल देता है, इसमें सन्देह नहीं है ।
पिण्डशुद्धिविधानीय नामा
पश्चम अध्याय
समाप्त ॥
MEET Mmmmmm
५६४
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* अथ षष्ठाऽध्यायः।
उस रत्नत्रयात्मक मोक्षर्मागमें जिसका कि लक्षण पहले बताया जा चुका है महान् उद्योग करनेका जिन्होंने दृढ विचार करलिया है और जो कायिक वाचिक तथा मानसिक अथवा सहज शारीर और आगन्तुक इन तीन प्रकारके तापोंका उच्छेदन करना चाहते हैं उन साधुओंको समीचीन तपके आराधनके उपक्रमकी विधि बताते हैं:
द्वग्वजद्रोण्युपन्नेऽद्भतविभववृषद्वीपदीप्रे स्फुटानु,प्रेक्षातीर्थे सुगुप्तिवतसमितिवसुभ्राजि बोधाब्जराजि । मनोन्मग्नोर्मिरत्नत्रयमहिमभरूयक्तिहप्तेभियुक्ता, मज्जन्त्विच्छानिरोधामृतवपुपि तपस्तोयधौ तापशान्त्यै ॥१॥
अध्याय
मोक्षमार्गमें चलनेका निरंतर ही उद्योग करनेवाले साधुओंको मानसिक वाचनिक और कायिक अथवा सहज शारीर और आगन्तुक इन तीन प्रकारके संतापोंकी शान्तिके लिये या दुःखोंका उच्छेद करने के लिये इच्छानिरोधरूपी अमृत ही है शरीर जिसका ऐसे तपरूपी समुद्रमें निरंतर स्नान और अवगाहन करना चाहिये।
रत्नत्रयको आविर्भूत करनेके लिये जो इच्छाओंको निरोध किया जाता है उसका तप कहते हैं। इसमें अवगाहन करना उतना ही कठिन है जितना कि समुद्रमें । अत एव इसको समुद्रके समान बताया है। जिस प्रकार संसारमें अग्नि अथवा धूप आदिके संतापको दूर करनेवाला अपूर्व कारण अमृत माना गया है उसी प्रकार समस्त सांसारिक संतापोंका शमन करनेके लिये मोहनीयकर्मजनित इच्छाओंका निग्रह अद्वितीय साधन
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अनगार
५६६
अध्याय
माना गया है । अत एव इस इच्छानिरोधरूपी अमृतको जो तपरूपी समुद्रका शरीर कहा है सो ठीक ही है। क्यों कि इसमें अवगाहन करनेसे समस्त संताप दूर हो सकते हैं।
इस तपःसमुद्रका आश्रय सम्यग्दर्शनरूपी वज्रमय नौका है।
जिस प्रकार समुद्रका आधार स्थल वज्रमय नावके आकारमें है उसी प्रकार तपस्याका भी आश्रय दृढ सम्यग्दर्शन है। जिस प्रकार समुद्र में उद्धृत वैभत्रको धारण करनेवाले अन्तद्वीप रहा करते हैं उसी प्रकार तपश्चरण में विस्मयate विभूतिको सम्पन्न करनेवाले उत्तम क्षमा आदि दश धर्म रहा करते हैं । धर्मोंको अन्तद्वीपों के समान बताना ठीक ही है; क्योंकि जिस प्रकार अन्तद्वीपोंकी देवगण नित्य सेवा किया करते हैं उसी प्रकार मुमुक्षुजन इन धर्मोकी सेवा किया करते हैं। जिस प्रकार समुद्र में प्रवेश करनेकेलिये किनारेपर घाट बने रहते हैं उसी प्रकार तपःसमुद्रमे प्रवेश करनेकेलिये अनित्य अशरण संसार एकत्व अन्यत्व अशुचित्व आदि बारह अनुप्रेक्षाओंको समझना चाहिये । जिस प्रकार समुद्रमें जगतको आल्हादित करदेनेवाले हीरा मोती आदि रत्न रहा करते हैं उसी प्रकार तपश्चरणमें समीचीन व्रत गुप्ति और समिति हुआ करती हैं || समुद्र यदि जगतको आल्हादित करनेवाले चन्द्रमाके द्वारा शाभायमान होता है तो तपश्चरण वैसे ही सम्यग्ज्ञानके द्वारा प्रदीप्त होता है। जिस प्रकार समुद्र में कोई कोई लहरी निर्मालित और कोई कोई उन्मीलित रहा करती हैं उसी प्रकार तपश्चरणमें भावनाबलके द्वारा कोई कोई परषि तिरोहित - अपना कार्य करने में असमर्थ और कोई कोई उद्भूत - कार्य करनेमें समर्थ रहा करती है । जिस प्रकार समुद्र अपने ऐरावत कौस्तुभ और पारिजात इन तीन रत्नोंके माहात्म्यका अतिशय प्रकट होने से अपने उत्कर्षकी सम्भावना किया करता है उसी प्रकार तपश्चरण भी अपनेको सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इस रत्नत्रयस्वरूप परिणत आत्मा के घति अघति कर्मों का क्षपण करनेमें समर्थ शक्त्यतिशय के द्वारा उत्कृष्ट प्रकट करता है ।
भावार्थ- समुद्रसमान तपश्चरणमें अवगाहन करनेसे ही सांसारिक तापत्रयी शान्ति हो सकती है और नत्र तथा आत्मोपलब्धिकी प्राप्ति हो सकती है। अत एव साधुओं को मोक्षमार्ग में महोद्योग करनेके लियें इस तपःसमुद्र में अवगाहन करना ही चाहिये ।
धर्म ०
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बनगार
दश धर्मोका स्वरूप बताते हैंक्रूरकोधाशुद्भवाङ्गप्रसङ्गेप्यादत्तेऽद्धा यन्निरीहः क्षमादीन् । शुद्धज्ञानानन्दसिद्धथै दशात्मा ख्यातः सम्यग्विश्वविद्भिः स धर्मः ॥२॥
दुःख अथवा दुर्निवार क्रोधादि कषायोंका उद्भव करदेनेवाले कारणोंका व्यक्तरूपमें अथवा सहसा प्रसंग आजानेपर भी ऐहिक विषयोंके लाभादिककी अपेक्षा न रखाकर जो अन्तःकलुषताके उपरमका धारण करना उस को धर्म कहते हैं । जिसको कि सर्वज्ञ देवने शुद्धज्ञान तथा शुद्धप्रमोदकी सिद्धीका साधन बताया है और जो कि उत्तम क्षमा उत्तम मार्दव उत्तम आजेव उत्तम सत्य उत्तम शोच उत्तम संयम उत्तम तप उत्तम त्याग उत्तम आकिश्चन्य उत्तम ब्रह्मचर्य इस तरह दश प्रकारका है।
कषाय आत्माको तेजका नाश करनेवाले और अत्यंत दुर्जय हैं इस बातको प्रकाशित करते हुए उनकी जेयता दिखाकर यह बात भी बताते हैं कि उनका विजय करलेनेपर ही वास्तविक आत्मरूपकी उपलब्धि हो सकती है
जीवन्तः कणशोपि तत्किमपि ये नन्ति स्वनिम्नं मह,स्ते सद्भिः कृतविश्वजीवविजया जेयाः कषायद्विषः । यन्निर्मूलनकर्मठेषु बलवत्कर्मारिसंघाश्चिता,मासंसारनिरूढबंधविधुरा नोक्राथयन्ते पुनः॥३॥
अध्याय
अधिक प्रमाणकी तो बात ही क्या एक कण-अंशमात्र मी अस्तित्वमे बैठे हुए कषायरूपी शत्रु जिन्होंने कि समस्त संसारके जीवोपर विजय प्राप्त कर रक्खा है, आत्माके उस स्वाधीन तेजका जो कि अनिर्वचनीय है
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अनगार
नाश करदेते हैं। किंतु जो इन कषाय शत्रुओंका निःशेष नाश करनेमें शूर हैं उनको अनादिकालसे परतन्त्रताके दुःखको पुनःपुनः भुगानेवाले एवं बलवान् भी ये कर्मशत्रुओंके संघ उत्पीडित नहीं कर सकते, अत एव साधुओंको इन क्रोधादिक शत्रुओंके जीतनेका प्रयत्न अवश्य करना चाहिये। क्रोध कषायका फल अनर्थ ही है इस बातको दिखाकर उसके जीतनेका उपाय बताते हैं:
कोपः कोप्यग्निरन्तर्बहिरपि बहुधा निर्दहन् देहभाजः, कोपः कोप्यन्धकारः सह दृशमुभयीं धीमतामप्युपनन् । कोपः कोपि ग्रहोऽस्तत्रपमुपजनयन् जन्मजन्माभ्यपायां,
स्तत्कोपं लोप्तुमाप्तश्रुतिरसलहरी सेव्यतां क्षान्तिदेवी ॥ ४॥ क्रोध कषायको एक अपूर्व अग्निके समान समझना चाहिये जो कि संसारी प्राणियोंके बाह्य शरीर नेत्र आदिकोंको तथा अन्तस्तत्त्व-आध्यात्मिक भावोंका नाना प्रकारसे ऐसा भस्मसात् किया करता है कि जिसका कोई प्रतीकार नहीं हो सकता । यद्वा उसको एक अपूर्व अन्धकारके तुल्य समझना चाहिये जो कि मुखौकी तो बात ही क्या, विद्वानोंकी भी अन्तरङ्ग और बाह्य दोनो ही प्रकारकी दृष्टियोंको अन्धा बना देता है । अथवा उसको एक अपूर्व ग्रहके समान भी कहा जा सकता है जो कि निर्लजताके साथ साथ नाना प्रकारके क्लेशोंको इस जन्म और जन्मान्तरों में भी उत्पन्न किया करता है । फलतः यह बात सिद्ध है कि क्रोधका फल अनर्थके सिवाय और कुछ भी नहीं है। अत एव मुमुक्षुओंको इस कोपका लोप करने के लिये उस क्षमादेवताका आराधन करना चाहिये, जो कि आप्तोक्त आगमके अर्थज्ञानका उल्हास करनेमें कारण है।
उत्तमक्षमाके माहात्म्यकी प्रशंसा करते हैं--
यः क्षाम्यति क्षमोप्याशु प्रतिकर्तुं कृतागसः । कृतागसं तमिच्छन्ति क्षान्तिपीयूषसंजुषः॥५॥
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अनगार
५६९
अध्याय
अपना अपराध करनेवालोंका शीघ्र ही प्रतीकार करने में समर्थ रहते हुए भी जो पुरुष अपने उन अपराधियों के प्रति उत्तम क्षमा धारण करता है उसको क्षमारूपी अमृतका समीचीनतया सेवन करनेवाले साधुजन पापों को नष्ट करदेनेवाला समझते हैं।
antaraarकी विधि बताते हैं ।
प्राग्वस्मिन्वा विराध्यन्निममहमबुधः किल्बिषं यद्वबन्ध, कुरं तत्पारतन्त्र्याद् ध्रुवमयमधुना मां शपन्काममान्नन् । निम्नन्वा केन वार्यः प्रशमपरिणतस्याथवावश्यभोग्यं, भोक्तुं मेद्यैव योग्यं तदिति वितनुतां सर्वथार्यस्तितिक्षाम् ॥ ६ ॥
मुझ अल्पज्ञने पूर्वजन्ममें अथवा इसी जन्ममें जो इस जीवकी विराधना की थी उससे दुःखद एवं उदग्र पापकर्मका बन्ध किया जिसकी कि परतन्त्रताके कारण ही आज मुझको यह गाली दे रहा है अथवा चाबुकसे पीट रहा है यद्वा मेरे प्राणोंका अपहरण कर रहा है। भला जिसकी कि मैंने विराधना की वह यदि उस विराधनाजनित पापकर्मके उदयसे मेरे साथ भी वैसा ही व्यवहार करे तो उसको वैसा करनेसे कौन रोक सकता है। क्योंकि संचित मका फल अवश्य ही भोगना पडता है। जब कि वह अवश्य ही भोगना पडता है तब मुझको प्रशमरूप परिणत हार आज ही उनका भोगलेना योग्य है। इस प्रकारसे साधुओं को अपनी क्षमाभावना विस्तृत करनी चाहिये । भावार्थ - किसी विराधक के उपस्थित होनेपर साधुओंको ऐसा विचार करना चाहिये कि मेरे पूर्वसंचित पापकर्मके उदयसे ही यह मेरे प्रति ऐसा व्यवहार कर रहा है। अत एव इस पापफलको मध्यस्थ भावोंसे जहांतक हो, शीघ्र ही भोगलेना उचित है; जिससे कि इन कमाँकी निर्जरा हो जाय ।
किसीके इस तरहसे गाली आदि दिये जानेपर भी कि जिसके सुनते ही क्रोध उत्पन्न हो जाय, जो साधु
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बनगार
अपने चित्तको संयत रखता है उसीको इष्ट आत्मोपलब्धि हो सकती है। इस बातको बताते हैं:
दोषो मेस्तीति युक्तं शपति शपति वा तं विनाज्ञः परोक्षे, दिष्टया साक्षान्न साक्षादथ शपति न मां ताडयेत्ताडयेद्वा । नासुन् मुष्णाति तान्वा हरति सुगतिदं नैष धर्म ममेति, स्वान्तं यः कोपहेतौ सति विशदयति स्याद्धि तस्यष्टसिद्धिः ॥७॥
उत्तम क्षमाका साधक जो मुमुक्षु किसीके गाली आदि देने अथवा निन्दा आदि करनेपर इस तरहका विचार करता है कि मेरे पापकर्मके उदयके वशीभूत हुआ यह जीव जिन दोषोंके सबबसे मेरी निन्दा कर रहा है, सचमुच में वे दोष मुझमें मौजूद हैं, अथवा मुझमें दोषोंके न रहनेपर भी जो मेरी यह बुराई करता है सो इसका यह लडकपन है, क्योंकि असद्भूत दोषोंका उद्भावन अज्ञ बालक ही कर सकते हैं, या किया करते हैं । अथवा मेरे परोक्षमें मेरी बुराई करके इसने मेरा बढप्पन ही रक्खा है। यदि कोई प्रत्यक्षमें ही निन्दा करता हो तो जो साधु ऐसा विचार करता है कि-" यह केवल मेरी निन्दा ही तो करता है मुझको मारता या पीटता तो नहीं है," यदि वह पीटता हो तो उसके विषयमें ऐसा विचार करता है कि “ मुझको पीटता ही हैन, मेरे प्राणों का अपहरण तो नहीं करता, " यदि कोई वैसा भी करनेलगे तो जो उत्तम क्षमाका निधि अपने मन में ऐसा विचार किया करता है कि "यह मेरे प्राणोंका अपहरण ही करता है न कि मेरे स्वर्गापर्वर्गरूप फल देनेवाले आत्मधर्मका" उपी साधुके अभीष्ट अर्थकी सिद्धि हो सकती है।
भावार्थ--निन्दा आदि क्रोधके निमित्त मिलजानेपर भी जो साधु अपने हृदयको प्रशान्त रखता है-विकृत नहीं होने देता उसके व्रत शील आदि सब सुरक्षित रहते और इस लोकमें अथवा परलोकमें कहीं भी उसको
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अध्याय
१७.
'१-इसको अपनेमें दोषोंके सद्भावका चिन्तवन करना कहते हैं।
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बनगार |
अनगार
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दुःख नहीं भोगना पडता । उसको सर्वत्र सम्मान सत्कार आदिका लाभ ही होता है।
क्रोधका फल अपकीर्ति तथा दारुण दुःख ही है, इसी बातको दृष्टान्तद्वारा स्पष्ट करते हुए उसका दूरहीसे परित्याग करनेका उपदेश देते हैं
नाद्याप्यन्त्यमनोः स्वपित्यवरजामर्षार्जितं दुर्यशः, प्रादोदोन्मरुभूतिमत्र कमठे वान्तं सकृत् कुद्विषम् । दग्ध्वा दुर्गतिमाप यादवपुरीं द्वीपायनस्तु क्रुधा,
तत्क्रोधं ह्यगिरत्यजत्वपि विराराधत्यरी पार्श्ववत ॥ ८॥ अन्तिम मनु-भरतचक्रवर्तीका अपने छोटे भाई बाहुबलि कुमारके ऊपर किये गये क्रोधद्वारा संचित अपयश क्या आजतक इतना समय बीतजानेपर भी सो गया, नहीं, वह बरावर जागृत है और अपना काम कर रहा है। इसी प्रकार अपने बडे भाई कमठके ऊपर केवल एक ही वार छोडे हुए क्रोधरूपी विषने क्या मरुभूति-पार्श्वनाथस्वामीके पूर्वभवके जीवको बार बार और अतिशयरूपसे संतप्त नहीं किया ? अवश्य किया। तथा क्रोधानल यद्वा तपोलब्धिविशेषके द्वारा उत्पन्न हुए तैजस शरीरक द्वारा द्वारावती नगरीको भस्मसात् करके स्वयं दुर्गतिको प्राप्त होनेवाले द्वीपायन तपस्वीका नाम किसने नहीं सुना है ! फलतः यह बात स्पष्ट है कि क्रोध कषाय मनुष्योंकेलिये शत्रुके समान अपकार करनेवाला है अत एव उक्त पार्श्वनाथ स्वामीके ही ममान साधुओंको क्षमास्वियोंका धुरीण बनकर किसी शत्रुके द्वारा अपनी पुनः पुनः तथा अतिशयेन विराधना भी किये जानेपर शत्रुतुल्य क्रोधका क्षेपण अथवा शमन करना उचित है।
इस प्रकार उत्तम क्षमाधर्मका निरूपण करके क्रमप्राप्त मार्दवधर्मका लक्षण करनेकेलिये जिसका उदय
अध्याय
१०१
१- इसको अपनेमें दोषोंके अभावका चिन्तवन करना कहते हैं।
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रहनेसे यह धर्म उद्भत नहीं हो सकता उस मान कषायको धिक्कार देते हैं -
अनगार
१७२
हृत्सिन्धुर्विधिशिल्पिकल्पितकुलाद्यत्कर्षहर्षोर्मिभिः, किर्मीरः क्रियतां चिराय सुकृतां म्लानिस्तु घुमानिनाम् । मानस्यात्मभुवापि कुत्रचिदपि स्वोत्कर्षसंभावनं,
तद्धयेयेपि विधेश्वरेयमिति धिग्मानं पुमुल्लाविनम् ॥ ९ ॥ जो दैवरूपी शिल्पीके द्वारा रचेगये वंशरूप तप ऐश्वर्य प्रभृतिके अतिरेकसे जनित प्रमोदरूपी लहरियोंके द्वारा पुण्यात्माओं भाग्यहीन व्यक्तियोंके हृदयरूपी समुद्रको जीवनभरकलिये चित्रविचित्र बनादेता है । और जिसके कि निमित्तसे वास्ताविक पुंस्त्वके न रहते हुए भी अपनेको पुरुष समझनेवालोंको किसी विषयमें इस प्रकारसे अपने लिये अधिकताकी उत्प्रेक्षा होने लगती है कि मैं इस विषयमें उत्कृष्ट हूं। किंतु औरोंकी तो बात ही क्या खास अपने पुत्रके द्वारा भी कभी कभी उनको वह मान म्लान हो जाता है । इसी प्रकार जो पुरुषोंको अपने माहात्म्यसे भृष्ट करदिया करता है उस मानकषायको धिक्कार हो । अब मुझको चाहिये कि उस देवके लिये भी स्मरणीय -जहाँपर कि भाग्य भी अपना अनुष्ठान नहीं कर सकता उस विषयमें प्रवृत्ति करूं ।
अभिमानके निमित्तसे होनेवाली अनर्थपरम्पराओंको दिखाते हैं ...
गर्वप्रत्यग्नगकवलिते विश्वदीपे विवेक,त्वष्टर्युच्चैः स्फुरितदुरितं दोषमन्देहवृन्दैः ।
अध्याय
AnnanIVATNACTIVAANEERINARADIATADITIVENOMINETVARANE
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१ विपरीत लक्षणाके अनुसार ऐसा अर्थ किया गया है।
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धर्म
अनगार
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सत्रोवृत्ते तमसि हतदृग् जन्तुराप्तेषु भयो,
भूयोऽभ्याजत्स्वपि सजति ही स्वैरमुन्मार्ग एव ॥१०॥ जिसके द्वारा कर्तव्याकर्तव्यका पृथक्करण किया जा सकता है ऐसा विवेकरूपी सूर्य जो कि समस्त संसारको प्रकाशित करनेकेलिये प्रदीपके समान है, जब अहंकाररूपी अस्ताचलके द्वारा ग्रस्त हो जाता है और राग द्वेष प्रभृति राक्षसगणोंके साथ साथ अतिशयरूपमें बढरही और फैल रहीं हैं चोरी व्यभिचार आदि पापकर्मोकी प्रवृत्तियां जिसमें, ऐसा मोहरूपी अन्धकार अच्छी तरहसे-उच्छृखलताके साथ साथ निविडरूपमें सर्वत्र व्याप्त होजाता है उस समयमें इस प्राणीकी दृष्टि नष्ट होजाती है, और कष्टकी बात है कि वह अमीष्ट मार्गको छोडकर गुरु आदि आप्तजनके द्वारा पुनः पुनः रोकेजानेपर भी स्वच्छन्दतया उन्मार्ग-पुरुषार्थविरोधी मार्गमें ही आसक्त होता है। अहंकारजनित पापकर्म के उदयसे होनेवाले अत्यंत उग्र अपमान दुःखका निरूपण करते हैं
जगद्वैचित्र्यस्मिन्विलसति विधौ काममनिशं, स्वतन्त्रो न कास्मीत्यभिनिविशतेऽहंकृतितमः। कुधीर्येनादत्ते किमपि तदधं यद्रसवशा,चिरं भुङ्क्ते नीचैर्गतिजमपमानज्वरभरम् ॥ ११॥
अध्याय
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“स्थावरजंगमस्वरूप संसारकी विचित्रता प्रसिद्ध है । इसमें निरंतर और यथेष्टरूपसे भाग्यके स्फुरायमान होनेपर ऐसा कौनसा विषय है कि जिसको मैं प्राप्त नहीं कर सकता । संसारके सभी विषयोंको प्राप्त करने में मैं स्वतन्त्र हूं।" ऐसा समझनवाला यह जडबुद्धि जीव अहंकाररूपी अंधकारको उच्छृखल बनादेता है और उससे उस अनिवचनीय पापकर्मका संचय करता है कि जिसका उदय होनेपर नीचगतिसम्बन्धी अपमानज्वरको चिरकालतक
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अनगार
५७४
अध्याय
६
उसे भोगना पडता है। क्योंकि जीवोंको उनका अपमान - महत्वकी हानि ज्वरसे भी अधिक तीव्र संताप करनेवाला और दुःख देनेवाला है। तथा यह निगोदादिक नीच पर्यायोंमें होनेवाला अपमान अभिमानके निर्मित्तसे ही होता है जैसा कि आगममें कहा है कि
जातिरूपकुलैश्वर्यशील ज्ञानतपोबलैः । कुर्वाणोहंकृतिं नीचं गोत्रं बध्नाति मानवः ॥
जाति आदि आठ विषयोंका मद करनेवाला नीचगोत्रका बंध करता है।
पूर्वोक्त प्रकारके दुःखद मानका मर्दन मार्दवधर्म ही कर सकता है । अत एव उसकी प्रशंसा करते हैं
करते हैं ।
भद्रं मार्दववज्राय येन निर्लुनपक्षतिः ।
पुनः करोति मानाद्विर्नोत्थानाय मनोरथम् ॥ १२ ॥
उस मार्दवरूपी वज्रका कल्याण हो जिसके द्वारा अपने पक्ष शक्तिविशेषके समूल छिन होजानेपर यह मानरूपी पर्वत पुनः उठनेका प्रयत्न नहीं करसकता । भावार्थ - मानके दूर करनेको मार्दव कहते हैं। जाति रूप कुल ऐश्वर्य आदि अतिशयोंके रहते हुए भी उनका मद न होना, अथवा दूसरोंके द्वारा किये गये तिरस्कार आदि निमित्तोंके मिलनेवर भी अभिमानका जागृत न होना, यद्वा अपने सामने दूसरोंको तुच्छ समझनेके सकषाय भावका उद्भूत न होना आदि मार्दव कहाता है। इस मार्दवधर्मरूपी वज्रके द्वारा ही मानरूपी पर्वतका चूर्ण किया जा सकता है । अत एव इस अपूर्व धर्मका सदा कल्याण हो ।
अहंकार कभी भी कर्तव्य नहीं हो सकता इस बातका उपदेश देनेकेलिये संसारकी दुरवस्थाको प्रकट
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अनगार
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अध्याय
६
क्रियेत गर्व: संसारे न श्रूयेत नृपोपि चेत् । दैवाज्जातः कृमिथे भृत्यो नेक्ष्येत वा भवन् ॥ १३ ॥
दूसरे साधारण जीवोंकी तो बात ही क्या, एक राजातक अपने संचित पापकर्मके उदयसे मरकर विष्टाका कीड़ा हुआ, यह बात यदि आप्तसंप्रदाय के द्वारा सुननेमें न आई होती, अथवा आजकल भी एक देशका नरेश क्षणभरके बाद किंकर होता हुआ देखनेमें न आता होता, तब तो कदाचित संसारमें गर्व किया भी जा सकता था । किंतु यह बात नहीं है- उक्त सभी बातें सुनने और देखने में आती हैं। अत एव संसारके इस दुःस्वरूपका जाननेवाला कोई भी मनुष्य किसी भी वस्तु के निमित्तसे गर्व करना कर्तव्य किस तरह समझ सकता है।
समीचीन व्रतोंका अभ्यास करनेवाले साधुओं को आरम्भिक अवस्थामें अभिमानको जीतनेका उपाय करना चाहिये किंतु कर्मों को नष्ट करनेकेलिये उसको उत्तेजित करना चाहिये। ऐसा उपदेश देते हैं-:
प्राच्यादयुगीनानथ परमगुणग्रामसमृद्धयसिद्धा, —
-
ना ध्यायन्निरुन्ध्यान्म्रदिमपरिणतः शिर्मदं दुर्मदारिम् । छेत्तुं दौर्गत्यदुःखं प्रवरगुरुगिरा संगरे सद्रतास्त्रैः, क्षेप्तुं कर्मारिचक्रं सुहृदमिव शितैर्दीपयेद्वाभिमानम् ॥ १४ ॥
जो आत्माका अपाय करे उसको शत्रु कहते हैं। मान कषाय आत्माका अत्यंत अपाय ही करता है अत एव उसको भी प्रबल शत्रुके ही समान समझना चाहिये । और इसीलिये जो आत्महितको सिद्ध करना चा हते हैं उन साधुओंको मार्दव धर्मसे युक्त होकर तथा पूर्वकालके और इस युगके भी उन सम्पूर्ण साधुओंको जो कि अपने ज्ञान विनय दया सत्य प्रभृति परम गुणगणोंकी समृद्धि के द्वारा प्रसिद्धि प्राप्त करचुके हैं तत्वतः ध्यान करते हुए उस दुष्ट मदरूपी शत्रुका निवारण करना ही उचित है। अथवा इस मान कषायको मित्रके समान स
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윤
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बनगार
मझना चाहिये । जिस प्रकार विजयलाभकी इच्छा रखनेवाला कोई भी वीर योद्धा दारिद्रयादिक दुःखोंको नष्ट करने केलिये अपने मंत्री या सेनापति आदि अधिकारीके कथनानुसार संग्राममें अपना प्रहार करनेकेलिये उद्यत हुई शत्रुसैन्यका तीक्ष्ण शस्त्रोंके द्वारा निरसन करनेकेलिये मित्रको उत्तेजित किया करता है उसी प्रकार मुमुक्षुओंको दुगेतियों का निराकरण करनेकोलिये सद्गुरुओंके उपदेशानुसार प्रतिज्ञाओंमें स्थिर होकर धर्मरूपी शत्रुसैन्यका उनकी सम्पूर्ण शक्तियोंका नाश करने सर्वथा समर्थ निर्मल अहिंसादिक व्रतोंके द्वारा नाश करनेकी इच्छासे मित्रके समान अभिमानको उत्तेजित करना चाहिये । क्योंकि आद्य अवस्थामें मुमुक्षुओंकेलिये अभिमान भी विधेय हो सकता है । क्योंकि उसके निमित्तसे कोका क्षपण करने की प्रवृत्ति में उत्तेजना लाई जा सकती है।
यद्यपि मानकषायकी शक्ति मार्दव धर्मके द्वारा अभिभूत हो जाती है फिर भी उसका सर्वथा नाश शुक्लध्यानकी प्रवृत्तिसे ही हो सकता है। अत एव वैसा करनेकेलिये उपदेश देते हैं:
मार्दवाशनिनिनपक्षो मायाक्षितिं गतः
योगाम्बुनैव भेद्योन्तर्वहता गर्वपर्वतः ॥ १५ ॥ मार्दवरूपी वज्रके द्वारा पक्षच्छेद होजानपर मायारूपी पृथ्वीपर पडे हुए गर्वरूपी पर्वतका भेदन अन्तरङ्गमें वहते हुए योगरूपी जलके द्वारा ही हो सकता है । भावार्थ-जिस प्रकार इन्द्र के द्वारा छोडे हुए वज्रसे पक्षच्छेद होजानेपर पर्वतका पृथ्वीपर पतन तो होजाता है किंतु वास्तविक विदारण नहीं होता सो वह उसके ही भीतर वहनवाले जलके ही द्वारा हो सकता है। इसी प्रकार मार्दव भावनाके द्वारा शक्तिविशेषके नष्ट होजानेसे गवरूपी पर्वत संज्वलनमायारूपमें आकर प्राप्त तो होजाता है किंतु उसका वास्तविक निहग्ण आत्मस्वरूपमें संततिक्रमसे प्रवर्तमान पृथक्त्व वितर्कवीचार नामके शुक्ल ध्यानद्वारा ही हो सकता है । क्योंकि क्षपकश्रेणी में शुक्ल ध्यानके द्वारा मान संज्वलनका उन्मूलन माया संज्वलनमें क्षेपण करके ही किया जाता है।
मानके निमित्तसे महापुरुषों के भी अभिप्राओंकी जो बडी भारी क्षति हुई है या हुआ करती है उस
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पर लक्ष्य दिलाते हुए इस बातका उपदेश देते हैं कि उसका नाश करनेके लिये मुमुक्षुओंको मार्दव भावोंका अवश्य ही पालन करना चाहियेः-.
मानोऽवर्णमिवापमानमभितस्तेनेऽर्ककीर्तेस्तथा. मायाभूतिमचीकरत्सगरजान् षष्टिं सहस्राणि तान् । तत्सौनन्दमिवादिराट् परमरं मानग्रहान्मोचयेत, तन्वन्मार्दवमाप्नुयात् स्वयमिमं चोच्छिद्य तद्वच्छिवम् ॥ १६॥
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SANERRRRENRSONSERasiakshaNESSIKERKEARNERNE KEMEN SERIES
.. अहंकारके द्वारा आदिचक्रवर्ती भरतेश्वरके पुत्र अर्ककीर्तिका जो अपमान अपयश और तेजोवध हुआ वह आगममें प्रसिद्ध है। इसी प्रकार इस मानकषायने आपप्रसिद्ध सगरचक्रवर्तीके साठ हजार पुत्रोंकी माण. केतु नामक देवके द्वारा जो मायाभस्म करादी. सो भी आगममें प्रसिद्ध ही है । अत एव साधुओंको चाहिये कि यदि कोई इस अहंकाररूपी भूतके आवेशसे ग्रस्त हुआ हो तो वे उसको शीघ्र ही उससे छुडानेका इस तरहसे प्रयत्न करें कि जिस तरहसे भरतराजने बाहुबलिकुमारके विषयमें किया था । तथा स्वयं भी भरतचक्रवर्तीकी ही तरह मार्दव धर्मको धारण करके और मानकषायरूपी ग्रहको निर्मूल करके अभ्युदय' तथा मोक्षपदको प्राप्त करना चाहिये। क्योंकि जो पुरुष मार्दवधर्मसे युक्त है उसका गुरुजन अनुग्रह करते और साधुगण भी मान करते हैं। तथा अन्तमें वह सम्यग्ज्ञानादिकका पात्र बनकर स्वर्गापवर्गरूपी फलको प्राप्त करलेता है।
क्रमप्राप्त आर्जव धर्मका वर्णन करनेकी इच्छास सबसे पहले सर्वथा परिहरणीय मायाके विलासोको ब. ताते हैं:
क्रोधादीनसतोपि भासयति या सद्वत सतोप्यर्थतो,
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अध्याय
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sesोषधियं गुणेष्वपि गुणश्रद्धां च दोषेष्वपि ।
या सूते सुधियोपि विभ्रमयते संवृण्वती यात्यणू, - न्यप्यभ्यू पदानि सा विजयते माया जगद्व्यापिनी ॥ १७ ॥
समस्त संसारको व्याप्त करलेनेवाली मायाने सबपर विजय - सर्वोत्कृष्ट पदको प्राप्त कर रक्खा है । क्योंकि यह प्रयोजनके अनुसार जहां जब जैसा भाव प्रकट करना चाहिये वहां उस समय वैसा ही भाव प्रकट किया करती है। कभी तो अनुभूत भी क्रोध मान या लोभरूप कषायभावोंको उद्भूतकी तरह प्रकट किया करती है, और कभी - प्रयोजन के आश्रय से उदभूत मी इन कषायको अनुद्भूतकी तरह दिखाया करती है । जैसा कि कहा भी है कि
भेयं माया महागर्तान्मिथ्याघनतमोमयात् । मिलना न लक्ष्यन्ते क्रोधादिविषमाहयः ।
मिथ्यादर्शन या विपर्यासरूप निविड अन्धकारसे व्याप्त उस मायाचाररूपी महान गर्तसे अवश्य ही डरना चाहिये जिसमें कि पडे हुए क्रोधादि कषायरूपी विषयभुजङ्ग देखने में नहीं आ सकते ।
यह माया दृष्टिको शान्त बनाकर गुणोंमें दोषबुद्धि और दोषोंमें गुणोंकी श्रद्धा उत्पन्न कर दिया करती है । अधिक क्या कहें, ऐसे अत्यंत सूक्ष्म तकणाके स्थानोंको जो कि सहसा दृष्टिमें भी न आ सकें, ढककर साधारण मनुष्योंकी तो बात ही क्या, कुशलबुद्धियों को भी भ्रम में डाल देती है। जैसा कि कहा भी है कि
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बेहिः सर्वाकारप्रवणरमणीयं व्यवहरन्,
१- यह लोक श्रीगुणभद्र स्वामीने कहा है । २- यह लोक मुद्राराक्षस नाटकमेंका है।
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बच्याय
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पराभ्यूहस्थानान्यपि तनुतराणि स्थगयति ।
जनं विद्वानेवं सकलमविसंधाय कपटे, - स्वस्थः स्वानर्थान् घटयति च मौनं स भजते ।।
यह माया इस लोक और परलोक दोनों ही जगह दुःखका ही कारण है। इस बातको दिखाते हैं:
यः मोढुं कपटीत्यकीर्तिभुजगमष्टे श्रवन्तश्वरी, सोपि प्रेत्य दुरत्ययात्ययमयीं मायोरगीमुज्झतु ।
नो चेत्स्त्रीत्वनपुंसकत्वविपरीणामप्रबन्धार्पितं,
ताच्छील्यं बहु धातृकेलिकृतपुंभावोप्यभिव्यक्ष्यति ॥ १८ ॥
" यह कपटी है " इस तरहकी अपकीर्तिरूप सर्पिणीके अपने कानके पास घूमनेको जो सहन नहीं कर सकता उसकी तो बात ही क्या, जो सहन कर सकता है उसको भी चाहिये कि वह परलोकमें निःसीम दुःखोंके देने वाली इस मायासणीको दूरसे ही छोड़ दे। क्योंकि यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो जिसके उदयसे पुंस्त्व पर्याय प्राप्त होती है उस कर्मके निमित्तसे पुलिङ्ग पर्याय मे युक्त रहते हुए भी अपने स्त्रीत्वरूप विविध परिणामोंकी संततिके द्वारा मिश्रित हुए उन प्रभूत भावोंको भावत्रीत्वं या भावनपुंसकत्वको अवश्य ही प्रकट कर देगा |
. भावार्थ - मायाचारका त्याग न करनेपर संसार में जा अपयश होता है सो तो होता ही है किन्तु उससे परलोकर्मे स्त्रीत्व या नपुंसकत्व पर्यायकी जिससे प्राप्ति हो ऐसे कर्मका संचय भी होता है । अत एव वर्तमान में भले ही वह पुरुषविधायक कर्मके उदयसे पुल्लिङ्ग दीखे किन्तु मरकर वह अवश्य ही स्त्री या नपुंसक होगा ।
मायाचारीका लोकमें बिलकुल भी विश्वास नहीं होता इस बातको प्रकाशित करते हैं
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बनगार
यो वाचा स्वमपि स्वान्तं वाचं वश्चयतेऽनिशम् ।
चेष्टया च स विश्वास्यो मायावी कस्य धीमतः ॥ १९॥ . . जो मनुष्य निरंतर अपने हृदयको भी पंचनोंसें और वचनोंको भी कायव्यवहारसे धोखा दिया करता है उस मायाचारीका मला ऐसा कौन विचारशील होगा जो कि विश्वास करे क्योंकि मायाचारी मनुष्य जो कुछ मनमें होता है उसको तो कहता नहीं और जैसा कुछ कहता है वैसा करता नहीं।
इस कलिकालमें आर्जवधर्मके धारण करनेवालोंकी दुर्लभता बताते हैं
चित्तमन्वेति वाग् येषां वाचमन्वेति च क्रिया । ... स्वपरानुग्रहपराः सन्तस्ते विरलाः कलौ ॥ २० ॥
आजकल इस पंचमकालमें ऐसे सत्पुरुष बहुत ही विरल हैं-दो चारकी संख्यामें मिलने भी कठिन हैं कि जो अपना और परका उपकार करने में ही तत्पर रहते हुए भी अमायिक हों-जिनका कि हृदयके अनुरूप वचन और वचनके अनुरूप कायव्यवहार हो ।
___ आर्जवधर्मके धारकोंका माहात्म्य प्रकट करते हैं
आर्जवस्फूर्जदूर्जस्काः सन्तः केपि जयन्ति ते । ये निगीर्णत्रिलोकायाः कन्तन्ति निकृतेर्मनः॥२१॥
अध्याय
आर्जवर्मके द्वारा बढता हुआ है तेज अथवा उत्साह जिनका, और इसीलिये जो तीन लोकको अपने पेटमें रखलेनेवाली-जगत्त्रयाँको अपने अधीन करनेवाली मायाके हृदयको विदीर्ण करडालते हैं वे लोकोतर सत्पुरुष
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अध्याय
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saas Katha ॐ
सदा जयवंते रहो, अथवा ऐसे ही साधुजन सर्वोत्कृष्ट पदको प्राप्त कर सकते हैं ।
माया कषायका जीतना अत्यंत कठिन कार्य है। फिर भी जिन्होंने आर्जवधर्म के द्वारा उसको जीत लिया है उनको मोक्षमार्गप्रवृत्ति में किसी भी प्रकारका प्रतिबन्ध नहीं आ सकता। ऐसा उपदेश देते हैं
जो आर्जवधर्मरूपी नौका के द्वारा दुस्तर भी मायारूपी नदीको लांघ कर पार होगये हैं उनके अभीष्ट स्थानक जाने में भला कौन अन्तराय हो सकता है ? कोई नहीं । भावार्थ - मायाकपायके जीतने वालोंका मो क्षमार्ग निष्कण्टक समझना चाहिये ।
मायाचारके निमित्तसे जो दुर्गतियोंमें क्लेश अथवा दुःसह गर्दा निन्दा हुआ करती है उसको उदाहरणद्वारा
बताते हैं:
दुस्तरार्जवनावा यैस्तीर्णा मायातरङ्गिणी ।
इष्टस्थानगतौ तेषां कः शिखण्डी भविष्यति ॥ २२ ॥
-
खलुक्त्वा हृत्कर्णक्रकचमखलानां यदतुलं, किल क्लेशं विष्णोः कुसृतिरसृजत् संसृतिसृतिः । हतोऽश्वत्थामेति स्ववचनविसंवादितगुरु,— स्तपःसूनुर्लानः सपदि श्रृणु सद्धयोन्तरधित ॥ २३ ॥
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हे साधुओ ! सुनो, सजनों के हृदय और कानोंको विदीर्ण करनेके लिये करोंतके समान मायावचनका सत्पुरुष कभी भी प्रयोग नहीं करते । संसारमार्ग के बढानेवाली इस अनन्तानुबन्धिनी मायाने विष्णु - वासुदेवको जो असाधारण क्लेश दिया वह किसीसे छिपा नहीं है; क्योंकि वह लोक और शास्त्र सर्वत्र सुनने में आता है ।
官
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इसी प्रकार “कुञ्जरो न नरः" ऐसे मायापूर्ण वचनोंसे युक्त "अश्वत्थामा मारागया " इन वचनोंके द्वारा अपने गुरु द्रोणाचार्यको धोखा देनेके कारण युधिष्ठिरको एसी ग्लानि हुई थी कि जिसके सबबसे उन्होंने अपमेको सत्पुरुषोंसे छिपालिया था-वे सज्जनोंको अपना मुख दिखाना नहीं चाहते थे । भावार्थ--इस मायाके प्रसाद से बडे बडे पुरुषोंको भी क्लेश ही हुआ है ऐसा समझकर हृदयं तथा कर्णतकको विदीर्ण करदेनेवाली इस मायाका साधुओंको परित्याग ही करना चाहिये।
इस प्रकार आर्जव धर्मका निरूपण करके शौच धर्मका व्याख्यान करना चाहते हैं। किंतु उसमें सबसे पहले निकटवर्ती अथवा यथाप्राप्त विषयों में गृद्धि उत्पब करनेवाले लोभकषायका अवश्य ही निराकरण करनेकेलिये मुमुक्षुओंको उपदेश देते हैं । क्योंकि यह लोभ सम्पूर्ण पापोंका मूल तथा समस्त गुणोंका विध्वंस करनेवाला है और इसका निराकरण होनेपर ही शौच धर्म प्रकट हो सकता है। -
लोभमूलानि पापानीखेतधैर्न प्रमाण्यते ।
स्वयं लोभाद् गुणभ्रंशं पश्यन्तः श्यन्तु तेपि तम् ॥ २४ ॥ जो लोग " लोभमूलानि पापानि-समस्त पापोंका मूल लोभ कवाय ही है" इस जगत्प्रसिद्ध वाक्यको प्रमाण नहीं मानते उनको कमसे कम यह देखकर तो भी, कि इसके निमित्तसे ही दया मैत्री साधुता आदि समस्त गुणोंका विध्वंस होता है, लोभको कुश कर डालना चाहिये।
भावार्थ--जो पुण्यपापका विश्वास करनेवाले आस्तिक हैं वे तो इसको पापका मूल समझकर छोडते ही हैं किंतु जो वैसा विश्वास नहीं करते उनको कमसे कम अपने इस अनुभवसे तो भी इस लोमको छोडना चाहिये कि वह समस्त गुणोंका नाशक है । जैसा कि व्यासने भी कहा है कि:--
भूमीठोपि रथस्यास्तान पार्थः सर्वधनुर्धरान् । एकोपि पातयामास लोमः सर्वगुणानिव ॥
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अनगार
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अध्याय
६
भूमिपर खडे हुए और अकेले ही अर्जुनने रथमें बैठे हुए सम्पूर्ण धनुर्धारियोंको इस तरहसे निपातित कर दिया जैसे कि अकेला ही लोभ सम्पूर्ण गुणोंको नष्ट करदिया करता है ।
एक औचित्य गुण करोड गुणोंकी बराबर है। किंतु वह भी अत्यंत लुब्ध मनुष्यको छोडने योग्य मालूम पडता है, ऐसा उपदेश देते हैं:
गुणकोट्यातुलाकोटिं यदेकमपि टीकते ! तदप्यौचित्यमेकान्तलुब्धस्य गरलायते ॥ २५ ॥
दान और प्रिय वचनों के द्वारा दूसरोंको संतोष उत्पन्न करना इसको औचित्य कहते हैं । यदि करोड गुणोंको एक तरफ और ओचित्यको दूसरी तरफ रखकर देखा जाय तो एक औचित्यका ही प्रमाण अधिक मिलेग. किंतु जो नितान्त लोभसे आक्रान्त है उसे वह भी विषके समान जान पडता है। और जगह भी कहा है कि-
औवित्यमेकमेकत्र गुणानां राशिरेकतः । विधायते गुणग्राम औचित्यपरिवर्जितः ।।
फलतः औचित्यरहित लुब्ध मनुष्य शेष गुणे को भी धारण नहीं कर सकता ।
आत्मजीवन परजीवन और आरोग्य तथा पांचो इन्द्रिय के उपभोग, इन आठ विषयों की अपेक्षासे लोभके मी आठ भेद माने हैं। इनसे आकुलितचित्त रहनेवाला मनुष्य सदा ओर सम्पूर्ण अकृत्योंको कर डालता है। इस बातको बतात हैं:--
उपभोगेन्द्रियारोग्यप्राणान् स्वस्य परस्य च । गृध्यन् मुग्धः प्रबन्धेन किमकृत्यं करोति न ॥ २६ ॥
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- अपने अपना पर-स्त्री पुत्रादिकोंके उपमोगों इन्द्रियों आरोग्य और माणोंकी गृद्धि रखनेवाला मृढ मनुष्य गुरुवष पितृवध आदिकोमसे ऐसा कौनसा अकृत्य है कि जिसको वह चाहे तभी नहीं कर सकता । अपितु सभी ॥ दुष्कृत्योंको वह कर सकता है । अत एव मोहको छोडकर इस लोभका भी निरसन ही करना चाहिये । . लोमके वश होते ही मनुष्यके गुण नष्ट हो जाते हैं इस बातको बताते हैं।--
तावत्कोत्त्यै स्पृहयति नरस्तावदन्वेति मैत्री, तावद् वृत्तं प्रथयति विभांश्रितान् साधु तावत् । तावजानात्युपकृतमघाच्छङ्कते तावदुच्चै,--
स्तावन्मानं वहति न वशं याति लोभस्य यावत् ।। २७ ॥ . मनुष्य तभी तक कीर्तिकी स्पृहा और उसका संचय कर सकता तथा अखण्डरूपमें उसको कायम रख सकता, एवं मैत्रीका भी अविच्छिन्नतया पालन वह तभी तक कर सकता, और अपने चारित्रकी वृद्धि भी त. तक कर सकता है, इसी प्रकार अपने आश्रित व्यक्तियोंका भले प्रकार पोषण भी वह तभी तक कर सकता, और किसीके किये हुए उपकारका स्मरण, या पापसे भय तभी तक कर सकता, एवं अपने बढे हुए मान-आत्मगौरव का धारण या रक्षण भी वह तभी तक कर सकता है। जब तक कि वह लोभके वश नहीं होता । किंतु उसके अधीन होते ही ये सम्पूर्ण गुण निःसन्देह नष्ट होजाते हैं ।
जिस उपायसे लोभका विजय किया जा सकता है उसका आराधन करने के लिये मुमुक्षुओंको उत्साहित करते हैं:
.. "प्राणेशमनु मायाम्बां मरिष्यन्तीं विलम्बयन् ।
- लोभो निशुम्भ्यते येन तद्भजेच्छौचदैवतम् ॥२८॥ जो व्यक्ति मनोगुप्तिका पालन नहीं कर सकता वह यदि परवस्तुओंमें अनिष्ट उपयोगका परित्याग करदे
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अनगार
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तो उसके शौचधर्म माना जायगा । क्योंकि मनके सम्पूर्ण परिष्पन्दोंके निरोधको मनोगुप्ति और लोभकी उत्कृष्ट निवृत्तिको शौचधर्म कहते हैं । यह दानों में अन्तर है । इस शौचधर्म को देवताके समान समझना चाहिये । क्यों कि यह अपने आश्रितोंका पक्षपात रखनेवाला है । अत एव इस शौचधर्मरूपी देवताका मुमुक्षुओंको अवश्य ही आराधन करना चाहिये । क्ये कि वह उस लाभ कषायका निग्रह करता है जो कि अपने प्राणश-मोहके मरते ही खयं भी मरने के लिये तयार हुई मायारूपी अपनी माताको अवलम्बन देता बचालेता है। जिस प्रकार पति के मरते ही उसका अनुगमन करने की इच्छा रखनेवाली स्त्रीको उसका पुत्र बचालिया करता है, उसी प्रकार मोह पिताके नष्ट होते ही मायारूपी माताको नष्ट होनेसे बचाने वाला यह लोभ ही है। इस प्रकारसे मायाके पोषक लोभका निग्रह शौच धर्म ही करता है । अतएव प्रत्येक मुमुक्षु को इस शौचरूपी देवताका आराधन करना ही चाहिये ।
जो लोग संतोषका अभ्यास करके तृष्णाको दूर करनेवाले हैं उनके अत्मध्यानमें होनेवाले उपयोगके उद्योगको प्रकाशित करते हैं
अविद्यासंस्कारप्रगुणकरणग्रामशरणः । परद्रव्यं गृध्नुः कथमहमधोधश्चिमरगाम् । तदद्योधद्विद्यादृतिधृतिसुधास्वादहृतत्,
गरः स्वध्यात्योपर्युपरि विहराम्येष सततम् ॥ २९ ॥ अनादि कालसे लेकर अबतक मैं, यह कितने दुःखकी बात है कि शरीर और आत्मामें अभेद-प्रत्ययरूप अविद्याकी वासनासे विषयों की तरफ उन्मुख हुई इन्द्रियों के वशमें पडकर और इमी लिये आत्मस्वरूपसे भिन्न शरी शादिकोंमें गृद्धियुक्त होकर नीचे नीचकी तरफ ही जारहा हूं । अतएव शरीर और आत्मामें भेदज्ञानके होजानेपर अब मैं उस अविद्याके विरुद्ध प्रकाशित होती हुई आरै बढती हुई विद्याके अन्तःसारस्वरूप संतोषमय सुधाका बार बार पान करनेके कारण तृष्णारूपी विषका परिहार होजानसे आत्मामें ही निरंतर प्रवर्तमान तथा निर्विकल्पतया निश्चल ध्यानके द्वारा निरंतर उन्नतोमत दशामें उपयुक्त होते जाना ही उचित समझता हूँ।
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शौचके माहात्माकी प्रशंसा करते हैं। निर्लोभतां भगवतीमभिवन्दामहे मुहुः ।
यत्प्रसादात्सतां विश्वं शश्वद्भातीन्द्रजालवत ॥ ३०॥ जिसके कि प्रसादसे शुद्धोपयोगमें स्थिर रहनेवाले साधुओंको यह सम्पूर्ण चराचर जगत निरंतर इंद्रजालके समान अनुपभोग्य मालुम पडने लगता है उस निर्लोभता-प्रकर्षको प्राप्त हुई लोभनिवृत्तिरूपी भगवतीके सन्मुख खडे होकर में पुन: पुन: नमस्कार करता हूं और उसकी स्तुति करता हूं।
दृष्टांत द्वारा लोभके माहात्म्यको प्रकट करते हैं। तादृक्षे जमदग्निमिष्टिनमृर्षि स्वस्यातिथेयाध्वरे, हत्त्वा स्वीकृतकामधेनुरचिरायत्कार्तवीर्यः कुधा ! जन्ने सान्वयसाधनः परशुना रामेण तत्सुनुना,
तदुर्दण्डित इत्यपाति निरये लोभेन मन्ये हठात् ॥ ३१ ॥ समस्त लोगोंके चित्तको चमत्कृत करदेनेवाले और जहाँपर कि अपना आतिथेय सत्कार किया जारहा था उसी जगह -जगदग्निके आश्रममें ही आतिथेय कार्यमें प्रवृत्त उस जगदग्नि ऋषिको ही मारकर उसकी कामधेनुको हस्तगत करलेने वाले कार्तवीर्यका जो उस जमदग्निके पुत्र परशुरामने क्रुद्ध होकर अपने परशुके द्वारा संतानसैन्यसहित वध किया उससे मुझको तो ऐसा जानपडता है मानो उसके लोभ कषायने ही यह समझकरके कि यह दुर्दण्डित हैविना अपराधके ही दूसरोंको दंड देनेवाला है उसे जबर्दस्ती नरकमें पटकदिया । भावार्थ-लोभके वश होकर मनुष्य निरपराधियोंके घात जैसा पाप भी करने लगता है जिससे कि उसको इसलोक और परलोक दोनों ही जगह दुःखमय ही फल प्राप्त होता है।
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इस प्रकार उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, और शौच, इन चार धर्मोका जो कि क्रमसे क्रोध मान माया ओर लोमकी निवृत्ति होनेसे उद्भूत होते हैं, वर्णन करचुकनेपर अन्तमें इन जारो कषायों से प्रत्येककी अनन्तानुबंधिनी अप्रत्पारव्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, और संज्वलन, इस तरह चार चार अवस्थाएं होती हैं उनको दृष्टांतद्वारा स्पष्ट करते हुए क्रमसे उनके फलोंको भी दो पद्योंमें दिखाते हैं।
दृशदवनिरजोऽबराजिवदश्मस्तम्भास्थिकाष्ठवत्रेकवत् । वंशांग्रिमेषशृङ्गोक्षमूत्रचामरवदनुपूर्वम् ॥ ३२ ॥
कृमिचक्रकायमलरजनिरागवदपि च पृथगवस्थाभिः ।
कुन्मानदम्भलोभा नारकतिर्यङ्नसुरगतीः कुर्युः ॥ ३५ ॥ क्रोध मान माया और लोभ इनमें से प्रत्येककी सर्वोत्कृष्ट और उसकी अपेक्षा हीन हीनतर तथा हीनतम उदयरूप शक्तियों की अपेक्षासे चार चार अवस्थाएं होती हैं जिनको कि क्रमसे अनन्तानुबन्धी आदि कहते हैं । इन अवस्थाओंके द्वारा ही ये क्रोधादिक क्रमसे नारक, तिर्यक्, मानुष और देवगतिको उत्पन्न किया करते हैं। क्योंकि अनन्तानुबंधी क्रोध मान माया और लोभके द्वारा नारकगतिका और अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादिकके द्वारा तिर्यग्गतिका तथा प्रत्याख्यानावरण क्रोधादिकके द्वारा मनुष्य गतिका एवं संज्वलन क्रोध मान माया और लोभके द्वारा देवगतिका बन्ध होता है।
क्रोधकी अनन्तानुबंधी आदि जो चार अवस्थाएं बताई हैं वे क्रमसे पाषाणरेखा, पृथ्वीरेखा, धूलिरेखा, और जलरेखाके समान हुवा करती हैं । जिस प्रकार पत्थरमें पड़ी हुई दरार सैकडों उपायोंके करनेपर भी फिर नहीं जुड सकती उसी प्रकार अनन्तानुबंधी क्रोधके द्वारा फटा हुआ मन भी कभी जुड नहीं सकता। जिस प्रकार पृथ्वीमें पडी हुई दरार अनेक उपाय करनेपर कठिनतासे जुड़ सकती है उसी तरह अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके द्वारा विदीर्ण मन भी कठिनतासे ही मिलता है । जिस प्रकार धूलिके ऊपर कीगई रेखा सहज उपायके द्वारा ही मिट जाती है
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उसी प्रकार प्रत्याख्यानावग्ण क्रोधके द्वारा विदीर्ण हुआ मन भी सरल उपायके द्वारा ही शान्त होजाता है। जिस प्रकार लकडी आदिके द्वारा जलमें कीगई रेखा तुरंत मिटजाती है और फिर वह जल स्वयं जैसेका तैसा होजाता है उसी प्रकार संज्वलन क्रोधके द्वारा उत्पन्न हुआ मनोभाव भी सहसा स्वयं मिट जाता है। . मानके अनन्तानुबन्धी आदि अवस्थाओंकी अपेक्षा जो चार भेद बताये हैं वे क्रमसे पाषाणके स्तम्भ, हड्डी, लकडी, और वेतकी लताके समान होते हैं । जिस प्रकार पाषाणका स्तम्भ टूट सकता है पर नम्र नहीं हो सकता उसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मानके उदयसे ग्रस्त जीव नष्ट हो सकता है पर किसीकेलिये नम्र नहीं हो सकता। जिस प्रकार हड्डीमें अत्यंत अल्प नम्रता आ सकती है उसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरणमानी भी कुछ नम्रताको धारण कर सकता है। जिस प्रकार हड्डीकी अपेक्षा लकडी अधिक नम्र हो सकती है उसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरणमानीकी अपेक्षा प्रत्याख्यानावग्णमानी भी अधिक नम्र हो सकता है । तथा जिस प्रकार चेतकी लता सबसे अधिक नम्र होती है उसी प्रकार संज्वलनमानी भी अत्यंत नम्र हुवा करता है।
इसी प्रकार मायाके वासकी जडके समान, मेंढाके सींगके समान, तथा गोमूत्रके समान और चमरी गौके केशोंके समान इस तरह अनन्तानुबन्धी आदि चार भेद माने हैं। और लोभके कामगग (हिरिमिजीका रंग) चक्रमल (गाढीके पहियेका ओंगन) शरीरमल, और हल्दीके रंगके समान इस तरह अनन्तानुबन्धी आदि चार भेद बताये हैं। इनका उपमानार्थ स्पष्ट ही है।
जो साधु उत्तम क्षमादिकोंके द्वारा क्रोधादिकोंको जीत लेता है उसके लिये जीवन्मुक्ति सुलम समझनी चाहिये । क्योंकि वह शुक्लध्यानके द्वारा सहजमें ही उस अवस्थाको प्राप्त कर सकता है-ऐसा उपदेश देते हैं
मंख्यातादिभवान्तराब्ददलपक्षान्तर्मुहूर्ताशयान्, दृग्देशव्रतवृत्तसाम्यमथनान् हास्यादिसैन्यानुगान् । यः क्रोधादिरिपून् रुणद्धि चतुरोप्युद्धक्षमाद्यायुधै,
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अनगार
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-अध्याय
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योगक्षेमयुतेन तेन सकलश्रीभूयमीषल्लभम् ॥ ३४ ॥
कषायोंके जिप प्रकार शक्तिभेदकी अपेक्षा चार भेद माने हैं उसी प्रकार उनका वासनाकाल और कार्य भी भिन्न भिन्न ही होता है । अनन्तानुबन्धीका संस्कार संख्यात असंख्यात और अनंत भवतक रह सकता है और उसके उदय से सम्यग्दर्शन का घात होता है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरणका संस्कार छह महीनेतक रह सकता है और वह देश को रोकता है। उसके उदयसे एकदेश चरित्र भी नहीं हो सकता । प्रत्याख्यानावरणका संस्कार पंद्रह दिन तक रह सकता है और वह सकल चारित्रको नहीं होनेदेता । तथा संज्वलनका संस्कार अन्तर्मुहूर्तकुछ कम दो घडीतक रह सकता है जो कि यथाख्यात चारित्रको रोकनेवाला है। इस प्रकार कषायोंका संस्कार कार्य भिन्न भिन्न ही है । इनके अनुगामी हास्य रति अर ते शोक भय जुगुप्सा स्त्री पुरुष और नपुंसक ये नव नोक
और भी हैं। इनको उक्त क्रोधादि कषायरूप शत्रुओं का सैन्य समझना चाहिये । अतएव जिस प्रकार कोई विजिगीषु व्यक्ति उत्कृष्ट मध्यम आदि प्रतापके रखनेवाले एवं उत्कृष्ट मध्यम आदि वैरभाव के भी रखनेवाले चारो तर फके ससैन्य शत्रुओंको तीक्ष्ण शस्त्रोंके द्वारा जीतकर अपने योगक्षेम - अलब्धलाभ और लब्धपरिरक्षणके द्वारा सकल साम्राज्य - षट्खण्ड भूमिके आधिपत्यको सहज ही में प्राप्त करलेता है उसी प्रकार जो मुमुक्षु भव्य उक्त चार प्रकारकी वासनाओं युक्त और सम्यग्दर्शनादिकका घात कर आत्माका अपाय करनेवाले तथा हास्यादिकी सेनासे युक्त अनन्तानुबंधी क्रोधादि चार प्रकार के शत्रुओंको निर्मल - ख्याति लाभ पूजा आदिकी अपेक्षासे रहित होने के कारण प्रशस्त - - उत्तमक्षमादि शस्त्रों के द्वारा परास्त कर देता है वही साधु क्षपकश्रेणिगत समाधिके द्वारा -- एकत्ववितर्क वीचार शुक्लध्यान में स्थिर होकर सकल- सशरीर लक्ष्मी - अन्तरङ्ग केवलज्ञानादि अनन्त चतुष्टस्वरूप और बाह्य समवसरणरूप विभूतिको अनायास ही प्राप्त करलेता है ।
भावार्थ - जो व्यक्ति उत्तम क्षमादिकों के द्वारा कषायोंका निरोध करदेता है वह विना किसी परिश्रमके ही शुक्लध्यान में स्थिर होकर शीघ्र ही अर्हन्त अवस्थाको प्राप्त करलेता है ।
क्रमप्राप्त सत्यधर्म के लक्षण और उपलक्षणको बताते हुए उसका फल भी बताते हैं: -
धर्म ०
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अनगार
कूटस्थस्फुटविश्वरूपपरमब्रह्मोन्मुखाः सम्मताः, सन्तस्तेषु च साधुसत्यमुदित्तं तत्तीर्णसूत्रार्णवैः। आ शुश्रूषुतमःक्षयात्करुणया वाच्यं सदा धार्मिकै,
|राज्ञानविषादितस्य जगतस्तद्धयेकमुज्जीवनम् ॥ ३५ ॥ - चराचर जगतकी भूत भविष्यत वर्तमान अनन्त पर्यायस्वरूप और जो द्रव्यरूपतया नित्य तथा स्पष्ट | संवेदनके द्वारा जाना जाता है ऐसे परमब्रह्म-आत्मज्योतिस्वरूपमें परिणत हानेके लिये जो उद्युक्त रहते हैं उनको सत्-सत्पुरुष कहते हैं और उस परब्रह्मकी तरफ उन्मुखता होने में जो उपकारक हो उसको सत्य कहते हैं। अत एव धार्मिक आचरण करनेवाले प्रवचनसमुद्रके पारदर्शियोंको श्रोताओंके दुःखका उच्छेदन करनेकी करुणापूर्ण इच्छासे सदा ऐसे ही वचन बोलने चाहिये जो कि उनको उक्त आत्मज्योतिकी तरफ उन्मुख करनेवाले हों और सो भी तबतक बोलने चाहिये जबतक कि उनके सुननेकी इच्छा रखने वालोंके उस विषयके अज्ञानका नाश न हो जाय । क्योंकि यह सत्य वचन घोर अज्ञानरूपी विषसे मूर्छित-अभिभूत हुए बहिरात्मा प्राणियों के उजीवित-प्रबुद्ध करनेकेलिए आद्वितीय रसायनके समान है।
भावार्थ-सत् शब्दका अर्थ आत्मस्वरूप है। अत एव जिन क्रियाओंके निमित्तसे आत्मस्वरूपकी त. रफ प्रवृत्ति हो उनको ही सत्य कहते हैं। इसी लिये साधु ऐसे वचन बोलता है कि जिनसे श्रोताओंकी प्रवृत्ति उस आत्मस्वरूपकी तरफ होजाय उसीको सत्यवक्ता और उसके वचनोंको सत्यवचन कहते हैं।
प्रकृत चारित्रके विषय में सत्यशब्दका सम्बन्ध तीन जगह किया गया है,-सत्यमहाव्रतमें, भाषासमितिमें और सत्यधर्ममें; किंतु इन तीनो सत्योंके स्वरूपमें अन्तर क्या है सो बताते हैं
असत्यविरतौ सत्यं सत्स्वसत्स्वपि यन्मतम् । वाक्समित्यां मितं तडि धर्मे सत्स्वेव बहपि ॥ १६ ॥
बध्याय
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NITVOINMANMOHamalai
सत्य शब्दका अर्थ ऊपर बताया जा चुका है कि सतके विषयमें जो उपकारक हो उसको सत्य कहते हैं किंतु यह लक्षण निरुक्तिकी अपेक्षासे किया गया है । अत एव केवल सत्के ही विषयमें नहीं, कदाचित असत्के विषयमें भी जो उपकारक हो उसको भी सत्पुरुषोंने सत्य माना है।
इस सत्यकी प्रवृत्ति व्रत समिति और धर्म इस तरह तीन जगह की जाती है। किंतु इनमें जो अन्तर है वह यही कि अनृतविरति महाव्रतमें तो सत् और असत् दोनों ही विषयों में थोडा भी और बहुत भी दोनों ही प्रकारसे बोला जाता है। तथा भाषासमितिमें सत् और असत् दोनो ही विषयोंमें किंतु थोडा ही बोला जाता है । एवं सत्य धर्ममें केवल सत् विषयमें ही किंतु थोडा और बहुत दोनों ही तरहसे बोला जाता है।
सत्यधर्मके अनन्तर क्रमके अनुसार संयम धर्मका वर्णन करना चाहते हैं। संयम दो प्रकारका माना है एक उपेक्षारूप दूसरा अपहृतरूप । आजकलके कितने ही समितियों में प्रवृत्ति रखनेवाले इन संयमामसे अपहृत संयमका पालन किया करते हैं-ऐसा उपदेश देते हैं ।
. प्राणेन्द्रियपरीहाररूपेपहृतसंयमे ।
शक्यक्रियप्रियफले समिता: केपि जाग्रति ॥ ३७॥ त्रस और स्थावर जीवोंकी पीडाको परिहार करने और स्पर्शनादिक इन्द्रियोंकी अपने अपने विषयों में प्रवृत्ति न होने देनेको अपहृत संयम कहते हैं । अपहृतसंयमके फल अथवा कार्यको उपेक्षासंयम कहते हैं। अपहृत संयमका अनुष्ठान शक्य और फल इष्ट है। अत एव इसके शक्यानुष्ठान और इष्ट प्रयोजनकी अपेक्षासे आजकल कितने ही समितियांके पालन करनेवाले इस अपहृत संयमके विषयमें ही प्रमादहित प्रवृत्ति किया करते हैं।
फलतः अपहृत संयम दो प्रकारका है-एक प्राणिसंयम दूसरा इन्द्रियसंयम । दोनों में भी प्रत्येकके उत्तम मध्यम जघन्य इस तरह तीन तीन भेद हैं । जो साधु इस संयमका पालन करता है उसको उसका अच्छी तरहसे अभ्यास करनेकेलिये प्रेरणा करते हैं --
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AadisamhECRE81765HISEKSIRREYEARNERA
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अध्याय
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सुधीः समरसाप्तये विमुखयन् खमर्थान्मन, - स्तुदोथ दवयन्स्वयं तमपरेण वा प्राणितः ।
तथा स्वमपसारयन्नुत नुदन् सुपिच्छेन तान्, स्वतस्तदुपमेन वापहृतसंयमं भावयेत् ॥ ३८ ॥
रागद्वेषको उद्भूत कर चित्तको क्षुब्ध करदेनेवाले स्पर्श दिक विषयोंसे स्पर्शनादिक इन्द्रियोंको पराङ्मुख रखना इसको उत्तम इंद्रियसंयम कहते हैं। उन विषयोंको स्वयं इस तरहसे दूर रखना कि जिससे इंद्रियां उनको ग्रहण न कर सकें, इसको मध्यम इन्द्रियमंयम कहते हैं। और गुरु आदिकी आज्ञा प्रभृतिके द्वारा प्रेरित होकर उन विषयोंको इन्द्रियोंसे परे रखना इसका जघन्य इन्द्रियसयम कहते हैं।
स्वयं उपस्थित प्राणियों मे अपने को पृथक रखना युक्त प्रतिलेखन -- पीछीके द्वारा अपने शरीगदिकके ऊपरसे उन कहते हैं। तथा वैसी पीछीके न होनेपर उसके समान दूसरे प्राणिसंयम कहते हैं ।
इसको उत्तम प्राणिसंयम कहते हैं। और पांच गुणोंसे जीवों को दूर कर देना इसको मध्यम प्राणिसंयम मृदु वस्त्रादिके द्वारा प्राणियोंके दूर करनेको जघन्य
विवेकपूर्वक कार्य करनेवाले मुमुक्षुओं को उपेक्षासंयम की सिद्धि अथवा प्राप्ति के लिये इन छहों प्रकारके अपहृत संयमका भले प्रकार अभ्यास करना चाहिये ।
जो मन अपने वशमें नहीं रहता वह बाह्य विषयोंकी तफ दौड़ा करता है, इस बातको ध्यान में रखकर ग्रन्थकर्ता अपने अपने विषयोंसे प्राप्त होनेवाल प्रचण्ड दुःखौको दिखानेवाली स्पर्शनादिक इन्द्रियों में से एक एकके द्वारा अपनी अपनी सामर्थ्यका प्रतिपादन कराकर जगतमें स्वतन्त्रतया घूमनेवाले मनका निरोध करने के लिये उपदेश देते हैं:
१ – पीछीके आचार्योंने पांच गुण बताय हैं। धूलिरहित, प्रस्वेदरहित, मृदु, सुकुमार, और लघु ।
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स्वामिन्पृच्छ वनद्विपान्नियमितान्नाथाश्रुपिल्लाझषी:, पश्याधीश विदन्त्यमी रविकराः प्रायः प्रभोग्नेः सखा । कि दूरेधिपते व पक्कणभुवां दौःस्थित्यमित्येकशः,
प्रत्युप्तप्रभुशक्ति खैरिव जगडावन्निरुन्ध्यान्मनः ॥ ३९ ॥ कुलीन पुरुषों को अपने मुंह अपनी तारीफ करना शोभा नहीं देता, वह उनके लिये लज्जाका ही कारण माना है। अतएव में अपने मुंह अपनी तारीफ क्या करूं, पर आपको मेरा पगक्रम जानना है तो “ हे स्वामिन् मन! आप जरा उन जंगली हाथियोंसे ही पूछिय जो कि इस समय स्तम्भोंसे बँधे हुऐ हैं !"
" हे नाथ! आप उस रोती हुई मछलीकी तरफ देखिये," उसीसे मेरा आपको पराक्रम मालुम पडजायगा।
" हे अधीश! मेरे कामको तो प्रायः ये सूर्यकी किरणें ही जानती हैं।"
"हे प्रभो! यह आग्नका मित्र वायु क्या कुछ दर है?" पास ही तो है; अतएव मेरे कार्यके विषयमें इसीसे पूछिये । क्योंकि सदा सर्वत्र रहनेवाला यही मेरे कृत्यका साक्षी हो सकता है।
"हे अधिपते ! क्या आपने कहीं भी अहेरिया या भील आदिकोंकी आजीविका कष्टमय देखी है ?" नहीं । फिर वे जो सर्वत्र सुखपूर्वक आजीविका करलेते हैं वह किसका प्रताप है ?
इस प्रकार प्रत्येक स्पर्शन रसन घाण चक्षु और श्रोत्र इन पांचो इन्द्रियोंने क्रमसे ऊपर लिखे मूजव जो मनके समक्ष अपनी मामर्थ्य प्रकट करने के लिये व्यंग्यपूर्ण वचन कहे हैं उनसे यह बात अच्छी तरह मा.
१-यह स्पर्शनेन्द्रियका कथन है। इसी प्रकार आगे क्रमसे रसना, घाण, चक्षु और श्रोत्रका भी कथन है उसको भी घटित करलेना चाहिये ।
EERS NEIGHEETEHRITTENSANSAR VERENS NARENERISTIANE
अध्याय
HOSTHE KAREKRE HEAR
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अनमार
लुम होती है कि मनने इन्द्रियों के द्वारा संसारमें उस प्रभुशक्तिको सर्वत्र रोप रक्खा है कि जिसकी सामर्थ्य का कोई भी प्रतिविधान-प्रतोकार नहीं हो सकता । अत एव जगत्में अपनी प्रभुताको कायम करनेवाले और बडे बेगके साथ विश्वभरमें दौड लगानेवाले इस मनका मुमुक्षुओंको निरोध करना ही उचित है।
___इन्द्रियों का स्वामी मन है । यदि वह वशमें न हो तो इन्द्रियों को वह अपने विषयमें प्रवृत्त करता है। और यदि वशमें करलियाजाय तो इन्द्रियां मी स्वयं अपने विषयोंसे निवृत्त होजाती हैं । अत एव जितेन्द्रिय बननेके. लिये-यदि इन्द्रियाको अपने वशमें करना हो तो मनको जीतनेका प्रयत्न करना चाहिये । जैसा कि कहा भी
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इन्द्रियाणां प्रवृत्ती च निवृत्तौ च मनः प्रभुः।
मन एव जयेत्तस्माज्जिते तस्मिन् जितेन्द्रियः ॥ अत एव ग्रन्थकार इन्द्रियसंयमकी सिद्धिकेलिये मनको संयत करनेका मुमुक्षुओंको उपदेश देते है।--
चिग्दृग्धी दुपेक्षितास्मि तदहो चित्तेह हृत्पङ्कजे, स्फूर्जत्त्वं किमुपेक्षणीय इह मेऽभक्षिणं बहिर्वस्तुनि । इष्टद्विष्टधियं विधाय करणद्वारैरभिस्फारयन्, मां कुर्याः सुखदुःखदुर्मति मयं दुष्टै दूष्येत किम् ॥ ४॥
अध्याय
१-उक्त पांचों इन्द्रियोंके कथनमें क्रमसे हस्तिनीस्पर्श दोव, जालके द्वारा डाली गई गोलीके रसास्वादनमें लम्पट अपने पति--मत्स्यके मरणका दुःख, गन्धके लोभी भ्रमरका कमलके कोशमें मरण, और रूपके देखनेमें उत्सुक पतनकी मृत्यु, एवं गीतध्वनिमें अनुरक्त मृगका वध व्यग्य हैं। जो बात स्पष्ट न कहकर अभिप्रायसे जाहिर की जाय उसको व्यंग्य कहते हैं । स्पर्शन रसन ब्राण चक्षु और श्रोत्र इन इन्द्रियोंने भी अपना कार्य स्पष्ट नहीं बताया है किन्तु जिनको उनके कार्यसे प्रचण्ड क्लेश उत्पन्न हुआ है उनका उल्लेख कर अभिप्रायसे वह जाहिर किया है।
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अनगार
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अध्याय
६
मैं प्रमाणकी अपेक्षा स्वरूप आर पररूपका संवेदयिता-स्वपरप्रकाशक, और शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा स्वरूपमात्रका अनुभविता स्वात्मोपलब्धिरूप, तथा अन्य विषयोंकी तरफ उन्मुख न हो कर परस्वरूपका भी ध्यान करनेवाला हूं । अत एव निश्चय नक्की अपेक्षा से मैं सम्पूर्ण अन्तरङ्ग ओर बाह्य विकल्पजालोंके विलीन होजाने से आत्मामें विश्रान्ति लाभ कर अत्यंत आलादको प्राप्त हूं - शुद्ध स्वात्माके अनुभवरूप अत्यंत सुखस्वभाव में परि णत हूं । और स्वरूप या पररूप किसीने भी रागी द्वेषी न होकर उपेक्षा स्वभाव --- परम उदासीन ज्ञानमय अत एव हे मन ! इस हृदयकमल - ततत् विषयोंके ग्रहग से व्याकुल हुआ तू क्या इन बाह्य वस्तुओं के विषय में जो कि सदा इन्द्रियगोचर और वस्तुतः उपेक्षणीय हैं जिनमें कि रागद्वेष को नै करके मध्यस्थभाव ही धारण करना चाहिये, मुझको इष्टानिष्टबुद्धि उत्पन्न कर इन इन्द्रियों के द्वारा उनके विषयोपभोगकी तरफ उन्मुख बनाता हुआ मुझे सुख अथवा दुःखके मिथ्याज्ञानरूप परिणत कर सकता है ? कमी नहीं । अथवा ऐसा भी हो सकता है; क्योंकि जो स्वयं दुष्ट-दोषयुक्त - विकृत हुआ करते हैं वे दूसरी शुद्ध अधिकृत वस्तुको भी दोषयुक्त बनादिया करते हैं ।
भावार्थ - हे मन ! पापकर्म के निमित्तसे द्रव्यमन में विलास करनेवाला तू जो सकल विकल्पोंसे शून्य भी चेतनको नाना विकल्पजालोंसे जटिल बना देता है सो तेरा यह कार्य अन्याय्य है। मैं इसकी निन्दा करता हूं । उत्कृष्ट कुलीनता के अभिमानका स्मरण कराते हुए अन्तरात्माको उपालम्भात शिक्षा देते हैं:--
पुत्रो यद्यन्तरात्मन्नसि खलु परमब्रह्मणस्तत्किमक्षै, लल्याद्यद्बलतान्ताद्रसमलिभिरसृग्रक्तपाभिर्व्रणाद्वा ।
पायं पायं यथास्वं विषयमघमयैरेभिरुद्वीर्यमाणं, भुञ्जानो व्यात्तरागारतिमुखमिमकं हंस्यमा स्वं सवित्रा ॥ ४१ ॥ अन्तरात्मन् ! मनके दोष और आत्मस्वरूपके विचार करनेमें चतुर चिद्विवर्त ! यदि तू परमब्रह्म --
धर्म०
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अनगार
परमात्माका पुत्र है तो भ्रमर अथवा मक्खियों के द्वारा पुष्पोंसे पी पी कर उगले हुए रसके समान अथवा जोंकों के द्वारा घावमेसे पी पी कर पुनः उद्वमन किये हुए खूनके समान पापप्रचुर इन्द्रियोंके द्वारा अपने अपने अनु. रूप भोग भोगकर छोडे हुए इन पापबन्धके कारण, अत एव कुत्सित स्पर्शादिक विषयोंको, रागद्वेषको बढाते हुए भोगकर क्यों अपने पिता परमब्रह्मके साथ साथ अपना भी वध करता है।
भावार्थ-स्पर्शन रसन और घ्राण इन तीनों इंद्रियों के विषय भोगकर भी फिर फिरसे भोगने में आते हैं। अत एव इनको बमन अथवा उगलनके समान समझना चाहिये । इसी लिये हे अन्तरात्मन् ! तुझको परमात्माका पुत्र होकर कुलीन होकर उसका सेवन करना उचित नहीं है। ऐसा करनेमे तेरा, तेरे पिता-परमात्मा दोन का ही घात होता है। यहाँपर बहिरात्मपरिणतिको अन्तरात्माका घात और शुद्ध म्वरूपसे च्युत कराकर आत्माको रागद्वेषयुक्त बनाना परमात्माका घात समझना चाहिये।
इन्द्रियोंके द्वारा अनादि कालसे लगी हुई अविद्याकी वासनाके वशसे अनेक वार छिन्न हो गई हैं दुरा शाएं जिसकी ऐसे चित्तकी विषयासक्तिको हटाते हुए उस योग्यताकी विधिका उपदेश देते हैं जिससे कि परम पदकी प्राप्ति हो सकती है :
तत्तद्गोचरभुक्तये निजमुखप्रेक्षीण्यमूनान्द्रिया,ण्यासेदु क्रियसेऽभिमानधन भोश्वेतः कयाऽविद्यया । पूर्या विश्वचरी कृतिन् किमिमकैरबैस्तवाशा ततो,
विधैश्वयचणे सजत्सवितरि स्वे यौवराज्यं भज ॥ ४२ ॥ हे निबिड अभिमानके पुंज मन ! क्या तुझको यह बात मालुम है कि अपने अपने उन प्रतिनियत इष्टानिष्ट विषयोंका अनुभव करनेमें स्वाधीन वृत्तिको धारण करनेवाली इन इन्द्रियोंका उपस्थाता तुझको किस अविद्याने बगदिया है ? और हे कुशल हे गुणदोषोंके विचार तथा स्मरणादि करने में प्रधान ! सम्बद्ध एवं
अध्याय
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I
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धनगार
वर्तमान तथा प्रतिनियत रूपादि विषयोंको ही ग्रहण करनेवाली इन रंक इन्द्रियों पे क्या तेरी वह आशा जो कि सम्पूर्ण जगतको कवलित करलेनेवाली है, पूर्ण हो सकती है ? नहीं, कमी नहीं । अत एव अपने अपने पिता परमब्रह्मके विश्वमात्रके ऐश्वर्यका भोक्ता समस्त वस्तुविस्तारका अधिपति रहते हुए तुझको यौवराज्य-शुद्ध निजात्माके अनुभवकी योग्यतारूप कुमारपदका ही सेवन करना चाहिये। एकत्ववितर्क अवीचारनामक शुक्लध्यानमें स्थिर होना चाहिये।
इन्द्रियों के विषय, जिस समयमें उनको भोगा जाता है, उसी एक क्षणमें रमणीय मालुम होते हैं किन्तु अनन्तर समयमें ही उनका अत्यंत कटु अनुभव होने लगता है, इस बातको बताते हुए और साथ ही इस बातक भी ज्ञान कराते हुए कि वे आविर्भूत होकर अनन्तर समयमें ही तृष्णामें पुनः नवीनताको उद्धृत कर स्वयं तिरोभृत होजाते हैं । अत एव तृष्णासंतापको उत्पन्न करनेवाले और क्षणभंगुर हैं। फिर भी जो अज्ञानी लोक इन विषयोंके ही लिये अपने सम्मुख विपत्तियोंको बुलाते हैं उनकी कृतिपर अपशोच प्रकट करते हैं:
सुधागवं खर्वन्त्याभिमुखहृषीकप्रणयिनः, क्षणं ये तेप्यूवं विषमपवदन्त्यङ्ग विषयाः । त एवाविर्भूय प्रतिचितघनायाः खलु तिरो,
भवन्यन्धास्तेभ्योप्यहह किमु कर्षन्ति विपदः ॥ ४३ ॥ अपने अपने विषयोंको ग्रहण करनेके लिये उत्सुक हुई इन्द्रियों के साथ यथायोग्य - अपने अपने अनुरूप परिचय रखनेवाले जो विषय अमृतके भी गर्वका खण्डन करदेते हैं-फलतः जो सेवन करते समय अमृतसे भी अधिक रमणीय मालूम पडते हैं ऐसे अत्यंत उत्तम गिने जानेवाले पुष्पमाला स्त्री चन्दन प्रभृति विषय भी अन्त में सेवनक्षणके बाद ही मोह मूर्छा और संतापादिको उत्पन्न कर जहर ही उगलते हैं। इसके सिवाय ये आविर्भूत होकर -उपभोग्यताको धारण करके क्षणभरके बाद ही भोगोपभोगकी गृद्धिको बढाकर तिरोभूत-विलीन होजाते
अध्याय
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अमगार
हैं- उपभोगके योग्य नहीं रहते। इस प्रकार तत्त्वदृष्टिमे ये विषय आपातमात्र रमणीय किंतु परिपाककटु और तृष्णासंतापके जनक तथा क्षणभंगुर ही हैं। हाय फिर भी मालुम नहीं, ये अन्धे-तत्त्वस्वरूपसे अनभिज्ञ लोक. इन विषयों के लिये अपने सन्मुख विपत्तियोंको क्यों बुलाते हैं ? जैसा कि कहा भी है कि
आरम्भे तापकान् प्राप्तावऽतृप्तिप्रतिपादकान् ।
अन्ते सुदुस्त्यजान् कामान् कामं कः सेवते सुधीः ॥ जो आरम्भमें संताप करनेवाले हैं और जो प्राप्त होकर भी अतृप्ति-असंतोषको जाहिर करनेवाले हैं तथा जिनका अन्तमें भी छोडना कठिन है ऐसे आदि मध्य और अन्त सर्वदा ही आत्माको संक्लिष्ट बनानेवाले इन विषयोंका, ऐसा कौन विवेकी होगा जो कि सेवन करना चाहे ।
ये विषय इस लोक और परलोक दोनों ही जगह आत्माकी चैतन्यथाक्तिको आच्छादित करने वाले हैं, इस बातको प्रकट करते हैं:
किमपीदं विषयमयं विषमतिविषमं पुमानयं येन ।
प्रसभमभिभूयमानो भवे भवे नैव चेतयते ॥ १४ ॥ यह विषयरूपी विष अपूर्व अथवा अलौकिक ही है जो कि अतिशय विषम--अत्यंत कष्टकर और ऐसा विलक्षण है कि जिससे सहसा मर्छित हुआ यह जीव भवभवतक-अनन्त पयर्यायोंमें भी सचेत नहीं हो सकता। भावार्थ--स्वसंवेदनका अनुभव करनेवाला भी जीव इन विषयोंके प्रसादसे ऐसे वैभाविक भावोंको प्राप्त हो जाता है कि जिससे वह फिर अनन्त भवतक भी ज्ञानचेतनाका लाभ नहीं कर सकता । अत एव जो साधु ज्ञानचे. तनारूप अमृतका पान करनेकी इच्छा रखते हैं उनकेलिये इस विषयरूप विषसे विरत होना ही श्रेयस्कर है।
ऊपर अपहृतसंयमको उत्तम मध्यम और जघन्य इस तरह तीन प्रकारका बताया है। उसमेंसे उत्तम | प्रकारसे इन्द्रिय परिहाररूप अपहृत संयमको भावनाका विषय बनानेके लिये उपदेश देकर मध्यम और ज.
बघ्याय
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अनगार
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अध्याय
धन्य रूपसे भी उसकी भावना करनेकेलिये उपदेश देनेका उपक्रम करते हैं:
साम्यायाक्ष जयं प्रतिश्रुतवतो मेऽमी तदर्थाः सुखं, लिप्सोर्दुःखविभीलुकस्य सुचिराभ्यस्ता रतिद्वेषयोः । व्युत्थानाय खलु स्युरित्यखिलशस्तानुत्सृजेद् दुरत,— स्तद्विच्छेदन निर्दयानथ भजेत्साधून्परार्थोद्यतान् ॥ ४५ ॥
दु:खोंसे अतिशय डरनेवाले और सुखको प्राप्त करने की इच्छा रखनेवाले तथा उपेक्षासंयमको सिद्ध करकेलिये इन्द्रियविजय स्वीकार करनेवाले - इन्द्रियों को वश करनेमें प्रवृत्त हुए मेरे निकटवर्ती ये इन्द्रियों के विषय क्षणमात्रमें राग या द्वेषको उत्पन्न कर सकते हैं । अत एव इन सम्पूर्ण विषयों को दूर ही से छोडदेना उचित है । अथवा जो इस प्रकार से विषयोंके छोडदेनेमें असमर्थ है उसको उन चिरकाल के दीक्षित साधुओं की सेवा करनी चाहिये जो कि इन विषयोंका विच्छेद करने में अत्यंत निर्दय और दूसरोंका प्रयोजन सिद्ध करनेके लिये सदा उद्यत रहा करते हैं ।
भावार्थ- संयम के उत्तम मध्यम जघन्य तीनों भेदों का स्वरूप पहले लिखा जा चुका है; जिसमेंसे उत्तम भेदका ऊपर अच्छी तरह वर्णन किया जा चुका है। जिसमें कि अन्तर्वृत्तिके द्वारा ही आत्माको विषयोंसे पृथक् रहना दिखाया गया है। किंतु यहांपर पहले वाक्यमें मध्यम संयमका और दूसरे वाक्यमें जघन्य संयमका उपदेश है क्योंकि पहले वाक्यमें बाह्य वृत्तिके द्वारा आत्मासे विषयोंके दूर करनेका उपदेश है और दूसरे वाक्य में गुरुओंके निमित्त उनको पृथक् करनेका उपदेश है ।
स्वयं ही विषयों को दूर करनेरूप मध्यम अपहृतसंयमका पालन करनेकेलिये साधुओंको उद्यत करते हैं:मोहाज्जगत्युपेक्ष्येपि छेत्तुमिष्टेतराशयम् । तथाभ्यस्तार्थमुज्झित्वा तदन्यार्थं पदं व्रजेत् ॥ ४६ ॥
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अनगार
यह सम्पूर्ण चराचर जगत् वस्तुतः उपेक्षणीय ही है, इसमें न तो कोई वास्तवमें रागका ही विषय है और न द्वेषका ही फिर भी इसमें जो इष्टानिष्ट वामनाकी प्रवृत्ति होती है सो केवल मोह-अज्ञानका ही कार्य है । अत एव संयुमके अभिलाषियोंको चाहिये कि वे उसका दूर करनेकेलिये उस पदको, जिसमें कि इष्टानिष्टतया पुनः पुनः विषयोंका सेवन किया जाता है; छोडकर उस पदका आश्रय लें जहाँपर कि सम्पूर्ण विषय इष्टानिष्ट वासनासे सर्वथा अलिप्त हैं। मनको विक्षिप्त करदेनेवाले इन्द्रियविषयोंके दूर करनेमें कुशल गुरु आदिकोंका अभिनन्दन करते हैं:
चित्तविक्षेपिणोक्षार्थान् विक्षिपन् द्रव्यभावतः ।
विश्वाराट् सोयमित्यायैर्बहु मन्येत शिष्टराट् ॥ ४७ ॥ रागद्वेषादिको उद्भूत कर मनमें क्षोभ उत्पन्न करदेनेवाले द्रव्य और भावरूप-बाह्य और अन्तरङ्ग इन्द्रियोंके विषयोंका अच्छी तरह परित्याग करानेमें कुशल शिष्टराद्का उत्तम पुरुष 'यह जगन्नाथ है-सम्पूर्ण जगतके अधीशकी तरह शोभायमान होनेवाला है' यह कहकर अत्यंत सम्मान करते हैं ।
भावार्थ-तत्त्वार्थोंका श्रवण या ग्रहण आदि करके जिन्होंने अनेक गुणोंका सम्पादन किया है ऐसे शिष्ट पुरुषोंमें जो उनके अधीशकी तरह शोभायमान होता है उसको शिष्टराट् कहते हैं । ऐसे पुरुषके प्रसादसे ही मनको क्षुब्ध बनानेवाले समस्त विषय दूर किये जा सकते हैं। अत एवं आर्य. पुरुषों के द्वारा वह संसारके स्वामीके समान अतिशय सम्मानित होता है। . इंद्रियसंयमकी तरह प्राणिपरिहाररूप अपहृत संयम भी उत्तम मध्यम और जघन्य इस तरह तीन प्रकार का बताया है। इनका विस्तृत रूपसे वर्णन करते हैं -
बाह्यं साधनमाश्रितो व्यसुवसत्यन्नादिमानं स्वसाद - भूतज्ञानमुखस्तदभ्युपसृतान् जन्तून्यतिः पालयन्
अध्याय
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| धर्म
अनगार
स्वं व्याव| ततः सतां नमसितः स्यात् तानुपायेन तु,
स्वान्मार्जन् मृदुना प्रियः प्रतिलिखन्नप्यादृतस्तादृशा ॥ ४८ ॥ ज्ञान और चारित्रकी क्रियाओंको अपने अधीन रखनेवाला और उनके बाह्य साधन प्रासुक वसतिका तथा अन पुस्तकादि मात्रको ही ग्रहण करनेवाला जो संयमी उन प्रासुरू भी वसतिका आदिमें देवात् आकर पड जानेवाले जीवजन्तुओं के वियोग या उपघात आदिका विचार न करके स्वयं अपनेको ही उनसे अलग रख कर उन जीवों की रक्षा करता है वही उत्तम प्राणिपरिहाररूप अपहृत संयमका पालक समझा जाता है। ऐसे संयमीकी साधुजन भी पूजा करते हैं । किंतु जो साधु इस तरह अपने को ही उन जीवोंपे पृथक् न रखकर अपने शरीरादिके ऊपर आकर पडजानेवाले उन जीवोंका उक्त पाच गुणों से युक्त कोमल पीछी आदिके द्वारा मार्जन कर के उनकी रक्षा करता है वह मध्यम प्राणिपरिहाररूप अपहृत संयमका पालन करनेवाला मानागया है और उस को सत्पुरुष बडी प्रेमकी दृष्टिसे देखते हैं । तथा जो यति उस तरहकी पीछी न मिलनेपर उसके समान किस.. भी दूसरी कोमल वस्तुसे उन जीवोंका शोधन करता है वह जघन्य प्राणिपरिहाररूप अपहृत संयमका पालन करनेवाला मानागया है और वह भी सत्पुरुषोंकेलिये आदरणीय होता है।
अपहृत संयमको बढानेकेलिए आठ प्रकारकी शुद्धिका उपदेश देते हैं:
भिक्षेर्याशयनासनविनयव्युत्सर्गवाङ्मनस्तनुषु ।
तन्वन्नष्टसु शुद्धिं यतिरपहृतसंयमं प्रथयेत् ॥ ४९ ॥ मिक्षा ईर्या शयनासन विनय व्युत्सर्ग और मन वचन काय इन आठ विषयों में संयमियोंको निरवद्यता बढाते हुए अपहृत संयमको बढाने का प्रयत्न करना चाहिये । क्योंकि इन शुद्धियों के निमित्तसे ही संयमकी वृद्धि हो सकती है।
भिक्षाशुद्धिका वर्णन पिण्डशुद्धिके प्रकरण में करचुके हैं। फिर भी यहांपर इतना विशेष समझलेना चाहि
अध्याय
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अनगार
६०२
ये कि मुनियों की मिक्षा गोचार अक्षम्रा उदराग्निशमन भ्रामरी और श्वभरण इस तरह पांच प्रकारका मानी है। गौके समान भक्षण करने को गोचार कहते हैं। जिस प्रकार गौ अपने प्रयोक्ताके सौन्दर्य आदिकी तरफ निरीक्षण न करके और उचित स्वाद वगैरहकी भी अपेक्षा न करके जैसा कुछ प्राप्त होजाता है उसीको निर्विशेपरूपसे ग्रहण किया करती है, उसी प्रकार जो साधु दाताके गुणों की परीक्षामें न लगकर और न आहारके स्वाद अथवा उचित संयोजना आदिकी ही अपेक्षा करके यथाप्राप्त भोजनको प्राग करता है उसकी इस मिक्षाको गोचार कहते हैं। गाढीका पहिया जिस काष्ठपर ठहरा रहता है उसको किसी न किसी स्नेह-तैल आदि से ओंगना पडता है। क्योंकि उसके ओंगे विना बाझेपे भरी हुई गाढी अभीष्ट स्थानतक पहुंच नहीं सकती। उसी प्रकार आयुष्यादिको स्थिर रखने केलिये और रत्नत्रयरूप गुगोंके भारसे पूर्ण शरीररूपी गाढीको अभीष्ट स्थान तक पहुंचाने के लिये जो यथाविधि किसी भी निर्दोष आहारका ग्रहण करना उसको अक्षम्रक्षण कहते है। जिस प्रकार खजानेमें आग लगजानेपर किसी भी जलो उसको बुझाया जाता है। उसमें यह जल पवित्र है और यह अपवित्र है ऐसा विचार नहीं किया जाता । इसी प्रकार उदराग्नि के प्रज्वलित होनेपर उसको शान्त करनेकेलिये जो यह सरस है या यह विरस है ऐसा विचार न करके आहार ग्रहण किया जाय उसको उदराग्निप्रशमन कहते हैं । जिस प्रकार भ्रमर पुष्पको किसी भी प्रकार की पीडा न देकर उससे आहार ग्रहण करता है उसी प्रकार जो मुनि दाताको किसी भी तरहसे बाधित न करके उससे आहार्य सामग्रीको ग्रहण करता है, उसकी भिक्षाको भ्रामरी कहते हैं। जिस प्रकार कचरा वगैरहका ख्याल न करके जिस किसी भी तरह गढेको भरदिया जाता है उसी प्रकार यह स्वादु है या यह अस्वादु है ऐसा विचार न करके यथाप्राप्त भोजनके द्वारा जो उदररूपी गरेका भरदेना उसको श्वभ्रपूरण कहते हैं।
यो व्युत्सर्ग और वचन इन तीन प्रकारकी शुद्धियों का वर्णन समितियोंके प्रकरणमें आचुका है, और शयनासन तथा विनय शुद्धिका वर्णन आगे चलकर तपके प्रकरण में करेंगे। अत एव यहाँपर इनके दुहरानेकी आवश्यकता नहीं है। रही मनःशुद्धि सो उसका स्वरूप इस प्रकार है कि कर्मोंके क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाली और रागादिके उद्रेकसे रहित तथा जिसमें मोक्षमार्गकी रुचिके द्वारा अतिशय निर्मलता प्राप्त हो चुकी है ऐसी
'अध्याय
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बनगार
६०१
अध्याय
माशुद्धिको मनःशुद्धि कहते हैं। सम्पूर्ण शुद्धियों में प्रधान इसी शुद्धिको माना है । क्योंकि चारित्रका प्रकाश इससे हो सकता है । जैसा कि कहा भी है कि:
सर्वासामेव शुद्धीनां भावशुद्धिः प्रशस्यते । अन्यथा लिङ्गयते पत्यमन्यथालिङ्ग यते पतिः ||
सबमें प्रशस्त भावशुद्धि ही गिनी गई है। क्योंकि देखते हैं कि माता जो संतानका आलिङ्गन करती है. उसमें और पतिका जो आलिङ्गन करती है उसमें एकसी क्रिवाके रहते हुए भी परिणामोंका बड़ा भारी अन्तर है ।
शरीर की ऐसी चेटाको कायशुद्धि करते हैं जो कि वस्त्र भूषण और संस्कारादिने सर्वथा रहित हो तथा बालकके समान यथाजात रूपसे युक्त किंतु जिसमें किसी भी प्रकार से अङ्गका विकार नहीं पाया जाता, तथा जिसके देखते ही लोगों को ऐसा जान पडे मानों यह मूर्तिनान् प्रशम ही है। ऐसी कायशुद्धि ही अमयपदका कारण हो सकती है। क्योंकि इसके होनेपर अपने को दूसरेसे ओर दूसरे को अपनेसे किसी भी तरह भय नहीं हो सकता ।
यद्यपि इन आठ शुद्धियों का वर्णन समिति आदि के प्रकरण में आजाता है फिर भी उसका यहांपर पृथक् वर्णन जो किया है उसका अभिप्राय यही है कि बाल या अशक्त भी मुनि अत्यंत दुष्कर भी संयमका पालन करनेमें सदा प्रयत्नशील बने रहें ।
इस प्रकार अपहृत संयमका वर्णन करके क्रमप्राप्त उपेक्षा संयमका अथवा उसके धारण करनेवालेका स्वरूप बताते हैं:--
तेमी मत्सुहृदः पुराणपुरुषा मत्कर्म क्लृप्तोदयैः,
स्वः स्वैः कर्मभिरी रेतास्तनुमिमां मन्नेतृकां मुद्धिया ।
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अनगार
चश्चम्यन्त इमं न मामिति तदाबाधे त्रिगुप्तः परा,
क्लिष्टयोत्सृष्टवपुर्बुधः समतया तिष्ठत्युपेक्षायमी ॥५॥ देश कालके विधानको जाननेवाला और 'आत्मा तथा शरीरके मेदज्ञानसे युक्त उपेक्षासंयमका धारक यति मानसिक वाचिक और कायिक तीनों ही प्रकारके व्यापारोंका अच्छी तरह विरोध करके तथा शरीरमें सर्वथा ममत्व का परित्याग करके उपद्रव करनेवाले अथवा हिंसादिक जीवजंतुओं के द्वारा अनेक प्रकारका दुःख दिया जानेपर भी उनको किसी भी.ताहका क्लेश नहीं देता किंतु सदा समता परिणामोको ही धारण किया करता है । किसी भी पदार्थको वह इष्ट या अनिष्ट समझकर उसमें राग या द्वेष नहीं करता । क्योंकि वह सोचता है कि ये व्याघ्रदिक जो मेरे इस शरीरका उग्रताके साय और बारबार मक्षा करते हैं पो विचारे समझते हैं कि यह शरीर ही मैं हूं। किंतु ऐसा नहीं है, में इस शरीरका केवल प्रयोक्ता हूं। जिस प्रकार कहार यदि बेंगीको ढोता है, तो उसको उसका प्रयोक्ता कहा जा सकता है। पर बेंगीको ही कहार नहीं कहा जा सकता । इसी प्रकार मैं भी इस शरीरका वाहक मात्र हूं। शरीर ही मैं नहीं कहा जा सकता । किंतु ये विचारे मेरे शरीरको ही मुझे समझकर भक्षण कर रहे हैं। सो इनको यह अज्ञान है । तथा इसमें इनका कोई अपराध भी नहीं है । क्योंकि मेरे ही पूर्वसंचित उप. घातादि कर्मके उदयका साहाय्य पाकर फर दे सकनेवाले अपने पूर्वार्जित परवातादि कौके उदयसे प्रेरित होकर ये ऐसा कर रहे हैं। किंतु शुद्धद्रव्यदृष्टि से यदि देखा जाय तो इनमें और मुझमें कई अन्ता नहीं है। ये मेरे ही समान हैं। क्योंकि "सब्वे सुद्धा हु सुद्धणया" शुद्ध स्वरूपकी अपेक्षासे सभी जीव शुद्ध हैं। अथवा ये मेरे उपकारी मित्र ही हैं। क्योंकि पिता आदि पर्यायोंको धारण कर इस अनादि संसारके भीतर कमी न कभी इन्होंने मेरा उपकार ही किया होगा । जैसा कि कहा भी है किः
१-उपवात और परघात दोनों कर्म साथ ही उदयमें आकर फल दे सकते हैं । जो घात करनेवाला है उसके परघात प्रकृतिका और जिसमा घात हो उसके उपवात प्रकृतिका उदय होता है ।
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जनगार
सर्वे तातादिसंबन्धा नासन् यस्याङ्गिनोङ्गिमिः।
सवैरनेकधा सार्द्ध नासावऽङ्ग थपि विद्यते ॥ अतएव मुझसे सर्वथा भिन्न शरीरका यदि ये भक्षण करते हैं तो भले ही कगे। मेरी इससे क्या हानि लाभ है। क्योंकि स्वसंवेदनके द्वारा जिसका प्रत्यक्ष हो सकता है ऐसे टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकमावस्वभाव आत्माका तो ये कुछ भक्षण कर ही नहीं रहे हैं। शरीरके निमित्तसे यह केवल व्यवहार है कि मेरा भक्षण कर रहे हैं। वास्तवमें तो जो आत्मस्वरूपकी तरफ लीन हो रहा है उसका बाह्य दुःखोंकी तरफ लक्ष्य भी नहीं जाता । और न उनसे उसको किसी प्रकारके दुःखका अनुभव ही होता है । जैसा कि कहा भी है:
आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य व्यवहारबहिःस्थितेः। जायते परमानन्दः कश्चिद्योगेन योगिनः ।। आनन्दो निर्वहत्युचं कर्मेन्धनमनारतम् । नचासौं विद्यते योगी बहिःखेष्वचेतनः ।। आत्मदेहान्तरज्ञानजनिताल्हादनिर्वृतः ।
तपसा दुष्कृतं घोरं भुजानोपि न खिद्यते ।। संयमका वर्णन करके तपोरूप धर्मका व्याख्यान करते हैं । यह धर्म उपेक्षासंयमकी सिद्धिका कारण है। अत एव जो साधु उसका पालन करते हैं उनको वैसा करनेकेलिये अधिक उत्साहित करते हैं:
उपेक्षासंयमं मोक्षलक्ष्मीश्लेषविचक्षणम् ।
लभन्ते यमिनो येन तच्चरन्तु परं तपः॥ ५१॥ संयमियोंको स्वाध्याय और ध्यानस्वरूप उत्कृष्ट तपका अनुष्ठान अवश्य ही करना चाहिये । क्योंकि केवलज्ञानादि अनन्त चतुष्यरूप मोक्षलक्ष्मीका आलिङ्गन करानेमें चतुर दतके समान इस उपेक्षासंयमकी प्राप्ति इस तपके प्रसादसे ही हो सकती है। .
अध्याय
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अनगार
६.६
इस मकार तपोधर्मका निरूपण करके क्रमप्राप्त त्यागधर्मका वर्णन करते हैं:--
शक्त्या दोषैकमूलत्वानिवृत्तिरुपधेः सदा ।
त्यागो ज्ञानादिवानं वा सेव्यः सर्वगुणाग्रणीः ॥५२॥ सम्पूर्ण परिग्रह रागादिक दोषोंके उत्पन्न करनेमे प्रधान कारण हैं । अत एव साधुओंको शक्तिके अनुसार उनका त्याग ही करना चाहिये । इसीको दान कहते हैं । अथवा ज्ञानादिके देनेको भी दान कहते हैं। अत एव मनियोंको इसका भी निरंतर अभ्यास करना चाहिये । क्योंकि यह दान धर्म सम्पूर्ण गुणोंमें प्रधान माना गया है।
यहांपर यह प्रश्न हो सकता है कि दान और उत्सर्ग तथा शाँच इन तीनों में क्या अन्तर है ? क्योंकि तीनों जगह पर परिग्रहके छोडनेका ही उपदेश दिया जाता है।
उचर--त्याग और उत्सर्ग में अनियत काल और नियतकालका अन्तर है। क्योंकि अपनी शक्तिके अनुसार अनियत काल के लिये परिग्रह के छोडनेको त्याग और नियत काल केलिये सम्पूर्ण परिग्रहोंके छोडनेको उत्सर्ग अथवा कायोत्सर्ग कहते हैं। इसी प्रकार शौच और दानमें असनिहित और सनिहित विषयोंके छोडनेकी अपेक्षासे भेद है। असभिहित विषयों में भी जो कर्मके उदयसे गृद्धि हुआ करती है शौचधर्ममें उसका भी परित्याग किया जाता है। किंतु दानधर्ममें सन्निहित-निकटवर्ती ही विषय छोडे जाते हैं। यह परस्पस्में भेद समझना चाहिये। दूसरे सम्पूर्ण दानोंके माहात्म्यकी अपेक्षा ज्ञानदानका माहात्म्य अधिक है इस बातको प्रकट करते हैं:
दत्ताच्छम किलैति भिक्षुरभयादा तद्भवाद्भेषजा,. दा रोगान्तरसंभवादशनतश्वोत्कर्षतस्तदिनम् ।
अध्याय
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अनगार
६०७
अध्याय
ज्ञात्वा भवन्मुदो भवमुदां तृप्तोऽमृते मोदते, तद्दातुंस्तिरयन् ग्रहानिव रविर्भातीतरान् ज्ञानदः ॥ ५३ ॥
अभयदानादिका फल जैसा कुछ आगम में बताया गया है वह प्रसिद्ध है। अभयदान के प्रसादसे साधुको सुख प्राप्त होता है उसको किसीसे भी भय नहीं हो सकता । किंतु यह फल उसको ज्यादेसे ज्यादे उसी एक भवकेलिये प्राप्त हो सकता है। इसी प्रकार औषधके दानसे रोगकी निवृत्तिरूप फल भी तभीतककेलिये मिल सकता है जब तक कि और कोई दूसरा रोग उत्पन्न नहीं होजाता । तथा आहारदानसे भी साधुको ज्यादे से ज्यादे उसी एक दिन केलिये औदर्यशान्तिलाभ फल मिल सकता है, अधिक नहीं किंतु तत्क्षण आनन्द उत्पन्न करनेवाले ज्ञान के प्रसाद से साधु संसार के सम्पूर्ण सुखोंमें तृप्तिलाभ कर कृतकृत्य होकर अमृतपद में जाकर विराजमान होजाता है और वहाँपर नित्यसुखसे आल्हादित रहा करता है । अत एव जिस प्रकार सूर्य शेष सम्पूर्ण नक्षत्रोंको अपने प्रकाशके द्वारा तिरोहित कर सबके ऊपर प्रकाशित होता है उसी प्रकार ज्ञानका दान करनेवाला साधु भी अपने माहात्म्यसे अभय भेषज और भोजन तीनोंहि प्रकारके दान करनेवालोंको अधःकृत कर देता है ।
भावार्थ - दान चार प्रकारका माना है, अभय, औषध, आहार, और ज्ञान । इनमेंसे आदिकी तीन वस्तुएं यदि साधुओं को दी जांय तो उनसे उनको उतना लाभ नहीं हो सकता जितना कि ज्ञानके प्रसादस हो सकता है। क्योंकि आत्माका वास्तविक कल्याण ज्ञानहीसे हो सकता है। अतएव ज्ञानके दानका माहात्म्य भी इतर दानोंके माहात्म्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट ही माना गया है ।
क्रमप्राप्त आकिंचन्य धर्मका स्वरूप बतानेके अभिप्रायसे उसका पालन करनेवालोंको जो उत्कृष्ट तथा अद्भुत फल प्राप्त हुआ करता है उसको प्रकट करते हैं ।
अकिञ्चनोऽहमित्यस्मिन् पध्यक्षुण्णचरे चरन् । तददृष्टचरं ज्योतिः पश्यत्यानन्दनिर्भरम् ॥ ५४ ॥
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मुझसे सम्बन्ध रखनेवाले ये शरीरादिक भी मेरे नहीं हैं ऐसे आकिंचन्य धर्मरूप और अपूर्व-जिनका कि पहले कभी भी अनुभव नहीं किया है, आत्मस्वरूपकी प्राप्तिके उपायमें विहार करनेवाला साधु उस आनन्द रससे पूर्ण एक टोत्कीर्ण ज्ञायक भावस्वभाव आत्मज्योतिका अनुभव करता है जो कि पहले कभी भी अनुभवमें नहीं आसकी है।
___ भावार्थ- आत्मासे सर्वथा असम्बद्ध परिग्रहोंकी तो बात ही क्या, सम्बद्ध शरीरादिक परिग्रहमें भी संस्कारादिको छोडकर " ये मेरे हैं" इस तरहके मृ रूप परिणामोंका त्याग करना इसको आकिंचन्य धर्म कहते हैं।
ब्रह्मचर्य धर्मका स्वरूप बताते हैं:चरणं ब्रह्मणि गुरावस्वातन्त्र्येण यन्मुदा । चरणं ब्रह्मणि परे तत्त्वातन्त्र्येण वर्णिनः ॥ ५५ ॥
अध्याय
___मैथुन कर्मसे सर्वथा निवृत्त वर्णीकी आत्मतत्वके उपदेष्टा गुरुओंकी प्रीतिपूर्वक अधीनता स्वीकार कर की गई प्रवृत्तिको अथवा ज्ञान और आत्माके विषय में स्वतंत्रतया की गई प्रवृत्तिको ब्रह्मचर्य कहते हैं । भावार्थजो चतुर्थ व्रतको स्वीकार करनेवाला साधु व्यवहारसे अध्यात्मगुरुओंकी और परमार्थसे अपनी आत्माकी ही अधीनता स्वीकार करके प्रीतिपूर्वक व्यवहार करता है वही उत्कृष्ट और स्वच्छन्द ज्ञानका अनुभव करता है ।
इस प्रकार दश धोका वर्णन करके अंतमें इन सभीके साथ उत्तम विशेषण लगानेकी आवश्यकता और गुप्ति आदिसे इनका पृथक् वर्णन करनेका कारण बताते हैं:
गुप्त्यादिपालनार्थं तत ९वापोद्धृतैः प्रतिक्रमवत् । दृष्टफलनियंपेक्षैः क्षान्त्यादिभिरुत्तमैर्यतिर्जयति ॥ ५६ ॥
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धर्म
अनगार
पूर्वकृत दोषोंके निराकरणको प्रतिक्रमण कहते हैं । जिस प्रकार गुप्ति समिति और व्रतोंका पालन करनेकेलिये प्रतिक्रमणका पृथक् उल्लेख किया गया है उपी प्रकार उनका पालन और रक्षण आदि करनेके लिये क्षमादिकोसे पृथक् वर्णन किया गया है । जो साधु ख्याति लाभ पूजा आदि ऐहिक-दृष्ट फलकी अपेक्षा न रखकर इन उ. त्तम क्षमा आदि दश धर्मों के द्वारा सदा शुद्धोपयोगमें प्रयत्नशील बना रहता है वह सर्वोत्कृष्ट पदको प्राप्त करलेता है।
इस प्रकार दश धर्मोका निरूपण करके, इस अध्यायकी आदिमें तपरूपी समुद्र के तीर्थरूपमें जिनका निदेश किया है उन अनुप्रेक्षाओंका वर्णन क्रमप्ताप्त है । जिन मुमुक्षुओंका चित्त निरंतर इन अनुप्रेक्षाओंके चिन्तवनमें लगा रहता है उनको मोक्षमागेके अनेक विघ्नोंसे युक्त रहते हुए भी किसी भी प्रकारका प्रत्यवाय-अपराध नहीं लग सकता। अत एव उनका निरंतर चिन्तवन करते रहनेकेलिये साधुओं को प्रेरणा करते हैं।
बहुविनेपि शिवाध्वान यन्निनधियश्चरन्त्यमन्दमुदः ।
ताः प्रयतैः संचिन्या नित्यमनित्याद्यनुप्रेक्षाः॥ ५७ ॥ जिन अनुप्रेक्षाओंसे अपनी मतिको निरत रखनेवाले साधु जन मोक्षमार्ग में अनेक विनोंके उपस्थित होते हुए भी आनन्दके उद्रेकको प्राप्त होकर यथेच्छ विहार करते रहते हैं उन अनित्यादिक बारहो अनुप्रेक्षाओंका मुमुक्षुओंको प्रयत्नशील होकर शरीरादिकके विषय में नित्य ही चिन्तवन करते रहना चाहिये।
आयु काय इन्द्रिय बल यौवन आदिमें क्षणभंगुरताका विचार करनेसे जो मोहका उपमर्दन होता है उसको दिखाते हैं:
चुलुकजलवदायुः सिन्धुवेलावदऊँ. करणबलममित्रप्रेमवद्यौवनं च।
अध्याय
१-अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संघर, निर्जरा, लोक, बोषिदुर्लभ, धर्मस्वाख्यातत्व ।
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अनगार
स्फुटकुसुमवदेतत् प्रक्षयकव्रतस्थं,
क्वचिदपि विमृशन्तः किं नु मुह्यान्त सन्तः ॥ ५८ ॥ ___ क्या वे सत्पुरुष कभी भी आयु आदि के विषय में मोहको प्राप्त हो सकते हैं ? कभी नहीं । जो कि आयु. आदिके स्वरूपका निरंतर इस प्रकारसे विचार करते रहते हैं कि यह आयु-भवको धारण करनेकेलिये कारणभूत कमविशेष अंजलीके जलके समान क्षणभंगुर है। जिस प्रकार अंजलीमें भरा हुआ जल छिद्रोंमें होकर टपक टपक कर शीघ्र ही समाप्त होजाता है उसी प्रकार आयुःकर्म भी प्रतिक्षण उदयमे आ आकर सहसा समाप्त होजाता है । यह शरीर लवण समुद्रकी वेलाके समान अनित्य है । जिस प्रकार समुद्रके जलका उच्छास सदा एकसा नहीं रहता, जहांतक उसे बढना चाहिये वहांतक बराबर बढता जाता है और फिर जहांतक उसे घटना चाहिये वहातक बराबर घटता जाता है। इसी प्रकार यह शरीर भी अपने प्रमाणतक बराबर धातु उपधातुओंके द्वारा बढता जाता है और उसके बाद क्रमसे घटकर क्षीण हो जाता है । इन्द्रियोंका सामर्थ्य-विषयग्रहण करनेकी शाक्ते शत्रुओंके प्रेमके समान है क्योंकि उचित उपचार होनेपर भी ये व्यभिचार ही प्रकट करती हैं । जिस प्रकार योग्य आसनादि देकर अनुकूलताकी तरफ उन्मुख किया हुआ भी शत्रु प्रेम विघटित हानेमें समयकी अपक्षा नहीं रखता उसी प्रकार इन्द्रियां भी पथ्य आहार विहारके द्वारा सुपुष्ट की जानेपर भी अपनी सामर्थ्य के छोडने बुद्धि के अाराधको ढूंढा करती हैं। यह यौवन खिले हुए फूल के समान शीघ्र ही विकारको प्राप्त होजानेवाला है। जिस प्रकार फूल खिलते ही कुछ क्षणकेलिये अपनी मनोहरता दिखाकर क्षणमात्रमें ही कुमला जाता है उसी प्रकार यह यौवन भी कुछ क्षणों के लिये चमत्कार दिखाकर मुरझा जाता या विकारको प्राप्त होजाता है । इस प्रकार ये आयु शररि इन्द्रिय और यौवन सभी क्षणभगुर हैं। इन्होंने सर्वथा नष्ट होने का उत्कृष्ट व्रत ले रक्खा है। अत एव इनका निमूल प्रलय अवश्यम्भावी है।
भावार्थ-आयु आदि अन्तरङ्ग पदार्थों की क्षणभङ्गताका निरंतर चिन्तयन करनेवाला मुमुक्षु उनमें कभी भी मोहित नहीं हो सकता-उन विषयों में कभी भी उसके ममच्चबुद्धि उत्पन्न नहीं हो सकती, और न उनके
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बनगारं
विषयमें उसको नित्यताका ही प्रत्यय हो सकता है ।
इस प्रकार आयु आदि अन्तरङ्ग पदार्थों की क्षणभंगुरताका विचार करके संपत्ति आदि बाह्य पदार्थोकी भी अनित्यताको प्रकट करते हैं:
छाया माध्यान्हिकी श्रीः पथि पथिकजनैः सङ्गमः सङ्गमः स्वैः खार्थाः स्वप्नेक्षितार्थाः पितृसुतदयिता ज्ञातयस्तोयभङ्गाः । सन्ध्यारागोनुरागः प्रणयरससृजां हादिनीदाम वैश्यं, भावा: सैन्यादयोन्येप्यनुविदधति तान्येव तद्ब्रह्म दुह्मः ॥१९॥
এমাৰ
लक्ष्मी स्थिर रहनेवाली नहीं है, वह मध्यान्हकालकी छायाके समान क्षणमात्रकेलिये अपना प्रकाश दिखाकर तिरोभूत होजानेवाली है । इसी प्रकार और भी दृष्टांत व दार्थात समझने चाहिये । जैसे बन्धु बान्धवोंके साथ संयोग भी ऐसा ही है जिस तरहसे कि मार्गमें पथिकोंके साथ कुछ क्षणके लिये संयोग हो जाया करता है। जिस प्रकार मित्र मिन्न दिशाओंसे आकर पथिकजन विश्राम के लिये एक वृक्षकी छाया में कुछ क्षण के लिये एकत्रित हो जाते हैं किंतु थोड़ी ही देर बाद वे अपने अपने स्थानको चले जाते हैं-वियुक्त होजाते हैं । उसी प्रकार भिन्न भिन्न गतिघाँसे आये हुए जीव अपने अपने कर्मके अनुसार आयुका उपभोग करनके लिये एक ही कुल या ज्ञातिमें कुछ क्षण के लिये इकडे हो जाते हैं और उसके बाद अपने अपने कर्म के अनुसार भिन्न भिन्न गतियों में चले जाते हैं । अतएव बन्धुवान्धवोंका संयोग मार्गमें होनेवाले पथिकसंयोगके समान क्षणभंगुर है । इन्द्रियों के विषय भी स्वप्नमें देखे हुए पदार्थोके समान अकिंचित्कर ही हैं। क्योंकि जिस प्रकार स्वप्नमें देखे हुए पदार्थ उस समय देखने मात्रके ही हैं, निद्रा खुलते ही सब विलीन होजानेवाले हैं। उनसे कोई भी वास्तविक कार्य सिद्ध नहीं हो सकता । उसी प्रकार इन्द्रियों के विषय मी उपभोगके समय में ही मनोहर मालुम पड़नेवाले हैं। उसके बाद उनसे कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता । माता पिता लड़का लड़की और स्त्री आदि जितने कुटुम्बी जन हैं वे
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अनगार
सब भी जलकल्लोलके समान क्षणभंगुर ही हैं। जिस प्रकार जलकी कल्लोल अपना चमत्कार दिखाकर क्षणमात्रमें तिरोभूत हो जाती है उसी प्रकार कुटुम्बी जन भी कुछ कालतक ठहरकर विलीन हो जाते है। प्रेमरसको ही सदा प्रगट करनेवाले मित्र प्रभृतिका अनुराग भी सन्ध्याकालके रायके की समान है । जिस प्रकार सन्ध्याके समय कुछ ही क्षणों में आकाशमें कई वाँका विलक्षण २ परिणमन हो होकर सहसा विलीन हो जाता है, उसी प्रकार मित्रजनोंका प्रेम भी कुछ समयतक ही अपना रूप दिखाकर तिरोहित होजाता है। पूज्यता और आज्ञापभृतिका ऐश्वर्य भी विजली के चमत्कारकी तरह क्षणपात्र में ही नष्ट होजानेवाला है। अधिक कहां तक कहें. सेना, हाथी, घोडे, स्थ, पैदल, महल बगीचा आदि जितने भी बाह्य पदार्थ हैं वे सब इस क्षणभंगुरताका ही अनुसरण करते हैं। अतएव हमे इन सम्पूर्ण क्षगविनम्वर पदार्थों का परित्याग करके आत्मा और शरीरके भेदज्ञानरूप ब्रह्मको स्वाभाविक आनन्दसे पूर्ण करना ही उचित है।
इस प्रकार अन्तरङ्ग और बाह्य-सम्बद्ध और असम्बद्ध दोनो ही प्रकारके पदामि नश्वरताका विचार करते रहनेसे आसक्ति नहीं होती और उनके भोग कर छोड़ देनेपर-वियोगकाल में फिरसे उनको भोगनेके लिये दुष्परिणाम भी नहीं होते।
अशरणताका निरूपण करते हैं:तत्तत्कर्मग्लपितवपुषां लब्धवल्लिप्सितार्थ, मन्वानानां प्रसभमसुवत्प्रोद्यतं भक्तुमाशाम् । यद्वद्वाय त्रिजगति नृणां नैव केनापि दैवं,
तद्वन्मृत्युर्घसनरासिकस्तद् वृथा त्राणदैन्यम् ॥ ६० ॥ . मसि कृषि आदि कर्मोंने जिनके शरीरको निःसत्व करडाला है और जो अभीष्ट पदार्थ के विषयमें समझते हैं कि यह तो हमारे हाथमें ही है ऐसे मनुष्योंकी प्राणों के समान आशाका-भविष्य पदार्थों के प्राप्त करनेकी
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आकांक्षाका बलात्कार उपमर्दन करदेने के लिय उद्युक्त हुए दैव-पूर्वकृत अशुभ कर्मको दूर करनेके लिये क्या तीनों लोकमें भी कोई समर्थ है ? नहीं! इस त्रिलोकीमें चेतन या अचेतन ऐसी कोई भी शक्ति नहीं है जो कि पूर्वसंचित कर्मका निवारण कर सके। मनुष्य भविष्य के लिये अनेक प्रकारकी आशाएं बांधता है किंतु पूर्वकर्म उदयमें आकर हठात् उसमें विघ्न डाल देता है । जिस प्रकार कोई भी इन्द्रादिक या मन्त्रादिक कर्मकी शक्तिसे नहीं रोक सकते उसी प्रकार आयु भी अनिवार्य ही है । संसारी जीवमात्र के प्राणोका संहार करनेमें उद्युक्त हुए मृत्युका भी कोई निवारण नहीं कर सकता। जब कि यह बात है-देव और मृत्यु दोनोंका ही निराकरण नहीं हो सकता तब रक्षण या शरणके लिय किसीका भी अनुसरण करना या किसीक सामने दीनता प्रकाशित करना व्यर्थ ही है। क्योंकि न तो कोई मेरे भाग्य में परिवर्तन कर सकता है और न मेरी मृत्युको ही रोक सकता है । ये दोनो कार्य अवश्यम्भावी हैं अतएव इनके लिये धैर्यका अवलम्बन लेना ही सत्पुरुषोंको उचित है।
चक्री अर्धचक्री इन्द्र या योगीन्द्र कोई भी क्यों न हो, कालका प्रतीकार नहीं कर सकता; इस बातका निरंतर चिन्तवन करते रहनेवाला मुक्षु किसी भी बाह्य वस्तुमें मोहित नहीं हो सकता । इस बातको प्रकट करते हैं:
सम्राजां पश्यतामप्यभिनयति न कि स्वं यमश्चण्डिमानं, शक्राः सीदन्ति दीर्धे क न दयितवधूदीर्घनिद्रामनस्ये । आ कालव्यालदंष्ट्रां प्रकट तरतपोविक्रमा योगिनोपि
व्याकोष्टुं न क्रमन्ते तदिह बहिरहो यत् किमप्यस्तु किं मे ॥ ६१ ॥ यह यमराज बलत्कार प्राणोंका हरण करलेनेवाली अपनी क्रूरताका अभिनय भला कहां कहांपर नहीं दिखाता है, सम्पूर्ण पृथ्वीका उपयोग करनेवाले चक्रवर्ती बैठे ही रहते हैं और उनके सामने यह क्रूर काल उनके
१-कर्माण्युदीर्यमाणानि स्वकीये समय सति । प्रतिषद्धं न शक्यन्ते नक्षत्राणीव केनचित् ।।
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अनगार
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अध्याय
पुत्रादिकों के प्राणोंका संहार कर ही डालता है; पर वे कुछ नहीं कर सकते, देखते ही रहजाते हैं। अपनी प्रियतमा वधुओं के मरणसे उत्पन्न हुए चिरकालीन - सागरोंतक के दुःख से क्या ये इन्द्रादिक दुःखी नहीं होते १ होते ही हैं। क्योंकि देवाङ्गनाओंकी आयु पल्योपम और इन्द्रोंकी आयु सागरोपम हुआ करती है अत एव जिस प्रकार सागर - समुद्र में अनेक लहरें उत्पन्न होकर विलीन होजाती हैं उसी प्रकार एक इन्द्रकी आयुमें अनेक देवियां उत्पन्न हो हो कर आयु पूर्ण करजाती हैं। उन सबके वियोगका दुःख इन्द्रोंको आयुःपर्यंत भोगना पडता है। इसीलिये तो कहते हैं कि यह यमराज भला किसको दुःखकर अभिनय नहीं दिखाता ?
कदाचित् कोई समझेगा कि चक्रवर्ती या इन्द्र यदि यमराजका मुकाबिला नहीं कर सकते तो न सही; पर उत्कृष्ट तपस्या से उत्पन्न हुए पराक्रमके धारक योगेश्वर उसका प्रतीकार अवश्य कर सकते होंगे। सो ऐसा भी नहीं है। हमें यह बडे दुःख के साथ कहना पडता है कि भुजंग अथवा सिंहके समान कालकी भयंकर डाढका प्रतिरोध अतिशयित और जगद्विख्यात तपोविक्रमकी शक्तिको धारण करनेवाले ऋषिगण भी नहीं कर सकते । उन्हे भी कालकवलित होना ही पडता है । अत एव हे तत्वज्ञान में प्रषण महार्षयो । तुम ऐसा विचार करो कि इन बाह्य पदार्थ शरीरादिकोंमें जरा मरण या व्याधि आदि कुछ भी होता रहो, इससे मेरा क्या नुकसान ? कुछ नहीं । जैसा कि कहा भी है कि:
न मे मृत्युः कुतो भीतिर्न मे व्याधिः कुतो व्यथा नाहं बालो न वृद्धोहं न युवैतानि पुद्गले ॥ जीबोन्य: पुद्गलश्चान्य इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः । यदन्यदुच्यते किंचित् सोस्तु तस्यैव विस्तरः || मत्तः कायादयो भिन्नास्तेभ्योऽहमपि तत्त्वतः । नाहमेषां किमप्यस्मि ममाप्येते न किंचन ।
आधि व्याधि मृत्यु और भय तथा बाल वृद्ध और युवा आदि अवस्थाएं मेरी आत्मामें नहीं, पुद्गलमें होती हैं। जीव दूसरा पदार्थ है और पुद्गल दूसरा पदार्थ है। जिन जिन इन भिन्न वस्तुओंका निरूपण किया
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अनगार
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जाता है वे सब पुद्गलकी ही अवस्थाएं हैं। तत्त्वदृष्टि से यदि देखा जाय तो शरीरादिक मुझसे और मैं शरीरादिकसे सर्वथा भिन्न हूं। में इनका कोई नहीं और ये मेरे कोई नहीं।
इस प्रकारसे जो नित्य ही अशरणताका विचार करता रहता है उस विरक्तबुद्धिके किसी भी सांसारिक पदार्थमें ममत्वबुद्धि उत्पन्न नहीं होती किंतु आत्मप्रत्यय या स्वावलम्बनका भाव दृढ होता है और सर्वज्ञके मार्गमें प्रीति उत्पन्न होती है।
संसारानुप्रेक्षका वर्णन करते हैं: -- तच्चेद् दुःखं सुखं वा स्मरासि न बहुशो यन्निगोदाहमिन्द्रप्रादुर्भावान्तनीचोन्नतविविधपदेष्वा भवाद्भक्तमात्मन् । तत्किं ते शाक्यवाक्यं हतक परिणतं येन नानन्तराति,
झान्ते भुक्तं क्षणेपि स्फुरति तदिह वा क्वास्ति मोहः सगर्हः ॥ ६२ ॥ हे आत्मन् ! अनादि कालसे लेकर अबतक अनंत वार तेने जो निगोदसे लेकर अहमिन्द्रतककी नीच और ऊंच नाना प्रकारकी पर्यायों में सुख या दुःख जो कुछ भोगा है उसका तुझे स्मरण क्यों नहीं होता ? जिस प्रकार नीच स्थानों में तू निगोदतक पहुंचा और वहां तेने दुःखोंका अनुभव किया उसी प्रकार ऊंच स्थानों में भी अनेक बार तेने अहमिन्द्रतककी पर्यायोंको धारण किया और वहांपर सांसारिक सुखोंका भी अनुभव किया । पर तझे न तो उन नीच स्थानोंके भोगे हुए दुःखोंका ही स्मरण होता है और न उन ऊंच स्थानोंके सुखोंका ही। इसका क्या कारण है ? हे दुरात्मन् ! क्या निरन्वय क्षणिक वादरूप बौद्ध सिद्धान्तके वचन तेरें एकतानताको प्राप्त हो गये हैं ? क्या क्षाणिक सिद्धान्तके अनुसार पूर्व पर्याय सर्वथा नष्ट होकर अब सर्वथा नया पदार्थ ही उत्पन्न
अध्याय
१-समभवमहमिन्द्रोऽनन्तशोऽनन्तवारान्, पुनरपि च निगोतोऽनंतशोऽन्तनिवृत्तः ।
किमिह फलममुक्तं तद्यदचापि मोक्ष्ये, सकलफलविपत्तेः कारणं देव देयाः ॥
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हुआ है ? पूर्व पर्याय तो क्या, इसी पर्यायमें तू प्रतिक्षण नष्ट हो हो कर नवीन ही उत्पन्न हो रहा है ? अन्य. था अभी थोडे ही समय पहले जिन सुखों और दुःखोंको तेने भोगा था उनका भी तुझे स्मरण क्यों नहीं होता? अथवा ठीक ही है, इस लोकमें प्राणिमात्रको निगलजानेवाले मोहको क्या किसी भी प्राणीके विषयमें ग्लानि होती है ? नहीं । यही कारण है कि तुझको उन दुःखकर या सुखकर स्थानोंका स्मरण नहीं होता, अथवा होकर भी उनकी तरफसे तुझे उपेक्षा नहीं होती । क्योंकि मोहके प्रसादसे जीव ऐसा मूञ्छित रहता है जिससे कि संसा रके वास्तविक स्वरूपकी तरफ उसका लक्ष्य ही नहीं जाता।
संसारकी दुरवस्थाका स्वयं विचार करनेकेलिये उपदेश देते हैं:
अनादौ संसारे विविधविपदातङ्कनिचिते, मुहुः प्राप्तस्तां तां गतिमगतिकः किं किमवहम् । अहो नाहं देहं कमथ न मिथो जन्यजनका,द्यपाधि केनागां स्वयमपि हहा स्वं व्यजनयम् ॥ ६३ ॥
अध्याय
इष्टवियोग और अनिष्टसंयोगके द्वारा आकर प्राप्त होनेवाली नाना प्रकारकी विपत्तियों और उनसे | होनेवाले क्लेशोंसे अत्यंत भरे हुए इस अनादि संसारमें उसके दुःखोंसे छूटनेका कोई भी उपाय न पाकर भला कौन कौनसी गतिको मैंने अनेक वार नहीं पाया है ? नारक तिर्यक् और मनुष्य आदि सभी गतियोंमें तो मैंने बार चार भ्रमण किया है । तथा कौनसा ऐसा शरीर है कि जिसको मैंने धारण नहीं किया, सिवाय उसके कि जो सम्यक्त्वके सहचारी पुण्यकर्मके उदयसे ही प्राप्त होता है । और तो काले गोरे छोटे मोटे ऊंचे नीचे आदि अ नेक प्रकारके वर्ण और संस्थानके प्रायः सभी शरीरोंको मैंने धारण किया है। इसी प्रकार ऐसा कौनसा जीव है कि जिसके साथ मैंने पिता पुत्रादिके सम्बन्धकी उपाधि नहीं पाई है ? जिस जीवका कभी पुत्र हुआ हूं तो कभी उसीका पिता भी हुआ हूं, कभी सेवक हुआ हूं तो कभी स्वामी भी हुआ हूं। और यदि कभी मोज्य हुआ हूं तो कभी उसीका
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भोजक भी हुआ है। इस प्रकार प्रायः जीवमात्रके साथ में सभी वैमाविक मावोंको पाचुका हूं । हाय अब मुझे उन दुःखमय अवस्थाओंका स्मरण होनेसे पटा कष्ट होता है । पर मैंने अपने आप ही तो अपनेको दुरवस्थाजोंने पटका था।
इस बरहसे विचार करनेवाला मनुष्य संसारके दुःखोंसे उद्विग्न होकर उसको छोडनेकी तरफ प्रवृत्ति करता है।
क्रमप्राप्त एकत्वानुपेक्षाकी विधि बताते हैं।किं प्राच्यः कबिदागादिह सह भवता येन साध्येत सध्यङ, प्रेत्त्येहत्योपि कोपि सज दुरभिमति संपदीवापदि स्वान् । सधीचो जीव जीवन्ननुभवसि परं त्वोपर्नु सहेति,
श्रेयोहश्चापकतुं मजसि तत इतस्तत्फलं त्वेककस्त्वम् ॥ ६४ ॥ हे आत्मन् ! क्या पूर्वभवका पुत्र मित्र या बहिन भाई आदिमें से कोई भी इस भवमें तेरे साथ आया है। जिसको कि देख करके यह अनुमान किया जा सके कि इस भवका भी कोई परमवतक तेरे साथ जा सकेगा । जब कि ऐसा नहीं है-दृष्टांत केलिये भी परभवसे साथमें आया हुआ कोई बन्धु बान्धव नहीं मिलता तो यह किस तरह माना जा सकता है कि इस भवके दृष्ट जनोंमेंसे भी कोई तेरे या किसीके भी साथ जा सकेगा? अत एव इनके विषयमै तुझको जो मिथ्याज्ञान बैठा हुआ है कि ये मेरे हैं सो उस दुरभिनिवे
को छोडदे । हे जीव ! क्या तेने बीते हुए कभी इस बातका अनुभव किया है कि जिनको तू अपने समझता है वे तेरी सम्पत्तिकी तरह विपत्तिमें भी कमी सहायक हुए है ? नहीं । क्योंकि जब तेरे जीते जी यह हाल है कि संपत्ति के रहते हुए तो ये सब तेरा साथ देते हैं पर विपत्तिको देखकर दूर ही भागजाते हैं। तब मरनेपर साथ देनेकी तो बात ही कहाँ । हे वात्मन् ! यह निश्चय समझ कि इनमेंसे तेरे साथ जानेवाला कोई भी नहीं है। हां, पुण्य और पाप जिनका कि तेने ही संचय किया है उनमेंसे तेरा उपकार करनेकेलिये पुण्य और अपकार करनेकेलिये पाप
का कोई साथ जा
में भी कमी मात ए कमी का मिथ्याज्ञान दृष्ट जनों
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अनुधार
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अध्याय
६
परभवतक तेरे साथ अवश्य जायगा। किंतु उनका सुख और दुःखरूप फल इस लोककी तरह परलोक में भी तुझे अकेले को ही भोगना पडेगा । उसको भी कोई बांट नहीं सकता। अत एव यह निश्चय मान कि संसारके भीतर नाना योनियों में पर्यटन और पुण्यपापके सुखदुःखरूप फलोंका अनुभव तुझे अकेले को ही करना पडता है उसमें तेरा भागीदार कभी कहीं भी और कोई भी नहीं हो सकता ।
वास्तव में आत्मा के साथ जानेवाला कोई भी नहीं है, इस बातको प्रकट करते हैं: -
यदि सुकृतममाहंकारसंस्कारमङ्गं,
पदमपि न सति प्रेत्य तत् कि पोर्थाः । व्यवहृतितिमिरेणैवार्पितो वा चकास्ति, स्वयमपि मम भेदस्तत्त्वतोरम्येक एव ॥ ६५ ॥
जिसमें कि ममकार और अहंकारका संस्कार दृढ प्रत्यय जन्मसे ही किया गया है ऐसा यह शरीर ही जब कि परलोक के लिये मेरे क्या किसी के भी एक डग भी साथ नहीं जाता है तब स्त्रीपुत्रादिक और घन घा न्यादिक जो कि सर्वथा ही भिन्न दीख रहे हैं; किस तरह साथ जा सकते हैं। अत एव मेरा और इनका भेदनिश्चित है । अथवा मेरा भेद ही स्वयं अपने स्वरूपको दिखा रहा है कि में अन्धकारके समान या नेत्ररोगके समान व्यवहार नय - उपचारसे हूं न कि निश्वय नयसे । निश्चयनयसे तो मैं एक ही हूं मुझमें ज्ञान सुख दुःख आदि पर्यायोंकी अपेक्षा मेद नहीं है। मैं सदा एक चैतन्य रूपमें ही रहनेवाला हूं ।
इस प्रकार एकचा विचार करनेवाले मुमुक्षुके स्वजन या परजन किसी में भी रागद्वेष की उद्भूति नहीं होती, वह निःसङ्ग होकर मोक्षमें प्रवृत्त होता है।
अन्य भावना अतिशयित फलको दिखाकर उसके विषय में प्रलोभन उत्पन्न करते हुए उसका वर्णन
करते हैं:
धम
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अनगार
नैरात्म्यं जगत इवार्य नैर्जगत्सं, . निश्चिन्वन्ननुभयसिद्धमात्मनोपि । मध्यस्थो यदि भवसि स्वयं विविक्तं,
स्वात्मानं तदनुभवन् भवादपैषि ॥ ६६ ॥ ..." अहं" या " मैं" ऐसी जिसमें प्रतीति होती है उसको आत्मा कहते हैं । यह प्रतीति अन्तस्तत्त्वमें ही होती है, शेष सम्पूर्ण जगतमें नहीं होती । अतएव जगतका स्वरूप नैरात्म्य माना है । हे आर्य! जिस प्रकार जगत्का स्वरूप नैरात्म्य है उसी प्रकार आत्माका स्वरूप नैर्जगत्य भी है। क्योंकि वह सम्पूर्ण पर वस्तुओंके ग्रहणसे रहित है । अतएव अपन नैर्जगत्यको अनुभवसिद्ध निश्चय करके-इस बातका दृढ प्रत्यय करके कि मेरी आत्मा इन सम्पूर्ण दृश्यमान पदार्थोपे सर्वथा अलिप्त है, यदि तू मध्यस्थ होजाय-समस्त वस्तुओंमें रागद्वेषरहित हो कर आत्मस्वरूप में स्थिर होजाय तो अवश्य ही तू अपनी आत्माकी शरीरादि कसे भिन्नताका अनुभव करते हुए उसको संसार और शरीर दोनोंसे ही मुक्त कर सकता है।
भावार्थ -यदि तू अपनी आत्माको संमार और शरीरसे सर्वथा भिन्न समझकर निरंता उसका विचार करता रहे तो अवश्य ही एक न एक दिन तेरा आत्मा उनसे रहित होजायगा।
अन्यत्वकी भावनामें रत रहनेवाले के अपुनर्भवकी जो अभिलाषा होती है या रहना चाहिये उसको.प्रकट करते हैं
बाह्याध्यात्मिकपुद्गलात्मकवपुर्युग्मं भृशं मिश्रणा,टेम्नः केट्टककालिकाद्वयमिवाभादाप्यदोऽनन्यवत् । मत्तो लक्षणतान्यदेव हि ततश्चान्योहमर्थादत,स्तद्देदानुभवात्सदा मुदमुपैम्यन्वेमि नो तत्पुनः ॥ ६७ ॥
अध्याय
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अनुगार
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मध्यान
६
यह शरीर जो देखने में आता है सो बाह्य और अन्तरङ्ग दो पौगलिक शरीरोंका जोडा है- इसमें रस रक्तादिक धातुमय ओदारके शरीर बाह्य और ज्ञानावरणा दिकर्मस्वरूप कार्मेण शरीर अन्तरङ्ग है जो कि दोनोंही पौगलिक हैं। जिस प्रकार सुवर्णके साथ बाह्य स्थूल मल किड्ड और अन्तरङ्ग सूक्ष्म मल कालिका दोनों ही अत्यंत जुडे रहते हैं उसी प्रकार मेरे साथ ये दोनों शरीर मी अत्यंत जुडे हुए हैं - मेरे साथ मिलकर सर्वथा एकमेकसे होमये हैं इसीलिये मैं और वे दोनों अभिन्न सरीखे जान पडते हैं । किंतु वास्तव में ये मुझसे सर्वथा भिन्न है क्योंकि मेरा और इसका लक्षण या स्वरूप सर्वथा मिश्र २ है । मै अमूर्त और यह मूर्त, मैं ज्ञानदर्शनादि उपयोगरूप चेतन और यह अज्ञानस्वरूप जड़, मैं आनन्दमय और यह निरानन्द, इस प्रकार मुझमें और इसमें महान् अन्तर है। अतएव अत्यंत संयोग की अपेक्षा यह मुझसे अभिन्न सरीखा मालुम होते हुए भी वास्तव में मित्र ही है । ये मुझसे मित्र हैं मैं इनसे भिन्न हूं। इस प्रकार वास्तविक मेदका अनुभव हो जानेसे अब मैं सदा आत्मिक सुखमें ही मग्न रहूंगा, इस शरीरका अनुवर्तन न करूंगा ।
इस प्रकार शरीरादिकसे भिन्नताका विचार करनेवाला साधु उन विषयों में निरीह होकर मोक्षके साधनमें सतत सोत्साह बना रहता है ।
पर यह प्रश्न हो सकता है कि एकत्वानुप्रेक्षा और अन्यत्वानुप्रेक्षामें क्या अन्तर है? किंतु दोनोंका अन्तर स्पष्ट है। एकत्व भावना में तो " मैं अकेला हूं" इस तरह विधिरूपसे चिन्तवन किया जाता है और अन्यत्व भावना "मुझसे भिन्न हैं, मेरे नहीं हैं, " इस तरह निषेधरूप चितवन किया जाता है । अत एव दोनोंमें महान् अन्तर है ।
शरीर की अशुचिता का विचार कराते हुए आत्माको शरीरके विषय में जो पक्षपात लगा हुआ है उसकी निन्दा करते हैं:
कोपि प्रकृत्यशुचिनीह शुचेः प्रकृत्या, भुयान्वसेरकपदे तच पक्षपातः ।
NEESHARAANA
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बनमार
यद्विश्रसा रुचिरमर्पितमर्पितं द्राग्,
न्यत्यस्यतोपि मुहुरुद्विजसेऽङ्ग नांगात ॥ ६८॥ हे आत्मन् ! चन्दन गंध आदि रमणीय और पवित्र भी वस्तुएं इस शरीरपर लगाई जाय तो भी ओर | बार बार लगानेपर भी यह शरीर स्वभावसे ही उनको लगाते लगाते ही झटसे विगाड देता है-अपवित्र बना देता
है। फिर भी देखते हैं कि स्वभावसे ही शुद्ध और रमणीय तू इससे उद्विग्न-विरक्त नहीं होता । अतएव मालुम होता है कि तेरा स्वभावसे ही अपवित्र और अमनोज्ञ इस शरीरमें जो कि उस स्थानके समान थोडे ही समयतक ठहरनेके लिये है जहांपर कि पथिक जन रातभर के लिये ही विश्राम किया करते हैं, अपर्व और बडामारी पक्षपात है।
क्योंकि यदि तुझे इसमें पक्षपात न होता तो क्या तू पवित्र होकर और इसकी अपवित्रताका अनुभव करके भी इससे | विरक्त न होता अवश्य होता।
शरीरके ऊपर चामका आच्छादन मात्र लगा हुआ है इसीलिये गृदादिक मांसभक्षी पक्षी उसको चोथ चोथ कर नहीं खाते हैं, अन्यथा वे इसको छोडते भी नहीं। इससे सिद्ध है कि शरीरकी बराबर कोई भी पदार्थ अपवित्र नहीं है। फिर भी शुद्ध स्वरूपके देखने में कुशल या स्थिर आत्माका आधार मात्र होनेसेही वह पवित्र भी हो सकता है । अत एव अशुचि भी शरीरमें समस्त संसारकी विशुद्धिकी कारणताका संपादन करनेके लिये आत्माको उत्साहित करते हैं
निर्मायास्थगयिष्यदङ्गमनया वेधा न भोश्चेत त्वचा, तत व्याद्भिरखण्डयिष्यत खरं दायादवत् खण्डशः । तत्संशुद्धनिजात्मदर्शनविधावग्रसरत्वं नयन, खस्थित्येकपवित्रमेतदखिलौलाक्यतीर्थ कुरु ॥६९ ॥
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अनगार
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हे आत्मन् ! यह शरीर इतना अशुचि है कि यदि विधाता इसको बनाकर ऊपरसे इस दीखते हुए चमडेसे इसे आच्छादित न करदेता तो गृद्धांदिक जितने मांसभक्षी पक्षी हैं वे सब इसको अच्छी तरहसे चोथ डालते । जिस प्रकार भाई बन्धु आदि दायाद जन अविभाज्य-जिसका विभाग नहीं किया जा सकता ऐसी भी वस्तुके लिये आपसमें क्रोध और स्पर्धाके साथ लड लडकर खण्ड खण्ड करके उस वस्तुको ग्रहण करते हैं उसी प्रकार गृद्ध वगैरह पक्षी इस शरीरके लिये करते । इस प्रकार यद्यपि यह अशुचिपदार्थमय है फिर भी इसमें तू निवास करता है इसलिये यह पवित्र भी समझा जाता है । अतएव अत्यंत शुद्ध निज आत्मस्वरूपका अवलोकन करनेमें इस शरीरको अग्रेसर बनाकर सम्पूर्ण त्रिलोकीके लिये तीर्थस्वरूप विशुद्धिका कारण बना देना चाहिये ।।
भावार्थ-यद्यपि यह शरीर स्वभावसे अपवित्र ही है किंतु तेरे सम्बन्धसे पवित्र भी है । अतएव ज्यों ज्यों तू पवित्र होता जायगा त्यों त्यों यह भी अधिकाधिक शुद्ध होता जायगा। जिस समय तू अत्यंत निर्मल निजात्म स्वरूका अवलोकन करने लगेगा उस समय तेरा यह शरीर भी परमौदारिक होकर समस्त संसारके लिये तीर्थरूप होजायगा। किंतु तेरा पवित्र होना भी इस शरीरके ऊपर ही निर्भर है । क्योंकि जिस उत्कृष्ट ध्यानके बलसे तुझे निज शुद्धात्माका साक्षात्कार हो सकता है उसकी प्राप्ति उत्तम संहननवाले शरीरसे ही हो सकती है। अत एव तुझे उसको तीर्थरूप बनाना ही उचित है।
इस प्रकार निरंतर चिन्तवन करनेवाला साधु शरीरसे विरक्त होकर अशरीर अवस्था प्राप्त करनेके लिये प्रयत्न करने लगता है। . आस्रवके स्वरूपका विचार करने के लिये उसके दोषोंका चितवन करते हैं:
युक्ते चित्तप्रसत्त्या प्रविशति सुकृतं तद्भविन्यत्र योग,द्वारेणाहत्य बहः कनकनिगडवद्येन शर्माभिमाने । मूर्छन् शोच्यः सतां स्यादतिचिरमयवेत्यात्तसंक्लेशभावे, यत्वंहस्तेन लोहान्दुकवदवसितच्छिन्नमर्मेव ताम्येत ॥ ७० ॥
अध्याय
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अनगार
प्रमे
जिस समय यह संसारी जीव प्रशस्त गग या अनुकम्पादिक परिणामोंसे युक्त होता है उस समय मन वचन कायके द्वारा होनेवाले आत्मप्रदेशपरिस्पन्दरूप योगके द्वारा पुण्य कर्मका संचय होता है। सम्यग्दर्शनादिक भावोंसे युक्त आत्माके प्रदेशो में रहनेवाले कर्मस्कन्धों में सातावदनीय शुभ आयु शुभ नाम और शुभ गोत्ररूप पु. ण्यकर्म योग्य पुद्गलद्रव्यका योगके द्वारा अनुप्रवेश होता है। पौगलिक कर्मोंका स्कन्ध और भी पुद्गलोंसे एक क्षेश्रावगाह करके आपस में जकड जाता है । जिस प्रकार सुवर्णकी बेढियोंसे जकडा हुआ कोई राजपुरुष अपने महत्वका ख्याल करके सुखका अभिमान करता हो। किंतु तत्वदर्शी लोग उसपर खेद ही जाहिर करते हैं। उसी प्रकार पुण्यकर्म के उदयसे मै सुखी इस तरह के अम्मिानमें चिरकाल-पल्यातक मूर्छित रहनेवालेपर सिद्धिके साथनमें उद्यत रहनेवाले सत्पुरुष खेद ही किया करते हैं । क्योंकि यह पुण्यकर्म भी जीवको बलात्कार परतन्त्र ही बनाता है।
जिस समय यह जीव राग द्वेष अथवा मोहरूप मेंक्लेश परिणामोंसे युक्त होता है उस समय मिथ्यात्वादिक भावोंसे युक्त आत्माके प्रदेशामें रहनेवाले कमस्कन्धोंमें उक्त योगके द्वारा पापकर्मके योग्य पुद्गलद्रव्योंका अनुप्रवेश होता है। विशिष्ट शक्तिको प्रप्त इस पापकर्मके निमित्तसे सर्वथा पराधीन हुआ यह संसारी जीव मर्मवेधी पीडाओंसे · इ. प्रकार खेद और दीनताको प्राप्त होता है जिस तरहसे कि लोहेकी शृंखलाओंसे बंधा हुआ कोई सापराध व्यक्ति मान्तिः पीडाओम दुःखी हुआ करता है
भावार्थ - पुण्य और पाप दोर भी कर्मोक आस्रव वास्तवमें आत्माकी पराधीनताका ही कारण है और शोचनीय ही है।
... जो मुमुक्षु आस्रव । निसान नहीको कल्याणकी प्राप्ति हो सकती है अन्यथा नहीं । जो आसवका निरोध नहीं करते उनक इमर ५२६१३. पतन ही होता है। ऐसा उपदेश करते हैं:
विश्वालङ्कमिनिल्यद्रङ्गाग्रिमाप्त्युन्मुखः, सद्रत्नो": मधीमे भवाम्भोनिधौ।
अध्याय
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अनगार
योगश्छिद्रपिधानमादधदुरूद्योगः स्वपोतं नये,
नो चेन्मक्ष्यति तत्र निर्भरविशत्कर्माम्बुभारादसौ ॥७॥ - अनंत चतुष्टयरूप अवस्थाको मुक्ति कहते हैं । जो व्यक्ति इस अवस्थाको प्राप्त करके परमात्मा बनगये हैं उन्हे मुक्तिका धाम या आश्रम समझना चाहिये । यह मुक्तिधाम सम्पूर्ण नगरों में प्रधान तथा समस्त आतङ्कोआपत्तियों और विपत्तियोंके द्वारा हृदयमें होनेवाले क्षोभोंसे सर्वथा रहित है। किंतु इस स्थानको प्राप्त करनेके लिये संसाररूपी समुद्रको पार करना पड़ता है। अतएव जो साधु उस स्थानको प्राप्त करनेके लिये अभिमुख हुए हों उन्हें महान् उद्योग करके-दश प्रकारके धर्म और आठ प्रकारकी शुद्धियोंमें विपुल उत्साहको धारण करके-अप्रमत्त संयत होकर प्रशस्त रत्नोंके समूहसे भरे हुए-सम्यग्दर्शनादिक गुणोंसे परिपूर्ण अपने आत्मारूपी जहाजको उसके छिद्रोंके समान योगोंको रोककर जिनका कोई प्रतिकार नहीं किया जा सकता ऐसी विपचियोंसे भयंकर इस संसाररूपी समुद्रसे पार कर देना चाहिये । क्योंकि यदि योगरूपी छिद्रोंको रोका न जायगा तो उनके द्वारा झरझर मरते हुए कर्मरूपी जलके भारसे वह आत्मारूपी जहाज संसारसागरमें अवश्य ही डूब जायगा।
इस प्रकार विचार करनेवाले साधुके उत्तम क्षमादिक धर्मोके विषयमें कल्याणकारिणी बुद्धि स्थिर होती है। क्रमप्राप्त संवर भावनाका स्वरूप बतानेके लिये उसके गुणोंका विचार करते है:
कर्मप्रयोक्सपरतन्त्रतयात्मग्ले प्रव्यक्तभूरिरसभावभरं नटन्तीम् । चिच्छक्तिमग्रिमपुमर्थसमागमाय,
व्यामेधतः स्फुरति कोपि परो विवेकः ॥ ७ ॥ . जिस प्रकार लोक नृत्यकर्मक प्रयोक्ता नटाचार्यके अधीन होकर रङ्गभूमिमें नटी शृङ्गारादि नाना प्रकारके रसों और भावोंके अद्भुत चमत्कारको दर्शकोंके सम्मुख प्रकट करती हुई नृत्य किया करती है किंतु जो पुरुष
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अनगार
उत्तम पुरुषार्थको प्राप्त करनेकेलिये उसका परिहार करदेते हैं उन्हीको विवेकी-हिताहितका विचारशील समझाजाता है उसी प्रकार शानावरणादि कमीक उदयके वशमें पडकर आत्माकी रङ्गभूमिमें अनेक प्रकारके रसों और मा. वोंके लोकोत्तर चमत्कारको परीक्षकोंके सम्मुख प्रकट करते हुए नृत्य करनेवाली चेतनाशक्तिका उत्कृष्ट पुरुषार्थ मोक्ष अथवा धर्मको प्राप्त करनेकेलिये परिहार करदेते हैं उन्हीके अनिर्वचनीय और उत्कृष्ट विवेक-शुद्धोपयोगमें स्थिरता प्रकट हो सकती है।
भावार्थ-कर्मोदयके निमित्तसे होनेवाले किंतु नवीन कोंके ग्रहण करनेमें कारण आत्मप्रदेशपरिस्पन्दरूप योगका निरोध करदेनेवाले ही उस शुद्धोपयोगकी स्थिरताको प्राप्त कर सकते हैं जिससे कि मोक्षपुरुषार्थकी से द्धि हो सकती है।
कोंके रोकनेको अथवा उसके उपायोंको संवर कहते हैं । वह शुद्ध सम्यग्दर्शनादिके भेदसे अनेक प्रकार का है । जो साधु इन प्रकारोंके द्वारा आस्रवके मिथ्यात्वादिक भेदोंका निरोध कर देता है उसको जो अशुभ कमौका संवरणरूप मुख्य फल और सम्पूर्ण सम्पत्तियों के प्राप्त करने की योग्यतारूप आनुपाङ्गिक फल प्राप्त होता है उसको बताते हैं
मिथ्यात्वप्रमुखीद्वषबलमवस्कन्दाय दृप्यद्वलं रोडु शुद्धसुदर्शनादिसुभटान् युञ्जन् यथास्वं सुधीः । दुष्कर्मप्रकृतीने दुर्गतिपरीवर्तेकपाकाः परं,
.निःशेषः प्रतिहन्ति हन्त कुरुते स्वं भोक्तुमुत्काः श्रियः ॥ ७३ ॥ जिस प्रकार प्रतिपक्षियोंके ऊपर विजय प्राप्त करनेकी इच्छा रखनेवाला कोई भी विद्याविनीतमति नायक उन शत्रुओंके बलका निरोध करनेके लिये कि जिनके पराक्रमका अहमहमिकासे और गर्वके साथ बढना अपने महत्वको नष्ट करदेनेके लिये हो, यथायोग्य सुभटोंकी योजना करता है-जैसे शत्रुकी तरफ योद्धा हों वैसे ही
अध्याय
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अनगार
वीर योद्धाओंकी योजना ही अपने यहां भी करलेता है । क्योंकि ऐसा करनेपर वह दारिद्रयादि दुःखोंका फल भुगा. नेवाले सम्पूर्ण अमात्यादिकोंका नाश कर देता है। इतना ही नहीं किंतु अपने ऊपर विजयलक्ष्मी अथवा अभ्युदय संपत्तियोंको उत्कण्ठित भी बना लेता है । इसी प्रकार जो विचारशील मुमुक्षु अपने शुद्धात्मस्वरूपका घात करनेके लिये बढ रहा है पराक्रम जिनका ऐसे मिथ्यात्वप्रभृति शत्रुओंके बलका निरोध करनेकेलिये यथायोग्य शुद्ध सम्य. ग्दर्शनादिक सुभटोंकी योजना करता है । वह न केवल नरकादिकोंमें परिभ्रमण करना ही है फल जिनका ऐसी सम्पूर्ण पापप्रकृतियोंको ही नष्ट कस्ता है, किंतु हर्षके साथ कहना पडता है कि वह देवेंद्र-नरेन्द्रादिकोंकी विभूतियों अथवा मोक्षलक्ष्मीको भी अपना उपभोग करनेकलिये अपने ऊपर उत्कण्ठित बनालेता है।
भावार्थ-जो साधु सम्यग्दर्शनके द्वारा मिथ्यात्वका, ज्ञानके द्वारा अज्ञानका, समिति द्वारा अविरतिका, संयमके द्वारा इन्द्रियासंयमका, व्रतोंके द्वारा प्राणासंयमका, उत्साहके द्वारा प्रमादका और क्षमाके द्वारा क्रोधका तथा मार्दवके द्वारा मानका या आर्जवके द्वारा मायाका अथवा शौचके द्वारा लोमका तथा इसी प्रकार अन्य मी यथायोग्य उपायोंसे आस्रवके भेदोंका निरोध करदेता है; उसके सम्पूर्ण पापकर्मों का नाश हो जाता है और अभ्यु - दयोंकी सिद्धि होती है।
ऐसा विचार करते रहनेवाला साधु निरंतर संवर करने प्रयत्नशील मना रहता है। निर्जराके स्वरूपकी विचार करनेके लिये उसका फल प्रगट करते हैं:
यः स्वस्याविश्य देशान् गुणविगुणतया भ्रश्यतः कर्मशत्रून्, कालेनोपेक्षमाणः क्षयमवयवशः प्रापयंस्तप्तुकामान् । धीरस्तैस्तैरुपायैः प्रसभमनुष जत्यात्मसंपद्यजस्रं, तं बाहीकश्रियोङ्क श्रितमपि रमयत्यान्तरश्रीः कटाक्षः ॥ ७४ ॥
अध्याय
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अनगार
जो मुमुक्षु सम्यग्दर्शनादिक गुणोंकी विगुणता-मिथ्यादर्शनादिरूप परिणतिके द्वारा अपने प्रदेशोंकौके द्वारा मलीमस हुए चेतनाके अंशोंमें अनुप्रवेश करके यथासमय स्वयं भ्रष्ट होते हुए-उदयमें आकर और फल देकर आत्मासे सम्बन्ध छोडकर निर्जीर्ण होते हुए कर्मरूपी शत्रुओंकी उपेक्षा करदेता है, और जो कर्म अपना फल देनेके लिये उन्मुख हैं उनका उन उन अनशन अवमौदर्य वृत्तिपरिसंख्यान आदि प्रसिद्ध उपायोंके द्वारा खण्ड खण्ड करके प्रयोगपूर्वक क्षय कर देता है. तथा परीषह और उपसगोंके द्वारा क्षोभको प्राप्त न होकर आत्मसम्पत्तिमें ही निरंतर आसक्त रहता है उसके तपोतिशयकी गृद्धिरूप बाह्य लक्ष्मीकी गोदमें बैठे रहनेपर भी उससे अन्तरङ्ग लक्ष्मी--अनन्तज्ञानादिविभृति कटाक्षोंके द्वारा रमण किया करती है।
भावार्थ-जो साधु यथासमय स्वयं पककर गलनेवाले काँकी संवरपूर्वक निर्जरा कर देता है तथा औपक्रमिक कर्मोंका अंशतः क्षय करता है उस तपस्त्रीको शीघ्र ही अन्तरङ्ग लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है।
। निर्जरा दो प्रकारकी हुआ करती है-एक बन्धसहभाविनी, दूसरी संवरसहभाविनी। पहले प्रकारकी निजरी अनादिकालसे होती आरही है । उसके फलको कहते हुए दूसरे प्रकारकी निर्जराका फल जो आत्मध्यान ही है उसकेलिये प्रतिज्ञा करते हैं। :
भोजं भोजमुपात्तमुज्झति मयि भ्रान्तल्पशानल्पशः, स्वीकुर्वत्यपि कर्म नूतनमितः प्राक् को न कालो गतः। संप्रत्येष मनोऽनिशं प्रणिदधेऽध्यात्मं न विन्दन्बहि,दुःखं येन निरास्रवः शमरसे मन्जन्भजे निर्जराम् ॥ ७५ ॥
अध्याय
६२७
अवतक मेरा जो काल व्यतीत हुआ है उसके प्रत्येक क्षणमें मैंने संचित कोक भोग भोगकर छोडे तो थोडे परंतु अनादि मिथ्यात्वके संस्कारके वशमें पडकर शरीर और आत्मामें एकत्वका निश्चय करके नवीन
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अनगार
६२८
कमोंका ग्रहण अधिक प्रमाण में किया। अब तक मेरे बन्धसहभाविनी ही निर्जरा हुई है जिससे कि प्रत्येक क्ष
णमें कर्मोंकी जितनी निर्जरा हुई थी उसकी अपेक्षा कहीं अधिक कर्मोंका बन्ध होता रहा है । क्योंकि नरकादि| कोंमें कर्मके वशसे होनेवाली अबुद्धिपूर्वक निर्जराका नाम ही अकुशलानुबंधिनी प्रसिद्ध है । इस प्रकार अबतककी
निर्जराका फल बन्ध ही रहा है । अत एव अव मैं स्वस्वरूपका प्रत्यक्ष होजानेपर अपने मनको आत्मस्वरूपमें ही नियुक्त रक्खूगा । जिससे कि परीपह और उपसर्गादिकोंके द्वारा होनेवाले दुःखों की तरफ बे खबर रहकर और पूर्वकृत अशुभ कर्मोंके आस्रवका निरोध करके तथा प्रशमसुखमें निमग्न रहकर कर्मों के एकदेश क्षयरूप निर्जराको कर सकूँ । इस संवरसहभाविनी निर्जराको ही कुशलानुवन्धिनी भी कहते हैं। यह परीषहाँका विजय करनेपर होती है । अत एव इसकेलिये आत्मस्वरूपकी तरफ ही मनको सदा प्रवृत्त रखना चाहिये । क्योंकि ऐसा करने से ही बास्तविक कर्मोंकी निर्जरा और प्रशमसुखकी प्राप्ति हो सकती है।
इस प्रकार निर्जराके गुण और दोषोंका विचार करनेवाला साधु कुशलानुबन्धिनी निर्जराकेकिये प्रवृत्त हुआ करता है ।
लोकानुप्रेक्षा क्रमप्राप्त है । अत एव लोक और अलोकके स्वरूप का निरूपण करके उसका विचार करनेसे | जो निजात्मस्वरूपके प्राप्त करने की योग्यता उत्पन्न होती है उसको बताते हैं:
जीवाद्यर्थचितो दिवर्धमुरजाकारखिवातावृतः, स्कन्धः खेतिमहाननादिनिधनो लोकः सदास्ते स्वयम् । तन् मध्येत्र सुरान् यथायथमधः श्वाभ्रांस्तिरश्चोमितः,
कोंदर्चिरुपप्लुतानधियतः सिद्धयै मनो धावति ॥ ७॥ जहांपर जीवादिक पदार्थ देखनेमें आवें उसको लोक कहते हैं । बहुतसे लोग समझते हैं कि यह लोक शूकरकी डाइपर या गौकी पूंछपर अथवा कछुएकी पाठपर या शेष नागके फणपर ठहरा हुआ है। कोई कोई सम
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झते हैं कि यह सदासे नहीं है-कभी न कभी किसी न किसीने इसको बनाया था और कभी नष्ट भी हो जायगा किंतु यह बात नहीं है, यह सदासे और स्वयं आकाशमें ठहरा हुआ है । कभी किसीने इसको न तोधारण ही किया
और न उत्पन्न ही किया है । यह जीव पुद्गल धर्म अधर्म और आकाश काल इन छह द्रव्योंसे व्याप्त है। अथवा इन छह द्रव्योंके समूहको ही लोक समझना चाहिये । आधे मृदंगको खडा रखकर उसके मुखपर पूरा मृदंग खडा करनेसे जैसा आकार बने वैसा ही इस लोकका आकार है । अथवा इस लोकके तीन भेद हैं । अधोलक ऊर्ध्व लोक
और मध्य लोक । वेत्रामनके आकार अधोलोक, मृदंगके आकार ऊर्ध्व लोक, और झल्लरीके आकार मध्यलोक है । यह सम्पूर्ण लोक घनोदधि धनवात और तनुवात इन वातवलयोंसे इस प्रकार सर्वत्र वेष्टित है जैसे कि तीन त्वचाओंसे वृक्ष वेष्टित रहा करता है । सम्पूर्ण द्रव्योंका समुदायरूप यह लोक अत्यंत महान् है । इसमें ऊंचाई, मोटाई और चौडाई तीनों बातें पाई जाती हैं । इस घनरूप आकारसे लोकका कुल विस्तार तीनसौ तेतालीस राजूका होता है । इस प्रकार अत्यंत विपुल यह लोक सृष्टि और संहारसे सर्वथा रहित है । जैसा कि कहा भी है कि:
लोओ अकिट्टिमो खलु अणाइणिहणो सहावणिबंधो।
जीवाजीवेहिं फुदो सव्वागासऽवयवो णिच्चो । इस लोकके अधो भागमें नरक हैं, जहांपर कर्मों के उदयरूप आग्निसे संतप्त नारकी निवास करते हैं। ऊर्ध्व भागमें स्वर्ग हैं जहाँपर कि वैमानिक देव रहते हैं । ये देव भी ज्ञानावरणादि पापकर्मोंकी उदयानिसे दग्ध ही रहा करते हैं । मध्यलोकमें असंख्यात द्वीप समुद्रोंमेसे ढाई द्वीप और दो समुद्रोंका मनुष्यक्षेत्र है जिसका प्रमाण १५ लाख योजनका होता है। मनुष्य इसी क्षेत्र में रहते हैं। कर्मोदयके संतापसे ये भी बचे हुए नहीं हैं । ये भी तापत्रयसे पीडित ही हैं । इनके सिवाय तिथंच जीव सर्वत्र भरे हुए हैं। वैमानिक देवोंके सिवाय शेष देवोंके स्थान भिन्न स्थानोंमें हैं । नागकुमारादिक नव प्रकारके भवनवासी देव इस पृथ्वीके खर भागमें रहा करते हैं, असुर कुमार और राक्षस पंक भागमें रहा करते हैं । तथा व्यंतरोंका निवास चित्रा और वज्रा पृथ्वीके संधिस्थानसे लेकर मेरुपर्यन्त और तिर्यक् भी सर्वत्र है । ज्योतिषी देवोंका स्थान इस भूमिसे सातसौ नब्भे योजन ऊपर जाकर आकाशमें है।
अध्याय
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अनगार
इस प्रकार जो साधु इस लोकके स्वरूपका और उसमें सर्वत्र यथायोग्य स्थानोंमें रहनेवाले किंतु काँदयकी अग्निसे सदा संतप्त रहनेवाले देव नारकी मनुष्य और तिर्यंच जीवोंका ध्यान करता है उसका मन सिद्धिके लिये दौडने लगता है। वह इस लोकके बाहर सिद्धक्षेत्र-लोकके अग्रभागको अथवा निज-आत्मस्वरूप क्षेत्रको पानेका विचार करने लगता है । अतएव मुमुक्षु साधुओंको इस लोकके स्वरूपका विचार निरंतर करते रहना चाहिये।
जो साधु लोकके स्वरूपका भले प्रकार विचार करता रहता है उसके संवेगगुणकी सिद्धि होती है। जिससे कि मुक्ति प्राप्त करनेकी सामर्थ्य उसमें प्रकट होजाती है । इसी बातको बताते हैं:
लोकस्थिति मनसि भावयतो यथावदू, दुःखार्तदर्शनविजृम्भितजन्मभीतेः। सद्धर्मतत्फलविलोकनरञ्जितस्य,
साधोः समुल्लसति कापि शिवाय शक्तिः ॥ ७७ ॥ इस प्रकार साधु जो उपर्युक्त लोकके स्वरूपका अपने मनमें बार बार और यथावत् विचार करता रहता है उसको दुःखोंसे पीडित रहनेवाले लोकोंका अवलोकन करनेके कारण संसारसे भय उत्पन्न होता है जिससे कि शुद्धात्माके अनुभवरूप श्रेष्ठ धर्म तथा उसके परमानन्दरूप फलमें उसको अनुराग होता है । इस संसारसे मीरुतारूप संवेग और धमके अनुरागसे ही उस साधुके मोक्षको प्राप्त करनेके लिये वह शक्ति प्रकट होजाती है जो कि अलौकिक तथा अनिर्वचनीय है।
जो इस प्रकार निरंतर विचार करता रहता है उसके तत्वज्ञानकी विशुद्धि हुआ करती है। क्रमप्राप्त बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षाका वर्णन करते हैं:
जातोत्रैकेन दीर्घ घनतमसि परं स्वानभिज्ञोऽभिजानन्,
बध्याय
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धर्म
बनगार
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जातु द्वाभ्यां कदाचित्रिभिरहमसकृज्जातुचित्खैश्चतुर्भिः । श्रोत्रान्तैः कर्हिचिच्च क्वचिदपि मनसानेहसीदृङ्नरत्वं,
प्राप्तो बोधि कदापं तदलमिह यते रत्नवजन्मसिन्धौ ॥ ७८ ॥ . मैंने अत एव आत्मस्त्ररूपसे अनभिज्ञ रहकर पर पदार्थोंको ही अपना समझा । इसी लिये चिरकाल तक मैं मिथ्यात्वरूप निबिड अन्धकारसे व्याप्त निगोतादि स्थानोंमें एकेद्रिय होकर उत्पन्न हुआ और इसी तरह अनंतकाल मैने वहांपर व्यतीत करदिया । कभी कभी स्पर्श और उस गुणसे प्रधानतया युक्त परद्रव्यको आत्मस्वरूप समझकर मैं लट वगैरह द्वीन्द्रिय जीवस्थानोंमें भी उत्पन्न हुथा। और चिरकालतक उन अन्धकारमय स्थानोंमें ही बना रहा । इसी प्रकार अनंत वार पिपीलिकादि स्थानों में भी मैं उत्पन्न हुआ जहाँपर कि स्पर्शन रसन और घ्राण ये तीन ही इन्द्रियां पाई जाती हैं । अनेक वार श्रोत्रेन्द्रियको छोडकर वाकी चार इन्द्रियोंसे युक्त भ्रम. रादिक पर्यायोंमें भी मैं उत्पन्न हुआ। कदाचित् श्रोत्रेन्द्रियसे भी युक्त किंतु मनसे रहित गोरहरादि असंज्ञी पंचेंद्रिय पर्यायोंमें भी मै उत्पन्न हुआ । इसी प्रकार अनेक वार संज्ञी पंचेन्द्रिय भी हुआ, कदाचित मनुष्य भी हुआ। किंतु इन सभी पर्यायोंमें मैं आत्मस्वरूपसे पराङ्मुख ही रहा। मैंने पर पदार्थों को कभी स्पर्शप्रधान कभी स्पर्शरसनधान कभी स्पर्शरसगन्धप्रधान तो कमी स्पर्शरसगंधवर्ण चारो गुणोंसे युक्त पुद्गलद्रव्यको ही अपना स्वरूप समझा। प्रायः विना इच्छाके किंतु कभी कमी---मनुष्यादि पर्यायोंमें इच्छासहित भी मैं उत्पन्न हुआ परंतु मिथ्यात्वके निबिड अंधकारमें ही पड़ा रहा । क्या मैंने कभी भी इस उत्तम कुल प्रशस्त जाति आदिसे युक्त मनुष्य पर्यायको पाकर रत्नत्रयको भी पाया है ? नहीं, कभी नहीं। क्योंकि जिस प्रकार समुद्र में बहुमूल्य रत्नका मिलना अत्यंत दुर्लभ है उसी प्रकार संसारमें इस रत्नत्रयका पाना भी अत्यंत दुर्लभ है । अत एव जन्ममरणरूप इस संसारसमुद्र में इस दुर्लभ रत्नत्रयको ही पानेका मुझे यथेष्ट प्रयत्न करना चाहिये ।
यदि पाया हुआ यह रत्नत्रय कदाचित् प्रमादसे क्षणके लिये भी छूट गया तो उसी क्षणमें ऐसे कमा. का बन्ध होगा कि जिनका उदय होते ही मुझे उनके वशमें पडकर दुःखों और क्लेशोंका ही अनुभव करना पडेगा।
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अनगार
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अध्याय
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फिर उस रत्नत्रयका मिलना और भी अधिक कष्टसाध्य हो जायगा । इसी बातको बताते हैं:--
दुष्प्रापं प्राप्य रत्नत्रयमखिलजगत्सारमुत्सारयेयं, चेत्प्रज्ञापराधं क्षणमपि तदरं विप्रलब्धोक्षधूर्तेः । तत्किचित्कर्म कुर्यादनुभवमवत्क्लेशसं क्लेशसंविद्, बोधेर्विन्दे वार्तामपि न पुनरनुप्राणनास्याः कुतस्त्याः ॥ ७९ ॥
सम्पूर्ण संसार में सारमृत और दुर्लभ इस रत्नत्रयको पाकर यदि मैंने प्रज्ञापराधको नहीं छोडा और क्षणमात्र केलिये भी उसको प्रमादरूप आचरणको धारण किया तो अवश्य ही मैं इन इंद्रियरूपी धूर्तोंसे ठगा जाऊंगा और शीघ्र ही मेरें उस दारुण कर्मका संचय होगा कि जिसके उदयसे होने वाले क्लेशं और संक्लेश दोनों का ही मुझे अनुभव करना पडे । इन भावोंका अनुभव करनेपर सम्यग्दर्शनादिका पुनरुज्जीवन तो कहां, उसकी बात भी मैं न पा सकूंगा । अत एव रत्नत्रयको पाकर मुझे प्रति समय ऐसी सावधानता रखनी चाहिये कि जिससे क्षणमात्रके लिये भी वह छूट न जाय ।
भावार्थ - एक निगोद शरीर में सिद्धराशिसे अनंतगुणे जीव रहा करते हैं। ऐसे ही स्थावर जीवोंसे यह सम्पूर्ण लोक खचाखच भरा हुआ है। इसमें त्रसता पंचेंद्रियत्व मनुष्यत्व देश कुल इन्द्रिय आरोग्य और सद्धर्भकी संपत्तिका प्राप्त करना उत्तरोत्तर कठिन है; तब उक्त सम्पूर्ण बातोंका मिलना तो और भी कठिन है। किंतु इन सब बातोंके मिलनेपर भी समाधि मरणका होना बहुत ही कठिन है। रत्नत्रयका फल भी समाधि मरण ही है । अत एव सम्यग्दर्शनादिकका प्राप्त होजाना भी समाधि मरणके होजानेपर ही सफल हो सकता है ।
इस प्रकार रत्नत्रयकी दुर्लभताके विचार करते रहनेको ही बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा कहते हैं । जो साधु इस प्रकार निरंतर विचार करता रहता है वह उसकी रक्षामें सावधान रहता है। वह दुर्लभ रत्नत्रयको पाकर एक क्षणके लिये भी ऐसा प्रमाद नहीं करना चाहता जिससे कि उसकी रंचमात्र भी मलिनता हो सके ।
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अनगार
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क्रमप्राप्त धर्मस्वाख्यातत्व नामकी बारहवीं अनुप्रेक्षाका वर्णन करनेकेलिये केवलि भगवान के द्वारा निरूपित और तीन लोकमें अद्वितीय मंगलरूप तथा सम्पूर्ण लोकमें उत्तम धर्मके प्रकट होनेकी आशा करते हैं:
लोकालोके रविरिव करैरुल्लसन् सत्क्षमाद्यैः, खद्योतानामिव घनतमोद्योतिनां यः प्रभावम् । दोषोच्छेदप्रथितमहिमा हन्ति धर्मान्तराणां,
स व्याख्यातः परमविशदख्यातिभिः ख्यातु धर्मः ॥ ८ ॥ सम्पूर्ण पदार्थोकी विशेषताओंको स्पष्टतया प्रकाशित करने में कुशल और उत्कृष्ट ज्ञानके धारण करनेवाले सर्वज्ञ भगवान्ने चौदह गुणस्थानों में गति आदिक चौदह मार्गणास्थानोंमें जो आत्मतत्वका विचार होता है उसको अथवा वस्तुओंके यथावत् स्वरूपको व्यवहार और निश्चय दोनो ही नयोंसे समीचीन धर्म बताया है । मैं चाहता हूं कि सभी जीवोंके तथा मेरे भी यह धर्म उदभूत हो और सदा प्रकाशमान बना रहे। क्योंकि मिथ्यात्वरूपी निबिड अन्धकारमें नाम मात्रको प्रकाश करनेवाले खद्योतोंके समान वेदादिनिरूपित धर्मोंके माहात्म्यको नष्ट करनेवाला धर्म यही है। जिस प्रकार सूर्यका प्रकाश होनेपर खद्योतोंका प्रकाश नष्ट होजाता है उसी प्रकार इस धर्मके प्रकट होते ही इतर धर्मोंका महत्व हृदयमेंसे नष्ट होजाता है । और जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणोंके द्वारा चकवा चक के आलापोंको उल्लसित किया करता है उसी प्रकार यह धर्म भी अपने उत्तमक्षमा मार्दव आर्जव आदि किरणोंके द्वारा भव्य जीवोंके अन्तरङ्गमें सम्बग्दर्शनको प्रकाशित किया करता है । जिस प्रकार सूर्यका महत्व रात्रिको नष्ट करदेनेमें प्रख्यात है उसी प्रकार इस धर्मका माहात्म्य मी रागद्वेषादिक दोषोंके निर्मूल करनेमें प्रद्विस है।
अहिंसा ही एक ऐसा धर्म है कि जिसका फल अक्षय सुख है । अत एव इस धर्मको ही सबसे अधिक दुर्लभ, सम्पूर्ण शब्दब्रह्म-सिद्धांत वचनोंका प्राण समझना चाहिये । इसी बातको प्रकट करते हैं:
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अनंगार
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सुखमचलमहिंसालक्षणादेव धर्माद्, भवति विधिरशेषोप्यस्य शेषोऽनुकल्पः । इह भवगहनेसावेव दूरं दुरापः, ,
प्रवचनवचनानां जीवितं चायमेव ॥१॥ अन्तरङ्गमें रागद्वेषादिका उत्पन्न न होना इसको अहिंसा कहते हैं। अविनश्वर सुखकी प्राप्ति इस अ. हिंसाधर्मसे ही हो सकती है । इसके सिवाय सत्यवचन अचौर्य प्रवृत्ति और ब्रह्मचर्य आदि जिन जिन धर्मोका आगममें विधान किया गया है वे सब इस अहिंसा धर्मके ही अनुयायी हैं। क्योंकि उनके द्वारा द्रव्य अथवा भावरूप अहिंसाका ही समर्थन किया जाता है । अत एव इस संसाररूपी वनमें यह अहिंसा धर्म ही अत्यंत दुर्लभ है। इसको सम्पूर्ण प्रवचन वचनोंका प्राण समझना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भव यहिंसेति ।
तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः। जो मुमुक्षु इस प्रकार निरंतर धर्मके वास्तविक स्वरूपका और फल का विचार करता रहता है उसके उस धर्ममें अनुराग होता और बढता रहता है।।
इस प्रकार बारह भावनाओंका वर्णन करके अंतमें इस बात का उपदेश देते हैं कि जो साधु इन सम्पूर्ण अनुप्रेक्षाओंका अथवा इनमें जो कोई भी उसे इष्ट हों उन एक दोका भी ध्यान करता रहता है उसके हान्द्रशेका
और मनका प्रसार होना रुक जाता है तथा आत्मस्वरूप में अपनी आत्माका स्वयं संवेदन होने लगता है । जिससे कि वह कृतकृत्य होकर जीवन्मुक्त अवस्थाको और तमें परममुक्तिको भी प्राप्त कर लेता है।
इत्येतेषु द्विषेषु प्रवचनदृगनुप्रेक्षमाणोऽध्रुवादि,
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वडा यत्किंचिदन्तःकरणकग्णजिद्वोत्ति या स्वं स्वयं स्वे । उच्चैरुच्चैःपदाशाधरभवविधुराम्भोधिपाराप्तिराज
स्कार्थ्यः पूतकीर्तिः प्रतपति स परैः स्वैर्गुणैर्लोकमूर्तीि ॥ ८२ ॥ परमागम ही हैं नेत्र जिसके ऐसा जो मुमुक्षु अनित्य अशरण संसार एकत्व अन्यत्व अशुचित्व आस्रव संवर निर्जरा लोक बोधिदुर्लभ और धर्मस्वाख्यातत्व इन बारह अनुप्रेक्षाओं में से जिनका कि स्वरूप ऊपर लिखा जा चुका है, यथारूचि एक अनेक अथवा सभीका तत्वतः ध्यान करता है वह मन और इंद्रियां दोनोंपर विजय प्राप्त करके आत्मामें ही आत्माका स्वयं अनुभव करने लगता है । तथा जहांपर महर्द्धिक देव चक्रवर्ती इन्द्र अहमिंद्र और गणधर तथा तीर्थकर नामके उन्नतोन्नत पदोंको प्राप्त करनेकी अभिलाषा लगी हुई है और इसी लिये जो निन्ध समझा जाता है ऐसे संसारके दुःख समुद्रस पार पहुंचकर शोममान कृतार्थ-कृतकृत्यताको प्राप्त कर लेता है। क्योंकि संसारके सम्पूर्ण पदोंसे संतोष होजानेको कृतकृत्यता कहते हैं वह संसारके उस पार ही प्रकाशमान है। इस प्रकार वह मुमुक्षु पवित्र यश और वचनोंको धारण करके जीवन्मुक्त बनकर अन्तमें अपने-आत्मिक-सिद्ध आस्था प्रकट होनेवाले सम्यग्दर्शनादिक उत्कृष्ट गुणोंके द्वारा तीनो लोकोंके ऊपर-लोक अनमें प्रदीत होता है ।
दुःखोंका अनुभव किये बिना यदि ज्ञानका अभ्यास किया जाय तो वह प्रायः दुःखोंके उपस्थित होते ही नष्ट भ्रष्ट-आत्मानुभवसे च्युत हो सकता है । अत एव मुनियों को चाहिये कि वे आत्माका धान या विचार अपनी शक्तिके अनुसार दुःखोंके साथ साथ ही किया करें । जैसा कि कहा भी है कि--
अदुःखभावित ज्ञान क्षीयते दुःखसन्निधौ ।
तस्माद्यथाबलं दुःखैरात्मानं भावयेन्मुनिः ।। इसी बात को ध्यानमें रखकर अनुप्रेक्षाओं के अनंतर परीषदोंका वर्णन करने के लिये उनकी विशेष संख्या. को अन्तर्गमित करके उनका सामान्य लक्षण बताते हुए इस बात का निर्देश करते हैं कि इन क्षुत्पिपासा आदि
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पीरपहोंका विजय कैसा व्यक्ति कर सकता है। -
दुःख भिक्षुरुपस्थिते शिवपथाद्भश्यत्यदुःखश्रितात्, तत्तन्मार्गपरिग्रहेण दुरितं रोद्धं मुमुक्षुर्नवम् । भोक्तुं च प्रतनं क्षुदादिवपुषो द्वाविषतिं वेदनाः,
स्वस्थो यत्सहते परीषहजयः साध्यः स धीरैः परम् ॥३॥ पाद संवमी साधु विना दुःखोंका अनुभव किये ही मोक्षमार्गका सेवन करे तो वह उसमें दुःखोंके उप. स्थित होते ही भ्रष्ट हो सकता है । अत एव साधुओंकेलिये परीषहोंको जीतनेका उपदेश है। जैसा कि कहा भी है कि
परिषोढव्या नित्यं दर्शनचारित्ररक्षणे नियताः ।
संयमतपोविशेषास्तदेकदेशाः परीषहाख्याः स्युः ॥ ___ अत एव जो मुमुक्षु समीचीन ध्यानरूपी मोक्षमार्गको स्वीकार करके उसके द्वारा नवीन दुष्कर्मों का निरोध करनेकेलिये और पूर्वबद्ध कर्मोंकी निर्जरा करनेकेलिये आत्मस्वरूपमें स्थिर होकर क्षुधा पिपासा आदि बाईस प्रकार की वेदनाओंको सहता है उसीको परीषहविजयी कहते हैं । वीर पुरुष ही परीषहविजयको सिद्ध कर सकते हैं। जो दुःखोंके उपस्थित होनेपर रंचमात्र भी कातरता प्रकट नहीं करते ऐसे धीर पुरुष ही परीपहविजयको सिद्ध कर सकते हैं।
भावार्थ--क्षुधादिक वेदनाओंके परीपह और आत्मस्थ होकर उनके सहने को परीषहजय कहते हैं धीर व्याक्ति ही इस विजयको सिद्ध करने का अधिकारी है । और इसका फल नवीन कुकर्मोंका संवर तथा प्राचीन कर्मोंकी निर्जरा होना है । अत एव मुमुक्षुओंको कातरता छोडकर परीवहोंपर विजय प्राप्त करना चाहिये । क्यों कि ऐसा करनेपर ही संवर और निर्जराके सिद्ध होजानेसे मोक्षकी प्राप्ति हो सकती है।
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बालकोंको व्युत्पत्ति करानेकेलिये परीषदोंका सामान्य लक्षण फिरसे विस्तारपूर्वक बताते हैं:
शारीरमानसोत्कृष्टबाधहेतून् क्षुदादिकान् ।
प्राहुरन्तर्बहिर्द्रव्यपरिणामान् परीषहान् ॥४॥ 'अन्तरङ्ग द्रव्यजीवके क्षुधा पिपासा आदि परिणामोंको और बाह्य द्रव्यपुद्गलके शीत उष्णता आदि जो शारीरिक अथवा मानसिक उत्कृष्ट बाधाओंके कारण हों ऐसे परिणामोंको आचार्य परीषह कहते हैं।
जो आत्मकल्याणके अभिलाषी हैं उनको चाहे जितने विनोंके आपडनेपर भी आरब्ध श्रेयोमार्गसे हटना न चाहिये । इस बातकी शिक्षा देते हैं:
स कोपि किल नेहाभुन्नास्ति नो वा भविष्यति ।
. यस्य कार्यमविप्नं स्यान्न्यक्कार्यों हि विधेः पुमान् ॥ ८५॥ जिसका कोई भी कार्य विनरहित हो ऐसा कोई भी पुरुष न तो आजतक हुआ, न वर्तमानमें है, और न आगे ही होगा क्योंकि निश्चयसे दैव पुरुषका अभिभव किया ही करता है। शास्त्र और लोक दोनों ही जगैहें यह बात प्रसिद्ध है कि " श्रेयांसि बहुविनानि भवन्ति महतामपि" अत एव विचारशील साधुओंको श्रेय साधनका प्रारम्भ करके विनोंके भयसे उसको कभी भी न छोडना चाहिये । जैसा कि अन्य लोगोंने भी कहा है।
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः। विनैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः,
प्रारब्धमुत्तमगुणा न परित्यजन्ति ॥ जो साधु दुःख और परिश्रमसे घबडा जाता है उसका यह लोक और परलोक दोनो ही भ्रष्ट हो जाते
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बन
हैं-कहीं भी उसका अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता । इस प्रकार भयका उद्भावन कर परीषह और उपसर्गों को जीतनके लिये समथुनोंको उद्युक्त करते हैं:--
विक्लवप्रकृतियः स्यात् क्लेशादायासतोथवा ।
सिद्धस्तस्यात्रिकध्वंसादेवामुत्रिकविप्लवः ॥ ८६ ॥ जो व्याधि आदिक बाधाओंसे अथवा परिश्रमसे घबडा जानेवाला है उसके अभीष्ट-पारलौकिक कल्या. णका विनाश निश्चित है। क्योंकि उसकी तीनो बातें नष्ट हो जाती हैं। जिसका फल इसी लोकमें प्राप्त करना चाहता है उसका और जिसका फल परलोकमें प्राप्त करना चाहता है उसका तथा जो कार्य शुरू किया है उसका, इस तरह तीनों ही नष्ट हो जाते हैं।
जिस साधुका मन अत्यंत तीव्र उपसगों और परीषहोंके बार बार आपडनेपर भी विचलित नहीं होता उसीको अभीष्ट निःश्रेयस पदकी प्राप्ति हो सकती है, ऐसा उपदेश देते हैं:
क्रियासमभिहारेणाप्यापतद्भिः परीषहैः ।
क्षोभ्यते नोपसर्ग योपवर्ग स गच्छति ॥७॥ प्रचुर प्रमाणमें और बार बार भी आपडनेवाले परीषह तथा उपसर्गों-देव मनुष्य तियच अथवा अचेतन निभित्तसे होनेवाले पीडाविशेषोंके द्वारा जिसका हृदय क्षुब्ध-चलायमान नहीं होता ऐसा ही मुमुक्षु साक्षात् मोक्षको प्राप्त कर सकता है।
जिसने परीषहोंपर विजय प्राप्त करनेका अभ्यास पहलेसे ही करलिया है ऐसा धीर वीर व्यक्ति ही क्रमसे घाति कौका क्षय करके लोकके अन्त में प्राधान्यको प्राप्त किया करता है
सोढाशेषपरीषहोऽक्षतशिवोत्साहः सुदृग्वृत्तभाग,
अध्यात्र
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धमे०
बनगार
मोहांशक्षपणोल्वणी कृतबलो निस्सापरायं स्फुरन् । शुक्लध्यानकुठारकृत्तबलवत्कर्मद्रुमूलोऽपरं,
ना प्रस्फोटितपक्षरेणुखगवद्यात्युलमरत्वा रजः॥८॥ जो द्रव्यसे पुल्लिंग है और जिसने सबसे पहले क्षुधादिक परीषहोंको सह्य बना लिया है। -जो इन परीपहोंके अथवा उपसर्गोंके द्वारा कभी भी अभिभूत नहीं होता और अप्रतिहत तथा प्रतिक्षण बढता हुआ है मोक्षके लिये उत्साह जिसका एवं क्षायिक सम्यक्त्व और सामायिक छेदोपस्थापन आदिमेंसे किसी भी चारित्रमें तन्मय होजाने वाला-वपकश्रेणीपर आरोहण करनेकेलिये उन्मुख हुआ है ऐसा सातिशय अप्रमत्त सम्यग्दृष्टि जीव ही क्रमसे मोहनीय कर्मके अंशों-चारित्रमोहनीयकी कुछ प्रकृतियोंके क्षीण होजानेसे उत्कट सामर्थ्य को धारण कर-अपूर्व करण आदि गुणस्थानोंको पाकर अकषायता-लोभके अभावको प्रकाशित करते हुए शुक्लध्यानरूपी कुठारके द्वारा ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन बलवान् कर्मरूपी वृक्षोंको जडसे उखाडकर- जीवन्मुक्त हो। कर आत्मरूपको आच्छादित करनेकेलिये धूलिके समान वेदनीय आयु नाम गोत्र इन अघाति कौंका निरसन करके ऊर्ध्वगति- लोकके अग्रस्थानको प्राप्त किया करता है। जिस प्रकार यदि किसी पक्षीके पंखोंमें धूलि लगी हो तो वह उड नहीं सकता किंतु उसके दूर होते ही यथेच्छ उडकर ऊपरको जा सकता है । इसी प्रकार जीवन्मुक्तरूपी पक्षी अघातिकमरूपी धूलिको हटाकर ऊर्ध्वगमन किया करता है।
भावार्थ-ज्ञानावरणादि बलिष्ठ कर्मोंको निर्मल करनेके लिये छेदन करनेमें कारण शुक्लध्यानरूपी कुठारको जो बताया है वह यद्यपि सामान्य निर्देश है किन्तु उससे एकत्ववितर्क अवीचार नामक दूसरा शुक्ल ध्यान समझना चाहिये । क्योंकि पृथक्त्ववितर्कवीचार नामका शुक्ल ध्यान तो आठवें आदि गुणस्थानों में ही होजाता है। इसी प्रकार अधातिकमाँका निरसन व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामके शुक्लध्यानसे हुआ करता है। किंतु यह सब और इसके भी पहले क्षपक श्रेणीका आरोहण तक भी उसी व्यक्तिके हो सकता है जिसने कि परीपहों और उपसगाँको जीतनेका भले प्रकार अभ्यास करलिया है । अत एव मुमुक्षुओंको सबसे पहले इसीका
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बना
धन
अभ्यास करना चाहिये । यही कारण है कि यहांपर मुमुक्षुका सबसे पहला विशेषण " सोढाशेषपरीपहः" दिया है। इस विशेषणको स्पष्ट करनेके लिये सबसे पहले क्षुधापरीषहपर जय प्राप्त करनेका विधान करते हैं:
षटर्मीपरमादृतेरनशनाचाप्तऋशिम्नोऽशन,स्यालाभाच्चिरमप्यरं क्षुदनले भिक्षोर्दिधक्ष्यत्यसून् । कारापञ्जरनारकेषु परवान् योऽभुक्षि तीव्राः क्षुधः,
का तस्यात्मवतोऽद्य मे क्षुदियमित्युज्जीव्यमोजो मुहुः ॥८॥ छह आवश्यक क्रियाओंके करने में परम आदर भाव रखनेवाले और अनशनादिक बाह्य तपोंके करनसे अत्यंत कृशताको माप्त हुए भिक्षु- भिक्षान्नवृत्ति करनेवाले संयमी साधुको चिरकाल तक-वर्षभरतक भोजनके न मिलनेसे यदि क्षुधा वाधारूप अग्नि शीघ्र ही प्राणोंको भी दग्ध करदेनेके लिये प्रवृत्त हो तो इस प्रकार विचार करके अपने उत्साहको बार बार उद्दीप्त करना चाहिये कि -
मनुष्य पर्यायमें जेलखानेमें, तिथंच पर्यायके धारण करनेपर पिंजरे आदिकमें, और नारक पर्यायके अन्दर नरकादिकोंमें पराधीन होकर जैसी जैसी मैंने तीव्र क्षुधाबाधाएं सही हैं या मुझे सहनी पडी उनकी अपेक्षा आज, जब कि मैं आत्माधीन--स्वतंत्र हूं, मेरी यह क्षुधाबाधा तो चीज ही क्या है? कुछ भी नहीं।
भावार्थ -चिरकाल तक उपवास करनेसे जठराग्नि प्राणोंको भी दग्ध किया करती है। जैसा कि वैद्य, क ग्रन्थों में भी लिखा है कि:
आहार पचति शिखी दोषामाहारवर्जितः पचति ।
दोषक्षये च धातून पचति च धातुक्षये प्राणान् ।। । अत एव चिरकाल तक तपस्या और उपवासोंके करनेसे यदि ऐसी भी अवस्था आकर उपस्थित होजाय तो भी साधुओंको अपने आवश्यक कर्मों और तपोऽनुष्ठानोंसे विचलित न होना चाहिये, किंतु "पूर्व जन्मोंमें भोगी
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अनगार
हुई तीव्र आहारवाधाओंका विचार करके वर्तमान बाधाकी नगण्यताका विचार कर उक्त आवश्यकों और तपोऽनुष्ठानोंमें अपने उत्साहको और भी अधिक उद्दीप्त करना चाहिये ।
पिपासा परीषहमें तिरस्कार प्रकट करते हैं:पत्रीवानियतासनोदवसितः स्नानाद्यपासी यथा.. लन्धाशी क्षपणाध्वपित्तकृदवष्वाणज्वरोष्णादिजाम् । तृष्णां निष्कुषिताम्बरीषदहनां देहेन्द्रियोन्माथिनीं,
संतोषोद्धकरीरपूरितवरध्यानाम्बुपानाजयेत् ॥ ९॥ पक्षियोंके समान साधुजन भी एक जगह स्थिर नहीं रहते-वे सदा भ्रमण ही करते रहते हैं। न उनका कोर्ड घर ही नियत है। वनोंमें या पर्वतोंकी कन्दराओंमें अथवा यत्र तत्र बनी हुई वसतिकाओं आदिमें ही वे निवास किया करते हैं । पानीके न मिलनेपर स्नानादि करनेसे भी कदाचित् मनुष्योंको शान्तिलाम हो सकता है । किंतु साधुजन स्नान अवगाहन परिषेचन शिरोलेपन आदि सभी उपचारोंका परित्याग करनेवाले हैं। वे केवल यथाप्राप्त भोजन ग्रहण करते हैं जिससे कि उल्टी तृष्णा-प्यास बढ ही सकती है। फिर भी आत्मसिद्धिकी साधनामें प्रवृत्त हुए साधुओंको उपवास मार्गगमन तथा कडुआ कसेला नमकीन आदि पित्तवर्धक आहार एवं ज्वरजनित सताप और उष्णता या मरुदेश प्रभृति कारणोंसे उत्पन्न हुई भाडकी अग्निको भी जीतने वाली और शरीर तथा इन्द्रियोंको कदर्थित करडालनेवाली पिपासाका संतोषरूपी माघमासके बने हुए प्रशस्त घटमें प्राप्त उत्कृष्ट धर्म्य और शुक्लध्यानरूपी जलका पान करके शमन करदेना चाहिये।
शीतपरीषहको जीतनेका उपाय बताते हैं:विष्वक्चारिमरुञ्चतुष्पथमितो धृत्येकवासाः पत,
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त्यन्वङ्गं निशि काष्ठदाहिनि हिमे भावांस्तदुच्छेदिनः। अध्यायन्नधियन्नधोगतिहिमान्यतीर्दुरन्तास्तपो,
बर्हिस्तप्तनिजात्मगर्भगृहसंचारी मुनिर्मोदते ॥ ९१ ॥ शीत ऋतुके दिनोंमें रात्रिके समय जब कि प्रत्येक प्राणीके ऊपर उस हिम-तुषारका पतन हुआ करता है जिससे कि बडे बडे वृक्ष और वनस्पति भी दग्ध हो जाया करते हैं, मुनिजन उस चौरायपर जाकर निवास करते हैं जहाँपर कि चारो ही तरफकी हवा चलती रहती है । उस समय वे साधुजन संतोषरूपी अद्वितीय वस्त्रको धारण करते हैं। किंतु जिनसे कि शीतकी बाधा दूर की जासकती है ऐसे पूर्वानुभूत पदार्थों का स्मरण मी नहीं किया करते । हां, अधोगति-नरकोंकी तीन शीतजनित वेदनाओं का स्मरण अवश्य किया करते हैं। तथा तपस्यारूपी अग्निसे संतप्त हुए अपने आत्मस्वरूप गर्भगृह-तलघर में विहार करते हुए आनन्दका अनुभव किया करते हैं।
___ भावार्थ- मुख्यतया चार कारणोंसे शीतपरीषहका निग्रह किया जासकता है-१ संतोपमे, २ पूर्वानुभूत रजाई अंगीठी गंधतैल और केशर आदिका स्मरण न करनेसे, ३ नरकादिकी शीतवेदनाओंके स्मरणसे, और ४ आत्मस्वरूपमें लीन रहनेसे।
उष्ण परीषहको सहनेका उपाय बताते हैं:-- अनियतविहृतिर्वनं तदात्वज्वलदनलान्तमितः प्रवृद्धशोषः ।
तपतपनकरालिताध्वाखन्नः स्मृतनरकोष्णमहार्तिरुष्णसात्स्यात् ॥ ९२ ॥ साधुओंका विहार अनियत हुआ करता है। क्योंकि वे सदा एक स्थानमें अवस्थित नहीं रहा करते। अत एव ग्रीष्मकालमें सूर्य की प्रचण्ड किरणोंसे संतप्त मार्गमें गमन करनेके कारण खेदको प्राप्त हुए और इसी लिये
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जिनका मुख भीतरसे बिलकुल सूखगया है ऐसे साधुजन यदि कदाचित् ऐसे वनमें जाकर प्राप्त हो जाय कि जिसके सभी प्रान्तभाग तत्काल लगी हुई अग्निसे जल रहे हों और फिर भी वे अपनी उष्ण बाधाका कुछ भी विचार न कर नरकादिकोंमें होनेवाली उष्णताकी महा वेदनाओंका स्मरण करें तो कहना चाहिये कि वे महा मुनि उष्ण परीषहके सहन करनेवाले हैं।
भावार्थ-ऊपरके इलोकमें नरकोंकी शीतवेदनाका और इस श्लोकमें उष्णवेदनाका उल्लेख किया है। इसका कारण यह है कि आदिके चार नरकोंमें और पांचव नरकके चार भागों से तीन भागोंमें उष्णवेदना हुआ करती है। बाकी पांचवें नरक चतुर्थभागमें और छठे तथा सातवें नरकमें शीत वेदना हुआ करती है।
दंशमशक परीषहविजयका वर्णन करते हैं:दंशादिदंशककृतां बाधामघजिघांसया ।
निःक्षोभं सहतो दंशमशकोमीक्षमा मुनेः ॥ ९३ ।। डांस मच्छर मक्खी पिस्सू वर ततैया दीमक खटमल कीडा मकोडा चींटी बिच्छू आदि काटनेवाले जितने कीटक-क्षुद्र प्राणी हैं उनके काटनेसे उत्पन्न हुई पीडाको जो साधु अशुभ कर्मोदयका नाश करनेकी इच्छासे निश्चलचित्त होकर सहन करता है उसके दंशमशकपरीषहका विजय माना जाता है।
नाग्न्य परीषहके जीतनेवाले साधुओंका स्वरूप बताते हैं:
निर्ग्रन्थनिभूषणविश्वपूज्यनाग्न्यव्रतो दोषयितुं प्रवृत्ते ।
चित्तं निमित्ते प्रबलेपि यो न स्पृश्यत दोषैर्जितनाग्न्यरुक् सः॥ ९४ ॥ वामदृष्टि शापाकर्णन कामिनीनिरीक्षण आदि जिनका प्रतीकार नहीं किया जा सकता ऐसे प्रबल कार- । णोंके, मनको मलिन कानेके लिये विकारकी तरफ ले जाने के लिये प्रवृत्त होनेपर भी जिस साधुको वे दोष छ
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नहीं पाते और जो वस्त्रादि परिग्रहोंसे रहित तथा कटक कुण्डलादि भूषणोंसे रिक्त एवं संसार के लिये पूज्य नग्नस्वरूप रहने की प्रतिज्ञामें स्थिर रहता है उनीको नग्नपरीषदका विजेता समझना चाहिये ।
अरति परीष के जीतनेका उपाय बताते हैं:
लोकापवादभय सतरक्षणाक्ष, रोधक्षुदादिभिरसह्यमुदीर्यमाणाम् । स्वात्मोन्मुखो धृतिविशेषहृतेन्द्रियार्थ, - तृष्णः शृणात्वरतिमाश्रितसंयमश्रीः ॥ ९५ ॥
इन्द्रियों के विषयों लगी हुई तृष्णाको विशिष्ट संतोष के द्वारा दूर करके ओर निज आत्मस्वरूप की तरफ उन्मुख होकर संयम – संपत्ति के धारक - रतिका स्मरण दिलानेवालीं देखी सुनी अथवा स्वयं अनुभवमें आई हुई कथाओंके श्रवणका परित्याग करनेवाले साधुओं को लोकापवादका मय सद्वतों की रक्षा तथा इन्द्रियनिरोध और क्षुधादि कारणों के द्वारा दुःसह रूपसे उद्भूत हुई अरति - किसी भी एक शयन अथवा आसनादिकमें अवस्थित न रहने का परित्याग करना चाहिये ।
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यहांपर यदि कोई कहे कि चक्षुरादिक सभी इन्द्रियां अरतिकी कारण हैं अतएव अरविका पृथक् ग्रहण करना अयुक्त है, तो वह ठीक नहीं है। क्योंकि कदाचित् क्षुधादिकी बाधा न होनेपर भी केवल कर्मोदय के निमित्तसे भी संयममें अरति हो जाया करती है।
स्त्रीपरीषदको सहनेका उपदेश देते हैं:
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रागाद्युपप्लुतमतिं युवतीं विचित्रां, श्चित्तं विकर्तुमनुकूलाविकूलभावान् ।
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संतन्वती रहसि कूर्मवादन्द्रियाणि,
संवृत्त्य लघ्वपवदेत गुरूक्तियुक्त्या ॥ ९६ ॥ रागदेषके निमित्तसे अथवा यौवनका गर्व रूपका मद विभ्रम या उन्माद और मद्यपानके आवेशसे नष्ट होगई है बुद्धि जिसकी ऐसी युवती स्त्री यदि कदाचित् चित्तको विकृत बनानेकेलिये एकान्तमें नाना प्रकारके अनुकूल और प्रतिकूल भावोंको करनेका सतत प्रयत्न करे तो साधुओंको शीघ्र ही गुरुनिरूपित युक्ति--विधानके अनुसार अपनी इन्द्रियोंका कच्छपकी तरह संकोच कर उसका निराकरण करदेना चाहिये।
भावार्थ-जिस प्रकार किसी आपातके उपस्थित होते ही कच्छप अपने हाथ पैर ग्रीवा आदिको सं. कोच लेता है उसी प्रकार विकृतमति तरुणयोंके द्वारा एकान्तमें किये गये मनको मलिन करनेवाले विविध प्रकारके अनुकूल प्रतिकूल भावोंके आघातके उपस्थित होते ही साधुओंको अपनी इन्द्रियां संकुचित करलेनी चाहिये। ऐसा करनेपर ही स्त्रीपरीषहपर विजयलाभ हो सकता है। क्यों कि जो मुनि स्त्रियोंके दर्शन स्पर्शन आलाप अभिलाषादिमें उत्सुकता नहीं रखता तथा जो उनके नेत्र मुख भौंह आदिके विकारों एवं रूप गमन हसी लीला जमाई पीनोन्नत स्तन जघन उरुमूल कांख और नाभि आदि स्थानोके देखनेपर भी विकृतमना नहीं होता और जिसने वंशगीतादिके सुनने आदि तायीत्रकका परित्याग करदिया है वही साधु स्त्रीपरीषहका विजयी कहा जा सकता है।
वपरीपाको सहनेका निरूपण करते हैं:
बिभ्यद्भवाच्चिरमुपास्य गुरून्निरूढ,ब्रह्मवतश्रुतशमस्तदनुज्ञयैकः । क्षोणीमटन् गुणरसादपि कण्टकादि,कष्ट सहन्त्यनषियन् शिबिकादिचर्याम् ॥ ९७॥
RS
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बचार
संसारसे उद्विग्न और धर्माचार्यादि गुरुजनोंकी चिरकालतक सेवा करनेसे अत्यंत दृढताको प्राप्त होगया है ब्रह्मचर्य और शास्त्रज्ञान तथा कषायोंका उपशम जिसका ऐसा जो साधु दर्शनावशुद्धि आदि कारणों में अनुराग रख कर गुरुओंकी आज्ञाके अनुसार पृथ्वीपर एकाकी विहार करते हुए कांटा खोबरा कंकड पत्थर या और किसी नुकीली चीजके छिदजाने आदिका कष्ट होते हुह भी पूर्वानुभूत पालकी पीनस रथ बैली हाथी घोडा आदि याप्य यान या वाहन आदि किसी भी सबारीका स्मरण नहीं करता उसके चर्यापरीषहका विजय समझना चाहिये।
निषद्या परीषहके विजयका स्वरूप बताते हैं -
भीष्मश्मशानादिशिलातलादी, विद्यादिनाऽजन्यगदायुदीर्णम् । शक्तोपि भङ्क्तुं स्थिरमङ्गिपीडां,
त्यक्तुं निषद्यासहनः समास्ते ॥९॥ भयंकर श्मशान प्रेतवन अन्यगृह या गिरिकंदरादिकमें शिलातल अथवा किसी स्थंडिल प्रदेशपर ध्यान करते समय विद्या मंत्र अथवा औषधि आदिके निमित्तसे उद्भूत हुए उपसर्ग या किसी भी तरहकी व्याधिको नष्ट करनेकेलिये स्वयं समर्थ रहते हुए भी जो साधु स्थिर होकर समाधि' वीरासनादिक कायोत्सर्गसे चलायमान नहीं होता उसको ही निषद्यापरिषहका सहन करनेवाला समझना चाहिये ।
शय्यापरीषहको जीतनेका उपदेश देते हैं:
शय्यापरीषहसहोऽस्मृतहंसतूल,प्रायोऽविषादमचलन्नियमान्मुहूर्तम् । '
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थनगार
आवश्यकादिविधिग्वेदनुदे गुहादौ,..
• व्यस्रापलादिशबले शववच्छयीत ॥ ९९ ॥ स्वाध्याय प्रभृति आवश्यक कर्मों के कग्नेसे उत्पन्न हुए खेदका निराकरण करनेकेलिये जो साधु विषादरहित होकर " यह स्थान व्याघ्रादि हिंस्र जंतुओंसे व्याप्त है, यहांसे जल्दी निकल चलना ही अच्छा है, देखेंकब रात खतम होती है," इस तरह की भयपूर्ण आकुलतासे रहित होकर नियम- एकपार्श्वसे अथवा दण्डवत लम्बे होकर सोनेकी प्रतिज्ञासे चलायमान न होता हुआ तिकोने गठीले आदि कंकड पत्थरोंसे व्याप्त पर्वतकी गुहा कंदरा आदिमें शवकी तरह निश्चेष्ट होकर शयन करता है और पूर्वानुभूव हंसतूलशय्या अथवा आस्तरणादिका स्मरण नहीं करता उस साधुको शय्यापरीषहका विजयी समझना चाहिये ।
आक्रोश परीषह जीतनेवालेका स्वरूप बतातें हैं:
मिथ्यादृशश्चण्डदुरुक्तिकाण्डैः, प्रावध्यतोऽरूंषि मृधं निरोडुम् । क्षमोपि यः क्षाम्यति पापपार्क,
ध्यायन् स्त्रमाकोशसहिष्णुरेषः ॥१०॥ मिथ्यादशियोंके मर्मवेधी अत्यंत अनिष्ट तथा प्रचण्ड दुर्वचनरूपी बाणोंका शीघ्र ही प्रतीकार करनेमें समर्थ रहते हुए भी जो साधु अपने पूर्वसचित पाप कर्मके उदयका स्मरण करके उनपर क्षमा करदेता है उसीको आक्रोश परीषहका विजेता समझना चाहिये।
वध परीषहके विजयका स्वरूप बताते हैं:
अध्याय
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अनुर
नृशंसेऽरं क्वचित्स्वैरं कुतश्चिन्मारयत्यपि । शुद्धात्मद्रव्यसंवित्तिवित्तः स्याद्वघमर्षणः ॥ १०१ ॥ .
यदि कभी कोई चोर प्रभृति नृशंस मनुष्य क्रूर कर्म करनेवाला आदमी दृष्ट या अदृष्ट किसी भी कारण के बश शीघ्र ही स्वच्छन्द होकर मार डालने के लिये तयार हो उस समय में जो साधु अपने शुद्धात्म द्रव्य के अनुभवसे विश्वस्त होकर स्थिर रहता है उसीको वधपरीषहका विजयी समझना चाहिये ।
भावार्थ- जो साधु किसी भी क्रूर जीवके द्वारा अपना प्राणापहार होनेपर भी ऐसा विचार करता है कि यह जीव मेरे शरीरका घात करता है जो कि विनश्वर और दुःखद ही है; किंतु आत्मस्वरूप ज्ञानका घात नहीं करता जो कि उससे सर्वथा विपरीत अविनश्वर और सुखमय है । उसीको वषबाधाका अबाध विजेता समझना चाहिये ।
साधुओंको याचना परीषद जीतने के लिये भी उत्साहित करते हैं:
भृशं कृशः क्षुन्मुखसन्नवीर्यः, शम्पेव दातॄन् प्रतिभासितात्मा । ग्रासं पुटीकृत्य करावयाञ्चा,
तोपि गृह्णन् सह याचनार्तिम् ॥ १०२ ॥
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हे साधो ! प्राण निकल जानेपर भी आहार वसतिका और औषध आदिके लिये मैं किसीसे याचना तो नहीं ही करूंगा किंतु दीन वचन मुखचैवर्ण्य और शरीर के इशारे आदिसे याचना करने का अन्तर्गत भाव भी प्रकट न करूंगा, इस प्रकार अयाचनाव्रतका धारण करनेवाला तू, दीखने लगी हैं हड्डी और नसें जिसकी ऐसा अत्यंत कृश होकर मी तथा क्षुधा मार्गगमन तपस्या और रोग आदिके द्वारा अपनी स्वाभाविक शक्तिके क्षीण
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होजानेपर भी दानोद्यत गृहस्थोंको बिजली के चमत्कार की तरह क्षणमात्र के लिये ही एक वार अपना स्वरूप मात्र दिखाकर दाताके दिये हुए आहारको अपने हस्तपुट- दोनो हाथों को ही पात्र बनाकर ग्रहण करते हुए याचना परिषदपर विजय प्राप्त कर सकता हैं ।
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अलाभ परिषहके विजयका स्वरूप दिखाते है:निःसङ्गो बहुदेशचार्य निलवन्मानी विकायप्रती, कारोऽद्येदमिदं श्व इत्यविमृशन् ग्रामस्तभिक्षः परे । बो:स्वपि बह्रहं मम परं लाभालाभस्तपः, स्यादित्यात्तधृतिः पुरोः स्मरयति स्मार्तानलाभं सहन् ॥ १०३ ॥
जो साधु वायुकी तरह निग्रंथ है- किसी भी पदार्थसे संसक्ति नहीं रखता और अनेक देशों में भ्रमण करता रहता है, जो मौनव्रत को धारण करता किंतु अपने शरीरका कभी भी प्रतीकार नहीं करता है। जो कभी इस प्रकारका संकल्प भी नहीं करता कि आज इस घर में विहार करेंगे और कल उस घरमें । जो एक ग्राम में भिक्षा न मिलने पर उसी दिन दूसरे ग्राम में भिक्षा के लिये पर्यटन करनेकी उत्सुकता नहीं रखता, और अनेक गृहों में तथा अनेक दिन तक आहार मिलते रहने की अपेक्षा न मिलना ही मेरे लिये उत्कृष्ट तप है, ऐसा समझता है वह परम संतोषको धारण करनेवाला ऋषि ही अलाभ परीषदका जीतनेवाला समझा जाता है। ऐसा साधु अपने इस उत्कृष्ट धैर्य के द्वारा, उन ऋषियोंको जो कि पर, मागमरूप उद्धार शास्त्र के ज्ञाता तथा तदनुसार आचरण करने वाले हैं; भगवान् आदिनाथका स्मरण करादेता है। भावार्थ - आहार के लाभसे अलाभको ही श्रेयःसाधन समझकर अपने उत्कृष्ट धैर्य से विचलित न होना ही अलाभ परीषहका विजय समझा जाता है ।
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रोगपरीष के विजयका स्वरूप बताते हैं:तपोमहिम्ना सहसा चिकित्सितुं,
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धर्म०
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अनगार
शक्तोपि रोगानतिदुस्सहानपि । दुरन्तपापान्तविधित्सया सुधीः,
स्वस्थोधिकुर्वीत सनत्कुमारवत् ॥ १.४॥ शरीर और आत्मामें भेदज्ञान रखनेवाला जो साधु एक साथ उपस्थित हुई अत्यंत दुस्सह कुष्टादिक अनेक व्याधियोंका विशिष्ट तपके वलसे प्राप्त हुई जल्लोषधि आदि अनेक ऋद्धियोंके द्वारा क्षणमात्र प्रतीकार करने केलिये समर्थ होते हुए भी प्रतीकार नहीं करता किंतु सनत्कुमार चक्रवर्तीकी तरह दुःखद पापकर्मोंका विनाश करने की इच्छासे निराकुल होकर उनकी बाधाका सहन करता है उसको रोगपरीपहका विजयी समझना चाहिये ।
तृणस्पर्श परीषहके सहनेका स्वरूपनिर्देश करते हैं:तृणादिषु स्पर्शखरेषु शय्यां भजन्निषद्यामथ खेदशान्त्यै ।
संक्लिश्यते यो न तदर्तिजातखर्जुस्तृणस्पर्शतितिक्षुरेषः ॥ १०५ ॥ सूखे तृण पत्ते या ककरीली भूमि अथवा पत्थरकी शिला यद्वा ऐसी कण्टकित भूमिपर जो कि छूनेमें भी कर्कश मालुम होती है, व्याधि, मार्ग में विहार अथवा ठंडी गर्मी आदिके निमित्तसे उत्पन्न हुए श्रम--खेदको दूर करनेकेलिये शयनासन करनेवाला जो साधु उन शुष्क तृणादिककी पीडासे खुजली आदि विकारों के उत्पन्न होने पर भी उनसे संक्लिष्ट -खिन्न नहीं होता उसको तृणस्पर्श परीषहका विजयी समझना चाहिये ।
मलपरीषहके विजयको दिखाते हैं:रोमास्पदस्वेदमलोत्थसिध्म,प्राया|वज्ञातवपुः कृपावान् ।
बध्याय
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अनगार
केशापनेतान्यसलाग्रहीता,
नैर्मल्यकामः क्षमते मलोमिम् ॥ १०६ ॥ रोमछिद्रोंमें रहनेवाले प्रस्वेदमलके निमित्तसे उत्पन्न हुए दाद खाज छाजन आदि अनेक चर्मरोगोंकी पीडासे शरीर युक्त रहते हुए भी जो साधु उसकी तरफ कमी लक्ष नहीं करता प्रत्युत उसमें केवल दया-परिपा. मोंको सिद्ध करने का ही भाव रखता है । क्योंकि उसने शरीराश्रित प्रतिष्ठित बादर निगोदिया जीवोंकी दयाका पालन करनेकेलिये ही उद्वर्तन करनेका और जलकायिक जीवोंकी रक्षा करनेकेलिये ही स्नानका परित्याग कर दिया है । इसी प्रकार जो साधु केशोंका लोच करने में और उसके बाद संस्कार न करनेसे जो पीडा होती है उसको स हन करता है और अन्य मलका ग्रहण नहीं करता उस कर्ममलरूप पङ्कके दूर करनेकी इच्छा रखनेवाले साधुको मालपरीषदका विजयी समझना चाहिये ।
भावार्थ--कर्ममलको दर करनेकी इच्छा और दयापरिणामोंके सिद्ध करने की अभिलाषासे ही मलजनित अनेक बाधाओं और व्याधियों के होते हुए भी उनकी तरफ लक्ष्य न करने को और निर्मम होकर के सोत्साटनादिक करनेको मलपरीषहका विजय कहते हैं।
अध्याग
सत्कारपुरस्कार परीषहके विजयका स्वरूप बताते हैं: -. • तुष्येन्न यः स्वस्य परैः प्रशंसया,
श्रेष्ठेषु चाग्रे करणेन कर्मसु । आमन्त्रणेनाथ विमानितो न वा, रुष्येत्त सत्कारपुरस्क्रियोमिजित् ॥ १०७ ॥
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অনা|
दूसरे लोग यदि अपनी प्रशंसा करें अथवा धार्मिक एवं माङ्गलिक कार्योंके समय अपनेको बुला कर अथवा अग्रस्थान देकर अपना सम्मान करें तो उससे जो साधु प्रसन्न नहीं होता और इसके विरुद्ध यदि कोई अपनी निन्दा करे अथवा श्रेष्ठ कार्योंके समय अपनेको न बुलाकर या अग्रस्थान न देकर अपना अपमान करे वो उससे कष्ट नहीं होता उस साधुको सत्कारपुरस्कार परीषदका विजयी समझना चाहिये ।
भावार्थ-चिरकालसे ब्रह्मचर्यका पालन करनेवाला महातपस्वी स्वसमय और परसमय का ज्ञाता हितोप. देशका निरूपण करनेमें कुशल और अनेक वार परवादियोंपर विजय प्राप्त करनेवाला होकर भी जो साधु अपने मनमें ऐसा विचार नहीं लाता कि “देखो, कोई भी मुझे प्रमाण नहीं मानता या मेरी भाकै अथवा मुझे ससंभ्रम उच्चास. नका प्रदान नहीं करता। इससे तो मिथ्यादृष्टि ही अच्छे जो कि अपने मूर्ख भी साधर्मीका सर्वज्ञतुल्य सम्मान करके अपने धर्मकी प्रभावना किया करते हैं। व्यन्तरादिकोंके विषयमें भी जो सुना जाता है कि वे प्राचीन समयमें अत्यंत उग्र तपस्या करनेवालोंकी प्रत्यग्र पूजा किया करते थे सो भी बात कुछ मिथ्यासरीखी ही मालुम होती है। अन्यथा आज वे साधी होकर भी हम सरीखोंका अनादर क्यों करते हैं?" इस प्रकारके दुर्भावोंसे जिसका मन अलिप्त रहता है और जो मानापमानमें तुल्यवृत्ति है वही सत्कारपुरस्कार परीषहका विजयी समझा जा सकता है।
प्रज्ञा परीषदके विजयका स्वरूप बताते हैंविद्याः समस्ता यदुपज्ञमस्ताः प्रवादिनो भूपसभेषु येन ।
प्रज्ञोमिजित सोस्तु मदेन विप्रो गरुत्मता यद्वदखाद्यमानः ॥१८॥ जो सम्पूर्ण अपूर्व और प्रकीर्णक विद्याओंका प्रथमोपदेष्टा है, जिसने अनेक वार अनेक राजसभाओं में अनुमानादि विषयोंपर अनेक मिथ्या प्रवादियोंका निराकरण करके विजय प्राप्त किया है। फिर भी गरुडके द्वारा ब्राह्मणकी तरह ज्ञानका गवे जिसका भक्षण नहीं कर सकता उसको प्रज्ञापरीपहका विजयी समझना चाहिये।
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भावार्थ-मिथ्यापुराणों में एक कथा प्रसिद्ध है कि विष्णुने एक वार अनेक राक्षसोंको मारा । मारनेसे जो कुछ थोडेसे राक्षस शेष रहे थे उनकेलिये उन्होंने अपने गरुडको मारनेका आदेश किया। बस, फिर क्या था, नम्र उन राक्षसोंका भक्षण करने लगा। किंतु राक्षसोंके साथ साथ एक ब्रामण भी पेटमें चल गया जो कि उसे पचा नहीं । अन्तमें गरुडने उस ब्रामणका बमन कर दिया । इसी प्रकार जो साधु अनेक विद्याओंका अधीश होकर भी ज्ञानमदसे पचता नहीं है वही सत्कार पुरस्कार परीषहका विजयी हो सकता है ।
अज्ञान परिषहके विजयको बताते हैं:पूर्वेऽसिधन् येन किलाशु तन्मे, चिरं तपोभ्यस्तवतोपि बोधः । नाद्यापि बोभोत्यपि तूच्यकेह,
गौरित्यतोऽज्ञानरुजोऽपसर्पेत् ॥ १.९॥ जिस तपके माहात्म्यसे पूर्व कालमें अनेक तपस्वी शीघ्र ही सिद्धिको प्राप्त होगये सुने जाते हैं, उसी तपको चिरकालसे अभ्यास करते हुए भी आजतक मुझको कोई सातिशय अथवा प्रकृष्ट ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ। प्रत्युत मुझको लोक अज्ञानी-मंदबुद्धि देखकर 'यह बैल है' इत्यादि कुत्सित शब्दोंके द्वारा ही बोला करते हैं। इस प्रकारका अज्ञानजनित दुःख जिसके हृदयमें कभी भी उद्भूत नहीं होता उसको अज्ञान परीषहका विजयी समझना चाहिये।
भावार्थ:-जो साधु "तू मूर्ख है, निरा पशु ही है, कुछ नहीं समझता," इस तरह के तिरस्कारके शब्दोंको सुनकर भी सहन करता और निरंतर अध्ययनमें रत रहता है। किंतु मन वचन कायकी अनिष्ट चेष्टाओंसे निवृत्त और महोपवासादिका अनुष्ठान करनेवाला होकर भी ' आज तक मेरे किसी तरहका ज्ञानातिशय उत्पन्न नहीं हुआ' ऐसे दुर्भावसे अभिभूत नहीं होता वही अज्ञानपरीषहका विजयी हो सकता है।
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- अदर्शन परीषहके विजयको दिखाते हैं:महोपवासादिजुषां मृषोद्याः, प्राक् प्रातिहार्यातिशया न होक्षे । किंचित्तथाचार्यपि तद् वृथैषा,
निष्ठेत्यसन् सद्गदर्शनासट् ॥ ११ ॥ - मैं महोपवासादिको करते हुए भी अपनेमें प्रातिहार्य में ज्ञानातिशयादिकोंका उत्पन्न होना नहीं दे. खता हूं। इससे मालुम होता है, पूर्वकालमें पक्ष मास आदिक महोपवासादिके करनेवाले साधुओंके प्रातिहार्य या ज्ञानातिशयादिकी उत्पत्ति होना जो बताया जाता है वह सब झूठी बात है। अन्यथा मुझमें भी वे अतिशय आज जागृत क्यों नहीं होते । अत एव इस तपस्याका अनुष्ठान करना भी व्यर्थ ही है । इस तरहके भाव जिसके हृदयमें उद्धृत नहीं हुआ करते उस दर्शनविशुद्धियुक्त साधुको ही अदर्शनपरिषहका विजयी समझना चाहिये।
इस प्रकार बाईस परीषहोंके विजयका स्वरूप और साधन बताया गया । ये सभी परीपह कर्मोदयके निमित्तसे प्राप्त हुआ करती हैं। ज्ञानावरणके उदयसे प्रज्ञा और अज्ञान, दर्शनमोहके उदयसे अदर्शन, अन्तरायके उदयमे अलाभ, मानके उदय से नाग्न्य निशद्या आक्रोश याचना और सत्कारपुरस्कार, अरतिके उदयसे अति. बेदके उदयसे स्त्री, और वेदनीयके उदयसे क्षुधा पिपासा शीत उष्ण दंशमशक चर्या शय्या वध रोग तणस्पर्श तथा मल परीषह होती हैं।
इन बाईस परीषदों से एक समयमें एक जीवके एकसे लेकर उन्नीस तक हो सकती हैं। क्योंकि चर्या शय्या और निशद्या इन तीन परस्पर विरोधी परीषहोंमेंसे एक कालमें कोईसी एक ही हो सकती है। इसी प्रकार शीत उष्णमेसे भी एक काल में एक ही हो सकती है । इस प्रकार तीनके कम होजानसे बाकी उन्नीस तक हो सकती
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बनगार
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यहांपर कोई प्रश्न कर सकता है कि प्रज्ञा और अज्ञान परीषहमें भी सहानवस्थान विरोध है इसलिये इनमेंसे भी एक कालमें एक ही परीपह हो सकेगी । और फिर वैसा होनेपर एक कालमें एक जीवक १९ परीषहतक होनेका नियम किस तरह स्थिर रह सकता है ? इसका उत्तर सहज है। क्योंकि श्रुतज्ञानकी अपेक्षा प्रजाका प्रकर्ष रहते हुए भी साथमें अवधिज्ञानादिके अभावकी अपेक्षा अज्ञान भी रह सकता है। अत एव इनमें सहानवस्थान विरोधकी कल्पना ठीक नहीं है।
मिथ्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत पर्यन्त सात गुणस्थानोंमें सभी-बाईसों परीपह होती हैं । अपूर्वकरणमें अदर्शनके सिवाय शेष २', अनिवृत्तिकग्णक सवेद भागमें अरतिको छोडकर शेष २०, और अवेदभागमें स्त्री परी. पहके विना १९, तथा इसी गुणस्थानमें मानकषायके उदयका अभाव होजानेसे नान्य निषद्या आक्रोश याचना
और सत्कारपुरस्कारका छोडकर शेष १४ , अत एव अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसापराय उपशांतकषाय और क्षीणकपाय इन चार गुणस्थानोंमें १४ परीषह होती हैं । इसके अंतमें प्रज्ञा अज्ञान और अलाभ परीषह नष्ट होजाती हैं इसीलिये सयोगी भगवान्के ११ परीषह ही मानी हैं । सयोगी भगवान्के वेदनाय कर्म सत्ता में रहता है । अत एव तनिमित्तक -१ परीषह जो भी हैं वे उपचारसे मानी जाती हैं। जिन भगवान के सम्पूर्ण घातिया कर्मरूपी इन्धन ध्यानाग्निके द्वारा दग्ध हो चुका है और अप्रतिहत अनंतचतुष्टय उद्भूत हो चुका है, साथ ही उनके अन्तराय समका अभाव होजानेसे निरंतर मातावेदनीयरूप शुभ पुद्गलोंका ही संचय हुआ करता है। यही कारण है कि उनके पनामे बैठा हुआ भी वेदनीय कर्म अपना फल प्रकट नहीं कर सकता । क्योंकि वेदनीय कर्म घातिया कमांकी तथा विशेषकर मोहनीय कर्मकी सहायतासे ही अपना फल प्रकट कर सकता है । अन्यथा नहीं। जिस प्रकार मंत्र या आपधि आदि चलसे मारण शक्तिके नष्ट होजानेपर विपद्रव्य अपना कार्य-मारनेरूप नहीं कर सकता. और जिस प्रकार जाके कटजानेपर कोई भी वृक्ष फल फूल देने में समर्थ नहीं हो सकता, तथा जिस प्रकार उपेक्षा संयमा धारण करनेवाले नौवें और दशवें गुजस्थानवर्ती साधुओंके मैथुन परिग्रह संज्ञा कार्यरूप
राशी एवं जिस प्रकार सम्पूर्ण ज्ञानके धारक व गावानके एकाग्रचिन्तानिरोधरूप लक्षण न रहनेपर भी पार्गिरूप फलकी अपेक्षासे ध्यानका उपचार किया जाता है। उसी प्रकार क्षुधा रोग वध आदि कार्यरूप
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मनुवार
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परीषहों के न होनेपर भी वेदनीय कर्मका द्रव्य जो सत्ता में बैठा हुआ है उसके सहन करने रूप द्रव्यपरीष की अपेक्षा से वेदनीय कर्म संबन्धी ग्यारह परीषह भगवान् के उपचारसे कही जाती हैं। यही कारण है कि मोक्षशास्त्रमें “ एकादश जिने " ऐसा कहा है । फलतः इस विषय में विधि और निषेध दोनों ही उपपन्न होते हैं । वेदनीय कर्मरूप द्रव्य के सद्भावकी अपेक्षा भगवान् के ग्यारह परीपह हैं, किंतु घातिया कर्म तथा विशेष कर मोहनीय कर्मकी शक्तिकी सहायता से ही वेदनीय कर्म फल दे सकता है । अन्यथा नहीं । और भगवान् के ये कर्म नष्ट हो चुके हैं। अत एव सहायकके विना वेदनीय कर्म जिनभगवान्के अपना फल नहीं दे सकता । फलतः कार्यरूपकी अपेक्षा भगवान् के ये ग्यारह परीषह नहीं होती हैं।
मार्गणाओंकी अपेक्षासे नरकगति और तिर्यग्गतिमें सभी परीषह होती हैं। मनुष्यगति में ऊपर लिखे अनुसार गुणस्थानों की अपेक्षासे सभी परीषह होती हैं। देवगतिमें घातिया कर्मसे उत्पन्न और वेदनीयसे उत्पन्न कुल चौदह परीषद होती हैं । इन्द्रिय और कायमार्गणामें भी सब परीषह होती है। योगमार्गणा में वैक्रियिकद्वयकी अपेक्षा देवगतिके समान, तिर्यश्च और मनुष्योंकी अपेक्षा बाईस, तथा शेष योगों और वेदादिक अन्य मार्गणाओंमें अपने अपने गुणस्थानकी अपेक्षा परीषह हुआ करती हैं।
इस प्रकार बाईस परीषोंके विजयका स्वरूप बताया । अब इसी प्रकरण में गौणतया उपम़गोंके सहन करने का भी उपदेश देना उचित समझकर उदाहरणपूर्वक चारों प्रकारके ही उपसर्गों को जीतनेका उपदेश देते हैं:
स्त्रध्याच्छिवपाण्डुपुत्रसुकुमालस्वामिविद्युच्चर, —
प्रष्टाः सोढविचिन्नृतिर्यगमरोत्थानोपसर्गाः क्रमात् ।
संसारं पुरुषोत्तमाः समहरंस्तचत्पदं प्रेप्सयो,
लीनाः स्वात्मनि येन तेन जनितं धुन्वन्त्वजन्यं बुधाः ॥ १११ ॥
किसी के भी निमित्तसे उत्पन्न हुए या आयर प्राप्त हुए क्लेशविशेषको उपसर्ग कहते हैं । यह चार प्रकार
धर्म
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अनगार
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का होता है - अचेतनकृत मनुष्यकृत तिर्यञ्चकृत और देवकृत क्रममे इन उपसर्गेको शिवभूतिनामक मुनि, युधिष्ठिर आदि पाण्डुपुत्र और सुकुमालस्वामी तथा विद्युच्चर प्रभृति अनेक उत्तम पुरुषोंने आत्मध्यानके द्वारा जीत कर के ही संसारका संहार किया था। भावार्थ - विना उपसगाँका सहन किये परमपदकी प्राप्ति नहीं हो सकती । पूर्व कालमें भी जिन उत्तम पुरुषोंने संसारको नष्ट कर अजरामर पदको प्राप्त किया था उन्होंने भी इन उपसर्गोंको सहन करके ही किया था । उपसर्गोंका सहन आत्मध्यानके द्वारा ही हो सकता है अत एव जिस प्रकार आगमप्रसिद्ध शिवभूति मुनि और एणिकापुत्रादिकोंने आत्मस्वरूपमें स्थिर होकर अचेतनकृत उपसर्गोका सहन किया, तथा पाण्डव गजकुमार गुरुदत्त प्रभृतिने मनुष्यकृत उपसगौका और सुकुमाल सुकोशल सिद्धार्थ आदिने तिर्यक्कृत उपसर्गोंका, तथा विद्युच्चर श्रीदत्त सुवर्णभद्रादिकोंने देवकृत उपसर्गों का सहन कर निर्भयपद प्राप्त किया, उसी प्रकार हे मुसुक्षुओ ! यदि उस पदके प्राप्त करनेकी इच्छा है तो आपको भी चिदानंदमय आत्मस्वरूपमें लीन होकर अचेतनादिमेंसे किसी के भी द्वारा उत्पन्न किये गये यथायोग्य प्राप्त हुए उपसगोंका सहन करना चाहिये ।
प्रकृत विषय - परीषहजय और उपसर्गसहनका उपसंहार कर मोक्षनगरी के पथिक साधुओं को बाह्य और अभ्यन्तर तपका आचरण करनेके लिये उद्यमी होनेको उपदेश देते हैं
इति भवपथोन्मथस्थामप्रथिम्नि पृथूद्यमः, शिवपुरपथे पौरस्त्यानुप्रयाणचणश्चरन् । मुनिरनशनाद्यस्त्रैरुयैः क्षितेन्द्रियतस्कर, -
प्रसृतिरमृतं विन्दत्वन्तस्तपः शिबिकां श्रितः ॥ ११२ ॥
इस प्रकार शिवनगरी के मार्ग - रत्नत्रय में विहार करते हुए और पूर्वाचार्योंका अनुगमन कर प्रतीतिको प्राप्त हुए साधुओंको संसार के मार्ग - मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रका उच्छेदन करनेवाली शक्तिके प्रपंच महान् उत्साहको धारण करके तथा अनशन अवमौदर्य आदि बाह्म तपश्चरणरूपी तीक्ष्ण एवं दुःसह
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शस्त्रोंके द्वारा इन्द्रियरूपी चोरोंके प्रसारका निराकरण कर और अन्तरङ्ग तपरूपी पालकीमें बैठकर मोक्षस्थान अथवा उसके अभावमें स्वर्गको प्राप्त करना चाहिये । भावार्थ-ऐसा करनेपर ही उनको स्वर्गमोक्षादिकी प्राप्ति हो सकती है।
इस प्रकार रत्नत्रय मार्गमें महान् उद्योग करनेका जिसमें वर्णन किया गया है ऐसा छहा अध्याय
समाप्त हुआ।
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अथ सप्तमोध्यायः
अनगार
सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीन आराधनाओंका वर्णन करके क्रमानुसार सम्यक्तप आराधनाका वर्णन करनेकी इमछासे ग्रन्थकार सबसे पहले इस बातकी शिक्षा देते हैं कि मुक्तिका प्रधान साधन वीतरागता है और रागद्वेषका अभाव तपके द्वारा ही हो सकता है। अत एव मुमुक्षुओंको वीतरागताकी सिद्धिकेलिये नित्य ही तपका संचय करना चाहियेः
ज्ञाततत्त्वोपि वैतृष्ण्यादृते नाप्नोति तत्पदम् ।
ततस्तत्सिद्धये धीरस्तपस्तप्येत नित्यशः ॥१॥ जिसको हेयोपादेयरूप वस्तुस्वरूपका ज्ञान नहीं है उसकी तो बात ही क्या, जो उसका भले प्रकार निश्चय कर चुका है उसको भी अनन्तज्ञानादि चतुष्टयरूप परमपद क्षायिक यथाख्यात चारित्रस्वरूप वीतरागताके विना प्राप्त नहीं हो सकता । अत एव पीतरागता प्राप्त करनेकेलिये पूर्वोक्त परीषह और उपसर्गोंसे विचलित न होनेवाले धीर चीर साधुओंको उस तपका, जिसका कि लक्षण आगे चलकर करेंगे, नित्य ही संचय करना चाहिये । क्योंकि तपके द्वारा ही उसकी सिद्धि हो सकती है।
तपका निरुक्तिसिद्ध लक्षण बताते हैं:तपो मनोक्षकायाणां तपनात सन्निरोधनात् ।
निरुच्यते दृगाद्याविर्भावायेच्छानिरोधनम् ॥ २॥ तप शब्दका अर्थ समीचीनतया निरोध करना होता है । अत एव आत्मामें सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान
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अध्याय
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अनगार
और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयका आविर्भाव काने लिय इच्छाके रोकनेको-मन इन्द्रिय और शरीरके इष्टानिष्ट विषयोंमेंसे इष्टके ग्रहण करनेकी और अनिष्टके छोडनेकी जो अभिलापा हुआ करती है उसके न होने देनेको ही तप कहते हैं।
“ इस प्रकार " इच्छाका समाचीनतयः निरोध" यह तपका लक्षण उसकी धातु के अर्थके अनुसार ही है। निरमी प्रकारान्तरसे उसका विरक्तिसिद्ध ही लक्षण बताते हैं:
यद्वा मार्गाविरोधेन कर्मोच्छेदाय तप्यते । अर्जयत्यक्षमनसोस्तत्तपो नियमकिा ॥ ३ ॥
उपर्युक्त रत्नत्रयमें किसी भी प्रकारका आघात न पहुंचाकर सम्पूर्ण शुभाशुभ कमाका निर्मूल नाश करनेके लिये जो मुमुक्षु साधु इंन्द्रिय और मनके विरुद्ध आचरण करता है --मन व इन्द्रियों को अपने अपने विषयोंमें प्रवृत्त होनेसे रोकता है उसकी इस विरुद्ध प्रवृत्तिको ही तप कहते हैं। भावार्थ-प्रत्येक संसारी आत्मा मन व इन्द्रियों के अधीन हो रहा है। किंतु मुमुक्षु साधु इसके विरुद्ध आचरण करता है। वह मन और इन्द्रियोंको आत्माके अधीन बनाता है । बस, उसके इस विरुद्धाचरणको ही तप कहते हैं।
इस प्रकार तपका निरुक्तिसिद्ध लक्षण बताया । फिर भी ग्रन्थान्तरोंमें जो उसका लक्षण बताया है उसका भी उल्लेख करते हैं और उसके भेद प्रभेदोंका वर्णन करते हुए उसका अनुष्ठान करनेका उपदेश देते हैं
संसारायतनानिवृत्तिरमृतोपाथे प्रवृत्तिश्च या, तद्वत्तं मतमौपचारिकमिहोद्योगोपयोगी पुनः । निर्मायं चरतस्तपस्तदुभयं बाह्यं तथाभ्यन्तरं, पोढाऽत्राऽनशनादि बाह्यमितरतु षोढेव चेतुं चरेत् ॥४॥
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बनगार
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चारो गतियों अथवा उसके अनेक भेदोंमें जीवके इतस्ततः पर्यटन करनेको ही संसार कहते हैं । यह पांच प्रकारका हैं-द्रव्य क्षेत्र काल भव भाव । इस परिभ्रमणका मूल कारण कर्मबन्ध है किंतु कर्मबन्धका भी मूल कारण मिथ्यात्रिक-मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र है । अत एव इस मिथ्यात्रिकसे निवृत्त होने
और इसके विरुद्ध मोक्षके उपाय रत्नत्रयमें प्रवृत्त होनेको ही उपचरित सम्यक् चारित्र कहते हैं । इस उपचरित सम्यक् चारित्रमें मायाचारको छोडकर उद्योग करने तथा सदा उपयुक्त-तल्लीन रहने का ही नाम तप है। वह दो प्रकारका माना है-एक अन्तरङ्ग और दूसरा बाह्य । प्रायाश्चत्त, विनय, चैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान इनको अन्तरङ्ग तप कहते हैं । और अनशन, अवमोदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन तथा कायक्लेश इनको बाह्य तप कहते हैं। इनमें अन्तरङ्ग तपकी सिद्धि और वृद्धिका कारण बाह्य तप है । अत एव मुमु. क्षुओंको अभ्यन्तर तपको स्थिर रखनेके लिये अथवा उसको बढाते रहनेके लिये बाह्य तपका आचरण करते ही रहना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि- “ बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरंस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिबृंहणार्थम्"।
बाह्य तप कारणरूप है अत एव उसका ही वर्णन सबसे पहले करना चाहते हैं। किंतु विशेष वर्णन करनेके पूर्व इस बातके लिये युक्ति उपस्थित करते हैं कि उसके उत्तर भेद अनशनादिक तप क्यों हैं ?
देहाक्षतपनात्कर्मदहनादान्तरस्य च । .
तपसो वृद्धिहेतुत्वात् स्याचपोऽनशनादिकम् ॥ ५॥ अनशन अवमौदर्य आदिक तप इसलिये हैं कि इनके होनेपर शरीर इन्द्रियां उद्रिक नहीं हो सकती किंतु कुश हो जाती हैं। दूसरे इनके निमित्तसे संपूर्ण अशुभ कर्म अग्निके द्वारा इन्धनकी तरह भस्मसात् हो जाते हैं । तीसरे अभ्यन्तर प्रायश्चित्त आदि तपोंके बढानेमें ये कारण हैं।
. अनशनादिकको बाह्य तप माना है। जिसमेंसे उनका तप होना तो युक्तिपूर्वक सिद्ध किया । अब उनके बाह्यत्वके लिये भी युक्ति उपस्थित करते हैं:--
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अमार
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अध्याय
बाह्यं वल्भाद्यपेक्षत्वात्परप्रत्यक्षभावतः । परदर्शनि पाषण्डिगेहि कार्यत्वतश्च तत् ॥ ६ ॥
अनशनादि तपोंको बाह्य कहने में तीन कारण हैं। एक तो यह कि इनके करनेमें बाह्य द्रव्यकी अपेक्षा रहती है । अनशनमें भोजनके छोडने की, अवमौदर्य में अल्प भोजन की, वृत्तिपरिसंख्यानमें बाहिर दृष्टिसे दीख सकने योग्य किसी भी वस्तु के आश्रयसे नियम करनेकी, इसी प्रकार रसपरित्यागादिक में भी रसादिक बाह्य वस्तुओंकी आवश्यकता पडती है । दूसरा कारण यह भी है कि ये दूसरे लोगोंको दीखते हैं । स्वसंघके और परसंघके सभी लो
को यह तो साक्षात् ही मालूम हो जाता है कि इन्होंने आज भोजन किया है अथवा नहीं किया। तीसरा कारण यह भी है कि इन अनशनादि तपोंको केवल निर्बंध साधु ही नहीं किया करते, और लोग भी किया करते हैं । बौद्ध प्रभृति जैनेतर धर्मो के अनुयायी और कापालिक प्रभृति पाषण्डी तथा इतर गृहस्थ लोग भी उपवासादिक किया करते हैं। अत एव साधारणतया बाह्य लोगोंका कार्य होनेसे भी इन तपोंको बाह्य कह सकते हैं।
बाह्य तपका फल बताते हैं:--
कर्माङ्गतेजोरागाशाहानिध्यानादिसंयमाः । दुःखक्षमासुखासङ्गब्रह्मोद्योताश्च तत्फलम् ॥ ७ ॥
अनशनादि तपके करनेसे ज्ञानावरणादिक कर्म और शरीरका तेज क्षीण होता है । अथवा कर्मों के कारण - भृत हिंसादिककी और शुक्रकी हानि होती है। इसके सिवाय रागद्वेषादिक कपाय और विषयभोगों की आशाका अपकर्षण होता है । इस तरहसे बाह्य तपके द्वारा अनेक दोषोंकी हानि होती है । केवल हानि ही हानि होती है यह बात नहीं है किन्तु ध्यान स्वाध्याय आरोग्य मार्गप्रभावना और कषाय- मदमात्सर्यादिका मंथन तथा परप्रत्ययकरण दयादिक उपकार और तीर्थाीयतनोंकी स्थापना इत्यादि अनेक उत्तम फलोंकी और संयमकी सिद्धि भी होती है। जैसा कि कहा भी है कि: ---
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अनगार
विदितार्थशक्तिचरितं कायेन्द्रियपापशोषकं परमम् ।
जातिजरामरणहरं सुनाकमोक्षाश्रयं सुतपः ।। इस समीचीन बाह्य तपका प्रयोजन शक्ति और चरित सर्वत्र प्रसिद्ध है । क्योंकि यह शरीर इन्द्रिय और पापका शोष करने वाला तथा जन्म जरा और मरणका हरण करने वाला, एवंच मोक्षका आश्रय है।
प्रकृतमें ध्यान शब्दसे धर्म्य और शुक्लरूप प्रशस्त ध्यानका तथा संयम शब्दसे पूर्वोक्त उसके उपेक्षा और अपहृतरूप दो भेदोंका ग्रहण करना चाहिये ।
इनके सिवाय अनशनादिक प्रसादसे तापत्रयका सहन सुखोंमें अनासक्ति और ब्रह्मोद्योत-ब्रह्मचर्यमें निर्मलताका उत्पन्न होना आदि और भी अनेक गुण उद्भूत हुआ करते हैं।
बाह्य तप परम्परासे मनके जीतने में भी कारण है इस बातको स्पष्ट करते हैं:
बास्तिपोभिः कायस्य कर्शनादक्षमर्दने ।
छिन्नवाहो भट इव विक्रामति कियन्मनः॥८॥ इन्द्रियां मनरूपी सुभटके वाहनके समान हैं। और अनशनादिक बाह्य तोके द्वारा शरीरका कर्शन हो जानेसे उसका मर्दन हो जाता है। अतएव इन्द्रियोंका दलन हो जानेपर दुर्जय भी मन अपना पराक्रम किस तरह प्रकट कर सकता है ? कैसा भी वीर पुरुष क्यों न हो, प्रतियोद्धाके द्वारा अपने वाहन-घोडेके मारे जानेपर अवश्य ही निर्बल हो जायगा। .. अनशनादिका विशेष स्वरूप बतानेके पहले इस बातकी शिक्षा देते हैं कि तपस्वियों को भोजन इस प्रकारसे करना चाहिये कि जिससे प्रमाद प्रकट न हो सकेः
शरीरमाद्यं किल धर्मसाधनं, तदस्य यस्येत् स्थितयेऽशनादिना ।
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बनगार
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तथा यथाक्षाणि वशे स्युरुत्पथं,
. न वानुधावन्त्यनुबद्धड़वशात् ॥९॥ शरीरके विना तप तथा और भी ऐसे ही धर्मोंका साधन नहीं हो सकता । अत एव आगममें ऐसा कहा है कि रत्नत्रयरूप धर्मका आद्य साधन शरीर है । इसी लिये साधुओंको भी भोजन पान शयन आदिके द्वारा इसके स्थिर रखनेका प्रयत्न करना चाहिये । किंतु इस बातको सदा लक्ष्यमें रखना चाहिये कि भोजनादिकमें प्रवृत्ति ऐसी और उतनी ही हो कि जिससे इन्द्रियां अपने ही अधीन बनी रहें । ऐसा न होना चाहिये कि अनादि कालकी वासनाके वशवर्ती होकर वे उन्मार्गकी तरफ भी दौडने लगें।
भावार्थ-साधुओंको भोजनमें प्रवृत्ति ऐसे मध्यम मार्गका आश्रय लेकर करनी चाहिये कि जिससे इन्द्रियां अपने अधीन भी बनी रहें और उन्मार्गमें भी प्रवृत न हों।
अभिमत और स्वादु भोजनके दोष प्रकट करते हैं:
इष्टमृष्टोत्कटरसैराहारैरुद्भटीकृताः ।
यथेष्टमिन्द्रियभटा भ्रमयति बहिर्मनः ॥ १० ॥ इन इन्द्रियरूपी सुभटोंको यदि अभीष्ट और स्वादु तथा उत्कट रससे पूर्ण-ताजी बने हुए भोननोंके द्वारा उद्भट-दुर्दम बना दिया जाय तो ये अपनी इच्छानुसार-जो जो इन्हें इष्ट हों उन सभी बाह्य पदार्थों में मनको प्रमाने लगते हैं । भावार्थ-इष्ट सरस और स्वादु भोजनके निमित्तसे इन्द्रिय और मन स्वाधीन नहीं रह सकते।
अनशनका लक्षण और उसके भेद बताते हैं:--
चतुर्थाद्यर्धवर्षान्त उपवासोथवाऽऽमृतेः । सकृदभुक्तिश्च मुम्यधं तपोनशनमिप्यते ॥ ११॥
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काँका क्षय करनेके उद्देशसे भोजनके परित्यागको अनशन नामका तप कहते हैं । यह दो प्रकारका होता है--एक तो सकृद्भुक्ति-प्रोषध, दुसरा उपवास । दिनमें एक वार भोजन करनको प्रोषध और सर्वथा भोजनके परिहारको उपवास कहते हैं। यह दो प्रकारका माना है-अवधूतकाल और अनरधृतकाल । अवधूतकालके चतुर्थसे लेकर पाण्मासिकतक अनेक भेद हैं। जो मरणपर्यन्त के लिये उपवास धारण किया जाता है उसको अनवधृतकाल कहते हैं।
भावार्थ--एक दिनकी दो भुक्ति समझी जाती है। इसीलिये प्रोषधोपवासका दूसरा नाम चतुर्थोपवास है क्योंकि धारण और पारण के दिनकी एक एक भुक्ति और उपवास के दिनकी दो भुक्ति इस तरह मिलाकर चार भुक्तिका उसमें परित्याग किया जाता है । इस तरहसे भोजनके चार समयों में चतुर्विध आहारके परित्याग का नाम आगममें रूढिस चतुर्थ ऐसा प्रसिद्ध है। यदि धारण और पारणके मध्यमें दो उपवास किये जाय तो उसका नाम षष्ठ और तीन उपवास किये जाय तो अष्टम, चार उपवास किये जाय तो दशम तथा पांच उपवास किये जाय तो द्वादश होता है। इसी तरह अर्धवन्ति भेद समझने चाहिये । लगातार छह महीनेके उपवास करने को पाण्मासिक अथवा अर्धवार्षिक उपवास कहते हैं । उपवास और क्षपण ये पर्यायवाचक शब्द हैं । चतुर्थसे लेकर पाण्मासिक तकमें कालका प्रमाण नियमित रहता है । अतएव ये सब अवधृतकाल नामक अनशन तपके भेद होते हैं। जिसमें कालका प्रमाण नियमित नहीं रहता ऐसे मरणपर्यन्त के लिये किये गये उपवासको अनवधृतकाल कहते हैं।
नञ् शेब्दक निषेध और ईषत् इस तरह दोनों ही अर्थ होते हैं । अतएव अनशनके भी दो अर्थ हो जाते हैं-एक तो भोजनका सर्वथा अभाव, दूसरा कुछ भोजन । पहले अर्थकी अपेक्षासे अनशन या उपवासका उस्कृष्ट भेद और दूसरे अर्थकी अपेक्षासे उसका मध्यम तथा जघन्य भेद समझा जाता है। अतएव इस श्लोकमें समुच्चयार्थक चशब्दका पाठ किया है जिससे कि उत्कृष्टके साथ साथ मध्यम और जघन्य भेदका भी संग्रह कर लिया जाय।
'अर्धवर्षान्त , इस शब्दमें एक वर्षशब्दका लोप समझना चाहिये । ऐसा होनेसे वार्षिक उपवास भी
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EGON
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सिद्ध होता है। क्योंकि दण्डक या आचारादि शास्त्रोंमें सांवत्सरिक अनशनका भी उल्लेख किया गया है।
उपवासका निरुक्तिपूर्वक लक्षण बताते हैं:
स्वार्थादुपेत्य शुद्धात्मन्यक्षाणां वसनाल्लयात् ।
उपवासोशनस्वाद्यखाद्यपेयविवर्जनम् ॥ १२॥ उपपूर्वक वस धातुसे उपवास बनता है । उपसर्गका अर्थ उपेत्य हटकर, तथा वस धातुका अर्थ निवास करना या लीन होना होता है । अत एव इन्द्रियोंक अपने अपने विषयोंसे हटकर शुद्ध आत्मस्वरूप में लीन होनेको उपवास कहते हैं।
भावार्थ-यों तो उपवासमें सभी इन्द्रियों के विषयोंका परित्याग होता है किन्तु रसनेन्द्रियके विषयके परित्यागकी मुख्यता रहती है। रसनाका विषय चार प्रकारका भोजन माना है-अशन स्वाद्य खाद्य और पेय । इन चारोंका विशेष लक्षण आगे चलकर करेंगे । अत एव यहां इतना ही समझना चाहिये कि इन चारो ही प्रकारके भोजनोंका परित्याग करके शेष सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयसे विरत हो आत्मस्वरूपमें लीन होनेको उपवास कहते हैं । जैसा कि कहा भी है कि:
उपेत्याक्षाणि सर्वाणि निवृत्तानि स्वकार्यतः ।
वसन्ति यत्र स प्रारुपवासोऽभिधीयते ।।
तथा इसी तरह किसी किसीने ऐसा भी कहा है कि१ अर्धवर्षान्त ' ऐसा शब्द श्लोकमें है। यहांपर अर्धशब्दको वर्षका विशेषण बनानेसे छह महीनेका उपवास अर्थ निकलता है। परंतु ' अर्ध और वर्ष ' ऐसा समास करनेसे वर्ष शब्दका अर्थ एक वर्षका उपवास भी हो जाता है । इस दूसरे अर्थके समय भी अर्ध शब्दके साथ वर्ष शब्द जोडनेकी आवश्यकता है, वह वर्षशब्द यहांपर लुत हुआ मानना चाहिये । एकशेष विषिसे एक वर्षशब्दका दो बार उपयोग होजाता है । ऐसा व्याकरणका आधार है।
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उपावृत्तस्य दोषेभ्यो यस्तु वासो गुणैः सह । उपवासः स विज्ञेयः सर्वभोगविवर्जितः ॥
अशनादिक चार प्रकार के भोजनका लक्षण बताते हैं
ओदनाद्यशनं स्वाद्यं ताम्बूलादि जलादिकम् ।
पेयं खाद्यं त्वपाद्यं त्याज्यान्येतानि शक्तितः ॥ १३ ॥
भात दाल दलिया खिचडी आदि भोज्य सामग्रीको अशन, पान सुपारी इलायची लोंग तथा अनार
संतरा ककडी खरबूजा आदि भक्ष्य पदार्थोंको स्वाद्य, जल दुग्ध शरबत आदि पीने योग्य द्रव पदार्थोंको पेय, और पूडी पूआ कचौडी लड्डू आदि चर्वण करने योग्य वस्तुओंको खाद्य कहते हैं ।
भावार्थ -- जिनके द्वारा क्षुधा शांत करनेकी प्रधान अपेक्षा रहा करती हैं उनको अशन, और जिनका मुख्यतथा स्वाद लेना अपेक्षित रहा करता है उनको स्वाद्य, तथा जिनके द्वारा प्राणोंका तर्पण करने की इच्छा हो अथवा किया जाता हो उनको पेय, और जिनके भक्षण करनेमें चर्वण आदिके द्वारा विशेष प्रयत्न करना पडे उनको खाद्य कहते हैं : सुमुक्षु साधुओंको उपवास करनेकी अभिलाषा से अपनी २ शक्तिके अनुसार उन चारो ही प्रकारके पदार्थों का परित्याग करना चाहिये । जसा कि कहा भी है कि " शक्तितस्त्यागतपसी " ।
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उत्तम मध्यम और जघन्यके भेदसे तीनो ही प्रकारका उपवास प्रचुर दुष्कर्मोंका भी शीघ्र ही नाश कर है, अतएव उसका विधिपूर्वक पालन करनेके लिये उपदेश देते हैं ।
सकता
उपवासो वरो मध्यो जघन्यश्च त्रिधापि सः ।
कार्यो विरक्तैर्विधिवद्बह्वागः क्षिप्रपाचनः ॥ १४ ॥
उत्तम मध्यम अथवा जघन्य तीनों में से कौनसा भी उपवास प्रचुर पातकों की भी शीघ्र ही निर्जरा कर
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धर्म ०
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सकता है । अत एव प्राणसंयम और इन्द्रियसंयम के पालन करनेवाले विरक्त पुरुषोंको शक्ति के अनुसार और वि. धिपूर्वक इसका पालन करना चाहिये ।
उपवासके उत्तमादिक तीनो भेदोंका लक्षण बताते हैं:धारणे पारणे सैकभक्तो वर्यश्चतुर्विधः ।
साम्बुमध्योनेकभक्तः सोधमस्त्रिविधावुभौ ॥ १५ ॥ जिसके धारण और पारणके दिन एक भक्ति तथा उपवासके दिन चारो प्रकारके पदाथोंका दोनो भुक्तिबेलाओंमें परित्याग किया जाय उसके उपवासको उत्तम भेद समझना चाहिये । जिसके धारण और पारण के दिन दोनो भुक्तिवेलाओंमें भी आहारका परित्याग किया जाय किंतु जलके सिवाय शेष आहार्य सामग्रीको ही छोडा जाय उसको मध्यम भेद समझना चाहिये किंतु जिसके धारण और पारण के दिन एक भुक्ति भी न की जाय और उपवामके दिन जल भी ग्रहण करलिया जाय उसको जघन्य भेद समझना चाहिये। इनमेंसे उत्तम भेदका अपर नाम चतुर्विध और शेष मेदोंका नाम त्रिविध है। क्योंकि उत्तम भेदमें चतुर्विध आहारका और मध्यम जघन्य भेदमें त्रिविध आहारका ही परित्याग होता है। जैसा कि कहा भी है कि:
चतुर्णा तत्र भुक्तीनां त्यागे वर्यश्चतुर्विधः ।
उपवासः सपानीयस्त्रिविधो मध्यमो मतः ॥ विना शक्तिके भोजनका परित्याग करने में जो दोष उत्पन्न होते हैं उनको प्रकट करते हैं:
यदाहारमयो जीवस्तदाहारविराधितः ।
नातरौद्रातुगे ज्ञाने रमते न च संयमे ॥ १६॥ यह प्राणी प्रधानतया द्रव्यप्राणोंसे ही जीवित रहता है । अतः इसको आहारमय, मानो भोजनके द्वारा
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ही बना है ऐसा, कहना चाहिये । अत एव विना भोजनके यह प्रायः स्थिर नहीं रह सकता। यदि उससे बलात्कार भोजनका परित्याग करादिया जाय तो वह आर्त और दौद्र ध्यान करने में आतुर हो उठता है। और यह स्पष्ट ही है कि इस तरहके दुयानोंसे पीडित व्यक्तिका मन न तो स्वाध्याय आदिके द्वारा ज्ञानका अभ्यास करनेमें और न संयमका आराधन करनेमें ही लग सकता है।
इसी वातको फिर भी प्रकारान्तरसे बताते हैं:प्रसिद्धमन्नं वै प्राणा नृणां तत्त्याजितो हठात् ।
नरो न रमते ज्ञाने दुर्ध्यानातॊ न संयमे ॥ १७ ॥ "अमं वै प्राणाः" यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है । अन्न नाम आहारका है, वह निश्चय ही मनुष्योंका जीव| न है । क्योंकि उसके विना वह जीवित नहीं रह सकता । प्राणका लक्षण ही यह है कि जिसके रहनेपर जीवित रहे और जिसके वियोग होनेपर मरजाय । अनके विषयमें भी यह बात देखी जाती है । इसलिये उसको भी प्रा. ण कहा जा सकता है । अत एव जिस व्यक्तिसे बलात्कार अन्न छुडवादिया जाता है वह अन्तरंगमें आर्त और रौद्रध्यानसे संक्लिष्ट हो उठता है । फिर वह इन दुानोंसे पीडित होकर ज्ञानाभ्यास या संयमके आराधनमें रत नहीं रह सकता।
साधुओंको उचित है कि यदि आयु बहुत अधिक बाकी हो तो उसके बहुतसे हिस्सेको विधिपूर्वक यथाशक्ति नित्यनैमिचिक उपवास करके, किन्तु अन्तके शेष भागको अनशनद्वारा ही बितावे । इसी बातकी शिक्षा देते हैं:
तन्नित्यनैमित्तिकभुक्तिमुक्तिविधीन्यथाशक्ति चरन्विलय ।
- दीर्घ सुधीजीवितवम॑ युक्तस्तच्छेषमत्येत्वशनोज्झयैव ॥ १८॥ आहारके प्रत्याख्यान करनेकी विधि दो प्रकारकी बताई है-एक नित्य, दूसरी नैमित्तिक । केशलेचा
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आदिके समय भोजनके परित्यागको नित्य विधि और कनकावलि आदिमें वैसा करनेको नैमित्तिक विधि कहते हैं। जो विवेकी साधु हैं उन्हे उचित है कि वे अपनी शक्तिको न छिपाकर ऊपर लिखे अनुसार महान् फलकी साधक इन विधियों का पालन करते हुए अपने जीवन के सुदीर्घ मार्गको तय करें किंतु उन्हे उसका शेष भाग चतुर्विध आहारका परित्याग करके भक्तप्रत्याख्यान इङ्गिनी प्रायोपगमन मरण आदिमेंसे किसीके द्वारा ही व्यतीत करना चाहिये।
अनशन तपमें विशिष्ट रुचि उत्पन्न कराते हैं:प्राञ्चः केचिदिहाप्युपोष्य शरदं कैवल्यलक्ष्म्याऽरुचन् , षण्मासानशनान्तवश्यविधिना तां चकुरुत्का परे । इत्यालम्बितमध्यवृत्त्यनशनं सेव्यं सदायैस्तनं.
तप्त शुद्धयति येन हेम शिखिना मूषामिवात्माऽऽवसन् ॥ १९ ॥ जिस प्रकार मृषा-घरिया में पड़ा हुआ सुवर्ण विना अग्निके शुद्ध नहीं हो सकता। अग्निके द्वारा संतप्त होनेपर ही किट्ट कालिकादि दोषोंसे रहित हो सकता है। उसी प्रकार शरीरके भीतर पडा हुआ कर्ममलसे युक्त आत्मा विना तपके शुद्ध नहीं हो सकता । अनशनादि तपरूपी आनिसे संतप्त होनेपर ही द्रव्यकर्म और भावकर्म से रहित हो सकता है। इसी लिये तो विदेह क्षेत्रोंकी तो बात ही क्या, इस भरत क्षेत्रमें भी कर्मभूमिके प्रारंभमें बाहवलि प्रभृति कितने ही पूर्व पुरुषोंने एक एक वर्षतक उपोषित रहकर कैवल्यलक्ष्मी-अनन्तज्ञानादि चतुष्टयके द्वारा अपनेको उद्योतित किया। और कितने ही भगवान् आदीश्वर प्रभृति महापुरुषोंने चतुर्थसे लेकर पाण्मासिक तककी अनशनविधिरूपी वशीकरण मंत्र के द्वारा उस लक्ष्मीको अपने ऊपर उत्कण्ठित बनाया । अत एव वर्तमानमें भी सम्पूर्ण मुमुक्षुओंको इस अनशन तपका सदा पालन करना चाहिये । किंतु न सर्वथा उत्कृष्ट और न सर्वथा जघन्य, किंतु मध्यम दर्जेकी चर्याका आश्रय लेकर सदा उसका सेवन करना चाहिये ।
आहारकी अभिलाषा चार कारणोंसे हुआ करती है। अत एव उसका निग्रह उन कारणों के विरुद्ध
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भावना करनेसे हो सकता है। इसीलिये साधुओंको वैसा करनेका उपदेश देते हैं:
भुक्त्या लोकोपयोगाभ्यां रिक्तकोष्ठतया सतः । वेद्यस्योदीरणाश्चान्नसंज्ञामम्युद्यतीं जयेत् ॥ २० ॥
आहारसंज्ञा चार कारणोंसे उद्भूत हुवा करती है- भुक्त्युपयोग, रिक्तकोष्ट, और असातावेदनीय कर्मकी उदीरणा । जैसा कि कहा भी है कि:
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आहारदंसणेण य तस्सुवओगेण ओमकोठाए । वेदसुदीरणाए आहारे जायदे सण्णा ॥
अर्थात् आहारकी तरफ दृष्टि डालनेसे, उसकी तरफ अपने मनका उपयोग लगानेसे, पेट खाली होने पर और क्षुधा वेदनीयरूप असाता कर्मका उदय होनेपर आहारके विषय में अभिलाषा उत्पन्न हुआ करती है । साधुओंको इसका निग्रह करना चाहिये ।
भावार्थ, निग्रह करने के उपायका उल्लेख नहीं किया है। क्योंकि वह आहारसंज्ञाके कारणों का प्रदर्शन करनेसे स्वयं मालूम हो जाता है । यह नियम है कि जिन कारणोंसे जिस कार्यकी उत्पत्ति हुआ करती है उनके अभाव में अथवा उनके विरुद्ध कारण मिलनेपर वह कार्य नहीं हो सकता । इस सिद्धान्त के अनुसार यह बात भी स्वयं ही सिद्ध हो जाती है कि आहार दर्शनादिके विरुद्ध भावना करनेसे आहार संज्ञाका भी निग्रह हो सकता है । अतएव अनशन तपके अभिलाषी साधुओंको प्रतिपक्ष भावनाओंके द्वारा आहार संज्ञाका निग्रह करने में सदा प्रवृत्त रहना चाहिये ।
अनशन तपकी भावना करने में साधुओंको प्रवृत्त करते हैं:शुद्धस्वात्मरुचिस्तमीक्षितुमपक्षिप्याक्षवर्गं भजम्,
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निष्ठासौष्ठवमङ्गानिममतया दुष्कर्मनिर्मूलनम् । श्रित्त्वाऽब्दानशनं श्रुतार्पितमनास्तिष्ठन् धृतिन्यकृत,
द्वन्द्वः कर्हि लभेय दोर्बलितुलाभित्यस्त्वनाश्वांस्तपन् ॥ २१ ॥ अत्यंत निर्मल निज चित्स्वरूपमें श्रद्धा और रुचिको धारण करके उस शुद्धात्मस्वरूपका साक्षात् अवलोकन करनेकेलिये जो साधु स्पर्शनादिक इंद्रियोंको अपने अपने विषयोंसे हटाकर चारित्रसौंदर्यका सेवन करते हुए शरीरसम्बन्धी ममत्वका परित्याग कर सम्पूर्ण अशुभ कर्मोंकी निर्जरा करने में कुशल सांवत्सरिक उपवासको स्वीकार करके श्रुतज्ञानके आराधन-अभ्यासमें ही अपने मनको लगाता हुआ आत्मस्वरूपके धारण करनेरूप धर्य अथवा प्रसात्तिके द्वारा समस्त परीषहाँको परास्त करदेता है और इस तरहकी भावना रखता है कि "वह दिन कब प्राप्त होगा कि मैं बाहुबलिकी समकक्षताको धारण कर सकूँगा" वही अनशन तपका करनेवाला समझा जा सकता है। इस प्रकार अनशन तपका व्याख्यान करके क्रमप्राप्त अवमौदर्य तपका लक्षण और फल बताते हैं:
ग्रासोऽश्रावि सहस्रतन्दुलमितो द्वात्रिंशदेतेऽशनं, पुंसो वैश्रसिकं स्त्रियो विचतुरास्तहानिरौचित्यतः । ग्रासं यावदथैकसिक्थमवमौदयं तपस्तच्चरे
धर्मावश्यकयोगधातुसमतानिद्राजयाद्याप्तये ॥ २२ ॥ स्वाभाविक भोजन पुरुषका बत्तीस ग्रास और स्त्रीका अहाईस ग्रासका होता है तथा एक ग्रासका प्रमाण एक हजार चांवलकी बराबर हुआ करता है। ऐसा आम्नायके अनुसार शिष्ट पुरुषोंसे सुनते हैं। इस प्रमाणमें यथा योग्य कम करके उसके ग्रहण करनेको अवमौदर्य कहते हैं । यह कमी एकोत्तर श्रेणीके द्वारा-एक दो तीन चार आदि ग्रास के क्रमसे एक ग्रासतक हो सकती है। अथवा भोजन ग्रहण करनेकी विधि पहले इस प्रकार बता चुके
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हैं कि पेट चार भागों से दो भागोंमें अन तथा एक भागमें जल भरना चाहिये और एक भाग वायु के लिये खाली बोडदेना चाहिये । इस प्रमाणमें कमी करके-चौथाई आदि भागका त्याग करके भोजन ग्रहण करनेको अवमौदर्य तप कहते हैं। इस तपके प्रसादसे उत्तम क्षमादि दशलक्षण धर्मकी और षडावश्यक कर्तव्योंकी तथा आतापनादि यदा समीचीन ध्यानादिरूप योगोंकी प्राप्ति अथवा सिद्धि हुआ करती है। वात पित्त कफरूप दोषोंकी विषमता नष्ट होकर समता उत्पन्न हुआ करती है। निद्रापर विजय प्राप्त होता और इन्द्रियां बलाढ्य होकर द्वेषी नहीं बन सकती। इसी तरह इस तपके और भी अनेक फल हैं जो कि मुमुक्षु साधुकेलिये आवश्यक हैं । अत एव तपस्वियोंको इस तपका पालन तथा अनुष्ठान अवश्य ही करते रहना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
धर्मावश्यकयोगेषु ज्ञानादावुपकारकृत् । दर्पहारीन्द्रियाणां च ज्ञेयमूनोदरं तपः ।। द्वात्रिंशाः कवलाः पुंस आहारस्तृप्तये भवेत् । अष्टाविंशतिरेवेष्टाः कवलाः किल योषितः । तस्मादेकोत्तरश्रेण्या यावत्कवलमात्रकम् । ऊनोदरं तपो खेतत्तद्भेदोपीदमिष्यते ॥ अधिक भोजन करनेसे उत्पन्न होनेवाले दोषोंको प्रकट करते हैं:-- बहाशी चरति क्षमादिदशकं दृप्यन्ननावश्यका,-- न्यथूणान्यनुपालयत्यनुषजत्चन्द्रस्तमोऽभिद्रवन् । ध्यानाद्यर्हति नो समानयति नाप्यातापनादीन्वपुः,
शर्मासक्तमनास्तदर्थमनिशं तत्स्यान्मिताशी वशी ॥ २३ ॥ अवमौदर्यका फल ऊपर बता चुके हैं। उसके विरुद्ध जो व्यक्ति अधिक--उचित प्रमाणका अतिक्रमण
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करके-भोजन करता है वह प्रमाद और कपायके वशवी होजानेसे उत्तमक्षमादि दशधर्मरूपं आचरण नहीं कर सकता, न निर्दोष अथवा सम्पूर्ण आवश्यकोंका ही पालन कर सकता है, और न मोहसे अभिभूत हो जानेके कारण ध्यान स्वाध्याय आदिमें ही प्रवृत्त हो सकता है। इसी प्रकार वह आतापन वर्षायोग तथा बाह्य शयन आदि योगोंको भी भले प्रकार पूर्ण नहीं कर सकता। क्योंकि उसका मन शरीरके विषयमें निर्मम होनेके बदले प्रीतियुक्त होजाता है-वह शरीरसुखमें ही आसक्त होने लगता है । अत एव मुमुक्षुओंको धर्मादिकी प्राप्ति केलिय जितेन्द्रियं होकर--रसनेन्द्रियकी लोलुपता छोडकर नित्य परिमित ही भोजन करना चाहिये ।
परिमित भोजन करनेसे इन्द्रियां दर्पको धारण नहीं करती, किंतु अपने अधीन होजाती हैं, इसी बातको प्रकट करते हैं:--
नाक्षाणि प्रद्विषन्त्यन्नप्रतिक्षयभयान्न च ।
दोत्स्वैरं चरन्त्याज्ञामेवानूद्यन्ति भृत्यवत् ॥ २४ ॥ परिमित आहार करनेवाले व्यक्तिकी इन्द्रियां मानो इस भयसे कि कहीं उपवासके द्वारा हमारा नाश ही न होजाय, विरुद्ध नहीं हुआ करतीं, और न मदके वेगमें आकर स्वच्छन्द विषयों में विहार ही किया करती हैं। किन्तु एक नौकरके समान आज्ञाके साथ ही निर्दिष्ट कार्य करनेकेलिये उद्यत होजाया करती हैं। परिमित भोजन करनेसे और भी जो विशिष्ट गुण उत्पन्न हुआ करते हैं उनको बताते हैं:
, शमयत्युपवासोत्थवातपित्तप्रकोपजाः ।
रुजो मिताशी रोचिष्णु ब्रह्मवर्चसमश्नुते ॥ २५ ॥ उपवासके द्वारा वात पित्त के कुपित होजा-से जो व्याधियां उत्पन्न हुआ करती हैं वे सब परिमित मोजनके द्वारा शान्त हो जाया करती हैं। क्योंकि वात पित्त दोनो ही उन्मार्गगामी हैं । अत एव अनशनके निमित्तसे धातुओंमें वैषम्य उत्पन्न होता है और परिमित भोजनसे उनमें साम्य आता है। इसके सिवाय इस अवमौदर्यके
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प्रवापसे साधु प्रकाशस्वभाव परमात्मतेजको अथवा श्रुतज्ञानको भी प्राप्त हुआ करता है।
इस प्रकार अवमौदर्य तपका वर्णन करके क्रमानुसार वृत्तिपरिसंख्यान तपका लक्षण और उसका फल बताते हैं।
भिक्षागोचरचित्रदातृचरणामत्रान्नसद्मादिगात्, संकल्पाच्छमणस्य वृत्तिपरिसंख्यानं तणेङ्गस्थितिः। नैराश्याय तदाचरेन्निजरसासृग्मांससंशोषण,
द्वारेणेन्द्रियसंयमाय च परं निर्वेदमासेदिवान् ॥ २६ ॥ मिक्षाके विषय में दाता, गमन, पात्र, अन्न और गृह आदिके सम्बन्धसे अनेक प्रकारके संकल्प किये जा सकते हैं। उनमेंसे कोई भी विशिष्ट अभिप्राय रखकर आहार ग्रहण करनेको वृत्तिपरिसंख्यान नामका तप कहते हैं । क्योंकि साधुओंकी शरीरकीलये संकल्पपूर्वक होनेवाली वृत्तिका ही नाम वृत्तिपरिसंख्यान है। यह संकल्प दाता आदिके सम्बन्धसे नीचे लिखे अनुसार अनेक प्रकारका हो सकता है। यथा
दाताके सम्बन्धसे-चातुर्वर्ण्य में से जिनके यहांका भोजन ग्रहण कर सकते हैं उनके विषयमें ऐसा विचार करना कि आज यदि ब्राह्मण पडगावेगा तब तो भोजन करेंगे, अन्यथा नहीं। इसी प्रकार क्षत्रियादिके विषयमें । अथवा ऐसा संकल्प करना कि आज यदि वृद्ध पुरुष प्रतिग्रह करेगा तब तो भोजनकेलिये ठहरेंगे, अन्यथा नहीं। इसी तरह बाल युवा आदिके विषयमें समझना चाहिये । यद्वा ऐसा विचार करके भोजनके लिये निकलना कि आज यदि जूता पहरकर सामने आता हुआ व्यक्ति भोजनके लिये कहेगा तो ठहरेंगे, अन्यथा नहीं । अथवा बीच मार्गमें खडा होकर पडगावेगा तो ठहरेंगे, अन्यथा नहीं। यद्वा ऐसा विचार करलेना कि हाथीपर चढा हुआ व्यक्ति प्रतिग्रह करेगा तभी भोजन करेंगे, अन्यथा नहीं। इस सम्बन्धमें पुरुषकी तरह स्त्रियों के विषयमें भी परिसं
१ कुंडी आदि भाजन -वर्तन ।
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धर्म
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ख्यान किया जासकता है । इस प्रकार दाताके सम्बन्धसे अनेक प्रकारके संकल्प हो सकते हैं।
गमनके सम्बन्धसे--जिस गली में होकर जाना पडता है उसमें घुसते ही यदि भोजनका निमित्त मिलेगा तब तो ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं । इसी प्रकार गली में प्राञ्जल, गोमूत्रिकाके आकार, अथवा चतुरस्राकार, यद्वा भीतरसे लेकर बाहर निकलने तक, या शलभमालाके भ्रमणकी तरह अथवा गोचोंके आकारमें भ्रमण करते हुए आज भोजनके लिये मुझे कोई पडगावेगा तो ठहरूंगा, अन्यथा नहीं । इत्यादि गमनके निमित्तसे भी अनेक तरहका संकल्प हुआ करता है।
पात्रके सम्बन्धसे--भी विविध प्रकारका संकल्प किया जाता है । यथा-आज मुझे सुवर्णपात्र में यदि कोई आहार देगा तो ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं । इसी प्रकार चांदी कासा तांबा पीतल मट्टी आदिके बने हुए अथवा उसके किसी अवान्तर भेदके विषयमें भी संकल्प किया जा सकता है।
अन्नके विषयमें--आज मुझे पिण्डभृत आहार, अथवा द्रवरूप पेय पदार्थ, यद्वा लपसी, या मसूर चना जब आदि अन्न मिलेगा तो ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं। इसी प्रकार शाक कुल्माषादिसे मिला हुआ भोजन मिलेगा तो ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं । यद्वा चारो तरफ शाक और बीचमें भात रक्खा हुआ मिलेगा तो भोजन करूंगा अन्यथा नहीं । इसी तरह चारों तरफ व्यञ्जन और बीचमें या एक तरफ अन्न, या अनेक व्यञ्जनोंके बीचमें पुष्पावली की तरह रक्खा हुआ सिक्थक अथवा निष्पाचादिसे मिला अन्न, यद्वा केवल शाक या व्यञ्जनादिक, हाथ जिसमें लिप्त होजाय या न हो सके ऐसी चीज, झोलदार या वगेर झोलका पदार्थ या और किसी पानक प्रभृति पदार्थके निमित्तसे भी ऐसा संकल्प किया जा सकता है कि यदि ऐसा भोजन मिलेगा तो ग्रहण करूंगा, अन्यथा
नहीं।
गृह विषयमें-अमुक अमुक मकानोंमें या इतने ही मकानोंमें भोजनके लिये प्रवेश करूंगा, अधिकमें नहीं। इत्यादि । आदि शब्दसे गली बाजार भिक्षा और दातृक्रिया आदिका संकल्प भी सभझलना चाहिये ।
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१ जिसमें पानीका भाग कम हो ऐसे रंधे हुए दाल खीचडी आदि आहारको और सत्त को भी सिक्थक कहते हैं।
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जैसे कि अमुक गली या बाजारमें प्रवेश करनेके बाद यदि भिक्षाका लाभ होगा तो ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं; ऐसा संकल्प करना । अथवा इसी प्रकार एक दो आदि संख्याकी अपेक्षा गली कूचोंमें आहारके लिये प्रवेश करनेका संकल्प करना । तथा पाटक निवसनविषयक संकल्पका स्वरूप भी कई प्रकारसे है-कोई कोई कहते हैं कि पाटक निवसनसे केवल मुहल्लाकी ही भूमिके स्पर्श करनेका संकल्प किया जाता है। उसके भीतर बने हुए घरोंकी भूमिके स्पर्श करनेका संकल्प नहीं किया जाता । कोई कहते हैं कि घरकी परिकरभूमि-आसपासकी जमीनका स्पर्श करके आहार ग्रहण करनेके संकल्पको निवसनसंकल्प कहते हैं। और कोई कोई मुहल्लाकी तथा घरके आसपासकी ऐसे दोनों ही भूमियों में प्रवेश करके आहार ग्रहण करने के संकल्पको पाटक निवसनके संकल्पमें लेते हैं।
इसी प्रकार भिक्षाके विषयमें भी संकल्प किया जाता है । जैसे कि एक ही भिक्षा ग्रहण करूंगा या दो ही ग्रहण करूंगा, अधिक नहीं; इत्यादि । अथवा भिक्षाको अनियत रखकर, इतने ही ग्रास लूंगा, अधिक नहीं; या इतनी ही वस्तुओंको लूंगा, अधिकको नहीं। यद्वा इतने कालतक ही भिक्षा लूंगा, अथवा इसी कालमें भिक्षा लूंगा. बाद में नहीं; ऐसा भी संकल्प किया जाता है । इसी तरह दातृक्रियाका भी संकल्प किया जाता है । जैसे कि एक ही दाता भोजन देगा तो ग्रहण करूंगा अथवा दो या तीन मिलकर आहार देंगे तो ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं । इत्यादि । जैसा कि कहा भी है कि
गत्वा प्रत्यागतमृजुविधिश्च गोमूत्रिका तथा पेटा । शम्बूकावर्तविधिः पतङ्गवीथी च गोचर्या ॥ पाटकनिवसनभिक्षापरिमाणं दातृदेयपपरिमाणम् । पिण्डाशनपानाशनखिञ्चयवागूर्वतयति सः ॥ संसृष्टफलकपरिखा पुष्पोपहृतं च शुद्धकोपहृतम् । लेपकमलेपकं पानकं च नि:सिक्थकं ससिक्थं च ॥ पात्रस्य दायकादेरवग्रहो बहुविधः स्वसामर्थ्यात् । इत्येवमनेकविधा विज्ञया वृत्तिपरिसंख्या ।
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भावार्थ-जो मुमा संसार शरीर और भोगोंसे वेराग्यको प्राप्त होचुका है उसको चाहिये कि नैराश्य और इन्द्रियसंयमको सिद्ध करनेके लिये इस उत्कृष्ट वृत्तिपरिसंख्यान तपका पालन करे । यह तप अपने शरीरके रस रक्त मांसके शोषण करनेसे ही होसकता है । अत एव शक्तिके अनुसार अनेक प्रकारके जो वृत्तिपरिसंख्यानके भेद गिनाये हैं उनका पालन करके विषयोंकी आशा और इन्द्रियोंके उद्रेकका निरोध सिद्ध करना चाहिये ।
रसपरित्याग तपका लक्षण बताते हैं:त्यागः क्षीरदधीक्षुतैलहविषां षणां रसानां च यः, कात्स्न्येनावयवेन वा यदसनं सूपस्य शाकस्य च । आचाम्लं विकटौदनं यददनं शुद्धोदनं सिक्थव,
द्रूक्षं शीतलमप्यसौ रसपरित्यागस्तपोऽनेकधा ॥ २७ ॥ दूध दही इक्षु तैल और हविष्-घृत, अथवा मधुर आम्ल लवण कटु कषाय और तिक्त इन रसोंके सत्मिना अथवा एकदेश रूपसे छोडनेको, यद्वा दाल आदि व्यंजन और शाक-इरितकाय वनस्पति आदिमेंसे किसी भी एक दोके अथवा सबके छोडदेनेको रसपरित्याग कहते हैं। केवल मांड ग्रहण करना, अथवा विकट-अतिपक्व यद्वा उष्ण बल मिला हुआ भोजन करना, केवल भात ही लेना, अथवा जिसमें द्रवरहित सूखा ग्रास तोडकर लिया जाता हो ऐसे रोटी आदिका ही भोजन करना, यद्वा स्नेहहीन रूक्ष पदार्थ ही ग्रहण करना, अथवा ठंडाकुछ देर रक्खा हुआ भोजन लेना, ये सव रसपरित्यागके ही स्वरूप हैं। अत एव यह तप अनेक प्रकारका हो
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भावार्थ-रसपरित्याग शब्दका अर्थ स्पष्ट है । अत एव इसके विशेष लक्षण करनेकी आवश्यकता नहीं १ असन- त्याग। २-इक्षु शब्दसे मतलब गुड खांड शक्कर राव आदिका है ।
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है। किंत इतना बतादेना आवश्यक है कि रस अनेक तरहका हो सकता है और वह अनेक तरहसे छोडा जासकता है। अत एव यह तप भी अनेक प्रकारका हो सकता है। इसीलिये यहाँपर उसके कई प्रकार बतादिये गये हैं। और बाकीके भेदोंका भी संग्रह करलेनेकेलिये अपिशब्दका उल्लेख करदिया है । अत एव इस तपके पालन करने में प्रवृत्त हुए साधुओंको श्रेष्ठ और इष्टरूप रस गन्धादिसे युक्त तथा रूप बल वीर्य गृद्धि एवं दर्पके बढानेवाले, यद्वा जिनके बनाने आदिकेलिये महान् आरम्भमें प्रवृत्ति करनी पडे, ऐसे परमानपान फलभक्षण औषधादिक सभी आहारोंका परित्याग कर देना चाहिये ।
जो संसारसे भीरु है, सर्वज्ञकी आज्ञामें दृढ भक्ति रखता है, तथा तप और समाधिका अभिलाषी है, किन्तु सल्लेखना प्रारम्भ करने के पूर्व ही जिसने नवनीतादिक चारो महाविकृतियोंका जीवनभरकोलिये परित्याग कर दिया है, ऐसा शरीरसल्लेखनाकी इच्छा रखनेवाला व्याक्ति ही रसपरित्यागका विशेषरूपसे अभ्यास कर सकता है। इस बातको दो पद्योंमें बताते हैं।:
काङ्क्षाकृन्नवनीतमक्षमदमृण्मांसं प्रसङ्गप्रदं, मद्यं क्षौद्रमसंयमार्थमुदितं यद्यच्च चत्वार्यपि । समूर्छालसवर्णजन्तुनिचितान्युच्चैर्मनोविक्रिया,हेतुत्वादपि यन्महाविकृतयस्त्याज्यान्यतो धार्मिकैः ॥ २८ ॥ इत्याज्ञां दृढमाईती दधदघादीतोऽयजत् तानि य,श्चत्वार्येव तपःसमाधिरसिकः प्रागेव जीवावधि । अभ्यस्येत्स विशेषतो रसपरित्यागं वपुः संलिखन्, स्याद् दूषीविषवद्धि तन्वपि विकृत्यङ्गं न शान्त्यै श्रितम् ॥ २९॥
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. जो साधु भगवान अन्त देवकी आज्ञाको दृढताके साथ धारण करता है । अर्थात् " अबतक जो मैं सं सारमें पडा हूं वह सर्वज्ञदेवकी आज्ञाका उल्लंघन करनेसे ही और भविष्यतमें भी यदि उसका उल्लंघन करूंगा तो इस दुरंत संसारमें ही पड़गा, अत एव संसारसे छूटनेकी इच्छा रखनेवाला मैं अब कमी भी इस आज्ञाका उल्लंघन न करूंगा।" इस तरहकी दृढतारख कर जो मुमुक्षु जिनेंद्रदेवकी, चारो महा विकृतियोंके सर्वथा परित्याग करनेकी, आ. ज्ञाको धारण करता है और इसीलिये जो तपमें एकाग्रता धारण करने का प्रेमी है, अथवा तप और समाधि दोनों ही की आकाक्षा रखता है, तथा पापरूप अथवा पापके कारणभूत संसारसे त्रस्त हो चुका है, उसे शरीरसल्लेखना का प्रारम्भ करनेके पूर्व ही चारो महाविकृतियोंका जीवनपर्यन्तके लिये परित्याग कर देना चाहिये ।
नवनीत मांस मद्य और मधु इन चार पदार्थोंको आगममें महाविकृति कहा है। क्योंकि ये हृदयमें महान् विकार उत्पन्न करनेवाले हैं । इसके सिवाय इनमें, जिस वर्णके ये पदार्थ होते हैं सर्वथा उसी वर्णके, अनन्तानन्त सम्मुर्छन जीव उत्पन्न हुआ करते हैं। नवनीतमें नवनीतके आकार और मांसमें मांसके आकारके अनन्तानन्त निगोदिया जीव हर अवस्थामें उत्पन्न हुआ करते और रहा करते हैं। इसी प्रकार मद्यादिकको भी हर समय ऐसे त्रसजीवोंसे व्याप्त ही समझना चाहिये। अत एव इन चारों ही पदार्थोके सेवनमें द्रव्यहिंसा अवश्यम्भाविनी है। और इतना ही नहीं किन्तु प्रत्येकमें विशिष्ट दोष भी पाये जाते हैं। यथा--
नवनीत-यह गृद्धिको उत्पन्न किया करता है। मांस--इन्द्रियोंमें दर्प उत्पन्न करनेवाला है। मद्य-इसके एकवार सेवन करते ही पुनः पुनः सेवन करनेकी अभिलाषा हुका करती है, अथवा अगम्या-वेश्या या परस्त्री आदिके साथ रमण करने में विशेष रूपसे प्रवृत्ति होने लगती है । मधु--इसके निमित्तसे असंयम उत्पन्न हुआ कर ता है। क्योंकि मधुके भक्षण करनेसे रसमें विशेष अनुराग हुआ करता है, इसलिये इन्द्रियासंयम, और उसमें उत्पन्न होने वाले या रहनेवाले जीवोंका घात होता है इसलिये प्राणासंयम भी हुआ करता है । इस प्रकार इन चारो ही महाविकृतियोंमें समस्त रूपसे या व्यस्तरूपसे महान् दोष पाये जाते हैं । अत एव अहिंसा धर्मका पालन करनेवाले भव्योंको इनका सर्वथा परिहार करना ही उचित है।
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ऐसा समझकर और ऊपर लिखे अनुसार जो साधु चारो ही महाविकृतियोंका परित्याग करदेता है वही शरीरको कुश करते हुए इस परित्याग तपका विशेष रूपसे अभ्यास कर सकता है। इसलिये जो ममक्ष हैं उन्हें इनका त्याग करके इस तपमें विशेष अभ्यास करना ही चाहिये। क्योंकि इसका थोडासा भी पालन कल्याण के लिये ही होगा। वह दृक्षित विषकी तरह रंचमात्र भी विकार पैदा नहीं कर सकता।
क्रमप्राप्त विविक्तशय्यासन तपका लक्षण और फल बताते हैं:--
६.
विजन्तुविहिताबलाद्याविषये मनोविक्रिया,निमित्तरहिते रतिं ददाति शून्यसद्मादिके । स्मृतं शयनमासनाद्यथ विविक्तशय्यासनं ,
तपोर्तिहतिवर्णिताश्रुतसमाधिसंसिद्धये ॥ ३०॥ पहले पिण्डशुद्धिके प्रकरणमें जो उद्गमादिक दोष बताये हैं उनसे रहित, और जहांपर स्त्री पशु नपुसंक गृहस्थ तथा क्षुद्र जीवोंका संचार नहीं पाया जाता, जो-मनमें विकार उत्पन्न करनेवाले-जिनसे अनेक प्रकारका संकल्प विकल्प उत्पन्न हो सकता है-ऐसे ए.ब्द-कोलाहलादिकसे रहित है, जहाँपर मनकी विषयान्तरमें गमन करने की उत्सकता निवृत्त हो जाया करती है, और जहाँपर किसीका भी आहार विहार या संसर्ग नहीं पाया जाता ऐसे ए. कान्त स्थानमें अनेक प्रकारकी पीडाओंका परिहार करनेकेलिये अथवा ब्रह्मचर्यका पालन और शास्त्रोंका विचार तथा उत्तम ध्यानको भले प्रकार सिद्ध करनेके लिये शयन और आसन-उठने बैठने या खडे होने आदिको आचार्य वि. विक्त शय्यासन नामका तप कहते हैं।
इस तपका पालन करनेवाला साधु असाधु लोकोंके संसर्ग संभाषण आदिसे होनेवाले दोषों या संक्तशादि | भावोंसे युक्त नहीं हो सकता । अत एव विविक्तशय्यासनके इस महान् फलको प्रकट करते हैं:
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असभ्य जनसंवास दर्शनोत्थैर्न मध्यते । मोहानुरागविद्वेषैर्विविक्तवसतिं श्रितः ॥ ३१ ॥
जो साधु एकान्त स्थानमें निवास करता है वह असभ्य लोगोंके सहवास अवलोकन संभाषण आदिके द्वारा उत्पन्न होनेवाले मोह - अज्ञान अथवा ममत्व यद्वा अनुराग विद्वेष प्रभृति दोषों से दूषित अथवा त्रस्त नहीं हो सकता । जैसा कि कहा भी है कि:
कलहो रोळं झञ्झा व्यामोहः संकरो ममत्वं च । ध्यानाध्ययनविघातो नास्ति विविके मुनेर्वखतः ॥
असाधु लोगों के पास में रहनेसे किसी भी प्रकारका झगंडा टंटा. या कोलाहल नहीं हो सकता । न किसी प्रकारका परिणामोंमें संक्लेश ह्री हो सकता है। असंयमी पुरुषोंके साथ मिश्रण होते रहने से संयम के पालन में हानि पहुंचती है । और ध्यान तथा स्वाध्याय में बाधा उपस्थित होती है ।
बाह्य तपके छठे मेद कायक्लेशका लक्षण बताकर उसका पालन करनेके लिये साधुओं को प्रेरित करते हैं:ऊर्ध्वाद्ययनैः शवादिशयनवीरासनाद्यासनैः, स्थानैरकपदाग्रगामिभिरनिष्ठीवाग्रिमात्र ग्रहैः । यागैश्चातपनादिभिः प्रशमिना संतापनं यत्तनोः, कायक्लेशमिदं तपोऽर्युग्नतौ सद्ध्यानासिद्ध्यै भजेत् ॥ ३२ ॥
पीडा या दुःखों के आकर उपस्थित होनेपर भी प्रशस्त ध्यानसे विचलित न होकर उलटा उनको मले प्रकार सिद्ध करनेके लिये जिन क्रियाओंके करनेसे शरीरको क्लेश पहुंच सकता है उन क्रियाओंके करनेको काय
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क्लेश कहते हैं। यह तप भी मुमुक्षुओंके लिये आवश्यक है । अत एव प्रशान्त तपस्वियोंको इसका नित्य ही सेवन करना चाहिये। .
यह शरीरके कदर्थनरूप तप अयन शयन आदि अनेक उपायोंके द्वारा सिद्ध हुआ करता है। प्रकृतमें यह उपाय छह प्रकार बताया है। यथा अयन, शयन, आसन, स्थान, अवग्रह. और योग। इनमें भी अयनके अनुसूर्यादिक, शयनके शवशय्यादिक, आसनके नीरासनादिक, स्थानके एकपदादिक, अवग्रहके अनिष्ठीवनादिक, और योगके आतपनादिक अनेक उत्तर भेद होते हैं । जैसा कि कहा भी है कि
ठाणसयणासणेहिं विविहेहिमवग्गहेहिं बहुगेहिं । अणुवीचीपरिताओ कायकिले सो हवदि एसो॥ उत्तर मेदोंके नाम इस प्रकार हैं: -- अनुसूर्य प्रतिसूर्य तियक्सूर्य तथो+सूर्य च । तद्भमकेणापि गतं प्रत्यागमन पुनर्गत्वा ।। साधारं सविचार ससन्निरोधं तथा विसृष्टाङ्गम) समणदमेकपादं गृङ्गस्थित्या यतेः स्थानम् ।। समपर्यङ्कनिषद्योऽसमयुतगोदोहिकास्तथोत्कुटिका । मकरमुखहस्तिहस्ती गोशय्या चार्धपर्यङ्कः ।। वीरासनदण्डाद्या यतोवंशय्या च लगडशय्या च । उत्तानमवाक्शयनं शवशय्या चैकपाचशय्या च ।। अभ्रावकाशश्य्या निष्ठीवनवर्जनं न कण्डूया।' तृणफलकशिलेलास्वावसेवन केशलोचं च ॥ स्वापषियोगो रानापमानमदन्तघर्षणं चैव । कायलेशतपोदः शीतोष्णावापनाप्रभृति ॥
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अयन-इसके अनुसूर्य आदि अनेक भेद हैं । सूर्यके सन्मुख गमन करने को अनुसूर्य, सूर्यको पीठकी तरफ करके गमन करनेको प्रतिसूर्य, और वाम भागमें अथवा दक्षिण भागमें सूर्यको करके गमन करनेको तिर्यक्सूर्य, तथा शिरके ऊपर सूर्यको करके गमन करनेको ऊर्ध्वसूर्य कहते हैं । इसी प्रकार सूर्य जिधर जिधरको धूमता जाय उधर उधर ही घूमते जानेको सूर्यभ्रमगति और किसी ग्रामादिक या तीर्थादिक स्थानको जाकर यहाँसे पुनः लोटनेको गमनागमन कहते हैं । इसी तरह अयनके अनेक भेद होते हैं।
स्थान-इसके भी साधारादिक अनेक मेद हैं । कायोत्सर्ग धारण करने को स्थान कहते हैं। जिसमें स्तम्भादिकका आश्रय लेना पडे उसको साधार, जिसमें संक्रमण पाया जाय उसको सविचार, जो निश्चलरूपसे धारण किया जाय उसको ससनिरोध, जिसमें सम्पूर्ण शरीर छोडदिया जाय-ढीला डाल दिया जाय उसको विसृष्टाङ्ग, जिसमें दोनों पैर समान रक्खे जाय उसको समपाद, एक पैरसे खडे होनेको एकपाद, और जिस तरह गृद्ध पक्षी उजते समय अपने दोनो पंख ऊपरको करलेता है उसी प्रकार दोनों भुजाओंको ऊपर करके जो कायोत्सर्ग धारण किया जाता है उसको प्रसारितबाहु कायोत्सर्ग कहते हैं । इस तरह स्थानके भी अनेक भेद हैं।
आसन-जिसमें पिंडलियां और स्फिक् बराबर मिलजाय इस तरहसे बैठनेको समपर्यङ्कासन कहते हैं। इससे उल्टा असमपर्यङ्कासन हुआ करता है । जिस तरह गोके दुहनेके समय बैठते हैं उसी तरहसे ध्यानादिके लिये बैठनेको गोदोहासन कहते हैं। ऊपरको संकुटित होकर बैठनेका नाम उत्कुाटकासन है । मकरके मुखकी तरह दोनो पैरोंको बनाकर बैठनेका नाम मकरमुखासन है । हाथीकी सूंडकी तरह एक पैरको अथवा एक हाथको फैलाकर बैठने का नाम हस्तिहस्तासन है । जिस तरह गौ बैठती है उस तरहसे बैठने को मोशय्यासन कहते हैं । अर्धपर्षङ्कासन शब्दका अर्थ स्पष्ट ही है । दोनो जंघाओंको दूरवर्ती रख कर बैठनेक - नाम वीरासन है। जिसमें शरीर दण्डके समान आयत बनजाय इस तरहसे बैठनेको दण्डासन कहते हैं । इस प्रा कार आसनके अनेक भेद हैं।
शयन- शरीरको संकुचित करके सोनेको लगडशय्या कहते हैं । ऊपरको मुख करके सोनेका नाम उतानशय्या, और नीचेको मुख करके सोनेका नाम अवाक्शय्या है । शवकी तरह पडकर सोनेको शवशश्या कहते
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हैं। वाम या दक्षिण किसी भी एक भागसे सोनेको एकपार्श्वशय्या कहते हैं । बाहिर निरावरण स्थान में सोनेको अवकाशशय्या कहते हैं । इस प्रकार शयन के भी अनेक भेद होते हैं।
अवग्रह - अनेक प्रकारकी बाधाओंके जीतनेको अवग्रह कहते हैं । यह भी अनेक प्रकारका हो सकता हैं । यथा - थूकने वो खकारनेकी बाधाको जीतना, छींक या जंभाईको रोकना, खुजली मालुम पडनेपर भी खुजाना नहीं, तृप्प कांटा या किसी तरहकी लकडी आदिके लगजानेपर खिन्न न होना, फोडा फुंसी या फफोला आदिके होजानेपर भी दुःखी न होना, कंकड पत्थरोंके लगजानेपर या वैसी निम्नोन्नतादिक भूमिके स्पर्श से भी खेद न मानना, यथासमय केशों का उत्पाटन करना और उसकी पीडाकी तरफ लक्ष्य न देना, रात्रि में भी नहीं सोना, कभी स्नान न करना, और न कभी दांतोंको मांजना । इत्यादि अवग्रहके अनेक भेद हैं। क्योंकि जिन क्रियाओं और अभिप्रायोंसे धर्मकृत्यों के साधन करने में सहायता मिल सकती है उन सभीको अवग्रह कह सकते हैं।
योग — इसके भी आतपनादिक अनेक भेद हैं। आतपन कहलाता है । इसी प्रकार वर्षा ऋतु में वृक्षके नीचे इत्यादि अनेक प्रकारसे योग हुआ करता है।
ग्रीष्म ऋतु में पर्वत के शिखरपर सूर्य के सम्मुख खडे होना और शीतकाल में चौरायेपर ध्यानादिके लिये बैठना;
भावार्थ -- यह बात पहले भी कही जा चुकी है कि दुःखोंको सहन करनेका अभ्यास न रहनेसे कदाचित दुःखों के उपस्थित होते ही ज्ञान ध्यान आदि सब कुछ छूट जाता है अत एव साधुओं को अपनी शक्ति के अनुसार दुःखों के सहन करते रहने का अभ्यास करना चाहिये । इसीलिये यहांपर अनेक उपायोंसे कायक्लेश करनेका उपदेश दिया है जिससे कि स्वाध्याय और ध्यानादिकके साधनमें तथा दूसरे भी सम्पूर्ण अवश्यपालनीय कर्तव्योंमें आ पक्षियोंके आजानेपर बाधा न पड जाय ।
इस प्रकार बाहरङ्ग तबके छह भेदोंका वर्णन समाप्त हुआ। अब अन्तरङ्ग तपका व्याख्यान करते हैं । इस तपके प्रायश्चित्तार्दिक छह भेदोंका नाम पहले लिखा जा चुका है । यहांपर सबसे पहले यह बताते हैं कि तपके इन छह भेदोंको अन्तरम कहनेका कारण क्या है १ :
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धर्म०
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प्रनगार
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बाह्यद्रव्यानपेक्षत्वात् स्वसंवेद्यत्वतः परैः।
अनध्यासात्तपः प्रायश्चित्ताद्यभ्यन्तरं भवेत् ॥ ३३ ॥ प्रायश्चित्त प्रभृति तपोंमें बाह्य द्रव्यकी अपेक्षा नहीं है, उसमें मुख्यतया अन्तःकरणके परिणामोंका ही एम्बन्ध रहता है। इसके सिवाय इनका स्वयं ही संवेदन होता है, प्रायः करके इनका स्वरूप बाह्येन्द्रियों के द्वारा देखनेमें नहीं आसकता । तथा जिस प्रकार अनशनादिकोंको अनाहत लोग धारण किया करते हैं उस प्रकार वे प्रायश्चित्तादिको धारण नहीं करते । अत एव प्रायश्चित्त विनय वैयावृत्य खाध्याय व्युत्सर्ग और ध्यान इन छह तपोंको अन्तरंग माना है ।
प्रायश्चित्तका लक्षण और उसके अवान्तर भेदोंकी संख्या बताते हैं:--
यत्कृत्याकरणे वाऽवर्जने च रजोर्जितम् ।।
सोतिचारोत्र तच्छुद्धिः प्रायश्चित्तं दशात्म तत् ॥ ३४ ॥ जिनका अवश्य ही पालन करना चाहिये ऐसे षडावश्यक प्रभृति कृत्योंका पालन न करनेसे और जो वर्ण्य हैं-जिनका कभी भी पालन न करना चाहिये ऐसे सादिक कर्मोंका त्याग न करनेसे अथवा उनका अनुष्ठान करनेसे जो पापका संचय होता है उसको अतिचार कहते हैं । इस अतिचार या पापकी शुद्धिका ही नाम प्रायश्चित्त है। इसके आलोचनादिक दश भेद हैं। जैसा कि आगे चलकर वर्णन करेंगे।
दो श्लोकों में प्रायश्चित्तके पालन करनेका प्रयोजन प्रकट करते हैं:
प्रमाददोषविच्छेदममर्यादाविवर्जनम् । भावप्रसादं निःशल्यमनवस्थाव्यपोहनम् ॥ ३५॥
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बनगार
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चतुर्डीराधनं दाढ्यं संयमस्यैवमादिकम् ।
सिसाधयिषताऽऽचयं प्रायश्चित्तं विपश्चिता ॥३॥ जो साधु चारित्रके पालन करने में असावधानताके कारण लगे हुए दोषों-अतीचारोंका परिहार करना चाहता है, और मर्यादाके उल्लंघनको छोड़ना चाहता है-चाहता है कि मुझसे प्रतिज्ञात व्रतोंका उल्लंघन किसी भी प्रकार न हो, जैसा कि कहा भी है कि:--
महातपस्तडागस्य संभृतस्य गुणाम्भसा ।
मर्यादापालिबन्धेऽल्पावप्युपैशिष्ट मा क्षतिम् ।। यह महान् तप एक प्रकारका बडा भारी तलाव है जो कि गुणरूपी जलसे भरा हुआ है । मर्यादा-इसके | किनारे-पार हैं। चाहें ये किनारे छोटेसे ही क्यों न हों, फिर भी उनको तोडनेका प्रयत्न न करना चाहिये ।
इसके सिवाय जो साधु परिणामोंसे कश्मलताको दूर कर अन्तरङ्ग भावोंमें प्रसत्ति उद्भूत करना चाहता है, तथा माया मिथ्या और निदान इन तीन शल्योंको-अन्तरंगके स्खलनरूप अतीचारोंको हटाना चाहता है, एवं अनवस्था-अपराधके भी ऊपर अपराध करते जानेका निराकरण करना चाहता है, सम्यग्दर्शनादिक चारो आराधनाओंको उद्योतित करना चाहता है, संयमके साधनमें दृढता उत्पन्न करना चाहता है, और इसी तरहके
और भी अनेक सुप्रयोजनोंको सिद्ध करना चाहता है उस विवेकी साधुको प्रायश्चित्त तपका अनुष्ठान अवश्य ही करना चाहिये।
प्रायश्चित्त शब्दका निरुक्तिसिद्ध अर्थ बताते हैं:प्रायो लोकस्तस्य चित्तं मनस्तच्छुद्धिकृस्त्रिया । प्राये तपसि वा चित्तं निश्चयस्तन्निरुच्यते ॥ ३७॥ .
अतीचारोंको
जानका निराक
रना चाहता है.
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बनगार
प्रायः शब्दका अर्थ लोक और चित्त शब्दका अर्थ मन होता है । अत एव उस क्रिया या अनुष्ठानको प्रायाश्चत्त कहते हैं जिसके कि करनेसे अपने साधर्मी और सङ्घमें रहनेवाले लोगोंका मन अपनी तरफसे शुद्ध हो जाय । किसीसे अपराध बनजानेपर सहवर्तियों के मन में जो ग्लानि उत्पन्न हो जाती है वह जिस कर्मके करनेसे दूर हो जाय उसीको प्रायश्चित्त कहते हैं।
· अथवा प्रायः शब्दका अर्थ तप और चित्त शब्दका अर्थ निश्चय होता है। अत एव अनशन अब. मोदय आदि तपोंके विषयमें उनकी अनुष्ठेयताके श्रद्धान करनेको भी प्रायश्चित्त कहते हैं।
साधुओंका चित्त जिस कर्ममें लीन हो या रहना चाहिये उस कर्मको अथवा अपराधके संशोधनको भी प्रायश्चित्त कहते है।
इस प्रायाश्चत्त नामक तपके दश भेद माने हैं। यथा:-आलोचन प्रतिक्रमण तदुभय [ आलोचनप्रतिक्र. मण ] विवेक व्युत्सर्ग उप छेद मूलपरिहार और श्रद्धान । इनसे क्रमके अनुसार पहले भेद आलोचनका स्वरूप और उसके भेद दिखाते हैं:
सालोचनाद्यस्तद्भेदः प्रश्रयाद्धर्मसूरये।
यद्दशाकम्पिताधूनं स्वप्रमादनिवेदनम् ॥ ३८ ॥ धर्माचार्यके सम्मुख विनय और भक्तिसे नम्र होकर अपने प्रमाद और तज्जनित दोषोंको छोडकर निवेदन करदेने का नाम आलोचन प्रायश्चित्त है । जैसा कि कहा भी है कि:
मस्तकविन्यस्तकरः कृतिकर्म विधाय शुद्धचेतस्कः ।
आलोचयति सुविहितः सर्वान् दोषांस्त्यजन् रहसि ॥ आलोचन प्रायश्चित्तके विषयमें एक बात विशेष समझनेकी है । वह यह कि पुरुष यदि अपने दोषोंक। आलोचन करे तो एकान्तमें भी कर सकता है, किंतु स्त्रियोंको ऐसा न करना चाहिये । उन्हे दो या तीनके आश्रयसे तथा प्रकाशमें ही आलोचन करना उचित है। .
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आलोचन के सम्बन्धमें देशकालके विधानका निर्णय करते हैं:
प्राङ्गेऽपराह्ने सद्देशे बालवत् साधुनाखिलम् ।
स्वागस्त्रिरार्जवाहाच्यं सूरेः शोध्यं च तेन तत् ॥ ३९ ॥
अपराध करनेवाले साधको अपना सम्पूर्ण पाप धर्माचार्य के सम्मुख माया या कपटको छोडकर चालककी तरह ज्योका त्यों कहदेना चाहिये । तथा याद कर करके तीन वार कहना चाहिये । जैसा कि कहा भी
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इयमुजुभावमुवगदो संवेदो सेसारं तु तिक्खतो । लेस्साहि विसुझंतो उवेदि सल्लं समुद्धरिदुं ॥ जह बालो जपतो कजमकजं च उज्जुगं भणदि ।
तह आलोचेदव्वं मायामोसं चमोत्तणं ।।। • इस प्रकार जब साधु अपने दोषोंका निवेदन कर चुके तर धमाचार्यको प्रात:कालके समय अथवा सायंकाल के समय प्रशस्त स्थानमें और उत्तम लममें सुनिरूपित प्रायश्चित्त देकर उस साधुके अपराधका निराकरण करदेना चाहिये।
अहंदगृह सिद्धक्षेत्र समुद्र कमलसरोवर क्षीरफलोंसे व्याप्त स्थान ओर तोरण उद्यान आदि स्थान आलोचन करने और प्रायश्चित्त देनेके लिये उत्तम और प्रशस्त मानेगये हैं। आचार्यगण ऐसे स्थानोंपर ही साधका शुद्ध करनेकेलिये आलोचना कराना चाहते हैं ।
स्थानकी तरह लग्नके विषयों में शुभ चन्द्रमा तिथि नक्षत्र घडी आदि देखलेना उचित है । जैसा कि कहानी है कि:
आलोचणादिआ पुण होदि पसत्थेवि सुद्धभावं सा। पुव्वले अवरहे सोम्मतिहीरिक्खवेलाए ।।
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जिस रत्नत्रयमार्गका साधु आराधन करता है उसका यदि एकदेशरूपसे विराधन होजाय तब तो आकपितादिक दश दोषोंसे रहित पदविभागकी नामकी आलोचना करनी चाहिये । और यदि दोष बडा हो या स्मरणमें न आसके अथवा प्रतभंग हो जाय तो औधी नामक आलोचना करना उचित है । इसी बातका दश दोषों के नाम और लक्षण बताते हुए पांच पद्यों में वर्णन करते हैं:
आकम्पितं गुरुच्छेदभयादावर्जनं गुरोः । तपःशूरस्तवात्तत्र स्वाऽशक्त्याख्यानुमापितम् ॥ ४॥ यद् दृष्टं दृषणस्यान्यदृष्टस्यैव पृथा गुरोः । बादरं बादरस्यैव सूक्ष्मं सूक्ष्मस्य केवलम् ॥ ११ ॥ छन्नं कीदृक्चिकित्से दृग्दोषे पृष्टेति तद्विधिः । शब्दाकुलं गुरोः स्वागः शब्दनं शब्दसंकुले ॥ ४२ ॥ . दोषो बहुजनं सूरिदत्तान्यक्षुण्णतत्कृतिः । बालाच्छेदग्रहोऽव्यक्तं समात्तत्सेवितं त्वतौ ॥ ४३ ॥ दशेत्युज्झन् मलान्मूलाप्राप्तः पदविभागिकाम् ।
प्रकृत्यालोचनां मूलप्राप्तश्चौघी तपश्चरेत् ॥ १४ ॥ (पञ्चकम् ) जिस रत्नत्रयमार्गका साधु आरधन करता है उसका प्रमादवश एक देशरूपसे विराधन होजानेपर मुमुक्षुको दश दोष छोडकर पदविभागिका नामक आलोचन करके प्रायश्चित्त तपका अनुष्ठान करना चाहिये
विशेष आलोचनाको पदविभागिका कहते हैं। जिस सम दीक्षा ग्रहण की हो उसी समयसे जो जब जहां
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और जिस तरहसे अपराध बनगया हो उसको उसी समय और उसी जगह तथा उसी तरह प्रकाशित करनेको । विशेष आलोचन कहते हैं।
जिसने अपने व्रतादिकको सर्वात्मना भंग करदिया है उसको दश दोष रहित औधी आलोचना करना चाहिये । सामान्य आलोचनको औघो कहते है।
आलोचन करते समय जिन दश दोषों को छोडना चाहिये उनका लक्षण इस प्रकार है--
१-आचार्य महान् प्रायश्चित न दें इस भय और शंकासे उपकरण आदि देकर अथवा किसी अन्य उपायसे उनको थोडा प्रायश्चित्त देने के लिये अपने अनुकूल करनेका नाम आकम्पित दोष है ।
२--ार्थना करनेपर गुरु थोडासा ही प्रायश्चित्त देकर मुझपर अवश्य ही अनुग्रह करेंगे इस बातको अनु. मानसे जानने के बाद " उन वीरपुरुषोंको धन्य है जो कि उत्कृष्ट तप किया करते हैं या कर सकते हैं " इस तरह
से तपाशुर पुरुषोंकी स्तुति करके तपक विषयमें अपनी अशक्ति जाहिर कर अपने अपराध के प्रकाशित करनेको | अनुमापित दोष कहते हैं।
३-यदि अपने अपराधको किसीने देखलिया तब तो गुरुके समक्ष कह दिया, अन्यथा नहीं। इस तरह दूसरेके द्वारा देखे हुए ही दोष के प्रकाशित करने को दृष्ट दोष कहते हैं।
-गुरुके सामने छोटे छोटे अपराधों को तो छिपा लेना और केवल बडे बडे ही अपराधोंको जाहिर करना इसको बादर दोष कहते हैं।
५-स्थूल दोषों को छिपाकर केवल सूक्ष्म दोषोंको ही गुरुके सम्मुख निरूपण करना इसको मूक्ष्म दोष कहते हैं।
६-अपने दोषके उद्देशसे गुरुसे यह पूछना कि ऐसा अपराध बन जानेपर, क्या प्रायश्चित्त होना चाहिये ? किन्तु अपने दोषको जाहिर न करना। और उत्तरमें गुरुसे प्रायश्चित्त मालुम होजानेपर उसका चुपकेसे अनुष्ठान करलेना इसको छन्न दोष कहते हैं ।
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७-पक्षादिक अतीचारोंकी शुद्धिके समय जहाँपर बहुतसे लोगोंका शब्द हो रहा हो वहांपर उस कोलाहलमें ही गुरुके सामने अपने दोष कथन करनेको शब्दाकुल दोष कहते हैं ।
८-अपने गुरुके दिये हुए प्रायाश्चत्तका दूसरे भी उस विषयके दक्ष व्यक्तियोंसे चर्चा कर पालन करनेको बहुजन दोष कहते हैं।
९-अपनेसे ज्ञान वा संयममें जो हीन है उससे प्रायश्चित्त ग्रहण करने को अव्यक्त दोष कहते हैं। १०--अपने समान-अपराधी-पार्श्वस्थसे प्रायश्चित्त ग्रहण करनेको तत्सेवित दोष कहते हैं।
इस प्रकार आलोचनके दश दोष बताये हैं। इन दोषोंको छोड कर ही गुरुके सामने अपने दोषोंका आलोचन करना चाहिये । क्योंकि इस तरहके आलोचनके विना किया हुआ महान् भी तप संवरकी सहवर्तिनी निर्जराका कारण नहीं हो सकता । किंतु केवल आलोचन ही कार्यकारी है ऐसा भी न समझना चाहिये। क्योंकि आलोचन करनेपर भी अन्य विहित विधियोंका आचरण न करनेवाला साधु सर्वथा दोषोंसे रहित नहीं हो सकता । अत एव सर्वदा दोनों ही कामोंका करना आवश्यक है-आलोचन भी करना चाहिये और गुरुनिरूपित उचित आचरणका पालन भी करना चाहिये । इसी बातकी शिक्षा देते हैं:--
सामौषधवन्महदपि न तपोऽनालोचनं गुणाय भवेत् । मन्त्रवदालोचनमपि कृत्वा नो विजयते विधिमकुर्वन् ॥ १५॥
मन्त्रवदाला
जिस प्रकार विना विचार किये ही दी हुई सामदोषसे युक्त महान् भी औषध आरोग्यके करनेवाली नहीं हो सकती उसी प्रकार उपर्युक्त आलोचनके विना किया हुआ महान् भी तप आत्माके लिये गणकारी नहीं हो सकता। क्योंकि अनालोचित तपसे संवर और निर्जरा दोनो नहीं हो सकते । इसी तरह मन्त्र के समान आलो. चनको करके भी विहित आचरणका अनुष्ठान न करनेवाला भी तपखी दोषोंका विजेता नहीं बन सकता ।
कार्य आरंभ करने के उपायका गुप्त रूपसे विचार करना इसको मन्त्र कहते हैं । शत्रुओंके द्वारा अपना वि.
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निपात तो न हो और अपने कार्यकी सिद्धि हो ही जाय इसकेलिये पांच बातोंका विचार करना पडता है-पुरुष द्रव्य संपत्ति देश और काल । इस प्रकार पञ्चाङ्ग मंत्रको करके भी यदि कोई राजा अपने विहिताचरणमें प्रवृत्त न हो तो वह शत्रुओंपर विजयी नहीं हो सकता । इसी प्रकार आलोचन करके भी विधिविहिताचरणका अनुष्ठान न करनेवाला तपस्वी दोषरहित नहीं हो सकता।
भावार्थ-आलोचन और विहित आचरण करनेपरी साधु अभीष्ट सिद्ध कर सकता है, अन्यथा नहीं।
जिसका मन सद्गुरुओंके दिये हुए प्रायश्चित्तम लीन रहता है वह साधु अवश्य ही महती दीप्तिको प्राप्त करता है। यह बात दृष्टान्तद्वारा स्पष्ट करते हैं।
- यथादोषं यथाम्नायं दत्तं सद्गुरुणा वहन् ।
रहस्यमन्तर्भात्युच्चैः शुद्धादर्श इवाननम् ॥ १६ ॥ जिसके भीतर मुखका प्रतिबिंब पड़ा हुआ है ऐसा निर्मल दर्पण जिस प्रकार अतिशय शोभाको प्राप्त होता है उसी प्रकार जो तपस्वी आम्नायके अनुसार और जैसा दोष हो उसके अनुरूप सद्गुरुओंके दिये हुए प्रायश्चित्तको हृदयमें धारण करता है वह अतिशय दीप्तिको प्राप्त होता है। क्रमके अनुसार प्रायश्चित्तके दूसरे भेद-प्रतिक्रमणका स्वरूप बताते हैं:
मिथ्या मे दुष्कृतमिति प्रायोऽपायैर्निराकृतिः ।
कृतस्य संवेगवता प्रतिक्रमणमागसः॥१७॥ संसारसे भीरु और विषयभोगोंसे तथा शरीरादिकसे विरक्तचित्त साधुके द्वारा “मेरा सम्पूर्ण दुष्कृत्य मिथ्या हो जाय, मुझसे जो जो पाप बने हैं वे सब शान्त हो जाय" इस तरहके उपायोंसे अपने किये हुए अपराधोके निराकरण किये जानेको प्रतिक्रमण कहते हैं।
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भावार्थ-जिन बातोंसे धर्मकथादिकमें व्यवधान पड़ सकता है उन कारणोंके मिलनेपर यदि उन | विषयोंमें उपयुक्त योगोंका विस्मरण हो जाय और उस समय गुरु निकटवर्ती न हों तो संवेग और निर्वेदसे युक्त साधु उन विषयोंका पुनः अनुष्ठान करता है और अपने किये हुए अल्प अपराधका ' मुझसे जो यह अपराध बन गया सो मिथ्या हो, अब फिर मैं ऐसा न करूंगा।' इस तरह कहकर निराकरण करता है। इस तरहके निराकरण करनेको ही प्रतिक्रमण कहते हैं।
किसी किरीका ऐसा भी कहना है कि इस निराकरण करनेमें अपने दोषोंका नाम लेकर उच्चारण भी करना चाहिये। जैसे कि मेरा अमुक दोष मिथ्या हो, मुझसे अमुम अपराध बनगया सो भी मिथ्या हो। इस तरहके अभिव्यक्त प्रतीकारको प्रतिक्रमण समझना चाहिये। किंतु इस तरहका प्रतिक्रमण करने की जिसको आचार्यने आज्ञा दी हो उसी शिष्यको करना चाहिये।
प्रायश्चित्तके तीसरे भेद तदुभयका लक्षण बताते हैं:
दुःस्वप्नादिकृतं दोषं निराकतु क्रियेत यत् ।
• आलोचनप्रतिकान्तिद्वयं तदुभयं तु तत् ॥ ४८ ॥ . दुःस्वप्न अथवा सक्लेशादिक परिणामोंसे उत्पन्न हुए दोषका निराकरण करनेके लिये जो उपर्युक्त आलोचन और प्रतिक्रमण दोनोंका करना इसको तदुभय कहते हैं । इसमें इतनी विशेषता है कि आलोचन और प्रतिक्रमण कुछ विशिष्ट हुआ करता है । अत एव जैसी गुरु आज्ञा करें तदनुसार ही शिष्यको करना चाहिये । तथ आलोचन शिष्यको ही और आलोचन कराकर प्रतिक्रमण आचार्यको ही करना चाहिये।
विवेकका लक्षण बताते हैं:संसक्तेन्नादिक दोषान्निवर्तयितुमप्रभोः ।
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यत्तद्विभजनं साधोः स विवेकः सतां मतः ॥ ४९ ॥
आपस में मिले हुए अथवा संमूर्च्छित अन्नादिकमें जो ऐसे दोष हों जिनका कि पृथकरण न हो सकता हो तो उस अवस्थामें उस अन्नपान या उपकरणादिके छोडदेने को विवेक कहते हैं ।
प्रकारान्तरसे इसीका लक्षण बताते हैं:
विस्मृत्य ग्रहणेऽप्रासोग्रहणे वाऽपरस्य वा ।
प्रत्याख्यातस्य संस्मृत्य विवेको वा विसर्जनम् ॥ ५०॥
यदि कोई सचित्त वस्तु भूलसे ग्रहण करने करानेमें आजाय तो उसके छोडदेने को विवेक कहते हैं । अथवा कोई वस्तु प्रासु तो है पर छोडी हुई है ऐसी वस्तु भी ग्रहण होजानेपर भले प्रकार प्रतिग्रहपूर्वक याद करके उसके छोड देने को विवेक कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि
“ शक्तिको न छिपाकर और प्रयत्नपूर्वक छोडते हुए भी कदाचित् किसी कारण से यदि अप्रासुक वस्तु ग्रहण करने या कराने में आजाय, अथवा प्रासुक किंतु प्रत्याख्यात वस्तु भूलसे ग्रहण करनेमें आजाय तो याद करके उस वस्तु के छोडनेको विवेक कहते हैं। " इसके सिवाय किसी किसीने विवेकका अर्थ इस प्रकार बताया हैकि—“ शुद्ध भी वस्तु में अशुद्धताका संदेह अथवा विपर्यास हो जानेपर यद्वा अशुद्ध वस्तु में शुद्धताका निश्चय होजा नेपर, या छोडी हुई प्रासुक वस्तु, पात्र अथवा मुखमें प्राप्त हो जाय, यद्वा जिस वस्तुके ग्रहण करनेपर कषायादिक उत्पन्न होते हो, उन सम्मर्ण वस्तुओं के परित्यागको विवेक कहते हैं ।
क्रमप्राप्त व्युत्सर्ग प्रायश्चित्तका स्वरूप बताते हैं:स व्युत्सर्गे मलोत्सर्गाद्यती चारेवलम्ब्य सत् । ध्यानमन्तर्मुहूतोंद कायोत्सर्गेण या स्थितिः ॥ ५१ ॥
RA ALL GEASSSSSSOM RATED ASSASSINICAL
धर्म ०
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मलोत्सर्ग दुःस्वप्न या दुश्चिन्तन प्रभृतिका अतीचार लगजानेपर अन्तर्मुहूर्त दिन पक्ष यद्वा महीना आदि कालका प्रमाण करके उतने समय तक देहसे ममत्व छोडकर प्रशस्त ध्यानको धारण करके खडे रहनेको व्युत्सर्ग कहते हैं। किसी किसीने नियत समयतक मन वचन कायके परित्यागको व्युत्सर्ग बताया है।
तप प्रायश्चित्तका लक्षण बताते हैं :कृतापराधः श्रमणः सत्त्वादिगुणभूषणः ।
यत्करोत्युपवासादिविधि तत्क्षालनं तपः ॥ ५२ ॥ जो तपस्वी सत्व धैर्य आदि अनेक गुणों से अलंकृत है फिर भी उससे किसी प्रकारका अपराध बनगया -विधिविहित आचरणका अतिक्रमण होगया उस अवस्थामें यदि वह अपने अपराधका प्रक्षालन करनेके लिये उपवास एक स्थान आचाम्ल निर्विकृति आदि बाह्य तपोंको करता है तो उसकी इस क्रियाको तप नामक प्रायश्चित्त कहते हैं।
___ ऊपर आलोचनादिक छह प्रकार के प्रायश्चित्तका स्वरूप बताया है। अब यह बताते हैं कि किस किस अपरा. धके विषयमें ये प्रायश्चित्त करने चाहिये।
भयत्वराशक्त्यबोधविस्मृतिव्यसनादिजे ।
महाव्रतातिचारेमुं षोढा शुद्धिविधि चरेत् ॥ ५३॥ भयत्वरा-डरकर भाग जाना, अशक्ति-सामर्थ्य की हीनता, अबोध-अज्ञान, विस्मृति-विस्मरण, व्यसन-यवनादिकोंका आतङ्क, इसी तरहके रोग अभिभव आदि और भी अनेक कारणोंसे महावतोंमें अतीचार लगजानेपर तपस्वियोंके उपयुक्त छह प्रकारकी शुद्धिविधि-प्रायश्चित्त करनी चाहिये ।
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भावार्थ – आगम में भिन्न भिन्न अपराधोंके लिये भिन्न भिन्न प्रकारका ही यश्चित्त भी बताया है। अत एव तपस्वियों को आलोचन प्रतिक्रमण तदुभय विवेक व्युत्सर्ग और तप इन छडमेंसे यथायोग्य – अपराधके अनुरूप प्रायश्चित्त लेकर अपराधकी शुद्धि करलेनी चाहिये । जैसे कि
आचार्य से पूछे विना आतापन आदिके करनेपर, दूसरे के परोक्षमें उसकी पुस्तक पीछी आदि उपकरणोक लेलेनेपर, प्रमादमे आचार्य प्रभृतिकी आज्ञाका पालन न करनेपर, संघके स्वामीसे पूछे बिना उसके प्रयोजनसे कहीं भी जाकर पुनः आजानेपर दूसरे संघसे बिना पूछे अपने संघ में आजानेपर, देशकालके नियमानुसार जिन विशेष व्रतोंका अवश्य ही पालन करना चाहिये उनको धर्मकथा अदिके व्यासङ्गसे भूलजानेपर किन्तु पुनः उनका पालन करलेनेपर, इसी तरह के और भी अपराध बनजानेपर केवल आलोचन प्रायश्चित्त करना चाहिये । पांच इन्द्रिय और छट्ठा मन तथा इसी तरह वचन आदि क्रियाओंका भी दुरुपयोग होजानेपर, आचार्य आदिसे अपने हाथ पैर आदिका धक्का लगजानेपर, व्रत समिति और गुप्तियोंका पालन अत्यंत अल्प होनेपर, चुगली अथवा कलह आदि करनेपर, वैयावृत्य और स्वाध्याय आदिमें प्रमाद करनेपर, गोचरीकेलिये जाते हुए जननेंद्रिय में विकार होजानेपर इसी तरह और भी संक्लेश करनेवाली क्रियाओंके होजानेपर प्रतिक्रमण प्रायश्चित करना चाहिये। यह प्रायश्चित दिन और रात्रिके अन्तमें - सायंकाल और प्रातःकाल तथा भोजनकेलिये जाने आदि के समय किया जाता है। जैसा कि इसकी व्यहार प्रसिद्ध भी है।
केशलोच नखाँका छेदन दुःस्वप्न और इन्द्रियोंका अतीचार तथा रात्रिभोजन में पक्ष मास संवत्सर आदिका दोष लगजानेपर उभय प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिये ।
मौन आदिके धारण किये बिना ही आलोचन करनेपर, उदरमेंसे क्रिमिके निकलनेपर, हिम अथवा दंशमशक आदि के निमित्तसे यद्वा महावातादि के संघर्ष से अतीचार लगजानेपर, स्निग्ध भूमि हरित तृण यद्वा कर्दम आदि के ऊपरसे चलनेपर, घोंटुओं तक जलमें प्रवेश करजानेपर, अन्यनिमित्तक वस्तुको अपने उपयोग में लेआनेपर नावके द्वारा नदीपार होनेपर, पुस्तक या प्रतिमा आदिके गिरादेनेपर पंच स्थावरोंका विघात होजानेपर, यद्वा वि
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धर्म •
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ना देखे हुए स्थानमें शारीरिक मलके छोडदेनेपर, पक्षसे लेकर प्रतिक्रमण क्रिया पर्यन्त व्याख्यान प्रवृत्यन्तादिकोंमें केवल कायोत्सर्ग ही प्रायश्चित किया जाता है। थूकने या पेशाव आदिको करनेपर तो कायोत्सर्गका करना प्रसिद्ध ही है। अनशनादि करनेके स्थानको आगमके अनुसार समझलेना चाहिये ।
क्रमानुसार छेद पायाश्चत्तका स्वरूप बताते हैं:चिरप्रव्रजितादृप्तशक्तशूरस्य सागसः ।
दिनमक्षादिना दीक्षाहापनं छेदमादिशेत् ॥ ५४ ॥ जो साधु चिरकालसे दीक्षित होने के सिवाय गवरहित तपस्याओंके करने में समर्थ और शूर है उससे किसी प्रकारका अपराध बनजानेपर उस अपराधकी शुद्धिकेलिये आचार्यद्वारा एक दिन दो दिन पक्ष मास वर्ष दो वर्ष आदि कालप्रमाणसे दीक्षाकालके कम करदिये जानेको छेद कहते हैं।
मूलका लक्षण बताते हैं:मूलं पार्श्वस्थसंसक्तस्वच्छन्देष्ववसन्नके ।
कुशीले च पुनर्दीक्षादानं पर्यायवर्जनात् ॥ ५५ ॥ पहली सम्पूर्ण दीक्षाको खण्डित करके फिरसे नवीन दीक्षा देकर प्रायश्त्तिकी अपेक्षा पर्याय बदलनका मूल नामका प्रायाश्चर कहते हैं। यह प्रायश्चित्त अत्यंत अपराधीको ही दिया जाता है । और ऐसे अपराधी पांच प्रकारके हो सकते हैं-पार्श्वस्थ, संसक्त, स्वच्छन्द, अवसन्न, और कुशील ।
जो श्रमणोंके पासमें वसतिका अथवा मठ बनाकर रहता है यद्वा उपकरणोंसे अपनी आजीविका करत
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है उसको पार्यस्थ कहते हैं । जो वैद्यक मन्त्र अथवा ज्योतिषके द्वारा आजीविका करनेवाले हैं और राजा आदि. कोंकी सेवा किया करते हैं उनको संसक्त कहते हैं । जिसने स्वेच्छाचारी होकर गुरुकुलका परित्याग करदिया है
और जो एकाकी ही उच्छंखल विहार करता हुआ जिनवचनोंक निन्दा करता फिरता है उसको स्वच्छन्द अथवा मृगचारी कहते हैं । जो जिनवचनोंसे अनभिन्न है और जिसने चारित्रका भार अपने ऊपरस उतार दिया है तथा ज्ञान और आचरणसे भ्रष्ट होकर जो इन्द्रियोंके विषयों में अलस बना रहता है उसको अवसन्न कहते हैं। जिसकी आत्मा क्रोधादि कषायोंसे कलुषित रहती है और जो पंच महावत अट्ठाईस मूलगुण तथा शीलके उत्तर भेदोंसे भी रहित है, जो संघका अनुवर्तन नहीं करता उसको कुशील कहते हैं । परिहार प्रायश्चित्तका लक्षण और उसके भेद बताते हैं:
विधिवहगत्यजनं परिहारो निजगणानुपस्थानम् ।
सपरगणोपस्थानं पारश्चिकमित्ययं त्रिविधः ॥ ५६ ॥ शास्त्रमें जैसा कि विधान है उसके अनुसार एक दिन दो दिन पक्ष महीना आदिके विभागसे अपराधीको दूर करदेनेका नाम परिहार प्रायश्चित्त है । यह तीन प्रकारका होता है:-निजगणानुपस्थान, सपरगणोपस्थान, और पारश्चिक।
अपने संघसे निकाल देनेको निजगणानुपस्थान कहते हैं। जो साधु नौ या दश पूर्व ज्ञानका और आदिके तीन उत्तम संहननोंका धारक है, परीषहोंको जीतनेवाला, दृढकर्मा, धीर, वीर ओर संसारसे भीरु है। किन्तु प्रमादसे वह अन्य मुनियोंके छात्रों या ऋषियोंको अथवा दूसरे पाखंडियोंकी चेतन अचेतन द्रव्यको यद्वा परस्त्रीको चुरानमें प्रवृत्ति करता है, मुनियोंके ऊपर प्रहार करता है, या ऐसे ही किसी अन्य विरुद्ध आचरणमें प्रवृत्त होता है तो उ. सको निजगणानुपस्थान नामका प्रायश्चित्त दिया जाता है।
इस प्रायश्चित्तके अनुसार वह दोषी मुनियोंके आश्रमसे कमसे कम ३२ दण्डकी दूरीपर विहार करता
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और रहता है, तथा उतने ही फलसे बाल- अपनेसे छोटे भी मुनियोंकी बन्दना करता है; किन्तु गुरु उसको प्रतिवन्दना न करके ही भले प्रकार उसका आलोचन करते हैं; शेष लोगों में वह मौनव्रतको धारण करता और अपनी पीछfor उल्टी रखता है । उसको जघन्यतया पांच पांच उपवास और उत्कृष्टतया छह महिनेका उपवास करना चाहिये। दोनोंकी उत्कृष्ट अवधि बारह वर्षकी मानी गई है ।
यदि पूर्वोक्त दोषों को ही साधु दर्पसे करे तो उसको परगणोपस्थान नामका प्रायश्चित्त दिया जाता है । इसकी विधि इस प्रकार से है कि, आचार्य उसके आलोचनको सुनकर विना प्रायश्चित्त दिये ही दूसरे आचार्य के पास उसे भेज देते हैं। इसी तरह दूसरे आचार्य तीसरेके पास मंजदेते हैं और तीसरे चौथेके पास भेजते हैं । इस प्रकार सातवे आचार्य के पास तक उसको भेजा जाता है। इसके बाद वहांसे उसको उसी प्रकार वापिस लौटाया जाता है। लौटते लौटते जब वह पहले ही आचार्य के पास आजाता तब वे पहले ही आचार्य उसको प्रायश्चित्त देते हैं और उससे उसका पालन कराते हैं।
जो तीर्थंकर गणधर आचार्य प्रवचन अथवा संघ आदिकी आसादना करता है, अथवा राजाके विरुद्ध आचरण करनेवाला है, राजाके अनभिमत मंत्री आदिको दीक्षा देनेवाला है, राजकुलकी वनिताओ अथवा राजाङ्गनाओं या कुलाङ्गनाओं का सेवन करता है, तथा इसी तरहके अन्य भी अपराध करके धर्मको दूषित करता है, उसको पारश्चिक प्रायश्चित्त दिया जाता है। इसकी विधि इस प्रकार है कि चातुर्वण्यं मुनिसंघ इकट्ठा होकर उसको बुलाता है और कहता है कि " यह महापापी पातकी समयबाह्य और अवन्ध है " इस तरह की घोषणा करके अनुपस्थान प्रायश्चित्त देकर उसको देश से निकाल देता है। और वह भी अपने धर्म से रहित क्षेत्र में रहकर आचार्य के दिये हुए प्रायश्चितका पालन करता है 1
प्रायश्चित दशवें मेद श्रद्धानका स्वरूप बताते हैं: गत्वा स्थितस्य मिथ्यात्वं यदीक्षाग्राहणं पुनः । तच्छ्रद्धानमिति ख्यातमुपस्थापनमित्यपि ॥ ५७ ॥
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जो साधु सम्यग्दर्शनको छोडकर मिथ्यात्वमें प्रवेश कर गया है-बौद्धादिक मिथ्यामतके अभिनिवेशको धारण कर रहने लगा है उससे आचार्यद्वारा पुनः दक्षिा ग्रहण कराये जानेको श्रद्धान प्रायाश्चत्त कहते हैं । इसका दूसरा नाम उपस्थापन भी है। कोई कोई महाव्रतोंका मूलांच्छेद होजानेपर फिर से दीक्षा दिलानेको उपस्थापन कहते हैं।
इस प्रकार प्रायश्चित्तके दश भेदोंका वर्णन किया। अब यह बताते हैं कि इनका प्रयोग अपराधके अनुरूप ही होना चाहियेः
सैषा दशतयी शुद्धिर्बलकालाद्यपेक्षया ।
यथादोषं प्रयोक्तव्या चिकित्सेव शिवार्थिभिः ॥ ५ ॥ जिस प्रकार चतुर वैद्य गंगीके बल काल आदिको देखकर वात पित्त आदिक विकारके अनुसार योग्य चिकित्साका प्रयोग करता है उसी प्रकार कल्याणके अभिलाषी आचार्यों को भी, जैसा दोष हो उसके अनुसार और अपराधीके बलकालादि, सत्त्वसंहननादिको देखकर, उपर्युक्त दश प्रकारकी शुद्धिका प्रयोग करना चाहिये ।
इस प्रकार व्यवहार नयसे प्रायश्चित्तके दश भेदोंका व्याख्यान करके निश्चयनयके अनुसार भेदोंका प्र माण बताते हैं:
व्यवहारनयादित्थं प्रायश्चित्तं दशात्मकम् ।
निश्चयातदसंख्येयलोकमात्रभिदिष्यते ॥ ५९॥ व्यवहार नयसे प्रायश्चित्तके दश मेद हैं जैसा कि ऊपर वर्णन किया जाचुका है। किंतु निश्चयनयसे उसके असंख्यातलोकप्रमाण भेद होते हैं।
इस प्रकार प्रायाश्चत्तका वर्णन कर क्रमानुसार विनयतपका लक्षण कहते हैं:
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स्यात् कषायहृषीकाणां विनीतेविनयोथवा।
रत्नत्रये तद्वति च यथायोग्यमनुग्रहः ॥ ६॥ विहित कर्ममें प्रवृत्ति करनेसे तथा क्रोधादिक कषाय और स्पर्शनादिक इन्द्रियोंका सर्वथा निरोध करने से विनय प्रकट हुआ करता है। अथवा सम्यग्दर्शनादिकखरूप रत्नत्रय और उसके धारण करनेवाले पुरुषोंके यथोचित उपकार करनेको विनय कहते हैं।
विनयशब्दकी निरुक्ति दिखाते हुए उसके फलको प्रकट करते हैं और इस बातका उपदेश देते हैं कि विनयका पालन अवश्य ही करना चाहिये:
यद्विनयत्यपनयति च कर्मासत्तं निराहुरिह विनयम् ।
शिक्षायाः फलमखिलक्षेमफलश्चेत्ययं कृत्यः ॥ ११ ॥ विनय शब्द के "दूर करना," और " विशेषरूपसे प्राप्त कराना" इस तरह दोनो ही अर्थ होते हैं। अत एव मोक्षके प्रकरणमें जो सम्पूर्ण अप्रशस्त कर्मों को दूर करता है, अथवा जो स्वर्गादिक विशिष्ट अभ्युदयोंको प्राप्त कराता है उसको विनय कहते हैं । जिनवचनके ज्ञानको प्राप्त करनेका फल यही है-जिनागमकी शिक्षा विनयरूप साध्यको सिद्ध करनेकेलिये ही प्राप्त की जाती है । तथा सम्पूर्ण कल्याणोंकी प्राप्ति भी इस विनयके द्वारा ही हो सकती है । अत एव मुमुक्षुओंको इसका पालन अवश्य ही करना चाहिये । समस्त विशिष्ट अभीष्ट गुणोंका एकमात्र साधन विनय ही है। इसी बातको प्रकट करते हैं :
सारं सुमानुषत्वेऽर्हद्रूपसंपदिहाहती । शिक्षास्यां विनयः सम्यगस्मिन् काम्याः सतां गुणाः ॥ ६२ ॥
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आर्यता कुलीनता आदि प्रशस्त गुणोंसे युक्त इस उत्तम मनुष्य पयायका सार-उपादेय भाग अहद्रूप. संपत्ति-आचलक्यादिस्वरूप जिनलिनका धारण करना ही है । आर इस जिनलिङ्गके धारण करनेका भी सारभूत फल जिनागमकी शिक्षा प्राप्त करना है । तथा शिक्षाका भी सार यह विनय है । क्योंकि इसके होने पर ही सत्पुरुषोंके लिये भी स्पृहणीय समाधिप्रभृति गुण स्फुरायमान होते हैं।
विनयरहित पुरुषकी शिक्षा भी निष्फल है; इस बातको बताते हैं:
शिक्षाहीनस्य नटवल्लिङ्गमात्मविडम्बनम् । . अविनीतस्य शिक्षापि खलमैत्रीव किंफला ॥ ६३ ॥
जिस पुरुषने नृत्य करने की शिक्षा प्राप्त नहीं की है वह यदि नृत्य करने में प्रवृत्त हो तो उपहासका ही पात्र हो सकता है । इसी प्रकार जिसने जिनागमकी शिक्षा प्राप्त नहीं की है उसका जिनलिङ्ग धारण करना भी उपहासका ही विषय हो सकता है । इसी तरह उस मनुष्यकी शिक्षा भी जो कि विनयसे रहित हैं, निरर्थक अथवा दुर्जन पुरुषोंकी मित्रताके समान अनिष्ट फल उत्पन्न करनेवाली ही हो सकती है। विनयके तत्वार्थ सूत्रमें चार भेद और आचारशास्त्रोंमें पांच भेद बताये हैं उन्हीका यहांपर उपदेश देते हैं:
दर्शनज्ञानचारित्रगोचरश्चोपचारिकः । चतुर्धा विनयोऽवाचि पञ्चमोपि तपोगतः ॥ ६४॥
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तत्त्वार्थका निरूपण करनेवाले आचार्योंने विनयके चार भेद बताये हैं-दर्शनविनय ज्ञानविनय चारित्र विनय और औपचारिक विनय । किन्तु आचारादि शास्त्रोंका विचार करनेवालोंने तपोविनय नामका पांचवां भेद भी बताया है। यथाः
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दंसणणाणे विणओ चरित्त तव ओवचारिओ विणओ । पंचविहो खलु विणओ पंचमगइणायगो भणिओ |
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इनमें से क्रमके अनुसार पहले सम्यक्त्वविनयका स्वरूप बताते हैं:दर्शनविनयः शङ्काद्यसन्निधिः सोपगृहनादिविधि: । भक्त्यचविणवर्णहृत्य नासादना जिनादिषु च ॥ ६५ ॥
सम्यग्दर्शनके शंका कांक्षा विचिकित्सा अन्यदृष्टिप्रशंसा और अनायतनसेवारूप मलोंके दूर करनेको, तथा उपगूहन स्थितीकरण वात्सल्य और प्रभावनारूप गुणोंसे उसके युक्त करनेको, एवं अहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय आदिकी भक्ति अर्चा वर्णना आदि करनेको दर्शनविनय कहते हैं ।
अरिहंतादिकोंके गुणोंमें अनुराग रखनेको भक्ति कहते हैं। द्रव्य अथवा भावसे उनकी पूजा करने को अर्चा कहते हैं । विद्वानोंकी सभा युक्तिवलसे उनके यशोविस्तार करनेको वर्ण अथवा वर्णना कहते हैं। माहात्म्य का समर्थन करके अद्भूत दोषों के उद्भावनका नाश करना इसको अवर्णहृति कहते हैं । इसी तरह अवज्ञाके दूर क रनेको अर्थात् उनमें आदरभाव प्रकट करनेको अनासादना कहते हैं।
भावार्थ- सम्यग्दर्शन के निर्मल और सगुण बनानेको तथा अरिहंत सिद्ध चैत्य सुदेव धर्म साधुवर्ग आचार्य उपाध्याय प्रवचन और दर्शन इनकी उपर्युक्त भक्ति पूजा आदि करनेको दर्शनविनय कहते हैं।
दर्शनविनय और दर्शनाचारमें क्या अन्तर है ? इसका उत्तर देते हैं:
दोषोच्छेदे गुणाधाने यतो हि विनयो दृशि । दृगाचारस्तु तत्त्वार्थरुचौ यत्नो मलात्यये ॥ ६६ ॥
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__ सम्यग्दर्शनमें से दोषोंके दूर करने और उसमें गुणों के उत्पन्न करनलिये जो प्रयत्न किया जाता है उसको दर्शनविनय, तथा शंकादिक मलोंके दूर होजानेपर तत्त्वार्थश्रद्धानमें प्रयत्न करने को दर्शनाचार कहते हैं।
भावार्थ-सम्यक्त्वके निर्मल और सगुण बनानेको दर्शनविनय तथा उसकी वृद्धि करनेको दर्शनाचार कहते हैं।
आठ प्रकारके ज्ञानविनयको पालन करनेका उपदेश देते हैं:शुद्धव्यञ्जनवाच्यतद्वयतया गुर्वादिनामाख्यया, योग्यावग्रहधारणेन समये तद्भाजि भक्त्यापि च ।। यत्काले विहिते कृताञ्जलिपुटस्याव्यग्रबुद्धेः शुचे:,
सच्छास्त्राध्ययनं स बोधविनयः साध्योष्टधापीष्टदः ॥ ६७ ॥ शब्द अर्थ और उभय-शब्दार्थ की शुद्धतापूर्वक, और गुरु, चिन्तापक तथा जिस विषयका अध्ययन करना है उसका नामोल्लेख करते हुए, एवं जिस सूत्रका अध्ययन करना है उसके लिये आवश्यक तपोविशेषका अवलम्बन लेकर, अर्थात् जिस तपोनिशेषके धारण करनेपर ही विवक्षित श्रुतज्ञान प्रकट हो सकता है उस तपोविशेषको धारण करके, तथा प्रवचन और उसके धारण तथा निरूपण करनेवाले श्रुतधरोंमें भक्ति रखकर, आगममें अध्ययन करनेका जो समय बताया है उसी विहित समयमें पिच्छी सहित दोनों हाथोंको जोडकर, मनमें किसी भी प्रकारकी व्यग्रता धारण न करके-अर्थात् चित्तको एकाग्र बनाकर, और मन वचन कायको शुद्ध रखकर युक्तिसिद्ध परमागमके न केवल अध्ययन करनेको ही किन्तु गुणन व्याख्यान और शास्त्रदृष्टया आचरणको भी ज्ञानविषय कहते हैं । अत एव इसके आठ भेद-अंग होते हैं । यह ज्ञानविनय अभ्युदयों और निःश्रेयसरूप फलको उत्पन्न कर सकता है अत एव मुमुक्षुओंको इसका साधन अवश्य ही करना चाहिये ।
____भावार्थ-साधुओंको अभीष्ट फल देनेवाले इस अष्टाङ्ग सम्यग्ज्ञानका अवश्य पालन करना चाहिये ।
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ज्ञानके आठ अंगोंके नाम इस प्रकार हैं:--१ शब्दार्थ की शुद्धता, २ गुरु आदिका नामोल्लेख, ३ कारणरूप तपोविशेषका पालन, ४ परमागम और उसके धारकॉम भक्ति, ५ विधिविहित समय, ६ आदरभाव, ७ चित्तकी एकाग्रता, ८ और मन वचन कायकी शुद्धि ।
- इन आठ अङ्गोसे परिपूर्ण अध्ययनको ही ज्ञानविनय कहते हैं । ज्ञानविनय और ज्ञानाचारमें क्या अन्तर है, सो बताते हैं:--
यत्नो हि कालशुद्धयादौ स्याज्ज्ञानविनयोत्र तु ।
सति यत्नस्तदाचारः पराठे तत्साधनेषु च ॥१८॥ उपर्युक्त कालशुद्धि आदिके विषयमें प्रयत्न करनेको ज्ञानविनय और उन शुद्धिआदिकोंके होजानेपर श्रुतका अध्ययन करनेकेलिये प्रयत्न करनेको अथवा अध्ययन की साधनभूत पुस्तकादि सामग्रीकेलिये प्रयत्न करनेको ज्ञानाचार कहते हैं।
क्रमानुसार चारित्रविनयका स्वरूप बताते है:रुच्याऽरुच्यहृषीकयोचररतिद्वेषोज्झनेनोच्छलत,क्रोधादिन्छिदयाऽसकृत्समितियोगेन गुप्त्यास्थया । सामान्येतरभावनापरिचयेनापि व्रतान्युद्धरन्, धन्यः साधयते चरित्रविनयं श्रेय:श्रियः पारयम् ॥ ६९॥
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इन्द्रियों के मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषयों में जो क्रमसे रागद्वेष उत्पन्न हुआ करते हैं उनको छोडकर, तथा उठतेहुए क्रोधादिक कषायोंका नाश करके, एवं समीचीन प्रवृत्ति केलिये बार बार प्रयत्न करके, तथा मनवचन कायके निरोधरूप अथवा शुभमनवचनादिरूप गुप्तियोंमें आदरभाव रखकर, और सामान्य तथा विशेष भावनाओंको
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मातेहुए-"संसारमें कोई भी प्राणी दुःखी नहो" इसतरहकी सामान्य, और "निगृह्णतो वाङ्मनसी" इत्यादि श्लोककेद्वारा पहले बताईहुई विशेष भावनाओंको भातेहए जो साधु अपने अहिंसादिक ब्रतोंको निर्मल बनाता है वहीं साधु धन्य है । क्योंकि ऐसा सुकृती साधु ही स्वर्ग और मोक्षरूप लक्ष्मीका साक्षात्कार करानेमें समर्थ चारित्रविन यका साधन कर सकता है। भावार्थ-ऊपरलिखे मूजब चारित्रके धारण करनेको चारित्र विनय कहते हैं।
चारित्रविनय और चारित्राचारमें क्या अन्तर है, सो बताते हैं:. समित्यादिषु यत्नो हि चारित्रविनयो मतः ।
तदाचारस्तु यस्तेषु सत्सु यत्नो व्रताश्रयः ॥ ७० ॥ व्रतोंको निर्मल बनानेकोलिये समिति आदिमें प्रयत्न करनेको चारित्र विनय, और समित्यादिकोंके सिद्ध हो जानेपर व्रतोंकी वृद्धि आदिके लिये प्रयत्न करने को चारित्राचार कहते हैं।
अब क्रमानुसार विनयके चौथे मेद औपचारिकविनयका वर्णन करते हैं। किन्तु उसमें सबसे पहले प्रत्यक्षमें पूज्य पुरुषोंका जो कायके द्वारा औपचारिक विनय किया जाता है उसके सात मेदोंका वर्णन करते हैं:
अभ्युत्थानोचितवितरणोच्चासनायुज्झनानु,व्रज्या पीठाद्युपनयविधिः कालभावाङ्गयोग्यः । कृत्याचारः प्रणतिरिति चाङ्गेन सप्तप्रकारः,
कार्यः साक्षाद्गुरुषु विनयः सिद्धिकामैस्तुरीयः ॥ १ ॥ आराध्य गुरुजनोंके साक्षात् उपस्थित रहनेपर स्वात्मोपलब्धिकी इच्छा रखनेवाले साधुओंको अपने शरीरके द्वारा उनका अभ्युत्थानादिक सात प्रकारका औपचारिक विनय करना चाहिये । यथा -
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१-गुरुजनाको आता हुआ मालुम होते ही अपने आसनसे उठकर खडे होजाना चाहिये । २-उनके योग्य पुस्तकादि वस्तुओंका दान करना चाहिये । ३-उनके सामने उच्चासनपर बैठना आदिन चाहये । ४-यदि उनके साथ चलनेका अवसर पडे तो उनके पीछे पीछे नम्रता और आदर के साथ गमन करना चाहिये । ५-सिंहा। सन या शयनीयादि स्थानों को तयार कर देना । ६-उनको पगाम-नमस्कारादि करना। ७-तथा उनके काल भाव और शरीरके योग्य कार्यों को करना। कारयोग्य कार्यों को करना. जसे कि गर्मीमें ठंडी और शर्दी में 'उष्णता लानेवाली क्रिया करना, मात्र योग्य जैप-उने करी मेडनेका अवसर हो तो उनके अभिप्राय और आज्ञा. नुसार वहाँ बाना आना आदि । शरीर योग्य जो कि उनके शरीर और बल के अनुरूप उनका मर्दन करना। - यहाँपर च शब्द समुच्चयायक है । अत एर इन सभी बातों को गुरुओं के विषयों करना उचित है । तथा यद्यपि यहाँपर शारीरिक विनयके ये मात प्रकार ही बनाये हैं, किंतु आदरकेलिये उनके संमुख जाना आदि और भी भेद होते हैं, सो उनका भी यहांपर इति शब्दसे समावेश करलेना चाहिये । ..... औपचारिक विनयके वाचिक मेदोंको बताते हैं:
हितं मितं परिमितं वचः सूत्रानुवाचि च।
ब्रुवन् पूज्यांश्चतुर्भेदं वाचिकं विनयं भजेत् ॥ ७२ ॥ आराध्य गुरुजनोंकी वचन के द्वारा चार पकारमे गिनय करना चाहिये । अर्थात् उनके सम्मुख या उनके लिये ऐसे वचन बोलने चाहिये जो चार विशेषणों से युक्त हों । यथा-हित-जोक कल्याण के कारण धर्मका विधायक हो । मित-जिसमें अक्षगेका प्रमाण तो कम हो किन्तु महान् अर्थ भरा हुआ हो । परिमित-जो कारण युक्त हो । और सूत्रानुवाचि -अर्थात् जो आगम के अर्थपे विरुद्ध न हो।
• यहांपर च शब्दका जो ग्रहण किया है उससे नि य नैमित्तिक पूजनादिके अवपरपर बोले हुए वचनोंका समावेश करलेना चाहिये । तथा उन वचनोंका भी जो कि वाणिज्यादिका विधान नहीं करते ।
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औपचारिक विनयके मानस भेदोंको गिनाते हैं:-- निरुन्धन्नशुभं भावं कुर्वन् प्रियहिते मतिम् । ..
आचार्यादेरवाप्नोति मानसं विनयं द्विधा ॥ ७३ ॥ मानस विनय दो प्रकारका हो मकता है-१ अशुभ भावोंकी निवृत्ति २ और शुभभावोंमें प्रवृत्ति । अर्थात् आचार्य उपाध्याय स्थविर प्रवर्तक और गणधरादिकोंके विषय में सम्यक्त्वकी विराधना करनेवाले प्राणिवधादिक अशुभभावोंका रोकना, और धर्मकेलिये उपकारक तथा सम्यक्त्व और ज्ञानादिके विषयमें शुभ विचार करना मानस विनय है।
इस प्रकार प्रत्यक्ष गुरुजनोंके विषयमें पालन करने योग्य तीन प्रकारके विनयका प्रतिपादन करके परोक्ष गुरुओंके विषय में भी तीन प्रकारके विनयका निरूपण करते हैं:--
वाङ्मनस्तनुभिः स्तोत्रस्मृत्यञ्जलिपुटादिकम् । .
परीक्षेष्वपि पूज्येषु विदध्याद्विनयं त्रिधा ॥ ७ ॥ जो दीक्षागुरु श्रुतगुरु तपोधिक आदि गुरुजन परोक्ष हैं-इन्द्रियोंसे परे हैं उनका भी वचन मन और शरीरके द्वारा क्रमने स्तुति स्मृति और अञ्जलिपुटादिक करके मुमुक्षुओंको विनय करना चाहिये । अतएव परोक्ष गुरुओंका भी विनय वचन मन और शरीर की अपेक्षा तीन प्रकारका होता है। अर्थात् वचनके द्वारा उनका गुणस्तवन जयघोष आशीर्वादादि बोलना, मनके द्वारा उनका स्मरण और उनके गुणोंका चिन्तवन आदि करना, तथा शरीरके द्वारा उनको हाथ जोडना नमस्कार करना इत्यादि सब परोक्ष विनय है।
यहांपर अपिशब्दसे जो तप गुण या अवस्था आदिकी अपेक्षा अपनेसे छोटे हैं उन मुनियों या श्रावकोंकी भी यथा योग्य विनय करना चाहिये इस बातको सूचित किया है।
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तपोवनका स्वरूप बताते हैं :-- यथोक्तमावश्यकमावहन् सहन, परीषहानग्रगुणेषु चोत्सहन् । भजंस्तपोवृद्धतपांस्य हेलयन्, तपोलघूनेति तपोविनीतताम् ॥ ७५ ॥
व्याधि आदिके वश होजानेपर भी जिनका अवश्यही पालन करना चाहिये उन पूर्वोक्त पडावश्यकोंका जो साधु निरंतर पालन करता है, क्षुधापिपासा आदि बाईस परीषहोंका सहन करता और उत्तर गुण - आपनादिकों अथवा विशिष्ट संयमों या आगे के गुणस्थानों में सोत्साह प्रवृत्ति रखता है, एवं जिनको तप करते हुए अपने से अधिक दिन हो गये हैं उन तपस्वियोंकी सेवा करता और स्वयं भी अनशनादिक तपका पालन करता है, तथा जो साधु अपनेसे तप करनेमें न्यून हैं उनकी अवहेलना -अवज्ञा नहीं करता, वही तपस्वी तपो विनयको प्राप्त हो सकता है ।
भावार्थ- पूर्वोक्त आवश्यकोंके पालन करने आदिको ही तपोविनय कहते हैं ।
विनय भावनाका फल बताते हैं:
ज्ञानलाभार्थमाचारविशुद्धयर्थं शिवार्थिभिः ।
आराधनादिसंसिद्ध्यै कार्यं विनयभावनम् ॥ ७६ ॥
जो मुमुक्षु हैं उनको ज्ञानका लाभ करनेकेलिये तथा दर्शनाचार ज्ञानाचार चारित्राचार तपाचार और विर्याचा इन पांच आचारोंको शुद्ध-निर्मल बनानेकेलिये, एवं पूर्वोक्त सम्यक्त्वादि चार आराधना प्रभृति और भी अनेक गुणों को भले प्रकार सिद्ध करनेकेलिये इस विनयतपमें बार बार प्रवृत्त होना चाहिये ।
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आराधना शब्द के साथ आयेहुए आदिशब्दसे किन किन विषयों को लेना चाहिये सो स्पष्ट करते हैं:
द्वारं यः सुगतेर्गणेशगणयोर्यः कार्मणं यस्तपो, - वृत्तज्ञानऋजुत्वमार्दवयशः सौचित्यरत्नार्णवः ।
यः संक्लेशदवाम्बुदः श्रुतगुरूद्योतकदीपश्च यः,
क्षेप्यो विनयः परं जगदिनाज्ञापारवश्येन चेत् ॥ ७७ ॥
मुमुक्षुओंको विनयतपका परित्याग करना कदाचित्मी उचित नहीं है; बल्कि जो तीन लोकके अधीश भगवान् अदेवकी आज्ञामें रहकर अपनी आत्माका हित सिद्ध करना चाहते हैं उन साधुओंको इसका अवश्य ही पालन करना चाहिये । क्योंकि यह तप समस्त कर्मों के क्षयका कारण होनेसे मोक्षका और प्रचुर पुण्यास्रवका कारण होनेसे स्वर्गका द्वार है, तथा संघ और संघ के स्वामीको वश करनेके लिये वशीकरण मंत्र के समान है । तप चारित्र ज्ञान सरलता मार्दव यश और सौचित्यं आदि अनेक गुणरूप रत्नोंको उत्पन्न करनेके लिये रत्नाकर - समुद्र के समान है। राग द्वेष प्रभृति संक्लेश परिणामरूपी दावानलको शांत करनेकेलिये मेघ के समान है, और आचार शास्त्र में बताये हुए क्रमज्ञान तथा कल्पज्ञानको एवं सदाम्नायके उपदेष्टा गुरुओंको प्रकाशित करनेकेलिये अद्वितीय दीपकके समान है ।
वैयावृत्त्य तपका निरुक्तिसिद्ध लक्षण बताते हुए मुमुक्षुओं को उसका पालन करनेकेलिये प्रेरित करते हैं:
क्लेशसंक्लेशनाशायाचार्यादिदशकस्य यः ।
व्यावृत्तस्तस्य यत्कर्म तद्वैयावृत्त्यमाचरेत् ॥ ७८ ॥
आचार्य उपाध्याय तपस्वी शैक्ष ग्लान गण कुल संघ साधु और मनोज्ञ इन दश प्रकार के मुनियों के १ - - गुरु आदिकोंका अपने ऊपरसे वैमनस्यं दूर होने और अनुग्रह प्राप्त होनेको सौचित्य कहते हैं ।
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केश-शारीरिक पीडा और संक्लेश-आरौिद्र ध्यानरूप दुष्परिणामोंका नाश करनेकेलिये जो तपस्वी अथवा श्रावक व्यावृत्त-प्रवृत्त हुआ करता है उसके इस कर्म-मनोवाक्काय व्यापारको ही बयाघृत्य कहते हैं। मुमुक्षुओंको इस अंतरंग तपका पालन अवश्य ही करना चाहिये ।
आचार्य और उपाध्याय शब्दका अर्थ पहले बताया जा चुका है । किंतु शेष शब्दोंका अर्थ नहीं बताया वह इस प्रकार है:
तपस्वी-महान् उपवासादिक तप करनेवाला, शैक्ष-प्रधानतया शिक्षामें ही रत रहनेवाला, ग्लान-रोगादिके निमित्तमे जिसका शरीर पीडित हो रहा हो, गण - स्थविर संतति, कुल-दक्षिा देनेवाले आचार्यकी स्त्रीपुरुषरूप शिष्यसंतान, संघ-चातुर्वर्ण्यरूप मुनिसमूह, साधु -जिसको दीक्षा लिये हुए चिरकाल होगया हो, मनोज्ञ-लोक सम्पत, अथवा जिसको लोक अधिक मान देते हों।
वैयावृत्यका फल बताते हैं:मुत्युद्यक्तगुणानुरक्तहृदयो यां कांचिदप्यापदं. तेषां तत्पथधातिनी खवदवस्यन्योङ्गवृत्त्याथवा । योग्यद्रव्यनियोजनेन शमयत्युद्घोपदेशेन वा,
मिथ्यात्वादिविषं विकर्षति स खल्वार्हन्त्यमप्यहोते ॥ ७९ ॥ जिस साधु अथवा श्रावकका मन मुक्तिको प्राप्त करनेकेलिये उद्युक्त हुए साधुओंके संयमविशेषरूप गुणपर आसक्त है और इपीलिये जो उनके ऊपर आई हुई मोक्षमार्गमें बाधा पहुंचानेवाली देवी मानुषी तेची अथवा अचेतनकृत आपत्तियोंको अपने ऊपर आई हुई समझकर शारीरिक प्रयत्न करके हटा देता है. अथवा संयमसे अविरुद्ध औषध अन्न वपतिका आदिकी योजना करके, यद्वा प्रभावशाली महान् उपदेश देकर उनके मिथ्यात्व अज्ञान अविरति प्रमाद कषाय और योगरूप विषको निकाल दूर करता
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बनगार
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है वह वैयाप्रत्यकर्म में प्रवृत्त महात्मा इन्द्र अहमिन्द्र चक्रवर्तित्व आदि पदोंकी तो बात ही क्या सर्वोत्कृष्ट तीर्थकर पदको भी निश्चयसे अपने अधिकृत करलेता है।
भावार्थ-वैयावृत्य करनेवाला मुमुक्षु उत्कृष्ट अभ्युदयों और अंतमें आर्हन्त्य पदको भी प्राप्त करलेता है। - साधर्मियोंपर आई विपत्तिकी उपेक्षा करनेवालोंके दोष प्रकट करते और इस बात का समर्थन करते हैं कि सम्पूर्ण तपस्याओंका हृदय वैयावृत्य ही है:
सधर्मापदि यः शेते स शेते सर्वसंपदि।
वैयावृत्त्यं हि तपसो हृदयं ब्रुवते जिनाः ॥ ८ ॥ जो अपने समान रत्नत्रय धर्मका आराधन करनेवाले हैं उनके ऊपर आई हुई आपत्तिको देखकर भी जो सो जाता है-उस आपत्तिके दूर करनेकी चेष्टा नहीं करता वह समस्त संपत्तियोंके विषय में भी | सो जाता है-उसका कोई भी गुरुपार्थ सफल नहीं हो सकता । क्योंकि अर्हत देवने अन्तरङ्ग और बाह्य सम्पूर्ण तपस्याओंका हृदय वैयावृत्य ही बताया है। .
और भी वैयावृत्यका फल बताते हैं:समाध्याधानसानाथ्ये तथा निर्विचिकित्सता ।
सधर्भवत्सलवादि वैयावृत्येन साध्यते ॥ ८१॥ ... वैयावृत्यके द्वारा एकाग्रचिन्ताके निरोधरूप ध्यान और सनाथताकी प्राप्ति होती है, तथा ग्लानिका अमाव होता है, और साधर्मियों में गोवत्सके समान परस्पर प्रीति उत्पन्न होती है। इसके सिवाय धर्म और आम्नायकी रक्षा तथा प्रभावना आदि और भी अनेक गुण इस वैयावृत्यके द्वारा सिद्ध हुआ करते हैं।
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इसप्रकार यावृत्यक प्रकरणको समाप्त करके क्रमानुसार मुमुक्षुओंकेलिये स्वाध्यायके विषयनित्यही अभ्यास करनेका विधान करते हुए स्वाध्याय इस शब्दका निर्वचनसिद्ध वर्थ बताते हैं:
निरं स्वाध्यायमभ्यस्येत्कर्मनिर्मूलनोद्यतः।
स हि खस्मै हितोऽध्यायः सम्यग्वाध्ययनं श्रुतेः ।। ८२ ॥ स्व-आत्माके लिये हितकर-उपकारी-संवर और निजराके कारणभूत श्रुतके अध्ययनको अथवा । सु-समीचीन केवलज्ञानोत्पत्तिपर्यन्त श्रतके अध्ययन - पाठको स्वाध्याय कहते हैं। अत एव ज्ञानावरमादिक कर्मों तथा मनोवाक्कायक्रियाओं को निर्मूल करनेकेलिये उद्युक्त हुए मुमुक्षुओंको इस स्वाध्यायका चित्य ही अभ्यास करना चाहिये। सम्यक् शब्दका अर्थ बताने हुए स्वाध्यायके पहले भेद-वाचना का स्वरूप बताते हैं:
शब्दार्थशुद्धता द्रुतविलम्बितायूनता च सम्यक्त्वम् ।
शुद्धग्रन्थार्थोभयदानं पात्रेस्य वाचना भेदः ॥ ८३ ॥ शब्द और अर्थकी शुद्धता, तथा विना विचारे ही जल्दीसे न बोलना, वे मौके विश्राम लेकर उच्चारण न करना किन्तु बोलने या लिखने आदिके समय योग्य स्थानपर ही विश्राम लेना, और किसी भी अक्षर मात्रा या पद आदिको छोड न देना, इत्यादि सब स्वाध्यायकी समीचीनता कहलाती है। इस तरहकी समीचीनता या शुद्धतासे युक्त अथवा निरवद्य-मोक्षमार्गकेलिये उपयोगी ग्रन्थ अर्थ अथवा दोनाहीके विनयादि गुणोंसे युक्त पात्रकेलिये देनेको वाचना कहते हैं।
स्वाध्यायके दूसरे मेद प्रच्छनाका स्वरूप बताते हैं:प्रच्छनं संशयोच्छित्त्यै निश्चितद्रढनाय वा। प्रश्नोऽधीतिप्रवृत्त्यर्थत्वादधीतिरसावपि ॥८४॥..
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- ग्रन्थ अर्थ अथवा दोनों के विषयमें “यह इसी तरहसे है या दूसरी तरहसे" ऐसा संशय होनेपर उसको दूर करनेकेलिये अथवा निश्चित मालुम होनेपर मी कि यह इसी तरहसे है या ऐसा नहीं है अपने निश्चयको द्रढ बनाने के लिये विशेष विद्वान्से उस विषय में प्रश्न करना इसको प्रच्छना स्वाध्याय कहते हैं।
यहाँपर यह शंका हो सकती है कि प्रश्न करना अध्ययन नहीं कहा जा सकता, अत एव इस स्वाध्यायके लक्षणमें अव्याप्ति दोष आता है। किंतु यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि प्रश्न करना अध्ययनमें प्रवृत्ति होनेका निमित्त है, अत एन उसको भी स्वाध्याय कह सकते हैं।
. मुख्य विषयमें ही किये गये प्रश्नको स्वाध्याय कह सकते हैं वह बताकर इस शंकाका प्रकारान्तरसे समाधान करते हैं:
किमेतदेवं पाठ्यं किमेषोर्थोस्योति संशये।
निश्चितं वा द्रढयितुं पृच्छन् पठति नो न वा ॥ ८५॥ हे भगवन् ! यह अक्षर पद या वाक्य इसी तरहसे होना चाहिये या दूसरी तरहसे ! यद्वा इसका उच्चारण किस प्रकार करना चाहिये ? इत्यादि शब्द के विषय में जो अपने संदेहको प्रकट करता है, तथा इस पद वाक्य या श्लोकका क्या अर्थ होना चाहिये ? अभी जो अर्थ कहा गया वही होना चाहिये या और कुछ ! इत्यादि अर्थ के विपयमें जो प्रश्न करता है, अथवा मेंने जो यह समझा है सो ठीक है या नहीं ? इत्यादि शब्द या अर्थ के विषयों प्रश्न करनेवाला साधु क्या अध्ययन नहीं करता ? अवश्य करता है।
भावार्थ-शब्द या अर्थका निश्चय करने के लिये अथवा निश्चयको भी दृढ करनेकेलिये जो प्रश्न किया जाता है वह भी स्वाध्याय में ही सम्मिलित है।
अनुपेक्षा नामक स्वाध्यायके तीसरे भेदका निरूपण करते हैं
सानुप्रेक्षा यदभ्यासोऽधिगतार्थस्य चेतसा । स्वाध्यायलक्ष्म पाठोन्तर्जल्पात्मात्रापि विद्यते ॥८६॥ .
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ज्ञात अथवा निश्चित विषयके मनमें पुनः पुनः विचार करनेको अनुप्रेक्षा कहते हैं। इसकी भी समीचीन अध्ययन करना ही कहना चाहिये । क्योंकि शब्दार्थका पाठ यहांपर भी होता है। अन्तर इतना ही है कि वाचनामें पहिर्जल्स होता है, किन्तु अनुप्रेक्षामें अनर्जल हुआ करता है। .. स्वाध्यायके आम्नाय और धर्मोपदेश नामके चौथे पांचवें भेदका स्वरूप बताते हैं:--
आम्नायो घोषशुद्धं यद्वृत्तस्य परिवर्तनम् ।
धर्मोपदेशः स्याद्धर्मकथा सस्तुतिमङ्गला ॥ ८७ ॥ पढे हुए ग्रन्थके शीघ्रता या विलंब आदि दोपोंसे रहित पुनः पुनः उच्चारण करनेको आम्नाय कहते हैं। स्तुति देववन्दना तथा मङ्गल-नमस्कार आशीः शान्ति आदि विषयों के साथ धर्मके निरूपण करनेको धर्मोपदेश कहते हैं।
भावार्थ:--भगवान्का स्तोत्र पाठ करना, उनको नमस्कारादि करना, या अन्य त्रेसठ शलाका पुरुषोंकिचरित्रका निरूपण करना, अथवा किसी भी धार्मिक विषय का व्यारव्यानादि करना, इत्यादि सब धर्मोपदेश है।
____धर्मकथाके चार भेदोंका स्वरूप बताते हैं:
आक्षेपणी स्वमतसंग्रही समेक्षी, विक्षेपणी कुमतनिग्रहणीं यथाईम् ।
संवेजनी प्रथयितुं सुकृतानुभावं, निवेदनीं वदतु धर्मकथां विरक्त्यै ॥ ८८ ।। धर्मकथा चार प्रकारकी होती है-आक्षेपणी, विक्षपणी, संवेजनी और निवेदनी । जिसके द्वारा अपने मतका संग्रह-अनेकान्त सिद्धान्तका यथारोग्य समथेन हो उसको आक्षेपणी, और इसी प्रकार-यथायोग्य जिसके द्वारा क्षणिकैकान्त प्रभृति मिथ्यामतोंका निग्रह-खंडन हो उसको विक्षेपणी, तथा जिसके द्वारा पुण्यके फल स्वरूप संपत्तिको यथायोग्य प्रकाशित किया जाय उसको संवैजनी, एवं जिसको सुनकर संसार शरीर और भोगोंसे वैराग्य उत्पन्न होसके ऐसी निरूपणाको निदनी कहते हैं।
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भावार्थ--धर्मोपदेश नामक स्वाध्याय तपके ये चार मेद हैं । इस तपका निरन्तर पालन करनेकी इच्छा रखनेवाले मुमुक्षुओंको ये चार प्रकारको ही कथाएं करनी चाहिये ।
स्वाध्यायके फल बताते हैं:प्रज्ञोत्कर्षजुषः श्रुतस्थितिपुषश्चेतोक्षसंज्ञामुषः, संदेहाच्छदुराः कषायभिदुराः प्रोद्यत्तपोमेदुराः । संवेगोल्लासिताः सदध्यवसिताः सर्वातिचारोज्झिताः,
खाध्यायात परवाद्यऽशङ्कितधियः स्युः शासनोद्भासिनः ॥ ८९॥ मुमुक्षुओंको स्वाध्यायके प्रसादसे अनेक प्रकारके फल प्राप्त होते हैं। यथा:--स्वाध्याय करनेवालोंकी तकवितकरूप बुद्धि इसके निमित्तसे ही प्रीतिपूर्वक उत्कर्पको धारण किया करती है । एवं वे परमागमकी स्थितिको भी इसके बलसे ही पुष्ट रख सकते हैं। तथा इन्द्रिय और अनिन्द्रिय-मन एवं आहार भय मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञा ओंका प्रतिरोध-निग्रह, तथा संशयों-अनेक प्रकारकी शंकाओंका निराकरण, एवं क्रोधादिक कषायोंका नाश, इसके द्वारा ही कर सकते हैं। तपस्विगणभी इसमें प्रवृत्त होनेपर ही दिनपर दिन बढते हुए तपसे पुष्ट हो सकते हैं। संवेग के द्वारा उत्कृष्ट शोमाको प्राप्त हुए प्रशस्त परिणामोंकी सिद्धि भी इसीसे हो सकती है। अथवा उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वरूपसे युक्त वस्तुका निश्चय स्वाध्याय करनेसे ही हो सकता है। इसमें प्रवृत होनेसे सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान या सम्यश्चारित्र किसीमें भी अतीचार नहीं लग सकता । एवं इसके बलसे ही विद्वान्लोग बौद्धादिक परवादियों से निःशंक रहते और जिनधर्मकी प्रभावनां कर सकते हैं।
___ स्वाध्यायके स्तुतिरूप फलको बताते हैं:-- शुद्धज्ञानघनार्हदभुतगुणग्राममहव्याधी,स्तद्वयक्त्युद्धरनुतनोक्तिमधुरस्तोत्रस्फुटोद्गारगीः ।
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अध्याय
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मूर्ति प्रश्रयनिर्मितामिव दधतत्किंचिदुन्मुद्रय, - त्यात्मस्थान कृती यतोऽरिजयिनां प्राप्नोति रेखां घुरि ॥ ९० ॥
स्तुतिरूप स्वाध्यायमें प्रवृत्त हुए मुमुक्षुकी बुद्धि - मनःप्रवृत्ति, अत्यंत निर्मल और परिपूर्ण ज्ञानके भंडार श्री अहं तदेव के अद्भुत आश्चर्योत्पादक गुणों के समूहमें अभिनिवेश के कारण व्यग्र रहा करती है, और इसीलिये उसकी वाणी-वचनप्रवृत्ति, भगवान् के उन गुणोंके प्रकट होने से उद्भट तथा नवीन नवीन उक्तियों से मधुर स्तोत्रोंके स्फुट उद्वारों से भरी हुई रहती है, एवं उसकी शरीर यष्टि ऐसी मालुम पडने लगती है मानों साक्षात् विनयकी ही बनी हुई हो। इस प्रकार उसके मन वचन और काय तीनों ही पूर्णज्ञानघन भगवान् के गुणोंमें लीन रहते हैं । अत ra as कृती अपनी आत्मामें स्थित अनिर्वचनीय वीर्य - अनन्तशक्तिको प्रकट कर देता और अंतमें मोहके विजेता साधुओं के अग्रपदको प्राप्त कर लेता है ।
भावार्थ -- स्तुतिरूप स्वाध्याय करनेवालेकी बुद्धि उक्ति और शारीरिक प्रवृति भगवान् के निर्मल गुणों की तरफ ही लगी रहती है। अत एव अंतमें वह उसी रूपको प्राप्त करलेता है।
पंचनमस्कार मंत्र को परममंगल और उसके जप करनेको उत्कृष्ट स्वाध्याय बताते हैं:--
मलमखिलमुपास्त्या गालयत्यङ्गिनां य - च्छिवफलमपि मङ्गं लाति यत्तत्परार्घ्यम् ।
परमपुरुषमंत्रो मङ्गलं मङ्गलानां,
श्रुतपठनतपस्यानुत्तरा तज्जपः स्यात् ॥ ९१ ॥
पैंतीस अक्षर के अपराजित मंत्र को ही परमपुरुष मंत्र कहते हैं। इसकी उपासना-आराधना-मन या वचन के द्वारा जप करने से संपूर्ण पाप गल जाते हैं । तथा इससे मोक्षरूप अभ्युदयकी भी प्राप्ति होती है । अत एव इसके
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बनगार
धर्म
साधारण मंगल ही नहीं किन्तु मंगलोंका भी मंमल-परममंगल कहना चाहिये । क्योंकि सम्पूर्ण लौकिक कल्यापोंके सिद्ध होने में भी यह प्रधान कारण है। जैसा कहा भी है कि:
एसो पंचणमोयारो सव्वपावप्पणासणो।
___ मंगलाणं च सव्वसि पढम होइ मंगलं. ॥ और इसीलिये इसके वाचिक या मानसिक जपको उत्कृष्ट स्वाध्याय तप समझना चाहिये।।
भावार्थ-मंगल शब्दके निरुक्तिकी अपेक्षा दो अर्थ होते हैं, एक तो यह कि जिसके निमित्तसे म-पाप माल जाय । दमरा यह कि जिसके द्वारा मङ्ग-अभ्युदयकी सिद्धि हो। ये दोनों ही अर्थ पञ्च नमस्कार मंत्रमें पूर्णतया घटित होते हैं, अत एव उसको परमसंगल कहना चाहिये । इसीलिये इसके जप करनेको उत्कृष्ट स्वाध्याय नामका अन्तरङ्ग तप समझना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
___स्वाध्यायः परमस्तावज्जपः पंचनमस्कृतेः ।
पठनं वा जिनन्द्रोक्तशास्त्रस्यकामचेतसा ।। अरिहंत भगवान के ध्यान लगे हुए मुमुक्षुका आशीर्वचनम्प अथवा शान्त्यादिवचनरूप मंगल भी कल्यापका साधक हुआ करता है, इसी बातको प्रकट करते है:
अहंत्यानपरस्याहन शं वो दिश्यात्सदास्तु वः।
शान्तिरित्यादिरूपोपि स्वाध्याय: श्रेयसे मतः ॥ १२ ॥ बोला प्रधानतया निरंतर अहंतके ध्यान में ही लीन रहता है उसके " अर्हन शं वो दिश्यात." अर्थत अहंत भगवान् तुझारा कल्याण करें, तथा "सदास्तु वः शान्तिः " अर्थात् तुझे सदा शान्ति बनी रहे. इत्यादि वचनोंको भी स्वाध्याय ही कहना चाहिये । क्योंकि पूर्वाचार्योंने इसके द्वारा मी कल्याण-पुण्यकी और परम्परासे मोवी सिद्धि मानी । शान्तिका स्वरूप इस प्रकार कहा है:
सुखतद्धतुसंप्राति खतहेतुवारणम् । तद्धतुहेतवश्वान्यदपीक शान्तिरिष्यते ॥
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अध्याय
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धर्म
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अर्थात् सुख और उसके कारण तथा कारणों के भी कारणों की प्राप्तिको यद्वा दुःख और उसके कारण तथा कारणोंके भी कारणों की निवृत्तिको शान्ति कहते हैं। जपवाद और आशीर्वचनोंका अर्थ स्पष्ट ही है। यथाः
जयन्ति निर्जिताशेषसर्वथैकान्तनीतयः ।
सत्यवाक्याधिपाः शश्वद्विद्यानन्दा जिनेश्वगः॥ तथा
जयन्ति विधुताशेषबन्धना धर्मनायकाः ।
त्वं धर्मविजयी भूत्वा तत्प्रसादाजपाखिलम् ।। तथा
जयत्वसौ श्रीवृषभो जिनेश्वरः, सुरावधूना सिचामरावली। ... बभौ यदने प्रतिबिम्बिताभितो,
वेरिवान्तश्चल दिन्दुसंहतिः॥ अथवा- नतामरशिरोरवप्रभारोतनखत्तिये ।
नमो जिनाय दुर्वारमारवीरमदच्छिदे ।। इसी प्रकार " स्वस्ति त्रिलोकगुरवे जिनपुंगवाय"-इत्यादि और भी वचनोंको समझना चाहिये। क्रमप्राप्त व्युत्सर्ग नामक तपके दो भेदोंको और उसकी दोनों भावनाओंको बताते हैं:
बाह्यो भक्तादिरुपधिः क्रोधादिश्चान्तरस्तयोः।
त्यागं व्युत्सर्गमावान्तं मितकालं च भावयेत् ॥ ९३ ॥ व्यत्सर्ग नाम त्यागका है । वह दो प्रकारका हो सकता है। एक बाह्य दुसरा अन्तरङ्ग । आहार वसतिका आदि ऐसे पदार्थोंका जिनका कि आत्मासे सम्बन्ध नहीं है त्याग करना बाह्य व्युत्सर्ग कहा जाता है। और जिनका कि आत्मासे सम्दन्ध हो रहा है ऐसे क्रोधादि कषायरूप अन्तरंग परिग्रहके त्यागको अन्तरङ्ग व्युत्सर्ग कहते हैं। इन दोनों ही प्रकार के व्युत्सर्गतपका यावजीवन अथवा कालका प्रमाण करके मुमुक्षुओंको पालन करनेका पुनः पुनः विचार करना चाहिये ।
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व्युत्सर्ग शब्दका निरुक्तिसे क्या अर्थ होता है, सो बताते हैं:बाह्याभ्यन्तरदोषा ये विविधा बन्धहेतवः ।
यस्तेषामुत्तमः सर्गः स व्युत्सों निरुच्यते ॥ ९४ ॥ माता पिता स्त्री पुत्र भ्राता भगिनी भागिनेय आदिका संसर्ग बाह्यदोष है, और ममकार अहंकार आदि भाव अन्तरङ्ग दोष हैं। इनके भी उत्तर मेद अनेक हैं । ये अन्तरङ्ग और बाह्य दोष ही कर्मबन्धके कारण हैं। अत एव इन वि-विविध दोषोंके उत् -उत्तम-प्राणान्तिक और ख्याति लाम पूजा आदि की अपेक्षासे रहित सर्गपरित्यागको व्युत्सर्ग कहते हैं।
व्युत्सर्गके उत्कृष्ट स्वामीको बताते हैं:देहाद्विविक्तमात्मानं पश्यन् गुप्तित्रयीं श्रितः ।
स्वाङ्गेपि निस्पृहो योगी व्युत्सर्ग भजते परम् ॥ ९५ ॥ जो अपनी आत्माका शरीरसे सर्वथा मित्र अनुभव करता रहता है और जो तीनों ही गुप्तियोंका सर्वथा पालन करनेवाला तथा बाह्य पदार्थों में ही नहीं अपने शरीरमें भी निस्पृह रहता है ऐसा योगी-समीचीन ध्यान में स्थिर रहनेवाला यति ही उत्कृष्ट व्युत्सर्गका धारक हो सकता है।
अन्तरङ्ग परिग्रहके व्युत्सर्गका स्वरूप प्रकारान्तरसे बताते हैं:-- कायत्यागश्चान्तरङ्गोपधिव्युत्सर्ग इष्यते ।।
स द्वेधा नियतानेहा सार्वकालिक इयपि ॥ ९६ ॥ शरीरके परित्याग करनेको भी पूर्वाचार्योंने अन्तरङ्ग परिग्रहका व्युत्सर्ग ही माना है। इसके भी दो भेद हैं-एक नियतकाल दूसरा सार्वकालिक ।
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अनगार
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नियतकालके भी दो भेद होते हैं जिनका कि स्वरूप इस प्रकारसे माना है कि:
तत्राप्याद्यः पुनद्वैधा नित्यो नैमित्तिकस्तथा ।
आवश्यकादिको नित्यः पर्वकृत्यादिकः परः॥ ९७॥ कायत्यागका पहला भेद परिमितकाल दो प्रकारका होता है, एक नित्य दूसरा नैमित्तिक । आवश्पकों अथवा मलोत्सर्ग आदिके सम्बन्धमे जो किया जाय उसको नित्य, तथा अष्टमी चतुर्दशी आद पर्वसम्बन्धी क्रियाओंके अवसरपर या निपद्या क्रियाओं के समय जो किया जाय उसको नैमित्तिक कायत्याग कहते हैं ।
सार्वकालिक कायत्यागके तीन भेद हैं:-- भक्तत्यागेङ्गिनीप्रायोपयानमरणैस्त्रिधा ।
यावज्जीवं तनुत्यागस्तत्राद्योऽहादिभावभाक् ॥ ९८ ॥ प्राणान्तिक कायत्यागके तीन भेद हैं । भक्तत्याग मरण, इङ्गिनीमरण और प्रायोपयानमरण । जिसमें प्रधा' नतया भोजन के त्यागकी अपेक्षा हो उसको मक्तत्याग या भक्तप्रत्याख्यानमरण कहते हैं। जिसमें स्वयावृत्यकी अपेक्षा तो हो किन्तु पर वैयावृत्यकी अपेक्षा न हो उसको इङ्गिनी मरण, और जिसमें दोनों ही प्रकारकी वैयावृत्यकी अपेक्षा न हो उसको प्रायोपयान मरण कहते हैं। प्रायोपगमन तथा पादोपगमन भी इसीके अपर नाम हैं। इनमेंसे पहले भेद भक्तप्रत्याख्यानमें अई लिङ्ग शिक्षा आदि अनेक भाव हुआ करते हैं जिनके किनाम और स्वरूप संक्षेपसे इस प्रकार हैं:
विचार पूर्वक भोजनका परित्याग करने केलिये जो योग्य है उसको अहं कहते हैं । लिङ्ग नाम चिन्हका है । श्रुत्र के अध्ययन करनेको शिक्षा कहते हैं। विनय शब्दका अर्थ मर्यादा अथवा उपासना होता है। समाधान अथवा शुभोपयोग में मनके एकाग्र करनेको समाधि कहते हैं। अनिश्चित क्षेत्रों में निवास करनेका नाम अनियत विहार है । अपने कार्यके पर्यालोचनको परिणाम, और परिग्रहके त्यागको उपध्युज्झा, तथा उतरोत्तर आरोहण
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अनगार
करनेको थिति, और अभ्यास करनेको भावना कहते हैं। काय और कपायोंके भलेप्रकार कृश करनेका नाम सल्लेखना है। दिशा शब्दका अर्थ एलाचार्य होता है। अपने गणसे क्षमा करानेको शान्ति कहते हैं। सूत्रके अनुसार गणको शिक्षा देनेका नाम शिष्टि है। दूसरे गण या संघमें चले जानेको चर्या, और अपनेको जो रत्नत्रयकी शुद्धि तथा समाविमरणका सम्पादन करा सके ऐसे आचार्य के अन्वेषण करनेको मार्गणा करते है। सुस्थितनाम आचार्यका है; क्योंकि वे अपने प्रयोजन और परोपकारके करनेमें भले प्रकार स्थित रहते हैं। आचार्यको आत्मसमर्पण करनेका नाम उपसर्पण या उपसंपत् है । गण या परिचारक आदिके परीक्षणको परीक्षा, और आराधनाकी भलेप्रकार सिद्धि हो सके इसकेलिये उत्तम देश राज्य आदिके ढूंढनको निरूपण कहते हैं। इसपर मुझे अनुग्रह करना चाहिये या नहीं? इस प्रकार संघको उद्देश करके पूछने कानाम प्रश्न है। संबसे पुनः पूछकर उसकी अनुमतिसे किसी एक क्षपकके स्वीकार करनेको प्रतिप्रच्छथैक संग्रह कहते हैं। आचार्यके सम्मुख अपने दोपोंके निवेदन करनेको गुरोरालोचना कहते हैं। गुण और दोष दोनोंके ही आलोचन करनेको गु. णदोष कहते हैं। शय्या शब्दका अर्थ वसति और संस्तर शब्दका अर्थ प्रस्तर होता है। आग' धना करनेवालकी समाधिमे सहायता करनेवालों के समूहको निर्यापकपरिग्रह कहते हैं। अन्तिम आहार प्रकट करनेको प्रकाशन, क्रमसे आहार छोडनेको हानि, और तीन प्रकारके आहारके त्याग करनेको प्रत्याख्यान कहते हैं । अचार्यादिकोंसे क्षमा ग्रहण करानेको क्षमापण, और अपनेसे जो मरोंके अपराध हुए हों उनके क्षमा करनेको क्षमण कहते हैं। निर्यापक आचार्य द्वारा आरावकको शिक्षा दिये जाने का नाम अनु. शिष्टि है । दुःखसे अभिभूत होकर मुञ्छित हो जानेपा चेतना प्राप्त करानेको सारणा, और धर्मादिका उपदेश देकर दुःख दूर करनेको कवच कहते हैं। जीवन तथा मरण आदिमें रागद्वेष न करनेको समता, एकाग्रचि. न्तानिरोधको ध्यान, तथा कपायानुराञ्जत योग प्रवृत्तिको लेश्या, और आराधनाके साध्यको फल कहते हैं । आराधकके शरीरका त्याग होना इसका नाम क्षपकदेहोज्झन है।
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इस प्रकार भक्तप्रत्याख्यानमरणम अइसे लेकर शरीरत्याग तक ४० भाव हुआ करते हैं। शेष दो प्रकारके मरणाम जो अन्तर है वह ऊपर लिखा जा चुका है।
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वर्तमान क्षेत्र और कालवी साधुओंके प्रसादसे अपनी आत्मामें प्रशमकी प्राप्ति हो, ऐसी भावना प्रकट करते हैं:--
भक्तत्यागविधेः सिसाधयिषया येाद्यवस्थाः क्रमा,चत्वारिंशतमन्वहं निजबलादारोढुमुद्युञ्जते । चेष्टाजल्एनचिन्तनच्युताचदानन्दामृतस्रोतसि,
स्नान्तः सन्तु शमाय तेऽद्य यमिनामत्राग्रगण्या मम ॥ ९९ ॥ जो संयमियोंमें अग्रगण्य साधुजन आज इस भरतक्षेत्र और पंचमकालमें रहकर भी भक्त प्रत्याख्यान मरणको सिद्ध करनेकी इच्छासे अहं लिङ्ग आदि चालीस पर्यायों--अवस्थाऑपर प्रतिदिन और अपनी शक्तिके अनुसार क्रमसे आरोहण करनेकेलिये सोत्साह प्रवृत्त रहा करते हैं, और चेष्टा वचन तथा विचारोंसे च्युन-मन वचन और कायके अगोचर चिदानन्द स्वरूप अमृतके स्रोतमें अवगाहन करके शुद्धिको प्राप्त हो चुके हैं, उनके प्र. सादसे मुझे प्रशमकी प्राप्ति हो । क्योंकि ऐसे महातपस्वियोंके स्मरणसे अवश्य ही आत्मामें शान्तिका लाम होता है।
जो साधु आत्माका संस्कार करते समय कान्दी आदि पांच प्रकारकी संक्लिष्ट भावनाओंको छोडकर तप श्रुत सत्व एकत्व और धृति इन पांच भावनाओंका प्रयोग करता है वह सहजमें ही परीषहोंको जीत सकता है, ऐसा उपदेश देते हैं:
कान्दीप्रमुखाः कुदेवगतिदाः पञ्चापि दुर्भावना,स्त्यक्त्वा दान्तमनास्तपःश्रुतसदाभ्यासादीबभ्यभृशम् । भीष्मेभ्योपि समिद्धसाहसरसो भूयस्तरां भावय - नेकत्वं न परीषदतिसुधास्वादे रतस्तप्यते ॥१०॥
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KK C
कान्दप कैल्विषी आभियोगा दानवी और संमोहा इस तरह दुर्भावनाएं पांच प्रकारकी मानी हैं। जो साधु इनमें प्रवृत्त होता है वह देवगतिमें जाकर भी भाण्ड तौरिक काहार शौनिक कुक्कर आदि नीच अवस्थाओं को धारण करता है, अर्थात् मरकर कुदेव होता है । अत एव इन कुत्सित भावनाओंको छोडकर और अपने मनको वशमें करके जो निरंतर तपोभावना और श्रुतभावनामें लीन रहता है, तथा इस तप और श्रुतका सदा अभ्यास और इसीके बलपर साहसिकता के निरंतर उद्दीप्त रहनेसे अत्यंत भयंकर वेतालादिकोंसे भी जो कभी भयको प्राप्त नहीं होता किन्तु पुनः पुनः एकत्वका विचार किया करता है वह साधु निरंतर संतोषामृत के पान करनेमें रत रहा करता है और इसीलिये वह कभी भी क्षुधा पिपासा आदि परीषहोंसे पीडित नहीं हो सकता ।
भावार्थ - दुर्भावनाओंका परित्याग और मनका निर्दलन करके जो मुमुक्षु तप श्रुत सत्व और एकत्वका निरन्तर अभ्यास करता हुआ धैर्यको धारण करता है वही परीषद्दोंका विजेता हो सकता है। मिथ्या और समीचीन भावनाओंका स्वरूप इसप्रकार है:
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कन्दर्प (रागके उद्रेकसे इसी दिल्लगी के साथ साथ अशिष्ट शब्द बोलना ) कौत्कुच्य ( शरीरसे दुश्वेश करते हुए अश्लील दिल्लगी करना और भंड वचन बोलना ) विहेतन ( प्रतारणा करना, या किसीको यातना देना आदि) यद्वा केवल परिहास करना अथवा चाटु कारके शब्द बोलना या दूसरोंको विस्मय उत्पन्न करना इत्यादि अनेक प्रकारकी क्रियाओंके निरंतर करनेको कान्दप भावना कहते हैं । केवली श्रुत धर्म आचार्य और साधुओं के अवर्णवाद -- असद्भूत दोषोंके निरूपण करने तथा मायाचार रखनेको heart atta कहते हैं । आनन्दोत्पादक रस ऋद्धियोंके निमित्तसे मंत्र अभियोग कौतुक या भूतक्रीडा आदि अनेक तरहके कर्म करनेमें निरत रहनेको अभियोग भावना कहते हैं। क्रोध रोष आदि कषायोंसे आविभूर्त रहना तथा लडाई झगडों आदि में आसक्त रहना एवं करुणा या कोमलता अथवा सहानुभूति आदिक भावोंसे रहित प रिणामोंका रखना दानवी भावना कही जाती है । सन्मार्ग के प्रतिकूल और मिथ्यामार्ग के समर्थन करनेमें अपनी बुद्धिकी पटुता प्रकट करना तथा प्राणियोंको मोह - मिथ्यात्व अथवा रागद्वेषादिकसे मोहित करना आदि संमोहा भावना कही जाती है।
TEASER NAMAS
धर्म
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बनगार
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ये पांच प्रकारकी दुर्भावनाएं हैं जिनके कि करनेमे तपस्वी परलोकमें कुदेव होता है। इसके विरुद्ध मोक्षमार्गकी साधक पांच समीचीन भावनाएं हैं जिनका कि निर्देश ऊपर किया जाचुका है। फिर भी उनका स्वरूप संक्षपमें इस प्रकार है:
इन्द्रियोंका स्वामी मन है। मनकी प्रेरणासे ही इन्द्रियां अपने विषयों में प्रवृत्त हुआ करती हैं। इसलिये यदि इन्द्रियोंको जीतना हो तो पहले मनको वशमें करना चाहिये । मनके वशमें होजानेपर इन्द्रियां स्वयं ही वशीभूत होजाती हैं। और वह वशीभूत मन समाधिका कारण बनता है। अत एव अनेक प्रकारसे मन और इन्द्रियों के वश करते रहने के प्रयत्नका ही नाम तपोभावना है । ज्ञान दर्शन चारित्र और तप इन चारो आराधनाओंकी सिद्धि आगमका अभ्यास करनेसे ही होसकती है और इसके निमित्तसे ही मुमुक्षु साधु असंल्किष्ट होकर सुखका भोग कर सकता है । अत एव पुन: पुनः आगमके अभ्यास करनेको श्रुतभावना कहते हैं। दिन में अथवा रातमें अत्यंत भयानकरूप रखकर देवोंके द्वारा डरायेजानेपर भी भयके वश न होना तथा उत्कृष्ट साहसका रखना इसको सत्व भावना कहते हैं। संसार शरीर और भोगोंसे विरक्त रहकर मोक्षमार्गमें रत रहनेको एकत्व भावना कहते हैं। जिसको देखकर साधारण शक्तिवाले लोगोंको भय उत्पन्न होने लगे एवं जिसका वेग मार्गको दुर्धर बनानेवाला है ऐसी परीपहोंकी सम्पूर्ण सेना समस्त उपसगों के साथ साथ भी आकर यदि उपस्थित हो तो भी आरब्ध मोक्षमार्गमें निराकुल रहना तथा सम्पूर्ण मनोरथोंके सिद्ध करनेवाले धैर्यको न छोडना धृति भावना कही जाती है। भक्त प्रत्याख्यानका लक्षण और सल्लेखनाके जघन्य तथा उत्कृष्ट कालका प्रमाण बताते हैं:
यस्मिन् समाधये स्वान्यवैयावृत्त्यमपेक्ष्यते ।
तद्वादशाब्दानीपेन्तर्मुहूर्तं चाशनोञ्झनम् ॥ १.१॥ समाधिकी इच्छा रखनेवाले साधुओंको भक्तप्रत्याख्यान मरणमें रत्नत्रयको एकाग्र रखनेकेलिये स्ववै. यावृत्य और परवैयावृत्य दोनों ही की अपेक्षा रहा करती है । तथा इस मरणका जघन्यकाल अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट बारह वर्षका है।
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अनगार
व्युत्सर्ग तपका फल बताते हैं:-- नैःसङ्गयं जीविताशान्तो निर्भयं दोषविच्छि दा।
स्यायुत्साच्छिवोपायभावनापरतादि च ॥ १०२ ॥ .. व्युत्सर्ग तपके प्रसादसे सम्पूर्ण परिग्रहका निग्रह होजानेसे निर्ग्रन्थताकी सिद्धि, और जीवनकी आशाका विनाश तथा भयका अभाव होता है, रागादिक दोषोंका उच्छेद और मोक्षमार्ग--रत्नत्रयके अभ्यास करने में तत्परता होती है । अधिक क्या सभी लौकिक और पारलौकिक अभ्युदयों तथा अन्तमें मोक्षकी भी इससे सिद्धि हुआ करती है।
अन्तिम अन्तरङ्ग तप-ध्यानका वर्णन करनेकी इच्छासे उसके मिथ्या और समीचीन भेदोंका वर्णन करते हुए इस बातका उपदेश देते हैं कि प्रशस्त ध्यान के विना सम्पूर्ण क्रियाओंका पालन करते रहने पर भी मोक्षकी प्राति नहीं हो सकती:--
आर्त रौद्रमिति द्वयं कुगतिदं त्यक्त्वा चतुर्धा पृथग्, धम्यं शुक्लमिति द्वयं सुगतिद ध्यानं जुषस्वानिशम् । नो चेक्लेशनृशंसकर्णिजनुरावर्ते भवाब्धी भ्रमन्,
साधो सिद्धिव, विधास्यसि मुधोत्कण्ठामकुण्ठश्चिरम् ॥ १०३ ॥ .. मनके किसी भी एक विषयमें लीन होनेको ध्यान कहते हैं। यह दो प्रकारका होता है, एक मिथ्या दसरा समीचीन । मिथ्या भी दो प्रकारका होता है, एक आत दूसरा रौद्र । तथा समीचीन भी दो प्रकारका होता है, एक धर्म्य दूसरा शुक्ल । इनमें भी प्रत्येकके उत्तर मेद चार चार होते हैं । यथा आर्तध्यानके इष्टवियोग अनिष्टसंयोग पीडाचिन्तवन और निदान । रौद्रध्यानके हिसानन्द मृषानन्द चौर्यानन्द और परिग्रहानन्द । एवं
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बनगार
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अध्याय
SEA
धर्मध्यानके आज्ञाविचय अपायविचय विपाकविचय और संस्थानविचय । तथा शुक्लध्यानके पृथक्त्ववितर्कवचिार एकत्ववितर्क सूक्ष्मक्रियाप्रतिप। और व्युपरतक्रिया निवृत्ति ।
इष्टपदार्थ स्त्री पुत्र धन गृह आदिका वियोग होजानेपर दुःखके साथ उसकी प्राप्तिकेलिये पुनः पुनः विचार करना, अथवा संयोग रहनेपर भी संयोग ही बना रहे कभी वियोग न हो ऐसा उसके विषय में बार बार विचार करते रहना इसको इटवियोग नानका अर्तिध्यान कहते हैं। इसी प्रकार अनिष्ट पदार्थका संयोग हो जानेपर उसके वियागके लिये अथवा वियोग रहनेपर उसका कभी भी संयोग न होनेके लिये पुनः २ विचार करनेको अनिष्टसंयोग नामका अतिध्यान कहते हैं । तथा कभी आधि व्याधि प्राप्त न हो इस तरहका अथवा उनके प्राप्त होनेपर उनके दूर होनेके लिये चिन्ता करते रहनेको पीडाचिन्तवन, और भविष्यत् में भोगादिकोंकी अभिलाषा पूर्ण करने के लिये संकल्प करनेको निदान आर्तध्यान कहते हैं ।
हिंसा झूठ चोरी और कुशील अथवा परिग्रहमें आनन्द मानना तथा उनकेलिये खुशीके साथ प्रवृत्ति करना इसको ही क्रममे हिंसानंद मृषानंद चौर्यानंद और परिग्रहानंद कहते हैं।
अरिहंत देवकी आज्ञाका मुझसे भंग न हो यद्वा कोई भी उसका भंग न करे तथा सर्वत्र उसका प्रचार हो ऐसा विचार कग्नेको आज्ञा विचय, ये सम्पूर्ण संसारी प्राणी जो अनेक प्रकारके दुःखोंको भोग रहे हैं वे उनसे कब मुक्त हां ऐसा विचार करनेको अपाय विचय, और ये सभी संसारी जीव कर्मोदयके वशमें पडकर इस तरह संष्टि हो रहे हैं ऐसे कर्म फलके विषय में बार बार विचार करनेको विपाकविचय, तथा लोकके आकारादिके विषययें पुनः पुनः विचार करनेको संस्थान विचय नामका धर्मध्यान कहते हैं ।
वितर्क शब्दका अर्थ श्रुत और वीचार शब्दका अर्थ व्यंजन तथा योगकी संक्रांति होता है। जिस ध्यानमें पृथक्त्व - योगों की भिन्नता के साथ साथ ये दोनों बातें रहें उसको पृथक्त्व वितर्कवीचार नामका शुक्लध्यान कहते हैं. और जिसमें एक ही योग के साथ वितर्क तो हो पर वीचार न हो उसको एकत्व वितर्क कहते हैं। जिसमें काययोगी भी स्थूल परिणति छूट जाती हैं किन्तु मन्दस्पन्दता ही रहजाती है उसको सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, और जिसमें सम्पूर्ण ही क्रिया छूट जाय उसको व्युपरतक्रियानिवृति नामका शुक्लध्यान कहते हैं।
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बनगार
इस प्रकार ध्यानोंका स्वरूप संक्षेपसे यहाँपर बताया है। इनमेंसे आदिके जो दोनों आत और रौद्र नाममिथ्या ध्यान वे तिर्यश्च नारक कुदेव या कुमानुषत्व आदि खोटी पर्यायोंके कारण हैं। तथा अंतके जो धर्ना और शक नामके सद्धथान हैं वे सुगतियों-सुदेवत्व सुमानुषत्व तथा अंतमें मोक्षको भी देवाले हैं। अत एव हे साधो । त इन दुध्योनोंको छोडकर निरंतर समीचीन ध्यानोंका ही प्रीतिपूर्वक सेवन कर । अन्यथा अनेक व्रत उ. । पवासादि क्रियाकाण्डमें सदा उद्यत रहते हुए भी तू सिद्धवधूको चिरकालकेलिये अपने ऊपरसे उत्कण्ठाशून्य बनाले गा. और अत्यंत भयंकर तथा क्रूर मकर मच्छ आदि जलजंतुओंके समान विविधक्लेशोंसे पूर्ण तथा जन्ममरणरूप मेंवरोंसे मरे हुए भव-समुद्रमें भ्रमण करता फिरेगा।
भावार्थ-मोक्षकी सिद्धि सयानके प्रसादसे ही हो सकती है अत एव मुमुक्षु साधुओंको उसमें अवश्य । प्रवृत्त होना चाहिये । अंतमें तपके विषय में उद्योतनादिक पांचो आराधनाओंका और उसके फलका वर्णन करते हैं:
यस्त्यक्त्वा विषयाभिलाषमभितो हिंसामपास्यंस्तप.स्यागूणों विशदे तदेकपरतां बिभ्रत्तदेवोद्गतिम् । नीत्वा तत्प्रणिधानजातपरमानन्दो विमुञ्चत्यसून,
स स्नात्वाऽभरमर्त्यशर्मलहरीष्वी परां निवृतिम् ॥ १.४॥ इन्द्रियों के विषयोंकी अभिलापाको छोडकर और द्रव्य तथा भाव दोनों ही प्रकारका हिंसाका भी सर्वथा परित्याग करके जो साधु पूर्वोक्त निर्मल तपश्चरण में उद्यत रहकर उसीमें रत रहता हुआ उसके अन्त दर्जेकी समुन्नतिको प्राप्त होजाता है, तथा उस निर्मल तपश्चरणमें रहनेवाली अव्यवच्छिन्न परिणति-एकतानताके नि. मित्तसे उत्पन्न हुए प्रकृष्ट प्रमोदको प्राप्त होकर प्राणों का परित्याग करता है वह साधु देव और मनुष्यगतिके सुखसमुद्र में अवगाहन करके अन्तमें परममुक्तिको प्राप्त होता है।
अध्याय
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अनगार
७३०
बध्याय
७
भावार्थ - तपके विषय में पांच आराधनाएं बताई हैं-उद्योतन उद्यवन निर्वहण साधन और निस्तरण । दिपयामिलाषाको छोडकर हिंसाका त्याग करना उद्योतन, निर्मल तपमें उद्यत रहना उद्यवन, उस तपमें ही लीन रहना निर्वहण, और उस तपस्या में अंतिम दर्जे की उन्नति करना साधन, तथा उस तपोजनित आनन्दमें मरणान्त निमग्न रहना निस्तरण कहा जाता है। इन पांच आराधनाओंमें रत रहनेवाला ही साधु देव और मनुष्यगति के उत्कृष्ट अभ्युदयोंका भोगकर जीवन्मुक्ति और अंतमें परममुक्तिको प्राप्त होता है ।
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धम
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आठवां अध्याय ।
अनगार
ठपके विनयरूपसे षडावश्यकोंका पालन करनेकेलिये पहले संक्षेपमें कहा जा चुका है । अब उन्हीको ७३१ || खुलासा समझानेकेलिये निरूपण करते हैं:
अयमहमनुभूतिरितिस्ववित्तिविषजत्तथेतिमतिरुचिते ।
स्वात्मनि निःशङ्कमवस्थातुमथावश्यकं चरेत् षोढा ॥१॥ जो स्वसंवेदन प्रत्यक्षका विषय है, और जो " अहं"-" मैं" इस उल्लेखके द्वारा अनुभवमें आता है वह शुद्ध ज्ञानघनस्वरूप आत्मा मैं ही हूं । इस अनुभवको ही स्वपरज्ञप्ति अथवा स्वसंविचि कहते हैं। जो इस आत्मसंवेदनके द्वारा जिसमें कि भिन्नताका अवभास नहीं हो सकता एसी एकतानताको प्राप्त हो गया है और जो रुचि अथवा श्रद्धाका विषय हो चुका है-अपने द्वारा अपनमें ही जिसका निश्चय किया जा चुका है ऐसे निज आत्मस्वरूपमें निःशङ्क-निश्चित सुखका अनुभव करते हुए अथवा निःसंशय-निश्चल होकर उत्पाद व्यय और धोव्यके समुदयरूप आत्मवृत्तिमें अबस्थित होने केलिये तपस्वियोंको छह प्रकारके आवश्यकोंका पालन करना चाहिये।
___ मुमुक्षुओंके छह आवश्यक कोंके निर्माणका समर्थन करनेकेलिये चौदह पद्योंमें स्थलशुद्धिका विधान अध्याय करते हैं। उसमें सबसे पहले आत्मा और शरीरके भेद ज्ञान तथा वैराग्यके द्वारा जिसकी शक्ति नष्ट करदी गई है ऐसा विषयों का उपभोग कर्मबन्धका कारण नहीं हो सकता, इस बातको दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं:--
मन्त्रेणेव विषं मृत्य्वे मध्वरत्या मदाय वा। . न बन्धाय हतं ज्ञप्त्या न विरक्त्यार्थसेवनम् ॥२॥
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अनगार
ENTER
७३२
मन्त्रद्वारा जिसकी सामर्थ-मारणशक्ति नष्ट करदी गई है ऐसे विषका भक्षण करनेपर भी जिस प्रकार मरण नहीं होता उसी तरह आत्मा और शरीरका भेद ज्ञान रहने पर विषयोंका सेवन करनेसे कोका बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार विना प्रीतिके पिया हुआ भी मद्य जिम तरह मद-नशा या वेहोशीको करनेवाला नहीं होता उसीप्रकार भेद ज्ञान द्वारा उत्पन्न हुए वैराग्यके अन्तरङ्गमें रहनेपर वह विषयोपभोग कम बन्धका कारण नहीं हो सकता।
भावार्थ--यहांपर भेदज्ञान और वैराग्य इन दोनोंकेलिये क्रमसे दो उदाहरण दिये हैं। इन उदाहरणांसे यह बात स्पष्ट है कि यदि अंतरङ्गमें भेदज्ञान और वैराग्य हो तो इन्द्रोयोंके विषयोंका सेवन करते हुए भी कर्मोंका बन्ध नहीं हो सकता।
ज्ञानी जीवका विषयोपभोग स्वरूपकी अपेक्षासे यद्यपि सद्रूप है तो भी उससे विशिष्ट फल उत्पन्न नहीं होता इसलिये उसे असद्रूप ही कहना चाहिये । इसी बातको दृष्टान्तद्वारा दृढ करते हैं:
ज्ञो भुञ्जानोपि नो भुङ्क्ते विषयांस्तत्फलात्य यात ।
यथा परप्रकरणे नृत्यन्नपि न नृत्यति ॥३॥ जिस प्रकार नृत्यकार अन्य पुरुषके विवाहादिक उत्सवके समय केवल शारीरिक चेष्टामात्रसे ही नृत्य करता है न कि उपयोग लगाकर । उसका उपयोग तो उस समय उधरसे विमुख ही रहता है । क्योंकि उसका वहां पर कोई फल भी नहीं होता । अत एव उसको नृत्य करते हुए भी उपयोगकी अपेक्षा से नृत्य नहीं करता है ऐसा ही कहना चाहिये । इसी प्रकार जो मनुष्य ज्ञानी है-आत्मस्वरूपके ज्ञानमें उपयुक्त है चह चेष्टामात्रसे यद्यपि इन्द्रयोंके विषयोंको भोगता है फिर भी उसे अभोक्ता ही समझना चाहिये । क्योंकि वास्तव में उसका विषयोंकी तरफ उपयोग नहीं रहता। "आज मैं धन्य हूं जो इस तरहके उत्कृष्ट भोगोंको भोग रहा हूं" ऐसा आमिमानिक रस और बुद्धिपूर्वक राग उसके नहीं पाया जाता । इसलिये उसके कर्मोंका बन्ध मी नहीं होता।
भावार्थ-कर्मोंका संचय बुद्धिपूर्वक रागादिकके द्वारा हुआ करता है। ज्ञानीके विषयोंके सेवन करने में बद्धिर्वक रागादि नहीं रहते । अत एव उसके कर्मोंका बन्ध भी नहीं होता । विषय सेवनका फल कर्मबन्ध है सो
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बनगार
धमे०
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जब ज्ञानीक नहीं होना तब उसको विषयों का मोक्ता कहना ही व्यर्थ-निष्फल है। अत एव आत्मज्ञानी जीव भोक्ता रहनेपर मी अभोक्ता ही माना जाता है।
ज्ञानी और अज्ञानीके कर्मबन्धकी विशेषता बताते हैं:नाबुद्धिपूर्वा गगाद्या जघन्यज्ञानिनोपि हि ।
बन्धायालं तथा बुद्धिपूर्वा अज्ञानिनो यथा ॥ ४॥ जिसको मध्यम या उत्कृष्ट आत्मज्ञान है उसकी तो बात ही क्या जघन्य दर्जेके आत्मज्ञानवाले पुरुषके मी सम्पूर्ण रागादिक आत्मदृष्टिपूर्वक ही हुआ करते हैं अत एव वे कर्मबन्ध करानेमें भी समर्थ नहीं हुआ करते । किंतु अज्ञानीके इसके विपरीत समी रागादिक आत्मदृष्टि रहित होते हैं अत एव उसके वे समी भाव कर्म बन्धके ही कारण हुआ करते हैं।
अनादि कालसे आत्माके साथ जो प्रमाद या अज्ञानजनित आचारणका सम्बन्ध चला आ रहा है उसपर अपशोच प्रकट करते है:
मत्प्रच्युत्य परेहमित्यवगमादाजन्म रज्यन् द्विषन्, प्रामिथ्यात्वमुखैश्चतुभिरपि तत्कर्माष्टधा बन्धयन् । मूर्तेर्मूर्तमहं तदुद्भवभवैर्भावैरसंचिन्मयै,
यो योजमिहाद्य यावदसदं ही मां न जात्वासदम् ॥५॥ चेतनाका चमत्कार मात्र है स्वभाव जिसका ऐसी अपनी आत्माको हाय मेंने कभी भी प्राप्त नहीं किया-निजस्वरूपकी तरफ मेरी अभी तक कभी दृष्टि ही नहीं गई, बल्कि उस आत्मस्वरूपसे विमुख होकर पर शरीरादिकमें ही मैं आत्मबुद्धि धारण किये रहा जड शरीगदिकों को ही " ये मैं हूं" ऐसा मानता रहा । हा ! इस अज्ञान के कारण ही मैं अनादिकालसे इष्ट पदार्थों गग और अनिष्ट विषयोंमें द्वेष करता रहा हूं। और
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बध्याय
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इसीलिये मिथ्यात्वादिक – मिथ्यात्व असंयम कपाय और योग इन चार पूर्वसंचित पौगालिक भावोंसे उन प्रसिद्ध आठ प्रकारके मूर्त रूप रस गंध स्पर्श युक्त ज्ञानावरणादि कर्मोंका बन्ध करता रहा, तथा उनके उदयसे उत्पन्न हुए अज्ञानमय मिथ्यादर्शन और रागादि विभावरूप परिणत हो हो कर आज तक इस संसार में दुःख और क्लेशको ही भोगता रहा हूं ।
भावार्थ - अनादि काल से आजतक मेरा आत्मस्वरूपकी तरफ कभी भी वास्तव में लक्ष्य नहीं गया । इसीलिये अब तक मैं कर्मचेतना और कर्मफल चेतनाका ही अनुभव कर केवल दुखों को ही भोगता रहा | दूसरी जगहपर बन्धके कारण मिथ्यात्वादि पांच बताये हैं किंतु यहांपर चार ही लिखे हैं इसलिये किसी प्रकारका विरोध न समझना चाहिये । क्योंकि प्रमादका अविरतिमें अन्तर्भाव हो जानेपर चार भी बन्धके कारण कहे जा सकते हैं।
आत्माका कर्तृत्व और भोक्तृत्व स्वरूप वास्तविक नहीं है, वह परपदार्थ की अपेक्षा से ही है, सो भी जब तक शरीर और आत्माका भेद ज्ञान नहीं होता है तब तक और केवल व्यवहार नयसे ही माना है । वास्तवमें तो आत्माका स्वरूप ज्ञातृत्व ही है। इसी बात को दिखाकर भेद ज्ञानके हो जानेपर शुद्ध निज आत्मस्वरूपका अनुभव करने के लिये प्रयत्न करनेकी प्रतिज्ञा करते हैं:
स्वान्यावऽप्रतियन् स्वलक्षणकलानैय प्रतोऽस्त्रेऽहमि — त्यैक्याध्यासकृतेः परस्य पुरुषः कर्ता परार्थस्य च । भोक्ता नित्य महंतयानुभवनाज्ज्ञातैव चार्थात्तयो,स्तत्स्वान्यप्रविभागबोधबलतः शुद्धात्मसिद्ध्यै यते ॥ ६ ॥
जीव और अजीवका लक्षण तथा स्वरूप भिन्न भिन्न है। किंतु उसको न पहचान कर - आत्मा और शरीर में जो स्वरूपकी विशेषता नियत-सिद्ध है उसको न समझकर अनात्मस्वरूप शरीरादिक में जो ये ही मैं हूं इस तरहका
华際公鍌察会公安、公安
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अभेदाध्यवसाय होता है उसीसे जीवको कर्मादिकोंका कर्ता और परार्थ-कर्मादिकोंके फलका भोक्ता माना है। अर्थात भेद ज्ञान न होनेतक आत्मा शरीरादिकके विषयमें कर्ता और भोक्ता है किंतु व्यवहारसे ही है न कि निश्चयसे। वास्तवमें तो वह केवल कर्मादिक या उसके फलादिकका ज्ञाता ही है न कि कर्ता या भोका। क्योंकि "अहं"_"मैं" इस उल्लखके द्वारा उसके विषय में नित्य ऐसा ही अनुभव होता है। जैसा कि कहा भो कि:
मा कर्तारममी स्पृशन्तु पुरुषं सांख्या इव ह्याहताः, कर्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधादधः। ऊवं तूद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं,
पश्यन्तु च्युतकर्मभावमचलं शतारमेकं परम् ॥ सांख्य जिस प्रकार आत्माको कर्ता मानते हैं उस प्रकार आईत नहीं मानते । आईत लोग जब तक भेद ज्ञान नहीं होता है तभी तक उसको कर्ता मानते हैं, बाद में नहीं। बादमें तो वे उसको स्वयं अनुभवमें आने योग्य प्रत्यक्षस्वरूप नियत अनंतज्ञानका भंडार और सम्पूर्ण कर्म तथा विमावोसे रहित सर्वोत्कृष्ट अद्वितीय निश्चलटंकोत्कीर्ण ज्ञाता मानते हैं।
अत एव मुमुक्षुओंको निश्चय करना चाहिये कि अब मैं स्व और परके मेद ज्ञानका बल उदभत हो जानेपर निर्मल निज आत्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिये ही प्रयत्न करूंगा।
आत्माके सम्यग्दर्शनस्वरूपका अनुभव करते हैं।
यदि टोत्कीर्णकज्ञायकभावस्वभावमात्मानम् ।
रागदिभ्यः सम्यग्विविच्य पश्यामि सुदृगस्मि ।। ७॥ भले प्रकार-संशय विपर्यय और अनध्यवसायको छोडकर यदि मैं रागादिकसे भिन्न अपने स्वरूपका अनुभव करता हू तो वह एक कर्तृत्वादि भावोंसे रहित टङ्कोत्कीर्ण ज्ञायकमावस्वभाव सम्यग्दर्शनस्वरूप ही अनुभवमें आता है।
१-टांकीसे उकेरी हुई मूर्ति के समान जिसका आकार निश्चल और बिलकुल स्पष्ट हो उसको टंकोत्कीर्ण कहते हैं।
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अनगार
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अध्याय
८
रागादिकसे निजस्वरूपकी भिन्नताका समर्थन करते हैं: -
ज्ञानं जानतया ज्ञानमेव रागो रजत्तया ।
राग एवास्ति नत्वन्यत्तच्चिद्रागोस्म्यचित् कथम् ॥ ८ ॥
ज्ञानका स्वभाव जानना-स्व और परपदार्थोंको अवभासित करना है, अत एव अपने इस स्वभाव के कारण ज्ञान ज्ञान ही रह सकता है, वह अन्यस्वरूप - रागादिरूप नहीं हो सकता। इसी प्रकार रागका स्वभाव इष्टविषयों में प्रीति उत्पन्न करना है । अत एव वह भी अपने इस स्वभावके कारण राग ही रह सकता है - ज्ञानरूप नहीं हो सकता । यही बात द्वेष या मोहादिके विषय में भी समझनी चाहिये । अर्थात् ज्ञानादिक सभी भाव अपने अपने स्वभाव के कारण भिन्न भिन्न रूप नहीं हो सकते, अपने अपने स्वभावमें ही रह सकते हैं, ज्ञान रागादिरूप नहीं हो सकता और रागादिक ज्ञानरूप नहीं हो सकते । ज्ञान ज्ञान ही रहेगा और रागादिक रागादिक ही रहेंगे। जब कि यह बात सिद्ध है तब चित्स्वरूप - ज्ञानस्वभाव मैं अचित् रागद्वेष मोहरूप किस तरह हो सकता हूं ? कभी नहीं हो सकता ।
इसी बात को संक्षेप में और भी स्पष्ट करते हैं:--
नान्तरं वाङ्मनोप्यस्मि किं पुनर्बाह्यमङ्गगीः । aa कोऽङ्गसङ्गजेष्वैक्यभ्रमो मेऽङ्गाऽङ्गजादिषु ॥ ९ ॥
शरीर और वाणी आदि तो प्रत्यक्ष ही मुझसे सर्वथा बाह्य - पृथक् दीखते हैं अत एव इनके कहना ही क्या किन्तु अन्तरङ्ग --जो दृष्टिगोचर नहीं होते ऐसे अन्त जल्पविकल्पस्वरूप जो वचन या
विषय में तो मन हैं त
२ - रामादिक यद्यपि स्वसंविदित हैं तो भी परस्वरूपका सवेदन नहीं कर सकते इसलिये उन्हे अचित् ही कहना चाहिये ।
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स्वरूप भी में नहीं हूं। इसलिये हे अङ्ग! केवल शरीरके संसर्ग मात्रसे उत्पन्न हुए पुत्रादिकों के विषयमें तो मुझे ऐक्य-अभेदका भ्रम हो ही किस तरह सकता है?
भावार्थ-द्रव्य और भावरूप वचन या मन तथा शरीर और उससे सम्बन्ध रखनेवाले माता-पिता भ्रा. ता भगिनी स्त्री पुत्र आदि सभी तत्त्वतः मुझसे भिन्न है और मैं उनसे भिन्न हूं।
आत्मा ही अष्टाङ्ग सम्यग्दर्शनस्वरूप है इस बातको स्पष्ट करते हैं:
यत्कस्मादपि नो बिभेति न किमप्याशंसति क्वाप्युप,क्रोशं नाश्रयते न मुह्यति निजाः पुष्णाति शक्तीः सदा । मार्गान्न च्यवतेऽञ्जसा शिवपथं स्वात्मानमालोकते,
माहात्म्यं स्वमाभव्यनक्ति च तदस्म्यष्टांगसद्दर्शनम् ॥ १० ॥ सम्यग्दर्शन के निःशङ्कितत्व नि:कांक्षितत्व आदि आठ अंग माने हैं जिनका कि वर्णन पहले किया जा I चुका है। इन आठो अशोके होनेसे सम्यग्दर्शन पूर्ण माना जाता है। किंतु यह अष्टाङ्ग सम्यग्दर्शन मुझसे कोई मिन्न वस्तु नहीं है। बल्कि मैं ही अष्टांङ्ग सम्यग्दर्शन हूं। क्योंकि मैं निःशङ्क-निर्भय हूं, मुझे किसीसे भी भय नहीं होता । इहलोकभय परलोकमय अरक्षकमय अगुप्तिमय मरणभय वेदनामय और अकस्मात्भय । ये सात प्रकारकी जो भय बतलाई हैं वे आत्माको नहीं होती । जैसा कि कहा भी है कि:- ..
रूपैर्भयंकरैवाक्यैतुदृष्टान्तसूचिमिः। । ..
जातु क्षायिकसम्यक्त्वो न क्षुभ्यति विनिश्चलः ॥ इसी प्रकार आत्माको इस जन्ममें मोगोंकी और परभवमें इन्द्रादि पदोंकी आकांक्षा भी नहीं होती। न यह विष्टा आदि पदार्थों और क्षुधा पिपासा आदि मावों में ग्लानि ही करता है। किसी भी मिथ्या देव गुरु या.. शास्त्रमें वह मोहित-मुञ्छित भी नहीं होता । बल्कि जिनसे कर्मोंका संवर या निर्जरा हो सकती है, अथवा समस्त
दर्शनके निःशङ्कितत्व निकाल
जाता है। किंतु यह अष्टा
से भी भय
अध्याय
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३८.
काँसे रहित मोक्षकी मिद्धि हो सकती है, यद्वा अभ्युदयोंकी प्राप्ति और दतियोंकी निवृत्ति हो सकती उन अपनी सम्पूर्ण शक्तियोंको वह सदा पुष्ट किया करता है। और रत्नत्ररूप मार्गसे कभी विचलित नहीं होता. किंतु वास्तविक मोक्षमार्ग निज चित्स्वरूपका अवलोकन किया करता, और सदा अपने माहात्म्य-अचिन्त्यशक्ति विशेषका सर्वत्र प्रकाश किया करता है । इस प्रकार निश्चयसे देखा जाय तो में ही अष्टाङ्गसम्यग्दर्शन हूं। आत्माकी ज्ञान के विषयमें रति आदि रूप जो परिणति होती है उसको दिखाते हैं
सत्यान्यात्माशीरनुभाव्यानीयन्ति चैव यावदिदम् ।
ज्ञानं तदिहास्मि रतः संतुष्टः संततं तृप्तः ॥ ११ ॥ आत्मा-जीव, और आशी:-आगामी इष्ट पदार्थोकी अभिलाषा, तथा अनुभाव्य-जो कि वर्तमानमें अनुमवमें आरहे हो, ये तीनों ही पदार्थ सत्य हैं। और उतने ही हैं जितने कि इस ज्ञानने जाने हैं, अर्थात् जितना यह स्वयं संवेद्यमान ज्ञान है उतना ही आत्मा है और उतनी ही आशी है तथा अनुभवनीय पदार्थ भी उतना ही है । अत एव में इम ज्ञान में ही निरंतर रत-आसक्त रहता तथा संतोषको धारण कर तृप्त-सुखी होता हूं। अथवा इसको पाकर में संतुष्ट और सुखी होगया हूं।
मेदज्ञानके निमित्तसे ही कर्मोंका बन्धन टूटकर मोक्ष और अनंत सुखका लाम हो सकता है। इसी बातको बताते हैं।:--
क्रोधाद्यास्रवविनिवृत्तिनान्तरीयकतदात्मभेदविदः।
सिध्यति बन्धनिरोधस्ततः शिवं शं ततोऽनन्तम् ॥ १२॥ क्रोधादिक आसवाकी विशेषरूपमे निवृति-संवरके साथ साथ जो उन क्रोधादिकात्रवों और आत्माके भेदका ज्ञान होता है उसीसे कर्मोके वधका निरोध हुआ करता है। बन्धका उच्छेद हो जानेपर मोक्षकी प्राप्ति और उससे पुनः अनन्तसुखकी सिद्धि हुआ करती है।
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यहाँपर क्रोधादिकमें आदि शब्द व्यवस्थावाची है । अत एव इससे जीवकी परतन्त्रताके निमित्तभूत राग द्वेष मोह और वादर सूक्ष्म योग तथा अघाति कमांक तीव्र और मन्द उदयके कालविशेषका भी ग्रहण कर लेना चाहिये। ___ भावार्थ- इन सम्पूर्ण आस्रवोंका निरोध और उसके साथ साथ भेद ज्ञान होनेसे ही मोक्ष कल्याण और अनन्तसुखकी सिद्धि होती है। जैसा कि कहा भी है किः
भेदविज्ञानत: सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन ।
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ।। प्रकृत विषयका उपसंहार करते हुए इस बातका उपदेश देते हैं कि साधुओंको शुद्ध आत्मसंवेदनका लाम होजानेपर अधाक्रियाओं के पालन करने में भी प्रवृत्त होना चाहियेः
इतीदृग्भेदविज्ञानबलाच्छुडात्मसंविदम् ।
साक्षात्कर्मोच्छिदं यावल्लभे तावद्भजे क्रियाम् ॥ १३ ॥ जिसका कि स्वरूप ऊपर लिखा जा चुका है और जैसा कि आगममें बतलाया भी है उस भेद विज्ञानकी सामय से शुद्ध-सम्पूर्ण संकल्प विकल्पोंमे गहित आत्मसंवेदनको जो कि घाति और अघाति सभी कर्मीको निर्मूल करने के लिये साक्षात्कारण है प्राप्त करूं तबतक मुझे मम्यग्ज्ञानपूर्वक सभी आवश्यक क्रियाओंका पालन करना चाहिये।
भावार्थ-आत्माका भिन्नत्वेन अनुभवन करनेरूप ज्ञान क्रियाका पालन मुमुक्षुका प्रधान कर्तव्य है, किन्तु जबतक वह मुख्यतया सिद्ध न हो तबतक उसकी साधनभूत अथवा अङ्गरूप अधस्तन क्रियाओंको भी पालना चाहिये ।
यहाँपर यह शंका हो सकती है कि जब मुमुक्षुका कर्तव्य निर्विकल्प आत्माका अनुभव करना है जिससे
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कि उसके अभीष्ट मोक्षकी सिद्धि हो सकती है तब उस के विरुद्ध कर्मबन्धकी कारण क्रियाओं का पालन करनेमें उसे प्रवृत्त क्यों होना चाहिये ? और क्या यह कथन आगमविरुद्ध नहीं है ? इसका उत्तर देते हैं:
सम्यगावश्यकविधेः फलं पुण्यास्रवोपि हि ।
प्रशस्ताध्यवसायोंहश्छित् किलेति मतः सताम् ॥ १४ ॥ ऐसा आगममें बतलाया है कि जिन प्रशस्त परिणामोंसे पुण्यकर्मका आस्रव और पापकर्मोंका उच्छेद होता है वे समीचीन आवश्यक विधानों के ही फल हैं। यही कारण है कि साधुजन इसके पालन करनेको स्वीकार करते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:--
आवश्यकं न कर्तव्यं नष्फल्यादित्यसांप्रतम् । प्रशस्ताभ्यवसायस्य फलस्यात्रोपलब्धितः ।। प्रशस्ताध्यवसायेन संचितं कर्म नाश्यते ।
काष्ठं काष्टान्त केनेव दीप्यमानेन निश्चितम् ।। आवश्यकोंका पालन करना निष्फल है, यह कहना ठीक नहीं है । क्योंकि उन्हीके निमित्तसे शुभ परिणा. मॉकी सिद्धि हुआ करती है और जिस प्रकार अग्निसे काष्ठ भष्म हो जाता है उसी प्रकार उन शुभ परिणामोंसे पूर्वसंचित कर्म नष्ट हो जाया करते हैं। .
यहाँपर कोई फिर कह सकता है कि पुण्यबन्ध भी तो कर्मका बन्व ही है। अत एव पापबन्धकी तरह पुण्यबन्ध करने का भी अनुरोध मुमुक्षु के लिये क्यों होना चाहिये ? इसका भी उत्तर देते हैं:
मुमुक्षोः समयाकर्तुः पुण्यादभ्युदयो वरम् । न पापादुर्गतिः सह्यो बन्धोपि ह्यक्षयाश्रिये ॥ १५ ॥
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रागद्वेषरूप परिणत न होनेवाले उदासीन ज्ञानको जो प्राप्त नहीं हो सकता उस मुमुक्षुके पापकर्मका संचय और उससे प्राप्त होनेवाली दुर्गतियोंकी अपेक्षा पुण्यकर्म और उसके द्वारा स्वर्गादि पदोंका प्राप्त होना अच्छा ही है । क्योंकि जिस बन्ध-पुण्यकर्मके संचयसे अक्षय लक्ष्मीकी प्राप्ति हो सकती है वह पुण्यबन्ध भी मुनियों के लिये सह्य हो सकता है।
भावार्थ-जिस प्रकार निष्कपट भक्ति करनेवाला कोई सेवक अपने स्वामीके द्वारा पीडित होनेपर भी कालान्तरमें उससे यथेष्ट लक्ष्मी प्राप्त करनेकी इच्छासे उसकी भक्ति ही करता है, उसी प्रकार मुमुक्षुजन जबतक शुद्ध निजात्मस्वरूपका लाभ नहीं होता तबतक जिनेन्द्रदेवकी भक्तिमें निरत रहता और उनकी उपदिष्ट क्रियाओंका पालन किया करता है। जिससे कि उस पुण्यबन्धका संचय होता है जो कि मोक्षलक्ष्मीकी सिद्धि के साक्षात कारण-ध्यानके साधनमें समर्थ उत्तम संहननादि निमित्तोंको प्राप्त करा सकता है।
इस प्रकार जिसकी कर्तव्यता मले प्रकार सिद्ध करके दिखादी गई है उस आवश्यकका निरुक्तिद्वारा अवतार करते हुए लक्षण बताते हैं:
____ यद्वयाध्यादिवशेनापि क्रियतेऽक्षावशेन तत् ।
आवश्यकमवश्यस्य कर्माहोरात्रिकं मुनेः ॥ १६ ॥ जो इन्द्रियों के वश्य- अधीन नहीं होता उसको अवश्य कहते हैं । ऐसे संयमीके आहोरात्रिक-दिन और रातमें करने योग्य कामोंका ही नाम आवश्यक है । अत एव व्याधि आदिसे ग्रस्त हो जानेपर भी इन्द्रियों के वशमें न पडकर जो दिन और रातके काम मुनियों को करने ही चाहिये उन्हीको आवश्यक कहते हैं।
. ऐसे आवश्यककर्म कितने हैं उनके नाम बताते हैं:सामायिकं चतुर्विशतिस्तवो वंदना प्रतिक्रमणम् । प्रत्याख्यान कायोत्सर्गश्चावश्यकस्य षड़ भेदाः ।। १७॥
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सामायिक चतुर्विंशतिस्तव वन्दना प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग । इस तरह आवश्यक कर्म छह प्रकारके होते हैं।
निक्षेपरहित व्याख्यान वक्ता और श्रोता दोनोंहीको उन्मार्गमें लेजानेवाला हो सकता है। अत एव सामायिकादि छहों आवश्यकोंको नामादि लहों निक्षेपोंपर घटित करके पालन करनेका उपदेश देते हैं:
नामस्थापनयोव्यक्षेत्रयोः कालभावयोः ।
पृथमिक्षिप्य विधिवत्साध्याः सामायिकादयः ॥ १८ ॥ आवश्यक नियुकिमें बताये हुए विधानके अनुसार नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल और भाव इन छह निक्षेपोंपर सामायिकादिको घटित करके आचार्योंको उनका व्याख्यान करना चाहिये और साधुओंको उनका पालन करना चाहिये।
इस तरह करनेसे सामायिक के छह मेद होते हैं। नाम सामायिक स्थापना सामायिक द्रव्य सामायिक क्षेत्र सामायिक काल सामायिक और भावसामायिक । इसी प्रकार चतुर्विशतिस्तवादिक भी विषयमें समझना चाहिये । प्रत्येक आवश्यकपर छहों निक्षेप लगते हैं, अत एव आवश्यकोंके कुल भेद छत्तीस होते हैं।
__सामायिकका निरुक्तिपूर्वक लक्षण बताते हैं:रागाद्यबाधबोध: स्यात् समायोस्मिन्निरुच्यते ।
भवं सामायिकं साम्यं नामादौ सत्य सत्यपि ॥ १९ ॥ . सम-रागद्वेषादिसे आक्रांत न होनेवाले अय-ज्ञानको समाय कहते हैं। इस तरह के ज्ञानमें अनुभवन रूप जो प्रवृत्ति होती है उसको ही सामायिक कहते हैं । सामायिकका ही मग नाम साम्य भी है। प्रशस्त और अप्रशस्त नाम स्थापना आदिके विषयमें क्रमसे रागद्वेष न करना इमीको साम्य कहते हैं।
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धर्म
१३
मावार्थ-शुभाशुभ विषयों में रागद्वेष न करके शुद्धचिन्मात्र के अनुभवन करनेको सामायिक या साम्य कहते हैं। यह नामादि निक्षेपोंकी अपेक्षासे छह प्रकारका हो सकता है । यथाः
नाम सामायिक-शुभाशुभ नामों को सुनकर रागद्वेष न करना।
स्थापनासामापिक-जैसा चाहिये वैसे ही प्रमाण से और मनोहरता आदिगुणोंसे युक्त स्थापनामें राग और उससे विपरीत में द्वेष न करना।
द्रव्यसामायिक- जो सुवर्णादिरूप था या होनेवाला है उसमें राग और जो मृत्तिकादिरूप होगया या होजायगा उसमें देषन कर समदर्शी मना।
क्षेत्रसामायिक-सुगंधि फलफूलोंसे पूर्ण वन उपवन और कटीली ककरीली आदि भूमिमें रागद्वेष न करना
कालसामायिक-वसन्त और ग्रीष्म प्रभृति ऋतुओं में दिन या रात्रिमें तथा शुक्लपक्ष या कृष्णपक्षमें एवं | प्रातः काल और सायंकाल आदि किसी भी मनोज्ञामनोज्ञ समयमें रागद्वेष न कर समता धारण करना।
भावसायिक-जीवमात्रके विषयमें दुर्भावनाओंको छोड कर मैत्रीभाव धारण करना।
नामसामायिकादि शन्दोंका अर्थ जैसा कुछ ऊपर लिखागया है उसके सिवाय और मीनीचे लिखे म. जब हो सकता है, उस अर्थका भी यहां संग्रह करलेना । यह बात इस श्लोकमें दिये हुए अपिशब्दके द्वारा सूचित की गई। यथा:- जाति द्रव्य गुण क्रिया आदिकी अपेक्षा न काके "सामायिक " ऐसी किसीकी संज्ञा खदेनेतो अथवा " सामायिक" इस शब्द मात्रको भी नामसामायिक कहते हैं। जो व्यक्ति सामायिकरूप परिणत है उसके गुणोंका उसके सदृश या विसदृश आकार रखनेपाले किसी भिन्न पदार्थमें आरोप करना इसको स्थापना सामायिक कहते हैं। जो सामायिकरूप परिण। हो चुका हो या आगे चलकर तद्रूप परिणत होनेवाला हो उसको द्रव्यसामायिक कहते हैं। यह दो प्रकारका होता है-एक आगमद्रव्यसामायिक दूसरा नो आगमद्रव्यसामायिक । सामा यिकके स्वरूपका निरूपण करनेवाले शास्त्रके ज्ञाता किंतु उस विषय अनुपयुक्त आत्माको आगम द्रव्यसामायिक कहते हैं।
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चनगार
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नोआगमद्रव्य सामायिक के तीन भेद हैं-ज्ञायकशरीर भावी और तद्रथतिरिरिक्त । सामायिकशास्त्र के जाननेवाले अनुपयुक्त शरीरको शाकशरीर कहते हैं। इसके भी तीन भेद हैं-भूत भविष्यत् और वर्तमान भूत भी तीन प्रकारका होता है - च्युतं व्यावित और त्यक्त । जो पके हुए फलकी तरह आयुके पूर्ण होनेपर स्वयं छूटजाय उसको ब्युत, और जो शस्त्रप्रहारविषमक्षण श्वासोच्छ्रास के निरोध आदि कारणोंसे छूटे उसको च्यावित, तथा समाधि द्वारा छोडे - हुएको त्यक्त कहते हैं । त्यक्तके भी तीन भेद हैं-भक्त प्रत्याख्यान इङ्गिनीमरण प्रायोपगमन । भक्त प्रत्याख्यान मी तीन तरहका है - उत्कृष्ट मध्यम जघन्य । उत्कृष्ट बारह वर्षका, जघन्य अन्तर्मुहूर्तका, और जिसका इन दोनों के मध्यका काल हो उसको मध्यम कहते हैं। जो आगे चलकर सामायिक शास्त्रका ज्ञाननेवाला होगा उसको भावीनो आगमद्रव्य सामायिक कहते हैं । तद्वयतिरिक्त के दो भेद हैं- एक कर्म दूसरा नो कर्म । सामायिकरूप- परिणत जीवके द्वारा संचित होनेवाले तीर्थकर आदि शुभकमोंको कर्मतद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्य सामायिक कहते हैं । नो कर्म तद्व्यतिरिक्त तीन प्रकारका होता है - सचित्त अचित्त और मिश्र । उपाध्यायादिको सचित्त, पुस्तकादिको अचित्त, और उभयरूपको मिश्र कहते हैं । सामायिकरूप परिणत जीव जहाँपर स्थित हो उस गिरनार चम्पापुर पावापुर कैलाश आदि स्थानको क्षेत्र सामायिक, और जिस समय में वह सामायिकस्वरूप परिणत हो उस प्रातः काल मध्यान्हकाल और सायंकाल आदि समयको कालसामायिक कहते हैं।' वर्तमान में जो सामायिक पर्याय से युक्त है उसको भावसामायिक कहते हैं। इसके भी दो भेद हैं- आगम भावसामायिक और नो आगम भावसामायिक । सामायिक शास्त्र के जाननेवाले उपयुक्त आत्माको आगमभाव सामायिक कहते हैं । नो आगमभावके दो भेद हैं-उपयुक्त और तत्परिणत । जो सामायिक शास्त्र के विना ही सामायिकके अर्थका विचार कर रहा है- उधर उपयुक्त है उसको उपयुक्त नो आगमभावसामायिक, और जो रागद्वेष के अभावरूप परिणत है उसको तत्परिणत नोआगमभाव सामायिक कहते हैं।.
asiपर सामायिक विषयमें ही नामादि निक्षेप घटित किये हैं किन्तु इसी प्रकार चतुर्विंशतिस्तवनादि आवश्यकोंके विषय में भी घट सकते हैं सो स्वयं घटित करलेने चाहिये । तथा इस विषय में एक बात और भी
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ध्यान में रखने योग्य है वह यह कि यहाँपर सामायिक विषयमें यद्यपि छह निक्षेप और उनके मेदोंको घटित किया है फिर भी वास्तवमें प्रयोजन आगमभाव सामायिक और नो आगमभाव सामायिकसे ही है। दसरी तरहसे निरुक्ति करके भावसामायिकका फिरसे लक्षण बताते हैं:
समयो दृग्ज्ञानतपोयमनियमादौ प्रशस्तसमगमनम् ।
स्यात्समय एवं सामायिकं पुनः स्वार्थिकेन ठणा ॥२०॥ समय शब्दमें सम्का अर्थ प्रशस्तवा अथवा एकत्व होता है, और अयका अर्थ प्राप्ति या परिणति होता । अतएव परीषद कषाय और इन्द्रियों को जीतकर तथा संज्ञाओं दुर्लेश्याओं और दुनिोंको छोडकर दर्शन ज्ञान तप यम नियम आदिके विषयमें प्रशस्तताकी प्राप्ति अथवा एकत्व रूपसे परिणमन होनेको समय करते और समयकाही नाम सामायिकहे। क्योंकि समय शब्दसेही स्वार्थमें ठण् प्रत्ययः होकर सामायिक शब्द बनता है।
अपंह श्लोकों में सामायिक करनेकी विधि बताते हैं। उसमें सबसे पहले नाम सामायिककी भावनाका स्वरूप निरूपण करते हैं:
शुभेऽशुभे वा केनापि प्रयुक्ते नाम्नि मोहतः।
खमवाग्लक्षणं पश्यन्न रतिं, यामि नारतिम् ॥ २१॥ किसी भी शुभ या अशुभ नाममें अथवा यदि कोई मेरे विषय में ऐसे शब्दोंका प्रयोग करे तो उनमें मझे रतिया अरति न करनी चाहिये । क्योंकि वह शुभाशुम शब्द बोलनेवाला मोही-अज्ञानी है। वह नहीं जानता कि मैं शब्दका विषय नहीं हूं। किंतु मैं देखरहाहूं कि वास्ववमें मैं अवाग्लक्षण हूं। मैं शब्दके द्वारा नहीं जाना जा सकता, और न शब्द मेरा स्वरूप या लक्षण ही है। जैसा कि कहा भी है कि:
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसरं । जाणमलिंगरगहणं जीवमपिदिसंठाणं॥
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अर्थात् जीवका स्वरूप रस रूप और गंधसे रहित अव्यक्त तथा चेतना गुणसे युक्त शब्द रहित अलिंग और किसी भी खास आकार-संस्थानसे रहित समझना चाहिये।
स्थापना सामायिककी भावनाका स्वरूप बताते हैं:यदियं स्मरयत्यर्चा न तदप्यस्मि किं पुनः ।
इयं तदस्यां सुस्थति धीरसुस्थेति वा न मे ॥ २२॥ जैसा चाहिये पैसेही प्रमाणसे युक्त यह सामने दीखती हुई मूर्ति मुझे जिस अदादिरूपका स्मरण करा रही है क्या मैं तत्स्वरूप हूं? नहीं । तो क्या मैं इस मूर्तिस्वरूपहूं? नहीं-सर्वथा नहीं। यही कारण है कि मेरा ज्ञान-साम्यानुभव न तो इस मूर्ति मले प्रकार ठहरा हुआ ही है, अथवा न इससे विपरीत ही है।
द्रव्यसामायिकके अनुभवका स्वरूप बताते हैं:साम्यागमज्ञतदेही तद्विपक्षौ च यादृशौ ।
तादृशौ स्तां परद्रव्ये को मे खद्रव्यवद्हः ॥ २३ ॥ . सामायिक शास्त्रका ज्ञाता अनुपयुक्त आत्मा और उसका शरीर-ज्ञायक शरीर ये दोनों, तथा इनसे विपक्षभाविनोआगमद्रव्य सामायिक और तद्वयतिरिक्त-कर्म नो कर्म ये दोनो जैसे कुछ शुभ या अशुभ हैं, रहें, मुझे इनसे क्या ? क्योंकि ये पर द्रव्य हैं । साम्यमावरूप परिणत मुझे इन में खद्रव्य की तरह अभिनिवेश किस तरह हो सकता है ? कभी नहीं हो सकता।
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१-जीविय मरणे लाहालाहे सजोयविप्पजोएय । बंधुअरि सुहृदुहे विय समदा सामाइयं णाम ॥ इत्यादि २--३--इनका स्वरूप पहल लिखाजाचुका है।
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मावार्थ-यहाँपर खद्रव्य का जो दृष्टान्त दिया है उसको अन्वयमुख और व्यतिरेकमुख दोनों ही तरह से घटित करना चाहिये । क्योंकि स्वद्रव्यमें भी अभिनिवेश आरब्धयोगीके ही हो सकता है नकि निष्पनयोगीके । नि. पन्नयोगी तो सम्पूर्ण संकल्पविकल्पोंसे रहित अवस्था का अनुभव किया करता है । यथाः
मुक्त इत्यपि न कार्यमञ्जसा कर्मजालकलितोहमित्यपि ।
निर्विकल्पपदवीमुपाश्रयन् संयमी हि लमते परं पदम् ।। अपि च,- यद्यदेव मनसि स्थितं भवेत्तत्तदेव सहसा परित्यजेत् ।
इत्युपाधिपरिहारपूर्णता सा यदा भवति तत्पदं तदा॥ तथा,- अन्तरङ्गबहिरङ्गयोगतः कार्यसिद्धिरखिले ति योगिना।
आशितव्यमनिशं प्रयत्नतः स्वं परं सदृशमेव पश्यता ॥ इसलिये अन्वयदृष्टान्तके समय तो ऐसा अर्थ करना चाहिये कि स्वद्रव्यमें मुझे जैसा कुछ अमिनिवेश है वैसा परद्रव्यम किम तरह हो सकता है ? नहीं हो सकता । तथा व्यतिरेक दृष्टान्त के समय ऐसा अर्थ करना चाहिये कि मुझे स्वद्रव्यमें भी क्या अभिनिवेश हैं ? कुछ भी नहीं ! इसी प्रकार परद्रव्यमें भी क्या अभिनिवेश हो सकता है ? कुछ भी नहीं।
क्षेत्र सामायिकमें किस प्रकारकी भावना होती है सो बताते हैं :
राजधानीति न प्रीये नारण्यनीति चोदिजे ।
देशो हि रम्योऽरम्यो वा नात्मारामस्य कोपि मे ॥ २४ ॥ यह राजधानी है-इसमें राजा महाराजा आदि बडे आदमी रहते हैं, इसलिये मनोज्ञस्थान है। ऐसा समझकर मुझे इसमें कुछ राग-प्रेम नहीं होता। और न यह एक महान अरण्य -निर्जन वन है, इसलिये मुझे इसमें किसी प्रकार उद्वेग ही होता है। क्योंकि वास्तव में मेरा रमणीय स्थान चित्स्वरूप ही है। अत एव मेरोलये कोई भी बाह्य स्थान मनोज्ञ या अमनोज्ञ नहीं हो सकता।
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भावार्थ-आत्माका रमण या गमन आत्माके सिवाय भिन्न स्थानमें नहीं हो सकता । ग्राम रमणीय और a निवास करने योग्य स्थान है, तथा निर्जनवन अमनोज्ञ और निवास करने के लिये अयोग्य स्थान है। इस तरहकी
कल्पना जो आत्माका अबलोकन नहीं कर पाते उन्ही के होती है। किन्तु जो आत्माका साक्षात् अनुभव करने वाले हैं उनके लिये तो रति और गतिका स्थान सम्पूर्ण बाह्य पदार्थों और संकल्प विकलोसरहित निश्चल निज आत्मस्वरूप
यहांपर यह बात भी ध्यानमें रखनी चाहिये कि आत्मासे रति करना भी एक रागही है जो कि मोक्षका प्रतिबन्धक होनेसे मुमुक्षुओंको सहनीय नहीं होता । अतएव शुद्धनिश्चय नयको अपेक्षासे आत्माराम शब्दका अर्थ आत्मासे निवृत्ति करना चाहिये ।
कालसामायिकके अनुभवनका स्वरूप बताते हैं:-- नामूर्तत्वाद्धिमाद्यात्मा कालः किं तर्हि पुद्गलः ।
तथोपचर्यते मूर्तस्तस्य स्पृश्यो न जात्वहम् ॥ २५ ॥ निश्चय काल द्रव्य अमृत है, उसमें रूपरमगंध स्पर्श नहीं है। लोक जिसका काल शब्दसे व्यवहार करते हैं वह पुद्गल द्रव्य है। अत एव हेमन्त शिशिर वसंत या शीत ग्रीनवर्षा आदि मूर्त पुद्गलके ही स्वरूप हैं। मैं कदाचित मी इस मत पद लखरूप कालका विषय नहीं हो सकता ।क्योंकि मैं उससे सर्वथा विरुद्ध अमूही नहीं किन्तु निश्चय नयसे एक चित्स्वरूप
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__इस प्रकार नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र और काल सामायिकका क्रमसे निरूपण करके भाव सामायिकका किस प्रकारसे अनुभवन करना चाहिये सो बताते हैं:
सर्वे वैभाविका भावा मत्तोन्ये तेष्वतःकथम् । चिच्चमत्कारमात्रात्मा प्रीत्यप्रीती तनोम्यहम् ॥ २६ ॥
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औदायिक औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिक ये चार प्रकारके तथा जीवन मरणादिक सभी वैभाविक भाव मुझसे मित्र हैं, क्योंकि वे परनिमित्तक हैं, कर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाले हैं अत एव वे मेरे वास्तविक भाव नहीं हैं । शुद्ध निश्चय नयसे आत्माका वास्तविक स्वरूप पारणामिक भाव हैं। अत एव एक चेतनाके चमत्कार-अत्यंत अद्भुत स्वरूपको धारण करनेवाला में इन बैंभाविक भावोंमें रागद्वेष को किस तरह प्राप्त हो सकता हूं, कभी नहीं हो सकता।
यहाँसे नौ श्लोकोंमें भावसामायिकका ही विस्तारके साथ वर्णन करते हैं:
जीविते मरणे लाभेऽलाभे योगे विपर्यये ।
बन्धावरौ सुखे दुःखे साम्यमेवाभ्युपैम्यहम् ॥ २७ ॥ जीवन मरण लाभ और हानि संयोग और वियोग तथा मित्र और शत्रु एवं सुख और दुःख इन सब विषयोंमें मैं रागद्वेषको छोडकर समता भाव धारण करता हूं। क्योंकि जो आत्मस्वरूपसे अपरिचित प्राणी हैं वेही जीवनकी आशा और मरणका भय किया करते हैं। उन्हे जीवन-वर्तमान आयुष्यका धारण इष्ट और मरणआयुकर्मका पूर्ण हो जाना अनिष्ट मालुम होता है। किंतु चित्स्वरूपके अनुभवकी तरफ प्रवृत्त हुआ मैं इनमें रागद्वेष किस तरह कर सकता हूं। मुझे न तो जीवनमें राग है और न मरणमें द्वेष । इसी प्रकार न लाममें प्रीति है न अलाममें अप्रीति । न संयोग इष्ट है और न वियोग अनिष्ट । उपकारीसे प्रेम नहीं और अपकारीसे अमर्ष नहीं। किंबहुना सुखकी आशा और दुःखका भय भी छोडकर सभी इष्ट अनिष्ट विषयों में अब साम्य भाव धारण करता हूं।
जीवनकी आशा और मरणके भयके विषय में वर्णन करते हैं।--
कायकारान्दुकायाहं स्पृहयामि किमायुषे ।
तहुःखक्षणविश्रामहेतोर्मृत्योर्बिभेमि किम् ॥ २८॥ आयु कर्म शरीररूपी जेलखानेमें जीवकी यथेष्ट गतिका प्रतिबंध करनेवाले और उसको निरंतर दुःखोंके
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देनेमें कारणभूत काठ-खोडे या बेढीके समान हैं । अतएव दुःखस्थानमें ही रोक रखनेवाले इस जीवनकी क्या मैं आशा कर सकता हूं, कभी नहीं। तथा जो मृत्यु शरीररूपी जेलखानेके दुःखोंसे छुटाकर एक दो या तीन क्षणतकके लिये जीव के विश्राम दिलाने में कारण है उससे मय कैसा?
भावार्थ-संसारमें प्रायःकरके शरीरद्वाराही दुःखोंकी प्राप्ति हुआ करती है। और शरीरमें रोक रख. नेवाला आयुकर्म है। इस आयुकर्मके पूर्ण होनेपर विग्रह गतिमें एक या दो अथवा तीन क्षणतक औदारिक
और वैक्रियिक शरीर निमित्तक दुःख प्राप्त नहीं हुआ करते । अतएव दुःखके कारण जीवनकी आशा और उससे विश्रामके कारणभूत मरणसे भय करना व्यर्थ है।
लाभ और अलाभमें हर्ष विषाद करनेका निषेध करते हैं:
लाभे दैवयशःस्तम्भे कस्तोषः पुमधस्पदे ।
को विषादस्त्वलाभे मे दैवलाघवकारणे ॥ २९ ॥ यदि किसी व्यक्तिको लाभ-यथेष्ट विषयकी प्राप्ति हो जाती है तो उससे क्या समझा जाता है ? यही न कि इसके जन्मान्तरमें संचित पुण्य कर्मका उदय है। किंतु इससे उस पुरुषकी क्या महत्ता प्रकट होती है ? कुछ भी नहीं। उसके पौरुषकी तो उल्टी निंदा होती है। किन्तु जिस व्यक्तिको लाभ नहीं होता-जो मले प्रकार उपाय करनेपर भी यथेष्ट विषयको प्राप्त नहीं कर सकता उसकी जगतमें क्या कुछ निंदा होती है ? नहीं। बल्कि उस अलाममें कारण उसके जन्मान्तरमें संचित पाप कर्मकी निन्दा होती है। फलतः जो लाम, दैवका कीर्तिस्तम्भ
और पुरुषकी निन्दाका स्थान है, उसके होनेपर तो हर्ष कैसा ? एवं जिस अलामके होनेपर पुरुषको निन्दा न होकर देवकी क्षुद्रता ही प्रकट होती है, उसके होनेपर विषाद कैसा ? अतएव लामालाममें राग द्वेषको छोडकर मैं साम्य भाव ही रखता है।
इष्ट पदार्थ के संयोगको सुखका और वियोगको दुःखका, तथा अनिष्ट पदार्थ के संयोगको दुःखका औ
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वियोगको सुखका कारण समझना केवल मनकी कल्पना ही है, वास्तविक नहीं । इसी बातका विचार करते हैं:
योगो ममेष्टैः संकल्पात सुखोऽनिष्टैवियोगवत् ।
कष्टश्चेष्टवियोगोन्यैर्योगवन्न तु वस्तुतः ॥ ३० ॥ जिमप्रकार अनिष्ट-अप्रशस्त वस्तुओंका वियोग मुझे सुखकर मालुम होता है उसीप्रकार प्रियपदार्थोकी प्रातिभी मुझे सुखमय अथवा सुखका कारण मालुम हुआ करती है। किंतु यह सब कल्पना ही है, वास्तविक नहीं । अनिष्ट वियोग और इष्टमंयोग वस्तुतः सुखमय और सुखकर नहीं है। इसी प्रकार इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोगमें कष्ट है ऐसा जो मैं समझताहूं यद्वा उनको कष्ट-दुःखका कारण मानताहूं मो भी कल्पनाही है।
भावार्थ--किमीभी पदार्थका इष्ट या अनिष्ट समझना तथा उनकी प्राप्तिको सुख दुःखरूप या उसका कारण मानना वास्तविक ज्ञान नहीं, काल्पनिकही है। अतएव उनके होनेपर रागद्वेश करना वृथा है।
क्रमानुसार मित्रोंमें राग और शत्रुओंमें द्वेष करनेकामी निषेध करते हैं:- ममकारग्रहावेशमूलमंत्रेषु बन्धुषु ।
__ को ग्रहो विग्रहः को मे पापघातिष्वरातिषु ॥ ३१ ॥ ये मेरे हैं, अथवा ये मेरे उपकारी हैं, इस तरहकी जो समझ हुआ करती है वह एक प्रकारके ग्रहक, आवेश है। क्योंकि जिस प्रकार मनुष्य ब्रह्मराक्षसादिका शरीरमें प्रवेश होजानेसे अनेक तरहकी विकृत चेष्टाएं किया करता है उसीप्रकार ममत्वबुद्धिके होनेपरभी किया करता है। किन्तु इसका भी मूलमंत्र ये बन्धुजन हैं। जिस प्रकार मन्त्रके निमित्तसे भूतादिका आक्रमण होता है उसीप्रकार कुटुम्बियोंके निमित्तसे ममत्वपरिणाम हुआ करते हैं। इसके विरुद्ध जिनको शत्रु कहाजाता है वे तो मेरेलिये दुःख उत्पन्न करके या कराके पूर्वजन्मके संचित पाप कर्मका घात-निर्जरा कारणभूत बनकर उपकार ही करते हैं। अत एव अपकारक बन्धुओंसे तो ग्रह-राग कैसा, और उपकारी शत्रुओंसे विग्रह-विद्वेष फैसा? भावार्थ-किसीको भी मित्र या शत्रु समझकर उनसे रागद्वेष करना व्यर्थ है।
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बनगार
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इन्द्रियजनित सुख दुःखका निराकरण करते हैं:
कृतं तृष्णानुषङ्गिण्या खसौख्यमृगतृष्णया।
खिये न दुःखे दुर्वारकर्मारिक्षययक्ष्माण॥ ३२ ॥ इन्द्रियजनित सुखोंको पाकर मैं राग नहीं करता, और दुःखोंके उपस्थित होनेपर मुझे किसी प्रकारका खेद भी नहीं होता । क्योंकि ये वैषयिक सुख मृगतृष्णा-मरीचिकाके समान तृष्णाके बढानेवाले हैं। और दुःख, जिनका वारण नहीं किया जा सकता ऐसे कर्मरूपी शत्रुओंका क्षय करने के लिये राजयक्ष्मा व्याधिके समान हैं।
भावार्थ-जंगलों में एक प्रकारकी चटीली भूमि हुआ करती है उसको मरीचिका कहते हैं। मध्यान्हके समय सूर्यकी किरणोंसे उस भूमिमें जलका भ्रम हो जाता है। पिपासाकुलित मृगगण जल समझकर वहां आते हैं किंतु जल न पाकर दुःखी होते हैं । इससे उनकी तृष्णा-पिपासा और भी बढ़ जाती है । ऐन्द्रिय सुख भी मरीचिकाके ही समान हैं। लोग सुख की इच्छासे इन्द्रियों के विषयों का सेवन करते हैं । किंतु उनमें सुख न पाकर दुःखका ही अनुभव किया करते हैं। जिससे उनकी तृष्णा-विषयोंके सेवन करनेकी इच्छा और भी बढजाती है। अत एव इन सुखोंसे मैं तो निहाल होगया। अर्थात्-इन सुखों-सुखामासोंको विकार हो जिनसे कि दुःख ही अच्छे हैं। क्योंकि वे कर्मोंके लिये क्षयरोग के समान हैं। जिस प्रकार क्षयरोगके होजानेपर बलिष्ठ भी मनुष्य अवधि पाकर मर जाता है उसी प्रकार इन दुःखोंके निमित्तसे उदयमें आकर दुर्वार भी असाता वेदनीय प्रभृति कर्म निर्णि हो जाते हैं। जिससे कि आत्माका कुछ उपकार ही होता है। इसी लिये मैं दुःखोंसे खिन्न नहीं होता और सुखोंसे प्रसन्न नहीं होता, इनमें समताही धारण करता हूं।
जो विचारशील हैं उनके लिये संसारके दुःसह दुःखोंका अनुभव रत्नत्रयकी प्रीतिका ही कारण हो जाता है, ऐसा उपदेश देते हैं:--
दवानलीयति न चेज्जन्मारामेत्र धीः सताम् । तर्हि रत्नत्रयं प्राप्तुं त्रातुं चेतुं यतेत कः ॥ ३३ ॥
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इन दुःखकि निमित्तसे उदासक होजानेपर बलिष्ठ भो
बध्याय
जोण हो जाते हैं।
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अनगार
यह संसार एक प्रकारका उपवन है जिसमें कि मूढ पुरुषोंको प्रीति उत्पन्न करनेवाले विषय बहुलतासे पाये जाते हैं। किंतु सत्पुरुषोंकी बुद्धि इसमें दावानलका काम करती है। यदि वह ऐसा न करती होती तो फिर क्या कोई भी रत्नत्रयको प्राप्त करने और उसकी रक्षा तथा संचय करनेकेलिये प्रयत्न करता? नहीं, कोई भी नहीं करता।
भावार्थ-जिस प्रकार मनोहर भी उपवनमें रहनेवाले लोग दावाग्निके लगनेपर उसको प्रीतिका विषय न समझकर उस मार्गका ही अनुसरण करते हैं जिसपर कि चलनेसे शीघ्र ही उस वनसे मुक्ति हो सके। उसी प्रकार इस संसारमें रहनेवाले सत्पुरुष विवेकशक्तिके प्रकाशित होने पर इसको प्रीतिके अयोग्य समझकर मोक्षमार्गकी प्राप्ति रक्षा और वृद्धिकेलिये ही प्रयत्न किया करते हैं।
सम्पूर्ण सदाचारोंका शिरोमणि साम्यभाव है, अतएव इसीकी भावनामें आत्माको आसक्त रखनेका प्रयत्न करते हैं:--
. सर्वसत्त्वेषु समता सर्वेष्वाचरणेषु यत् ।
__ परमाचरणं प्रोक्तमतस्तामेव भावये ॥ ३४॥ पूर्वाचार्योंने कहा है कि सम्पूर्ण प्राणियों और सम्पूर्ण द्रव्योंमें रागद्वेषको छोडकर समभाव धारण करना समस्त आचरणोंमें उत्कृष्ट आचरण है। अतएव में और संकल्प विकल्पोको छोडकर अपने हृदय में इस साम्यभावको ही पुनः पुनः धारण करता हूं । इसीके अनुभवमें रत होता है।
इस पूर्वोक्त कथनसे यह निश्चय हो जाने पर कि भावसामायिकका अवश्य ही सेवन करना चाहिये, इस बातको प्रकट करते हैं कि इस सामायिक पर आरूढ आत्माका भाव कैसा होता है:
मैत्री मे सर्वभूतेषु वैरं मम न केनचित् ।
सर्वसावधविरतोस्मीति सामायिकं श्रयेत् ॥ ३५ ॥ सम्पूर्ण प्राणियोंमें मेरा मैत्रीभाव है, मैं चाहता हूं कि संसारका कोई भी जीव किसी भी प्रकारसे दुःखी
तपाचरणाम उताई। इसीक हो जानेपर
किभाव कैसा हात ही पुनः पुनः पूर्वोक्त कथनसे या सामायिक पर आ न केनचित् ।
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बनगार
न हो। मेरा किसी भी स्वपक्ष या परपक्षवाले के साथ किसी तरहका वैर-विरोध भी नहीं है। मैं सम्पूर्ण सावध-हिंसादिक पापोंसे युक्त मन वचन कायके व्यापारोंसे निवृत्त हूं।" इस तरह के भावोंको धारण करके मुमुक्षुओंको भाव सामायिक पर आरूढ होना चाहिये ।
भावार्थ-मावसामायिकका स्वरूप पहले बताच के हैं कि सम्पूर्ण जीवोंमें मैत्रीभाव धारण करना और अशुम परिणामोंको छोडना भावसामायिक है। तो भी उसकी स्मृतिको दृढ बनाने केलिये यहां फिरसे उसका उल्लेख कर दिया है। विवेकी पुरुष भावसामायिकमें प्रवृत्त हो इसके लिये उसका असाधारण माहात्म्य दिखाते हुए शिक्षा देते हैं:
एकत्वेन चरन्निजात्मनि मनोवाक्कायकर्मच्युतेः कैश्चिद्विक्रियते न जातु यतिवद्यद्भागपि श्रावकः । येनार्हच्छ्रतालिङ्गवानुपरिमप्रैवेयकं नीयतेऽ
भव्योप्यद्भुतवैभवेत्र न सजेत् सामायिक कः सुधीः ॥ ३६ ॥ इस सामायिकका माहात्म्य अद्भुत है । क्योंकि इसका सेवन करनेवाला यदि संयमी हो तब तो कहना ही क्या है। यदि श्रावक भी हो जो कि संयमका एकदशरूपसे ही पालन किया करता है तो वह भी इसका सेवन करनेपर संयमीके ही समान बाह्य या अभ्यन्तर कैसे भी विकार उत्पन्न करनेवाले कारणोंके उपस्थित होनेपर कभी भी विकारको प्राप्त नहीं होता। वे कारण इसके हृदयपर रंचमात्र भी अपना प्रभाव नहीं डाल सकते । क्योंकि सामायिक करनेवाला श्रावक मन वचन कायके व्यापारसे रहित होकर अपने नित्य चित्स्वरूपमें ही एक ज्ञायक भावके द्वारा प्रवृत्ति किया करता है। वह इच्छापूर्वक मन वचन कायके व्यापारमें प्रवृत्त नहीं होता। और आत्माका अनुभव करनेमें भी कर्तृत्व भोक्तृत्व भावको भी नहीं रखता । यद्यपि अन्तरङ्गमें उसके संयमका घात करनेवाले प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय रहा करता है तो भी उसके तज्जनित अविरतिरूप परिणाम बहुत ही
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बनगार
मन्द रहा करते हैं। उसका चित्त हिंसादिक किसी भी अवद्यकर्ममें आसक्त नहीं रहा करता। अतएव वह उपचारसे महाव्रती-मुनिके समान माना जाता है। जैसा कि कहा भी है कि:
सामायियहि दु कदे समणो इव सावओ हवदि जसा ।
एदेण कारणेण दु बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥ अर्थात्-सामायिकके करनेसे श्रावक मुनिके समान हुआ करता है। अतएव मुमुक्षुओंको बहुधा सामायिक ही करनी चाहिये ।
इसके सिवाय अईन्त भगवान्के उपदिष्ट ग्यारह अङ्गका पाठी तथा निर्ग्रन्थ जिनलिङ्गका धारक अभव्य-द्रव्यलिङ्गी मुनिभी इस सामायिकके प्रसादसे ही उपरिम |वेयक तक-नव अनुदिशसे नीचेके विमानतक जाकर पहुंच सकता है। अतएव इस आश्चर्यकारी वैभवसे युक्त सामायिकमें भला ऐसा कौन सद्बुद्धि होगा जो कि आसक्त न हो ? अर्थात् सभीको इसमें प्रवृत्त होना चाहिये ।
इस प्रकार पडावश्यकोंमें सामायिकका वर्णन किया । अब नौ पद्योंमें चतुर्विशतिस्तवका व्याख्यान करते हैं। जिसमें सबसे पहले उसका लक्षण बताते हैं:
कीर्तनमहत्केवालजिनलोकोद्योतधर्मतर्थिकृताम् ।
भक्त्या वृषभादीनां यत्स चतुर्विंशतिस्तवः षोढा ॥ ३७॥ अहंत केवली और जिन तथा लोकका उद्योत करनेवाले एवं धर्मतीर्थक प्रवर्तक श्री ऋषभादिक चौवीस भगवान् के गुणोंका भक्तिपूर्वक आख्यान-गुणगान या प्रशंसा करनेको चतुर्विंशतिस्तव कहते हैं। यह छह प्रकारका होता है, नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल और भाव ।
जो ज्ञानावरणादि कर्मरूप अरि-शत्रुओंके तथा जन्म मरणरूप संसारके हन्ता-नाशकरनेवाले हैं। तथा जो पूजा वन्दना नमस्कार या सिद्धिगमनादिके लिये अह-योग्य हैं उनको अर्हन्त कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि.
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प
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अनगार
धर्म
अरिहंति बंदणणमंसणाणि अरिहंति पूयसकारं ।
अरिहंति सिद्धिगमणं अरिहंता तेण वुचंति ।। जो सम्पूर्ण द्रव्यों तथा उनकी समस्त पर्यायोंका हस्तामलकवत् साक्षात् अवलोकन करने वाले हैं उनको केवली कहते हैं । अनेक पर्यायोंके द्वारा गहन संसारके विषम व्यसनों-दुःखों को प्राप्त करानेवाले कर्मोंको जिन्होने जीत लिया है उनको जिन कहते हैं । जो अपने सर्वोत्कृष्ट ज्ञान भावके द्वारा सम्पूर्ण लोकको प्रकाशित करनेवाले--- जाननेवाले हैं उनको लोकोद्योतक कहते हैं। जिन्होने धर्म-वस्तुओंके यथार्थ स्वरूपका अथवा उत्तमक्षमादिकका तीर्थ --उपदेश किया है उनको धर्मतीर्थकृत् कहते है।
लोक नौ प्रकारका माना है ! यथाः___णामं ठवणं दव्वं खेत्तं चिण्हं कसाय लोओ य ।
भवलोगभावलोगं पजयलोगो य णादव्वो ॥ अर्थात् - नामलोक स्थापनालोक द्रव्यलोक क्षेत्रलोक चिन्हलोक कषायलोक भवलोक भावलोक और पर्यायलोक ।
संसारमें जितने पदार्थ हैं उनकी और उनकी पर्यायोंकी शुभाशुभ संज्ञाओंको नामलोक कहते हैं। सम्पूर्ण कृत्रिम और अकृत्रिम पदार्थोंको स्थापनालोक कहते हैं। तथा छह द्रव्योंके विस्तारको द्रव्यलोक कहते हैं। यह परिणामादिकी अपेक्षासे अनेक प्रकार होता है । यथा -
परिणामि जीवमुत्तं सपदेसं एय खेत्त किरिया य ।
णिचं कारण कत्ता सव्वगदिदरसि यपएसो ॥ अवस्था या आकारके बदलनेको परिणाम या पर्याय कहते हैं। यह दो प्रकारका होता है, व्यंजन पर्याय और अर्थ पर्याय। व्यंजन पर्यायकी अपेक्षासे जीव और पुद्गल दो द्रव्य परिणामी हैं, शेष चार द्रव्य अपरिणामी हैं। क्योंकि जीवका चारो गतियों में भ्रमण होता है और लकडी पत्थर मट्टी आदि पुद्गलोंका परिणमन प्रत्यक्ष
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अनगार
चध्याय
KAMA
दखिता है । शेष चार द्रव्योंमें इस तरहका भ्रमण या परिणमन नहीं पाया जाता । अर्थपर्याय की अपेक्षासे छहो द्रव्य परिणामी हैं । जीवत्वकी अपेक्षाले एक आत्मद्रव्य ही जीव हैं। क्योंकि उसका चेतना लक्षण उसीमें पाया जाता है । शेष पांच द्रव्य ज्ञाता दृष्टा नहीं है इसलिये उनको अजीव कहते हैं। जिसमें रूप रस गंध स्पर्श पाया जाता है उसको मूर्त कहते हैं। ऐसा द्रव्य एक पुद्गल ही है। शेष पाँच द्रव्य अमूर्त हैं। इसी प्रकार जीवादिक पांच द्रव्य सप्रदेश हैं। क्योंकि उनमें अनेक प्रदेश पाये जाते हैं । काल द्रव्य अप्रदेशी है। क्योंकि वह परमाणुरूप ही रहता है, उसका प्रचयबन्ध नहीं होता । धर्म अधर्म और आकाश इनके प्रदेश कभी भी विघटित नहीं होते अत एव ये एक द्रव्य हैं। बाकी संसारी जीव पुद्गल और कालद्रव्य अनेकरूप हैं । क्षेत्र शब्दले एक आकाश द्रव्य ही लिया जाता है । क्योंकि वही सबका आधार है, उसीमें सच द्रव्य ठहरते हैं, औरोंमें नहीं। अत एव बाकी पांच द्रव्योंको अक्षेत्र कहते हैं। जिसके निमित्तसे पदार्थ एक स्थान से दूसरे स्थानतक पहुंचता है उसको क्रिया कहते हैं । यह जीव और पुद्गल में ही पाई जाती है। इसलिये ये दो पदार्थ ही सक्रिय हैं, बाकीके अक्रिय हैं। धर्म अधर्म आकाश और कालद्रव्य नित्य हैं। क्योंकि उनकी व्यंजन पर्याय कभी भी विघटित नहीं होती । शेष जीव और पूगल द्रव्य अनित्य है । जीवके सिवाय पांच द्रव्य कारणरूप हैं। क्योंकि वे जीवके प्रति उपकार किया करते हैं। जीव द्रव्य कार्य करने में स्वतंत्र है इसलिये वह अकारण है । जीव अपने शुभाशुभ कर्मों के फलका भोक्ता है । अतएव वह कर्त्ता है, शेष द्रव्य अकर्त्ता हैं । आकाश द्रव्य सर्वगत है, बाकीके पांच द्रव्य असर्वगत हैं । इसी प्रकार द्रव्य लोकके विषयमें जीवादिकका अनेक धर्मोकी अपेक्षासे व्याख्यान किया है ।
अधोलोक तिर्यगलोक और ऊर्ध्वलोकके आकाशका प्रमाण जितना बताया है उसको क्षेत्र लोक कहते
हैं। जिनके द्वारा द्रव्य गुण या पर्यायकी सिद्धि होती है उसको चिन्हलोक कहते हैं। तथा उदयमें आये हुए क्रोधादिast कषायलोक कहते हैं । और नारकादि गतियों में प्राप्त जीवोंको भवलोक, एवं तीव्र रागद्वेषादि परिणामोंको लोक कहते हैं । पर्यायलोक चार प्रकारका है, द्रव्य गुणपर्याय, क्षेत्रपर्याय, भवानुभाव, और भावपरिणाम । जैसा कि कहा भी है कि:
दग्वगुणखेत्तपज्जय भवाणुभावो य भावपरिणामो । जाण चउन्विहमेवं पज्जयलोगं समासेण ॥
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धर्म०
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कहतहा
जीवके ज्ञानादिक पुद्गल के रूपादिक धर्मके गतिहेतुत्वादिक अधर्मके स्थितिहेतुत्वादिक और आकाशके अवगाहहेतुत्वादिक तथा कालके वर्तना आदि गुण प्रसिद्ध हैं। इन्हीको द्रव्य गुणपर्याय लोक कहते हैं। रत्न प्रभा आदि पृथिवियों और जम्बूद्वीपादिक द्वीपों तथा ऋजुविमानादि विमानोंको क्षेत्रपर्यायलोक कहते हैं। आयुके जघन्य मध्यम उत्कृष्ट भेदोंको भवानुभाव, और जिनसे कि कर्मीका ग्रहण या परित्याग हुआ करता है उन असंख्यात लोक प्रमाण शुभाशुभ परिणामोंको भाव परिणाम लोक कहते हैं।
इस प्रकार लोकके नौ भेद हैं। अपने सम्पूर्ण प्रत्यक्ष ज्ञानके द्वारा जिन्होने इस नौ भेद रूप लोकको प्रकाशित किया है उन वर्तमान चौवीस तीर्थकरोंके, अथवा भूत भविष्यत् वर्तमान सभी अर्हन्तोंके गुणोंका भक्ति पूर्वक महत्ववर्णन करनेको चतुर्विंशतिस्तव कहते हैं। इसके नामादिक छह भेदोंको व्यवहार और निश्चयकी अपेक्षासे दो भागोंमें विभक्त करके बताते हैं:
स्युनामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालाश्रयाः स्तवाः ।
व्यवहारेण पञ्चाादेको भावस्तवोऽहंताम् ॥ ३८ ॥ चतुर्विशतिस्तवके छह भेद हैं--नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल और भाव । इनमेंसे आदिके पांच भेद व्यवहार नयकी अपेक्षासे और अन्तका एक भावस्तव निश्चय नयकी अपेक्षासे है। इनका विशेष वर्णन करनेकेलिये क्रमानुसार पहले नामस्तनका स्वरूप बताते हैं:
अष्टोत्तरसहस्रस्य नाम्नामन्वर्थमहताम् ।
वीरान्तानां निरुक्तं यत्सोऽत्र नामस्तवो मतः ॥ ३९ ॥ वृषभादिक महावीर पर्यन्त चौवीस तीर्थंकरोंका अथवा सभी अर्हन्तोंका एक हजार आठ नामोंसे अर्थके अनुसार निर्वचन करना इसको नामस्तव कहते हैं।
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भावार्थ-जिन भगवान के अन्वर्थ नामोंसे उल्लेख करनेको नामस्तव कहते हैं। जैसा कि महापुराणके २५ वें पर्व में " श्रीमान स्वयंभवृषभः शंभवः शंभुरात्मभूः । " से लेकर "धर्मपालो जगत्पालो धर्मसाम्राज्यनायकः ।" तक के श्लोकोंमें एक हजार आठ नामोंसे किया गया है। इसी तरह और भी आगमके अनुसार अन्वर्थताका विचार करना चाहिये । जैसा कि
ध्यानद्रुघणनिर्भिन्नघनघातिमहातरुः । अनन्तभवसंतानजयादासीरनन्तजित् ।। त्रैलोक्यनिर्जयावाप्तदुर्दर्पमति दुर्जयम् ।
मृत्युगजं विजित्यासीजिन मृत्युञ्जयो भवान् ॥ इत्यादि। इस नामस्तको व्यवहारनयकी अपेक्षासे जो कहा है उसका कारण यह है कि इसके द्वारा जिस परमात्माका वर्णन किया जाता है वह वस्तुत: वचनके अगोचर है। जैसा कि आगममें कहा भी है कि:
गोचरोऽपि गिरामासा त्वमवाग्गोचरो मतः ।
स्तोतुस्तथाप्यसंदिग्धं त्वत्तोभीष्टफलं भवेत् ॥ तथा,- संज्ञासंबद्वयावस्थाव्यतिरिक्ताभलात्मने ।
नमस्ते वीतसंज्ञाय नमः क्षायिकदृष्टये ॥ यह नामस्तव सामान्य और विशेष दोनों ही प्रकारसे किया जाता है । चौवीस तीर्थंकरोंका या भूत भविष्यत् सभी तीर्थकरोंका समुदायरूपसे स्तवन करना इसको सामान्य नामस्तव कहते हैं। जैसे कि" थोस्सामि जिणवरिंदे" तथा "चउवीसं तित्थयरे" इत्यादि । भिन्न मित्र एक एक तीर्थकरका नाम लेकर निर्वचन करना इसको विशेष नामस्तव कहते हैं। जैसे कि “ ऋषभोऽजितनामाच " तथा "चन्द्रप्रभं चन्द्रमरीचिगौर" इत्यादि।
१- बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धिबोधावं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात् ।
धातासि धीर शिवमार्गविधेर्विधान दुक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोसि ॥ इत्यादि और भी स्वयं समझलने चाहिये
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बनगार
धर्मक
सरकार
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स्थापनास्तवका स्वरूप बताते हैं:
कृत्रिमाकृत्रिमा वर्णप्रमाणायतनादिभिः ।
व्यावर्ण्यन्ते जिनेन्द्रार्चा यदसौ स्थापनास्तवः ॥ ४ ॥ कृत्रिम-किसी कर्ता करण आदिके द्वारा बनी हुई तथा अकृत्रिम जो बिना किसी कती करणके स्वयं बनी हों ऐसी जिनप्रतिमाओंका वर्ण-रूप, प्रमाण-लंबाई चौडाई उंचाई, तथा आयतन-मंदिर आदिकी अपेक्षा वर्णन करनेको स्थापना स्तव कहते हैं।
द्रव्यस्तवका स्वरूप बताते हैं:
वपुलक्ष्मगुणोच्छायजनकादिमुखेन या।
लोकोत्तमानां संकीर्तिश्चित्रो द्रव्यस्तवोस्ति सः ॥ ४१ ॥ तीर्थकर भगवान्के शरीर चिन्ह गुण उत्सेध और माता पिता आदिके द्वारा अनेक प्रकारसे और आश्च.. र्यकारी महत्व वर्णन करनेको द्रव्यस्तव कहते हैं।
भगवानके शरीरकी सुंदरताका वर्णन:
सनवव्यञ्जनशतैरष्टाप्रशतलक्षणैः।
विचित्रं जगदानन्दि जयतादर्हतां वपुः ।। तथा- जिनेन्द्रान्नौमि तान्येषां शारीराः परमाणवः ।
विद्युतामिव मुक्तानां स्वयं मुश्चन्ति संहतिम् ।। अर्थात नौ सौ व्यंजन और एकसौ आठ लक्षणों के द्वारा अपूर्व सौन्दर्यको धारण करनेवाला भगवानका "शरीर सदा जयवंता रहो। मैं उन अहतोको नमस्कार करता हूं कि जिनके मुक्तिलाम करते ही उनके शरीरके परमाणु आपसके सम्बन्धको लोडकर विजलीकी तरह स्वयं ही आकाशमें विलीन हो जाते हैं।
१-इनके लक्षण और नामादिक महापुराणके पर्व १५ में बताये हैं। वहांपर देखलेने चाहिये ।
याय
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鹽酸酵專線殺
蒸雞
इसी प्रकार और भी समझलेनी चाहिये । भगवानके बैल हाथी आदि जो चिन्ह बताये हैं उनके द्वारा वर्णन करने को भी द्रव्यस्तव कहते हैं। यथा
गौर्गजोश्वः कपिः कोकः सरोजं स्वस्तिकः शशी । मकरः श्रीयुतो वृक्षो गण्डो महिषशूकरौ ॥ सेवा वज्रं मृगश्छागः पाठीनः कलशस्तथा । कच्छपश्चोत्पलं शंखो नागराजश्च केशरी ॥
इत्येतान्युक्तदेशेषु लाञ्छनानि प्रयोजयेत् ।
वृषभादि महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरोंके चिन्हों के नाम इस प्रकार हैं- बैल, हाथी, घोडा, बन्दर,
कोक, कमल, स्वस्तिक, चन्द्रमा, मकर, श्रीवृक्ष, गेण्डा, भैंसा, शूकर, सेही, वज्र, हिरण, बकरा, मत्स्य, कलश, कच्छप, श्वेत कमल, शंख, सर्प, सिंह ।
गुणशब्द के द्वारा रूपादिक तथा निःस्वेदत्वादिक दोनों ही लिये जाते हैं । अत एव इनके द्वारा भगवान् का वर्णन करना भी द्रव्यस्तव समझा जाता है । निःस्वेदत्वादिके द्वारा जैसे कि --
निःस्वेदत्वमनारतं विमलता संस्थानमाद्यं शुभं, तद्वत्संहननं भृशं सुरभिता सौरूप्यमुच्चैः परम् । सौलक्षण्यमनन्तवीर्यमुदितिः पथ्या प्रियाऽसृक् च यः, - शुभ्रं चातिशया दशेह सहजाः सम्वईदङ्गानुगाः ॥
अर्थात् भगवान् के शरीर में स्वभावसे ही दश अतिशय रहा करते हैं। १ उनके शरीरमें कभी भी पसीना नहीं आता, २ रे किसी भी प्रकारका मल नहीं होता. ३ रे उनका आकार चारो तरफसे समान रहा करता है, अर्थात् सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार शरीरका और उसके आङ्गोपाङ्गों का जितना प्रमाण रहना चाहिये, भगवान् के शरीर
१ -- यैः शांतरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं, इत्यादि । इसी तरह चिन्ह और गुणादिकके विषय में भी समझना चाहिये ।
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और आङ्गोपाङ्गोंका उतना ही प्रमाण रहा करता है। ४ थे उनके वज्रर्षभनारच संहनन रहा करता है। उनके शरीरमें हड्डी कीली और वेष्टन तीनों ही वज्रके या तत्तुल्य रहा करते हैं। ५ वे अत्यंत सुगंध, और छहे उत्कृष्ट सौन्दर्य, तथा सातवें उनके शरीरमें १००८ लक्षण और व्यंजन पाये जाते हैं। ८ वें उनका वीय अनन्त रहता है । तथा ९ वे उनके वचन लोगोंके लिये हितरूप और प्रिय हुआ करते हैं । १० वे उनके शरीरका रक्त दूधके समान श्वेतवर्ण हुआ करता है। शरीरके वर्ण द्वारा जैसे कि:
श्रीचन्द्रप्रभनाथपुष्पदशनौ कुन्दावदातच्छवी, रक्ताम्भोजपलाशवर्णवपुषी पद्मप्रभद्वादशी। कृष्णौ सुव्रतयादवौ च हरितौ पार्श्वः सुपार्श्वश्च वै,
शेषाः सन्तु सुवर्णवर्णवपुषो मे घोडशाऽघच्छिदे ॥ चौबीस तीर्थंकरों से आठवें चन्द्रप्रभ नाथ और नौवें पुष्पदन्त स्वामी कुन्दपुष्पके समान गौर वर्ण हैं। और पद्मप्रभ भगवान् तथा वासुपूज्य भगवानका शरीर रक्तकमलके समान अथवा ढाकके फूलके समान लाल वर्णका है।सुव्रतनाथ और सुपार्श्वनाथ स्वामीका शरीर हरित वर्ण है। बाकीके सोलह तार्थ करोंका शरीर सुवर्णके समान है। भगवानकी उचाई आदिका वर्णन करना, जैसे कि:
नाभेयस्य शतानि पञ्च धनुषां मानं पर कीर्तितं, सद्भिस्तीर्थकराष्टकस्य निपुर्ण पञ्चाशदूनं हि तत् । पञ्चानां च दशोनकं भुवि भवेत्पशोनकं चाष्टके,
हस्ताः स्युनवसप्त चान्त्यजिनयोर्येषां प्रमा नौमि तान् ॥ आदिनाथ स्वामीके शरीरकी उंचाई पाँचसौ धनुष, अजितनाथकी १५०धनुष, संभवनाथ स्वामीकी १०० धनुष, अभिनंदन स्वार्माकी ३५० धनुष, सुमतिनाथकी ३०० धनुष, पद्मप्रभस्वामीकी २५० धनुष, सुपार्श्वनाथकी २०० धनुष, चन्द्रप्रभस्वामीकी १५० धनुष, पुष्पदंत स्वामीकी १०० धनुष, शीतलनाथकी ९० धनुष, श्रेयान्सनाथ
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नगर
की ८० धनुष, वासुपूज्यस्वामीकी ७० धनुष, विमलनाथकी ६० धनुष, अनन्तनाथकी १० धनुष, धर्मनाथकी ४५ धनुष, शान्तिनाथकी ४० धनुष, कुन्थुनाथकी ३५ धनुष, अरहनाथकी ३० धनुष, मल्लिनाथकी २५ धनुष, मुनिसुव्रतनाथकी २० धनुष, नमिनाथकी १५ धनुष, नेमिनाथ की १० धनुष, पार्श्वनाथकी ९ हाथ, और वर्धमान स्वामीकी काय ७ हाथ है। इसप्रकार कायप्रमाणके धारण करनेवाले जिन भगवान्को मैं नमस्कार करता हूं। के मातापिता आदिमेंसे माताओंके द्वारा भगवान् का स्तवन करना, जैसे कि:
वंशः क्षायिकदृक् समिद्धसुधियां योस्मिन्मनूनामभूद्, . ये चेक्ष्वाकुकुरूपनाथहरियुग्वंशाः पुरा वेधसा । आधानादिविधिप्रबन्धमहिताः सृष्टास्तदुत्त्थार्यभू,
भर्तृस्वामिकजीविताः सुकुळजा जैन्यो जयन्यम्बिकाः॥. ..... क्षायिक सम्यग्दर्शन के धारण करनेवाले और उत्कृष्ट समीचीन ज्ञानके धारक कुलकरोंके वंशम अथवा जिन वंशॉकी पूर्व कालमें आदि ब्रह्मा-आदीश्वर भगवान्के द्वारा स्थापना हुई और उन्हींके द्वारा जिनमें गर्भाधानादि संस्कार क्रियाओंके द्वारा महनीयता प्राप्त हो चुकी हे ऐसे इक्ष्वाकु कुरु उग्र नाथ हरि आदि वंशों से किसी भी उत्पन्न होनेवाले तथा इस आर्यभृमिक मत्तो-महान् सम्राट् जिनके स्वामी हैं। अर्थात जो ऐसे उत्कृष्ट कुलीन राजाओंकी प्राणवल्लमाएं हैं और जो स्वयं भी ऐसे ही उत्तम कुलोंमें उत्पन्न हुई हैं ऐसी जिनेन्द्रदेवकी माताएं सदा जयवंती रहो।
उपर्युक्त श्लोकमें जनक शब्दके साथ आदि शब्द जो दिया है उससे माताके स्वप्न शरीरकी कान्ति दिव्यध्वनि विभूति और दीक्षा बृक्षादिके द्वारा किये गये भगवान्के कीर्तनको भी द्रव्यस्तव कहते हैं । इनमेंसे स्वमोंके द्वारा जैसे कि:
मात्रा तीर्थङ्कराणां, परिचरणपरश्रीप्रभृत्योद्भवादिश्रीसंमेदाप्रदूता रजनिविरमणे स्वप्नभाजेक्षिता ये। श्रीभोलेभारिमास्रक्शशिरविझषकुम्भाब्जपण्डाधिपीठ
अध्याय
७६३
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सर
बनगार |
द्योयानाशीविषाकोवसुचयशिखिनः सन्तु ते मङ्गलं नः ॥ जिनकी परिचर्या में लक्ष्मी आदि देवियां रहा करती हैं ऐसी तीर्थकरोकी माताओंके द्वारा रात्रिके अंतिम प्रहरमें देखे गये, और जो कि पुरश्चारी इतके समान भगवान्के गर्भादिक निर्वाण पर्यन्त पांचो कल्याणों को पहलेसे ही सूचित करने वाले है, ऐसे सोलह स्वम अर्थात् ऐरावतके समान श्वेत हाथी, उत्कृष्ट बैल, सिंह, लक्ष्मी, दोमालाएं चद्रमा, सूर्य, मीनयुगल, दो कलश, कमल बन, सरोवर, सिंहासन, देदविमान, नागमन्दिर, रत्नराशि, और निधूम आग्न, तुमको सदा मंगल कारी हों। इसी प्रकार कान्ति दिव्यधनि आदिके द्वारा भी समझना चाहिये । जैसे कि:
कान्त्येव नपयंति ये दश दिशो धाम्ना निरुन्धन्ति ये धामोदाममहस्विनां जनमनो मुगन्ति रूपेण ये । दिव्येन ध्वनिना सुख श्रवणयोः साक्षात्क्षरन्तोमृतं वन्द्यास्तेष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः ॥ येभ्यर्चिता मुकुटकुण्डलहाररत्नैः शक्रादिभिः सुरगणः स्तुतपादपद्माः ।
ते मे जिनाः प्रवरवंशजगत्प्रदीपास्तीर्थङ्कराः सततशान्तिकरा भवन्तु । जो अपनी अद्भुत कांति के द्वारा ऐसे मालुम पड़ते हैं मानो ये उसके द्वारा दशों दिशाओंका अभिषेक ही कर रहे हैं, और जो अपने तेजके द्वारा महान् तेजस्वियोंके भी तेजको दवा देते हैं, जो अपने अद्भुतरूप के द्वारा समस्त लोगोंके मनका हरण करनेवाले हैं, और जो अपनी दिव्य वाणीके द्वारा लोगोंके कानों में मानों साक्षात सुखकर अमृत ही चुआ देते हैं, ऐसे १००८ लक्षणोंके धारक धर्म तीथके प्रवर्तक भगवान्की ही तुम सब लोगोंको बन्दना करनी चाहिये । मुकुट कुंडल हार और रत्नमय भूपोंसे भूषित इन्द्र तथा देवगण जिनकी पूजा किया करते हैं, और जिनके चरण कमलोंकी स्तुति किया करते हैं, ऐसे सर्वोत्कृष्ट वंशोंमें उत्पन्न होनेवाले और जो जगतbahan शताarपी अंधकार दा करनेकेलिये उत्कृष्ट दीपकके समान हैं, वे तीर्थकर भगवान हमारे लिये शान्तिके कारण हों।
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दीक्षावृक्षके द्वारा, जैसे कि:
न्यग्रोधो मदगन्धिसर्जमसनश्यामे शीरीषोहतामेते ते किल नागसर्जजटिनः श्री तिन्दुका पाटलाः । जम्बश्वत्थकपित्थनन्दिकविटाम्रा वंजुलश्चम्पको
जीयासर्वकुलोत्र वांशिकधषौ शालश्च दीक्षाद्रुमाः जिनके नाचे तीर्थकर भगवानने दीक्षा ग्रहण की ऐसे श्री आदिनाथ प्रभृति चौबीस तीर्थंकरोंके न्यग्रो. धादिक चार्वास दीक्षावृक्ष सदा जयवंते रहो।
लोकोत्तम शब्दसे तीर्थकर ही लिये जाते हैं। क्योंकि उनकी प्रभुता संसार में सर्वोत्कृष्ट है । आगममें कहा है कि
तित्थषराण पहुत्तं णेहो बलदेव केसवाणं च ।
दुःखं च सवित्तीणं तिणि वि परभागपत्ताई ॥ तीर्थकरोंकी प्रभुता, बलदेव और नारायणका भ्रातृस्नेह, और स्त्रियों की प्रसूतिपीडा। ये तीनों सर्वोत्कृष्ट हैं। अत एव लोकोत्तम अर्थात् तीर्थंकरोंका शरीरादि के द्वारा स्तवन करनेको द्रव्य चतुर्विंशतिस्तव कहते हैं।
क्षेत्रस्तवोर्हता स स्यात्तत्स्वर्गावतरादिभिः ।
पूतस्य पूर्वनाद्यादेर्यप्रदेशस्य वर्णनम् ॥ ४२ ॥ तीर्थकरोके गर्भ जन्म आदि कल्याणकोंके द्वारा पवित्र हुए नगर वन पर्वत आदिके वर्णन करनेको क्षेत्रस्तव कहते हैं। जैसे कि नगरियोंमें अयोध्या आदि, वनों में सिद्धार्थादिक और पर्वतोंमें कैलाश आदि । कालस्तवका स्वरूप बताते हैं
कालस्तवस्तीर्थकृतां स ज्ञेयो यदनेहसः ।
बध्याय
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धर्म
तद्गर्भावतराद्युद्घक्रियादृप्तस्य कर्तिनम् ॥ ४३ ॥ मगवान के गर्भ जन्म तप ज्ञान और निर्वाण कल्याणकोंकी प्रशस्त क्रियाओंसे जो महत्ताको प्राप्त हो चुका है ऐसे समयका वर्णन करनेको कालस्तव कहते हैं। अर्थात तीर्थकरोंके पांचो कल्याणक सम्बन्धी समयोंके महत्वके वर्णन करनेका नाम कालस्तव है। मावस्तवका स्वरूप बताते हैं
वर्ण्यन्तेनन्यसामान्या यत्कैवल्यादयो गुणाः ।
भावकैर्भावसर्ववदिशा भावस्तवोस्तु सः॥ १४ ॥ जीवाजीवादिक सात तच अथवा नौ पदार्थोंको भाव कहते हैं। इन भावोंके सर्वस्व-द्रव्य मुण पर्यायरूप संपत्तिका यथावत् वर्णन करनेवाले अन्त भगवान्के असाधारण-जो अन्य किसी भी देवादिकमें नहीं पाये जाते ऐसे अनन्तज्ञान अनन्तदर्शन प्रभृति गुणोंके भव्योंद्वारा किये गये वर्णनको मावस्तव कहते हैं। जैसे कि
विवतः स्वैर्द्रव्यं प्रतिसमयमुद्यव्ययदपि, स्वरूपादुल्लोलैर्जलमिव मनागप्यविचलत् । अनेहोमाहाल्याहितनवनवीभावमखिलं,
प्रभिन्वानाः स्पष्टं युगपदिह नः पान्तु जिनपाः ॥ . जिस प्रकार जलमें प्रतिक्षण कलोलें उठती रहती और विलीन भी होती रहती हैं तो भी वह स्वरूपतः निश्चल ही रहता है। इसी प्रकार द्रव्यों में भी प्रति समय अनेक पर्यायें उत्पन्न होती और नष्ट भी होती रहती हैं फिर भी वे द्रव्य अपने स्वरूपकी अपेक्षा रंचमात्र भी चलायमान नहीं होते-सदा एकस्वरूप-नित्य ही रहते हैं । इस प्रकार कालके माहात्म्य से जिसमें प्रतिक्षण उत्तरोत्तर नवीनता प्राप्त होती रहती है ऐसे सम्पूर्ण जगतको युगपत् साक्षात् देखनेवाले जिनभगवान हमारी रक्षा करो।
बध्याय
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बनगार
चतुर्विशतिस्तवके जो पूर्वोक्त नामस्तवादिक भेद गिनाये हैं उनमें वास्तविक स्तव मावस्तव ही है। क्योंकि उसमें गुणोंके द्वारा साक्षात केवलियोंका वर्णन किया जाता है। और वस्तुतः केवलियों और उनके गुणों में कोई अन्तर नहीं है। जैसा कि कहा भी है कि:
तं णिच्छएण जुजइ ण सरीरगुणेहिं हुंति केवलिणो।
केवलिगुणे थुणइ जो सो सच्चं केवली थुणइ ।। अर्थात् केवलियों के शारीरिक गुणोंका वर्णन करनेसे वस्तुतः केवलियोंका स्तवन नहीं समझा जाता, किंतु जो उनके गुणोंका वर्णन है वही सच्चा केवलियोंका स्तवन है।
ऊपर इस स्तनरूप आवश्यकके दो भेद बताये हैं, एक व्यवहार दूसरा निश्चय । इन दोनोंके फलमें क्या अंतर है उसको बताते हुए नित्य ही उसमें प्रवृत्त रहने की प्रेरणा करते हैं:
लोकोत्तराभ्युदयशफलां सृजन्त्या, पुण्यावली भगवतां व्यवहारनुत्या । चित्तं प्रसाद्य सुधियः परमार्थनुत्या,
स्तुत्ये नयन्तु लयमुत्तमबोधिसिद्धयै ॥ ४५ ॥ नामादिरूप पांच प्रकारके व्यवहार स्तवनसे उस पुण्यश्रेणीका संचय होता है जिसके कि उदयंस जीवोंको लोकोत्तर-अलौकिक अभ्युदयों-पूज्यता धन आज्ञा और ऐश्वर्य प्रभृतियों और अनेक प्रकारके सुखोंकी प्राप्ति हुआ करती है । तथा पारमार्थिक भावस्तवनले उत्तम मोक्षमार्ग-रत्नत्रयकी सिद्धि हुआ करती है। अत एव जो विवेकी इस मोक्षमार्गको पिद्ध करना चाइते हैं उन्हें भगवानकी व्यवहारस्तुति के द्वारा अपना चित्त नि. मल बनाकर उसे शुद्धचित्स्त्ररूपमें लीन बनाना चाहिये ।
भावार्थ-मुमुक्षुओंको अभीष्टसिद्धि-निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्ति शुद्ध आत्माका ध्यान किये बिना नहीं हो
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खनगार
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बध्याय
.
सकती। और इस ध्यानकी निश्चलता निर्विकल्प मनसे ही हो सकती है । तथा मनमें निर्विकल्पता व्यवहारस्तुति के द्वारा ही उत्पन्न हुआ करती है । अत एव जो मुमुक्षु अपना अभीष्ट सिद्ध करना चाहते हैं उन्हें पहले व्यवहार स्तुति द्वारा अपन मन शुद्ध चितवरूपके ध्यानमें लीन होने योग्य बनालेना चाहिये। तभी वे शुद्धात्माके ध्यान में स्थिर होकर आत्मस्वरूप निश्चयस्त्नत्रय को प्राप्त कर सकते हैं।
इस प्रकार चतुर्विंशतिस्तव रूप आवश्यकका वर्णन करके, अब क्रमानुसार ग्यारह पद्यों में वन्दनाका व्याख्यान करते हैं । जिसमें सबसे पहले वन्दनाका लक्षण बताते हैं:
वन्दना नतिनुत्याशीर्जयवादादिलक्षणा ।
भावशुद्धया यस्य तस्य पूज्यस्य विनयक्रिया ॥ ४६ ॥
अर्हत सिद्ध आचार्य आदिकोंमेंसे अथवा वृषभादि चौबीस तीर्थकरों में से किसी भी पूज्य आत्माका विशुद्ध परिणामोंसे नमस्कार स्तुति आशीर्वाद जयवाद आदि स्वरूप विनय कर्म करनेको वन्दना कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
कर्मारण्यहुताशानां पञ्चानां परमेष्ठिनाम् । प्रणतिर्वन्दनाऽवादि त्रिशुद्धा त्रिविधा बुधैः ॥
अर्थात् - कर्मरूप अरण्यको भस्म करनेके लिये अग्निके समान पांचों परमेष्ठियों को नमस्कार करनेका नाम बन्दना है। इसके मनवचन कायकी शुद्धिकी अपेक्षासे तीन भेद माने हैं ।
ऊपरके श्लोक में विनय कर्मका नाम वन्दना बताया है । उसमें यह नहीं मालुम होता कि विनय किसको कहते हैं । अत एव उसका स्वरूप बताते हैं:
हिताहितातिलुप्त्यर्थं तदङ्गानां सदाञ्जसा ।
यो माहात्म्योद्भवे यत्नः स मतो विनयः सताम् ॥ ४७ ॥
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हितकी प्राप्ति और अहितका परिहार करनेकेलिये उसके कारणोंका जिनसे कि हितकी प्राप्ति और अहितका उच्छेद हो सकता है ऐसे अहंत सिद्धादिक अथवा प्रवचनादिक माहात्म्यको प्रकट करनेके लिये सदा निष्कपट प्रयत्न करनेकाही नाम सत्पुरुषोंने विनय कहा है।
विनयके पांच भेदोंका नाम गिनाकर यह बताते हैं कि वन्दनारूप आवश्यक प्रकरणमें विनयशब्दसे मोक्षहेतक विनयका ही ग्रहण करना चाहिये । और इसीलिये जो निर्जरार्थी हैं उन्हे इस विनयके पांचवें भेद मो. क्षार्थ विनयका अवश्य पालन करनेके लिये उपदेश देते हैं:
लोकानुवृत्तिकामार्थभयनिःश्रेयसाश्रयः ।
विनयः पञ्चधावश्यकार्योन्त्यो निर्जरार्थिभिः ॥४८॥ विनय पांच प्रकारका है, लोकानुवृत्तिहेतुक, कामहेतुक, अर्थहेतुक, भयहेतुक, और मोक्षहेतुक । किंतु जो निर्जरार्थी हैं उन्हे इन पांच भेदोंमेंसे अंतिम भेद मोक्षहेतुक विनयका अवश्य ही पालन करना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
लोकानुवर्तनाहेतुस्तथा कामार्थहेतुकः। विनयो भयहेतुश्च पञ्चमो मोक्षसाधनः । उत्थानमञ्जलि पूजाऽतिथेरासनढौकनम् । देवपूजा च लोकानुवृत्तिकृद्विनयो मतः ।। भाषाछन्दानुवृत्तिं च प्रदानं देशकाळयोः । लोकानुवृत्तिरीय विनयश्चाञ्जलिक्रिया । कामतंत्रे भये चैव हवं विनय इष्यते ।
विनयः पन्चमो यस्तु तस्यैषा स्यात् प्ररूपणा ॥ अर्थात विनय पांच हेतुओंसे हुआ करता है, अत एव उसके पांच भेद हैं। एक तो वह कि जिसमें लोकोंका अनुवर्तन किया जाता है, दूसरा वह कि जो कामके प्रयोजनसे किया जाता है, तथा तीसरा वह कि जो अर्थ-धनकेलिये
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हुआ करता है, और चौथा वह जो कि भयके निमित्त से करना पड़ता है, एवं पांचवां वह जो कि मोक्षको सिद्ध करने के उद्देश्यसे किया जाता है । इसीलिये उनके ये पांच अन्वर्थ नाम हैं।- लोकानुवर्तनाहेतुक, कामहेतुक, अर्थहेतुक, भयहेतुक, और मोक्षहेतुक । ।
अतिथिके समक्ष खडे होना, हाथ जोडना और उनकी पूजा करना, तथा उनको ऊंचा आसन देना आदि, और देवपूजा करना आदि भी लोकानुवर्तनाहेतुक विनय माना गया है । धनके उद्देश्यसे भाषाका स्वतन्त्र अनुवर्तन करना, देश और कालका विनियोग करना, तथा लोकोंका अनुवर्तन करना और हाथ जोडना आदि अहेतुक विनय है । इसी प्रकार काम और भयके विषय में भी विनय कर्म हुआ करता है। पांचवां मोक्षविनय है जिसका कि इस प्रकरणमें निरूपण किया गया है । यह मोक्षविनय मी दर्शनविनय आदिके मेदसे पांच प्रकारका है, जैसा कि पहले लिखा जा चुका है। नामादिनिक्षेपके भेदसे वन्दनाके छह भेदोंका उल्लेख करते हैं:
नामोच्चारणमर्चाङ्गकल्याणावन्यनेहसाम् ।
गुणस्य च स्तवाश्चैकगुरोर्नामादिवन्दना ॥ ४९ ॥ । वन्दनाके नामादि निक्षेपोंकी अपेक्षासे छह भेद हैं । नाम वन्दना, स्थापनावन्दना, द्रव्यवन्दना, कालवन्दना, क्षेत्रवन्दना, और भाववन्दना । अर्हतादिकामसे किसी भी एक पूज्य पुरुष नामका उच्चारण करनको अथवा स्तुति आदि करनेको नामवंदना कहते हैं। जिनप्रतिमाकी स्तुति करनेको स्थापना वन्दना कहते हैं । भगवान् के शरीरका स्तवन करना इसको द्रव्यवन्दना करते हैं । पंच कल्यागकों में किसी भी कल्याणकके कालकी स्तुति करना इसको कालवन्दना कहते हैं। जहां पर भगवान् का कोई भी कल्याण हुआ हो उस स्थानकी स्तुति करनेको क्षेत्रवन्दना कहते हैं । और भगवान्के गुणोंका स्तवन करना इसको भाववन्दना कहते हैं।
अहंतादिकोंके सिवाय और भी जो वन्द्य पुरुष हैं उनको बताते हुए इस बात का निर्देश करते हैं कि व. न्दना करनेवाला साधु कैसा होना चाहिये, अथवा उसको किस तरह वन्दना करनी चाहिये ।
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___ सरिप्रवर्युपाध्यायगणिस्थविररानिकान् ।
यथार्ह वन्दतेऽमानः संविनोऽनलसो यतिः ॥ ५ ॥ दीक्षादेनेवाले अथवा अनुचित कार्यसे रोकनेवाले यद्वा किसीको संघमें सम्मिलित करने या पृथक् करने की व्यवस्था देनेवालोंको सूरी कहते हैं । जो आचार्यकी अज्ञाका संघके साधुओंसे पालन कराते हैं उनको प्रवर्ती या प्रवर्तक कहते हैं। जिनके पास मुनिजन श्रुतका अध्ययन किया करते हैं उनको उपाध्याय कहते हैं । और गणकी रक्षा करनेवाले तथा राजसमादिमें कुशल साधुओंको गणो कहते हैं। इसी प्रकार मर्यादा रखनेवालोंको स्थावर और रत्नत्रयके अधिकतया धारण करनेवालोंको रानिक कहते हैं । इन सभीका संसारसे भीरु संयमी साधुओंको गर्वरहित होकर और आलस्य छोडकर यथा योग्य विनयकर्म करना चाहिये । वन्दनाका विषयविभाग करनेकेलिये किसके परोक्षमें किसकी वन्दना करनी चाहिये सो बताते हैं:
गुरौ दुरे प्रवर्त्याद्या वन्द्या दूरेषु तेष्वपि ।
संयतः संयतैर्वन्द्यो विधिना दीक्षया गुरुः॥५१॥ गुरु-आचार्य यदि देशान्तरको गमन आदि करके चले गये हों, प्रत्यक्ष उपस्थित न हो तो उनके परोक्षमें कर्मकाण्डमें बताई हुई विधि के अनुसार क्रमसे प्रवर्तकादिकी संयमियों को वन्दना करनी चाहिये । और पदि प्रवर्तकादिक भी उस समय उपास्थत न हों तो जो साधु अपनेस दीक्षामें बड़ा है उसकी मुनियों को | वन्दना करनी चाहिये । संयमी श्रावक ओर मुनियों को जिनकी वन्दना न करनी चाहिये उनका उल्लेख करते हैं:
श्रावकेणापि पितरौ गुरू राजाप्यसयताः। कुलिङ्गिनः कुदेवाश्च न वन्द्याः सोपि संयतः॥ ५२॥
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असंयमी - माता पिता, और दीक्षागुरु तथा शिक्षागुरु, एवं राजा और मंत्री आदि, तथा तापसादिक और पाइस्थादिक, इसी प्रकार रुद्रादिक और शासन देवतादिक, तथा शास्त्रोपदेश के अधिकारी श्रावककी भी संय मियाँको वन्दना न करनी चाहिये । इतना ही नहीं बल्कि यथोक्त संयमका पूर्णतया पालन करनेवाले श्रावकों को भी इन असंयमियोंकी वन्दना न करनी चाहिये ।
संयम साधुओंकी भी वन्दना करने की विधिका नियम बताते हैं कि कब और किस तरहसे उनकी वन्दना करनी चाहिये, और कब नहीं करनी चाहिये:--
वन्द्यो यतोप्यनुज्ञाप्य काले साध्वासितो न तु । व्याक्षेपाहार नीहारप्रमादवि मुखत्वयुक् ॥ ५३ ॥
संयमीको संयमीकी भी वन्दना योग्य समयमें - आगममें जो वन्दना करनेका समय बताया है उसी समयमें करनी चाहिये । इसके सिवाय जब कि वे अपने स्थानपर या आसनादिपर बैठे हों या बैठ चुके हों नब और उनकी मंजूरी लेकर ही वन्दना करनी चाहिये । अर्थात् वन्दना करने के पहले " हे भगवन् ! वन्देऽहंहे भगवन् मैं आपकी वन्दना करता हूं, " इस तरहसे उनके समक्ष विज्ञप्ति करनी चाहिये । और जब वे इसके बदले में 46 99 66 वन्दस्व वन्दना करो " यह अनुज्ञा करें तब उनकी वन्दना करनी चाहिये । जैसे कि कहा मी है कि-
आसने ह्यासनस्थं च शान्तचित्तमुपस्थितम् । अनुज्ञाप्यैव मेधावी कृतिकर्म निवर्तयेत् ॥
उपस्थित संयम जब कि भले प्रकार आसन पर बैठे हुए हो कर भी शांतचित हों तब उनकी मंजूरी लेकर ही विवेकी साधुओंको उनका विनय आदि करना चाहिये ।
जिस समय वै वन्दनीय साधु किसी प्रकार व्याकुल हो अथवा भोजन कर रहे हों, यद्वा मल मूत्रादिका
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उत्सर्ग कर रहे हों, तथा सावधान न हों, या अपनी तरफ. उन्मुख न हों तो उनकी उस समय वन्दना न करनी चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
व्याक्षिप्तं च पराचीनं मा वन्दिष्टाः प्रमादिनम् ।
कुर्वन्तं सन्तमाहारं नीहारं चापि संयतम् ।। ऊपर यह बात लिखी जा चुकी है कि आगममें जो वन्दना करनेका समय बताया है उसी समयमें वह करनी चाहिये । किंतु वह समय कौनसा है सो बताते है:
वन्द्या दिनादौ गुर्वाद्या विधिवद्विहितक्रियैः।
मध्याह्ने स्तुतदेवैश्च सायं कृतप्रतिक्रमैः॥ ५४॥ गुरु-आचार्यादिकोंकी वन्दना साधुओंको दिनमें तीनवार करनी चाहिये, प्रातः काल, मध्याह्नकाल और सायंकाल । जिसमें से प्रातः काल तो वह प्रामातिक कर्मके अनन्तर, और मध्याह्नमें देव वन्दनाके अनन्तर तथा सायंकालमें प्रतिक्रमणके अनन्तर करनी चाहिये। इसके सिवाय नैमित्तिक कियाओंके पीछे भी उनकी वन्द ना करनी चाहिये । तथा वन्दना करनेकी विधि क्रियाकाण्डमें जैसी कुछ बताई है तदनुसार ही वह करनी चाहिये। आचार्य और शिष्यकी तथा दूसरे भी संयमियोंकी वन्दना और प्रतिवन्दनाका विषय विभाग करते हैं:
सर्वत्रापि क्रियारम्भे वन्दनाप्रतिवन्दने ।
गुरुशिष्यस्य साधूनां तथा मार्गादिदर्शने ॥ ५५ ॥ . सभी नित्य या नैमित्तिक क्रिया करते समय शिष्यको गुरुसे वन्दना करनी चाहिये । और गुरु-आचार्य को भी उसके बदलेमें शिष्यसे वन्दना करनी चाहिये । इसके सिवाय शेष मुनियोंको भी रास्ता आदिकमें दर्शन होजानेपर परस्परमें यथायोग्य वन्दना करनी चाहिये। तथा मार्गशब्दके साथ आदि शब्दजो दिया है उससे म. लोत्सर्गके अनन्तर या कायोत्सर्गके अनन्तर भी दर्शन होजानेपर एक दुसरेको आपसमें वन्दना करनी चाहिये ।
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बनगार
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बच्चाय
यतिक षडावश्यकों से सामायिक चतुर्विंशतिस्तव और वन्दना इन तीन आवश्यकों का वर्णन किया । अब इनका व्यवहार के अनुसार प्रयोग किस तरह करना चाहिये उसकी विधि बताते हैं:
सामायिकं णमो अरिहंताणमिति प्रभृत्यथ स्तवनम् ।
थोरसामीत्यादि जयति भगवानित्यादिवन्दनां युंज्यात् ॥ ५६ ॥
संयम साधुओंको तथा देश संयमी श्रावकों को भी णमो अरहंताणं आदि सामायिक दण्डक बा हुए पाठके अनुसार सामायिक, और थोस्सामि इत्यादि पाठके अनुसार चतुर्विंशतिस्तव, तथा जयति भगवान् इत्यादि उल्लेखके अनुसार वन्दना करनी चाहिये ।
इस श्लोक में एक आदि शब्दका लुप्त निर्देश है । अत एव इस वन्दना प्रकरणमें अरहंत वन्दना सिद्ध वन्दना आदिका भी संग्रह समझलेना चाहिये ।
क्रमानुसार प्रतिक्रमण के लक्षण और भेद बताते हैं: -
अहर्निशा पक्षचतुर्मासान्दर्योत्तमार्थभूः ।
प्रतिक्रमस्त्रिधा ध्वंसो नामाद्यालम्बनागसः॥ ५७ ॥
नाम स्थापना और द्रव्य आदिक छह प्रकार के आश्रय से उत्पन्न हुए अपराध अथवा संचित हुए पापके आत्मासे दूर करनेको प्रतिक्रमण कहते हैं । यह तीन प्रकारसे हुआ करता है, मन वचन और कायके द्वारा, अथवा ga area और अनुमोदनाकी अपेक्षासे । यद्वा मन वचन और कायके द्वारा की गई निन्दा गर्दा और आलोचनाको भी तीन प्रकारका प्रतिक्रमण कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
विनिन्दना लोचनगणैरहं, मनोवच: कायकषाय निर्मितम् ।
निहन्मि पापं भवदुःखकारणं, भिषग्विषं मन्त्रगुणैरिवाखिलम् ॥
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मैं संसारसम्बधी दःखोंके कारण मन वचन तथा काय और कषाय के द्वारा संचित हुए पापको निन्दा आलोचना और गहों के द्वाग इस तरह नष्ट कर देता हूं, जैसे कि मन्त्र के माहात्म्यसे वैद्य समस्त विषको निःशेष कर दिया करता है। यह निन्दादिरूप प्रतिक्रमणका लक्षण ही है । जैसा कि और भी कहा है कि:
प्रमादप्राप्तदोषेभ्यः प्रत्यावृत्त्य गुणावृतिः ।
स्यात्प्रतिक्रमणा यद्वा कृतदोषविशोधना ॥ प्रमादके निमित्तसे जो दोष या अपराध उत्पन्न हुआ करते हैं उनसे आत्माको बचाये रखना, अर्थात वे दोष आत्मामें उत्पन्न न होने देना और गुणोंकी तरफ उसकी प्रवृति रखना इसको प्रतिक्रमण कहते हैं। अथवा प्रमादादिके वश जो दोष लगाये हों उनके दा करनेको भी प्रतिक्रमण कहते हैं।
प्रतिक्रमण करने के समय-काल अथवा उसके विषय सात हैं। दिन रात्रि पक्ष चतुर्मास वर्ष ईर्या और उत्तमार्थ । दिन रात्रि पक्ष और वर्षे शब्दका अथे स्पष्ट है। चतुर्माससे मतलव श्रावण भाद्रपद आश्विन और कार्तिक इन चार महीनाओंका ही नहीं किंतु इसके आगे मगसिर पौष माघ और फलानको तथा चैत्र वैशाख ज्येष्ठ और अषाढ, इन चार चार महीनोंको भी चातुर्मास कहते हैं। इसतरह सिक सम्बन्धमे एक वर्षमें तीन चातुर्मास हुआ करते हैं। योसे मतलब ईपिथ गमनका है। जो शरीरक परित्याग कराने में समर्थ है-अर्थात् जो समाविमरणके समय किया जाता है ऐसे समस्त दोषोंकी आलोचना पूर्वक किये गये चार प्रकारके आहारके त्यागका नाम उत्तमा है । इस प्रकार समय या विषयकी अपेक्षासे प्रति ऋमणके सात भेद-आहिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुमोसिक, वापिक, ऐयापथिक, और उत्तमाथिक। जैसा कि कहा भी है कि:
ऐर्यापथिकराध्युत्थं प्रतिक्रमणमाह्निकम् ।
पाक्षिकं च चतुर्मासवर्षोत्थं चोत्तमाथिकम् ॥ प्रतिक्रमण आलोचना पूर्वक हुआ करता है । अत एव इस कथनसे प्रतिक्रमणकी तरः आलोचनाके भी सात भेद समझ लेना चाहिये । यथा:
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बध्याय
आलोचणं दिवसियं राइय इरियावहं च बोद्धव्वं । पक्खय चादुम्मासिय संवच्छरमुत्तमट्ठे च ॥
इस प्रकार आचार शाखके अनुसार प्रतिक्रमणके सात भेद हैं। किन्तु ग्रन्थान्तरों में इनके सिवाय और भी भेद बताये हैं। परन्तु उनका इन सात भेदोंमें ही अन्तर्भाव हो जाता है । इसी बातको बताते हैं:सोन्त्ये गुरुत्वात् सर्वाती चारदीक्षाश्रयोऽपरे । निषिद्धि के र्यालुञ्चाशदोषार्थश्च लघुत्वतः ॥ ५८ ॥
सम्पूर्ण अतीचार सम्बन्धी और दीक्षा सम्बन्धी प्रति क्रमण अन्तके उत्तमार्थ प्रतिक्रमणमें अन्तर्भूत हो जाते हैं । क्योंकि उनके भक्ति और उच्छ्रास दण्डकका पाठ बहुत ज्यादा है । जिस समय दीक्षा ली उस समय से लेकर संन्यास ग्रहण करने के समय तक जो जो दोष या अपराध हुए हों उनकी निन्दा गर्दा और आलोचना करने को सर्वातीचार प्रतिक्रमण कहते हैं । तथा व्रत ग्रहण करनेमें जो दोष लगेहों उनकी निन्दा आदि करनेको दीक्षा सम्बन्धी प्रतिक्रमण कहते हैं ।
ये दोनों ही प्रतिक्रमण गुरु-बडे हैं इसलिये इनका उत्तमार्थ में समावेश हो जाता है । इस कथन से अर्थात् गुरुशब्दका उल्लेख करके ग्रन्थकारने यह बात व्यक्त करदी है कि बृहत् प्रतिक्रमणाएं सात प्रकारकी हुआ करती हैं। जिनके कि-नाम इस प्रकार हैं, - व्रतासेपणी, पाक्षिकी, कार्तिकान्त चातुर्मासी फाल्गुनान्त चातुर्मासी, आषाढान्त सांवत्सरी, सार्वातीचारी, और उत्तमार्थी ।
अतिचार सम्बन्धी प्रतिक्रमणा सार्वातीचारीमें और जिसमें तीन प्रकारके आहारका परित्याग किया जाता है वह उत्तमार्थी में अन्तर्भूत होजाती है; अत एव इनका पृथक् नामोल्लेख नहीं किया है। बाकीकी पांच प्रतिक्रमणाएं वर्षके अंतमें कीजाती हैं। और योगान्ती प्रतिक्रमणा सांवत्सरीमें अन्तर्भूत हो जाती है । जैसा कि कहा मी है कि:
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व्रतादाने च पक्षान्ते कार्तिके फाल्गुने शुचौ ।
स्यात्पतिक्रमणा गुर्वी दोषे संन्यासने मृतौ ॥ अर्थात बृहत्प्रतिक्रमणाएं सात समयों में हुआ करती हैं, व्रत ग्रहण करते समय, पक्षके अन्त में, कार्तिक अन्तमें, फाल्गुनके अन्तमें, आषाढके अन्तमें, किसी प्रकारका दोष लग जानेपर, और संन्यास मरणके समय।
इस प्रकार ये सात वृहत्पतिक्रमणाएं हैं । लघुप्रतिक्रमणाओंके आह्निक आदि सात मेद बताये हैं। इनके सिवाय आगममें निषिद्धिकेयर्यादिक और भी प्रतिक्रमणाओंके जो भेद बताये हैं उनका आह्निकादिकमें ही अन्तर्भाव हो जाता है। क्योंकि वे लघु हैं, उनके भी भक्ति उच्छासदण्डकका पाठ अल्प है।
जहाँपर मुनिजन उठा बैठा आदि करते हैं उस स्थान विशेष को निषिद्धिका कहते हैं, और उस स्थानमें चलने फिरने आदिका नाम निपिद्धिकया है। दीक्षा ग्रहण करनेके अनन्तर दो महीना तीन महीना या चार महीनामें अपने हाथसे केवोंके उखाडनेको लोच कहते हैं । अशन नाम भोजन अर्थात् गोचरवृत्तिका है। दुःस्वम आदि अतीचारोंको दोष कहते हैं। इन चार निमित्तोंकी अपेक्षासे जो निन्दा गहो आदि की जाती है उन्हीको क्रमसे निषिद्धिकागमन प्रतिक्रमणा, लुचप्रतिक्रमणा, गोचारप्रतिक्रमणा, और अतीचार प्रतिक्रमणा कहते हैं। ये चारो ही प्रतिक्रमणाएं लघु हैं। इसलिये इनका ऐर्यापथिक आदि प्रतिक्रमणाओंमें अन्तभाव होजाता है। इनमेंस पहली मार्गातीचार प्रतिक्रमणामें
और पिछली रात्रिप्रतिक्रमणामें तथा बीचकी दोनों आह्निकप्रतिक्रमणामें अन्तर्भूत होती हैं। इस कथनसे अर्थात इलोको अन्तर्भावकेलिये लघुत्व हेतु देकर ग्रन्थकारने यहांपर लघुप्रतिक्रमणाएं भी सात होती हैं यह बताया है। जैसा कि कहा भी है कि:
लुच रात्री दिने मुक्त निषेधिकागमने पथि।
स्यात् प्रतिक्रमणा लघ्वी तथा दोषे तु सप्तमी ॥ लोच रात्रि दिन भोजन निषेधिकागमन मार्ग और दोष अर्थात् अतीचार इन सात विषयोंकी अपेक्षा लघुप्रतिक्रमणाओंके भी सात भेद हैं।
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- इस प्रकरण के प्रारम्भमें प्रतिक्रमणका लक्षण बताते समय लिखा था कि नाम स्थापना आदि छह निमित्तोंसे होनेवाले अपराधके अथवा संचित हुए पापके दर करने को प्रतिक्रमण कहते हैं। अत एव नामादिकी अपेक्षासे प्रतिक्रमणके भी छह भेद होते हैं । इन्ही छह भेदोंका स्वरूप दो श्लोकोंमें बताते हैं:
स्यान्नामादिप्रतिक्रान्तिः परिणामनिवर्तनम् । दुर्नामस्थापनाभ्यां च सावद्यद्रव्यसेवनात् ॥ ५९॥ क्षेत्रकालाश्रिताद्रागाद्याश्रिताच्चातिचारतः।
परिणामनिवृत्तिः स्यात् क्षेत्रादीनां प्रतिक्रमः ॥ ॥युग्मम् । पापसंचय के कारणभूत नामोंके उच्चारणादिसे होनेवाले अथवा उनका उच्चारणादि करनेके लिये जो परि णाम होते हैं उनकी निवृत्तिको नामप्रतिक्रमणा कहते हैं । सराग स्थापनाके निमित्तसे होनेवाले परिणामोंकी निवृत्तिको स्थापना प्रतिक्रमण कहते हैं। हिंसादि पापोंसे युक्त भोज्यादि वस्तुओंके विषय में जो परिणाम होते हैं उनकी निवृत्तिको द्रव्यप्रतिक्रमणा कहते हैं। क्षेत्रके सम्बन्धसे लगनेवाले अतीचारोंकी तरफ परिणामों की प्रवृत्ति न होना अथवा उनकी तरफ यदि परिणाम प्रवृत्त होभीजांय तो निन्दा आदिके द्वारा उनकी निवृत्ति करनेको क्षेत्रप्रतिक्रमणा कहते हैं। इसी प्रकार कालके निमितसे लगनेवाले अतीचारोंकी प्रवृत्ति न होनेको अथवा होजानेपर उसके निवृत्त करनेको कालप्रतिक्रमणा कहते हैं। तथा रागद्वेष और मोह सम्बन्धी अतीचारोंसे आत्माके निवृत रखनेको भाव प्रतिक्रमणा कहते हैं।
प्रतिक्रमण यह क्रिया है, उसके कर्ता कर्म करण और अधिकरणरूप कारक कौन २ हैं सो बताते हैं:
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स्यात् प्रतिक्रमक: साधुः प्रतिकम्यं तु दुष्कृतम् । येन यत्र च तच्छेदस्तत्प्रतिक्रमणं मतम् ॥१॥
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अनगार
पांच महाव्रतादिके श्रवण और धारण करनेमें तथा उनमें दोषोंके लग जानेपर उन दोषोंके दूर करनेमें सदा तत्पर रहनेवाला साधु इस प्रतिक्रमण क्रिया का कर्ता है। क्योंकि वही द्रव्यादि विषयक अतीचारोंसे आत्माको निवृत्त रखता है, तथा यदि अतीचार लग भी जाय तो उनकी वह शुद्धि भी करता है । जिनसे कि आत्माको बचाकर रक्खा जाता है, अथवा जो दूर करने-छोडने योग्य हैं ऐसे मिथ्यात्वादिक पापोंको और उनके निमित्तभूत द्रव्यादिकोंको प्रतिक्रम्य-प्रतिक्रमण क्रियाका कर्म समझना चाहिये । "मिथ्या मे दुष्कृतं भवतुमेरे सम्पूर्ण गप मिथ्या-निःशेष हों" इस तरहके शब्दोंसे प्रकट होनेवाले परिणाम अथवा ये शब्दसमूह ही इस क्रियाके करण हैं। क्योंकि इन्हीके द्वारा पापोंका उच्छेदन किया जाता है । व्रतोंकी शुद्धि पूर्वकना अथवा तद्रुप परिणत जीव इस क्रियाका अधिकरण समझना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
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जीवो दु वडिक्कमओ दवे खेत्ते य काल भावे प। पडिगच्छदि जेणुजहिं तं तस्स भवे पडिकमणं ॥ पडिकमिदव्वं दव्वं सच्चित्ताचित्तमिस्सियं ति विहं। खेत्तं च गिहादीयं कालो दिवसादिकालम्हि ॥ मिच्छत्ते पडिकमणं तह चेव असंजमे पडिक्कमणं । कसाए पडिक्कमणं जोगेसु य अपसत्थेसु ॥
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प्रतिक्रमणके विषय में पांच बातें विचारणीय हैं।-कर्ता द्रव्य क्षेत्र काल और भाव । कर्चा जीव है। क्योंकि वह आत्माको अपराधोंसे निवृत्त रखने या करनेमें स्वतन्त्र है। जिनका प्रतिक्रमण किया जाता है वह कर्म रूप वस्तु ही द्रव्य है । वह तीन प्रकारकी मानी है, सचित्त अचित्त और मिश्र । गृह गुहा वसतिका वन उपवन मन्दिर आदि स्थान प्रतिक्रमण के क्षेत्र हैं । दिन रात्रि प्रातः काल मध्यान्ह आदि नित्य नैमितिक समय ही प्रतिक्रमणके काल हैं । साव नाम परिणामका है। वह चार प्रकारका है, मिथ्यात्व असंयम कपाय और अप्रशस्त योग ।
प्रतिक्रमण करनेकी विधि बताते हैं:
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निन्दागहलोचनाभियुक्तो युक्तेन चेतसा ।
पठेद्वा शृणुयाच्छुद्धये कर्मनान्नियमान्समान् ॥ ६ ॥ अपनेसे जो दोष पनगया हो उसकी स्वयं अपने मनमेंही, हाय मुझसे यह बडा अनर्थ होगया, ऐसी भावना करने को निन्दा कहत हैं। यदि यह भावना गुरुके समक्ष कीजाय तो उसको गर्दा कहते हैं। तथा अपने दोषोंका गुरुसे निवेदन करदेनको आलोचन कहते हैं। साधुओंको प्रतिक्रमणके समय ये दीनो ही पहले करने चाहिये । पीछे विपुल काँकी निर्जराकेलिये अथवा सम्पूर्ण अतीचारोंकी शुद्धिकेलिये कर्मोंका नाश करनेवाले समस्त नियमों-दण्डकोंका स्वयं पाठ करना चाहिये, अथवा आचार्यादिसे सुनना चाहिये ।
भावार्थ-पहले तो साधुओंको भावप्रतिक्रमण में प्रवृत्त होना चाहिये । किन्तु यह प्रवृत्ति स्वयं निन्दा गहों और आलोचना करनेसे ही हुआ करती है । जैसा कि कहा भी है कि:--
आलोयण निंदणगरहणाहिं अब्भुटिओ अकरणाए। .
तं भावपडिक्कमणं सेसे पुण दव्वदो भणिदं ॥ अर्थात् प्रतिक्रमण दो प्रकारका है, एक द्रव्यरूप दूसरा भावरूप। आलोचना निन्दा और गह द्वारा दो. पोंके दर करनेमें प्रवृत्त होनेको भाव प्रतिक्रमण, और शेष क्रियाओंके करनेको द्रव्यप्रतिक्रमण कहते हैं। इनमेंसे पहले भावप्रतिक्रमण करके पीछे द्रव्यरूप प्रतिक्रमण करना चाहिये । अर्थात् निन्दादिके अनन्तर व्यवहारसे अविरुद्ध प्रतिक्रमण सम्बन्धी दण्डकोंक पाठका स्वयं उच्चारण करना चाहिये, अथवा आचार्यादिके मुखसे उसको सुनना चाहिये । क्योंकि उपयुक्त मनपे; अर्थ की तरफ ध्यान देकर यदि यह पाठ किया जाय या सुनाजाय तो वह सम्पूर्ण कमीका नाश कर देता है । जैसा कि कहा भी है कि:
भावयुक्तोर्थतनिष्ठः सदा सूनं तु यः पठेत् । स महानिर्जरार्थाय कर्मणो वर्तते यतिः॥
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अर्थात् मन लगाकर और अर्थकी तरफ भी ध्यान देते हुए प्रतिक्रमण सूत्रका पाठ करनेसे संयमियोंके कमकी महान् निर्जरा हुआ करती है।
इस सब कथनका तात्पर्य यह है कि आजकल दुःषम काल है । इसके प्रसादसे लोगोंकी बुद्धि या प्रवृत्ति वक्र और जडरूप होजाती है, चित्त चंचल रहा करता है, जिससे कि प्रायः उनसे अपराध हुआही करते हैं। यहांतक कि व्रतादिकोंमें जो अतिचार वे अपने आप लगालिया करते हैं उनका भी उन्हे स्मरण नहीं रहता । अत एव ईर्ष्या गमनागमनादिकमें कोई दोष लगे या न लगे सबको समस्त अतीचारोंकी शुद्धिके लिये सम्पूर्ण प्रतिक्रमण करने ही चाहिये। क्योंकि इन प्रतिक्रमणोंके कहते समय चाहें सबमें उपयोग न लगे, किन्तु जिस किसी भी प्रतिक्रमण में चित्त स्थिर हो जायगा उसीसे समस्त दोष दूर हो जायगे । क्योंकि ये सभी प्रतिक्रमण कर्मोंके नष्ट करने में समर्थ हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
स प्रतिक्रमणो धर्मो जिनयोरादिमान्त्ययोः । अपराधे प्रतिक्रान्तिर्मध्यमानां जिनेशिनाम् ॥ यदोपजायते दोष आत्मन्यन्यतरत्र वा । तदैव स्यात्प्रतिक्रान्तिर्मध्यमानां जिनेशिनाम् ॥ ईर्यागोचरदुःस्वप्रप्रभृतौ वर्ततां नवा । पौरस्त्यपश्चिमाः सर्व प्रतिक्रामन्ति निश्चितम् ॥ मध्यमा एकचित्ता यदमूढदृढबुद्धयः । आत्मनानुष्ठितं तस्माद्रईमाणाः सृजन्ति तम् ॥ पौरस्त्यपश्चिमा यस्मात्समोद्दाश्चलचेतसः । ततः सर्व प्रतिक्रान्तिरन्धोऽश्वत्र निदर्शनम् ॥
अर्थात् सबसे पहले तीर्थंकर भगवान् आदिनाथ स्वामीके समयमें और सबसे पिछले महावीर स्वामिके समय में ही इस प्रतिक्रमण धर्मका सदा पालन किया जाता है। बाकी के मध्यवर्ती बाईस तीर्थकरों के बाडे में इसका सदा पालन नहीं किया जाता, जब अपराध होता है तभी किया जाता है। पहले और पिछले वर्षिकरके
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समयके साधुओंको निश्चित रूपसे सम्पूर्ण प्रतिक्रमण करने ही चाहिये, चाहे ईर्या गोचर दुःस्वप्न आदिके विषयमें उन्हे दोष लगे या न लगे। बीचके बाईस तीर्थकरोंके समय के साधुओंका चित्त चंचल नहीं हुआ करता और उनकी बुद्धि भी दृढ हुआ करती है. तथा उनमें मृढता भी विशेष नहीं पाई जाती। अत एव उनसे जब कोई अपराध बन जाता है तब वे उसकी गर्दा आदि करते हैं। किंतु आदि तीर्थंकर और अन्तिम तीर्थकरके समय के साधु वैसे नहीं होते, उनमें मोह और चित्तकी चंचलता रहा करती है, अत एव वे सब प्रतिक्रमण करते हैं।
निम्न श्रेणीके मुमुक्षुओंको प्रतिक्रमण आदि करने में लाभ है और न करनेमें हानि है। किंतु जो उच्च पदपर पहुंच गये हैं उन मुमुक्षुओंको इस प्रतिक्रमण आदिके करने में हानि ही है । इसी बातका उपदेश देते है:
प्रतिक्रमणं प्रतिसरणं परिहरणं धारणा निवृत्तिश्च ।
निन्दा गर्दा शुद्धिश्चामृतकुम्भोन्यथापि विषकुम्भ: ॥६३॥ यहांपर प्रतिक्रमण शब्दसे द्रव्य प्रतिक्रमणका ग्रहण किया है। अतएव दण्डकोंका पाठ करना ही प्रकृतमें उसका लक्षण समझना चाहिये । गुणोंमें प्रवृत्ति करनेको प्रतिमरण कहते हैं । दोषोंसे पराङ्मुख रहनेका नाम परिहरण है। चित्तक स्थिर रखनेका नाम धारणा है। दूसरी तरफ चित्तके चले जानेपर उधरसे पुनः उसके लौटानेको निवृत्ति कहते हैं। निन्दा और गर्दा शब्दका अर्थ पहले बता चुके हैं। प्रायश्चित्त आदिके द्वारा अपने शोधन करनेको शुद्धि कहते हैं।
निम्नपद में रहनेवाले मुमुक्षुओंकेलिये ये प्रतिक्रमणादि आठो ही कार्य अमृतघटके समान है। क्योंकि जिस प्रकार अमृतका पान करनेसे चित्तमें प्रसन्नता और आह्लाद हुआ करता है उसी प्रकार इन क्रियाओंके करनेसे भी परम प्रसन्नता और आह्लाद प्राप्त हुआ करता है । अत एव निम्नपदमें इनके करनेसे लाभ ही है। तथा न करनेसे हानि है । क्योंकि इनके न करनेपर मोह और संताप आदि उत्पन्न हुआ करते हैं जो कि पापबन्धके कारण हैं । इसलिये उस अवस्थामें इनका न करना विषके घटके समान ही समझना चाहिये ।
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.यहाँपर अपि शब्दका जो पाठ किया है उससे यह बात भी जाहिर करदी है कि ऊपरके पद में पहुंचकर प्रतिक्रमण आदिका करना भी विषकुम्भके समान है । क्योंकि वहां पर विशेषतया संवर और निर्जराके कारणोंमें ही प्रवृत्ति होती है, पुण्य बंधके कारणोंमें नहीं। किंतु इस प्रतिक्रमण आदिके द्वारा उस पुण्यकी प्राप्ति होती है जो कि वैभवको उत्पन्न कर क्रमसे मद और मतिमें पोई उत्पन्न करदिया करता है । जैसा कि कहा भी है कि
पुण्णेण होइ विहओ विहवेण मओ मरण मइमोहो।
मइमोहेण य पावं तं पुण्ण अझ मा होउ ।। पुण्यके उदयसे वैभवकी प्राप्ति होती है। और वैभवसे मद तथा मतिमें मोह उत्पन्न हुआ करता है। मोहके निमित्तसे पापका संचय हुआ करता है । अत एव इस पापबन्धका कारण पुण्य ही हमको नहीं चाहिये । . यहांपर यदि यह कोई शंका करे कि इस पद्यमें । आम) छन्दोभङ्ग है । क्योंकि प्रतिक्रमण इस शब्दमें क्र इस संयुक्ताक्षरके आगे रहनेसे ति यह दीर्घ होजाता है । सो ठीक नहीं है। क्योंकि यहांपर उसका शिथिल उच्चारण करना अभीष्ट है, जैसा कि अनेक स्थलोंमें पाया भी जाता है । यथाः
वित्तैर्येषां प्रतिपदमियं पृरिता भूतधात्री, निर्जित्यैतद्भवनवळयं ये विभुत्वं प्रपन्नाः । तेप्येतस्मिन् गुरुवचढदे बुद्धदस्तम्बलीलां,
धृत्वा धृत्वा सपदि विलयं भूभुजः संप्रयाताः ।। यहाँपर "गुरु वचहदे बुदद " इस पदमें ह इस संयुक्ताक्षरके आगे पडे रहनेपर भी चको दीर्घ मानकर अथवा ह इस संयुक्ताक्षरके आगे रहते हुए भी वु को दीर्घ मानकर छन्दोभङ्ग नहीं होता । इसी तरह " भ्रमति भ्रमरकान्ता नष्टकान्ता वनान्ते" इसमें भ्रके पडे रहने पर भी ति दीर्घ नहीं माना जाता । तथा “शत्रो
रपत्यानि प्रियंवदानि नोपेक्षितव्यानि बुधैः कदाचित् " यहाँपर प्रिके पडे रहनेपर भी नि यह दीर्घ नहीं माना गया PL है। "जिनवर प्रतिमानां भावतोऽi नमामि" इसमें भी प्रक पडे रहते हुए भी रको दीर्व मानकर छन्दोभङ्ग
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प्रतिक्रमणमाला
नहीं माना है। इसी प्रकार और भी अनेक स्थानोमें शिथिल उच्चारण मिलता है। तदनुसार यहाँपर भी समझ ना चाहिये । अत एव छन्दोभङ्गकी शंका ठीक नहीं है। · सम्पूर्ण कर्मोसे रहित होने की भावना करते हुए उनके फलोंसे भी रहित होनेकी भावना करनेमें मुमुक्षु ओंको प्रेरित करते हैं । -
प्रतिक्रमणमालोचं प्रत्याख्यानं च कर्मणाम् ।
. भृतसद्भाविनां कृत्वा तत्फलं व्युत्सृजेत सुधीः ॥ ६४ ॥ विवेकी साधुओंको भूत भविष्यत् और वर्तमान समस्त कर्मों का प्रतिक्रमण आलोचन और प्रत्याख्यान करके उनके सम्पूर्ण फलोंका भी प्रत्याख्यान करना चाहिये ।
भावार्थ:-मुमुक्षुओंको भूत वर्तमान और भविष्यत कोका क्रमसे प्रतिक्रमण आलोचन और प्रत्याख्यान करना चाहिये । तथा उसी प्रकार कोंके फलोंका मी क्रमसे प्रतिक्रमण आदि करना चाहिये । जिन शुभ या अशुभ कर्मोंका पूर्व कालमें संचय हो चुका है उन कर्मोंके उदयसे उत्पन्न होने वाले परिणामोंसे अपनी आत्माको जुदा रखना, संचित कमोंके उदयकेलिये निमित्त मिलनेपर उस निमित्तको उदयका निमित्त न बनने देना, यदि कर्मोंका उदय हो भी जाय तो उससे अपनी आत्माको पृथक रखना, क्रोधादिरूप परिणत न होना, और कमोके संग्रह तथा उदय आदिमें करणभूत पूर्व काकी आत्मासे निवृत्ति करना, इसको भूत कमोंका प्रतिक्रमण कहते हैं । वर्तमानमें जिन शुभ या अशुभ काँका उदय हो रहा है उनसे अपनी आत्माको सर्वथा मित्र समझना, इसको वर्तमान या सत्कर्मोंका आलोचन करना कहते हैं । जिनते कि आमामी काँका बन्ध हो सकता है ऐसे अपने शुभ या अशुम परिणाम न होने देना इसको भाविकमाका प्रत्याख्यान कहते हैं। इस प्रकार भृत वर्तमान और भविष्यत् कर्मोंका प्रतिक्रमणादिक क्रमसे करके उनके फलोंका भी परित्याग करनेके लिये इस प्रकार विचार करना चाहिये । यथा:
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"मनसे वचनसे या शरीरसे मेंने जिस किसी दुष्कर्मका संचय किया हो, अथवा किसीसे कराया हो, यद्वा किसी करनेपर उसकी अनुमोदना की हो, तो वह सब मेरा दुष्कर्म मिथ्या हो जाय ।" इस वाक्यमें एक भूतकालकी ही क्रिया लगाई है। किन्तु इसी प्रकारसे मनदचनकायके संयोगी असंयोगी भेद और उनचास क्रियापदोंको क्रमसे जोडकर प्रतिक्रमण करना चाहिये । जैसा कि कहा भी कि:
कृतकारितानुमननत्रिकालविषयं मनोवचःकायैः।
परिहृत्य कर्म सर्व परमं नैष्कर्म्यमवलम्बे ॥ . भूत भविष्यत् और वर्तमान कालमें मन वचन और कायके द्वारा तथा कृत कारित और अनुमोदना करके जिन जिन काका संग्रह हुआ हो या हो रहा है उन सबको छोडकर अब में कर्मरहित उत्कृष्ट अवस्थाका अनुभव कर रहा हूं। तथा और भी कहा है कि:
मोहायदहमकार्ष समस्तमपि कर्म तत्प्रतिक्रम्य ।
आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ॥ मोहकै निमित्तसे मने जिन जिन कमीको संचित किया उन सभीको छोडकर-उनका प्रतिक्रमण करके देखता हूं तो कर्म रहित चैतन्यस्वरूप अपनी आत्मामें मैं अपने आत्मस्वरूपसे ही सदा लीन होकर रह रहा हूं।
पूर्व कालमें संचित कर्मोंके फलका प्रति क्रमण करने के लिये किस प्रकारकी भावना होनी चाहिये सो ऊपर बताया है। उसी प्रकार वर्तमानमें उदयमें आते हुए काँका और उनके फलका आलोचन इस तरह करना चाहिये कि “ मैं अपने मन वचन या शरीरके द्वारा न तो दुष्कर्म करता हूं, और न किसी से कराता हूं, और न कोई वैसा करता हो तो उसकी अनुमोदना करता हूं।" किंतु पहलेकी तरह यहांपर भी मन वचन कापके संयोगी असंयोगी भंग और उनचास क्रिया पदोंको क्रमसे लगालेना चाहिये। इस प्रकार कर्म और उनके फलोंका आलोचन करके अपने आत्मस्वरूपमें लीन होना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
मोहविलासविजृम्भितमिदमुद्यत् कर्म सकलमालोच्य । आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ॥
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अर्थात ये सम्पूर्ण कर्म जो कि उदयमें आ रहे हैं वे सब मोहकी लीलासे ही प्रकट होने वाले हैं। अत एव इन सबको आलोचना करके मैं सदा कर्मरहित चैतन्यस्वरूप अपनी आत्मामें अपने आत्मस्वरूपसे ठहरा हुआ हूं।
इसी तरह भविष्यकोका और उनके फलोंका प्रत्याख्यान करने केलिये भी विचार करना चाहिये । यथाः"मैं अपने मन वचन और कायके द्वारा कोई भी दुष्कर्म न करूंगा और न किसीसे कराऊंगा तथा कोई करता होगा तो उसकी अनुमोदना मी न करूंगा।" यहाँपर भी क्रमसे मन वचन कायके संयोगी असंयोगी भंग और उनंचाप्त क्रियापद जोडलेने चाहिये । और इस तरह प्रत्याख्यान करके आत्मरूपमें लीनता की प्रवृत्ति करनी चाहिये। जैसा कि कहा भी है किः -
प्रत्याख्याय भविष्यत्कर्म समस्तं निरस्तसंमोहः।।
आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ।। मेंने मोहकर्मका निरास कगया है, इसी लिये अब आगे संचित होनेवाले सम्पूर्ण कर्मोंका भी प्रत्या ख्यान करके कमरहित चैतन्य स्वरूप अपनी आत्मामें आत्मस्वरूपके द्वारा सदा लीन रहने के लिये प्रवृत्त होता है ।
यहॉपर भूत वर्तमान और भविष्यत कर्मों में से एक एकका क्रमसे प्रतिक्रमण आलोचन और प्रत्याख्यान किस तरह करना चाहिये सो बताया । किंतु समुदायरूपसे भी तीन काल सम्बन्धी समस्त कर्मोंका परित्याग करके तथा मोह रहित होकर कर्मजनित विकारोंसे रहित आत्मामें लीन होने का अभ्यास करना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
समस्तमित्येवमपास्य कर्म त्रैकालिकं शुद्धनयावलम्बी।
विलीनमोहो रहित विकारश्चिन्मात्रमात्मानमथावलम्बे ॥ शुद्धनिश्चयनयका अबलम्बन लेकर सम्पूर्ण त्रिकालसम्बन्धी कर्मीको पूर्वोक्त रीतिसे छोडकर और मोहरहित रोकर मैं उन कर्मजनित विकारों से सर्वथा रहित चेतनामय आत्मस्वरूप में लीन हो रहा हूं।
"मैं मतिज्ञानावरण कर्मके फलका भोक्ता नहीं हूं, केवल अपने चैतन्यस्वरूपका ही अनुभव करनेवाला हूं।" इसीप्रकार "मैं श्रुतज्ञानावरण कर्मके फलका मोक्ता नहीं हूं, अवधिज्ञानावरण कर्मके फलका भी मैं भोक्ता
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नहीं हूं, मैं अपने चिदात्माका ही अनुभविता हूं।" इत्यादि सभी मूल कर्म और उनकी उत्तर प्रकृतियों के विषयमें विचार करके उनके फलका विशेषरूपसे और नानाप्रकारसे प्रत्याख्यान करना चाहिये। जैसाकि कहा भी है कि: -
विगलन्तु कर्मविषतरुफलानि मम भक्तिमन्तरेणैव ।
संचेतयेऽहमचल चतन्यात्मानमात्मनत्मानम् ।। ___ मैं इस समय अपने अचल चैतन्यस्वरूप आत्माका स्वयंही अनुभव कर रहा हूं । अतएव ये मेरे कर्मरूपी विषवृक्षोंके फल विना भक्तिकेही झडजाय । और भी कहा है कि:
निःशेषकर्मफलसंन्यसनान्म-वं, सर्वक्रियान्तरविहारनिवृत्तिवृत्तः । चैतन्यलक्ष्म भजतो भृशमात्मतत्त्वं,
कालावलीयमचलस्य वहत्वनन्ता ॥ मेरे सम्पूर्ण काँके फल छूट चुके हैं, अथवा मेने उनको छोड दिया है । इसी लिये अब मैं अन्य सम्पूर्ण क्रियाओंमें विहारकग्नेको भी छोडनेमें प्रवृत्त हुआ हूं । अब मैं अन्य सब क्रियाओंमें संचार करनेसे विमुख होकर केवल चैतन्यस्वरूप आत्मतत्वका पुनः पुनः अथवा प्रचुरतासे अनुभव करनेकी क्रिया ही अचलतया लीन हो रहा हूं। मेरी इस अचलताको अनंतकाल धारण करे, अर्थात इस आत्मानुभवन रूप क्रियामें अनंतकालतक अचल बना रहूं । इसी तरह और भी कहा है कि:
यः पूर्वमावतकर्मविपदमामा, मुक्ते फलानि न खलु स्वत एव तृप्तः ।
आपातकालरमणीयमुदरम्य, निष्कमशर्ममबभेति दशान्तर सः॥ जी मध्य अपने आप ही ट्रेन रहेकरें अपने ही परिणामोसे पूर्वकालमें संचित पापकर्म रूपी विषयों के फलीका अनुभवने नहीं करती है वह तत्काल भी रमणीय और परिपाकमें भी मधुर तथा कैमोसे रहित किंतु सुख मय अपूर्ण अवस्थाको प्रति हुषा करती है।
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नहीं हो सकते । जिसीव नहीं तो उसका
प्रेणा से नहीं किंतु
. भावार्थ-कर्मोंका फल-पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त होनेवाला सुख तत्काल ही रमणीय है, सेवन करते समय ही अच्छा मालुम होता है, किंतु उसका परिपाक कटु ही है। क्योंकि उसका सेवन करनेसे जो नवीन काँका बन्ध होता है उसके निमित्तसे परलोकमें तो दुःखकी प्राप्ति होती ही है, किंतु इस भवमें भी उससे दुःखोंकी ही प्राप्ति हुआ करती है। यहां उसके साथ अनेक दुःखोंका मिश्रण भी रहा ही करता है। अथवा वह स्वयं ही दुःख रूप है। इसके सिवाय वह कर्मों के उदय से प्राप्त होता है इसलिये पराधीन भी है। अत एव इस सुखके निमितसे भव्योंको वास्तविक तृप्ति नहीं हो सकती। जो इसके सेवनकी अभिलाषा मी रखते हैं वे भी वस्तुतः सुखी नहीं हो सकते । जिस प्रकार कोई रोगी मनुष्य दाहसे व्यथित होनेपर पानीके पीने की इच्छा तो रक्खे किंतु वैद्यके कथनानुसार अपाय होनेके भयसे नीवे नहीं तो उसको वस्तुतः सुखी नहीं कह सकते । सुखी वही कहा जासकता है कि जिसको उसके पीने की इच्छा ही नहीं है । जो किसीकी प्रेरणा से नहीं किंतु स्वतः ही जलके विषयमें तृप्त है। उसी प्रकार जो भव्य अपने पूर्व संचित कमौके विषमय फलोंको स्वतः तृप्त होनेसे नहीं भोगता वह वास्तविककर्मजनित सुखोंसे सर्वथा विपरीत आत्मस्वरूप-स्वाधीन जो सेवन करते समय भी मधुर मालुम पडती है और जिसका परिपाक भी मधुर है, एवं जिसके साथ में किसी दूसरे दुःख का रंचमात्र भी संसर्ग नहीं पाया जाता ऐसी अनंत सुखमय अवस्थाको प्राप्त हुआ करता है । और भी कहा है कि:
अत्यन्तं भावयित्वा विरतिमविरतं कर्मणस्तत्फलाच्च, प्रस्पष्टं नाटयित्वा प्रलयनमखिलाज्ञानसंचेतनायाः । पूर्ण कृत्वा स्वभावं स्वरसपरिगतं ज्ञानसंचेतना स्वां,
सानन्दं नाटयन्तः प्रसमरसमिताः सर्वकालं पिबन्तु ।। कर्मोंसे और उनके फलोंसे आत्मा, सर्वथा भिन्न है, इस बात का निरंतर और अच्छी तरहसे अनुभव करके जिन्होने सम्पूर्ण अज्ञान चेतनाका भले प्रकार नाश करदिया है, तथा उसका नाश करके अपने परिणामोंको जिन्होने आत्मानुभवके रसकी तरफ पूर्णतया लगा दिया है, और इसी लिये जो अपनी आत्मिक ज्ञानचेतनाके
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बनगार
विलासोंका आनन्दपूर्वक दर्शन किया करते हैं वेही अंदमें शान्तरसका सर्वकाल पान किया करते हैं। इसी तरह और भी कहा है कि:
कर्मभ्यः कर्मकार्येभ्यः पृथग्भूतं चिदात्मकम् ।
आत्मानं भावयेन्नित्यं नित्यानन्दपदप्रदम् ।। यह चित्स्वरूप आत्मा कर्म और उसके फलोंसे सर्वथा भिन्न है।ऐसा नित्य ही अनुभवन करना चाहिये। क्योंकि उसीसे शास्वत आनन्दरूप पदकी प्राति हुआ करती है । समयसारमें भी ऐसा ही कहा है कि:
कम्मं जं पुवकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसम् । तं दोसं जो चेयह सो खलु आलोयणं चेया ।। णिश्च पञ्चक्खाणं कुम्वइ णिच्चं च पडिक्कमइ जो य ।
णिञ्च बालोचेइय सो हु चरित्तं हवइ चेया ।। - पूर्वकृत कर्म शुभ और अशुभ इस तरह दो प्रकारका है। इसके और विशेष मेद अनेक हैं। जो भव्य | इनके विषयमें ये दोष हैं ऐसा विचार करता है उसीको आलोचन करनेवाला समझना चाहिये । जो नित्य ही प्रत्याख्यान प्रतिक्रमण और आलोचन किया करता है उसको सम्यक्चारित्रका अनुभविता या स्वामी समझना चाहिये।
उपर्युक्त सम्पूर्ण अर्थका अभिप्राय नीचे लिखी हुई कारिकामें पाया जाता है । इस लिये इस कारिकाका नित्य ही पाठ करना चाहिये।
मानस्य संचेतनयैव नित्यं प्रकाशते ज्ञानमतीवशुद्धम् ।
अज्ञानसंचेतनया तु धावन् बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि बन्धः ॥ हमेशा ज्ञानका अनुभवन करनेसे अत्यंत शुद्ध ज्ञान प्रकाशित हुआ करता है। और अज्ञानका अनुभव करनेसे कर्मोंका बन्ध होता है जिससे कि ज्ञान की शुद्धि होना रुक जाता है। इसी अभिप्रायका संग्रह निम्नलिखित कारिकाओंमें भी पाया जाता है, अतः एव मका मी नित्य विचार करना चाहिये । यथा:
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बनगार
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चध्याय
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saha
सर्वथाचं प्रतिक्रामन्नुबदालोचयन् सदा । प्रत्याख्यान् भाविसदसत्कर्मात्मा] वृत्तमस्ति चित् ॥ १ नैष्फल्याय क्षिषे त्रेधा कृतकारित संमतम् । कर्म स्वाचेतयेऽन्यन्तमिदोद्यद्रन्ध उत्तरम् ॥ २ ॥ अहमेवाहमित्येवं ज्ञानं तच्छुद्धये भजे शरीराद्यहमित्येवाज्ञानं तच्छेतृ वर्जये ॥ ३ ॥
अर्थात् - जो पूर्वसंचित पुण्यापुण्यरूप कर्मोंका सर्वथा प्रतिक्रमण किया करता है, और उदयमें आते हुओंकी सदा आलोचना किया करता है, तथा आगामी होनेवाले कमका भी प्रत्याख्यान किया करता है, उस चित् स्वरूप आत्माको चारित्र समझना चाहिये । अत एव मैं मन वचन और कायके द्वारा कृत कारित और अनुमोदित कमको निष्फल बनानेके लिये छोड़ता हूं। तथा जो उदयमें आरहे हैं उनके विषय में मैं ऐसा विचार करता हूं कि ये मेरी आत्मासे सर्वथा भिन्न हैं । इसी प्रकार उत्तर कालीन कर्मों को भी मैं रोकता हूं -नवीन कर्मो का संचय न हो अथवा संचित कर्मों का भविष्य में उदय न हो इसका प्रयत्न- प्रत्याख्यान करता हूं। " अमैं इस शब्द के द्वारा जिसका बोध होता है वही मैं आत्मा हूं, " ऐसा समझने को ही सम्यग्ज्ञान कहते हैं । यही ज्ञान आत्माकी शुद्धिका कारण है । और इसके प्रतिकूल शरीरादिकको ऐसा समझना कि ये मैं हूं अज्ञान है। इस अज्ञानके निमित्त आत्माकी शुद्धि नष्ट होती है - अशुद्धि उत्पन्न होती है । अत एव आत्मशुद्धि के लिये मैं इस अज्ञानको छोड़ता हूं और ज्ञानका सेवन करता हूं ।
1
भावार्थ- बन्धकी कारणभूत समस्त या व्यस्त - सम्पूर्ण या एक एक करण क्रियाओं में प्रवृत्ति करके यह ata योग और कषायके वश होकर जिन कर्मों का संचय करता है वे संक्षेपमें दो प्रकार के हैं। एक पुण्य रूप दूसरे पापरूप | सातावेदनीय शुभ आयु ( तिर्यगायु मनुष्यायु और देवायु ) शुभ नाम [ मनुष्यगति देवगति पंचेन्द्रिय जाति शेरीर आङ्गोपाङ्ग निर्माण आदि ] और शुभगोत्र इनको पुण्य कर्म कहते हैं। बाकी ज्ञानावरणादिक प्रकृतियोंको पापकर्म कहते हैं । इन सभी कमोंका जो व्यक्ति उदयमें आने से पहले ही " मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु
"
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जानवार
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बध्याय
७.
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- मेरे ये कर्म मिथ्या हो जांय " इत्यादि उपायोंसे नित्य प्रतिक्रमण किया करता है— उनका निराकरण करदिया करता है उसको चारित्रवान् और इस तरह से प्रतिक्रमण करनेको चारित्र समझना चाहिये। क्योंकि इस तरह नित्य प्रतिक्रमण करनेवाला ऐसा अनुभव किया करता है कि चित्स्वरूप मैं, मैं शब्द के द्वारा ही जाना जाता हूं । और इस तरहकी अनुभव प्रवृत्तिका ही चारित्र कहते हैं। क्योंकि अखण्ड ज्ञानस्वभाव निज आत्मस्वरूपमें ही निरंतर रमण करनेका नाम वस्तुतः चारित्र है । अत एव संचित कर्मोंके प्रतिक्रमण नित्य निराकरण करनेको चारित्र समझना चाहिये । इसीको ज्ञान चेतना भी कह सकते हैं। क्योंकि वह " में अव स्वयं ही ज्ञानानुभवरूप हो रहा हूं" इस तरह से अपने ज्ञानमात्र स्वभावका ही अनुभव किया करता है ।
इसी प्रकार वर्तमान में उदयमें आनेवाले कमोंके आलोचन करनेवाले और भविष्यत कमका निरोध करने वालेको भी चारित्रस्वरूप ही समझना चाहिये। क्योंकि वह भी अपनी आत्मासे कम फलों और कर्मोंका अत्यंत मिन्न रूपसे अनुभव किया करता है । और समझता है कि मैं इन सम्पूर्ण परभावोंसे सर्वथा रहित चिन्मात्र हूं । इसका विशेष खुलासा ठक्कुर अमृतचंद्र आचार्यने अपनी बनाई हुई समयसारकी टीकामें किया है । अतएव विशेष जिज्ञासुओंको यह विषय वहांपर देखनी चाहिये ।
नामादिक छह निक्षेपों की अपेक्षासे प्रत्याख्यान छह भागों में विभक्त है । इसका पांच पद्योंमें व्याख्यान करने की इच्छा से सबसे पहले उसका लक्षण बताते हैं:
निरोद्धुमागो यन्मार्गच्छिदो निर्मोक्षुरुज्झति ।
नामादीन् षडपि त्रेधा तत्प्रत्याख्यानमामनेव ॥ ६५ ॥
मुमुक्षु भव्य पाप कर्मोंका निवारण करने के लिये रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग के विरोधी - नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल और भावरूप छद्दों अयोग्य विषयोंका जो परित्याग किया करता है उसीको प्रत्याख्यान कहते हैं । जैसा कि कहा भी है कि:
酸酸鹽豬雞湯麵麵號號線蒸鮮魚湯雞雞隊除
धर्म --
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नामादीनामयोग्यानां षण्णां त्रेधा विवर्जनम् । प्रत्याख्यानं समाख्यातमागाम्यागोनिषिद्धये ।।
___ अर्थात्-जिनसे पाप कर्मोंका संचय होता है ऐसे नामोंका मन वचन और कायके द्वारा न स्वयं उच्चारण करना न दूसरोंसे कराना और न उसकी अनुमोदना करना इसको नामप्रत्याख्यान कहते हैं । अथवा "प्रत्याख्यान " इस नाममात्रको भी नामप्रत्याख्यान कहते हैं। द्रव्योंके ऐसे प्रतिरूप मन वचन कायमे न बनाना न बनबाना और न उनकी अनुमोदना करना जो कि पापबन्धके कारण हैं, और जिनसे कि मिथ्यात्वादिकी प्रवृत्ति हुआ करती है उसको स्थापनाप्रत्याख्यान कहते हैं । अथवा प्रत्याख्यानस्वरूप परिणत प्रतिबिम्मको स्थापना प्रत्याख्यान कहते हैं। किंतु यह सद्भावरूप ही हो सकता है। जिन द्रव्योंके सेवन करनेसे पापका बंध हो सकता है उनको सावद्य द्रव्य कहते हैं। ऐसे सावद्य द्रव्योंका तथा तपके लिये छोडे हुए निरवद्य द्रव्योंका भी सेवन या मोजन न करना न कराना और न उसकी अनुमोदना करना इसको द्रव्य प्रत्याख्यान कहते हैं। अथवा प्रत्याख्यान शास्त्रके जाननेवाले किन्तु अनुपयुक्त आत्माके शरीर मावी और कर्मनोकर्मरूप तद्वयतिरिक्त मेदोंको भी द्रव्य प्रत्याख्यान कहते हैं। असंयमादिके कारणभूत क्षेत्रका त्याग करना, दूसरोंसे कराना, या करते हुओंका अनुमोदन करना, इसको क्षेत्रप्रत्याख्यान कहते हैं । अथवा जिस प्रदेश में प्रत्याख्यान किया गया हो उसको भी क्षेत्रप्रत्याख्यान कहते हैं । इसी प्रकार असंयमादिके कारणभृत कालको छोडना छुडाना और छोडते हुएका अनुमोदन करना इसको कालप्र. त्याख्यान कहते हैं । अथवा जिस समय में प्रत्याख्यान किया जाय उसको भी कालप्रत्याख्यान कहते हैं। तथा मिध्यात्वादि भावोंका मन वचन और कायके द्वारा परित्याग करना कराना और करते हुएका अनुमोदन करना इसको भाव प्रत्याख्यान कहते हैं । अथवा प्रत्याख्यानशास्त्रके जाननेवाले उपयुक्त आत्मा उसके ज्ञान या प्रदेशोंको भी भावप्रत्याख्यान कहते हैं।
इस श्लोक में निरोधमागः ऐसा वाक्य जो लिखा है सो सामान्य निर्देश समझना चाहिये । इसीलिये इसमें आचार टीका कारके किये हुए प्रत्याख्यानके लक्षणका भी संग्रह हो जाता है । आचार टीकामें प्रत्याख्यान
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का लक्षण इस प्रकार बताया है कि भविष्यत् और वर्तमान काल विषयक अतीचारोंके दूरकरनेको प्रत्याख्यान कहते हैं। इसी बात-संग्रहको स्पष्ट करते हैं:
धर्म
तन्नाम स्थापनां तां तद्रव्यं तत्क्षेत्रमञ्जसा ।
तं कालं तं च भावं न श्रयेन्न श्रेयसेस्ति यत् ॥६६॥ जो निश्रेयसके साधनमें उपयोगी नहीं है-रत्नत्रयके विरोधी हैं उन अयोग्य नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र और काल तथा भावका मुमुक्षुओंको परमार्थतः-अन्तरङ्गसे सेवन न करना चाहिये । परमार्थसे कहनेका प्रयोजन यह है कि उपसर्ग आदिके निमित्तसे कदाचित अयोग्य नामादिका उच्चारण या सेवन आदि होजानेपर भी प्रत्याख्यानमें हानि नहीं होती। क्योंकि उसका वहां पर सेवन भावपूर्वक नहीं होता।
जो समक्ष योग्य नाम आदिका सेवन करता है वह परम्परासे अवश्य ही रत्नत्रयका आराधक है, इस वातको प्रकाशित करते हैं:
यो योग्यनामाधुपयोगपूतस्वान्तःपृथक् स्वान्तमुपैति मूर्तेः।
सदाऽस्पृशन्नप्यपराधगन्धमाराधयत्येव स वर्त्म मुक्तेः ॥ ६७ ॥ जिनका सेवन करनेसे शुद्धोपयोग प्रकट हुआ करता है या हो सकता है उन योग्य नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल और भावका सेवन करने से जिनका अन्तरंग अत्यंत पवित्र हो चुका है, जो अपने आत्मस्वरूपको शरीरसे सर्वथा मिन्न समझते हैं, और जो स्वात्मोपलब्धिके विरोधी परद्रव्य ग्रहणका कभी रंचमात्र भी स्पर्श नहीं करते-अर्थात् जिनमें कमी प्रमादका लेशमात्र मी नहीं पाया जाता उन साधुओंको अवश्य ही मोक्षके मागेका रत्नत्रयका आराधन करनेवाला समझना चाहिये ।
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अनगार
. ऊपर नामादिके भेदसे प्रत्याख्यानके छह भेद बताये हैं। किंतु उनमें द्रव्य प्रत्याख्यान व्यवहारकेलिये उपयोगी है । अत एव उसका विशेष स्पष्टीकरण करते हुए प्रत्याख्येय विषयों के विशेष भेद और प्रत्याख्यान करनेवालेका स्वरूप बताते हैं:
सावद्येतरसञ्चित्ताचत्तमिश्रोपींस्त्यजेत् । चतुर्धाहारमप्यादिमध्यान्तेष्वाज्ञयोत्सुकः ॥ ६८ ॥
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अहंतदेवकी आज्ञामें उपयोग लगाकर और जैसी कुछ गुरुओंकी आज्ञा हो उसके अनुसार उत्सुकता रखकर साधुओंको प्रत्याख्यान के आदि मध्य और अन्त में सावद्य तथा निरवद्य दोनों ही प्रकारके सच्चित्त अचित्त आर मिश्र परिग्रहाको तथा चार प्रकारके आहारका मी प्रत्याख्यान करना चाहिये ।
भावार्थ-जिनको छोडना चाहिये उनको प्रत्याख्येय कहते हैं । इस द्रव्यप्रत्याख्यान के प्रकरणमें प्रत्याख्येय विषय मूल में दो हैं। एक उपधि दूसरा आहार । उपधि नाम परिग्रहका है। वह दो प्रकार की होती है, एक सावद्य दूसरी निरवद्य । जिसकी उत्पत्ति आदि हिमादिकके निमित्तमे है उसको सावध कहते हैं। और जिसमें हिंसादिक न हों उनको निरवद्य कहते हैं। इनमें भी प्रत्येक परिग्रह तीन तीन प्रकारकी होती है, सच्चित्त अचित्त और मिश्र। जिसमें चेतन-जीवका सद्भाव रहे उसको सच्चित्त और जिसमें उसका सद्भाव न रहे उसको अचित्त, तथा जिसमें चित और अचिन दोनों ही रूप पाये जाय उसको मिश्र कहते हैं । आहार के चार भेद हैं जो कि पहले बताय जा चुके हैं। यहांपर यद्यपि चार प्रकार के आहारका त्याग करने के लिये कहा है तो भी अपिशब्दकी सामर्थ्य में तीन प्रकारका भी आहार छोडना चाहिये, ऐमा भी अभिप्राय समझलेना चाहिये। ये ही द्रव्यप्रत्याख्यान के प्रत्याख्येय - त्याज्य विषय है। इन्ही के छोडनेको प्रत्याख्यान कहते हैं। और जो अत देवकी आज्ञा का यथावत् श्रद्धान करके और गुरुके आदेशानुसार इनका प्रत्याख्यानकी आदि मध्य और अंतमें त्याग करता है उसको प्रत्याख्याता कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
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अनगार
आज्ञाज्ञापनयोदक्ष आदिमध्यावपानतः । साकारमनाकारं च सुसंतोषोनुपालयन ॥
प्रत्याख्याता भवेदेष प्रत्याख्यानं तु वजनम् ।
___ उपयोगि तथाहारः प्रत्याख्येय तदुच्यते ॥ इसके मिवाय मुमुक्षपोंको अपनी अपनी शक्ति के अनुसार अर्थात शक्तिको न तो छिपाकरके और न उसका उल्लंघन ही करके अनेक प्रकारसे उपवासादि करके अवश्य ही प्रत्याख्यान कान का उपदेश देते हैं:
अनागतादिदशाभद विनयादिचतुष्कयुक ।
क्षपणं मोक्षुणा कार्य यथाशक्ति यथागमम् ॥६९ ॥ . अपने बल और वीर्यका तथा आगमका अतिक्रमण न करके मुमुक्षुओंको विनयादिक चार प्रकारका और | अनागतादिक दश प्रकारका प्रत्याख्यान करना चाहिये । आगममें प्रत्याख्यानके जो अनागतादिक दश भेद गिनाये है वे इस प्रकार है:
अनागतमतिक्रान्तं कोटीयुतमखण्डितम् । साकारं च निराकार परिमाणं तथेतरत् ॥ नवमं वतनीयात दशम स्यात सहेतुकम् ।
प्रत्याख्यानविकल्पोयमेव सूत्रे निरुच्यते ॥ जिन उपवासादिकोंको चतुर्दशी आदि तिथियों में करना चाहिये उनको उन तिथियों में न करके उनके पहले ही त्रयोदशी आदि तिथियों में यदि किया जाय तो उनको अनागत कहते हैं। और उस दिन न करके यदि उसके अनन्तर अमावस्या पूर्णिमा या प्रतिपदा आदि तिथियों में किया जाय तो उनको अतिक्रान्त कहते हैं । कल स्वाध्यायका समय बीत जानेपर यदि शक्ति होगी तो उपवास करूंगा नहीं तो नहीं करूंगा, ऐसा संकल्प करके जो उपवास किया जाता है उसको कोटीयुत कहते हैं। जिस पाक्षिकादिक अवसर पर अवश्य ही उपवास करना
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मनगार
चाहिये उस समयपर किये गये उपवासको अखण्डित कहते हैं। सर्वतोभद्र कनकावली आदि जो उपवासोंके भेद बताये हैं उनको विधिपूर्वक और मेदसहित पालन किये जानेपर साकार उपवास कहते हैं । जो अपनी इच्छानुसार उपवास किया जाता है उसको निराकार कहते हैं। एक दिनका दो दिनका तथा सोलह प्रहरका चौबीस प्रहरका बत्तीस प्रहरका इत्यादि काल की मर्यादा करके जो उपवास किया जाता है उसको परिमाण कहते हैं। जीवनपर्यन्तकोलये जो चार या तीन आदि प्रकारके आहारादिका त्याग करना उसको अपरिमाण या अपरिशेष उपवास कहते हैं। वन नदी आदिमसे निकलकर जानेपर या कोई और भी ऐसे ही कारण मिलनेपर अर्थात् मार्ग तय करनेके निमित्तसे जो किया जाय उस उपवासको वर्तनीयात कहते हैं। जो किसी कारणविशेषसे-उपसर्ग आदि निमिचोंकी अपेक्षासे किया जाय उसको सहेतुक कहते हैं। इस प्रकार उपवासके और उसके सम्बन्धसे प्रत्याख्यानके मी दश भेद हैं। इसी प्रकार विनय आदिकी अपेक्षासे, जिनकेकि निमित्तसे उसमें शुद्धि प्राप्त हुआ करती है, प्रत्याख्यानके चार भेद है । क्योंकि उसकी शुद्धिकै कारण भी चार हैं- विनय अनुवाद अनुपालन और भाव । विनय शब्द का अर्थ पहले लिखा जा चुका है। उसके पांच भेदों से यहांपर मोक्षमार्ग विषयक ही विनय ग्रहण करना चाहिये। मोक्षाश्रय विनयके भी पांच भेद है, दर्शनाश्रय ज्ञानाश्रय चारित्राश्रय तपआश्रय और उपचाराश्रय । इनमेंसे आदिके चार भेदोंको कृतिकर्म और पांचवें भेदको औपचारिक कहते हैं। इन विनयोंके निमित्तसे प्रत्याख्यान की शुद्धि हुआ करती है। अत एव प्रत्याख्यानकी विशुद्धिकी इच्छा रखनेवाले मुमुक्षुओं को इनका यथाशक्ति और आगमके अनुकूल पालन करना चाहिये । जैसा कि कहा मी है कि:
कृतिकर्मोपचारश्च विनयो मोक्षवम॑नि ।
पञ्चधा विनयाच्छुद्धं प्रत्याख्यानमिदं भवेत् ।। जिस तरह गुरुने निरूपण किया है उसी तरह-उसमें स्वर पंद मात्रा अक्षर आदिकी भी अशुद्धि न करके उनके वचनोंका यथावत् कथन करने को अनुवाद कहते हैं। इस प्रकार गुरुवाक्योंका अनुकथन करनेसे मी प्रत्याख्यानकी शुद्धि हुआ करती है । अतएव मुमुक्षुओंको इस आवश्यककी शुद्धि के लिये गुरुओक कहे मृजब पाठ भी करना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
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बबमार
गुरोर्वचोनुभाष्यं चेच्छुद्धं स्वरपदादिना ।
प्रत्याख्यानं तथाभूतमनुवादामलं भवेत् ॥ . अर्थात गुरुके वचनका अनुवाद करना हो तो स्वरपद आदिकी अपेक्षा शुद्ध ही करना चाहिये । ऐसा करनेसे जो प्रत्याख्यान हुआ करता है उसको अनुवादामल कहते हैं।
गुरुकी आज्ञानुसार यथावत् आचरण करनेको, श्रम आतंक उपसर्ग दुर्मिक्ष आदिके निमित्तसे अथवा बन उपवन आदिमें रहकर भी आज्ञानुकूल आचरणका भंग न करने को अनुपालन कहते हैं. ऐसा करनेसे मी प्रत्याख्यान की शुद्धि हुआ करती है । अतएव भव्योंको इसका भी पालन करना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
श्रमातंकोपसर्गेषु दुर्भिक्षे काननेपि वा।
प्रपालितं न यद्भग्नमनुपालनयाऽमलम् । इसी प्रकार प्रत्याख्यानकी चौथी शुद्धि भावोंकी अपेक्षासे बताई है। भाव नाम परिणामोंका है । जो प्रत्याख्यान रागद्वेषादिरूप अन्तरंग परिणामोंसे दुषित नहीं होता उसको भावशुद्ध कहते हैं । यथाः
रागद्वेषद्वयेनान्तर्यद्भवेन्नैव दूषितम् ।
विज्ञेयं भावशुद्धं तत् प्रत्याख्यानं जिनागमे ॥ शरीर और इन्द्रियादिके निमित्तसे जो अशुभ कर्भका संचय हुआ करता है उसके दूर करनेको, अथवा वह जिन उपवासादि उपायोंसे दूर किया जाता है उनको भी प्रत्याख्यान कहते हैं । उपाय: अनेक हैं अत एव इस प्रत्याख्यानके भी अनेक मेद हैं। किंतु इसका पालन करना आवश्यक है । इसलिये मुमुक्षुओंको अपनी २ शक्तिके अनुसार और आगमके अनुकूल इसका पालन अवश्य ही करना चाहिये ।
इस प्रकार पडावश्यकों में से प्रत्याख्यान नामके पांचवें भेदका व्याख्यान करके अब क्रमानुसार छहे भेद कायोत्सर्गका सात पद्योंमें वर्णन करना चाहते हैं। उसमें सबसे पहले कायोत्सर्गका स्वरूप क्या है ? उसका
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पालन करनेवाला कैसा होना चाहिये ? वह क्यों किया जाता है और वह कितने प्रकारका है ! इन चार बातोंका निर्णय करने के लिये क्रमसे उसका लक्षण, प्रयोका-स्वामी, और हेतु-साधन तथा भेद-विधान इन चार बातोंका निर्देष करते हैं:
मोक्षार्थी जितनिद्रकः सुकरणः सूत्रार्थविद्वीर्यवान्, शुद्धात्मा बलवान् प्रलम्बितभुजायुग्मो यदास्तेऽचलम् ऊर्ध्वजुश्चतुरंगुलान्तरसमानांधिनिषिद्धाभिधा,
द्याचारात्ययशोधनादिह तनूत्सर्गः स षोढा मतः ॥ ७० ॥ दोनों पैरोंमें चार अंगुलका अन्तर रखकर एक सीधर्म उनको इस तरहसे रखना कि जिसमें एक पैर दूसरेसे आगे पीछे न हो, और जंघाओं को भी ऊपर की तरफ सीधा करके तथा दोनो बाहुओंको नीचे की तरफ लटकाकर निश्चल खडे रहनेको कायोत्सर्ग कहते हैं। अथवा काय शब्दसे शरीर सम्बन्धी ममत्व भी कहा जाता है। अत एव शरीर के विषय में ममत्व न रखनेको भी कायोत्सर्ग कहते हैं । जैसा कि कहा भी है कि:
ममत्वमेव कायस्थं तास्थ्यात् कायोऽभिधीयते ।
तस्योत्सर्गस्तनूत्सर्गो जिनबिम्बाकृतेर्यते॥ अर्हन्त भगवानकी मूर्ति के समान निर्ग्रन्थ आकृति-मुद्रा धारण करनेवाला संयमी जो शरीरके ममत्वको छोडता है उसके इस कार्य को ही कायोत्सर्ग कहते हैं। क्योंकि काय शब्द से आचार्योंने तद्विषयक ममत्व ही लिया है। इस कायोत्सर्गको धारण करनेका अधिकारी वह मुमुक्षु ही हो सकता है जो कि निद्राको जीतनेवाला हो, जिसकी क्रियाए और परिणाम प्रशस्त हों, जो आगमके अर्थको जाननेवाला हो, जिसमें वीर्यान्तराय कर्मके क्षयो
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१-बोपरिदबाहुजुम्लो चतुरंगुलमंतरेण समपादं । सषगचलणरहियो काओस्सग्गो विसुद्धो हु ।।
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पशमसे उत्पन्न होनेवाली स्वाभाविक शक्ति और आहारादिके निमित्तसे संचित होनेवाली वैभाविक शक्ति मौजूद हो, और जिसकी आत्मा सम्यक्त्वादिके निमित्तसे शुद्ध हो चुकी है अर्थात् जो भव्य होने के सिवाय चतुर्थादि गुण. स्थानवी है । एवं जिसके परिणामोंमें विशुद्धि पाई जाती है । जैसा कि कहा भी है कि:
मोक्षार्थी जितनिद्रो हि सूत्रार्थ: शुभक्रियः । .
बलवीर्ययुतः कायोत्सर्गी भावविशुद्धिभाक् ।। इस कायोत्सर्गका प्रयोजन अतिचारोंका शोधन करना है। जिन नाम आदिकोंका उच्चारण आदि करना आगममें निषिद्ध है उनका अनुष्ठानादि करनेसे उत्पन्न होनेवाले अनीचारोंको इस कायोत्सर्गके द्वारा दूर किया जाता है। वे निषिद्ध नामादिक छह हैं-नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल माव । रूखे कठोर असभ्य मर्मभेदी आदि शब्द निषिद्ध नाम कहे जाते है। इसी प्रकार स्थापना आदिके विषयमें भी समझना चाहिये । इनके सेवन करनेसे अथवा और भी किसी निमित्तसे जो दोष लगते हैं उनका संशोधन करना कायोत्सर्गका हेतु है। इसके सिवाय कायोत्सर्ग करनेसे तपकी वृद्धि और कर्मोंकी निर्जरा भी हुआ करती है। अत एव ये भी उसके हेतु हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
आगःशुद्धितपोवृद्धिकर्मनिजेरणादयः ।
कायोत्सगस्य विज्ञेया हेतवो व्रतवर्तिना ॥ ऊपर निषिद्ध नामादिक छह मेदोंके नाम लिखे हैं। उनके अनुष्ठानसे लगे हुए दोष कायोत्सर्गके द्वारा दूर होते हैं, अतएव कायोत्सर्गके भी छह भेद हैं । सावद्य नामोंके उच्चारणादिसे लगे हुए दोषोंकी शुद्धिके लिये जो का. योत्सर्ग किया जाय उसको अथवा कायोत्सर्ग इस शब्दकोही नामकायोत्सर्ग कहते हैं । मिथ्यात्वकी वर्धक या जनक अथवा पापकी उत्पादक स्थापनाके निमित्तसे लगे हुए दोषोंका उच्छेद करने के लिये जो किया जाय उसको अथवा कायोत्सर्गरूप परिणत प्रतिबिम्बको स्थापना कायोत्सर्ग कहते हैं। सावद्य द्रव्यका सेवन करनेसे लगे हुए अतीचा. रोको दूर करने के लिये जो कायोत्सर्ग किया जाय उसको, अथवा जिसमें कायोत्सर्गका वर्णन किया गया है ऐसे
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शास्त्रके जाननेवाले अनुपयुक्त आत्माको, यद्वा उस आत्माके शरीर को या भाविपर्यायको, अथवा कर्मनोकर्मरूप तद्वयतिरिक्तको द्रव्यकायोत्सर्ग कहते हैं। सावध क्षेत्रका सेवन करनेसे लगे हुए दोषोंको नष्ट करने के लिये जो किया जाय उसको अथवा जहाँपर कायोत्सर्ग किया गया हो उस स्थानको क्षेत्र कायोत्सर्ग कहते हैं। इसी प्रकार सावध समय के सेवनसे संचित हुए दोषोंका ध्वंस करनेके लिये जो किया जाय उसको अथवा जिस समयमें कायोत्सर्गका परिणमन हो उस समयको कालकायोत्सर्ग कहते हैं । मिथ्यात्वादि परिणाम रूप अतीचारोंका परिहार करनेके लिये किये गये कायोत्सर्गको अथवा जिसमें कायोत्सर्गका वर्णन किया गया है ऐसे शास्त्रके जाननेवाले उपयुक्त आत्माको या उस ज्ञानको अथवा उस जीवके प्रदेशोंको भाव कायोत्सर्ग कहते हैं।
कायोत्सगके कालका प्रमाण सामान्यतया तीन प्रकारका हो सकता है, जघन्य उत्कृष्ट और मध्यम । किन्तु इनका प्रमाण कितना कितना है और किस तरह नापा जा सकता है सो बताते है।
_ कायोत्सर्गस्य मात्रान्तर्मुहूर्तोऽल्पा समोत्तमा ।
. शेषा गाथान्यंशचिन्तात्मोच्छासर्नेकधा मिता ॥ ७१ ॥ कायोत्सर्गका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट एक वर्ष, और मध्यम अनेक प्रकारका है । एक समय अधिक आवली प्रमाणकालसे लेकर एक समय कम मुहूर्त प्रमाणतकके कालको अन्तर्मुहूर्त कहते हैं। यह कायोत्सर्गका जघन्य काल है। इससे ऊपर-अधिक और एक वर्षसे कम दो तीन आदि मुहूर्त या प्रहर दिन पक्ष मास आदिक, कार्य काल द्रव्य क्षेत्र भाव आदिकी अपेक्षासे कायोत्सर्गके मध्यम कालके भेद अनेक हैं । जैसा कि कहा भी कि:
अम्ति वर्ष समत्कृष्टो जघन्योन्तर्मुहूर्तगः ।
कायोत्सर्गः पुनः शेषा अनेकस्थानगा मताः ॥ " कायोत्सर्गके कालका यह प्रमाण उन उन्छासों के द्वारा गिना जा सकता है जिनमें कि "णमो अरहंताणं" इत्यादि गाथाके तीन अंशॉमेसे प्रत्येक अंशका चितवन किया जाता है।
बध्याय
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अनगार
मान
. अर्थात णमो अरहताणं इत्यादि पंच नमस्कार मंत्र रूप गाथाके तीन अंश हैं । णमो अरईताणं णमो सिद्धाणं इन दो नमस्कार पदोंका एक अंश, और णमो आइरियाणं णमो उवज्झम्याणं इन दो नमस्कार पदोंका दसरा एक अंश, इसी प्रकार णमो लोए सबसाहूणं इम एक नमस्कारपदका तीसरा एक अंश । इनमेंसे एक एक अंशका चिन्तवन करने में जो प्राण वायु भीतर जाती और बाहर निकलती है उतनेमें एक उच्छास हो जाता है। पूर्ण गाथा का एकवार चिन्तवन करने में तीन उच्छास और नौवार चिन्तवन करनेमें सत्ताईस कछास लगते । अत एव इसी हिसाबसे सर्वत्र कायोत्सर्गके कालका प्रमाण मापा जा सकता है। जैसा कि कहा भी है कि:
सप्तविंशतिरुच्छासाः संसारोन्मूलनक्षमे ।
सन्ति पञ्च नमस्कारे नवधा चिन्तिते सति । भावार्थ-नौवार पंच नमस्कार मंत्रका चिन्तवन करने में इत्ताईम उच्छास लगते हैं। यदि इस विधिसे इम मंत्रका चिन्तवन किया जाय तो यही मंत्र समस्त संसारके संहारमें समर्थ हो सकता है। इसीसे भववनका उच्छेदन हो सकता है।
दैनिक रात्रिक या पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण वा कायोत्सर्गके समय कितने २ उच्छ्रास होने चाहिये सो बताते हैं:
उच्छासाः स्युस्तनूत्सर्गे नियमान्ते दिनादिषु ।
पञ्चस्वष्टशतात्रिचतुःपञ्चशतप्रमाः ॥ ७२ ॥ दिन रात्रि पक्ष चतुर्मास और संवत्सर इन पांच अवमरोंपर. वीरभक्ति करते समय जो कायोत्सर्ग किया जाता है उसमें क्रमसे एकसौ आठ, चौअन, तीनसौ, चारसौ, और पांचसी उच्छास हुआ करते हैं । अर्थात् आहिक कायोत्सर्गमें एकसौ आठ, रात्रि सम्बन्धी कायोत्सर्गमें चौअन, पाक्षिकमें तीनसौ, चातुर्मासिकमें चारसौ, और सांवत्सरिक कायोत्सर्गमें पांचसो उच्छास हुआ करते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
ध्याय
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अनगार
.आहिकेष्टशतं रात्रिभवेर्धे पाक्षिके तथा। नियमान्तस्ति संस्थेयमुच्छासानां शतत्रयम् ॥ चतुःपञ्चशतान्याहुश्चतुर्मासाब्दसंभवे ।
इत्युच्छ्वासास्तनूत्सर्गे पञ्चस्थानेषु निश्चिताः ।। मत्र पुरीष आदिका उत्सर्ग करके जो प्रतिक्रमण किया जाता है उस समय अथवा अर्हतशय्या अथवा साधुशय्याकी वन्दना करते समय यद्वा स्वाध्यायकी आदिमें जो कायोत्सर्ग किया जाता है उसमें कितने २ उच्छास हुआ करते है सो बताते है:
मूत्रोच्चाराध्वभक्तार्हत्साधुशय्याभिवन्दने ।
पञ्चाग्रा विंशतिस्तस्यु:स्वाध्यायादौ च सप्तयुक् ॥ ७३ ॥ मूत्रका या पुरीषका उत्सर्ग करके, एक ग्रामसे चलकर दूसरे ग्राममें पहुंचनेपर या भोजनके पीछे, अथवा अहेच्छय्या या साधुशय्याकी वंदना करत समय जो कायोत्सर्ग किये जाते हैं उनमें पच्चीस पच्चीस उछास हुआ करते हैं। इसी प्रकार स्वाध्यायकी आदि या अंतमें नित्यवंदनाके समय अथवा तन्काल मनमें विकार उत्पन्न होनेपर जो कायोत्सर्ग किया जाता है उनमें सत्ताईस सत्ताईस उछस होने चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
प्रामान्तरेऽन्नगनेहत्साधुशय्यामिवन्दने । प्रस्रावे च तयोच्चारे उच्छासाः पञ्चविंशतिः ॥ स्वाध्यायोद्देशनिर्देशे प्रणिधानेथ वन्दने ।
सप्तविंशतिरुच्छाः कार्योत्सर्गेमिसंमताः ॥ किसीमी ग्रंथके प्रारम्भ करनेको उद्देश और उस प्रारब्ध ग्रंथ की समाप्तिको निर्देश कहते हैं । तथा मानसिक विकार वा तत्क्षण उत्पन्न हुए अशुभ परिणामोंको प्रणिधान कहते हैं । जिनेन्द्र भगवान्के निर्वाण
अध्याय
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कल्याणक या समवसरण या केवलज्ञानकी उत्पत्ति अथवा दीक्षा कल्याणक वा जन्म कल्याणकके स्थानको अहे च्छय्या और इसी प्रकार श्रमणोंके निषिद्धिका स्थानोंको साधुशय्या कहते हैं । इसके सिवाय सूत्रमें यह वचन जो कहा है कि:
जन्तुघातानृतादत्तमैथुनेष परिग्रहे ।
. अष्टोत्तरशतोच्छ्रासाः कायोत्साः प्रकीर्तिताः । अर्थात् -प्राणिपीडन अनृतवचन अदत्तग्रहण अब्रह्म या मच्छरूप परिणामोंके हो जानेपर एक सौ आठ उच्छास युक्त कायोत्सर्ग धारण करना चाहिये । सो यह कथन भी च शब्दसे संग्रहीत हो जाता है।
व्रतारोपणी आदि प्रतिक्रमणाओं समय कायोत्सर्गक छासों की संख्या कितनी होनी चाहिये सो बताते हैं:
या व्रतागेपणी सार्वातीचारिक्यातिचारिकी।
औत्तमार्थी प्रतिक्रान्तिः सोच्छासैगहिकी समा ॥ ७४ ।। व्रतारोपणी सर्वातीचारी आतिचारिकी और औंत्तमार्थी प्रतिक्रमणाओं के उच्छ्रास आन्हिकी प्रतिक्रमणाके समान ही हुआ करते हैं । अर्थात् जिस प्रकार देवमिक प्रतिक्रमण करनेमें एक सौ आठ उच्छासोंके द्वारा कायोत्सर्ग धारण किया जाता है उसी प्रकार व्रतारोपणी आदि प्रतिक्रमणाम भी एकसौ आठ उच्छासोंका ही कायोत्सर्ग हुआ करता है।
इस प्रकार कायोत्सर्ग के उच्छापोंकी संख्या बताकर अब यह बताते हैं कि दिनरातमें स्वाध्यायादिके विषय में कुल कायोत्सर्ग कितने कितने हुआ करते हैं:
खाध्याये द्वादशेष्टा षडुन्दनेष्टौ प्रतिकमे । कायोत्सर्गा योगभक्तौ द्वौ चाहोरात्रगोचरा : ॥ ७५ ॥
अध्याय
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अनगार
स्वाध्यायके बारह, वन्दनाके छह, प्रतिक्रमणके आठ, और योगभक्ति के दो, इस तरह मिलाकर दिनरातमें अहाईस कायोत्सर्ग हुआ करते हैं । इनका विशेष विभाग आगे चलकर लिखेंगे।
काँकी सातिशय निर्जरारूप फल प्राप्त करने के लिये कायोत्सर्ग करते समय ध्यान और उपसर्ग तथा परीपहोंका सहन विशेषतया करना चाहिये, ऐसा उपदेश देते हैं:
व्युत्सृज्य दोषान् निःशेषान् सद्धयानी स्यात्तनूत्सृतौ ।
सहेताप्युपसर्गोभीन् कमवं भिद्यतेतराम् ॥ ७६ ॥ कायोत्सर्गमें प्रवृत्त हुए मुमुक्षुओंको ईर्यापथादिक अतीचार अथवा कायोत्सर्ग सम्बन्धी समस्त दोष जिनका कि आगे चलकर वर्णन किया जायगा अच्छी तरहसे छोडकरके विशेषतया प्रशस्त ध्यानके करनेमें ही प्रवृत्त होना चाहिये । अर्थात् आलस्यको छोडकर धर्म्य यद्वा शुक्लध्यानका ही सेवन करना चाहिये । जैसा कि कहा भी है किः
कायोत्मगस्थितो धीमान् मलमीयोपथाश्रयम् ।
नि:शेषं तत्समानीय धम्य शुक्लं च चिन्तयेत् ।। अर्थात् कायोत्सर्ग करनेवाले विवेकी साधुओं को र्यापथ दोषोंको निःशेष करके धर्म्य वा शुक्ल ध्यानका चिन्तवन करना चाहिये । इतना ही नहीं बलिक कायोत्सर्ग करनेमें यदि किसी भी तरहका उपसर्ग या परीषह आ. कर उपस्थित हो जाय तो उसको भी अच्छी तरह सहन करना चाहिय । क्योंकि ऐसा करनेसे ही ज्ञानावरणादिक दुर्वार काँका प्रकर्षतया विश्लेषण-निर्जरण हो सकता है। अत एव निर्जराके अभिलाषियों को कायोत्सर्ग करते समय परीषह और उपसगोंका भी अवश्य ही सहन करना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि
उपसर्गस्तनूत्सर्ग श्रितस्य यदि जायते । देवमानवविर्यग्भ्यस्तदा सह्यो मुमुक्षुणा ॥
अध्याय
८.४
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खनगार
८०५
बच्याय
अर्थात कायोत्सर्ग करने में देव मनुष्य या तिर्यंचोंके द्वारा किसी तरहका उपसर्ग आ उपस्थित हो तो ओंको सहना चाहिये, क्योंकि:
साधस्तं समानस्य निष्कम्पीभूतचेतसः । पतन्ति कर्मजालानि शिथिलीभूय सर्वतः ॥ यथाङ्गानि विभिद्यन्ते कायोत्सर्गविधानतः । कर्माण्यपि तथा सद्यः संचितानि तनूभृताम् ॥ यमिनां कुर्वतां भक्त्या तनूत्सर्गमदूषणम् । कर्म निर्जीयते सद्यो भवकोटिभ्रमार्जितम् ॥
जो साधु निष्कम्प होकर चित्तमें जरा भी चलायमान न होकर इन उपसगों या परीषहोंका सहन करता है उसके सम्पूर्ण कर्मजाल शिथिल - जीर्ण होकर झड जाते हैं। जिस प्रकार कायोत्सर्ग करने से शरीर में विश्लेषण होजाता है—शरके स्कन्ध ढीले पडकर निर्जीर्ण होजाते हैं उसी प्रकार प्राणियों के संचित कर्म भी तत्काल निजीर्ण हो जाया करते हैं । अत एव जो संयमी इस कायोत्सर्गका भक्तिपूर्वक और अतीचार रहित पालन करता है उसके कोट्यों भवोंमें भ्रमण करनेसे भी संचित हुए कर्म क्षणमात्र में ही निर्जीणें हो जाया करते हैं ।
जो योगी नित्य या नैमित्तिक क्रिया काण्डका अनुष्ठान करनेमें सदा दृढ प्रयत्न रहा करता है वह परम्परया अवश्य ही मोक्षका लाभ लिया करता है, ऐसा उपदेश देते हैं:
नित्येनेत्थमथेतरेण दुरितं निर्मूलयन कर्मणा,
योऽभ्यासेन विपाचयत्यमलयन् ज्ञानं त्रिगुप्तिश्रितः । स प्रोद्बुद्धनिसर्गशुद्धपरमानन्दानुविद्धस्फुर, - द्विश्वाकारसमग्रबोधशुभगं कैवल्य मास्तिघ्नुते ॥ ७७ ॥
學雞 鮮雞絲粉粉
धम •
८०५.
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बनगार
धर्म
जैसा कि ऊपर वर्णन किया जा चुका है तदनुसार नित्य और नैमित्तिक क्रियाओंके द्वारा पापकर्मोका निर्मल निरसन करते हुए और मन वचन कायके व्यापारोंका भले प्रकार निग्रह करके-तीनों गुलियोंके आश्रयसे ज्ञानको निर्मल बनाते हुए जो अभ्यास-पुनः पुन: प्रवृत्तिके द्वारा अपने स्वपरावभासी ज्ञानको परिपक्व बनाता है वह उस कैवल्य-निर्वाणको प्राप्त करलेता है जो कि पुनः जन्ममरण के अभावसे अभिव्यक्त स्वाभाविक निर्मलतासे युक्त और परमोत्कृष्ट शांतिरूप प्रमोदसे अनुविद्ध-पृथक्तया अनुभव में आनेवाले अर्थात् दूसरे सम्पूर्ण द्रव्यों में मिला हुआ रहने पर भी अन्य द्रव्यरूप जिसका परिणमन अशक्य है, और इसी लिये जो अपने इस अशक्य विवेचन के द्वारा मिनरूपसे अन् भवमें आता है, एवं जिसमें समस्त लोक और अलोकका स्वरूप प्रकाशमान रहता और सम्पूर्ण द्रव्य तथा उनकी भूत भविष्यत् वर्तमान सब पर्याय विषय हुआ करती हैं ऐसे परिपूर्ण ज्ञानके द्वारा अत्यंत रमणीय है।
। भावार्थ-नित्य नैमित्तिक क्रियाओंके अनुष्ठानसे ही ज्ञान निर्मल और परिपक्व हुआ करता है जिससे कि कैवल्य की प्राप्ति हुआ करती है । अतएव योगियों को नित्य नैमित्तिक कर्मकाण्डमें अवश्य ही प्रवृत्त होना चाहिये. और उसका पुन: पुन: अभ्यास करना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
नित्यनैमित्तिकैरेव कुर्वाणो दुरितक्षयम् ।। ज्ञानं च विमलोकुर्वन्नभ्यासेन तु पाचयेत् ॥
अर्थात नित्य नैमित्तिक क्रियाओंके द्वारा पापका क्षय करते हुए ज्ञानको निर्मल बनाना चाहिये । तथा बार बार इस तरहकी प्रवृत्ति करके अपने इस ज्ञानको परिपक्क कर देना चाहिये । क्योंकि
अभ्यासात् पक्कविज्ञानः कैवल्यं लभते नरः। इस पनः पुनः प्रवृतिके द्वारा ज्ञान परिपक्व होजानेसे ही मनुष्य कैवल्यको प्राप्त करलेता है।
इस प्रकार आवश्यकोंका प्रकरण समाप्त हुआ।
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जमार
अब नित्य नैमित्तिक कर्मकाण्डमेंसे पूर्वोक्त पडावश्यकोंके सिवाय जो कृतिकर्म बाकी रह जाता है उसका भी संग्रह करते हुए मुमुक्षुओंको उसका सेवन करने केलिये प्रेरित करते:
योग्यकालासनस्थानमुद्रावर्तशिरोनति ।
विनयेन यथाजातः कृतिकर्मामलं भजेत् ॥७८ ॥ संयमका ग्रहण करते समय जो निग्रंथरूपले पुनः उत्पन्न हुआ है और इसी लिये जो बाह्य तथा अभ्यंतर परिग्रहोंकी चिन्तासे सर्वथा रहित है ऐसे परम निःश्रेयसके अभिलाषी संयमीको योग्य-समाधिक लिये सहकारी निमित्त कारण-काल आसन स्थान मुद्रा आवर्त और शिरोनतिरूप कृतिकर्म-पापकर्मके उच्छेदन करनेवाले अनुष्ठानका बत्तीस दो को टालकर और विनयपूर्वक सेवन करना चाहिये।
पहले वन्दनाके प्रकरणमें उसकी विधि बताते समय दिनका आदि मध्य और अंत इस तरह वन्दनाके लिये तीन संधिकाल बता चुके हैं। किंतु वहां पर कालका परिमाण नहीं बताया है । अत एव यहाँपर नित्य देवबन्दनाके विषयमें तीनों कालोका परिमाण बताते हैं:
तिस्रोऽहोत्या निशश्चाद्या नाड्यो व्यत्यासिताश्च ताः ।
मध्याह्नस्य च षटुकालास्त्रयोमी नित्यवन्दने ॥ ७९ ॥ तीन संधिकालोंकी अपेक्षासे वंदना भी तीन प्रकारकी होती है। पूर्ववन्दना अपराहवन्दना और मध्याहवन्दना । इन कालोंका परिमाण इस प्रकार है ।-दिनकी आदिकी तीन घडी और रात्रिकी अंतकी तीनघडी इस तरह मिलाकर छह घडी काल पूर्वाह वन्दनाका है । तथा दिनकी अंतकी तीन घडी और रात्रिकी आदिकी तीन घडी इस तरह मिलाकर छह घडी काल अपराण्ह वन्दनाका है. इसी प्रकार मध्यान्हसे तीन घडी पहलेका और तीन घडी पीछे का कुल मिलाकर छह घडी काल मध्याह्ववन्दनाका है। यह संध्या बन्दनाओंका उत्कृष्ट काल है, जैसा कि कहा भी है कि:
बन्याय
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बनगार
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मुहूर्तत्रितयं काल: संध्यानां त्रितये बुधैः ।
कृतिकर्म विधेनित्यः परो नैमित्तिको मतः ।। अर्थात् कृतिकर्मको नित्यकी विधि के कालका उत्कृष्ट परिमाण तीनों संध्याओंमें तीन तीन मुहूर्त है । योग्य काल का स्वरूप बताकर अब 'क्रमानुसार योग्य आसनका स्वरूप बताते हैं:
वन्दनासिद्धये यत्र येन चास्ते तदुद्यतः ।
तद्योग्यमासनं देशः पीठं पद्मासनाद्यपि ॥ ८॥ वन्दनाकी सिद्धि कलिये उद्यत हुआ साधु जहांपर नन्दनाके लिये बैठता है अथवा जिसके द्वारा वन्दनामें प्रवृत्त होता है उस प्रदेश, पीठ सिंहासन या पद्मासनादिकको योग्य आसन कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
श्रास्यते स्थी ते यत्र येन वा वन्दनोद्यतैः ।
तदासन विबोद्धव्यं देशपद्मासनादिकम् ।। वन्दना कर्म करने के लिये प्रवृत्त हुए साधु जापर या जिसके द्वारा वन्दनाके लिये बैठे उस देश या पद्मासनादिकका नाम आसन है । प्रदेश पीठ और पद्मासनादिकमेंस बन्दनाके लिये प्रदेश कैसा होना चाहिये सो बताते हैं:
विविक्तः प्रासुकरत्यक्तः संक्लेशक्लेशकारणैः।
पुण्यो रम्यः सतां सेव्य:श्रयो देशः समाधिचित ॥८१॥ समक्षओंको समाधिके साधक और वर्धक ऐसे प्रदेशमें वन्दना करनी चाहिये जोकि शुद्ध एकान्त तथा प्रासुक हो । अर्थात् जो अप्रशस्त लोक और समर्छनजीवोंसे सर्वथा रहित है, जहापर संक्लेशके कारण गगद्वेषादिक या क्लेशकष्टके कारण परीषद उपसर्ग नहीं पाये जाते, जो किसीके निर्वाण आदि कल्याणकके द्वारा पवित्र हो चुका है, और जो रमणीय तथा प्रशस्त ध्यानका वर्धक है।
यध्याय
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अनगार
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अध्याय
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भावार्थ- समाधिके बाघक कारणों या दोषोंसे रहित और साधक कारणों या उपयुक्त गुणोंसे युक्त स्थानका ही साधुओंको वन्दना केलिये आश्रय लेना चाहिये । अत एव आगम में वर्ज्य और उपादेय इस तरह दो प्रकार के स्थान बताये हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
संसक्तः प्रचुरच्छिद्रस्तृणपश्वादिदूषितः । विक्षोभको हृषीकाणां रूपगंधरसादिभिः ॥ परीकरो वंशशीतप तातपादिभिः । असंबद्धजनालापः सावयारम्भगतिः ॥ भाभूतो मनोऽनिष्ट: समाधाननिषूदकः । योऽशिष्टजन संचारः प्रदेशं तं विवर्जयेत् ॥ विविक्तः प्रातुकः सेव्यः समाधानविवर्धकः । देवर्जुदृष्टिसंपातवा तो देवदक्षिणः ॥ जनसंचारनिर्मुक्तो प्राह्मो देशो निराकुलः ॥ नासन्नो नातिदूरस्थो सर्वोपद्रववर्जितः
aster अनेक लोगोंका संसर्ग पाया जाता हो, जहां सर्प बिच्छू मूषक आदिके छिद्र प्रचुरता से पाये जांय, जो तृण कंटक या पशु पक्षी आदिके द्वारा खराब हो गया हो, जिसके रूप रस या गंधादिकके निर्मित्तसे इन्द्रि योंमें बिलकुल क्षोभ उत्पन्न होजाय, जहांपर दंशमशक या शर्दी गर्मी अथवा धूप वर्षा आदि के निर्मत्तसे परीष उपस्थित होती हों, जहाँपर उन्मत्त आदि मनुष्योंका असंबद्ध प्रलाप हो रहा हो अथवा जहांपर पूर्वापर सम्बन्ध रहित बोलनेवाले लोगों का कोलाहल पाया जाय, जो सावद्य आरम्भके निमित्तसे गर्हित-निंद्य है, जो ऊष्मा आदि के निमित्तसे गीला हो रहा हो, और जो मनके लिये अप्रिय-अरति उत्पन्न करनेवाला, एवं चित्तमेंसे निराकुल शांति या साताको नष्ट करदेनेवाला है और जहांपर अशिष्ट लोगों का संचार - इतस्ततः भ्रमण या गमनागमन पाया जाता है ऐसा स्थान साधुओंके लिये वर्ज्य है। किंतु इसके विपरीत जो एकांत जहां लोगोंका संसर्ग या गमनागमनादिक नहीं पाया जाता, जो सम्मूर्डन जीवोंसे रहित, सेवन करने योग्य, और चित्तमें अतिशय समाधान उत्पन्न करने वाला
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अनगार
है, जहाँपर देवकी सीधी दृष्टि नहीं पडती, अथवा जो देवस्थानसे दक्षिणमागकी तरफ है, और जहांपर मनुष्योंका संचार नहीं पाया जाता, जो आकुलताके कारणोंसे रहित, एवं न अत्यंत निकट और न अत्यंत दूरवर्ती है, तथा जो सम्पूर्ण उपद्रवोंसे रहित है, ऐसा ही स्थान साधुओंको समाधि के लिये अंगीकार करना चाहिये । क्रमानुसार कृतिकर्मके योग्य पीठ का स्वरूप बताते हैं।
. विजन्त्वशब्दमच्छिद्रं सुखस्पर्शमकीलकम् ।
स्थेयस्तार्णाधिष्ठेयं पीठं विनयवर्धनम् ॥ ८२ ॥ वन्दनाकी सिद्धिक लिउद्यत हुए साधुओंको ऐसे आसनपर बैठना चाहिये जो कि तृण काष्ठ या पत्थर इनमेंसे किसका बना हुआ हो, जिसमें घुण मत्कुण या अन्य ऐसे ही जीव नहीं पाये जाते, जिसमें किसी तरहका शब्द नहीं होता, और जो छिद्र रहित है, जिसका स्पर्श सुखकर है, और जो कील रहित, एवं निश्चल है, तथा उन्नतत्व उद्धतत्व आदि दोषोंसे रहित अर्थात विनयंका बढानेवाला है।
बन्दनाके योग्य आसनका तीसरा भेद पद्मासनादिक बताया था। उन पद्मासनादिक-पद्मासन पर्यङ्कासन और वीरासनका की स्वरूप बताते हैं:
पद्मासनं श्रितौ पादौ जङ्घाभ्यामुत्तराधरे।
ते पर्यङ्कासनं न्यस्तापूर्वोवीरासनं क्रमौ ॥८३॥ जहांपर दोनों पैर जंघाओंसे मिल जाय उसको पद्मासन कहते हैं। और दोनों जंघाओंको तराऊपरएकके ऊपर दुसरीके रखनेसे जो आकार बनता है उसको पर्यङ्कासन कहते हैं। तथा दोनों जंघाओंके ऊपर दोनों पैरोंके रखनेसे जो आकार बनता है उसको वीरासन कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
त्रिविधं पद्मपर्यवीरासनस्वभावकम् । आसनं यत्नतः कार्य विधानेन बन्दनाम् ।।
अन्याय
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अनगार
तत्र पद्मासनं पादौ जकूधाभ्यां श्रयतो यतेः। तयोरुपर्यधोभागे पर्यङ्कासनमिष्यते । - ऊर्वोरुपरि कुर्वाणः पादन्यासं विधानतः ।
वीरासनं यतिधत्ते दुष्करं दीनदेहिनः ।। __अर्थात् वन्दना करनेवालेको पद्मासन पर्यापन और वीगसन इन तीन प्रकारके आसनोंमेंसे कोई भी करना चाहिये। दोनों पैरोंके दोनों जंघाओंसे मिलजानेपर पद्मासन, दोनों जंघाओंको ऊपर नीचे रखनेसे पर्यङ्कासन, और दोनों पैरोंको दोनों जंघाओंके ऊपर रखने से वीरासन कहते हैं। यह वीरासन दुर्बल शरीर या हीन संहनन वालोंके लिये दुर्धर है । इसको उत्कृष्ट शक्तिवाले संयमी पुरुष ही धारण कर सकते हैं। इसके सिवाय कोई कोई इन तीनों आसनोंका स्वरूप इस प्रकार बताते हैं:
जघाया जङ्घया श्लिष्टे मध्यभागे प्रकीर्तितम् । पद्मासनं सुखाधायि सुसाधं सकलैर्जनः ।। बुधैरुपयधोभागे जङ्घयोरुभयोरपि । समस्तयोः कृते ज्ञेय पर्यापनमासनम् ॥ उर्वारुपरि निक्षेपे पादयोर्विहिते सति ।
वीरासनं चिरं कतुं शक्यं धीरैनं कातरैः ॥ जंघाका दूसरी जंघाके मध्य भागसे मिल जानेपर पद्मासन हुआ करता है. इस आसनमें बहुत सुख होता है, और समस्त लोक इसको बडी सुगमतासे कर सकते हैं। दोनों जंघाओंको आपसमें मिलाकर ऊपरनीचे रखनेसे पर्यङ्कासन कहते हैं। दोनों पैरोंको दोनों जंघाओंके ऊपर रखनेसे पीरासन कहते हैं । इस आसनको जो कातर पुरुष है वे अधिक देरतक नहीं कर सकते धीर वीर ही कर सकते हैं। किसी किसीने इन आसनोंका स्वरूप इस प्रकार बताया है कि:
जधाया मध्यभागे तु संश्लषो यत्र जङ्घया। पद्मासनमिति प्रोकं वदासनविचक्षणः ॥
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असगार
स्याजधयोरधोभागे पादोपरि कृते सति । पर्यडो नाभिगोत्तानदक्षिणोत्तरपाणिकः ॥ वामोंघिदक्षिणोरूवं वामोपरि दक्षिणः ।
क्रियते यत्र तद्धीरोचित्तं वीरासनं स्मृतम् ॥ जब एक जंघाका मध्यभाग दूसरी जंघामे मिल जाय तब उस आसनको पयासन कहते हैं। दोनों पैरोंके उपर जंघाओंके नीचेके भागको रखकर नाभिके नीचे ऊपरको हथेली करके ऊपरनीचे दोनों हाथोंको रखनेसे पंर्यकासन होता है। दक्षिण जंघाके ऊपर वामपैर और वाम जंघाके ऊपर दक्षिण पैर रखनेसे वीरासन बताया है जो कि धौर पुरुषोंके योग्य है। वन्दनाके योग्य आसनोंका स्वरूप बताकर स्थानविशेषका वर्णन करते हैं।--
स्थीयते येन तत्स्थानं बन्दनायां द्विघा मतम् ।
उद्भीभावो निषद्या च तत्प्रयोज्यं यथावलम् ॥ ८४॥ वन्दनाके प्रकरणमें स्थान शब्दका अर्थ यह होता है कि वन्दना करनेवाला शरीरकी जिस आकृति या क्रियाके द्वारा एक ही जगहपर स्थित रहे या ठहरा रहे उसको स्थान कहते हैं। यह ठहरना दो प्रकारसे हो सकता है-एक खडे रहकर, दूसरा बेठकर । अतएष स्थानके दो भेद हैं, एक उद्रीभाव दूसरा निषधा । वन्दना करनेवालोंको अपनी शक्तिके अनुसार इन दो प्रकारके स्थानोंमसे चाहे जौनसे स्थानका उपयोग करना चाहिये। जैसा कि कहानी कि:
स्थीयते येन तत्स्थानं डिप्रकारमुदाहृतम् ।।
बन्दना क्रियते यस्मादुद्रीभूयोपविश्य वा ॥ ___ अर्थात् -जिसके द्वारा स्थित रहा जाय उसको स्थान कहते हैं। यह दो प्रकारका होता है क्योंकि वन्दना रखडे होकर अथवा बैठ कर दोनो ही तरहसे की जाती है।
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स्थानके अनंतर मुद्राका नामोल्लेख किया था अतएव क्रमके अनुसार मुद्राओंका वर्णन होना चाहिये । मद्रा अनेक प्रकार की होती हैं किंतु कृतिकर्मके योग्य चार तरह की ही मुद्रामानी गई हैं। जिनमुद्रा योगमुद्रा बन्दनामुद्रा और सत्ताशक्तिसगा । इनमेसे पहले आदिकी दोनों मुद्राओंका स्वरूप बताते हैं:
व मुद्राश्चतस्रो व्युत्सर्गस्थितिजैनीह यौगिकी। ..
- न्यस्तं पद्मासनायके पाण्योरुत्तानयोईयम् ॥ ५॥ - मद्रा पर प्रकारकी हैं जिनमुद्रा योगमुद्रा वन्दनामुद्रा और मुक्ताशुक्तिमुद्रा । दोनों भुजाओंको लटकाकर और दोनों पैरोंमें चार अंगुलका अंतर रखकर कायोत्सर्गके द्वारा-शरीरको छोडकर खडे रहनेका नाम जिनमद्रा । है। इसका स्वरूप पहले लिखा जा चुका है। इसके सिवाय जिनमुद्राका आगम भी यही लक्षण लिखाहै। यथा:
जिनमुद्रान्तरं कृत्वा पादयोश्चतुरगुलम् ।
ऊर्वजानोरवस्थानं प्रलम्बितभुजद्वयम् ॥ . पद्मासन पर्यकासन और वीरासनका स्वरूप पहले लिखा जा चुका है। इन तीनों से कौनसे भी आसनको मांडकर नाभिके नीचे ऊपरको हथेली करके दोनों हाथ ऊपर नीचे रखनेसे योगमद्रा होती है। जैसा कि कहा मीकि
जिनाः पद्मासनादीनामङ्कमध्ये निवेशनम् ।
. उत्तानकरयुग्मस्य योगमुद्रां बभाषिरे ॥ वन्दना मुद्रा और मुक्ताशुक्ति मुद्राका स्वरूप बताते हैं:
स्थितस्याध्युदरं न्यस्य कूपरौ मुकुलीकृतौ ।
'. करौ स्याद्वन्दनामुद्रा मुक्ताशुक्तियुतागुली ॥८६॥ १-इसी अध्यायके इलोक ७० मोक्षार्थी जितनिद्रकः आदिके प्रलंबितभुजायुग्म इत्यादि शब्दोंके द्वारा ।
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चनगार
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खडे होकर दोनों कोहनियोंको पेटके ऊपर रखने और दोनों करों-हाथोंको मुकुलित कमलके आकारमें बनाने पर वन्दनामुद्रा होती है। जैसा कि कहा भी है कि
मुकुलीकृतमाधाय जठरोपरि कूर्परम् ।
स्थितस्य वन्दनामुद्रा करद्वन्द्वं निवेदिता ।। अर्थात् दोनों हाथ जोड कर कोहनीको पेटपर रखकर खडे रहनेवालेके वन्दना मुद्रा बताई है।
इसी प्रकार खडे रहकर और दोनो कोहनियोंको पेटके ऊपर रखकर दोनों हाथोंकी अंगुलियों को आकार विशेषके द्वारा आपसमें संलग्न करके मुकुलित बनानेसे मुक्ताशुक्तिमुद्रा होती है। जैसा कि कहा भी है कि:--
मुक्ताशुक्तिर्मता मुद्रा जठरोपरि कूपरम् ।
ऊर्ध्वजानोः करद्वन्द्वं संलग्राङ्गुलि सूरिभिः॥ - इन चार प्रकारकी मुद्राओंमेसे कौनसी मुद्राका प्रयोग किस विषयमें करना चाहिये सो बताते हैं:
स्वमुद्रा वन्दने मुक्ताशुक्तिः सामायिकस्तवे ।
योगमुद्रास्यया स्थित्या जिनमुद्रा तनूज्झने ॥८७॥ आवश्यकोंका पालन करनेवालोंको वन्दनाके समय वन्दनामुद्रा, और " णमो अरहताणं " इत्यादि सामायिकदण्डकके समय तथा “ थोस्सामि" इत्यादि चतुर्विंशतिस्तवदण्डकके समय मुक्ताशुक्तिमुद्राका प्रयोग करना चाहिये. इसी प्रकार बैठकर कायोत्सर्ग करते समय योगमुद्रा और खडे होकर कायोत्सर्ग करते समय जिनमुद्रा धारण करनी चाहिये। मुद्राके अनन्तर क्रमके अनुसार आवोंके स्वरूपका निरूपण करते हैं:--
शुभयोगपरावर्तानावर्तान् द्वादशाहुराद्यन्ते ।
बध्याय
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साम्यस्य हि स्तवस्य च मनोङ्गगीः संयतं परावर्त्यम् ॥ ८ ॥ मन वचन और शरीरकी चेष्टाको अथवा उसके द्वारा होनेवाले आत्म प्रदेशों के परिस्पन्दको योग कहते हैं. हिंसादिक अशुभ प्रवृत्तियों से रहित योग प्रशस्त समझा जाता है. इसी प्रशस्त योगको एक अवस्थासे हटाकर दूसरी अवस्थामें लेजानेका नाम परावर्तन है । और इसका दूसरा नाम आवर्त भी है । इसके मन वचन और कायकी अपेक्षा तीन मेद, और यह सामायिक तथा स्तवकी आदिमें और अंतमें किया जाता है अतएव इसके बारह भेद होते हैं। जो मुमुक्षु साधु वन्दना करने के लिये उद्यत है उन्हें यह बारहों प्रकारका आवर्त करना चाहिये । अर्थात उन्हें अपने २ मन वचन और काय सामायिक तथा स्तवकी आदि एवं अन्तमें पापव्यापारसे हटाकर अवस्थान्तरको प्राप्त कराने चाहिये।
भावार्थ-सामायिककी आदिमें समस्त क्रियाविज्ञापन विकल्पोंको छोडकर सामायिक दण्डकके उच्चारण करने में ही मनका उपयोग लगाना इसको संयतमनआवर्त कहते है । इसी प्रकार जिसमें भूमिका स्पर्श करना पडता है ऐसी अवननि क्रियारूप वन्दनामुद्रा करके पुनः खडे होकर मुक्ताशुक्ति मुद्राके द्वारा दोनों हाथोंका तीन वार घुमाना इसको संयत काय परावर्तन कहते हैं। तथा " चैत्य मक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहं" इत्यादि पाठका उच्चारण कर चुकनेपर " णमो अरहताणं" इत्यादि पाठके उच्चारण करने में जो वचनको लगाना उसको संयत वापरावर्तन कहते हैं । इस प्रकार सामायिक दण्डक की आदिमें ये तीन आवर्त-शुभ योगोंके परावर्तन हुआ करते हैं. इसी तरह अंतके भी तीन आवर्त यथायोग्य समझलेने चाहिये । तथा इसी प्रकार स्तव दण्डकके भी आ. दिमें एवं अंत तीन तीन आवर्त समझने चाहिये । इस तरह कुल मिलाकर एक कायोत्सर्गमें बारह आवर्त हुआ करते हैं।
यह बात भगवान् वसुनंदि सैद्धान्तदेवने आचारटीकाके अन्दर " दुप्रोणदंजहाजादं" इत्यादि सूत्रका व्याख्यान करते समय कही है । तथा क्रियाकाण्डमें भी कहा है कि:
द्वे नते साम्यनुत्यादा भ्रमानिनिस्त्रियोगगाः। त्रिनिर्धमे प्रणामश्च साम्ये स्तवे मुखाम्तयोः ॥
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बनगार
अर्थात- सामायिकके आदिमें और अंतमें दो नति त्रियोगसम्बन्धी तीन २ आवर्त और प्रत्येक दिशामें तीन २ भ्रमणके पीछे एक एक प्रणाम हुआ करता है । भावार्थ प्रत्येक भ्रमणके करते समय चारो दिशाओंमें एक २ प्रणाम होता है । अतएव तीन भ्रमणके मिलाकर बारह प्रणाम हो जाते हैं।
ऊपर आवर्तका अर्थ योगत्रयका बदलना लिखा है, किंतु वृद्ध व्यवहारमें इसका अर्थ हाथोंका घुमाना होता है । अतएव प्राचीन व्यवहारके अनुगेघसे इस प्रकारके आवर्तका भी उपदेश देते हैं :
त्रिः संपुटीकृतौ हस्तौ भ्रमयित्वा पठेत् पुनः।।
साम्यं पठित्वा भ्रमयेत्तौ स्तवेप्येतदाचरेत् ॥ ८९॥ आवश्यकों का पालन करनेवाले तपस्त्रियों को सामायिक पाठका उच्चारण करने के पहले दोनों हाथों को मुकुलित बनाकर तीन वार घुमाना चाहिये । घुमाकर सामायिकके " णमो अरहताणं" इत्यादि पाठका उच्चारण करना चाहिये । पाठ पूर्ण होनेपर फिर उसी तरह मुकुलित हाथोंको तीनवार घुमाना चाहिये। यही विधि स्तव दण्डकक विषयमें भी समझनी चाहिये।
भावार्थ-दोनों हाथोंका संपूट बनाकर तीन वार घुमाना और फिर चतुर्विशति स्तवदण्डकका पाठ करना । पाठ के अनंतर फिर उसी तरह दोनों हायोंके संपुटको तीन वार घुमाना चाहिये । व्युत्सर्ग तपका वर्णन करते समय चारित्र सारमें भी कहा है कि:
इन आवश्यक क्रियाओंको करनेवाला साधु शक्तिको न छिपाकर न शक्तिसे अधिक किंतु शक्तिके अनुरूप खडे होकर अथवा खडे होनेकी शक्ति न हो तो पर्यकासनसे मन वचन कायको शुद्ध करके दोनों हाथोंका संपुट बनाकर क्रिया विज्ञापनापूर्वक सामायिक दण्डकका उच्चारण करे। इस तरह तीन आवर्त और एक शिरोनति होती है। इसी तरह सामायिकदण्डकके अंतमें भी करना, तथा यथोक्त कालतक जिनभगवान्के गुणोंका स्मरण करते हुए कायव्युत्सगको करके दूसरे दण्डककी आदिमें तथा समाप्ति में भी इसी प्रकार करना चाहिये । इस तरह कुल मिलाकर एक कायोत्सर्गके बारह आवर्त और चार शिरोनति होजाती हैं।
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बन्दना आदि नित्य कर्म करने योग्य काल आसन स्थान मुद्रा आदिका आश्रय लेने का पहले जो वन कर चुके हैं उसके अनुसार आवाका स्वरूप बताने के बाद शिरोनतिका वर्णन करना क्रम प्राप्त है. अतएव उसका वर्णन करते हैं:
। प्रत्यावर्तत्रयं भक्त्या नन्नमत् क्रियते शिरः।
यत्पाणिकुड्मलाङ्क तत् क्रियायां स्याच्चतुःशिरः ॥ ९ ॥ प्रकृतमें शिर शब्दका अर्थ भक्तिपूर्वक मुकुलित हुए दोनों हाथोंसे संयुक्त मस्तकका तीन तीन आवताके अनंतर नम्रीभूत होना समझना चाहिये। भावार्थ-यहां पर शिर शब्दसे शिरोननि अर्थ समझना चाहिये. चैत्यभक्ति आदिके अथवा कायोत्सर्गके विषयमें चार २ शिरोनति की जाती हैं. क्योंकि सामायिक दण्डक तथा स्तव दण्डकके आदि और अन्तमें तीन तीन आवर्तके अनन्तर एक एक शिरोनति करनेका आगम में विधान किया है.
चैत्यभक्ति आदि करते समय आवर्त आर शिरोनति दूसरी तरहसे भी हो सकती हैं। इसी बात को बताने लिये सूत्र कहते हैं :
प्रतिभ्रामरि वाचादिस्तुतौ दिश्येकशश्चरेत्।।
त्रीनावर्तान् शिरश्चैकं तदाधिक्यं न दुष्यति ॥ ९१ ॥ चैत्यादि की भक्ति करते समय प्रत्येक प्रदक्षिणामें पूर्वादिक चारो दिशाओं की तरफ प्रत्येक दिशामें रोना आवर्त और एक शिरोनति करनी चाहिये। यहापर यह बात भी ध्यानमें रखनी जरूरी है कि आवर्त और शिनतियों का जो प्रमाण बताया गया है उससे यदि अधिक आवर्त तथा शिरानति हो जाय तो वह कोई दोषका नहीं है।
मावार्थ-चारो दिशाओं के मिलाकर चार शिरोनति और बारह आवर्त चैत्यमक्ति आदि करने वाले ६.प्रत्येक प्रदक्षिणामें हो जाते है। जैसा.कि कहा भी है कि:
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चतुर्दिनु विहारस्य परावर्तानियोगगाः ।
प्रतिभ्रामरि विज्ञेया आवर्ता द्वादशापि च । ___ अर्थात् - चैत्यभक्ति आदि करते समय चारो दिशाओंकी तरफ प्रदक्षिणा देते हुए त्रियोग सम्बन्धी परावर्तन हुआ करते हैं। प्रत्यक दिशामें तीन आवर्त हुआ करते हैं। अतएव प्रत्येक प्रदक्षिणामें बारह आवर्त हो जाते हैं।
आवर्त और शिगेनति उक्त प्रमाण अधिक भी हो जाय जैसाकि तीन प्रदक्षिणा देने आदिके समय सं. भव है तो उसमें कोई दोष न समझना चाहिये। क्योंकि इस विषय में चारित्र सारमें भी कहा है कि:
“एकस्मिन् प्रदक्षिणीकरणे चैत्यादीनामभिमुखीभूतस्यावर्तत्रयकावनमने कृत चतसृष्वपि दिक्षु द्वादशावताश्चतस्रः शिरोवनतयो भवन्ति । आवतानां शिरःप्रातीनामुक्तप्रमाणादाविन्यमपि न दोषाय"
अर्थात - एक या पहली प्रदक्षिणा देने में प्रतिमा आदिके सम्मुख खडे होकर तीन आर्वत और एक शिरोनति की जाती है, इसलिये चारो दिशाओं में मिलकर बारह आवर्त और चार शिरोनति हो जाती हैं। आवर्त और शिरोनति इस प्रमाणसे अधिक भी हो जाय तो उसमें कोई दोष नहीं है। इसी अभिप्रायका समर्थन करते हैं:- .
दीयते चैत्यनिर्वाणयोगिनन्दीश्वरेषु हि ।
वन्द्यमानेष्वधीयानैस्तत्तद्भक्तिं प्रदक्षिणा ॥ ९२॥ जिम समय मुमुक्षु मंगमी चैत्य वंदना या निर्वाण वंदना अथवा योगि वंदना यद्वा नंदीश्वर चैत्य वंदना किया करते हैं; उस समय तसद्भक्तिका पाठ बोलते हुए वे प्रदक्षिणा दिया करते है।
भावार्थ:-चत्यादि वंदना करते समय चत्यभक्ति आदिका जो पाठ क्रिया काण्डमें प्रसिद्ध है उसको बोलते हुए प्रदक्षिणा दी जाती है. इससे जब कि एक ही प्रदक्षिणामें बारह आवर्त और चार शिरोनति हो जाती है तब
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उससे अधिक प्रदक्षिणा होजानेपर आवर्त और शिरोनति का प्रमाण भी अधिक हो सकता है, ऐसा सिद्ध होता है। ग्रंथकार अपने और दूपरे आचार्यों के मतमे शिरोनतिके विषयका निर्णय प्रकट करते हैं:
द्वे साम्यस्य स्तुतेश्चादी शरीरनमनान्नती।
वन्दनाद्यन्तयोः कैश्विन्निविश्रा नमनान्मते ॥ ९३ ॥ . सामायिक दण्डक जौर चतुर्विशति स्तवकी आदि में दो शिगेननि करनी चाहिये । यह नात शरीरके पा.' चा अंगों को नमाकर जिसप कि भमिका सहो जाय प नाही करनी चाहिये । श्रस्वामी समन्तभद्र प्रमृति आचार्योंने दो नति माना हैं । पन्त उनको वन्दनाकी आदि और अनमें बैठ प्रणाम करके दोनति करना इष्ट है। जैसा कि श्री भगवान् प्रमाचन्द्र देवने ग्लण्डकी टीका " नगवत्रि यं-" इत्यादि सूत्रके. " द्विनिषद्य" इस पदका व्याख्यान करते समय लिया कि "देववनानां कृति हिमपम सौ चोपविश्य प्रणामः कर्तव्यः।" अर्थात् देववन्दना करने वाले को आदि और अंग बैठका प्रणाप क ना चाहिये । प्रणामके भेद और उनका स्वरूप दो श्ल द्वारा बनने :--
योगैः प्रणामस्त्रधाज्ञानादेः कीर्तनाताभिः । के करी ककर जानुका ककरज'नु च ॥४॥ नम्रमेकद्वित्रिचतुःश्चकाधिकः क्रमात ।
प्रणामः पञ्चधावाचि यथास्थानं कियत सः ॥ ५५ ॥ मन वचन और कायकी अपेक्षा प्रणाम तीन प्रकारका है। क्योंकि मर्वज्ञ वीतराग श्री परमेष्ठी अथवा सिद्ध भगवान् के ज्ञानादिक गुणों का कीर्तन इन तीनों ही योगों के द्वारा किया जाता है. इनमें से शारीरिक प्रणाम पांच प्रकारका है। कायिक प्रणाममें शरीर के अंगोंको नम्राभूत किया जाता है, अतएव शरीरके पांच अंगोंकी अपेक्षा
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अनगार
कायिक प्रणाम भी पांच तरहका माना है । जिसमें शरीरका एक अंग नम्रीभूत हो उसको एकाङ्ग, और जिसमें दो अंग नम्रीभूत हों उसको द्वयङ्ग, और जिसमें तीन चार पांच अंग नम्रीभूत कियेजांय उसको क्रमसे व्यंग चतुरंग पंचांग कायिक प्रणाम कहते हैं।
एकाङ्ग प्रणाममें केवल शिरको ही नमाया जाता है । द्वयनमें दोनों हाथ जोडकर नम्रीभूत किये जाते हैं। ध्यंगमें दोनों हाथ और शिर नत हुआ करता है । चतुरङ्गमे दोनों हाथ और दोनों घुटने नत किये जाते है । और पंचाग में मस्तक दोनों हाथ और दोनों घुटने नम्र करने चाहिये
कृतिकर्म करने वालोंको इन पांच प्रकारके प्रणामों से जो प्रणाम जिस स्थानपर करना उचित है उसको उसी स्थानपर करना चाहिये । जैसे कि सामायिक दण्डक की आदिमें पंचाङ्ग प्रणाम करना चाहिये । कहा मी.है कि:
मनसा वचसा तन्वा कुरुते कीर्तनं मुनिः । जानादीनां जिनेन्द्रस्य प्रणामस्त्रिविधो मतः ॥ एकाको नमने मूों द्वयङ्गः स्यात् करयोरपि । व्यङः करशिरोनामे प्रणामः कथितो जिनैः ।। करजानुविनामेऽसौ चतुरको मनीषिभिः । करजानुशिरोनामे पश्चाङ्गः परिकीर्तितः ॥ प्रणाम कायिको ज्ञात्वा पश्चधेति मुमुक्षुभिः ।
विधातव्यो यथास्थानं जिनसिद्धादिवन्दने । अर्थात-मुनिजन जिनेन्द्र के ज्ञानादिका मन वचन और कायसे कीर्तन किया करते हैं । अतएव त्रियोग की अपेक्षा प्रणाम तीन प्रकारका है। जिसमें कायिक प्रणाम पांच तरहका है। शिरके नमानेपर एकाङ्ग, दोनों हाथों के नमानेपर द्वयङ्ग, दोनों हाथ और शिरके नमानेपर ध्यग, दोनों हाथ और दोनों जानुओंके नमानेपर चतुरंग, और दोनें। हाथ दोनों जानु तथा एक शिरके नमानेपर पंचाङ्ग प्रणाम कहा जाता है। इन पांच प्रकार के प्रणाों से
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जिनवन्दना या सिद्धवन्दना आदि करते समय जो प्रणाम जिस स्थानपर करना उचित है मुमुक्षुओंको वही प्रणाम उस स्थानपर करना चाहिये । । क्रिया प्रयोग विधिको बताते हैं:
कालुष्यं येन जातं तं क्षमयित्वैव सर्वतः ।
सङ्गाच्च विन्तां व्यावर्त्य क्रिया कार्या फलार्थिना ॥१६॥ कर्मोंकी निर्जरा-मोक्ष अथवा तीर्थकरत्वादि महान् अभ्युदयोंकी इच्छा रखनेवाले साधुओंको सम्पूर्ण परियडोंकी तरफसे चिंताको हटा कर और जिसके साथ किसी तरहका कभी कोई कालुष्य उत्पन्न होगया हो उससे क्षमा कराकर ही आवश्यक क्रिया करनी चाहिये । कहा भी है कि:
येन केनापि संपन्नं कालुष्यं दैवयोगतः
क्षमयित्वैव तं त्रेधा कर्तव्यावश्यकक्रिया । अर्थात्-दैवयोगसे क्रोधादिके आवेश वश यदि किसीके साथ कोई कालुष्य पैदा होगया हो तो उससे मनवचन और कायके द्वारा क्षमा करा कर ही आवश्यक क्रिया करनी चाहिये ।
इसके पहले इसी अध्यायके ५८ वें पद्यमें जो कृतिकर्मका अमल विशेषण दिया है उसका अर्थ स्पष्ट करते हैं:
दोषैभत्रिंशता स्वस्य यद्व्युत्सर्गस्य चोज्झितम् ।
त्रियोगशुई क्रमवन्निभलं चितिकर्म तत् ॥ ९७ ।। जिस क्रियाके करनेसे तीर्थकरत्वादि महान पुण्यका अर्जन हो सकता है उस जिनेन्द्रादिकी वन्दनाको चितिकर्म कहते हैं । चितिकर्म वही निर्मल समझना चाहिये जिसका कि क्रम प्रशस्त हो और जहाँपर मन वचन
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V
काय का व्यापार विशुद्ध पाया जाज। जहां पर तीनों ही योग कालुष्यरहित रहा करते हैं। और जो अपने चितिकर्म सम्बन्धी तथा व्युत्सर्ग सम्बन्धी बत्तीम २ दोषोंले रहित हो ।
कहा भी है कि -
दुओणदं जहाजादं बारसावत्तमेव य । चदुम्सिरं तिसुद्धं च किदिरम्मं पउज्जदे || तिविहं तियरगसुद्धं मयहियं दुबिहागवणरुत्तं । विएण कमविरुद्धं विदियम्मं होइ काठ ॥ किदियम्म पि कुतो ण होदि किदियम्मि णिज्जगभागी । बाणणदरं साहद्वाण विगाहतो ।
अर्थात- बारह आवर्त चार शिरोनति और मनवचन की शुद्धि युक्त यथाजात नित्य नैमित्तिक क्रिया करनी चाहिये । तीन करणोंसे शुद्ध मदरहित दो प्रकार के स्थानांपे (उद्भव और उपवेशन ) युक्त और क्र मपूर्वक किये जानेसे विशुद्ध तीन प्रकारका कृतिकर्म करना चाहिये। कृतिकर्म करने भी कृतिकर्मका फल प्राप्त नहीं हुआ करता। क्योंकि बस जा साधुग्थान बनाये हैं उनमें से किसी एक का मी विराधन करनेवाला माधु निर्जराका भागी नहीं बन सकता । अर्थात् बत्तीस दोषों को टालकर जो जिनवंदना आदि करता है वही कम की निर्जरा कर सकता है।
यहां पर जिन बंदना ३२ और कामो
३२ दोषों का स्वरूप चौदह श्लोकों के द्वरा बताते हैं: -
३२ दोष टालने के लिये जो कहा है उसमें वन्दना सम्बन्धी
अनादृतमतात्पर्यं वन्दनायां मदोद्धृतिः ।
१ – आगे चलकर १११ वें गाथा में ऐसा कहेंगे कि " इति दोषोझा कार्या बन्दना निर्जरार्थिना । " अर्थात् निर्जरार्थियों को इस प्रकार ३२ दोषोंस रहित बन्दना करनी चाहिये । सो इस श्लोकका सम्बन्ध वहांतक जोडलेना चाहिये । तथा १०४ के श्लोक में मल शब्द आया है इसलिये मध्य दीपक न्याय से अथवा अन्त्यदीपकन्यायले इन अनादृतादिक भावों को बन्दनाका दोष समझना ।
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स्तब्धमत्यासन्नभावः प्रविष्टं परमेष्ठिनाम् ॥ ९८ ॥ १-चन्दनाके कर्म में तत्परता न रखना, अर्थात उसको प्रधान मानकर जैसी प्रवृत्ति होनी चाहिये वैसी न करना और उसमें आदर भाव रहित होना, इसको बन्दनाका पहला अनादत नामका दोष समझना चाहिये।
२ ज्ञान पूजा कुल जाति आदि आठ विषयों की अपेक्षा लेकर जो अहंकार होता है उसको मद कहते हैं। इन आठो ही अथवा इनमेसे अन्यतर के द्वारा अपने उतार्षिकी संभावना करके इन मदोंके वशीभूत हो जाना इसको स्तब्ध नामका दुसरा दोष समझना चाहिये ।
३- अदादिक परमेष्टियों के अत्यंत निकट वर्ती होकर उनकी वन्दना करना इसको बन्दनाका तीसरा प्रविष्ट नामका दोष समझना चाहिये ।
हस्ताभ्यां जानुनोः स्वस्य संस्पर्शः परिपीडितम्।
दोलायितं चरन कायो दोलावत् प्रत्ययोथवा ॥१९॥ ४.- अपने दोनों हाथोंपे अनी दोनों जंघाओं का चारो तरफ स्पर्श करना, अर्थात वन्दना करते समय जंघाऑपर हाथ फेरते जाना या फेरना इसको वंदनाका परिपीडित नामका चौथा दोष कहते हैं।
५-जिस प्रकार झूलापर बैठे हुए आदमी का शरीर चलायमान हुआ करता है उसी प्रकार वन्दना करनेवाला यदि अपने शरीरका यातायात को तो उसको दोलायित दोप समझना चाहिये । अर्थात वंदना करते समय यदि शरीर आगेको झुके फिर पीछे को फिर आगेको फिर पीछे को इसी तरह चलायमान हो तो वंदनाका वह पांचवां दोलायित दोष है । अथवा स्त्युत्य स्तुति और स्तुति के फलके विषयमें चलापमान ज्ञानका होना -संशय करना उसको भी दोलायित दोष कहते हैं।
भालेंकुशवदङ्गुष्ठविन्यासोऽङ्कुशितं मतम् । निषेदुषःकच्छपवद्रिखा कच्छपरिङ्गितम् ॥१..॥
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६-अपने ललाटपर अपने हाथ के अंगुष्ठको अंकुशकी तरह रखकर वन्दना करना अंकुशित नामका छठा दोष है।
७-बैठकर बंदना करनेवाला यदि कच्छपके समान चेष्टा करे, अर्थात् बैटे २ ही कछुए की तरह धीरेसे रेंगनेकी क्रिया करे तो वह सातवां कच्छपरिङ्गित नामका दोष है।
मत्स्योद्वत स्थितिमत्स्योद्वर्तवत् त्वेकपार्श्वतः ।
मनोदुष्टं खेदकृतिश्र्वाद्युपरि चेतसि ॥ १.१॥ ८-जिस प्रकार मछली एक भागको ऊपर करके उछला करती है उसी प्रकार वंदना करनेवाला यदि एक भागको-कटिभागको ऊपर को निकालकर वन्दना करने के लिये स्थित हो तो उसको आठवां मत्स्योदर्न नामका दोष समझना चाहिये। ५-अपने मनमें गुरु-आचार्यादिके ऊपर आक्षेप करना-खिच होना मनोदुष्ट नामका दोष है ।
वेदिबद्धं स्तनोत्पीडो दोभ्यावा जानुबन्धनम् ।
भयं क्रिया सप्तभयाद्विभ्यत्ता बिभ्यतो गुरोः ॥ १.२॥ १०-अपनी छातीके स्तनमागोंका मर्दन करना दशवां वेदिकाबद्ध नामका दोष है। अथवा योगपट्टकी तरह दोनों भुजाओंके द्वारा अपने दोनों घुटनोंको बांध लेना यह भी वेदिका बद्ध नामका ही दोष है ।
११- इस लोकमय परलोकमय अकस्मात् भय मरणभय इत्यादि सात प्रकारकी भयके वशीभूत होकर आवश्यक क्रिया करना इसको ग्यारहवां भयनामका दोष समझना ।
१२- गुरु आचार्य आदि से डरते हुए आवश्यक कर्म करना विम्यत्ता [विम्यतः कर्म विम्यत्ता] नामका बारहवां दोष है।
भक्तो गणो मे भावीति वन्दारोऋद्धिगौरवम् ।
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बनगार
गौरवं स्वस्य महिमन्याहारादावथ स्पृहा ॥ १०३ ॥ १३- ऋषि मुनि यति और अनगार इसतरह चारो प्रकारके मनियोंका संघ मेरा भक्त बनजायगा ऐसा माव रखकर जो बन्दना करना इसको तेरहवां ऋद्धि गौरव नामका दोष समझना ।
१४-अपने माहात्म्पकी इच्छा करना, अथवा भोजन और उपकरण आदिकी स्पृहा रखकर बन्दना करना चौदहवां गौरव नामका दोष है।
स्याद्वन्दने चोरिकया गुर्वादेः स्तेनितं मलः।
. प्रतिनीतं गुरोराज्ञाखण्डनं प्रातिकूल्यतः॥१.१॥ - १५- आचार्य प्रवर्ती और उपाध्याय आदि गुरुजनोंसे छिपाकर वन्दना क्रिया करना स्तेनित नामका पंद्रहवां मल-दोष समझना चाहिये । १६- प्रतिकूल वृत्ति रखकर गुरुकी आज्ञाका खंडन करदेना सोलहवां प्रतिनीत नामका दोष है।
प्रदुष्टं वन्दमानस्य द्विष्टेऽकृत्वा क्षमा त्रिधा।
तर्जितं तर्जनान्येषां स्वेन स्वस्याथ सूरिभिः॥१.५॥ १७-कलह वगैरहके द्वारा किसीके साथ द्वेषका विषय यदि उपस्थित होगयाहो तो उस विषयमें मन वचन और कायके द्वारा जिसका अपराध किया है उसके मनमें क्षमाभाव उत्पन्न कराये विना, वा स्वयं उसके प्रति क्षमा धारण किये विना वन्दना करना प्रदुष्ट नामका सत्रहवां दोष है।
१८-अंगूठाके पासकी अंगुली-तर्जनीको उटाकर और हिलाकर दूसरे शिष्पादिकोंको अपनेसे भय उत्पन्न करना तर्जित नामका दोष है । अथवा आचार्यादिकोंके द्वारा अपनी तर्जना होना यह भी वर्जित नामका ही अठारहवां दोष है।
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बनगार
शब्दो जल्पक्रियान्येषामुपहासादि हेलितम् ।
त्रिवलितं कटिग्रीवाहद्भङ्गा भ्रकुटिर्नवा ॥ १.६ ॥ १९-वन्दना करते समय बीचमें बातचीत करते जाना शब्द नामका दोष है।
२०-वन्दना करते हुए दूसरे लोकोंका उद्घन करना, उनको धक्का देना, विप्लव मचाना, दूसरोंकी इसी करना, इत्यादि वन्दनाका बीसवां हेलित नामका दोष है।
२१-वन्दना करते समय कटि ग्रीवा और हृदय इन अंगोंमें भंग-बलि पडजाना त्रिवलित नामका दोष है। अथवा ललाटके ऊपर त्रिवली-तीन सरवटोंका पडजाना यह त्रिवलित नामका ही इक्कीसवा दोष है।
करामर्शोथ जान्वन्तः क्षेपः शीर्षस्य कुश्चितम् ।
दृष्टं पश्यन् दिशः स्तौति पश्यन्स्वान्येषु मुष्ठु वा ॥ १० ॥ २२-शिरका अपने हाथसे अमर्श करना, अथवा दोनो जंघाओं-घुटुनोंके बीचमें शिर रखना कुंचित नाकका दोष है।
२३-जो दिशाओंकी तरफ देखता हुआ वन्दना करे उसके दृष्ट दोष समझना चाहिये । अथवा जब दूसरे गुरु आदिक या और कोई देख रहे हों उस समय सुतरां बडे उत्साहके साथ स्तुति बन्दना में प्रवृत्ति करना इसको भी दृष्ट दोष ही कहते हैं।
अदृष्टं गुरुदृङमार्गत्यागो वाऽप्रतिलेखनम् ।
विष्टिः संघस्येयमिति धीः संघकरमोचनम् ॥ १० ॥ २४-गुरुकी दृष्टि बचाकर वन्दना करना अदृष्ट नाम का दोष है । अथवा पीछीके द्वारा प्रतिलेखन न करके ही वन्दना करना चौवीसवां अदृष्ट नामका ही दोष है।
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२५-ये संघकी बडी जबर्दस्ती है कि बलपूर्वक-हठसे क्रिया कराई जाती है, इस प्रकारकी बुद्धिका होना संघकरमोचन नामका दोष है।
उपध्याप्त्या क्रियालब्धमनालब्धं तदाशया ।
हीनं न्यूनाधिकं चूला चिरेणोत्तरचूलिका ॥ १.९॥ २६ -उपकरणादि परिग्रहका लाम होनेपर आवश्यक क्रिया करना आलब्ध नामका दोष है। २७-उपकरणादिकी आशासे क्रिया करना अनालब्ध नामका दोष है। २८--मात्रा प्रमाण क्रिया न करके अधिक या कम करना इसको हीन नामका दोष समझना चाहिये ।
२९-वन्दनाको तो थोडीसी देर में ही पूर्ण कर देना और उसकी चूलिकारूप आलोचना आदि क्रियाओंको अधिक समय तक करना इसको उत्तर चूलिका दोष कहते हैं।
मूको मुखान्तर्वन्दारोर्तुङ्काराद्यथ कुर्वतः ।
दुर्दरो ध्वनिनान्येषां स्वेन च्छादयतो ध्वनीन् ॥ ११॥ ३०-यदि वन्दना करने वाला वन्दनाके पाठको मुखके भीतर ही बोले जिससे कि किसीको सुनाई हो न पडे इसको मूक दोष कहते हैं । अथवा वन्दना करते समय हुंकार आदि संज्ञाएं-इशारे करना भी मूक नामका दोष कहा है।
१-वन्दना करते समय उसका पाठ इतने जोरसे बोलना कि जिससे अपनी ध्वनिसे दूसरे वन्दना करनेवालोंका शब्द दब जाय इसको दुर्दर नामका दोष कहा है।
द्वात्रिंशो वन्दने गीत्या दोषः सुललिताह्वय :। इति दोषोज्झिता कार्या वन्दना निर्जरार्थिना ॥ १११ ॥
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३२-वन्दना करते समय उसके पाठको गागाकर-पंचम-स्वरसे बोलना यह वन्दनाका बत्तीसवां सुल. लित नामका दोष है।
इस प्रकार बन्दना सम्बन्धी ३२ दोष हैं। कर्मों की निर्जरा करने के जो अमिलाषी हैं उनको यह वन्दना किया हन बत्तीस दोषोंसे रहित करनी चाहिये ।
भावार्थ-यहांपर वन्दनाके ३२ दोषोंका उल्लेख करके ग्रंथकार ने अंतमें पुन: उन दोषोंका स्मरण कराया है जिनको कि वन्दना करते समय अवश्यही टालना चाहिये । इन दोषोंके सदृश और भी दोष जैसे कि वन्दना करते समय शिरको नीचा ऊंचा करना, अथवा शिरको ऊपरको करके वंदना करना, यद्वा हाथोंको घुमाना फिराना तथा गुरु के सामने खड़े होकर पाठका उच्चारण करना, इत्यादि संभव है। अतएव क्रिया काण्डादिमें कहे मजब सभी दोष टालना उचित है। क्योंकि दोष रहित वन्दना ही निर्जराका कारण हो सकती है।
इस प्रकार वन्दना सम्बन्धी ३२ दोषोंका वर्णन करके क्रमानुसार कायोत्सर्गके दोषोंका स्वरूप ११ श्लोकॉमें बताते हैं:
कायोत्सर्गमलोस्त्येकमुत्क्षिप्याधिं वराश्ववत् ।
तिष्ठतोऽश्वो मरुद्धृतलतावच्चलतो लता ॥ ११२ ॥ १-उत्तम घोडा जिस प्रकार एक पैरको जमीनसे अच्छी तरह न छुपा कर खडा हुआ करता है उसी प्रकार कायोत्सर्ग करते समय एक पैरको जमीनसे अच्छी तरह न लगाकर खडे रहना कायोत्सर्गका घोटक नामका पहला दोष है।
२-जिस प्रकार हवाके लगनेसे लता कांपा करती है उसी प्रकार कायोत्सर्ग करनेवालेका शरीर यदि कांपे-चलायमान हो तो उसको लता नामका दोष समझना चाहिये ।
यहाँपर पहले ही दोषका स्वरूप बताते समय मल शब्दका जो प्रयोग किया है उसका सम्बन्ध आदि दीपकन्यायसे आगे जिन दोषों का वर्णन करते हैं उन सबके साथ लगा लेना चाहिये ।
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बनगार
स्तम्भः स्तम्भाधवष्टभ्य पट्टकः पट्टकादिकम ।
आरुह्य मालो मालादि मू लम्ब्योपरि स्थितिः ॥ ११३ ॥ ३-दीवाल-भीत या स्तम्भ वगैरहका आश्रय लेकर कायोत्सर्गकेलिये खडे होना स्तम्भ नामका दोष है। ४-पट्टा अथवा चटाई आदिके ऊपर खडे होकर कायोत्सर्ग करना पट्टक नामका दोष है।
५-शिरके ऊपरके प्रदेशमें शिरके द्वारा माला अथवा रस्सी आदिका अवलम्बन लेकर खडे होनाकायोत्सर्ग करना माल नामका दोष है।
शृङ्खलाबद्धवत् पादौ कृत्वा शृङ्खलितं स्थितिः।
गुह्यं कराभ्यामावृत्त्य शवरीवच्छवर्यपि ॥ ११४ ॥ -यदि अपने दोनों पैरोंको संकलसे जकडे हुए कैदीके पैरोंकी तरह बनाकर कायोत्सर्ग करे तो उसको शृङ्खालत नामका दोष समझना चाहिये।
७-मिल्लिनका तरह अपने गुह्यभागको-शरीरके गुह्य अंगको अपने दोनों हाथोंसे. ढककर कायोत्सर्ग करे तो वह शवरी नामका दोष है।
लम्बितं नमनं मूर्ध्नस्तस्योत्तरितमुन्नमः ।
उन्नमय्य स्थितिर्वक्षः स्तनदावत्स्तनोन्नतिः ॥ ११५ ॥ ८-शिरको नीचा करके कायोत्सर्ग करना लम्बित नामका दोष है। ९-शिरको ऊपरको उठाकर कायोत्सर्ग करना उत्तरित नामका दोष है । १०-जिस प्रकार बच्चेको दूध पिलाने के लिये तयार हुई स्त्री स्तनभागको ऊपर उठाती है उसीप्रकार
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वथास्थलके स्तनमागोंको उठाकर कायोत्सर्ग करना स्तनोन्नति नामका दोष है।
वायसो वायसस्येव तिर्यगीक्षा खलीनितम् ।
खलीनाश्विवदन्तघृष्टयोर्ध्वाधश्वलच्छिरः ॥ ११६ ॥ ११-कायोत्सर्ग करते समय तिरछी निगाहसे कौएकी तरह इधर उधर देखना वायस नामका दोष है।
१२-जिस प्रकार घोडा लगाम लगजानेपर दांतोको घिसता-कट कट शब्द करता हुआ शिरको ऊपर नचिको हिलाया करता है, उसी प्रकार दांतोंको घिसते हुए शिरको ऊपर नीचे करना खलीनित नामका दोष है।
ग्रीवां प्रसार्यावस्थान युगातगववद्युगः । मुष्टिं कपित्थवद्वद्ध्वा कपित्थः शीर्षकम्पनम् ॥ ११७ ॥ शिरःप्रकम्पितं संज्ञा मुखनासाविकारतः।
मूकवन्मूकिताख्यः स्यादङ्गुलीगणनाङ्गुली ॥ ११८ ।। १३-जिसके कंधेपर जूआ रक्खा हुआ है ऐसा बैल जिस प्रकार अपनी गर्दनको लम्बी कर दिया करता है उसी प्रकार श्रीवाको लम्बा करके कायोत्सर्ग करनेवाला यदि खडा हो तो युग नामका दोष है।
१४-कायोत्सर्गके लिये खडे होनेपर कैथकी तरह दोनो हाथोंकी मुही बांध लेना कपित्थ नामका दोष है। १५-कायोत्सर्गके समय शिर हिलाना शीर्षकम्पन नामा दोष है। १६-मुखनासिका आदिके विकार प्रकट करके गूंगे की तरह इशाग करना मुक्ति नामका दोष है। १७-अंगुलियोंके द्वारा गिनना अंगुली नामका दोष है।
भ्रूक्षेपो भूविकारः स्याद् घूर्णनं मदिरार्तवत् ।
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बरमार
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उन्मत्त ऊवं नयनं शिरोधेबहुधाप्यधः ॥ ११९ ।। १८-कायोत्सर्ग करते समय भ्रुकुटियोंका विकार युक्त होजाना भ्रक्षेप नामका दोष है।
१९-मदिरा पीकर उसके नशेसे पागल हुआ मनुष्य जिस प्रकार घूमा करता है उसी प्रकार कायोत्सर्ग करते समय घूमनेसे उन्मत्त नामका दोष कहा जाता है।
२०-अनेक तरहसे ग्रीवा-गर्दन को ऊपर की तरफ उठाना ग्रीवो नयन नामका दोष है। २१-अपनी ग्रीवाको अनेक तरहसे नीचे की तरफ झुकाना ग्रीवाधोनयन नामका दोष है।
निष्ठीवनं वपुःस्पर्शो न्यूनत्वं दिगवेक्षणम् ।
मायाप्रायास्थितिश्चित्रा वयोपेक्षाविवर्जनम् ॥ १२०॥ २२-थूकना और श्लेष्मा आदिका निकालना निष्ठावन नामका दोष है। २३-शरीरका इधर उधर स्पर्श करना वपुःस्पर्श नामका दोष है। २४-कायोत्सर्गको जितने प्रमाणमें करना चाहिये उतनान करके कुछ कम करना न्यूनता नामका दोष है। २५-इधर उधर दिशाओंकी तरफ देखते हुए कायोत्सर्ग करना दिगवेक्षण नामका दोष है।
२६- वञ्चनायुक्त-प्रायःमायाचारसे पूर्ण विचित्र रूपसे कायोत्सर्ग के लिये ऐसी तरहसे खडे होना कि जिसको देखकर लोगों को आश्चर्य हो मायाप्रायास्थितिनामका दोष है।
२७-- आयुका ख्याल करके अर्थात् वृद्धावस्थाका विचार करके कायोत्सर्गका छोड देना वोपक्षाविवर्जन नामका दोष है।
व्याक्षेपासक्तचित्तत्वं कालापेक्षाव्यतिक्रमः। लोभाकुलत्वं मूढत्वं पापकर्मैकसर्गतः ॥ १२१॥
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धर्मः
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२८--कोलाहलादिके कारण मर्नमें विक्षेपका पैदा होना-चित्तमें चंचलता या चलायमानता आजाना व्याक्षेपासक्तचित्तता नामका दोष है। . . २९-समयका विचार करके कायोत्सर्ग के विविध अंगोंको छोड देना कालापेक्षाव्यतिक्रम नामका दोष है।
३०-गृद्धि या लोभके वशीभूत होकर चित्तमें विक्षेप पैदा होना लोभाकुलता नामका दोप है। ३१- कर्तव्य या अर्तव्य के विषयमें विवेक न रखना मूढता नामका दोष है।
३२-कायोत्सर्ग करते समय हिंसादिक पापकर्मों में उत्साहका उत्कृष्ट हो जाना पाएकभैकसर्गता नामका दोष है।
इस प्रकार कायोत्सर्गके ३२ दोषों का स्वरूप बताकर अंतमें उपसंहार करते हुए शुद्ध-इन दोषोंसे रहित कायोत्सर्ग करने का फल बताते हैं:
योज्येति यत्नाद् द्वात्रिंशद्दोषमुक्ता तनूत्सृतिः।
सा हि मुक्त्यङ्गसद्ध्यानशुद्धयै शुद्धैव संमता ॥ १२२ ॥ मुमुक्षु साधुओंको अप्रमत्त होकर उपर्युक्त बत्तीस दोष-अतीचार छोडकरके ही कायोत्सर्ग करना चाहिये। क्योंकि यद्यपि निःश्रेयस पद के प्राप्त होनेका प्रधान कारण समीचीन ध्यान-धर्म्य ध्यान और शुक्ल ध्यान है। किंतु दोनों ही ध्यान में शुद्धि-निर्मलता शुद्ध-निरतीचार कायोत्सर्गके करनेसेही प्राप्त होसकती है। ऐसा ही आचार्यों का आभप्राय है । जैसा कि कहा भी है :
सदोषा न फलं दत्त निदोषायास्तनूत्सृतेः ।
किं कूटं कुरुते कार्य स्वर्ण सत्यस्य जातुचित् ॥ ___ अर्थात-निर्दोष कायोत्सर्गका फल सदोष कायोत्सर्गसे नहीं मिल सकता । क्या सच्चे सुवर्णका काम कुत्रिम सुवर्ण दे सकता है? कभी नहीं दे सकता । इस प्रकार कायोत्सर्गका फल समीचीन ध्यानकी निर्मलता या
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परम्परासे मोक्षकी प्राप्ति है, मो यह फल निर्दोष कायोत्सर्गसे ही मिल सकता है सदोष नहीं ।
ध्यानके उत्थितास्थितादिक चार भेद हैं। उनमें दोका फल इष्ट और दोका अनिष्ट है । इसी बातको बताते :
सा च द्वयीष्टा सद्ध्यानादुत्थितस्योत्थितोत्थिता। उपविष्टोत्थिता चोपविष्टस्यान्यान्यथा द्वयी ॥ १२३ ॥
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कायोत्सर्ग दो प्रकारका है, एक इष्ट दूसरा अनिष्ट । इष्ट कायोत्सर्गमें धर्म्य और शुक्ल ध्यान किया जाता है। हुन समीचीन ध्यानाक आश्रयसेही उसको इष्ट अथवा इष्ट फलका देनेगला माना गया । इष्ट कायोत्सर्ग दो प्रका.
का है. एक उत्थितोत्थित दूपरा उपविष्टोस्थित । खडे होकर कायोत्सर्ग करने वाले-खडे आसनसे कायोत्सर्ग कर ते समय धर्म्य या शुक्लध्यान करने वालेके उत्थितोत्थित नामका कायोत्सर्ग कहा जाता है। क्योंकि वह मुमुक्ष अंतरंग और बहिरंग दोनों ही तरहसे खडा हुआ ही समझा जाता है । जो बैठकर कायोत्सर्ग करने वाले हैं उनके वह कायोत्सर्ग उपविष्टोस्थित नामका कहा जाता है। क्योंकि वह द्रव्यसे बैठा हुआ है। परन्तु अंतरंगसे-वस्ततः खडा हआ है। इन दोनोंही सर्माचीन कायोत्सगासे सध्यानकी विशुद्धि और निःश्रेयस पदकी सिद्धि हुआ करती. अतएव इनको ही अभीष्ट फलका देने वाला समझकर आचार्योंने इष्ट माना है।
इनके विरुद्ध दो प्रकारका कायोत्सर्ग अनिष्ट माना है क्योंकि उनका फल अनिष्ट-संसारकी वृद्धि करने वाला है। इस अनिष्ट कायोत्सर्गके दो मेद इस प्रकार हैं। एक तो उपविष्टोपविष्ट दुमग उत्थितोपविष्ट । जो बैठकर आर्त अथवा रौद्र ध्यान करता है उसके कायोत्सर्गको उपविष्टोपविष्ट कहते हैं। क्योंकि वह द्रव्य और भाव दोनों की तरफसे बैठा हुआ है । जो खडे होकर आत या रौद्र ध्यान करता है उसके कायोत्सर्गको उत्थितोपविष्ट कहते हैं। क्योंकि वह द्रव्यसे खडा हुआ है परन्तु भावोंसे बैठा हुआ है
- इन इष्ट-अनिष्ट चार प्रकारके कायोत्सर्गाका स्वरूप आगममें भी इसी प्रकार कहा है । यथाः
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त्यागो देहममत्वस्य तनुत्सृसिरुदाहृता । उपविष्टोपविष्टादिविभेदेन चतुर्विधा ।। आर्तरौद्रद्वयं यस्यामुपविष्टेन चिन्त्यते । उपविष्टोपविष्टाख्या कथ्यते मा तनूत्मृतिः॥ धर्म्यशुक्लद्वयं यस्यामुपविष्टेन चिन्त्यते । उपषिष्टोत्थितां सन्तस्तां वदन्ति तनूत्सृतिम् ।। आर्तरोद्रद्वयं यस्यामुत्थितेन विधीयते । तामुत्थितोपविष्टाख्यां निगदन्ति महाधियः ।। धर्म्यशक्लद्वयं यस्यामुत्थितेन विधीयते ।
उत्यितोत्थितनामानं तां भाषन्ते विपश्चितः ।। अर्थात्-शरीरसे ममत्वके छाडदेनको कारोत्सर्ग कहते हैं। इसके उपविष्टापविष्ट आदि चार भेद । बैठकर आत गैद्रका चिन्तवन करना उपविष्टापविष्ट कायोत्सर्ग समझना । बैठकर धर्म्य शुक्लका चिन्तवन करना उपविष्टोत्थित कायोत्सर्ग है। खडे होकर आत रौद्रका चिन्तवन करना उत्थितोपविष्ट कायोत्सर्ग है । और खडे होकर धर्म्य शुक्लका चिन्तवन करना उत्थितोत्थित नामका कायोत्सर्ग बताया है।
शरीरसे ममत्वका त्याग विना किये अनशन आदि व्रतोंके करनेपर भी कोई भी मुमुक्षु अपनी आत्माकी इष्ट सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता । इसी बातको स्पष्ट करते हैं:
जीवदेहममत्वस्य जीवत्याशाप्यनाशुषः ।
जीवदाशस्य सध्यानवैधुर्यात्तत्पदं कुतः ॥ १२ ॥ जिस प्राणोके अंतरङ्गमें शरीरके प्रति ममत्वमाव जागृत है वह कैसा भी अनशनादि व्रत करै परन्तु उसके भोगोपभोगके विषयोंको प्राप्त करनेकी इच्छा भी अवश्य जीवित रहा करती है. और जिसके इस लोक सम्बन्धी
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विषयों की आशा लगी हुई है वह धर्मध्यान शुक्लध्यान अथवा समाधिको किस तरह सिद्ध कर सकता है । रे समीचीन ध्यानके सिद्ध हुए विना आत्मपद-मोक्षका लाभ किस तरह हो सकता है।
भावार्थ-समीचीन ध्यानके सिवाय कोई भी ऐसा आचरण नहीं है कि जिससे कर्मों की निशेष निजरा होकर शुद्धात्मपद प्राप्त हो सके। और इस ध्यानकी सिद्धि के लिये आशाका त्याग और आशाका परित्याग करने के लिये शरीरसे ममत्व छोडना अत्यंत आवश्यक है। अतएव इष्ट पेदको प्राप्त करने के लिये अनशनादिक व्रताचरण करनेवालोंको शरीरसे ममत्वका त्याग करना ही चाहिये ।
कायोत्सर्गका काल जघन्य अन्तमहत और उत्कृष्ट एक वर्षका बताया है। सो अतीचारों-मलदोषाको दूर करने के लिये और पडावश्यक क्रियाओंको सिद्ध करने के लिये-उन क्रियाओंके पालन करनेमें दृढता-निष्ठा प्राप्त करने के लिये उतने कालतक कायोत्सर्ग करना ही चाहिये। परन्तु यदि उतने कालप्रमाणसे अधिक समयतक भी अपनी शक्ति के अनुसार किया जाय तो वह दोषका कारण नहीं है । प्रत्युत उससे लाम ही है। इसी बातको कहते हैं:
हृत्वापि दोषं कृत्वापि कृत्यं तिष्ठेत तनूत्सृतौ ।
कर्मनिर्जरणाद्यर्थ तपोवृद्ध्यै च शक्तितः ॥ १२५ ॥ जितनी देर तक कायोत्सर्ग करके दोषोच्छेदन किया जा सकता है उतनी देरतक कायोत्सर्ग करनेके उपरांत, अथवा षडावश्यक क्रियाओंके करनेमें जितना कायोत्सर्ग करना चाहिये उतने कालतक कायोत्सर्ग करके संचित काँकी निर्जरा और नवीन कमोंका संवरण करने के लिये अथवा तपको बढाने के लिये शक्तिके अनुसार और भी खडे रहना चाहिये।
भावार्थ-नियत समय तक तो कायोत्सर्ग करना ही चाहिये । क्योंकि उससे दोषोंका परिहार और संवर निर्जराके कारणभूत कर्मकी सिद्धि होती है । परन्तु नियत कालके अनंतर शक्तिको बढाने के लिये अधिक भी खडा रहे-कायोत्सर्ग करे तो इस में कोई दोष नहीं है। बरिक ऐसा करनेसे तपस्या और उसकी शक्ति बढती है, यह लाम ही है।
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मन वचन कायसे शुद्ध-पवित्र क्रिया कर्म करने का अधिकारी सा होना चाहिये सो बताते हैं:
यत्र स्वान्तमुपास्य रूपरसिकं पूतं च योग्यासना,द्यप्रत्युक्तगुरुक्रमं वपुरनुज्येष्ठोद्घपाठं वचः। तत् कतुं कृतिकर्म सज्जतु जिनोणस्त्योत्सुकस्तात्त्विकः
कर्मज्ञानसमुच्चयव्यवसितः सर्वसहो निस्पृहः ॥ १२६ ॥ जिस कृतिकर्मके करते समय भव्य जीवोंका मन सिद्ध परमेष्ठी प्रभृति आराध्य देवों के स्वरूपकी उपासना करनेमें सातिशय अनुरागको प्राप्त हो जाता है, और अत्यंत विशुद्ध परिणापोंको धारण करके पवित्र बन जाता है। इसो प्रकार जिस कृतिकमेके समय मुमुक्षुओंका शरीर अत्यंत पवित्र तथा योग्य आसनादिके करनेसे गुरु क्रमका उल्लंघन न करने में सावधान रहा करता है । अर्थात् दीक्षाकी अपेक्षा जो बडे हैं उनके समक्ष क्रिया करनेकी परिपाटीको यहां गुरुक्रम समझना चाहिये । उचित आसनादिका प्रयोग करनेके कारण शरीरके द्वारा जहापर गुरुकमका भंग नहीं किया गया है । एवं जिम कर्मके करनेमें वचन, बडोंके बताये क्रमके अनुसार प्रशस्त उच्चारण से युक्त और वर्ण पद आदिसे शुद्ध रहा करते हैं। फलत: जिस कृतिकर्मक करने में उसके करनेवालों के मन शरीर
और वचन तीनों ही शुद्ध-पवित्र बन जाते हैं, उस कर्मको करनवाला कैसा होना चाहिये ? इसी बातका उत्तर पांच . विशेषणों के द्वारा यहाँपर देते हैं:
१ अरिहंत भगवानकी उपासना द्वारा कृति कर्म करने में जिसकी उत्कण्ठा बढरही है।
२ जो पारमार्थिक हो । वंचना आदिका भाव न रखकर सचमुचमें क्रिया कर्म करके संवर और निर्जराको प्राप्त कर आत्मकल्याणका अभिलाषा हो।
३-आगममें बताई हुई क्रियाओं के करने और निज स्वरूप के ज्ञानका संग्रह करनेमें जो उत्साह के साथ प्रवृत्ति करता हो.
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४- परीषद और उपसगोंके सहन करने-जीतने में समर्थ हो ।
५ - ऐहिक विषय भोगोपभोगकी अभिलाषा तथा शरीरादिककी ममता से रहित हो ।
मानार्थ - इन पांच गुणोंसे युक्त जीव ही त्रियोगशुद्ध कर्म करनेका अधिकारी हो सकता है। जैसा कि कहा भी है कि:
सव्याधेरिव कल्पत्वे विदृष्टेरिव लोचने । जायते यस्थ संतोषो जिनवक्त्रविलोकने || परीषहसहः शान्तो जिनसूत्रविशारदः । सम्यग्दृष्टिनाविष्टो गुरुभक्तः प्रियंवदः ॥ आवश्यकमिदं धीरः सर्वकर्मनिषूदनम् । सम्यक् कर्तुमसौ योग्यो नापरस्यास्ति योग्यता ||
जिस प्रकार बीमार आदमीको नीरोगता प्राप्त होजानेपर, और अंधे मनुष्यको नेत्रोंका लाभ होजानेपर हर्ष - संतोष प्राप्त हुआ करता है; उसी प्रकार जिन भगवान के मुख कमलको देखते ही जिसको प्रसन्नता हो आती है । जो परीषोंके जीतने में समर्थ है, और जिसके क्रोधादिक कषायोंका उद्रेक नहीं पाया जाता, जो जिन भगवान के उपदिष्ट तत्त्वोंका स्वरूप समझने में कुशल है, जो सम्यग्दर्शन से युक्त, आवेश रहित, गुरुजनोंका मक्त, और प्रियवचन बोलनेवाला है, नही धीर वीर सम्पूर्ण कर्मोंको नष्ट करनेवाले इस आवश्यक कर्मके करनेका अधिकारी हो सकता है । और किसी में इसकी योग्यता नहीं रह सकती ।
पहले " क्रमवत् " ये विशेषण जो दिया है उसका तात्पर्य मंदज्ञानियों को भी भले प्रकार हो जाय इसलिये उसका अभिप्राय स्पष्ट करते हैं:
_प्रेप्सुः सिद्धिपथं समाधिमुपविश्यावेद्य पूज्यं क्रिया, - मानम्यादिलयभ्रमत्रयशिरोनामं पठित्वा स्थितः ।
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साम्यं त्यक्ततनुर्जिनान् समदृशः स्मृत्वावनम्य स्तवं,
युक्त्वा साम्यवदुक्तभक्तिरुपविश्यालोचयेत् सर्वतः ।। १२७ ॥ निज आत्मस्वरूपकी प्राप्तिकी उपायभूत समाधि-रत्नत्रयकी एकाग्रताको जो प्राप्त करना चाहते हैं उन संयमियों अथवा एक देश संयमियों को बैठकर नमस्कार करके कर्तव्य कर्मका पूज्य गुरुओंसे आवेदन करना चाहिये । अर्थात् प्रणाम पूर्वक और अत्यंत विनयके साथ "चैत्यभक्ति कायोत्सर्ग करोमि" इत्यादि पाठ बोलकर क्रिया कर्मकी विज्ञापना करनी चाहिये । फिर खड़े होकर आदि और अंतमें तीन २ आवर्त और एक एक शिरोनतिके साथ सामायिक दण्डकका पाठ बोलकर कायोत्सर्गके लिये खडे होना चाहिये । अर्थात् शरीरसे ममता छोडकर कायोत्सर्ग करना चाहिये । इसके बाद समदृष्टी-जीवन मरण हानि लाम यश अपयश और शत्रुमित्रमें समभाव रखनेवाले-रागद्वेष न करनेवाले जिन-पूर्ण रूपसे अथवा एकदेश रूपसे कर्म शत्रुओंको जीतने वाले आंदादि पांचो ही परमेष्ठीका चिन्तवन करके और नमस्कार करके सामायिककी ही तरह अर्थात् आदि और अंतमें तीन २ आवर्त और एक २ शिरोनतिके साथ "थोसामि" इत्यादि स्तव दण्डक बोलकर बन्दना कल्पका पाठ करके सभी अंशोकी आलोचना करनी चाहिये। मलेप्रकार पडावश्यकोंका पालन करनेवाले के चिन्होंको बताते हैं:
शृण्वन् हृष्वति तत्कथां धनरवं केकीव मूकैडता, तद्हेंऽङ्गति तत्र यस्यति रसे वादीव नास्कन्दति । क्रोधादीन जिनवन्न वैधपतिवद् व्यत्येति कालक्रम,
निलं जातु कुलीनवन्म कुरुते का घडावश्यकम् ॥ १२८ ॥ जिस प्रकार मयूर मेघके शब्दाको सुनकर प्रसन हुआ करता है उसी प्रकार पडावश्यकोंका अच्छी तरह
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पालन करनेवाला साधु उसकी कथा-षडावश्यक की प्रशंसा या निरूपण सुनकर हर्षको प्राप्त हुआ करता है। उनकी निन्दाके विषय में गूंगा और बहिरा बन जाया करता है । न तो स्वयं ही आवश्यकोंकी निन्दा करता है
और न दूसरोंकी की हुई निन्दाको सुनता ही है। आवश्यकों का पालन करनेमें इस प्रकार सदा अप्रमत्त प्रवृत्ति किया करता है जैसे कि कोई धातुवादी-सायन सिद्ध करने वाला पारद आदि रसके सिद्ध करनेमें निरंतर सावधान रहा करता है। जिस प्रकार थीण कषाय ऋषि कषायका सम्पर्क नहीं होने देता उसी प्रकार पडावश्यक पालन करने वाला भी क्रोधादिकका प्रवेश नहीं होने देता । तथा वैद्यराजकी तरह काल और क्रमका कमी पविक्रम नहीं होने देता। जिस प्रकार वैद्यके लिये कहा गया है कि:
प्रावृद सुकनभोतेषु शरदूर्जसहौ स्मृतौ । तपस्यो मधुमासश्च वसन्तः शोधन प्रति ॥ स्वस्थवृत्त्यमभिप्रेत्य व्याधौ व्याधिवशेन तु । कृत्त्वा शीतोष्णवृष्टीनां प्रतीकारं यथायथम् ।।
प्रयोजयेत् क्रियां प्राप्तां क्रियाकालं न हापयेत् । अर्थात्-प्रावट-वर्षा आदि जिस ऋतु में जिस २ प्रकारको चिकित्सा करना उचित है उस समयमें उसी प्रकार इलाज करना चाहिये । वैद्यों को चिकित्साका काल छाडना या भूलना उचित नहीं है । उसी प्रकार क्रमके लिये भी कहा गया है कि:
प्राक्पाचनं स्नेहविधिस्ततश्च स्वेदस्ततः स्यामनं विरेकः।
. निरूहणं स्नेहनवस्तिकर्म नस्य क्रमश्चेति मिषग्वराणाम् ।। इति । अर्थात सबसे पहले पाचन उसके बाद क्रमसे स्नेहविधि स्वेद वमन विरेक निरूहणवस्तिकर्म स्नेहनवस्तिकर्म और नस्यका प्रयोग करना चाहिये । इसी तरह जो षडावश्यकोंका पालन करनेवाला वह भी उनके काल और क्रमको चूकता नहीं है। जो आवश्यक जिप समय और जिस क्रमसे करना चाहिये उसको उसी समय और उसी क्रमसे किया करता है । तथा जिस तरह कोई महान् वंशमें उत्पन्न होनेवाला कुलीन पुरुष कमी
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भी ऐसा कोई काम नहीं किया करता जो कि उसके कुनके विरुद्ध हो; उसी तरह षडावश्यक पालन करनेवाला साधु भी कमो ऐमा कोई निन्द्य आवरण नहीं किया करता जो कि लोक विरुद्ध कुलविरुद्ध और समयविरुद्ध अर्थात् शास्त्र या आगम अथवा गुरुपरम्पराके विरुद्र हो।
यहाँपर जातु-कदाचित शब्द अन्त्यदीपक है, अतएव यद्यपि उमका प्रयोग अन्तिम वाक्यके साथ ही किया गया है तो भी उसका सम्बन्ध यथासम्भव सभी वाक्यों के साथ करलेना चाहिये।, इसी विषयमें और जगह भी एमा कहागया है कि
तत्कथाश्रवणानन्दो निन्दाश्रवणवजनम् । अलुब्धत्वमनालस्यं निन्द्यकमव्यपोहनम् ॥ कालक्रमाऽव्युदामित्वमुपशान्तत्वमाजवम्
विज्ञेयानीति चिहानि षडावश्यककारिणः॥ अर्थात-षडावश्यकोंकी प्रशंसा सुनकर आनंदित होना, और उसकी चिन्दाको न सुनना, तथा अलुब्ध ता, अनालस्य, और निन्द्य आचरणोंका परित्याग, काल तथा ऋमको छोडना नहीं, और उपशान्तता, तथा आजब मावोंको धारण करना, ये पडावश्यक पालन करनेवाले के चिन्ह समझने चाहिये।
पूर्वोक्त षडावश्यकोंका पूर्णतया अच्छी तरह पालन करनेवाले पुरुषको निःश्रेयस पदकी और अपूर्णतया पालन करनेवालको स्वर्गादिक अभ्युदयोंकी प्राप्ति हुआ करती है । ऐसा कहकर षडावश्यकके पालन करनेका फल बताते हैं:
समाहितमना मौनी विधायावश्यकानि ना। .
संपूर्णानि शिवं याति सावशेषाणि वै दिवम् ॥ १२९ ॥ प्रकृत विषयके सिवाय अन्य किसी भी विषय वार्तालाप न करनेवाला द्रव्य पुरुष एकाग्र चित्त होकर ISI ८४. सामायिकादि नही आवश्यकोंका पूर्णरूपसे यदि मलेप्रकार पालन करता है तो वह नियमसे मोक्षपदको प्राप्त कि या करता है। और जो कुछ कमती पालन करता है वह नियम से स्वर्गति कल्पवासियों में महर्द्धिक पदको प्राप्त
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किया करता है। यह फल अशक्ति की अपेक्षासे ही बताया है। क्योंकि वृद्ध पुरुषोंका वचन है कि
जं सका तं कीरइ जंच ण मक्केइ तं च सरहणं ।
सरहमाणो जीवो पावह अजरामरं ठाणं । जिस विषय के पालन करने की सामर्थ है उस विषय का पालन करना ही चाहिये। परन्तु जिसके पालन करने की शक्ति नहीं है उसका श्रद्धान रखना चाहिये । क्योंक श्रद्धानी जीव ही अजर अमर पदको प्राप्त किया करते हैं। यहांपर वै शब्दके द्वारा जो नियम बताया है उससे इस कथनका तात्पर्य समझना चाहिये कि:
सवैयवश्यकैर्युक्तः सिद्धो भवति निश्चितम् ।
सावशेषैस्तु संयुक्तो नियमास्वर्गगो भवेत् ॥ अर्थात-सम्पूर्ण आवश्यकोंका पालन करने वाला नियमसे सिद्ध पदको और अपरिपूर्णका पालन करने वाला नियमसे स्वर्गतिको प्राप्त किया करता है।
उक्त पडावश्यक क्रियाओं की तरह साधुओंको दूसरी सामान्य क्रियाओंका भी नित्य पालन करना चाहिये ऐसा उपदेश देते हैं:
आवश्यकानि षट् पञ्च परमेष्ठिनमस्क्रियाः।
निसही चाऽसही साधोः क्रियाः कृत्यास्त्रयोदश ॥ १३.॥ छह आवश्यक क्रियाएं, और अबदादिक पंच परमेष्ठियोंको नमस्कार करनेकी पांच क्रियाएं, तथा एक निसही और एक असही, इस तरह कुल तेरह क्रियाएं हैं कि जिनका साधुओंको प्रतिदिन अवश्य पालन करना ही.
चाहिये।
अईदादि परमेष्ठियोंको भावोंसे पंचनमस्कार करनेवाला क्या फल प्राप्त करता है सो बताते हैं:
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अनगार
योर्हत्सिद्धाचार्याध्यापकसाधून नमस्करोत्यर्थात् ।
प्रयतमतिः खलु सोखिलदुःखविमोक्षं प्रयात्यचिरात ॥ १३१ ॥ जो जीव अहंत परमेष्ठी-सकल परमात्मा और सिद्धपरमेष्ठी-विकलपरमात्माको तथा आचार्य उपाध्याय और ढाईद्वीपवर्ती सम्पूर्ण साधुओंको भावोंसे नमस्कार करता है, और उसके लिये ही प्रयत्न करनेका चित्म विचार किया करता है वह जीव संसारके चतुर्गति सम्बन्धी सम्पूर्ण दुःखोंसे थोडे ही कालमें नियमसे छूट जाया करता है।
भावार्थ-पंचपरमेष्टियोंकी मावसे वंदना करनेवाला और उसके लिये प्रयत्नशील रहनेवाला मनुष्य अल्पकालमें ही शास्वतिक निर्दुःख पद-परम निःश्रेयसको प्राप्त कर सकता है। - निसही और असही इन दोनों क्रियाओं का प्रयोग कर क्यों और किसतरह करना चाहिये सो बताते हैं
वसत्यादौ विशेत तत्स्थं भूतादि निसहीगिरा।
आपृच्छय तस्मान्निर्गच्छेत्तं चाप्रच्छयाऽसहीगिरा ॥ १३२॥ साधुओंको जब मठ चैत्यालय या वसतिका आदिमें प्रवेश करना हो तब उन मठादिकों में रहने वाले भूत यक्ष नाग आदिकोंसे "निसही" इस शब्दको बोलकर पूछकर प्रवेश करना चाहिये । इसीतरह जब वहांसे निकलना हो तब " असही" इस शब्द के द्वारा उनसे पूछकर निकलना चाहिये । जैसाकि कहा भी है कि:
वसत्यादिस्थभूतादिमापृच्छय निसहीगिरा।
वसत्यादी विशेत्तस्मानिर्गच्छेत् सोऽसही गिरा॥ अर्थात--वसतिका आदिमें रहने वाले भूतादिकोंसे "निसही" इस शब्दके द्वारा पूछकर साधुओंको वसतिका आदिमें प्रवेश करना चाहिये । और असही इस शब्दके द्वारा पूछकर यहाँसे बाहर निकलना चाहिये।
निसही और असही शब्दका निश्चयनयकी अपेक्षा अर्थ बताते हैं:
बध्याय
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बबचर
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आत्मन्यात्मासितो येन त्यक्ता वाऽऽशास्य भावत:।
निसह्य सह्यौ स्तोन्यस्य तदुच्चारणमात्रकम् ॥ १३३ ॥ जिस साधुने अपनी आत्माको अपनी आत्मामें ही स्थापित कर रक्खा है अर्थात रोक रक्खा है उसके निश्चय नयसे निसही समझना चाहिये । और जिसने इस लोक परलोक आदि सम्पूर्ण विषयोंकी आशा का परित्याग कर दिया है उसके निश्चय नयसे असही समझना चाहिये । किंतु इसके प्रतिकूल जो बहिरात्मा है अथवा आशावान् हैं उनके ये निसही और असही केवल शब्दोच्चारण मात्र ही समझना चाहिये।
भावार्थ-निसही और असही निश्चय नयसे जो अन्तरात्मा तथा परिग्रहरहित निग्रंथ साधु हैं उन्हीके समझना चाहिये । और जो वैसे नहीं हैं उनके केवल निसही असही शब्दका उच्चारणमात्र ही कहा जा सकता है। जैसा कि कहा भी है कि:
स्वात्मन्यात्मासितो येन निषिद्धो वा कषायतः।।
निसही भावतस्तस्य शब्दोन्यस्य हि केवलः ॥ अर्थात-जिसने अपनी आत्माको अपनी आत्मामें ही स्थापित-उपयुक्त कर रखा है, अथवा कषाय परिणापोंसे रोक रक्खा है उसीके निश्चयसे निसही समझना चाहिये । जो ऐसा नहीं है उसके निसही शब्द उच्चारण मात्र ही रहा करता है। इसी तरह:
आशां यस्यक्तवान् साघुरसही तस्य भावतः।
त्यक्ताशा येन नो तस्य शब्दोच्चारो हि केवलः ॥ अर्थात-जिस साधुने आशाको छोड दिया है भावतः असही उसीके कही जा सकती है। और जिसने । आशाको छोडा नहीं है उसके केवल उसका उच्चारण ही कहना चाहिये ।
और भी कहा है कि:
बध्याय
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अनगार
निषिद्धचित्तो यस्तस्य भावतोस्ति निषिद्धिका । अनिषिद्धस्य तु प्रायः शब्दतोस्ति निषिद्धिका ।। आशया विप्रमुक्तस्य भावतोस्त्यासिका मता।
आशया त्ववियुक्तस्य शब्द एवास्ति केवलम् ।। अर्थात-जिसने अपने चित्तको विषयोंसे उपरत बना रक्खा है भावतः निषिद्धिका-निसही उसी के रहा करती है। और जिसका चित्त संयत नहीं है उसके निषिधिका शब्द मात्र ही रहती है। इसी तरह जो आशासे रहित है उसके भावसे और जो उससे युक्त है उसके शब्द मात्रही आसिका-असही रहा करती है।
अब अंतमें प्रकृत विषयका उपसंहार करते हुए नित्यनैमित्तिक क्रियाकर्मका पालन करने के लिये साधुओं को प्रेरित करते हैं:
इत्यावश्यकनिर्युक्तावुपयुक्तो यथाश्रुतम् ।
प्रयुञ्जीत नियोगेन नित्यनैमित्तिकक्रियाः ॥ १४ ॥ पूर्व में आवश्यकोंके पालन करने की जो गति नीति बताई गई है तदनुसार आवश्यकोंके सम्पूर्ण उपायों में दत्तचित्त होकर कृतिकर्मकी विधि बतानेवाले शास्त्रोंके अनुसार तथा गुरुपरम्परासे जो उपदेश चला आरहा है उसके अनुसार साधुओंको नित्य नैमित्तिक क्रियाओं का पालन अवश्य ही करना चाहिये ।।
मोक्ष कल्याणमें अपनी बुद्धिको लगाकर जिसने श्री जिनेन्द्र भगवान्के उपदिष्ट आगमरूपी क्षीर समुद्रका मंथन करके सुमना -विद्वानों [ पक्षमें देवताओं ] की तृप्ति के लिये इस धर्मरूपी अमृतको उदधृत किया है वह महा पंडित श्री आशाधर जयवंता रहो तथा वह प्रसिद्ध मव्यात्मा हरदेव मी सदा आनंदको प्राप्त हो कि जिसके उपयोगके लिये इस टीकारूपी शुक्तिकी सुखपूर्वक रचना हुई है ।
इस प्रकार आवश्यकनियुक्त नामका आठवां अध्याय समाप्त हुआ।
अन्याय
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अथ नवमोऽध्यायः।
वनमार
Higiको परिक हो सकती है | होने में प्रधान
साधओंको नित्यकर्मकी विधिका पालन करने में उद्यमी बनाने के लिये चवालीस पद्योंमें वर्णन करते हैं:
शुद्धस्वात्मोपलम्भाप्रसाधनाय समाधये ।
परिकर्म मुनिः कुर्यात स्वाध्यायादिकमन्वहम् ॥१॥ निज आत्मस्वरूपमें सब तरफसे चित्तका हटकर लगजाना इसको योग अथवा समाधि कहते हैं। इस योगकी सिद्धि के पहले उसकी योग्यता उत्पन्न करनेकेलिये जो क्रियाएं पाली जाती हैं उनको परिकर्म कहते हैं। इसके भेदोंको आगे चलकर लिखेंगे । साधुओंको परिकर्म के स्वाध्यादिक भेदोंका प्रतिदिन पालन करना चाहिये। क्योंकि इनका पालन करनेसे ही समाधिकी सिद्धि हो सकती है। और उस समाषिके दारा ही निज शुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति हो सकती है। क्योंकि निर्मल चित्रस्वरूप का लाभ होने में प्रधान कारण चित्तकी एकाग्रतारूप ध्यान ही है । जैसा कि कहा भी है कि:
यदात्रिकं फलं किंचित् फलमामुत्रिकं च यत् ।
एतस्य द्वितयस्यापि ध्यानमेवाप्रकारणम् ।। अर्थात जीवोंको संसारमें जो आभ्यदायिक फल प्राप्त हुआ करते हैं. अथवा पारलौकिक निर्विकल्प आत्म सैंमुत्थ मुखादिका लाम हुआ करता है, उन दोनों ही लाभोंका प्रधान कारण ध्यान ही माना है। पारिक प्रथम भेद स्वाध्यायके प्रारम्भ करने और समाप्त करनेकी विधि बताते हैं:
स्वाध्यायं लघुभक्त्या श्रुतसूर्योरहर्निशे । पूर्वेऽपरेपि चाराध्य श्रुतस्यैव क्षमापयेत् ॥ २॥
अध्याय
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स्वाध्यायका प्रारम्भ दिन और रात्रिके पूर्वाह्न तथा अपराह्न के समय लघु श्रुतभक्ति और लघु आचार्य भक्तिका पाठ करके करना चाहिये । इस तरह विधिपूर्वक उसको नियत समयतक करके अंतमें लघु श्रुतमक्तिका पाठ करके उसकी समाप्ति करनी चाहिये ।
भावार्थ- स्वाध्यायके समय ४ माजे हैं। जिनमें दो दिन के और दो गत्रिके हैं. उनके नाम इस प्रकार हैं गौसर्गिक आपराह्नक प्रादोषिक वैगत्रिक । इन चारों ही समयों में साधुओंको आलस्य छोडकर स्वाध्याय करना उचित है। जैसा कि कहा भी है कि:
एकः प्रादोषिको गत्रौ द्वौ च गोसर्गिकस्तथा।
स्वाध्यायाः साधुभिः सर्वे कर्तव्याः सन्त्यतन्द्रितैः ॥ - स्वाध्यायका प्रारम्भ करते समय " अर्हद्वक्त्रप्रसूतम्" इत्यादि लघु श्रुतभक्तिका पाठ-अञ्चलिकामात्र । बोलकर और व्यवहारके अनुसार आचार्यादिकोंकी भी मति करके नियत समय में स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये। आगममें स्वाध्यायके विषयमें बारह कायोत्सर्ग बताये हैं जिसका कि पहले वर्णन करचुके हैं। वन्दना आदिके विषयमें छह आदि कायोत्सर्ग हुआ करते हैं जिनका कि उल्लेख आगे चलकर तत्तत्प्रकरण में किया जायगा । ___ उपर्युक्त स्वाध्यायोंके प्रारम्भ और समाप्तिके कालकी इयत्ता-प्रमाण बताते हैं:
ग्राह्यः प्रगे द्विघटिकादूवं स प्राक्ततश्च मध्याह्ने ।
क्षम्योऽपराह्नपूर्वापररात्रेष्वपि दिगेषैव ॥ ३ ॥ प्रातःकालका स्वाध्याय सूर्योदयसे दो घडी दिन चढजानेपर शुरू करना चाहिये और मध्यान्हमें दो घडी काल बाकी रहे तभी समाप्त कर देना चाहिये। इसी तरह अपराह्न स्वाध्यायका प्रारम्भ साधओंको मध्यान्ह दो घडी काल बीत जानेपर शुरू करना चाहिये और सूर्यास्त के समयसे दो घडी पहले ही समाप्त कर देना चाहिये। पूर्वरात्रिक और अपर रात्रिक स्वाध्यायके विषयमें भी यही क्रम समझना चाहिये । अर्थात् पूर्वरात्रिक स्वाध्यायका
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बनगार
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प्रारम्भ साधुओंको सूर्यास्त से दो घडीके अनंतर करना चाहिये और मध्य रात्रिके दो घडी पहले समाप्त कर देना चाहिये. तथा अपररात्रिक स्वाध्यायका प्रारम्भ अर्धरात्रि के दो घडी पीछे करना चाहिये और प्रातः कालसे दो घडी पहले समाप्त करना चाहिये । स्वाध्यायका लक्षण और उसके विधिपूर्वक पालन करने का फल बताते है:
सूत्रं गणधरायुक्तं श्रुतं तद्वाचनादयः।
स्वाध्यायः स कृतः काले मुक्त्यै द्रव्यादिशुद्धितः॥४॥ गणधर आदिके प्ररूपित शास्त्रोंको सूत्र कहते हैं। इन सूत्रोंके वाचना पृच्छना अनुप्रेक्षा आम्नाय और धमोपदेश को स्वाध्याय कहते हैं। यह स्वाध्याय योग्य समयमें और द्रव्यादिककी शुद्धिपूर्वक करनेसे काँका क्षय होता और मुक्तिकी प्राप्ति होती है।
भावार्थ-गणधर, प्रत्येक बुद्ध, श्रुतकेवली और अमिन दशपूर्वका ज्ञान रखनेवाले आचार्यों द्वारा उपदिष्ट ग्रंथोंको सूत्र कहते हैं। यथाः
सुत्तं गणहरकहिदं सहेब पत्तेयबुद्धकहियं च । सदकेवलिणा कहिदं अभिण्णदसपुविकहिदं च ॥ तं पढिदुमसज्झाए ण य कप्पदि विरदि इस्थिवग्गस्स । एत्तो अण्णो गथो कप्पदि पढिहूँ असज्झाए । आराधणणिज्जुत्ती मरणविभत्ती असग्गहथुदीवो।।
पञ्चक्खाणावासय धम्मकहाओ य एरिसओ ॥ अर्थात-गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और दशपूर्वके पाठी आचार्यों द्वारा कथित ग्रंथोंको सूत्र कहते हैं। उसका पाठ स्वाध्यायके नियतकालमें ही करना चाहिये । अयोग्य कालमें उसका पाठ करना उचित नहीं है। अस्वाध्याय कालमें सूत्रसे भिन्न ग्रंथोंका पाठ किया जा सकता है।
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अनगार
यह स्वाध्यायवाचना आदिके भेदसे पांच प्रकारका बताया है। खाध्याय करने वालेको अपने शरीरकी तथा परशरीरकी शुद्धिका विचार करना उचित है। इसी प्रकार स्वाध्याय करनेवालेको भूमिशुद्धिका भी विचार करके चारो दिशाओं में रुधिर मांसादिक चारसौ हाथकी दूरीपर ही छोडदेना चाहिये । तथा आगममें स्वाध्यायके लिये जो अयोग्य समय बताये हैं उनमें स्वाध्याय करना उचित नहीं है । यथाः
दिसिदाहउकपडणं विज्जुवउक्काऽसाणंदधणुगं च । दुगंधसंझ दुदिण-चंदगहा-सूरराहुजुदं च ।। कलहादिधूमकेद् धरणीकंपंच अंभगजं च ।
इश्चेवमाइबहुगा सज्झाए वज्जिदा दोसा ।। अर्थात्-अग्निदाह उल्कापात विजली उल्का वज्र इन्द्रधनुष् दुर्गध संध्या दुर्दिन चन्द्रग्रहण सूर्यग्रहण युद्ध धूम्रकेतु भूकम्प मेघगर्जन इत्यादि बहुतसे प्रियप्रधानकी मृत्यु आदि दूषित समय स्वाध्यायके लिये वर्जित कहे हैं। विनय पूर्वक श्रुतका अध्ययन करनेमें क्या माहात्म्य है सो बताते हैं:
श्रुतं विनयतोऽधीतं प्रमादादपि विस्मृतम् ।
प्रेत्योपतिष्ठतेऽनूनमावहत्यपि केवलम् ॥५॥ विनय पूर्वक जिस श्रुतका अध्ययन किया गया है वह यदि कारण वश प्रमादके निमित्तसे विस्मृत भी हो जाय तो भी वह कालान्तरमें या दूसरे जन्ममें ज्योंका त्यों-अविकलरूपमें आकर उपस्थित होजाता है. और पूर्ण केवलज्ञानतक को उत्पन्न कर देता है।
भावार्थ-विनयपूर्वक शास्त्र पढनेका यह फल है कि यदि वह कदाचित् प्रमादके द्वारा याद न मी रहे फिर भी वह जन्मान्तर तकमें सबका सब स्मरणमें आसकता है। बल्कि उसके निमित्तसे क्रमसे केवल-असहाय ज्ञानतककी उत्पत्ति हो सकती है। जैसा कि कहा भी है कि:
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विणएण सुदमधीदं जदि वि पमादेण होइ विस्सरिदं ।
तमुवट्ठादि परभवे केवलणाणं च आवहदि ।। अर्थात-विनयके साथ पढा हुआ श्रुत यदि प्रमादसे विस्मृत भी हो जाय तो भी वह परमत्रमें उपस्थितस्मृत हो आता है और केवलज्ञानतकका लाम कराता है।
जिस विशिष्ट शानसे तत्वज्ञान आदि मोक्षके साधन प्राप्त हुआ करते हैं वह जिनशासनमें ही मिल सकता है, अन्यत्र नहीं ऐसा उपदेश करते हैं:
तत्त्वबोधमनोरोधश्रेयोरागात्मशुद्धयः।
__ मैत्रीद्योतश्च येन स्युस्तज्ज्ञानं जिनशासने ॥६॥ - सर्व वस्तुजातमनेकान्तात्मकम् " अर्थात् सम्पूर्ण वस्तुमात्र अनन्तधर्मात्मक हैं, इस सिद्धान्तको जिनशासन कहते हैं। और इसके विरुद्ध सर्वथा एकान्त रूप वस्तुको माननेवाले सर्वथैकान्त वादी कहे जाते हैं। मो तत्वज्ञानादि पांच या छह विषय ऐसे हैं जो कि इस जिनशासन में ही मिल सकते हैं, अन्यत्र-सर्वथै. कान्तवादियोंके मतमें नहीं।
तबोध-तत्व तीन प्रकारके माने गये हैं, हेय, २ उपादेय, ३ और उपेक्षणीय । इनमें से यथायोग्य अर्थात हेयका हेयरूप से, उपादेयका उपादेयरूपसे और उपेक्षणीयका उपेक्षणीयरूपसे बोध-प्रतिपत्ति होना उसको तत्वबोध कहते हैं । यथाः
इतीदं जीवतत्त्वं यः श्रद्धत्ते वेत्त्युपेक्षते ।
शेषतत्त्वैः समं पब्मिः स हि निर्वाणभाग् भवेत् ॥ अर्थात जो मए अजीवादिक छह तचोंके साथ २ इस जीवतत्वका श्रद्धान करता है, ज्ञान प्राप्त करता है, और प्रेक्षणीय में उपेक्षा किया करता है वही जीव निर्माणका भागी हो सकता है. सारांश यह कि सात तत्वोंमें हेय
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________________ अनगार उपादेय और उपेक्षणीय तत्वोंका स्वरूप समझकर उनमें उसी प्रकारका श्रद्धानादि होना तत्त्वबोधका वास्तविक स्वरूप है / तत्वबोधसे मोक्ष का भागी जीव बन सकता है। परन्तु इस प्रकारका तत्ववोध-जिनशासन-सर्वज्ञ वीतराग भगवानके मतमें ही मिल सकता है, अन्य मतोंमें नहीं। २-मनोरोध-चित्तको विषयोंकी तरफसे हटाना, उसको परपदार्थोंकी या विषयोंकी तरफ जाने न देना मनोरोध कहा जाता है / " यद्यदैव मनसि स्थितं भवेत् तत्तदैव सहसा परित्यजेत् " अर्थात् मनमें जब कोई पदार्थ आकर उपस्थित हो तो उसको उसी समय छोड देना चाहिये। आत्म कल्याण या मोक्षमार्गके विरुद्ध कसा मी विचार यदि मनमें उत्पन हो तो उसको एक क्षण मी ठहरने नहीं देना चाहिये / यही मनके निग्रह करनेका उपाय है। इसको भी मनोरोध कहते हैं / सो यह मनोरोध भी सिवाय जिनशासनके अन्यत्र नहीं मिल सकता। ३-श्रेयोराग-यहांपर श्रेयस् शब्दसे चारित्र और राग शब्दसे उसमें लीन होनेका कारण अनुरागरूप श्रद्धान समझना चाहिये / अर्थात् मोक्षके साक्षात् कारण चारित्रमें लीन करदेनेवाला अनुरागरूप श्रद्धान मी अनेकान्त मतमें ही प्राप्त हो सकता है, दूसरे मतोंमें नहीं। ४-आत्मशुद्धि-जिस विषयका "मैं" इस तरहसे अनुपचरित-वास्तविक मान होता है उसको आत्मा कहते हैं / इस आत्मामें परपदार्थक संयोगसे रागादिरूप अशुद्धि हुआ करती है। उस अशुद्धिका दूर होना ही आ त्मशुद्धि कहाजाता है। यह भी जिनमतमें ही मिल सकती है। वास्तविक वीतरागता और आत्मशुद्धि अन्यमतके. अनुसार नहीं बन सकती। . ५-मैत्रीयोत-किसी भी जीवको कभी भी किसी भी तरह से दुःखकी उत्पत्ति न हो ऐसी अभिलाषाको मेत्री कहते हैं / इसका माहात्म्य विद्वानोंके हृदयमें उत्पन्न करना मैत्री द्योत समझना जाहिये / अर्थात् वस्तुतः मैत्री भावना की प्रभावना भी जिनमतमें ही बन सकती है, अन्यत्र नहीं। इस प्रकार ये पांच विषय हैं। च शब्द समुच्चय वाची है / अर्थात् ये पांचो ही समुदित अथवा इनमेंका प्रत्ये. क भी विषय जिनमतके सिवाय अन्यमतोंमें नहीं बन सकते / जैसा कि कहा भी है कि: अध्याय
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________________ अनगार जेण तचं विबुज्झेज जेण चित्तं णिरुज्झदि। जेण अत्ता विसुज्झज्ज तं गाणं जिणसासणे / / जेण रागा विरज्जेज जेण सेएसु रज्जदि / जेण मिति पभावेज के णाणं जिणसासणे // अर्थात्-जिससे तत्त्वका विबोध प्राप्त होता है, जिससे चित्तका निरोध होता है, और जिससे आत्मा वि. शुद्ध हुआ करता है, वह ज्ञान जिनशासनमें ही मिल सकता है। जिससे रागभाव दूर किये जा सकते हैं, और जिससे श्रेयोमार्गों अनुरागकी उत्पत्ति होती है, तथा जिससे भैत्री भावनाकी प्रभावना हुआ करता है, वह ज्ञान जिनशासनमें ही मिल सकता है। यहांपर सूत्रकारने जिन दो सूत्रों के द्वारा दुर्लभ अर्थात् जिनमतके सिवाय अन्यत्र अलम्य ज्ञानका माहात्म्य बताया है उनमें से पहले सूत्र के द्वारा सम्परत्वसहचारी और दुसरे सूत्र के द्वारा चारित्र सहचारी ज्ञानका वर्णन किया है, ऐसा समझना चाहिये। . इस प्रकार स्वाध्यायके माहात्म्यका वर्णन करके अब पश्चिम रात्रिके समय साधुओंको स्वाध्यायका पहले प्रतिष्ठापन-प्रारम्भ फिर निष्ठापन-समाप्ति, और उसके बाद प्रतिक्रमण तथा उसके बाद रात्रियोगका निष्ठापन ये | क्रियाएं क्रम से अवश्य करनी चाहिये ऐसा उपदेश देते हैं: क्लमं नियम्य क्षणयोगनिद्रया लातं निशीथे घटिकाद्वयाधिके / स्वाध्यायमत्यस्य निशाद्विनाडिकाशेष प्रतिक्रम्य च योगमुत्सृजेत् // 7 // शक्तिके अनुसार मनके विचारोंका शुद्ध चिपमें रोकना योग कहा जाता है। इस योगको निद्राके समान समझना चाहिये। क्योंकि निद्राका लक्षण लिखा है कि " इद्रियात्ममनोमरुतां सूक्ष्मावस्था स्वापः" / अर्थात् इन्द्रिय आत्मा मन और प्राण इनकी सूक्ष्म अवस्था विशेषको निद्रा कहते हैं। योगमें भी इन चारोंकी सूक्ष्म अवस्था हुआ करती है। अत एव योगियोंको जो निद्रा आती है उसको योग निद्रा समझना चाहिये। अध्याय
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________________ बनगार इसका काल अत्यल्प माना गया है / क्योंकि साधुओंकी निद्राका काल ज्यादेसे ज्यादे चार घडीका ही माना है। अर्ध रात्रिसे दो घडी पहले और दो घडी पीछेका जो काल है वही निद्राका काल है, जो कि स्वाध्यायके योग्य नहीं माना है। इस अल्पकालीन निद्राको ही क्षणयोग निद्रा समझना चाहिये / इस धणयोगनिद्राके द्वारा ही साधुजन अनवरत-दिनमें और रात्रि में किये गये ध्यानाध्ययनतपश्चरण आदिके द्वारा उत्पन्न हुए शरीरखेदको दूर किया 852 योगियों को इस निद्राके द्वारा शरीर ग्लानि दूर करके अर्धरात्रिके अनन्तर दो घडी काल बीतजानेपर तीसरी घडीके प्रारम्भमें स्वाध्यायका प्रतिष्ठापन-प्रारम्भ करना चाहिये; और उसका निष्ठापन रात्रि में जब दोघडी काल बाकी रहे तब करदेना चाहिये। इसके अनन्तर प्रतिक्रमण अर्थात् अपनेसे जो अपराध बनगयाहो उसका विधिपूर्वक संशोधन करना चाहिये / और उसके बाद योगका निष्ठापन करना चाहिये / अर्थात् रात्रिमें जिस शुदोपयोगको ग्रहण किया था उसका उत्सर्ग कर देना चाहिये। इस विषयमें श्रीमान् गुणभद्र आचार्य ने भी कहा है कि:-- यमनियमनितान्तः शान्तबाह्यान्तरात्म, परिणमितसमाधिः सर्वसत्त्वानुकम्पी। विहितहितमिताशी क्लेशजालं समूलं, दहति निहतनिद्रो निश्चिताध्यात्मसारः // तथा इसी बात को श्रीमान् पूज्य रामसेनजीने भी कहा है कि: स्वध्यायाद् ध्यानमध्यास्ते ध्यानात्स्वाध्यायमामनेत् / ध्यानस्वाध्यायसंपत्त्या परमात्मा प्रकाशते / / यही बात स्वयं हमने भी सिद्धयङ्क महाकाव्यमें कही है / यथाः परमसमयसाराभ्याससानन्दसर्पसहजमहसि सायं स्वे स्वयं स्वं विवित्वा / अध्याय
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________________ जवचार पुनरुदयद विद्यावैभवाः प्राणचार स्फुरदरुणविजृम्भा योगिनो यं स्तुवन्ति // परमागमका व्याख्यान करना पढना पढाना सुनना सुनाना उसका प्रचार करना ग्रंथरूप तयार करना कराना इत्यादि आगमकी तरफ उपयोग रखने पालेको जो फल प्राप्त हुआ करते हैं उनको दिखाते हुए उसके लोकोत्तर माहात्म्यका वर्णन करते हैं: खेदसंज्वरसंमोहविक्षेपाः केन चेतस : / क्षिप्येरन् मच जैनी चेन्नोपयुज्येत गीःसुधा // 8 // जिन भगवान की उपदिष्ट वाणीको अमृतकी उपमा दी जाती है। क्योंकि दोनों हीसे जीवोंका खेद संताप आदि दूर हुआ करता है / परन्तु वस्तुतः जिनवाणी अमृतसे अत्यधिक है। यह वह लोकोत्तर सुधा है कि जिसके सेवन करनेसे मानसिक खेद अथवा मनमें किसी प्रकारका उत्पन्न हुआ संताप, यद्वा सहज ही जीवोंको लगा हुआ अज्ञान, प्रायः चित्तमें अनेक कारणोंसे उत्पन्न होनेवाली व्याकुलताएं-नाना प्रकारके विक्षेप, सेवन करते ही दर होजाया करते हैं। यदि संसारमें यह जैनी वाणी न होती तो वस्तुतः इन मानसिक दोषोंका निराकरण करने में कोई मी समर्थ नहीं था / जब कि मिथ्यादृष्टि मी योग्य सुभाषित की प्रशंसामें यही बात कहते हैं; यथा: छान्तमपोज्झति खेदं तप्तं निर्वाति बुभ्यते मूढम / स्थिरतामेति व्याकुलमुपयुक्तसुभाषितं चेतः // यदि उत्तम सुभाषितका उपयोग किया जाय तो उससे क्लान्त हृदयका खेद दूर होता है, संतप्त मन शान्त बनता है, और अज्ञानी हृदयमें ज्ञानका संचार होता है, तथा व्याकुलित चित्त स्थिरताको प्राप्त हुआ करता है। जब कि मिथ्यादृष्टि भी सुभाषितकी इतनी प्रशंसा करते हैं तब श्री सर्वज्ञ वीतराग निर्दोष अरिहंत भट्टारकके मुखारविंदसे प्रगट हुई वाणीके माहात्म्यका तो कौन वर्णन कर सकता है।
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________________ बनमार . इस प्रकार स्वाध्यायके माहात्म्यका वर्णन किया / अब क्रमप्राप्त प्रतिक्रमणके माहात्म्यको बतानेका प्रा. रम्भ करते हैं: दुर्निवारप्रमादारिप्रयुक्ता दोषहिनी। प्रतिक्रमणदिव्यास्त्रप्रयोगादाशु नश्यति // 9 // जिनका निवारण नहीं किया जा सकता ऐसे प्रमाद रूपी शत्रुओंके द्वारा प्रेरित अतिचारोंकी सेनाका नाश प्रतिक्रमणरूपी दिव्य अस्त्रोंके प्रयोग से बहुतही जल्दी होजाया करता है। मावार्थ-उत्तम कार्योंके सम्पादन करनेमें उत्साहका न होना या उन विषयों में सावधान न रहना इसको प्रमाद कहते हैं। यह प्रमाद साधारण प्रयत्न के द्वारा दूर नहीं किया जासकता / इसके द्वारा आत्माका वास्तविक कल्याण या स्वार्थ नष्ट होता है, अतएव इसको शत्रुके समान समझना चाहिये / मुमुक्षुओंको संयमका पालन करने में अनेक प्रकारके दोषों-अतीचारोंकी सेना जो आघेरती है वह इस प्रमादशत्रुकी प्रेरणासे ही। किंतु इसका निवारण सहज नहीं है / अतएव जिस प्रकार किसी बलवान शत्रुका निवारण देवोपनीत हथियार चलाकर ही किया जाता है उसी प्रकार इस प्रचण्ड शत्रुका निवारण भी प्रतिक्रमणरूपी दिव्य आयुधके विधिपूर्वक प्रयोग करनेसे ही हो सकता है। जैसा कि कहा भी है कि: जीवे प्रमाद्ज़निताः प्रचुराः प्रदोषा, - यस्मात्प्रतिक्रमणतः प्रलयं प्रयान्ति / . तस्मात्तदर्थममलं मुनिबोधनार्थ, वक्ष्ये विचित्रभवकर्मविशोधनार्थम् / / जीवके प्रमादसे उत्पन्न हुए प्रचुर और बडे 2 भी दोष इस प्रतिक्रमणके प्रसादसे की प्रलयको प्राप्त हो जाया करते हैं। अत एव उसका निदोष अर्थ मुनियोंको जाननेके लिये और विचित्र संसारमें संचित कमाको दूर करनेके लिये में कहूंगा। इस कथनसे सिद्ध है कि प्रमादजन्य महान् भी दोष प्रतिक्रमणके द्वारा दर हो जाया करते हैं /
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________________ बनमार . प्रमादकी महिमा कितनी बडी है सो उदाहरण देकर स्पष्ट करते हैं: त्र्यहादऽवैयाकारणः किलैकाहादकार्मुकी। क्षणादयोगी भवति स्वभ्यासोपि प्रमादतः // 10 // यह बात लोक में प्रसिद्ध है कि मंद अभ्यास करनेवाले की तो बात ही क्या जिसने व्याकरणका खूब अच्छी तरहसे अभ्यास किया है ऐसा वैयाकरण भी तीन दिनके प्रमादसे अवैयाकरण बन जाता है / केवन तीन दिनके लिये अभ्यास छोड. देनेसे अच्छी तरह अभ्यस्त भी व्याकरणका ज्ञान विस्मृत होजाता है / इसी तरह एक दिनके प्रमादसे धानुष्क अधानुष्क होजाता है। अर्थात् केवल एक दिन अभ्यास छोडदेनेसे ही अच्छी तरहसे अभ्यस्त भी धनुर्विद्याको भूलकर अनम्यस्त सरीखा होजाता है। किंतु नि. रन्तर समाधिका अभ्यास करनेवाला योगी एक क्षणभर के लिये प्रमाद करनेपर अयोगी बनजाता है-समाधिसे च्युत होजाता है। प्रतिक्रमण और रात्रियोगका प्रतिष्ठापन तथा निष्ठापन-प्रारम्म और समाप्ति किस प्रकार करनी चाहिये सो उसकी विधि बताते हैं: भक्त्या सिद्धप्रतिक्रान्तिवीरद्विद्वादशाहताम् / प्रतिक्रामेन्मलं योगं योगिभक्त्या भजेत् त्यजेत् // 11 // प्रतिक्रमणमें चार प्रकारकी भक्ति कीजाती है / अर्थात संयममें लगे हुए मल-अतीचारों को दूर करनेके लिये साधुओंको चार प्रकारकी वन्दना करनी चाहिये ।-सिद्धभक्ति प्रतिक्रमणभक्ति, वीरमक्ति, और चतुर्विधति तीर्थकर भक्ति / तथा रात्रियोगका प्रारम्भ और समाप्ति योगि भक्तिके द्वारा ही की जाती है। " आज रात्रिको मैं इस वसतिकामें ही रहूंगा" ऐसे नियम विशेष को ही रात्रियोग कहते है. सो इस नियमको धारण करनेके पूर्व और पूर्ण होनेके अनंतर साधुओंको योगि भक्ति करनी चाहिये / जैसा कि कहा भी है कि:
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________________ बनगार सिद्धनिषेधिकावीरजिनभक्तिः प्रतिक्रमे / योगिभक्तिः पुनः कार्या योगग्रहणमोक्षयोः॥ . अर्थात् प्रतिक्रमणमें सिद्धभक्ति प्रतिक्रमणभक्ति वीरभक्ति और जिन भक्ति करनी चाहिये / तथा योगके ग्रहण और मोक्ष दोनो ही अवसरोंपर योगिभक्ति ही करनी चाहिये / प्रातःकालीन देववन्दना करनेके लिये साधुओंको प्रोत्साहित करते हुए कहते हैं: योगिध्यानैकगम्यः परमविशदग्विश्वरूपः स तच्च, ' स्वान्तस्थेम्नैव साध्यं तदमलमतयस्तत्पथध्यानबीजम् / चित्तस्थैर्य विधातुं तदनवधिगुणग्रामगाढानुरागं, तत्पूजाकम कर्मच्छिदुरामिति यथासूत्रमासूत्रयन्तु // 12 // - जिसका ध्यान योगिजन किया करते हैं वह परमात्मा केवलज्ञानस्वरूप है। वह ज्ञान सर्वोत्कृष्ट पदको प्राप्त है-उससे अधिक ज्ञान कहींपर भी और किसी भी जीवके नहीं पाया जाता / तथा वह ज्ञान विशद-स्पष्ट अथवा अव्यवधान-अक्रमवर्ती है, अर्थात् युगपत् समस्त पदार्थोंको विषय करता है, और पर इन्द्रिय अथवा मनकी अपेक्षा नहीं रखता / इस ज्ञानके द्वारा जगत्के सम्पूर्ण पदार्थ-लोक तथा अलोक और त्रिकालवर्ती उनके समस्त आकार प्रतिभासित हुआ करते हैं। इस ज्ञानके धारक अरिहंत भगवान्का स्वरूप परमागममें प्रसिद्ध है। यथा:-. :" केवलणाणदिवायरकिरणकलावप्पणासियण्णाणो / "णवकेवललद्धग्गमसुजणियपरमप्पववएसो।। असहायणाणदसणसहिओ इदिकेवली हु जोगेण / जुचोत्ति सजोगिजिणो अणाइणिहणारिसे उत्तो॥" 851
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________________ अनगार जिन्होने केवलज्ञानरूपी सूर्यकी किरणोंसे अज्ञानभावको सर्वथा नष्ट कर दिया है, और नव केवललब्धियोंके प्रकट होनेसे जिन्होने परमात्मा यह संज्ञा प्राप्त करली है, उनको अनादिनिधन आर्ष आगममें असहायज्ञानदर्शनसे युक्त होनेके कारण केवली और योगसे युक्त रहने के कारण सयोगी जिन कहा गया है। इस प्रकारके परमात्माके स्वरूपका संवेदन केवल योगियों को ध्यानके द्वारा ही हो सकता है। किंतु इस प्रकारके ध्यानकी प्राप्ति योगियोंको मनकी स्थिरतासे ही हुआ करती है। जिनका मन चंचल है उनको इस यानकी सिद्धि नहीं होती। जैसा कि कहा भी है कि: ध्यानस्य च पुनर्मुख्यो हेतुरेतच्चतुष्टयम् / गुरूपदेशः श्रद्धानं सदाभ्यासः स्थिरै मनः॥ अर्थात् ध्यानकी सिद्धिके प्रधानतया चार कारण हैं। - गुरुओंका उपदेश, श्रद्धान, निरंतर अभ्यास, और मनकी स्थिरता। और भी कहा है कि अविक्षिप्तं मनस्तत्त्वं विक्षिप्तं भ्रान्तिरुच्यते / धारयेत्तदविक्षिप्तं विक्षिप्तं नाश्रयेत्पुनः // अविक्षिप्त-अचपल-स्थिर मनको तत्व और उसके विरुद्ध विक्षिप्त-चंचल मनको भ्रान्ति माना है। अत एव मुमुक्षुओंको चंचल मनका आश्रय छोडकर स्थिर मनका ही आश्रय लेना चाहिये / चितकी स्थिरता जिनेन्द्र भगवान्की पूजा-वन्दना करनेसे हुआ करती है / अत एव कालुप्य रहित निमल बुद्धिके धारक साधुओंको उचित है कि उस परमात्माकी प्राप्तिका उपायभूत धर्म्य ध्यान या शुक्लध्यानरूप उपयोगका भी बीज-कारण चित्तकी स्थिरता को ही समझकर उसको सिद्ध करने के लिये परमागममें कहे मृजव परमात्मा-श्री जिनेन्द्र भगवान्की पूजा-विनयकर्म उसके अनन्तानन्त गुणोंक पिण्डमें गाढ अनुराग-भक्ति अथवा श्रद्धा रखते हुए अवश्य करें। क्योंकि यह पूजा ज्ञानावरणादि काँको अथवा कर्मों के आने के द्वाररूप मन वचन कायके व्यापार को नष्ट करने वाली है। बध्याय
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________________ बनगार मावार्य-यहापरपूजा शब्दसे माव पूजाकाही ग्रहण करना चाहिये। मावपूजाका लक्षण इस प्रकार बताया है कि व्यापकानां विशुद्धानां जनानामनुगगतः / गुणानां यदनुष्यानं भावपूजेयमुच्यते // अर्थात्-अरिहंत भगवानके व्यापक और विशुद्ध गुणोंमें अनुराग भाव रखकर उनका चिन्तवन करना इसको भावपूजा कहते हैं / अत एव इस पूजाके करनेवाले के जिनेन्द्र भगवानके अनन्तानन्त ज्ञानादि गुणोंमें भक्ति या श्रद्धा दृढ हुआ करती है, और मनवचन कायकी क्रियाओंका सावध रुपसे निरोध होजानेके कारण संवर तथा ज्ञानावरणादि कर्माकी एकदेश निर्जरा भी हुआ करती है। तथा चित्तमें स्थिरता भी प्रात हुआ करती है जिससे कि / योगियों को उस उत्कृष्ट ध्यानकी सिद्धि हुआ करती है कि जिसके बलसे वे उस परमात्मका स्वयंसंवेदन कर सकते हैं। यहांपर उत्कृष्ट ध्यान शब्दसे एकत्व वितर्क अवीचार नामका शुक्लध्यान समझना चाहिये / क्योंकि परमात्माके उक्त स्वरूपका स्वसंवेदन उसीके द्वारा होता है। योगियों को चित्तकी स्थिरतासे सिद्ध होने वाले योगके आठ अंग बताये हैं।-यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान और समाधि / इनमें से अपने विषय पर स्थिर हो जानवाल शनिकोही ध्यान कहते हैं। और जब वह ध्यान भी स्थिरीभूत हो जाता है तब उसीको समाधि कहते हैं। इस समाधि या उत्कृष्ट ध्यान अथवा प्रकृतमें एकत्ववितर्ककी सिद्धिका कारण भनकी स्थिरता और उसका भी कारण परमात्माकी पूजा-वन्दनाको जानकर योगियोंको आगमके अनुसार अवश्य ही प्रातःकालीन देववंदना करनेमें प्रवृत्त होना चाहिये। . त्रैकालिक देववन्दना किसप्रकार करनी चाहिये सो उसकी विधि बताते हैं: त्रिसन्ध्यं वन्दने युंज्याचैत्यपञ्चगुरुस्तुती। प्रियभक्ति बृहद्धक्तिष्वन्ते दोषविशुद्धये // 13 // ध्याय
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________________ बबबार वन्दना करने वाले साधुओंको तीनों सन्ध्याओंके समय जिनेन्द्रमगवान्की बन्दना करनेमें चैत्ववन्दना और पंचगुरुवन्दना करनी चाहिये / और जब दोषोंकी विशुद्धि करनी हो-वन्दनासंबन्धी अतीचारों या रागादि भावोंका उच्छेदन करना हो तब बृहद्भक्तियों के अन्तमें समाधि मात करनी चाहिये। जैसा कि कहा भी है कि" ऊनाधिक्यविशुद्धयर्थ सर्वत्र प्रियभक्तिकाः" अर्थात् न्यूनाधिकताके दोषकी निवृति के लिये सर्वत्र समाधिमाक्त की जाती है। आचार शास्त्रमें कहे मजबही अच्छी तरहसे क्रिया करनेवाले भी कितने ही ऐसे देखने में आते हैं कि जो केवल वृद्धाको परम्परासे चले आये व्यवहारके ही वशीभूत होकर जिन भगवानका नित्य वन्दना भी सिद्ध भक्ति चैत्यभक्ति पञ्चगुरुभाक्ति और शांतिभक्ति इन चार मक्तियोंके द्वारा ही किया करते हैं। किन्तु उनका यह व्यवहार हमारी समझसे केवल भाक्तिरूपी चुडेलका दुर्विलास ही समझना चाहिये / क्योंकि ऐसा करने में आगमकी आज्ञाका अतिक्रमण होता है। आगममें पूजा और अभिषेक मङ्गलके अवसर पर ही इन चार भक्तियोंके करने का विधान है। जिनवन्दनाके समय केवल चैत्यभक्ति और पंचगुरुमक्ति ही की जाती है / यथा: चत्यपञ्चगुरुस्तुत्या नित्या सन्ध्यासु वन्दना / सिद्धभक्त्यादिशान्त्यन्ता पूजाभिषवमङ्गले // तीनों सन्ध्याओंके समय जो जिनदेवकी नित्य वन्दनाकी जाती है वह चैत्वमक्ति और पंचगुरुभक्तिपूर्वक हुआ करती है। और पूजाके समय अथवा अभिषेक वन्दनाके समय सिद्ध भाक्त चैत्यभक्ति पंचगुरुमाक्त और शांति भक्ति ये चार भक्ति की जाती हैं। और भी कहा है कि: . जिणदेववंदणाए चेदियभत्तीय पंचगुरुभती। अर्थात-जिनदेवकी वन्दनामें चैत्यभक्ति और पंचगुरुमक्ति करनी चाहिये। " तथा-अहिसेयवंदणा सिद्धचेदिय पंचगुरुसंतिभत्तीहिं // अर्थात्-अभिषक वन्दना सिद्धभक्ति चैत्यमक्ति पंचगुरुभक्ति और शांति भक्ति के द्वारा की जाती है। बध्याय
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________________ बनगार अतएव यह बात सिद्ध है कि तीनों सन्ध्याओं के समय नित्यवन्दना चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति इन दो मातयोके द्वारा ही हुआ करती है, न कि सिदभक्ति आदि चार भक्तियोंके द्वारा। कृतिकर्मके छह भेदोका व्याख्यान करते हैं: स्वाधीनता परीतिस्त्रयी निषद्या त्रिवारमावर्ताः। द्वादश चत्वारि शिरांस्येवं कृतिकर्म षोढेष्टम् // 14 // .... कृतिकर्म छह प्रकारका है। स्वाधीनता, परीति, निषद्या, त्रिवार, आवर्त, और शिरोनति / वन्दना करने वालेकी स्वतन्त्रताका ही नाम स्वाधीनता है। इस विषयका विशेष उल्लेख आगे चलकर किया जायगा। परीति नाम प्रदक्षिणाका है। अर्थात् कृतिकर्म करते समय तीनवार प्रदक्षिणादेना इसको परीति कहते हैं। निषद्या नाम बैठने का है। सो यह तीन मेदरूप है। क्योंकि कृतिकर्म करनेवाले कोक्रिया विज्ञापनाके अनंतर चैत्यभक्तिके अनंतर और पंचगुरुभक्तिके अनंतर इस तरह तीनवार आलोचना करते समय पुनः पुनः बैठना पडता है / त्रिवार शब्दसे यहांपर वन्दना करते समय तीनवार किये जाने वाले कायोत्सर्गको लेना चाहिये। क्योंकि इस प्रकरणमें चैत्यभाक्ति पंचगुरुभाक्ति और समाधिभक्ति के अवसर पर तीन कायोत किये जाते हैं। आवर्तका स्वरूप पहले लिखा जा चुका है। ये प्रत्येक दिशाके तीन तीन मिलाकर चारो दिशाके बारह हुआ करते हैं। इसी तरह चार शिरोनतिका स्वरूप भी पहले कह चुके हैं / इसतरह कृतिकर्मरूप वन्दनाके छह मेद अथवा अंग हैं। जैसा कि सिद्धांतमें भी कहा है कि आदाहीणं पदाहीणं तिक्खुत्तं तिऊणदं / चदुरिसरं वारसावत्तं चेदि / / अर्थात-स्वाधीनता परीति निषद्या त्रिवार चतु:शिरोनति और बारह आवर्त ये छह कृतिकर्मके भेद हैं। जिन भगवानकी मूर्तिकी वन्दना करनेसे चार प्रकारके महान् फल प्राप्त हुआ करते हैं। यथा-१-नवीन 2 महान पुण्य कर्मप्रकृतियोंका आस्रव हुआ करता है। २रे पूर्व संचित पुण्य कमेके उदयम विशेषता प्राप्त हुआ अध्यायः
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करती है। उनकी स्थिति और अनुभाग बढकर फलमें महत्ता प्राप्त होती है । ३ रे संचित पापकर्मकी फलदान शक्तिका अपकर्षण हो जाया करता है । वह घटकर अत्यंत अल्प रह जाती है। ४ थे नवीन पापकर्मका संवर हो । जाता है । अर्थात् चैत्य वन्दना करनेवाले को नवीन पापका आस्रव नहीं होता। अतएव मुमुक्षुओंको तीनोही सन्ध्यासमयोंमें यह जिन चैत्य वंदना हमेशा और अवश्य ही करनी चाहिये । इसी बातको यहांपर साधुओंको चैत्य वन्दनाकेलिये प्रेरित करते हुए स्पष्ट करते हैं:
दृष्ट्वाईत्प्रतिमा तदाकृतिमरं स्मृत्वा स्मरंस्तद्गुणान्, . रागोच्छेदपुरःसरानतिरसात् पुण्यं चिनोत्युच्चकैः । तत्पाकं प्रथयत्य, कशयते पाकाद्रुणब्यास्रवत्,
तच्चैत्यान्याखिलानि कल्मषमुषां नित्यं त्रिशुद्धया स्तुयात् ॥१५॥ मृतिक देखते ही जिसकी वा मुर्ति है उसकी आकृतिका तत्काल स्मरण हुआ करता है । अतएव जिन भगवान्की प्रतिमाका दर्शन करने वालोंको भी दर्शन करते ही उनकी आकृतिका स्मरण होता है । अरिहंत भगवान् के शरीरका आकार सम्पूर्ण मलदोषोंसे रहित स्फटिकके समान शुद्ध और समस्त धातु उपधातुओंसे रहित तेज:पुंजके सदृश हुआ करता है। जैसा कि कहा भी है कि:
शुद्धस्फटिकसंकाशं तेजोमूर्तिमयं वपुः ।
जायते क्षीणदोषस्य सप्तधातुविवर्जितम् ।। अठारह दोषोंसे रहित जिनमगवानका शरीर सातोही धातुओंसे रहित हुया करता है। वह निर्मल स्फटि. HI कके समान प्रकाशित होता हुआ ऐसा जान पडता है मानो तेजकी साक्षात् मूर्ति ही है।
आकृतिका स्मरण होते ही उन अद्विारकके वीतरागता प्रभृति अनेक गुणोंका मी माक्तिके अत्यन्त उद्रेकसे स्मरण होता ही है क्योकि वास आकृतिक देखनेसे उस आकृतिवालेके गुणोका मी दोष हो ही जाता है।
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सराग और वीतराग व्यक्तिके, आकारमें अन्तर अवश्य रहा करता है। इस अंतरको ही देखकर आकृतिवालेके गुणों का स्मरण हुआ करता है । अतएव इस विषयमें कहा भी है कि:
"वपुरेव तवांचष्टे भगवन् वीतरागताम् ।
नहि कोटरसंस्थेऽनौ तरुभवति शाडुलः॥ हे भगवन् ! आपका शरीर ही आपकी वीतरागताको स्पष्ट कह रहा है। क्योंकि जिसके कोटरमें अग्नि जल रही हो वह वृक्ष हरा भरा कभी नहीं रह सकता। इसी प्रकार जिसके अन्तरङ्गमें क्रोधादि कषाय जाज्वल्यमान हों उसके शरीरका आकार प्रशान्त कमी नहीं रह सकता । अत एव आपके शरीरका आकार ही कह रहा है कि आप वीतराग हैं।
इस प्रकार जिन भगवान्की प्रतिमाका दर्शन करनेसे अरिहंत भगवान्की आकृतिकी स्मृति और उससे पुनः साक्षात् उनके वीतरागता सर्वज्ञता सर्वदर्शित्व आदि गुणों का स्मरण हुआ करता है। जिससे कि भाक्त में लीन हुआ वन्दारु-चैत्यवन्दना करनेवाला साधु उसी समय महान् पुण्य कर्मका-सातावेदनीय शुभ आयु शुभ नाम
और शुभ गोत्र कर्मका नवीन बन्ध किया करता है । तथा पूर्वके बंधे हुए पुण्य कर्मकी स्थिति और अनुभाग में अतिशय उत्पन्न किया करता है। जिससे कि वे उदय काल में पहले की अपेक्षा अत्यधिक शुभ फल दिया करते हैं। और पूर्वके जो पापकर्म बन्धे हुए हैं उनकी स्थिति तथा अनुभागमें अपकर्षण किया करता है। जिससे कि वे पहले के समान तीव्र फल नहीं दे सकतेतु मन्द मन्दतर फल देकर ही निर्जीर्ण होजाया करते हैं। इसी प्रकार वह चैत्यवन्दना करनेवाला साधु नवीन पाप कर्मका संवर किया लत्ता है।
___ अरिहंत भगवान् की प्रतिमाकी वन्दना करनेसे तत्काल ये चार फल प्राप्त हुआ करते हैं । अत एवं जिन्होने चार घातिया कोंको तथा अपने और भी पापकों या मल दोषों को नष्ट कर विशुद्धता प्राप्त करली है तथा जो दूसर वन्दना करनेवाले भव्यजीवोंका भी पापपङ्क दूर करनेवाले हैं उन श्री अरिहंत भट्टारककी कृत्रिम और अकृत्रिम सम्पूर्ण प्रतिमाओंका मुमुक्षुओंको तीनों ही सन्ध्या समयों में अपने मन वचन और शरीरको शुद्ध रखकर अवश्य ही स्तवन करना चाहिये ।
खक बंधे हुएतावदनीय शम
कि वे
उ
बध्याय
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कृतिकर्मके छह अंगोमें पहला जो स्वाधीनता बताया था उसके अर्थका व्यतिरेक मुखसे समर्थन करते हैं
नित्यं नारकवहीनः पराधीनस्तदेष न ।
क्रमते लौकिके प्यर्थे किमङ्गास्मिन्नलौकिके ॥ १६ ॥ पराधीन जीव हमेशा ही दीन बना रहता है । दुःखमय अवस्थाका निरंतर अनुभव करते रहने के कारण उसको नारकियों के समानही समझना चाहिये । इसी लिये लोकमें भी यह कहावत प्रसिद्ध है कि "कोनरकः? परवशता"। अर्थात् किसी ने पूछा कि नरक किसको समझना चाहिये तो उत्तर देनेवालेने कहा कि पराधीनताको। भावार्थ-परतन्त्रता जीवको नारकीके समान दीन बना देती है । इस दीनताके कारण ही वह लौकिक कार्य-अपने चलने फिरने उठने बैठते स्नान भोजन आदि कार्योंको भी अच्छी तरह स्वतन्त्रता और उत्साहके साथ सम्पादित नहीं कर सकता । जब लौकिक कार्योंको भी मलेप्रकार निर्विघ्न सिद्ध नहीं कर सकता, तब मित्र ? अलौकिक कार्योंके विषयमें तो कहना ही क्या । अर्थात् सर्वज्ञदेवके आराधन प्रभृति कृतिकर्मका वह अप्रतिहतरूपसे कभी पालन नहीं कर सकता । इसी लिये लोकमें भी यह उक्ति प्रसिद्ध है कि:
परार्थानुष्ठाने श्लथयति नृपं स्वार्थपरता, परित्यक्तस्वार्थो नियतमयथार्थः क्षितिपतिः । परार्थश्चेत्स्वार्थादमिमततरो हन्त परवान्, .
परायत्तः प्रीतेः कथमिव रसं वेत्ति पुरुषः॥ - अर्थात् पराधीन रहनेवाला मनुष्य किसी भी तरह सुखका अनुभव नहीं कर सकता। मावार्थ-जिस प्रकार लौकिक कार्योंके लिये स्वाधीनताकी आवश्यकता है उसी प्रकार या उससे भी अधिक अलौकिक-लोकोत्तर चैत्यवंदना प्रभृति कार्योंको करनेकेलिये मी स्वाधीनताकी आवश्यकता है।
___अब चौदह पद्योंमें देव वन्दना आदि क्रियाओं को किस क्रमसे करना चाहिये उसका उपदेश करते हैं । किंत उसमें सबसे पहले व्युत्सर्ग पर्यत की क्रियाओंका क्रम पांच श्लोकोंमें बताते हैं:
बचाय
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श्रुतदृष्टयात्मनि स्तुत्यं पश्यन् गत्वा जिनालयम् । कृतद्रव्यादिशुद्धिस्तं प्रविश्य निसही गिरा ॥ १७॥ चैत्यालोकोद्यदानन्दगलद्वाष्पस्त्रिरानतः। परीत्य दर्शनस्तोत्रं वन्दनामुद्रया पठन् ॥१८॥ कृत्वेर्यापथसंशुद्धिमालोच्यानम्रकांघ्रिदोः। नत्वाश्रित्य गुरोः कृत्त्यं पर्यङ्कस्थोग्रमङ्गलम् ॥ १९ ॥ उक्त्वाचसाम्यो विज्ञाप्य क्रियामुत्थाय विग्रहम् । प्रह्वीकृत्य त्रिभ्रमैकशिरोविनतिपूर्वकम् ॥ २०॥ मुक्ताशुक्त्यङ्कितकरः पठित्वा साम्यदण्डकम् । कृत्वावर्तत्रयशिरोनती भूयस्तनुं त्यजेत् ॥ २१॥
जिन भगवान्की वन्दना करनेकेलिये जिनालयको जाते समय मुमुक्षुओंको भावरूप श्री अरिहंत भगवान् का स्वरूप सम्पूर्ण बात्माओंमें अथवा अपने ही चित्स्वरूपमें परमागमके ज्ञानरूपी नेत्रोंके द्वारा देखते हुए गमन करना चाहिये । अर्थात भावरूप अहंदादिका चर्मचक्षुके द्वारा अवलोकन नहीं हो सकता; अतएव श्रुतज्ञानरूपी नेत्री के द्वारा उनका स्वरूप अपनेमें ही देखते हुए मन्दिरमें जाना चाहिये । और द्रव्य क्षेत्र काल मावकी शुद्धि करके " निसही निसही निसही" इस प्रकार उच्चारण करते हुए जिनमंदिरमें प्रवेश करना चाहिये। वहां पहुंचकर जिन मगवान्की प्रतिमाका दर्शन करते ही हृदयमें अत्यन्त आनंद-प्रमोदके उत्पन्न होनेसे जिसकी आंखोंसे हर्षके अश्रु झड रहे हैं ऐसे उस वन्दना करनेवालेको तीन वार भगवान्को नमस्कार करना चाहिये। उसके वाद जिनालय-गर्भ गृह अथवा उस वेदीकी कि जिसमें श्री जिन चैत्य विराजमान हों तीन बार प्रदाक्षणा देनी
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चाहिये । तदनन्तर दर्शन स्तोत्रका पाठ करते हुए - अर्थात् अद्याभवत्सफलता नयनद्वयस्य देव त्वदीय चरणाम्बुज वीक्षणेन " इत्यादि भगवान्के दर्शन विषयक स्तोत्रका अथवा सम्यक्त्वको उत्पन्न व पुष्ट करनेवाले " दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि" इत्यादि सामान्यसे किसी भी स्तोत्रका उच्चारण करते हुए वन्दनामुद्रा के द्वारा ईयपथ शुद्धि करनी चाहिये । अर्थात् मार्गमें चलने से जीवोंकी बिराधना आदि दोष जो संभव है उनका पडिकामाभि आदि दण्डक के द्वारा शोधन करना चाहिये । इसके बाद इच्छामि इत्यादि दण्डकका उच्चारण करके निन्दा गहरूप आलोचना करनी चाहिये । पुनः धर्माचार्य के समक्ष और यदि गुरु-धर्माचार्य उपस्थित न हों तो भगवान के ही सामने पंचाङ्ग नमस्कार - एक शिर दो हाथ और दो घोंटू इन पांच अंगो को भले प्रकार नम्रीभूत करके कर्तव्य कर्मको स्वीकार करना चाहिये । अर्थात् देववन्दना या प्रतिक्रमण जो कुछ करना हो उसकी नमोस्तु भगवन् ! देव वन्दनां करिष्यामि - हे भगवन् नमस्कार हो अब मैं देववन्दना करूंगा, यह कहकर अथवा " नमोस्तु भगवन् प्रतिक्रमणं करिष्यामि - हे भगवन् नमस्कार हो अब मैं प्रतिक्रमण करूंगा " यह कहकर कर्तव्य की प्रतिज्ञा करनी चाहिये | इसके बाद पर्यङ्कासन से बैठकर जिनेद्र भगवान् के गुणों को प्रकट करनेवाले “सिद्धं सम्पूर्ण मव्यार्थम् " इत्यादि स्तोत्रका पाठ करना चाहिये । पुनः " खम्मामि सब्वजीवाणं " इत्यादि सूत्रपाठ के द्वारा साम्यभाव-समायिकको प्राप्त होना चाहिये । पुनः वन्दना क्रियाका विज्ञापन करके खडे होकर शरीरको नम्रीभूत बनाकर दोनों हाथोंकी मुक्ताशुक्ति मुद्रा बनाकर उससे तीन आवर्त और एकशिरोनति करके " णमो अरहंताणं " इत्यादि सामायिक दण्डकका पाठ करना चाहिये। तथा पाठ पूर्ण होनेपर अन्तमें भी आदिकी तरह तीन आवर्त और एक शिरोनति करनी चाहिये । इस प्रकार सामायिक दण्डकका पाठ आवर्त और शिरोनति के साथ २ पूर्ण होनेपर व्युत्सर्ग धारण करना चाहिये । शरीरमें ममत्वभावका सर्वथा परित्याग करना चाहिये । "भावार्थ - यहां पर देववन्दनासे लेकर व्युत्सर्ग पर्यन्त जो क्रियाएं जिस क्रमसे बताई हैं उनको उसी क्रमसे करना चाहिये । इनके द्रव्य और भावरूप भेदों का स्वरूप पहले बता चुके हैं। तथा वन्दनामुद्रमुक्तमुद्रा पर्यकासनका भी स्वरूप पहले लिख चुके हैं। तदनुसार ही उनको करना चाहिये ।
१- अध्याय ८ श्लोक ८५-८६-८७
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अब दो श्लोकों द्वारा व्युत्सर्ग में ध्यान करने की विधि बताते हैं:
जिनेन्द्रमुद्रया गाथां ध्यायेत प्रीतिविकस्वरे । हृत्पङ्कजे प्रवेश्यान्तनिरुध्य मनसानिलम् ॥ २२ ॥ पृथग द्विद्येकगाथाशचिन्तान्ते रेचयेच्छनैः।
नवकृत्वः प्रयोक्तैवं दहत्यंहः सुधीर्महत ॥ २३ ॥ युग्मम् । व्युत्सर्गके समय साधुओंको अपनी प्राणवायु मनके साथ २ भीतर प्रविष्ट करके आनन्दसे विकसित हुए हृदय कमरमें रोककर जिनेन्द्र मद्राके द्वारा " णमोअरिहंताणं "-प्रभृति गाथाका ध्यान करना चाहिये । तथा गाथाके दो दो और एक अंशका क्रमसे पृथक् २ चिन्तवन करके अन्तमें उस प्राणवायुका धीरे २ रेचन करना चाहियेमाणवायुको पाहर निकालना चाहिये । इस प्रकार अपनी दृष्टिको अन्तरङ्गकी तरफ लगाकर नी वार प्राणायामका प्रयोग करनेवाला संयमी चिरकाल के संचित महान् पापकर्माको भी भस्म कर देता है। भावार्थ-प्राणायामका महत्व अत्यन्त अधिक है । जैसा कि कहा भी है कि
शनैः शनर्मनोऽजस्रं वितन्द्रः सह वायुना। प्रवेश्य हृदयाम्मोजकर्णिकायां नियन्त्रयेत् ।। विकल्पा न प्रसूयन्ते विषयाशा निवतते ।। अन्तः स्फुरति विज्ञानं तत्र चित्ते स्थिरीकृते ॥ स्थिरीभवन्ति चेतांसि प्राणायामावलम्बिनाम् । जगवृत्तं च नि:शेषं प्रत्यक्षमिव जायते ॥ स्मरगरलमनोविजयं समस्तरोगक्षयं वपुःस्थैर्यम् । पवनप्रचारचतुरः करोति योगी न संदेहः ।।
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पये.
साधुओंको अप्रमत्त होकर प्राणवायुके साथ २ धीरे २ अपने मनको अच्छी तरह भीतर प्रविष्ट करके हृदय कमलकी कर्णिका रोकना चाहिये । इस तरह प्राणायामके सिद्ध होनेसे चित्त स्थिर हो जाया करता है। जिससे कि अन्तरङ्गमें संकल्प विकल्पोंका उत्पन्न होना बन्द हो जाता है, विषयोंकी आशा निवृत्त होजाती है, और अन्तरङ्गमें विज्ञानकी मात्रा बढने लगती है। प्राणायाम करनेवालोंके मन ऐसे स्थिर होजाते हैं कि उनको जगत्का सम्पूर्ण वृत्तान्त प्रत्यक्ष सरीखा दीखने लगता है। प्राणायामके द्वारा प्राणवायुका प्रचार करनेमें चतुर योगी कामदेव रुपी विष और मनपर विजय प्राप्त करलिया करता है । तथा इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि वह उसके द्वारा रोगोंका नाश कर सकता है, और शरीरको स्थिर बनालिया करता है। तथा और भी कहा है कि
दोयक्समुआ दिट्टी अंतमुही सिवसरूवसंलीणा । मणपवणक्वविहूणा सहावत्था स णायल्वा ॥ जत्व गया सा विट्टी तत्व मणं तत्थ संठियं पवणं ।
मणपवणलए सुण्णं तहिं च जं फुरइ तं ब्रह्म । अर्थात् प्राणायाम करजेवाले साधुओंकी दृष्टि जब बाह्य विषयों की तरफसे हटकर अन्तरङ्गकी तरफ उन्मुख होकर आत्मरूपमें अच्छी तरह लीन हो जाती है उस समय मन पवन और इन्द्रियोंकी गति बन्द होकर साहजिक अवस्था प्राप्त हुआ करती है । जहाँपर दृष्टि जाकर स्थिर हो जाती है, वहींपर मन और वापर पवन भी स्थिर हो जाता है । इस प्रकार मन और पवनके स्थिर होजानेपर जब बाह्य जगत्से शून्यता प्राप्त होती है उस समयमें ब्रह्म प्रकट हुआ करता है।
. प्राणवायु के संचार क्रमको ही प्राणायाम कहते हैं. इसके मूल में तीन भेद हैं। कुम्मक रेचक पूरक। वायुके भीतर खींचनेको कुम्भक और वहां रोक रखने को पूरक तथा बाहर निकालनेको रेचक कहते हैं । योगियोंको व्युत्मर्ग-कायोत्सर्गक समय ध्यान करते हुए ये तीनों ही क्रिया करनी चाहिये । इस ध्यानमें जिनमुद्राके द्वारा णमो अरहताणं प्रभृति पंचनमस्कार महामंत्ररूप गाथाका चिन्तवन करना चाहिये । तथा इस माथाके कमसे दो दो और
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एक अंशका विभाग करके उनका पृथक् २ चिन्तवन करना चाहिये । अर्थात पहले भागमें णमो अरहताण णमो सिद्धाणं इन दो पदोंका और दूसरे भागमें णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं इन दो पदोंका तथा तीसरे भागमें णमो लोए सव्वसाहूणं इस एक पदका ध्यान करना चाहिये । इसके अनंतर आनंदसे प्रफुल्लित हृदय कमलमें मनके साथ रुकी हुई प्राण वायुका धीरे धीरे रेचन करना चाहिये । इस तरह कमसे कम नौवार प्रयोग करना चाहिये। कमसे कम इस नौवारकी क्रियासे ही संयमियोंके महान् पापका क्षय होजाता है। ... जो इस प्राणायामके द्वारा ध्यान करनेमें असमर्थ हैं वे पासका कोई भी आदमी न सुन सके इस तरहसे उक्त पंचनमस्कार मंत्रका वचन द्वारा भी जप कर सकते हैं, इसी बात को बताते हैं। किंतु इसके साथ ही यह भी दिखाते हैं कि इस वाचनिक जपके द्वारा तथा उक्त मानसिक जप-ध्यानके द्वारा जो पुण्यका संचय होता है उसमें कितना अंतर है।
वाचाप्युपांशु व्युत्सर्गे कार्यों जप्यः स वाचिकः ।
पुण्यं शतगुणं चैतः सहस्रगुणमावहेत ॥ २४ ॥ उक्त व्युत्सर्ग-कायोत्सर्गके समय जो साधु पूर्वोक्त प्राणायामके करनेमें असमर्थ हैं वे सम्पूर्ण पापोंका क्षय करनेमें समर्थ पंचनमस्कार महामंत्रका वचन द्वारा जप कर सकते हैं । किंतु यह जप स्वयं अपनी ही समझमें आवे उसको दूसरा कोई न सुनसके इस तरहसे करना चाहिये । परन्तु यह बात भी समझलेनी चाहिये कि इन दोनों ही जपोंके फलमें बहुत बडा अन्तर है । अर्थात् दण्डकोंका पाठोच्चारण करनेसे जितना पुण्यका संचय होता
उससे सौगुणा पुण्य इस वाचनिक जप करनेसे होता है । किन्तु उक्त मानसिक जप करनेसे हजारगुणा पुण्यका संचय हुआ करता है। जैसा कि कहा मी कि:
वचसा वा मनसा वा कार्यो जप्यः समाहितस्वान्तः ।
शतगुणमाये पुण्यं सहस्रगुणितं द्वितीये तु ॥ अर्थात् साधुओंको एक चित्त होकर पंचनमस्कार मंत्रका जप वचन अथवा मन दोनों से किसीके भी
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द्वारा करना चाहिये । किंतु प्रथमपक्ष में-वचनके द्वारा जप करनेमें सौ गुणा पुण्य होता है तो द्वितीय पक्षमें-मन केद्वारा जप करनेमें हजारगुणा पुण्य हुआ करता है। इस विषयमें मनुने भी कहा है कि:
विधियहाजपयज्ञो विशिष्टो दशमिर्गुणैः ।
उपांशु स्याञ्छतगुणैः साहस्रो मानसः स्मृतः ॥ अर्थात् विधियज्ञकी अपेक्षा जपयज्ञका फल दशगुणा अधिक है. उसमें भी वाचनिक जपका फल सौगुणा है तो मानसिक जपका फल हजार गुणा है। ममुक्षु मव्योंके श्रद्धानको उद्दीप्त करनेकेलिये पंचनमस्कार मंत्रका माहात्म्य बताते हैं:
अपराजितमन्त्रो वै सर्वविघ्नविनाशनः ।।
मङ्गलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलं मतः॥ २५ ॥ यह पंचनमस्कार मंत्र सम्पूर्ण विघ्न-पाप अथवा अन्तरायोंका अच्छी तरह नाश करनेवाला है । इतना ही नहीं बल्कि जितने भी मंगल-पापके गलानेवाले उपाय हैं, अथवा पुण्यको देनेवाले साधन हैं उन सभीमें यह मुख्य-प्रधान है। अत एव शिष्ट पुरुषोंने इसको यह अपराजित मंत्र है ऐसा निश्चितरूपसे माना है। जैसा कि कहा भी है कि:
एसो पंचणमोकारो सव्वावप्पणासणो।
मंगलाणं च सव्वेसिं पढम होइ मलं ॥ इस प्रकार पंच परमेष्ठियोंकी वन्दना करनेसे जो माहात्म्य प्राप्त होता है उसको बताकर एक एक परमेष्ठीका भी विनय करनेसे जो लोकोत्तर महिमा प्राप्त हुआ करती है उसको दिखाते हैं ।
नेष्टं विहन्तुं शुभभावममरसप्रकर्षः प्रभुरन्तरायः ।
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तत्कामचारेण गुणानुरागान्नुत्यादिरिष्टार्थकदर्हदादेः॥ २६ ॥ .. अन्तराय कर्मके फलदेने की शक्ति शुभ परिणामोंक द्वारा नष्ट हो जाया करती है। तब वह इच्छित वस्तुकी प्राप्तिमें विघ्न डालनेको समर्थ नहीं हो सकता । अत एव शुभ परिणामोंको सिद्ध करनेकेलिये अहंदादिमसे इच्छानुसार किसीके भी गुणोंमें अनुराग रखकर प्रणाम स्तुति या बन्दना करना अभीष्ट प्रयोजनका साधक हो जाता है।
- मावार्थ:-अरिहंतादि पंचपरमेष्ठियों से किसी के भी गुणोंका स्मरण करनेसे और उनको नमसार आदि करनेसे परिणामों में जो विशुद्धि प्राप्त हुआ करती है उससे अन्तराय कर्मकी सामर्थ्य-फलदानशक्ति क्षीण होजाया करती है जिससे कि वह किसी भी इष्ट वस्तुकी प्राप्ति में विघ्न नहीं डाल सकता. फलत: किसी भी परमेष्ठीकी व. न्दना करने से सभी प्रयोजनोंकी सिद्धि हो सकती है।
इस प्रकार कायोत्सर्ग तककी क्रियाओंका क्रम आदि बताकर उसके अनंतरके कार्यको भी दो श्लोकोंद्वाग बताते हैं:
प्रोच्य प्राग्वत्ततः साम्यस्वामिनां स्तोत्रदण्डकम् । वन्दनामुद्रया स्तुत्वा चैत्यानि त्रिप्रदक्षिणम् ॥ २७ ॥ आलोच्य पूर्ववत्पञ्चगुरून नुत्वा स्थितस्तथा ।
समाधिभक्त्याऽस्तमल: स्वस्य ध्यायेद्यथाबलम् ॥ २८ ॥ चैत्यमक्ति और कायोत्सर्ग-व्युत्सर्ग तथा उसमें बताये गये ध्यानको कर चुकनेपर पहले की तरहशरीरको नम्रीभृत करने आदिकी जो विधि बताई है तदनुसार समायिकके स्वामी श्री चौबीस तीर्थकर भगवान् की भक्तिके भारसे पूर्ण होकर "थोस्सामि" प्रभृति स्तोत्र दण्डक बोलना चाहिये । पुनः तीन प्रदक्षिणा देते हुए वन्दनामुद्राके. द्वाग जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमाकी स्तुति-वन्दना करनी चाहिये । उसके बाद एक शिर दो वाह
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और दो घोंदुओंको नम्रीभूत करने आदिकी जो विधि बताई है उसी प्रकार यहां भी " इच्छामि भत्ते चेहयभत्ति काउस्सग्गो कओ" इत्यादि पाठ बोलकर आलोचन करके खडे होना चाहिये । क्योंकि चैत्यभक्तिकी तरह यहांपर प्रदक्षिणा नहीं दी जाती। अतएव खडे होकर पहलेकी तरह ही कर्तव्य क्रियाकी विज्ञापना करके अहंदादिक पंचगुरु ओंको वन्दना मुद्राके द्वारा नमस्कार करना चाहिये । यहाँपर भी पंचाङ्ग नमस्कार पूर्वक “इच्छमि मंत्ते पंचगुरुभाक्ति काउस्सग्गो कओ तस्स आलोचेउ, अहमहापाहिडेर संजुत्ताणं अरहताणं" इत्यादि पाठ बोलकर आलोचन करना चाहिये । इसके बाद वन्दना सम्बन्धी अतीचागेको समाधिमक्ति के द्वारा निःशेष करके शक्तिके अनुसार अपना धान करना चाहिये । अर्थात् अपने बलवीर्यादिका विचार कर आत्मध्यानमें तत्पर होना चाहिये । आत्मध्यानको छोडकर अन्य किसी भी उपायसे मोक्षकी सिद्धि नहीं हो सकती, इस बातको प्रकट करते हैं
नात्मध्यानाद्विना किंचिन्मुमुक्षोः कर्महीष्टकत ।।
किंत्वस्त्रपरिकमेव स्यात् कुण्ठस्याततायिनि ॥ २९॥ . मुमुक्षुओंकी आत्मध्यानसे रहित कोई भी क्रिया इष्टप्रयोजन-मोक्षकी साधक नहीं हो सकती । जो मोक्षक आभिलाषा रखकर अन्य कायक्लेश तपश्चरणादि क्रिया तो करते हैं परन्तु निजात्मस्वरूपका धान नहीं करते उनका वह क्रिया करना ठीक वैसा ही समझना चाहिये जैसे कि कोई पुरुष शस्त्र चलानेका अभ्यास तो करता है परन्तु क्रिया में मंद है। यदि कोई शत्रु हथियार लेकर मारनेको उद्यत हो तो उसका वह निवारण नहीं कर सकता। उसी प्रकार केवल बाह्य क्रिया करनेवाला साधु कर्मशत्रुओं का निवारण नहीं कर सकता। भावार्थ-मोक्षकी सिद्धि आत्मध्यानसे ही हो सकती है। जैसा कि कहा भी है कि:
मनाः कर्मनयावलम्बनपरा शानं न जानन्ति यद् मना ज्ञाननयैषिणोपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः। विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भजन्तः स्वयं,.. ये कुर्वन्ति न कर्म जातुन वशं यान्ति प्रमादस्य च ॥
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उन पुरुषों को संसारसमुद्रमें डुबा हुआ समझना चाहिये जो कि कर्म करने - बाह्य आचरण के पालन करनेकाही एकान्त पक्ष पकडकर बैठे हैं; क्योंकि वे ज्ञानके अनुभव से शून्य हैं। इसी प्रकार वे मनुष्य भी संसारमें निमन ही समझने चाहिये जो कि ज्ञानको ही एकान्ततः आत्मोद्धारका उपाय मानते हैं। क्योंकि वे आचरण करनेमें अत्यंत स्वच्छन्द और मंदोद्यमी होजाते हैं। अतएव वे ही साधुजन संसारसमुद्रको तरकर विश्व के ऊपर विराजमान हो सकते हैं, जो कि स्वयं ज्ञानका सेवन - आत्मध्यानका अभ्यास करते हुए बाह्य चारित्रका भी पालन करते हैं और कभी भी प्रमादके वशीभूत नहीं हुआ करते ।
समाधि – ध्यानकी उत्कृष्ट अवस्थाका माहात्म्य इतना अधिक है कि उसका कोई वर्णन नहीं कर सकता, इसी बातको प्रकट करते हैं।
यः सूते मरमानन्दं भूर्भुवः स्वर्भुजामपि ।
काम्यं समाधिः कस्तस्य क्षमो माहात्म्यवर्णने ॥ ३० ॥
अन्यकी तो बात ही क्या, अधोलोक के स्वामी धरणीन्द्रादिक और मध्य लोकके अधिपति चक्रवर्ती आदि तथा ऊर्ध्वलोकके पालन करनेवाले सौंधर्मेंद्राहिकों को भी जो समाधि अभिलषित उत्कृष्ट प्रहृनता रूप आनन्दसुखको दिया करती है, उस समाधिके माहात्म्यका वर्णन करनेमें कौन समर्थ हो सकता है ।
भावार्थ-समाधि द्वारा कमको नष्ट कर जीव अविचल पद - मोक्षको प्राप्त किया करता है। किंतु जब तक वह प्राप्त नहीं होती तब तक उस समाधिके बलसे जीव संसारके भी सर्वोत्कृष्ट अभ्युदयोंको प्राप्त किया करता है, अत एव उसकी महिमा अपार है. उसका कोई वर्णन नहीं कर सकता। जैसाकि कहा भी है कि:
अनाधिव्याधिसंबाधममन्दानन्दकारणम् । न किंचिदन्यदस्तीह समाधेः सदृशं सखे ॥
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अर्थात समाधिके निमित्तसे सभी आधि और व्याधि दूर रहती हैं । समाधि प्रवृत्त रहनेवाल साधके मानसिक खेद-क्लेश उत्पन्न नहीं हुआ करता । इसी तरह उनको शारीरिक दुःख भी या तो उत्पन्न ही नहीं होते, यदि देववशसे उत्पन्न भी हो जाय तो पीडाके कारण नहीं हुआ करते । तथा यह समाधि संसार सम्बन्धी और निःश्रेयस
की कमी मंद न पडनेवाले महान् आनन्दको प्रकट करनेवाली है। अत एव हे मित्र ! इस जीवके लिये संसारमें समाधिके समान कोई भी कल्याणका कारण नहीं हो सकता। प्रामातिक देव वन्दनाके अनंतर आचार्यादिकोंकी वन्दना करनेका उपदेश देते हैं:
लघ्व्या सिद्धगणिस्तुत्या गणी वन्द्यो गवासनात् ।
सैद्धान्तोन्तःश्रुतस्तुत्या तथान्यस्तन्नुतिं विना ॥ ३१ ॥ माधओंको आचार्यकी वन्दना गवासनसे बैठकर-जिस तरह गौ बैठते समय अपनी टांगोंका आकार नानी उस तरह बनाकर और लघु सिद्ध भाक्त तथा लघु आचार्य भक्ति बोलकर करनी चाहिये । यदि आचार्य मानवेता हों तो उनकी वंदना लघुसिद्धमक्ति लघुश्रुतमाक्त और लघुआचार्यभाक्तको क्रमसे बोलकर करनी चाहिये । आचार्यके सिवाय दूसरे यतियोंकी वन्दना भी गवासनसे ही किन्तु वह केवल लघुसिद्ध भक्तिको बोलकर ही करनी चाहिये । किंतु यदि इतर साधु भी सिद्धान्तवेत्ता हों तो उनकी वंदना लघुसिद्ध भाक्ति और उसकेबाद क्रमसे लघुश्रुत शक्ति भी वोलकर करनी चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
सिद्धभक्त्या बृहत्साधुर्वन्द्यते लघुसाधुना । लव्या सिद्धश्रुतस्तुत्या सैद्धान्तः प्रप्रणम्यते ॥ सिद्धाचार्यलघुस्तुत्या वन्द्यते साधुभिर्गणी।
सिद्धश्रुतगणिस्तुत्या लव्या सिद्धान्तविद्गणी ॥ छोटे साधुओंको बडे साधुओंकी वन्दना लघुसिद्धि माक्त पूर्वक, तथा सिद्धान्तवेचा साधुओंकी वंदना कमसे उपसिद्ध भक्ति और लघुश्रुतभक्ति के द्वारा, और आचार्यकी वंदना लघुसिद्धभाक्त तथा लघु आचार्यमक्तिके दाग.
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एवं सिद्धान्त वेत्ता आचार्यकी वंदना क्रमसे लघुसिद्धमाक्त श्रुतमक्ति और आचार्यमक्तिके द्वारा करनी चाहिये। धर्माचार्यकी वन्दना-उपासना करनेसे जो माहात्म्य प्राप्त होता है उसकी प्रशंसा करते हैं:
यत्पादच्छायमुच्छिद्य सद्यो जन्मपथक्लमम् ।
वर्वष्टि निवृतिसुधां सूरिः सेव्यो न केन सः॥ ३२ ॥ जिनके चरणोंकी छाया मुक्तिरूपी अमृतकी वृष्टि करके तत्काल जीवोंको संसार मार्गके संतापसे रहित बना देती है ऐसे आचार्यकी सेवा कौन नहीं करेगा!
भावार्थ-कृतकृत्यताके द्वारा प्राप्त होनेवाले अथवा कृतकृत्यतास्वरूप संतोषको निवृति कहते हैं। इस संतोषको अमृतके समान समझना चाहिये । क्योंकि इसके प्राप्त होते ही जीव जन्ममरणरूपी संसारके मार्गमें भ्रमण करनेसे प्राप्त हुए संताप और क्लेशसे छूट जाता तथा परम आल्हादको प्राप्त होता है। किंतु यह अवस्था आचार्यों के चरणका आश्रय लिये बिना प्राप्त नहीं हो सकती । अत एव आचार्य चरणोंकी सेवा सर्वोत्कृष्ट फलको देनेवाली है ऐसा समझकर सभी मुमुक्षु साधुओंको उनकी उपासना करनी चाहिये । अपनेसे बडे साधुओंकी वन्दना करनेसे जो फल प्राप्त होता है सो बताते हैं:
येऽनन्यसामान्यगुणाः प्रीणन्ति जगदजसा।
तान्महन्महतः साधूनिहामुत्र महीयते ॥३३॥ जो साधु संसारके अन्य किसी भी जीवमें जो नहीं पाये जा सकते ऐसे महान् गुणोंके धारण करनेवाले और इन्द्रादिके द्वारा पूज्य हैं, तथा जगत्के जीवोंका परमार्थसे हित करनेवाले और अपने उपदेशादिके द्वारा भवआतापसे संतप्त प्राणियोंको तृप्त करनेवाले हैं। ऐसे दीक्षाकी अपेक्षा अपनेसे बडे साधुओंकी पूजा करनेपर ही मुमक्ष साधु इस लोक तथा परलोकमें मानीवता-पूज्यताको प्राप्त हुआ करता है।
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भावार्थ-अपनेसे बडे साधुओंकी विनय करनेसे पूज्यता प्राप्त हुआ करती है।
प्रातःकालकी चैत्यवंदना आदि क्रिया कितने समयतक करनी और उसके अनन्तर क्या करना सो बताते हैं:
प्रवृत्त्यैवं दिनादौ द्वे नाड्यौ यावद्यथाबलम् ।
नाडीद्वयोनमध्याहू यावत्स्वाध्यायमावहेत ॥ ३४॥ पूर्वोक्त रीतिसे चैत्यवंदना आदि क्रिया प्रातः काल-दिनकी आदिमें दोघडी तक करनी चाहिये । उसके बाद माधुओंको स्वाध्याय करना चाहिये । स्वाध्याका समय मध्याह्नसे दो घडी पहले तकका है । सो इस समय के मतिर ही साधुओंको अपनी शक्ति के अनुसार स्वाध्याय करना चाहिये ।
स्वाध्यायको समाप्त करनेपर मुनिकी दो अवस्थाएं हो सकती हैं। एक उपवास सहित और दूसरी उपबासरहित । इनमेंसे पहली अवस्थामें मध्याहसे दो घडी पहले और दो घडी पीछे का जो अस्वाध्यायका काल है उस समयमें मुनिको क्या करना चाहिये सो बताते हैं:
ततो देवगुरू स्तुत्वा ध्यानं वाराधनादि वा।
शास्त्रं जपं वाऽस्वाध्यायकालेभ्यसेदुपोषितः ॥ १५॥ उपवास युक्त साधुको पूर्वाह्नकालका स्वाध्यय समाप्त होने पर अस्वाध्याय कालमें श्री अरहंत परमेष्ठी और गुरु-धर्माचार्यकी वन्दना करके ध्यान करना चाहिये । अथवा चार आराधना आदिका या किसी शास्त्रका अभ्यास करना चाहिये । यद्वा पंचनमस्कारादि मंत्रका जप करना चाहिये । उपवास न करनेवाले साधुको इस मध्याह्नके अस्वाध्यायकालमें क्या करना चाहिये सो बताते हैं:
प्राणयात्राचिकर्षाियां प्रत्याख्यानमुपोषितम् ।
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न वा निष्ठाप्य विधिवद्भुक्त्वा भूयः प्रतिष्ठयत् ॥ ३६॥ यदि भोजन करनेकी इच्छा हो तो पूर्व दिन जो प्रत्याख्यान अथवा उपवास ग्रहण किया था उसकी विधिपूर्वक क्षमापणा करनी चाहिये । और उस निष्ठापनके अनंतर शास्त्रोक्त विधिके अनुसार भोजन करके अपनी शक्तिके अनुसार फिर भी प्रत्याख्यान अथवा उपवासकी प्रतिष्ठापना करनी चाहिये ।
प्रत्याख्यान या उपवासकी निष्ठापना-समाप्ति और आगेकेलिये प्रतिष्ठापन-प्रारम्भ करने की और प्रतिष्ठापन करनेके अनंतर आचार्य परमेष्ठीकी वंदना करनी चाहिये, अत एव उसके भी करनेकी विधि बताते हैं:
हेयं लघ्व्या सिद्धभक्त्याशनादौ, प्रत्याख्यानाद्याशु चादेयमन्ते ।
सूरौ तादृग्योगिभक्त्यग्रया तद्, प्राह्यं वन्द्यः सूरिभक्त्या स लघ्व्या ॥३७॥ पहले दिन जो प्रत्याख्यान या उपचास ग्रहण किया था उसकी निष्ठापना साधुओंको भोजनके पहले लघु सिद्धमक्ति बोलकर करनी चाहिये । तथा भोजन क्रिया समाप्त होते ही तत्काल पुनः सिद्धभक्ति बोलकर नवीन प्रत्याख्यान या उपवासका प्रतिष्ठापन करना चाहिये। किंतु इस प्रकारसे स्वयं प्रत्याख्यानादिका प्रतिष्ठापन आचार्य परमेष्ठीके निकट न रहनेपर ही करना चाहिये । यदि आचार्य पासमें हों तो साधुओंको भोजनके अनंतर लघुआचार्य भाक्त बोलकर उनकी वंदना करनी चाहिये । पुनः लघु सिद्ध भक्ति और योगिभक्ति बोलकर प्रत्याख्यानादिका प्रतिष्ठापन करना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
सिद्धभक्त्योपवासश्च प्रत्याख्यानं च मुच्यते । लव्यैव भोजनस्यादी भोजनान्ते च गृह्यते ॥ सिद्धयोगिलघुभक्त्या प्रत्याख्यानादि गृह्यते ।
लव्या तु सूरिभक्त्यैव सूरिर्वन्योथ साधुना ॥ अर्थात् भोजनकी आदिमें उपवास या प्रत्याख्यानका त्याग और भोजनके अन्तमें उसका ग्रहण लघु
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सिद्ध भक्ति बोलकर ही करना चाहिये । अथवा साधुओंको लघु सिद्धमाक्त और लघु योगिभक्ति बोलकर प्रत्याख्यानादिका ग्रहण करना चाहिये और लघु आचार्य भक्ति बोलकर उनकी वंदना करनी चाहिये।
भोजनके अनंतर तत्काल ही प्रत्याख्यानादि ग्रहण करनेके लिये जो कहा है उसका अभिप्राय स्पष्ट करनेके लिये तत्काल प्रत्याख्यानादि ग्रहण न करनेमें दोष और थोडी देरेके लिये भी उसके ग्रहण करनेमें महान् लाम है। इस बातको बताते हैं:
प्रत्याख्यानं विना दैवात् क्षीणायुः स्याद्विराधकः ।
तदल्पकालमप्यल्पमप्यर्थपृथु चण्डवत् ॥ ३८ ॥ प्रत्याख्यानादिके ग्रहण किये बिना यदि कदाचित्-पर्वबद्ध आयुकर्मके वशसे वर्तमान आयु क्षीण हो जाय तो वह साधु विराधक समझना चाहिये । अर्थात् कारण वश यदि उसकी अकस्मात् मृत्यु हो जाय तो वह साधु प्रत्याख्यानसे रहित होनेके कारण रत्नत्रयका आराधक नहीं हो सकता । किंतु इसके विपरीत प्रत्याख्यान सहित तत्काल मरण होनेपर थोडी देरकेलिये और थोडासा ही ग्रहण किया हुआ वह प्रत्याख्यान चण्ड नामक चाण्डालकी तरह महान् फलका देनेवाला होजाता है। जैसा कि कहा भी है कि
. चण्डोऽवन्तिषु मातङ्गः किल मांसनिवृत्तितः ।।
अप्यल्पकालभाविन्याः प्रपेदे यक्षमुख्यताम् ॥ अर्थात्-उज्जयनी नगरीमें एक चण्ड नामका मातङ्ग रहता था । एक दिन वह चामकी रस्सी वट रहा था, जब कि उसकी आयु पूर्ण होनेमें थोडासा ही समय वाकी रहा था । यह बात एक ऋषिराजको मालुम हुई तब उन्होंने उसको मांस त्यागका व्रत दिया । उस मातङ्गने " ये मेरी चामकी रस्सीका बटना जबतक पूर्ण नहीं होता तब तककेलिये मेरे मांसका त्याग है " ऐसा व्रत लिया । भविव्यतानुसार रस्सी घटना पूर्ण होनेके पहले ही उसका मरण हो गया । अत एव उस व्रतके प्रसादसे वह मरकर यक्षेन्द्र हुआ।
प्रत्याख्यानादि ग्रहण करनेके अनंतर गोचार प्रतिक्रमण-भोजनसम्बन्धी दोषोंका संशोधन करना चाहिये । अंतएवं उसकी विधि बताते हैं:
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प्रतिक्रम्याथ गोचारदोष नाडीद्वयाधिके ।
मध्यान्हे प्रालवद्वृत्ते स्वाध्यायं विधिवद्भजेत् ॥ ३९ ॥ प्रत्याख्यान अथवा स्वाध्यायको अपने में स्थापित करने के बाद साधुओंको गोचारसम्बन्धी दोषोंअतीचारोंका प्रतिक्रमण करना चाहिये । और उसके बाद पूर्वाह्नकी तरह अपराह्न कालमें भी मध्यान्हसे दो घडी अधिक समय व्यतीत होनेपर विधिपूर्वक स्वाध्यायका प्रारम्म करना चाहिये ।
अपराह्न कालका स्वाध्याय समाप्त होनेपर देवसिक प्रतिक्रमण-दिन भरमें जो कोई दोष अथवा अाचार लग गया हो उसका संशोधन आदि करनेकी विधि बताते हैं:
नाडीद्वयावशेषेति तं निष्ठाप्य प्रतिक्रमम् ।
कृत्वाह्निकं गृहीत्वा च योगं वन्द्यो यतैर्गणी ॥१॥ जब दिनमें दो घडी काल बाकी रहे तब विधिपूर्वक आपराहिक स्वाध्यायकी निष्ठापना कर देनी चाहिये। और फिर आतिक क्रिया करने में जो किसी प्रकारका दोष लगा हो उसका प्रतिक्रमण करना चाहिये । पुनः संयमियोंको रात्रि योग ग्रहण कर आचार्य परमेष्ठीकी वंदना करनी चाहिये । आचार्य वन्दनाके अनंतर देववन्दना आदि जो करना चाहिये उसका विधान करते हैं:
स्तुत्वा देवमथारभ्य प्रदोषे सद्विनाडिके । मुञ्चेन्निशीथे स्वाध्यायं प्रागेव घटिकाद्वयात् ॥१॥
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१--मुनियोंके माहारके गोचार भ्रामरी अक्षमृक्षण और श्वभ्रपूरण ये भेद और इनका स्वरूप पहले बता चुके हैं।
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आचार्य वन्दनाके बाद साधुओंको विधिपूर्वक देववन्दना करके प्रदोष-सन्ध्या समयके अनन्तर दो घडी काल व्यतीत होनेपर पूर्वरात्रिक स्वाध्यायका प्रारम्भ करना चाहिये. और अर्धरात्रिमें दो घडी समय जब बाकी रहे तब उस स्वाध्यायको समाप्त करना चाहिये।
. इस पूर्वरात्रिक स्वाध्यायके समाप्त होनेपर साधुओंको उचित है कि वे ऐसा अभ्यास और प्रयत्न करें कि जिससे वे निद्राके वशीभूत न हों। अत एव निद्राको जीतनेके उपाय कौनसे हैं सो बताते हैं:
ज्ञानाचाराधनानन्दसान्द्रः संसारभीरुकः।
शोचमानोऽर्जितं चैनो जयेन्निद्रां जिताशनः॥४२॥ निद्राको जीतनेके चार उपाय हैं। १-आहारको जीतना । उपवास या अनुपवास करके-३२ ग्रास मात्र अथवा उदरके तीन भागमात्र जो भोजनका प्रमाण बताया है उससे कम भोजन करके, अथवा ऐसा कोई भी आहार ग्रहण न करके कि जिससे शरीरमें आलस्य या तन्द्रा आजाय, निद्राको जीतना चाहिये। जिताशन: इस शब्दकी जगह जितासन: ऐसा दन्त्य सकारका भी पाठ माना है । अत एव इस शब्दका अर्थ आसनको जीतना ऐसा होता है। अर्थात् पर्वकासन या वीरासन आदिसे चलायमान न होकरआसनके निमित्तसे खेदित न होकर निद्राको जीतना चाहिये । दूसरा उपाय-आराधनाओंकी अविच्छिन्न प्रवृत्ति है । अर्थात् ज्ञान दर्शन चारित्र और तप इन चार विषयोंकी चारों आराधनाओंके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले प्रमोदको निरन्तर प्रवृत्तिके द्वारा अतिसघन बनाकर निद्राको जीतना चाहिये । तीसरा उपाय संवेग है । अर्थात् पंचपरिवर्तनरूप या दुःखोंके कारण अथवा सर्वथा दुःखमय संसारसे निरन्तर डरनेवाला निद्राको जीत सकता है । चौथा उपाय शोक है। जो पूर्वकालमें अपनेसे कोई पाप बन गया है उसका शोक करनेसे भी निद्रा जीती जा सकती है। जैसा कि कहा भी है कि
शानाद्याराधने प्रीति भयं संसारदु:खतः । पापे पूर्वार्जिते शोकं निद्रां जेतुं सदा कुरु॥
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अर्थात्-हे आत्मन् ! तू निद्राको जीतने के लिये ज्ञानादिके आराधन करनेमें प्रीति और संसारके दुःखोंसे भय तथा पूर्वसंचित पापोंका शोक सदा किया कर. जो स्वाध्यायके करने में असमर्थ हैं उनके लिये देव वन्दना करनेका विधान करते हैं:
सप्रतिलेखनमुकुलितंवत्सोत्सङ्गितकरः सपर्यः ।
कुर्यादेकाग्रमनाः स्वाध्यायं वन्दना पुनरशक्त्या ॥ १३ ॥ प्रतिलेखन-पीछीको हाथों में लेकर उसके साथ २ ही हाथोंको मुकुलित-अञ्जलिबद्ध करके और उन हाथोंको वक्षः स्थलके मध्ययें रखकर, पर्यङ्कासनसे बैठकर, और मनको एकाग्र बनाकर-अन्य किसी भी विषयकी तरफ अपने चित्तको न जाने देकर साधुओंको स्वाध्यायमें प्रवृत्त होना चाहिये । जैसा कि कहा भी है:
पलियंकणिसेज्जगदी पडिलेहिय अञ्जलीकदपणामो।
सुत्तत्थजोगजुत्तो पढिदव्वो आदसत्तीए ॥ अर्थात-पर्यकासनको धारण करनेवाला और पीछीयुक्त अंजलिके द्वारा किया है प्रणाम जिसने ऐसे साधुको अपनी शक्तिके अनुसार सूत्रार्थके स्वाध्यायमें प्रवृत्त होना चाहिये । और भी कहा है कि:
मनो बोधाधीनं विनयविनियुक्तं निजवपु,- . र्वच पाठायत्तं करणगणमाधाय नियतम् । दधानः स्वाध्यायं कृतपरिणति नवचने,
करोत्यात्मा कर्मक्षयमिति समाध्यन्तरमिदम् ॥ अर्थात्-मनको ज्ञानके आधीन बनाकर और अपने शरीरको विनयसे युक्त करके तथा वचनको पाठ करनेमें लगाकर और इन्द्रियों को अपने २ विषयोंसे निवृत्त करके जिन भगवान्के वचनोंकी तरफही अपना उपयोग लगाते हुए जो स्वाध्याय करता है वह आत्मा कर्मोंका क्षय कर देता है। अतएव इस स्वाध्यायको समाधि ही समझना चाहिये।
बध्याय
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बनमार
भावार्थ-जिस स्वाध्यायके करनेमें सेन वचन काय और इन्द्रियों को अन्य सब विषयोंसे रोककर अपने उपयोगको जिनवचनकी तरफ ही लगाया जाता है उस स्वाध्यायको उत्कृष्ट ध्यान समझना चाहिये । और उसके करने वाले ही साधुके समाधिका कार्य-कर्मक्षय हुआ करता है।
स्वाध्यायको करने के लिये पर्यकासनका जो निर्देश किया है वह उपलक्षण है । अत एव चीरासनादिकसे भी स्वाध्याय किया जा सकता है ऐसा समझना चाहिये । किंतु जो व्यक्ति इस विधिसे स्वाध्याय नहीं कर सकता और खडे होकर वंदना करने में असमर्थ हो तो वह केवल वंदना कर सकता है. अर्थात् शक्तिके रहते हुए स्वाध्याय और उसके अभावमें उक्त विशेषणोंसे युक्त साधुको वन्दना ही करनी चाहिये । प्रतिक्रमणके द्वारा योगके ग्रहण और स्यागमें जो काल लगना चाहिये उसका प्रमाण व्यवहारसे अथवा जैसा कि पहले कहा जा चुका है दनुसार समझ लेना चाहिये । । . किसी अन्य धर्मकार्यादिमें लगजानेसे यदि उक्त योगप्रतिक्रमणादिक निर्दिष्ट समयपर न हो सकें और जान करने में किसी प्रकारका व्यवधान आजाय तो वह अन्य समयमें भी किया जा सकता है। पैसा करनेमें कोई दोष नहीं है, ऐसा उपदेश करते हैं:
योगप्रतिकमविधिः प्रागुक्तो व्यावहारिकः। कालक्रमनियामोऽत्र न स्वाध्यायादिवद्यतः॥४॥
पाय
रात्रियोग तथा प्रतिक्रमणका जो पहले विधान किया गया है वह व्यावहारिक है। क्योंकि इनके विषयमें कालके क्रमका-समयानुपूर्विताका या काल और क्रमका नियम नहीं है। जिस प्रकार स्वाध्यायादि (स्वाध्याय देव वन्दम्य और भक्त प्रत्याख्यान) के विषयों काल और क्रम नियमित माने गये हैं उस प्रकार रात्रियोग और प्रतिक्रमणके विषयमें नहीं।
भावार्थ-जब स्वाध्यायादिकी तरह इनका कालक्रम नियत नहीं है तब यह बात स्वयं सिद्ध है कि
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अनगार
ये योग और प्रतिक्रमण निर्दिष्ट समयसे कचित् कदाचित् भिन्न समयमें भी किये जा सकते हैं। फिर भी किसी विशिष्ट धर्म कार्यमें रुकजानेपर ही साधुओंको ये मिन्न समयमें करने उचित हैं, सर्वदा वैसा करना योग्य नहीं है ।
इस प्रकार नित्य क्रियाओंके करनेकी विधिका वर्णन किया । अब क्रमानुसार नैमितिक क्रियाओंके वर्णनका अवसर प्राप्त है। अत एव नैमित्तिक क्रियाओं में से सबसे पहले चतुर्दशीको करने योग्य क्रियाकी विधि दो मतोंके अनुसार बताते हैं:
- त्रिसमयवन्दने भक्तिद्वयमध्ये श्रुतनुति चतुर्दश्याम् ।
प्राहुस्तद्भक्तित्रयमुखान्तयोः केऽपि सिद्धशान्तिनुती ॥४५॥ क्रियाकाण्डके निरूपण करजेवाले प्राकृत चारित्रसारके मतानुमार जो वन्दना भक्ति आदि करने का विधान । करते हैं उन आचार्योंका कहना है कि प्रातःकाल मध्याह्न और सायंकाल इन तीनों समयों में नित्य देववंदना । के अवसर पर जो दो भक्ति-चैत्यभाक्त और पंचगुरुभक्ति की जाती हैं उनके मध्यमें चतुर्दशी के दिन श्रुतभक्ति और करनी चाहिये । जैसा कि क्रियाकाण्डमें भी बताया गया है। यथा:
.."जिणदेववन्दणाए चेदियभत्तीय पंचगुरूभत्ती ।
चउदसियं तं मन्झे सुदभत्ती होइ कायव्वा ॥ जिनदेवकी नित्यवंदना करनेमें चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति की जाती है। किंतु चतुर्दशीको इन दोनों भक्तियोंके मध्यमें श्रुतभक्ति और करनी चाहिये । चारित्रसारमें भी कहा है कि "देवकी प्रतिदिनकी स्तवन क्रिया करने में चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति तथा चतुर्दशी के दिन इन दोनों भाक्तयोंके मध्य में श्रुतमक्ति हुआ करती है।
संस्कृत चारित्रसारके मतानुसार जो क्रियाकाण्डका निरूपण करने वाले हैं उन आचार्यों का कहना है कि चतुर्दशीके दिन उपर्युक्त तीनों भक्तियों-चैत्यभक्ति श्रुतभक्ति और पंचगुरुभक्ति के आदिमें और अंतमें क्रमसे सिद्धभक्ति और शांतिभाक्ति करनी चाहिये । जैसा कि संस्कृत क्रियाकाण्डके पाठमें कहागया है कि:- ,
बन्याय
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बवबार
सिद्धे चैत्ये श्रुते भक्तिस्तथा पंचगुरुस्तुतिः। .
शान्तिभक्तिस्तथा कार्या चतुर्दश्यामिति किया । अर्थात्-क्रमसे सिद्धमक्ति चैत्यभक्ति श्रुतमक्ति पंचगुरुभक्ति और शांतिमक्ति करके चतुर्दशीको क्रिया करनी चाहिये।
यदि कदाचित् किसी धर्मकार्यके वश चतुर्दशीकी उपयुक्त क्रिया करनेमें विच्छेद उपस्थित हो जाय तो उपके बदले में क्या करना चाहिये सो बताते हैं:
चतुर्दशीक्रिया धर्मव्यासङ्गादिवशान्न चेत् ।
कर्तु पार्येत पक्षान्ते तर्हि कार्याष्टमीक्रिया ॥ १६ ॥ क्षपण-नियापण-समाधि मरण सरीखा कोई ऐसा धर्म कार्य आकर उपस्थित हो जाय कि जिसमें लगे रहनेसे मुमुक्षु साधु उस दिनकी-चतुर्दशीकी क्रिया न कर सके तो ऐसे समय में उसको दूसरे दिन-अमावस्या या पूर्णमासीको अष्टमी क्रिया करनी चाहिये । सिद्धमक्ति श्रुतभक्ति चारित्रमक्ति और शांतिभक्तिके करनेसे अष्टमी क्रिया हुआ करती है, ऐसा आगेके सूत्र में बतावेंगे। इसी विषयमें चारित्रसारमें कहा है कि
___ "चतुर्दशीदिने धर्मव्यामङ्गादिना क्रिया
कर्तुं न लभ्येत चेत् पाक्षिकेष्टम्यां क्रिया कर्तव्या।" धर्मकार्यके कारण चतुर्दशीके दिनकी क्रिया करनेमें यदि व्यासन-व्यवधान आदि उपस्थित हो जाय तो। पक्षान्त-अमावस्या अथवा पूर्णमासीको अष्टमीकी क्रिया करनी चाहिये । तथा क्रियाकाण्डमें भी ऐसा ही कहा है।
जदि पुण धम्मव्वासंगाण कया होज चउद्दसी किरिया। तो पुणिमाइदिवसे कायव्वा पक्खिया किरिया ॥
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अनगार
अर्थात् धर्म व्यासङ्गसे यदि चतुर्दशीकी क्रिया न की जासकी हो तो पूर्णमासीको पाक्षिकी क्रिया करना चाहिये।
अष्टमीकी और पक्षान्तकी क्रियाविधिको तथा सर्वत्र चारित्रभक्तिके अनन्तर होनेवाली आलोचनावि. पिको बताते हैं:
स्यात् सिद्धश्रुतचारित्रशान्तिभक्त्याष्टमीक्रिया ।
पक्षान्ते साऽश्रुता वृत्तं स्तुत्वालाच्यं यथायथम् ॥ १७ ॥ सिद्धमक्ति श्रुतमक्ति चारित्रमक्ति और शांतिमाकै इन चार भाक्तियों के द्वारा अष्टमीक्रिया की जाती है। पाक्षिकी क्रिया इनमेसे श्रुतभाक्त के सिवाय बाकी तीन मक्ति के द्वारा हुआ करती है। तथा साधुओंको उचित है कि सभी जगह चारित्रमाक्तिके अनन्तर यथायोग्य आलोचना किया करें । चारित्रसारमें भी अष्टमीको सिद्ध श्रुत चारित्र शान्तिमतिका करना और पाक्षिकी क्रिया करने में विद्ध चारिश शान्तिमतिका करना ही बताया है। किंतु संस्कृत क्रियाकाण्डमें यह जो पाठ दिया है कि:
सिद्धश्रुतसुचारित्रचैत्यपनगुरुस्तुतिः । शान्तिमक्तिश्च षष्ठीयं क्रिया स्यादष्टमीतियौ ॥ सिद्धचारित्रत्येषु भक्तिः पञ्चगुरुष्वपि ॥
शान्तिभक्तिश्च पक्षान्ते जिने तीर्थे च जन्मनि ॥ अष्टमीको सिद्धश्रुत चरित्र चैत्य पंचगुरुकी भाक्त और छही शांतिभक्ति करनी चाहिये । तथा अमावस्या पूर्णिमा और तीर्थकर भगवान् के जन्म कल्याणके समय सिद्ध चारित्र चैत्य पंचगुरु शान्तिमाक्त करनी चाहिये । सो इसमें नित्यदेववन्दनाके साथ २ अष्टमी चतुर्दशीका विधान बताया है । अत एव यह वृद्धसम्प्रदाय समझना चाहिये।
१- अष्टमीक्रिया में जो चार भक्ति होती हैं उनमेंसे पाक्षिकी क्रिया श्रुतभक्ति नहीं होती।
मपाय
SOME
ect
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बनमार
૧
बजाय
सिद्धप्रतिमा, तीर्थकर भगवान्का जन्मकल्याणक और अपूर्व जिनप्रतिमा के विषयमें करने योग्य क्रियाका उपदेश देते हैं:
सिद्धभक्त्यैकया सिद्धप्रतिमायां क्रिया मता ।
तीर्थ कृज्जन्मनि जिनप्रतिमायां च पाक्षिकी ॥ ४८ ॥
सिद्ध प्रतिमाकी वन्दना करने में एक सिद्धभक्ति ही करनी चाहिये । और तीर्थकर भगवान् के जन्मकल्याण के समय पाक्षिकी क्रिया- सिद्धभार्क चारित्रभक्ति और शांतिभक्ति करनी चाहिये । इसी प्रकार अपूर्व जिनप्रतिमाकी वन्दना करने में भी पाक्षिकी क्रिया ही करनी चाहिये ।
अष्टमी आदिकी क्रियाओंमें यदि अपूर्व चैत्यवन्दना और नित्यदेव वंदनाका योग करना अभीष्ट हो, अथवा इनका संयोग आकर उपस्थित हो जाये तो चैत्यमक्ति और पंचगुरुमक्तिका प्रयोग कब और किस स्थानपर करना सो बताते हैं:
दर्शन पूजात्रिसमयवन्दनयोगोऽष्टमीक्रियादिषु चेव ।
प्राक् तर्हि शान्तिभक्तेः प्रयोजयेचैत्यपंचगुरुभक्ती ॥ ४९ ॥
अष्टमी आदि क्रियाओंके समय में ही यदि अपूर्व चैत्य बन्दना और त्रैकालिक नित्य वंदनाका संयोग _आकर उपस्थित होजाय तो साधुओंको उचित है कि शान्तिभक्तिके पहले चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति करें। जैसा कि चारित्रसारमें भी कहा है कि:
""अष्टम्यादिक्रियासु दर्शन पूजात्रिकालदेववन्दनायोगे । शान्तिभक्तितः प्राक्चैत्यभक्ति पञ्चगुरुभकिं च कुर्यात् " इति ।
अर्थात् अष्टमी आदिको क्रिया में ही दर्शन पूजा - चैत्यवंदना और प्रातः मध्याह्न और सायंकालकी वंदनाका संयोग हो तो शांतिभक्तिके पहले चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति करनी चाहिये ।
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बचंगार
. क्रियां
२
एक ही जगह अनेक अपूर्व जिनप्रतिमाओं का दर्शन होनेपर किस प्रकार क्रिया करना सो बताते हैं । तथा उनके फिर भी दर्शन के विषयमें उन प्रतिमाओंकी अपूर्वता कब समझना इसकलिये कालका प्रमाण भी दिखाते हैं।
दृष्टा सर्वाण्यपूर्वाणि चैत्यान्येकत्र कल्पयेत् ।
क्रियां तेषां तु षष्ठेऽनुश्रूयते मास्यपूर्वता ॥ ५० ॥ . यदि अनेक अपूर्व जिनप्रतिमा एक ही स्थानपर हों तो उन समीका दर्शन करके उनमेंसे जिसकी तरफ रुचि अधिक प्रवृत्त हो उस एक ही प्रतिमाको लप करके पहले कहे मूजब क्रिया करनी चाहिये । तथा उन प्रति. माओंकी अपूर्वता व्यवहारी लोगोंकी परम्परासे छठे महीने में समझनी चाहिये। विशिष्ट क्रियाओंके करने के लिये तिथिका निर्णय दिखाते हैं
त्रिमुहूर्तेपि यत्रार्क उदेत्यस्तमयत्यथ ।
स तिथिः सकलो ज्ञेयः प्रायो धम्र्येषु कर्मसु ॥ ५१ ॥ जिस दिन तीन मुहूर्ततक-कमसे कम छह घडी कालतक सूर्यका उदय अथवा अस्त पाया जाय उपवास वन्दना आदि धर्मसम्बन्धी क्रियाओंके करनेमे प्रायःवही तिथि पूर्ण मानी है ।
प्रायः कहनेका अभिप्राय यह है कि बहुधा व्यवहारी लोगोंका परम्परासे ऐसा ही व्यवहार देखने में आता है। किंतु वास्तवमें यह नियम नहीं समझना चाहिये । अतएव देश कालादिके वश-क्वचित् इसके प्रतिकूल भी व्यवहार हो सकता है। प्रतिक्रमणके विषय में क्रियाकरनेकी विधिविशेष पांच श्लोकों में बताते हैं:
पाक्षिक्यादिप्रतिक्रान्तौ वन्देरन्विधिवद्गुरुम् ।
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बनगार
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व्याय
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सिद्धवृचस्तुती कुर्याद्गुर्वी चालोचनां गणी ॥ ५२ ॥ देवस्या परे सूरेः सिद्धयोगिस्तुती लघू । सवृत्तालोचने कृत्वा प्रायश्चित्तमुपेत्य च ॥ ५३ ॥ वन्दित्वाचार्य माचार्य भक्त्या लछ्या ससूरयः प्रतिक्रान्तिस्तुतिं कुर्युः प्रतिक्रामेत्ततो गणी ॥ ५४ ॥ अथ वीरस्तुतिं शान्तिचतुर्विंशतिकर्तिनाम् । सवृत्तालोचनां गुव सगुर्वालोचनां यताः ॥ ५५ ॥ मध्यां सूरिनुर्ति तां च लधीं कुर्युः परे पुनः ।
प्रतिक्रमा बृहन्मध्यसूरिभक्तिद्वयोज्झिताः ॥ ५६ ॥ पञ्चकम् |
पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण के समय अर्थात् अमावस्या और पूर्णमासीको किये जानेवाले तथा चातुर्मास और संवत्सर के अंत में जो प्रतिक्रमण किया जाता है वह जब करना हो तब शिष्य और सघर्माओं को पहले गुरुआचार्यकी पूर्व में बताई हुई विधिके अनुसार बन्दना करनी चाहिये । अर्थात् आचार्यकी वन्दना लघुसिद्धभक्ति और लघु आचार्यभक्तिको बोलकर गवासनके द्वारा करनी चाहिये । और आचार्य यदि सिद्धान्तवेत्ता हों तो क्रमसे सिद्ध श्रुत आचार्यमक्ति के द्वारा उनकी वन्दना करनी चाहिये । इत्यादि व्यवहारके अनुरोधसे जो विधान पहले बता चुके हैं उसी मृजय पाक्षिक आदि चातुर्मासिक तथा वार्षिक प्रतिक्रमणके समय भी गुरुकी पहले बन्दना करनी चाहिये। यहां पर तीनों क्तियोंके बोलते समय क्रमसे ततद्भक्तिके आदिमें तीन प्रकारके उच्चारण हुआ करते हैं । अर्थात् " नमोस्तु प्रतिष्ठापनसिद्ध भक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम् " ऐसा सिद्धभक्ति के प्रारम्भमें और " नमोस्तु प्रतिष्ठापन भक्ति योगं वरम्यहम् " ऐसा श्रुतभक्ति करते समय तथा " नमोस्तु प्रतिष्ठापना - चार्य भक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम् " ऐसा आचार्यभक्तिकी आदिमें बोलना चाहिये ।
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धर्म •
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इसके अनंतर अपने शिष्यों और सधर्माओंसे युक्त गुरु-आचार्यको अपने इष्ट देवको नमस्कार कर "समता सर्वभूतेषु" इत्यादि पाठ बोलकर बृहद्भक्तियों में से " सिद्धानुद्भतक," त्यादिक सिद्धभक्ति और 'येनेन्द्रान्" इत्यादि अञ्चलिका सहित चारित्रमक्ति बोलनी चाहिये । तथा श्री अरहंत भगवान्के सम्मुख “ इच्छामि मत्ते पक्खि यमि आलोचउं" इत्यादि " जिणगुण संपत्ति होउ मज्झं" यहांतककी बृहदालोचना करनी चाहिये। यहांपर भी दोनों भक्तियोंकी आदिमें दो प्रकारके उच्चारण हुआ करते हैं।" सर्वाती चाविशुद्धयर्थ भावपूजावंद नास्तवसमेतं सिद्धमक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम् " ऐसा सिद्धभाक्तिकी आदिमें उच्चारण करना चाहिये । और " सर्वाती चार विशुद्धयर्थ आलोचना चारित्रमाक्ति कायोत्सनं करोम्यहम्" ऐसा चारित्रभक्ति की आदिमें उच्चारण करना चाहिये।
अर्थात-पंचपरमेष्ठियोंके णमो अरहताणं प्रभृति पांच नमस्कार पदोंको बोलकर कायोत्सर्ग करके "यो. स्सामि" प्रभृति पाठ बोलना चाहिये । पुनः" तव सिद्ध" इत्यादि पाठको अञ्चलिकाके साथ बोलकर पूर्वोक्त विधि करनी चाहिये । और उसके बाद अंचलिकायुक्त "प्राट्काले सविद्युत्" इत्यादि योगिभक्तिका पाठ बोलकर तथा " इच्छामिभत्ते चरित्ताचारो तेरसविहो" इत्यादि पांचो दण्डकोंका उच्चारण करके और " वदसमिदिदिय" से लेकर "छेदोवडावणं होदु मज्झं" यहांतकके पाठ को तीन वार बोलकर अरहंत देवके सामने अपने दोषोंकी आलोचना करनी चाहिये। इसके बाद अपनेसे जैसा कुछ दोष बनगया हो उसके अनुसार स्वयं प्रायश्चित्त लेकर
और "पंचमहाव्रतम् " आदि पाठको तीन वार बोलकर प्रायश्चित्तके योग्य शिष्योंको भी प्रायश्चित्त देकर देवके समक्ष गुरुभक्ति करनी चाहिये । यहाँपर तीन प्रकारके उच्चारण किये जाते हैं। पहला " नमोस्तु सर्वातीचारवि. शुद्धयर्थ सिद्धभाक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम् " दुसरा " नमोस्तु सर्वाती चार विशुद्धयर्थ आलोचनायोगिभक्ति कायोत्सर्ग करोग्यहम् " और तीसरा “नमोस्तु निष्ठापनाचार्य भक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम् ।" ये उच्चारण क्रमसे यथास्थान करने चाहिये । यह सब क्रिया केवल आचार्यको ही करनी चाहिये ।
इसके अनंतर ग्रहण करलिया है प्रायश्चित्त जिन्होने ऐसे आचार्य परमेष्ठीके आगे शिष्यों तथा सधर्माः आको लघुद्धिमक्ति लघुयोगिभक्ति और चारित्रभक्ति तथा आलोचना करके जिससे जिस प्रकारका दोष वनगया
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हो उसको उसी मुजब शुद्धि-प्रायश्चित्त आलोचनपूर्वक ग्रहण करके "श्रुतजलधि" इत्यादि लघु आचायमक्ति बोलकर विधिपूर्वक उनकी वन्दना करना चाहिये । पुन: आचार्य परमेष्ठीके साथ २ शिष्यों तथा सधर्माओंको मिलकर प्रतिक्रमण भक्ति करनी चाहिये । अर्थात् “ सर्वातीचारविशुद्धयर्थ पाक्षिक प्रतिक्रमणक्रियाया पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकल कर्मक्षयार्थ भावपूजावन्दनास्तवसमेत प्रतिक्रमणभक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम् " ऐसा पाठ बोलकर प्रतिक्रमण भक्ति करनी चाहिये, और उसके बाद " णमो अरहंताणं" इत्यादि दण्डकका पाठ बोलकर कायोत्सर्ग धारण करना चाहिये।
उपर्युक्त परिकर्मके पूर्ण होनेपर पुनः केवल आचार्य परमेष्ठीको “थोसामि" प्रभृति दण्डक और गणधर वलयका उच्चारण करके प्रतिक्रमण दण्डकका पाठ करना चाहिये । तथा जबतक केवल आचार्य इस पाठका उच्चारण करें तब तक उन शिष्यों और सधर्माओंको कायोत्सर्गके द्वारा खडे २ वह प्रतिक्रमण दण्डकका पाठ सुनना चाहिये।
इसके अनंतर परिकर्ममें प्रवृत्त संयमी साधुओंको "थोस्सामि" प्रभृति दण्ड कका पाठ बोलना चाहिये और आचाके साथ २ "वदसमिदिदियरोधो" इत्यादि बोलकर वीरभक्ति करनी चाहिये. अर्थात “ सर्वाती चार विशद्धयर्थ पाक्षिक प्रतिक्रमण क्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्म क्षयार्थ भावपूजा वन्दनास्तव समेतं निष्ठित करणवीरमक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम्" इस प्रकार उच्चारण करके पुनः " णमो अरहंताणं " इत्यादि दण्डक पाठ बोलना चाहि. ये। उसके बाद कायोत्सर्गमें प्रवृत्त होना चाहिये और पहले कायोत्सर्गके जितने उच्छास बताये हैं उतने उसमें पूर्ण करना चाहिये । उसके बाद “थोस्सामि" इत्यादि दण्डकका पाठ करके "चन्द्रप्रमं चन्द्रमरीचिगौरं" इत्यादि स्वयंभूका और " यः सर्वाणि चराचराणि" इत्यादि अंचलिकायुक्त वीरभक्ति तथा " वदसमिादिदियरोधो " आदि पाठ बोलना चाहिये।
इसके बाद साधुओंको आचार्य के साथ २ शांतिमक्ति और चतुर्विशति तीर्थकरभाक्ति करनी चाहिये । अर्थात "सर्वातीचारविशुद्धयर्थ शांतिचतुर्विशतितीर्थकरमक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम् " ऐसा उच्चारण करके " णमो
ताणं" इत्यादि दण्डकका पाठ बोलकर कायोत्सर्ग धारण करना चाहिये । कायोत्सर्गके अनंतर "थोस्सामि" प्रभति दण्डक बोलकर शांतिभक्ति और "रक्षाम् " इत्यादि चतुर्विशतितीर्थकर भाक्ति तथा “चउवीसं तित्थयरे" आदि
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अंचलिका सहित पाठको बोलकर "वदसमिदिदियरोधो" आदि पाठ बोलना चाहिये । उसके बाद साधु ओंको आचार्य के साथ ही " सर्वातीचारविशुद्धयर्थ चारित्रालोचना चार्य भक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम् " ऐसा पाठ बोलकर लघु चारित्रालोचनाके साथ २ वृहदाचार्यभाक्त करनी चाहिये । अर्थात “इच्छामि भत्ते चारित्ताचारो तेरसविहो परिहारविदो" इत्यादि दण्डकके द्वारा साध्य लघु चारित्रालोचनाके साथ “सिद्धगुणस्तुति" आदि वृहदाचार्यमाक्त करनी चाहिये । तदनंतर आचार्यके साथ २डी माधुओंको " वदसमिदिदियरोषो" इत्यादि पाठका उच्चारण और "सर्वांतीचारविशुद्धयर्थ बृहदालोचनाचार्य भक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम् " ऐसा उच्चारण करके बृहदालोचनाके साथ २ “देशकुलजाइसुद्धा" इत्यादि मध्य बृहदाचार्य भक्ति करनी चाहिये। अर्थात् यह बृहदाचार्यमक्ति "इच्छामि भत्ते पक्खियाम्म अलोचेउं पण्णारसणं दिवसाणं" इत्यादि वृहदालोचनाके साथ बृहदाचार्यभक्ति करनी चाहिये।
इसके अनंतर आचार्य परमेष्ठीके साथ ही साधुओंको “बदसमिर्दिदियरोधो" इत्यादि पाठ करके और "सर्वातीचाराविशुधर्थ शुल्लकालोचना चार्यमक्तिकायोत्सर्ग कगेम्यहम्" इस प्रकार उच्चारण करके पहले के ही समान दण्डकादिक बोलकर लघु आचार्यमक्ति करनी चाहिये । अर्थात् “प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः" यहाँसे लेकर " मोक्षमार्गोपदेशका" यहांतकका लघु आचार्यभक्तिका पाठ बोलना चाहिये । इस प्रकार सम्पूर्ण क्रिया करने के बाद साधुओंको आचार्यके साथ ही न्यूनाधिकताके दोषकी शुद्धिकेलिये “सर्वातीचारविशुद्धयर्थ सिद्धचारित्रप्रति क्रमणनिष्ठितकरणवीरशान्तिचतुर्विंशतितीर्थकरचारित्रालोचनाचार्यबृहदालोचनाचार्यक्षुल्लकालोचनाचार्यभक्तीः कृत्वा तद्धीनाधिकत्वादिदोषविशुद्धयर्थ समाधिभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम्" ऐसा उच्चारण करके और पहलेके ही समान दण्डकादि पाठ करके अंतमें "शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुतिः" इत्यादि इष्टप्रार्थना करनी चाहिये । तथा सबके अंतमें साधुओंको सिद्धमक्ति श्रुतमक्ति और आचार्यमक्ति बोलकर गुरु-आचार्यकी वन्दना करनी चाहिये ।
इस प्रकार प्रतिक्रमण करने की विधि यहाँपर हमने संक्षेपमें बताई है। जिनको विशेष जानना या करना हो उन्हें किसी प्रौढ आचार्य के निकट विस्तारके साथ देखकर और सीखकर करनी चाहिये । इसी विषयम आगममें कहा है कि:
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बनगार
सिद्धचारित्रभक्तिः स्याबृहदालोचना ततः देवस्य गणिनो वा सिद्धयोगिस्तुती लघू ॥ चारित्रालोचना कार्या प्रायश्चित्तं ततस्तथा । सूरिभक्त्या ततो लठ्या गणिनं वन्दते यतिः॥ स्यात्प्रतिक्रमणा भक्तिः प्रतिक्रामेत्ततो गणी । वीरस्तुतिर्जिनस्तुत्या सह शान्तिनुतिर्मता ॥ वृत्तालोचनया सार्द्ध गुर्वी सूरिनुतिस्ततः । गुवालोचनया साधं मध्याचार्यनुतिस्तथा ॥ लध्वी सूरिनुतिश्चेति पाक्षिकादौ प्रतिक्रमे ।
ऊनाधिक्यविशुद्धषर्थ सर्वत्र प्रियभक्तिका ॥ अर्थात्-अरहंत देव अथवा आचार्य के सम्मुख सिद्धमक्ति चारित्रभक्ति और बृहदालोचनाके बाद लघु सिद्धभक्ति और लघु योगिमक्ति की जाती है। पुनः चारित्रालोचनापूर्वक प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिये और उसके वाद साधुओंको लघु आचार्यभक्ति मोलकर आचार्यकी वन्दना करना चाहिये । तदनंतर प्रतिक्रमण भक्ति करनी चाहिये और आचार्यको प्रतिक्रमण कराना चाहिये । पुनः वीरभक्ति और चतुर्विशति तीर्थकर भक्ति के साथ २ शांति भक्ति तथा उसके बाद चारित्रालोचनाके साथ २ बृहदाचार्य भक्ति और उसके बाद क्रमसे बृहदालोचनापूर्वक मध्य बृहदाचार्य भक्ति और अंतमें लघुआचार्य भक्ति बोलकर साधुओंको आचार्यकी वन्दना करनी चादिये। यह पाविकादि प्रतिक्रमण के समयकी क्रियाओंका संक्षेप है। इसके सिवाय न्यूनाधिकताके दोष की शुद्धिके लिये समी जगह समाधिमक्ति करनी चाहिये ।।
चारित्रासारमें भी ऐसा ही कहा है कि-"पाक्षिक चातुर्मासिक सांवत्सरिक प्रतिक्रमणे सिद्धचारित्रप्रतिक्रमण निष्ठितकरणचतुर्विंशतितीर्थकर भक्तिचारित्रालोचनागुरुभक्तयो वृहदालोचनागुरुभक्तिर्लघीयस्याचार्यमक्तिश्च करणीयाः।
व्रतारोपण आदि विषयोंकी अपेक्षा प्रतिक्रमण चार प्रकारका माना है किंतु उसमें वृहदाचार्य भक्ति और मध्य आचार्यमक्ति यहां नहीं करनी चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
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अनगार
- वृत्तालोचनया साप गुर्वालोचनया क्रमात् ।
सूरिद्वयस्तुतिं मुक्त्वा शेषाः प्रतिक्रमा क्रमात् ।। अर्थात-क्रमसे चारित्रालोचना और बृहदालोचनाके साथ २ दोनों आचार्य भक्तियों के सिवाय बाकी के प्रतिक्रमण क्रमसे हुआ करते हैं।
इस प्रकार संक्षेपमें पाक्षिकादि प्रतिक्रमणकी विधि और उसका क्रम बताकर अब नैमित्तिक क्रियाओंक प्रकरण में संयमी साधुओं और श्रावकों के लिये श्रुतपंचमी के दिन क्या क्रिया करनी और किस तरह करनी उसकी विधि दो श्लोकों द्वारा बताते हैं:
बृहत्या श्रुतपञ्चम्यां भक्त्या सिद्धश्रुतार्थया । श्रुतस्कन्धं प्रतिष्ठाप्य गृहीत्वा वाचनां बृहन् ॥ ५७ ॥ दाम्यो गृहीत्वा स्वाध्यायः कृत्या शान्तिनुतिस्ततः ।
यामनां गृहिणां सिद्धश्रुतशान्तिस्तवाः पुनः ॥ ५८ ॥ (युग्मम् ) संयमी साधुओंको बृहत् सिद्धमाक्त-"सिद्धानुकर्म" इत्यादि और बृहत श्रुतभक्ति-“ स्तोष्ये संज्ञानानि" इत्यादिके द्वारा श्रुतस्कन्धका प्रतिष्ठापन करना चाहिये। और श्रुतावतारके उपदेश को ग्रहण कर बृहत् श्रुतमाक्त और बृहत् आचार्यभक्ति के द्वारा बृहत् स्वाध्यायका प्रतिष्ठापन करना चाहिये। तथा अंतमें वृहत श्रुतमक्ति घोलकर उस स्वाध्यायकी निष्ठापना-समाप्ति करनी चाहिये । इस प्रकार श्रुतपंचमी-ज्येष्ठ शुक्ला ५ के दिन साधु. ओंको क्रमसे क्रिया करनी चाहिये । जैसा कि चारित्रासारमें भी कहा है कि:
"श्रुतपंचम्या सिद्धश्रुतभक्तिपूर्विका वाचना गृहीत्वा तदनु स्वाध्यायं गृह्णतः श्रुतमक्तिमाचार्य भक्तिं च कृत्वा गृहीतस्वाध्यायाः कृतश्रुतमक्तयः स्वाध्यायं निष्ठाप्य समाप्तौ शान्तिमक्किं कुर्युः"।
अर्थात-साधुओंको श्रुतपंचमी के दिन सिद्धमक्ति और श्रुतभाक्ति पूर्वक श्रुतावतारके उपदेशको ग्रहण
अन्याय
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बनवार
करके स्वध्यायको ग्रहण करने के लिये श्रुतभक्ति और आचार्यभक्ति करके उसका ग्रहण और श्रुतमक्ति बोलकर उसका निष्ठापन तथा समाप्तिमें शांतिभक्ति करनी चाहिये।
जो म्बाध्यायको ग्रहण नहीं कर सकते उन गृहस्थ श्रावकोंको उस दिन-ज्येष्ठ शुक्ला ५ को केवल सिद्धभक्ति श्रुतमक्ति और शांतिभक्ति करनी चाहिये ।
सिद्धान्त आदिकी वाचना सम्बन्धी क्रियाकी विशेष विधि बतानेकेलिये दो श्लोक कहते हैं, जिसमें साधुओंको सिद्धान्तके अर्थाधिकारोंपर कायोत्सर्ग करनेका उपदेश देते हैं:
कल्प्यः क्रमोय सिद्धान्ताचारवाचनयोरपि । एकैकार्थाधिकारान्ते व्युत्सर्गास्तन्मुखान्तयोः ॥ ५९॥ सिद्धश्रुतगणिस्तोत्रं व्युत्सर्गाश्चातिभक्तये ।
द्वितीयादिदिने षट् षट् प्रदेया वाचनावनौ ॥ ६ ॥ युग्मम् । ऊपर भूतपंचमीके दिनकी जो विधि बताई है वह केवल उसी दिन नहीं किंतु सिद्धान्तवाचना और आचारवाचनामें भी यही विधि करनी चाहिये । अर्थात् सिद्धान्तवाचना और वृद्धव्यवहारके अनुसार आचारवाचनाका सिद्धभक्ति और श्रुतमक्ति पूर्वक प्रतिष्ठापन करके श्रुतभक्ति और आचार्यभक्ति के द्वारा बृहत् स्वाध्यायको स्वीकार कर उसका उपदेश देना चाहिये । और श्रुतमक्तिके द्वारा उस स्वाध्यायको समाप्त कर अंतमें शंतिमक्ति बोलकर इस क्रियाको समाप्त करना चाहिये । तथा साधुओंको सिद्धान्तके प्रत्येक अर्थाधिकारके अंतमें कायोत्सर्ग धारण करना चाहिये । जैसा कि चारित्रासारमें भी कहा है कि:-" सिद्धान्तस्यार्थाधि कारणां समाप्तौ एकक कायोत्सर्ग कुर्यात् , इति । अर्थात् सिद्धान्तके प्रत्येक अर्थाधिकारके अंतमें एक एक कायोत्सर्ग करना चाहिये । तथा इस प्रत्येक अर्थाधिकारके अंतमें और आदिमें सिद्धभक्ति श्रुतमक्ति और आचार्यभक्ति करनी चाहिये । वाचनाके दिन तो इसी प्रकारकी क्रिया करनी चाहिये । किंतु उसके बाद-दूसरे तीसरे आदि दिनको सिद्धान्तके
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चारगार
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अध्याय
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प्रति अतिभक्ति प्रकट करनेकेलिये जहांपर वाचना की गई थी उस स्थान पर छह छह कायोत्सर्ग करना चाहिये । भावार्थ - यहांपर वाचनाभूमिमें छह २ कायोत्सर्ग करनेके लिये जो कहा है उसका नियम नहीं समझना चाहिये | क्योंकि यह क्रिया सिद्धान्त और उसके अर्थाधिकारोंके प्रति उत्तम बहुमान दिखानेकेलिये ही कही गई है । अव यह क्रिया साधुओं को अपनी शक्तिके अनुसार ही करनी चहिये । अर्थात् जितनी शक्तिहो उतने ही कायोत्सर्ग करने चाहिये ।
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संन्यास मरणकी क्रियाओंका प्रयोग कैसे करना उसकी विधि दो श्लोकोंके द्वारा बताते हैं:संन्यासस्य क्रियादौ सा शान्तिभक्त्या विना सह । अन्तेऽन्यदा बृहद्भक्त्या स्वाध्यायस्थापनोज्झने ॥ ६१ ॥ योगेपि शेयं तत्रात्तस्वाध्यायैः प्रतिचारकैः । स्वाध्यायाग्राहिणां प्राग्वत् तदाद्यन्तादिने क्रिया ॥ ६२ ॥
संन्यास मरणकी आदिमें श्रुतपंचमी के दिनकी जो क्रिया बताई है उसमेंसे शांतिभक्तिको छोडकर बाकी सब क्रिया करनी चाहिये । अर्थात् सिद्धभक्ति और श्रुतमक्ति बोलकर श्रुतस्कन्ध के समान संन्यासका भी प्रतिष्ठापन करना चाहिये । तथा संन्यास के अंत में भी वही क्रिया करनी चाहिये। किंतु इतनी विशेषता है कि यहां पर शांतिभ कि को छोडना नहीं - उसको भी बोलना चाहिये । अर्थात् क्षपक - जो संन्यास मरण करनेवाला है उसका अन्त होनेपर शांतिभक्ति के साथ २ सिद्धभक्ति और श्रुतभक्ति बोलकर संन्यासका निष्ठापन करदेना चाहिये । तथा संन्यास के आदि और अंत के दिनको छोडकर मध्यके दिनोंमें वृहद्भक्तिपूर्वक स्वाध्यायका प्रतिष्ठापन और निष्ठापन करना चाहिये अर्थात् बृहत्तभक्ति और बृहत् आचार्य भक्ति के द्वारा उसका प्रतिष्ठापन और बृहत् श्रुतमक्ति के द्वारा उसका निष्ठा पन करना चाहिये । तथा रात्रियोग वर्षायोग आदि में भी जिन्होंने पहले ही दिन स्वाध्यापका प्रतिष्ठापन कर दिया है उन परिचारकों को संन्यास मरण करने वालेकी वैयावृत्य-सेवा शुश्रूषा करनेवालोंको उस संन्यासवसतीमें ही शयन
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धर्म
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क्रिया करनी चाहिये । यह क्रिया साधुपरिचारकों के लिये है। किंतु जो स्वाध्यायको ग्रहण न करने वाले गृहस्थ है उन्हें आदि और अंतक दिन श्रुतपंचमीके समान ही क्रिया करनी चाहिये । अर्थात् गृहस्थ परिचारकोंको संन्यास के पहले दिन और पिछले दिन सिद्धमक्ति श्रुतमक्ति और शांतिभक्तिही करनी चाहिये । क्योंकि वे स्वाध्यायको ग्रहण नहीं कर सकते। क्रमानुसार आष्टाहिक पर्व कालकी नैमित्तिक क्रियाको बताते हैं:
कुर्वन्तु सिद्धनन्दीश्वरगुरुशान्तिस्तवैः क्रियामष्टौ।
शुष्यूर्जतपस्यसिताष्टम्यादिदिनानि मध्याह्ने ॥३॥ आषाढ कार्तिक और फाल्गुन महीनेकी शक्ल पक्षकी अष्टमीसे लेकर आठ दिनतक-अर्थात पूर्णमासी पर्यत प्रतिदिन मध्याहके समय-पौर्वाहिक स्वाध्यायको समाप्त करके सिद्धमक्ति नन्दीश्वर चैत्यमक्ति पंचगुरुमक्ति और शांति भक्ति के द्वारा आष्टाहिक क्रिया करनी चाहिये. इस श्लोकमें "कुर्वन्तु" ऐसी बहुवचन क्रियाका जो प्रयोग किया है उसका अभिप्राय यह है कि यह क्रिया सम्पूर्ण संघको-आचार्य आदि मबको मिलकर करनी चाहिये। अभिषेकके समय की जानेवाली वन्दना क्रिया और मंगल गोचर क्रियाको बताते हैं:
सा नन्दीश्वरपदकृतचैत्या त्वभिषेकवन्दनास्ति तथा ।
___ मङ्गलगोचरमध्याह्नवन्दना योगयोज्झनयोः ॥ ६४ ॥ . ऊपर जो नन्दीश्वरजिनचैत्यवन्दनाकी क्रिया बताई गई है वही क्रिया जिस दिन जिनमगवानका महा अभिषेक हो उस दिन करनी चाहिये। अत एव इस नंदीश्वर क्रियाको ही अभिषेक वन्दना कहते हैं। अन्तर इतना ही है कि यहाँपर नन्दीश्वर चैत्यभाक्ति न करके केवल चैत्यभक्ति ही की जाती है । इसी प्रकार वर्षायोगके ग्रहण करनेपर और उसके छोडनेपर यह अभिषेक वन्दनाही मंगलगोचरमध्यान्हवन्दना कही जाती है। अत एव
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यहां पर भी नंदीश्वर क्रिया ही करनी चाहिये । और विशेष यह कि नन्दीश्वरभक्तिकी जगह केवल चैत्यभक्ति ही करनी चाहिये। जैसा कि कहा भी है कि
अहिसेय वंदणासिद्धचेदिय पंचगुरुसंतिभत्तीहिं । कीर मंगळगोयर मज्झण्डियवंदणा होइ ॥
अर्थात् — सिद्धभक्ति चैत्यभक्ति पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्तिके द्वारा अभिषेकवन्दना की जाती है । और इन्ही द्वारा मंगलगोचरमध्यान्हवन्दना भी हुआ करती है ।
मंगलगोचर बृहत्प्रत्याख्यानकी विधि बताते हैं:लात्वा बृहत्सिद्धयोगिस्तुत्या मङ्गलगोचरे । प्रत्याख्यानं बृहत्सूरिशान्तिभक्ती प्रयुञ्जताम् ॥ ६५ ॥
मंगलगोचर क्रिया करनेमें आचार्य आदिकोंको बृहत् सिद्धभक्ति और बृहत् योगिभक्ति करके भक्त प्रत्याख्यानको ग्रहण कर वृहत् आचार्यभक्ति और बृहत् शांतिभक्ति करनी चाहिये । यहाँपर " प्रयुञ्जताम्,” यह बहुवचन क्रियाका जो निर्देश किया है उससे इस बातका बोधन कराया है कि यह क्रियां आचार्य आदि
सब संघको मिलकर करनी चाहिये ।
प्रकरण के अनुसार दो इलोकों में वर्षायोग के ग्रहण और त्याग करने की विधिका उपदेश करते हैं:
ततश्चतुर्दशीपूर्वरात्रे सिद्धमुनिस्तुती ।
चतुर्दिक्षु परीत्या ल्पाश्चैत्यभक्तीर्गुरुस्तुतिम् ॥ ६६ ॥
शान्तिभक्ति च कुर्वाणैर्वर्षा योगस्तु गृह्यताम् ।
ऊर्जकृष्ण चतुर्दश्यां पश्चाद्रात्रौ च मुच्यताम् ॥ ६७ ॥ ( युग्मम् )
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ऊपर भक्त प्रत्याख्यानको ग्रहण करनेकी जो विधि बताई है तदनुसार उसके ग्रहण करनेके अनंतर आ. चार्य प्रभृति माधुओंको वर्षायोगका प्रतिष्ठापन करना चाहिये और चातुर्मासके अंत में उसका निष्ठापन करना चाहिये । इस प्राष्ठिापन और निष्ठापनकी विधि इस प्रकार है
चार लघु चैत्यभक्तियोंको बोलते हुए और पूर्वादिक चारो ही दिशाओं की तरफ प्रदक्षिणा देते हुए आषाढ शुक्ला चतुर्दशीकी रात्रिको पहले ही प्रहरमें सिद्धभक्ति और योगिभाक्ति का भी अच्छी तरह पाठ करते हुए और पंचगुरुभक्ति तथा शांति भक्तिको भी बोलकर आचार्य और इतर सम्पूर्ण साधुओंको वर्षायोगका प्रतिष्ठापन करना चाहिये भावार्थ-पूर्व दिशाकी तरफ मुख करके वर्षायोगका प्रतिष्ठापन करनेकेलिये “यावन्ति जिनचेत्यानि" इत्यादि श्लोकका पाठ करना चाहिये । पुनः आदिनाथ भगवान और दूसरे अजितनाथ भगवान् इन दोनोंका ही स्वयंभू स्तोत्र बोलकर अंचलिका सहित चैत्यमक्ति करनी चाहिये । यह पूर्व दिशाकी तरफकी चैत्य चैत्यालयकी वन्दना है । इसी प्रकार दक्षिण पश्चिम और उत्तरकी तरफकी वन्दना भी क्रमसे करनी चाहिये । अंतर इतना है कि जिस प्रकार पूर्वदिशाकी वंदनामें प्रथम द्वितीय तीर्थकरका स्वयम्भूस्तोत्र बोला जाता है उसी प्रकार दक्षिण दिशाकी तरफ तीसरे चौथे संभवनाथ और अभिनन्दन नाथका तथा पश्चिमकी तरफ की वन्दना करते समय पांच छहे सुमतिनाथ और पद्मप्रभु भगवान्का और उत्तर दिशाकी वन्दना करते समय सातवें आठवें सुपार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभुका स्वयंभूस्तोत्र बोलना चाहिये । और बाकी क्रिया पूर्वदिशाके समान ही समझनी चाहिये ।
यहांपर चारो दिशाओंकी तरफ प्रदक्षिणा करनेकेलिये जो लिखा है, उस विषयमें वृद्धसम्प्रदाय ऐसा है कि पूर्वदिशाकी तरफ मुख करके और उधरकी वन्दना करके वहीं बैठे बैठे केवल भावरूपसे ही प्रदक्षिणा करनी चाहिये।
यह वर्षायोगके प्रतिष्ठापनकी विधि है । यही विधि निष्ठापन में भी करनी चाहिये । अर्थात् कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीकी रात्रिको अंतिम प्रहरमें पूर्वोक्त विधान के अनुसार ही आचार्य और साधुओंको वर्षायोगका निष्ठापन कर देना चाहिये।
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मानगार
महीने त
मांस करना
इस वर्षायोगकी विधिमें और भी जो विशेषता है उसको दो श्लोकोंमें बताते हैं:
मासं वासोऽन्यदैकत्र योगक्षेत्रं शुचौ व्रजेत् । मार्गेऽतीते त्यजेच्चार्थवशादपि न लंघयेत् ॥ ८॥ नभश्चतुर्थी तद्याने कृष्णां शुक्लो पञ्चमीम् ।
यावन्न गच्छेत्तच्छेदे कथंचिच्छेदमाचरेत् ॥ ६॥ वर्षायोगके सिवाय दूसरे समय-हेमन्त आदि ऋतमें भी आचार्य आदि श्रमणसंघको किसी भी एक स्थान या नगर आदिमें एक महीने तक के लिके निवास करना चाहिये । तथा आषाढ में मुनिसंघको वर्षायोगस्थानके लिये जाना चाहिये । अर्थात जहां चातुर्मास करना है वहां आषाढमें पहुंचजाना चाहिये । और मगसिर महीना पूर्ण होनेपर उस क्षेत्रको छोड देना चाहिये। परन्तु इतना और भी विशेष है कि उस योगस्थानपर जानेकेलिये श्रावण कृष्णा चतुर्थीका अतिक्रमण कमी नहीं करना चाहिये ।
भावार्थ-यदि कोई धर्मकार्यका ऐसा विशेष प्रसङ्ग उपस्थित हो जाय कि जिसमें रुक जानेसे योगक्षेत्र में आषाढके भीतर पहुंचना न बन सके तो श्रावण कृष्णा चतुर्थीतक पहुंच जाना चाहिये । परन्तु इस तिथिका उल्लंघन किसी प्रयोजनके वशीभूत होकर भी करना उचित नहीं है। इसी प्रकार साधुओंको कार्तिक शुक्ला पंचमीतक योगक्षेत्रके सिवाय अन्यत्र प्रयोजन रहते हुए भी विहार न करना चाहिये । अर्थात् यद्यपि वर्षायोगका निष्ठापन कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीको हो जाता है फिर भी साधुओंको कार्तिक शुक्ला पंचमीतक उसी स्थानपर रहना चाहिये। यदि कोई कार्यविशेष हो तो भी तबतक उस स्थानसे नहीं जाना चाहिये।
यहाँपर जो वर्षायोग धारण करने की विधि बताई है उसमें यदि किसी घोर उपसर्ग आदिके आ उपस्थित होनेसे विच्छेद पडजाय अर्थात किसी कारणसे उसके समय आदिका यदि अतिकम हो जाय तो साधुसंघको उचित है कि उसके लिये प्रायश्चित्त धारण करें।
भी विश
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बनगार
वीर भगवान्को निर्वाण कालिक क्रिया करनेके विषयमें जो आगमका निर्णय है उसको बताते हैं:
योगान्तेऽकोंदये सिद्धनिर्वाणगुरुशान्तयः । प्रणुत्या वीरनिर्वाणे कृत्यातो नित्यवन्दना ॥७॥
कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीकी रात्रिके अंतिम प्रारमें वर्षा योगका निष्ठापन कर चुकनेपर श्री वर्धमान तीर्थकर भगवान्की निर्वाण क्रिया सूर्यका उदय होनेपर सिमक्ति निर्वाणमाक्ति पंचगुरुमाक्ति और शांतिमाक्त बोलकर वन्दना करके करनी चाहिये । इसके बाद साधुओं और श्रावकोंको नित्यवंदना करनी चाहिये।
भावार्थ-वर्षायोगका निष्ठापन और उसके बाद सूर्योदयके होनेपर वीर निर्वाण क्रिया और तदनंतर . नित्यवंदना । इस प्रकार क्रमसे क्रिया करनी चाहिये । पंचकल्याणकके समय करने योग्य क्रियाओं के विषयमें आगमका निर्णय प्रकट करते हैं:
__ साद्यन्तसिद्धशान्तिस्तुति जिनगर्भजनुषोः स्तुयादत्तम् ।
निष्क्रमणे योग्यन्तं विदि श्रुताद्यपि शिवे शिवान्तमपि ॥ ७॥
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तीर्थकर भगवानका गर्मावतार कल्याणक अथवा जन्मकल्याणक जब हो तब साधुओंको यद्वा श्रावकों को क्रमसे सिद्धभक्ति चारित्रमाक्त और शान्तिमात बोलकर उस समयकी क्रिया करनी चाहिये । तथा निष्क्रमणदीक्षाकल्याणककी क्रिया मुनियों व श्रावकोंको क्रमसे सिद्धभाक्त चारित्रभाक्त योगिमाक्त और शांतिमाक्त बोलकर करनी चाहिये. इसी प्रकार ज्ञान कल्याणकी क्रिया क्रमसे सिद्धमाक्त श्रुतभाक्त चारित्र भाक्त योगिमक्ति और शांतिमक्ति बोलकर करनी चाहिये । एवं निर्वाण कल्याणक अथवा निर्वाण क्षेत्रकी वन्दना क्रिया क्रमसे सिद्धमक्ति श्रुतमक्ति चारित्रमक्ति योगिभक्ति निर्वाणमक्ति और शांतिभात बोलकर करनी चाहिये ।
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बनगार
भावार्थ-पंचकल्याणक प्रतिष्ठा आदिमें तत्तत्कल्याणकके समय साधुओं और श्रावकोंको उस समयको क्रिया ऊपर लिखे मूजब माक्त पाठ बोलकर करनी चाहिये ।
ऋषि अथवा सिद्धान्त वेत्ता मुनि आदि यदि मरणको प्राप्त होजाय तो उनके शरीरकी अथवा निषधिका की वन्दना क्रिया करनेमें क्या क्या विशेषता है उसका निर्णय दो आर्यापोंके द्वारा बताते हैं:
वपुषि ऋषेः स्तौतु ऋषीन् निषेधिकायां च सिद्धशान्त्यन्तः सिद्धान्तिनः श्रुतादीन् वृत्तानुत्तरव्रतिनः ॥ ७२ ॥ द्वियुजः श्रुतवृत्तादीन् गणिनोऽन्तगुरून् श्रुतादिकानपि तान् ।
समयविदोऽपि यमादीस्तनुक्लिशो द्वयमुखानपि द्वियुजः ॥ ७३ ॥ ऋषि आदिकोंके शरीर अथवा निषेधिकाकी वन्दना भक्ति करनेमें प्रवृत्त हुए साधुओंको जिस विधिसे वन्दना करनी चाहिये वह इस प्रकार है। यदि किसी सामान्य साधुका मरण हो जाय तो उसके शरीरकी अथवा निषद्याभूमिकी वन्दना सिद्धमक्ति योगिक्ति और शांतिमक्तिको क्रमसे बोलकर करनी चाहिये । और यदि कोई सामान्य साधु सिद्धान्त वेत्ता हो तो उनका मरण होनेपर उनके शरीरकी या निषद्याभूमिकी वन्दना क्रमसे सिद्धमाक्त श्रुतभक्ति योगिभक्ति और शांतिभक्ति बोलकर करनी चाहिये । यदि कोई उत्तर व्रतोंको धारण करनेवाला साधु मरणको प्राप्त हो जाय तो उसके शरीरकी अथवा निषद्याभूमिकी वन्दना सिद्धभक्ति चारित्रमाक्ति योगिभक्ति और शांतिमक्ति पढकर करनी चाहिये । यदि कोई साधु सिद्धान्त वैत्ता मी हो और उत्तर व्रतोंको धारण करनेवाला भी हो और उसका मरण हो जाय तो उसके शरीरकी तथा निषद्याभूमिकी वंदना क्रमसे सिद्धमाक्त श्रुतमक्ति चारित्रभक्ति योगिभक्ति और शांतिभक्ति बोलकर करनी चाहिये । इसी प्रकार जो ऋषि आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हैं उनका यदि मरण हो जाय तो उनके शरीरकी या निषद्याभूमिकी वन्दना क्रमसे सिद्धभक्ति योगिभक्ति आचार्यभक्ति और शांतिभक्ति बोलकर करनी चाहिये । तथा यदि कोई आचार्य सिद्धान्तवेता हो
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और उनका मरण हो जाय तो उनके शरीरकी अथवा निषद्या भूमिको बन्दना क्रमसे सिद्धभक्ति श्रुतभक्ति योगमति आचार्यभक्ति और शांतिभक्ति बोलकर करनी चाहिये । किंतु जो ऋषि आचार्यपद पर भी प्रतिष्ठित हैं और काय क्लेश तपके धारण करनेवाले भी हैं यदि उनका मरण हो जाय तो उनके शरीरकी या निषद्या भूमिकी वन्दना क्रमसे सिद्धभक्ति योगिभक्ति चारित्रमक्ति आचार्यभक्ति और शांतिभक्ति बोलकर करनी चाहिये । यदि कोई ऋषि आचार्य भी हैं और सिद्धान्तवेत्ता तथा कायक्लेश तपके धारण करने वाले भी हैं उनका यदि मरण हो जाय तो उनके शरीरकी अथवा निषद्याभूमिकी वन्दना क्रमसे सिद्धभक्ति श्रुतमक्ति चारित्रमक्ति योगिभक्ति आचार्यभक्ति और शांतिभक्तिबोलकर करनी चाहिये । इस विषय में कहा भी है कि:--
काये निषेधिकायां च मुनेः सिद्धशान्तिभिः । उत्तरव्रतिनः सिद्धवृत्तार्षशान्तिभिः क्रियाः ॥ सैद्धान्तस्य मुनेः सिद्धश्रुतर्षिशान्तिभक्तिभिः । उत्तरव्रतिनः सिद्धभुतवृत्तार्प शान्तिभिः ॥ सूरेर्निषेधिकाका सिध्दर्षिसूरिशान्तिभिः शरीरवेशिनः सिदवृत्तर्षिणिशान्तिभिः ॥ सैध्दान्ताचार्यस्य सिध्दश्रुतर्षिसूरिशान्तयः । अस्य योगे सिध्दश्रुतवृत्तर्षिगणिशान्तयः ॥
श्रीअरहंत भगवान्की स्थिरप्रतिमाकी प्रतिष्ठा और चल प्रतिमाकी प्रतिष्ठा के समय की विधि और उस प्रतिष्ठा के समय में ही चतुर्थ दिनको किये जानेवाले अभिषेकके क्रिया विशेषको बताते हैं ।
स्यात्सिद्धशान्तिभक्तिः स्थिरचलजिनबिम्बयोः प्रतिष्ठायाम् । अभिषेकवन्दना चलतुर्यस्नानेस्तु पाक्षिकी त्वपरे ॥ ७४ ॥
स्थिरप्रतिमाकी प्रतिष्ठा अथवा चल प्रतिमाकी प्रतिष्ठा के समय सिद्धभक्ति और शांतिभक्तिको बोलकर
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वन्दना क्रिया करनी चाहिये। किंतु जिनभगवान्की चल प्रतिमाकी प्रतिष्ठाके चतुर्थ दिनके अभिषेक के समय अभिषेक वन्दना अर्थात सिद्धभक्ति चैत्यभाक्ते पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्तिको बालकर वन्दना करनी चाहिये । और स्थिर प्रतिमाकी प्रतिष्ठा के चतुर्थ दिनके अभिषेक के समय पाक्षिकी क्रिया करनी चाहिये । अर्थात् सिद्धभक्ति चारित्रमा बृहदालोचना और शांतिभक्ति बोलकर वन्दना करनी चाहिये। परन्तु यह नियम केवल साधुओं के लिये समझना । जो स्वाध्यायको ग्रहण नहीं कर सकते उन गृहस्थोंकेलिये यह नियम नहीं है । उनको चाहिये कि आलोचनाको छोड़कर बाकी भक्ति बोलकर ही क्रिया करें। इस विषय में अन्यत्र भी कहा है कि:
चलाचलप्रतिष्ठायां सिद्धशान्तिस्तुतिर्भवेत् । वन्दना चाभिषेकस्य तुर्यस्नाने मता पुनः ॥ सिद्धवृत्तनुतिं कुर्याद्वृहदालोचनां तथा । शान्तिमाकं जिनेन्द्रस्य प्रतिष्ठायां स्थिरस्य तु ॥
अर्थात् चल और अचल प्रतिष्ठा में सिद्धभक्ति और शांतिभक्तिके द्वारा तथा चतुर्थ दिनके स्नान के समय अभिषेक वन्दना के द्वारा और अरहंतकी स्थिर प्रतिमाकी प्रतिष्ठा में सिद्धभक्ति चारित्रभक्ति बृहदालोचना और शांतिभक्ति के द्वारा क्रिया करनी चाहिये।
नामीतिक क्रियाओंके वर्णन के प्रकरण में यहां पर आचार्य पदका प्रतिष्ठापन करते समय जो क्रिया की जानी चाहिये उसकी विधि बताते हैं:
सिद्धाचार्यस्तुती कृत्वा सुलभे गुर्वनुज्ञया ।
लात्वाचार्य पदं शान्ति स्तुयात्साधुः स्फुरद्गुणः ॥ ७५ ॥
आचार्य पदके योग्य छत्तीस विषेष गुण हुआ करते हैं। ये गुण जिन साधुओंमें पाये जाते हैं वेही इस पदपर स्थापित किये जाते हैं। इन गुणोंकी संज्ञा और स्वरूप आगे चलकर लिखेंगे। यहां पर इस पद की प्रतिष्ठापन
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क्रियाकी विधि बताते हैं, सो इस प्रकार है कि-जिसके वक्ष्यमाण ३६ गुण सम्पूर्ण संघके हृदय में विशेष चमत्कार उत्पन्न कर रहे हैं ऐसे साधुको अपने गुरुकी आज्ञा-अनुमतिसे शुभ मुहूर्तमें सिद्धभक्ति और आचार्यभाक्तिको बोलकर आचार्यपद ग्रहण करना चाहिये । और उसके बाद शांतिभक्ति करनी चाहिये ।
भावार्थ--जिसमें आचार्यपदको धारण करने योग्य गुणोंको देखते हैं आचार्य उस साधुको इस पदके ग्रहण करनेकी आज्ञा देते हैं और इसकेलिये शुभ मुहूर्त निश्चित करते हैं । और वह साधु उनकी आज्ञानुसार उस
शुभ मुहूर्तमें उस पदको ग्रहण करता है। . प्रारम्भमें सम्पूर्ण संघके समक्ष वह साधु सिद्धभक्ति और आचार्य भक्ति करता है : अनंतर आचार्य परमेष्ठी उससे कहते हैं कि आजसे तुम रहस्य-प्रायश्चित्तशास्त्रका अध्ययन और दीक्षा देने आदिका जो आचार्यपदका यार्य है उसको कर सकते हो। अब तुमको ये कार्य करने चाहिये। इस प्रकार समस्त संघके समक्ष माषण देकर उस साधुको पिच्छिका समर्पण करते हैं। और वह साधु उस पिच्छीको ग्रहण करता है । इसीको आचार्य पदका ग्रहण करना कहते हैं । इसके बाद उस साधुको शांतिभक्तिके द्वारा वंदना करनी चाहिये । जैसा कि चारित्रासारमें भी कहा है कि-"गुरूणामनुज्ञायां विज्ञानवैराग्य संपनो विनीतो धर्मशीलः स्थिरश्च भूत्वाचार्य पदव्या योग्यः साधुर्मुरुसमधे सिद्धाचार्यभक्ति कृत्वाचार्यपदवीं गृहीत्वा शांतिभक्ति कुर्यात् । " अर्थात् जो विशिष्ट ज्ञान और वैराग्यकी सम्पत्तिसे युक्त तथा विनयगुणको धारण करनेवाला धर्माचरणमें ही सदा निष्ठा रखनेवाला और प्रकृतिसे ही स्थिर है वह साधु आचार्य पदवीके योग्य समझना चाहिये । ऐसे साधुको गुरुकी आज्ञासे उनके ही समक्ष सिद्धभक्ति और आचार्यभक्ति बोलकर आचार्य पदको ग्रहण कर शांतिभक्ति करनी चाहिये। आचार्यपदकी योग्यता सिद्ध करनेवाले छत्तीस गुण कौनसे हैं सो बताते हैं:
अष्टावाचारवत्त्वाद्यास्तपांसि द्वादश स्थितेः। कल्पा दशाऽऽवश्यकानि षट् षट्त्रिंशद्गुणा गणेः ॥ ६ ॥
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जो अङ्गसहित प्रवचनका मौनपूर्वक अध्ययन करता है उसको गणी कहते हैं। आचार्य भी अङ्गसहित प्रवचन के अध्येता हुआ करते हैं, अतएव उनको मी गणी कहते हैं । यहांपुर " गणेः " इसकी जगह " गुरोः " ऐसा भी पाठ माना है । अर्थात् आचार्य-गणी - गुरुके छत्तीस विशेष गुण हैं। यथा-आचारवच्च आधारवश्व आदि आठ गुण, और छह अन्तरङ्ग तथा छह बहिरङ्ग मिलाकर बारह प्रकारका तप, तथा संयम के अन्दर निष्ठाके सौष्ठव उत्तमताकी विशिष्टताको प्रकट करनेवाले आविलक्य आदि दश प्रकारके गुण- जिनको कि स्थिविकल्प कहते हैं, और सामायिकादि पूर्वोक्त छह प्रकारके आवश्यक ।
भावार्थ - आचारवावादि आठ, बारह तप, स्थितिकल्प दश और छद्द आवश्यकः इस प्रकार कुल मिलकर आचार्य छतीस गुण माने हैं।
आचारवश्व आदि आठ गुणों को गिनाते हुए उनका स्वरूप बताते हैं:
आचारी सूरिराधारी व्यवहारी प्रकारकः । आयापार्यादिगुत्पीडोsपरिस्रावी सुखावहः ॥ ७७ ॥
आचारवच्व, आधारवश्व, व्यवहारपटुता, आयापायदेशना, उत्पीलन, अपरिस्रवण, और सुखावहन, ये आठ गुण आचार्य में होने चाहिये । इनका स्वरूप इस प्रकार है-
आचार पांच प्रकारका है- ज्ञानाचार दर्शनाचार चारित्राचार तपआचार और वीर्याचार। इन पांचो ही प्रकार के आचरणका स्वयं पालन करना दूसरोंसे कराना और उसका उपदेश देना इसको आचारवत्त्व कहते हैं । ये गुण जिनमें पाया जाय उनको आचारी कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
आचारं पचविधं चरति च चारयति यो निरतिचारम् । उपदिशति सदाचारं भवति स आचारवान् सूरिः ॥
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जिस श्रुतज्ञानरूप संपचिकी कोई तुलना नहीं कर सकता उसको अथवा नौ पूर्व दश पूर्व या चौदह पूर्वतक श्रुतज्ञानको, या कल्पव्यवहारके धारण करनेको आधाश्वस्थ कहते हैं। यह गुण जिनमें पाया जाय ऐसे मतिज्ञानके समुद्र आचार्य को आभारी कहते हैं। जैसा कि कहा भी है किः -
नवदश चतुर्वशाणां पूर्वाणां वेदिता मतिसमुद्रः । कल्पव्यवहारधरः स भवत्याचारवान् नाम ॥
व्यवहार नाम प्रायश्चित्तका है. वह आगम आदि के भेदसे पांच प्रकारका है. इसकी कुशलताको डी व्यवहारपटुता कहते हैं । जो आचार्य रस विषय के ज्ञानको रखनेवाले हैं, जिन्होने अनेक वार प्रायश्चित्तको देते हुए देखा है, और जिन्होने स्वयं भी अनेकवार उसका प्रयोग किया है, स्वयं प्रायश्चित्त ग्रहण किया है, दूसरोंको दिया है, अथवा दिलवाया है उनको व्यवहारी अथवा व्यवहारपटु कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि
पचविधं व्यवहारं यो मनुते वस्तुतः सविस्तारम् । कृतकारितोपखन्धप्रायश्चित्तस्तृतीयस्तु ॥
व्यवहारके पांच भेद जो बताये हैं उनका खुलासा करते हैं:
भागमा श्रुतं चाज्ञा धारणा जीत एव च । व्यवहारा भवन्त्येते निर्णयस्तत्र सूत्रतः ।!
व्यवहार - प्रायश्चित पांच प्रकारका है, -आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत। इन विषयोंका निर्णय सूत्र के अनुसार हुआ करता है । ग्यारह अंगशास्त्रों में जो प्रायश्चित बताया गया है अथवा उनके आधार से जो प्रायाचिस दिया जाता है उसको आगम कहते हैं। इसी प्रकार चौदह पूर्वेमें बताये हुए अथवा तदनुसार दिये
१ - सुत्रका लक्षण पहले बता चुके हैं।
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गये प्रायश्चित्तको भुत कहते हैं। सपाधि परण के लिये उद्यन हए ऐसे आचार्य कि जिनकी जंघानोंका बल नष्ट होगया है-को चलने फिरनेकी सामर्ष नहीं रखते, और जो ऐपी जगह स्थाकि जहर और कोई आचार्य उपस्थित नहीं हैं, वे आचार्य किसी दूपरे योग्य आचार्य के समीप अपने समान योग्य पेष्ठ शिष्यके द्वारा अपना संवाद मेजते हैं और उस शिष्य ही मुखमे उन आचार्य परमेष्ठौके समक्ष अपने दोषों का आलोचन करते हैं, तथा उन आचार्य के दिये हुए प्रायश्चित्त को ग्रहण करते हैं। इस तरह के प्रायश्चित्त को आज्ञा करते हैं। यदि कोई ऐसे ही आचार्य जो समाविमरणको उद्या और जंघाचलपे गीत होने के कारण चरो अपमर्थ किंतु उनके पास कोई शिष्य आदि नहीं है - असहाय है, ऐसी अवस्था वे अपने दोषों का मयं आलोच। कर के पहले के अवधारित प्रायश्चित्तको धारण करते हैं, उसको धारणा कहते हैं। बहत्तर पुरुषों की ओक्षा जो प्राया रत्त बताया जाता है उ. सको जीत कहते हैं। इन पांनो ही प्रकार के प्रायश्चित्तों जो निष्णात है उन आवाको व्यवहार टु कहते हैं।
समाधिमग्ण करनेमें प्रवृत्त हुए साधक साधु पोंकी परिचर्या-सेवा शुश्रृग-वैयावृत्त्य करने को परिचर्या कहते हैं । अर्थात् जो समाधिमरण कराने या उसकीय वृत्य करने का उनको परिचरी अथवा प्रभारी कहते हैं। आलोचना करने के लिय उद्या हुए थपक-समाधिपाण करनेवाले आधुके गुण और दोषोंके प्रकाशित करनेको आयापायदेशना कहते हैं। अर्थात् जो क्षपक किसी प्रकारका अतीचा आदि न लगाकर सरलमावोंसे अपने दोषोंका आलोचन करता है उसके गुगकी जो प्रमा करते अथवा उस गुण को प्रकट करते हैं और जो थपक आलोचन करनेमें दोष लगाता अथवा वक्र मावोंसे आलोचन करता है उपके दोषों को जो प्रकट करते हैं उनको आयापायदेष्टा अथवा गुणदोषप्रवक्ता कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
गुणदोषाणां प्रथक क्षपकस्य विशेषमालुलोचयिषोः ।
अनृजोरालोचयतो दोषविशेष प्रकाशयति ।। व्रतादिकोंमें लगे हुए ऐसे अतीचारोंका कि जो बाहर प्रकट नहीं हुए है-अभीतक अन्तरङ्गमें ही छिपे हुए है वमन करानेको-बाहर निकालनेको उत्पीलन कहते हैं । इस गुणके धारण करनेवाले गणधर-आचार्य उत्पीलक कहे जाते हैं। इस कार्यकेलिये आचार्यको बलवान् और सिंहके समान पराक्रमी तथा प्रतापी और ववन
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कुशल एवं प्रसिद्ध कीर्तिके धारण करनेवाला होना चाहिये। ऐसा होनेपर ही वे छिपे हुए दोषोंको बाहर निकालकर दूर कर सकते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
ओजस्वी तेजस्वी वाग्मी च प्रथितकीर्तिराचार्यः।
हरिरिव विक्रमसारो भवति समुत्पीलको नाम ॥ यदि किसी शिष्यने अपना दोष एकान्तमें आकर कहा और वह ऐसा दोष है कि जिसको प्रकट करना उचित नहीं है तो उस गोप्य दोषको प्रकाशित न करना अपरिस्र व नामका गुण कहा है. इस गुणके कारण जो आचार्य उस आलंचित गोप्य दोषको पानीके चूंट की तरह पीकर रह जाते हैं-प्रकाशित नहीं करते उनको अपरिस्रावी कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि
___ आलोचिताः कलवा यस्या यः पीततोयसंस्थायाः।
न परिस्रवन्ति कथमपि स भवत्यपरिस्रवः सूरिः॥ क्षुदादिके दुःखोंका उत्तम कथा आदिके द्वारा उपशमन करनेको सुखावह गुण कहते हैं । इस आठवें गुणके धारण करनेवाले आचार्यको भी सुखावह कहते हैं। इस गुगके कारण आचार्य क्षुधा आदिसे पीडित
क्षपकके समक्ष ऐसी कथा करते हैं कि जो गम्मीर स्नायुक मिष्ट अत्यंत मनोहर और कानोंको अतिशय सुख | देनेवाली हो और जिसके सुनते ही पूर्वकी उत्तम स्मृतिका उदध हो जाय । जैसा कि कहा भी है कि:
गम्भीरस्निग्धमधुगमतिहृद्यां श्रवःसुखाम् । ।
निर्वापकः कयां कुर्यात स्मृत्यानयनकारणम् । इस प्रकार अचार्यके आचारवत्व आदि आठ गुगोंका स्वरूप बताकर स्थितिकल्परूप दश गुणोंका स्वरूप दो श्लोकों द्वारा बताते हैं:
आचेलक्यौदोशकशय्याधरराजकीयापिण्डोझाः। ।
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कृतिकर्म व्रतारोपणयोग्यत्वं ज्येष्ठता प्रतिक्रमणम् ॥ ८॥ मासैकवासिता स्थितिकल्पो योगश्च वार्षिको दशमः ।
तनिष्ठः पृथुकीर्तिः क्षपकं निर्यापको विशोधयति ।। ८१॥ . आचेलक्य, औद्देशिकपिण्डका त्याग, शय्याधरापिण्डकात्याग, राजकीयपिण्डका त्याग, कृतिकर्म, व्रता. रोपणयोग्यता, ज्येष्ठता, प्रतिक्रमण, मासकवासिता, और योग, इस प्रकार स्थितिकल्प गुग दश हैं । इनका स्वरूप क्रमसे इस प्रकार समझना चाहिये ।
वनादिक सम्पूर्ण परिग्रहके अमावको अथवा नम्रताको आचलक्य कहते हैं । इसके अनेक फल है। व. त और संयमरूप आचरणमें इसके निमित्तसे विशुद्धि प्राप्त हुआ करती है। इन्द्रियों का अपने २ विषयोंसे निग्रह होता
अथवा उनपर विजय प्राप्त हुआ करता है। क्रोष मान माया आदि कषायों अथवा नोकषायोंका अभाव होता है। | ध्यान धारणा समाधि और स्वाध्याय आदिकी इसके ही निमितपे निर्विघ्नरूपसे और मलेप्रकार सिद्धि हुआ करती
है। अन्तरङ्ग और बहिरंग ग्रन्थि-मू रूप परिणाम अथवा बाह्य उपधियोंके संग्रहरूप ग्रंथि--बंधनका अभाव होता है। इससे राग और द्वेष वीतकर शरीरमें भी आदर भावका अमाव-उपेक्षा प्राप्त हुआ करती है । स्वतन्त्रताकी सिद्धि होकर आत्मा अपने ही अर्धान बनता-पराधीनताका अभाव होता है। मनोगत विशुद्धि-निर्मलताकी आचेलक्यके द्वारा ही प्रकटता हुआ करती है । मन और कृतिमें निर्मयता तथा समीजगह सुखपूर्वक और विना किसी झंझटके निर्वाहकी सिद्धि इसीसे हो सकती है । नम रहनेवाला साधु ही वस्त्र अथवा लंगोटी आदिके धोने घरी करने और संभालकर रखने आदिक क्रिया कर्म करनेकी दिक्कतोंसे दूर रह सकता है। शरीरको अलंकृत करने अथवा उसमें ममकारका भाव नम्रतासे ही कुश क्रिया जा सकता है। तीर्थकरोंके आचरणका अनुसरण भी नग्नतासे ही हो सकता है । और आत्मामें ही छिपे हुए बल पराक्रमका प्रादुर्भाव अथवा सिद्ध वृद्धि भी इसीसे हो सकती है। इत्यादि अपरिमित गुण नम्रताके द्वारा सिद्ध होते हैं। अतएव स्थितिकल्पगुणोंमें यह आचेलक्य नामका एक विशिष्ट गुण बताया है। इसका विस्तृत समर्थन जिनको जानना हो उन्हे श्री विजय आचार्यकी रचित संस्कृत
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मूलाराधनाके सुस्थित सूत्रकी टीका देखनी चाहिये । वहांपर इसका विशेष खुलासा किया गया है। अतएव ग्रन्थ विस्तारके भयसे यहांपर उसका विशेष वर्णन नहीं किया जाता । और इसीलिये श्री पवनन्दि आचार्यने मी सचे. लताके क्षणोंको संक्षेपमें ही बताया है। यथा:
म्लाने बाळनतः कृतः कृतजलाद्यारम्भतः संयमो,नष्टे व्याकुलचित्तताव महातामप्यन्यतःप्रार्थनम् । कोपीनेऽपि ते परैध गिति क्रोधः समुत्पद्यते,
तन्नित्यं शुचिरागहच्छमवतां वस्त्रं ककुम्मण्डलम् ॥ साधुओंके लिये कौपीनमात्र वनके मी धारण करनेमें कितना कष्ट और उत्कृष्टता या संयममें दोष उपस्थित होता है इसपर विचार करना चाहिये । कौपीनके मलिन होनेपर अवश्य ही उसको धोनेकालये प्रवृत्ति करनी पडेगी, और फिर उसकेलिये जलाने आदिका आरम्भ भी करना ही होगा। ऐसी अवस्थामें उसका संयम किस प्रकार स्थिर रह सकता है? नहीं रह सकता । यदि दूसरेको धोनेकेलिये दिया जाय तो भी हिंसा करानेके अपराधसे छुटकारा नहीं होता। कदाचित कौपीन कहीं गिरजाय खोजाय हवा में उडजाय या फट जाय तो मनमें व्याकुलता आये विना नहीं रह सकती। अथवा उसकलिये दूसरेसे प्रार्थना भी करनी ही पडेगी। और ऐसी अवस्थामें याचनाके निमित्चसे उनकी महत्ता या गुरुतामें कुछ न कुछ लघुता भी आये विना नहीं रह सकती। यदि कदाचित् उसको कोई चुरा लेजाय अथवा छींडले तो तत्काल क्रोध भी आये बिना नहीं रह सकता। अत एव परम शांतिकी इच्छा रखनेवाले मुमुक्षुओंको यही उचित है कि वे सम्पूर्ण दिशाओंके समूहको ही वस्त्रके स्थानपर धारण करें। या वन नित्य है-नैसर्गिक होनेसे कभी भी नष्ट होनेवाला या चोरी जानेवाला नहीं, समस्त मलदोषोंसे रहित होने के कारण अत्यंत पवित्र है, एवं रागद्वेषको दूर करनेवाला है, इसके निमित्तसे याचना आदिके द्वारा लघुता प्राप्त नहीं होती, बौर न याचनाके व्यर्थ जानेपर मान मंग आदिके द्वारा चित्तमें किसी प्रकारकी कम्मलता ही उत्पन होती है। अत: संयमियोंको यह निर्विकार बन ही धारण करना चाहिये । जैसा कि श्री सोमदेव आचार्यने भी कहा है कि:-..
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१.
नैष्किंचन्यमहिंसा च कुतः संयमिना भवेत् । ते सङ्काय पदीहन्ते वल्कलाजिनवाससाम् ॥ विकारे विदुषां दोषो नाविकारानुवर्तने।
तन्नमत्वे निसर्गोत्थे को नाम द्वेषकल्मषः ॥ अर्थात्-विकृत अवस्थाके प्राप्त करनेमें विद्वान् दोष समझते हैं नकि निर्विकार स्वरूपके धारण करनेमें । अत एव ऐसा कौन विवेकी होगा जो कि नैसर्गिक नग्रताके विषय में द्वेष के वश होकर कष्मलताधारण करेगा। संयमी ममाओं का आकिंचन्य-अपरिग्रह और अहिंसावत तथा संयम कमी सिद्ध नहीं हो सकता यदि वे बक्कल चर्म या किसी भी तरह के वस्त्र के परिग्रहको धारण करनेका प्रयत्न करें, या उसका भाव रखें।
जो मुनियों के उद्देश्यसे तयार किया गया है ऐसे भोजनपान आदि द्रायके ग्रहण न करनेको औदेशिक पिण्डका त्याग कहते हैं।
वसतिका वनवानेवाला और उसका संस्कार करनेवाला तथा वहाँपर व्यवस्था अदि करनेवाला ये तीनों ही शय्याधर शब्दसे कहे जाते हैं। इनके पिण्ड अर्थात् मोजन उपकरण आदि द्रव्यके ग्रहण न करनेको शय्याधर पिण्डोज्झा कहते हैं । जहाँपर शय्याधर पिण्डका ग्रहण हो वहां दाताको धर्मफलके लोमसे आहारादिक प्रच्छन्न रूपसे ही योजित करना चाहिये । अर्थात् में शय्याधर हूं मेरे यहां भोजन होना ही चाहिये ऐप्ता भाव न रखकर अथवा इस बातको प्रकट न करके ही आहार दानमें प्रवृत होना चाहिये । जहाँपर ऐसा प्रकट करके आहारकी व्य. वस्थाकी गई हो उस आहारको ग्रहण न करना चाहिये । अथवा जो आहारदान नहीं कर सकता ऐसा कोई दरिद्र व्यक्ति है यद्वा ऐसा कोई लोभी पुरुष है तो उसको चाहिये कि वह वसतिकाका दान न करे । “मैं वसतिकाका दान तो करूंगा और आहारदान न करूंगा तो लोक मेरी निन्दा करेंगे। कहेंगे कि देखो इसकी वसतिका साधु ओने आकर निवास किया परन्तु इस मंदभाग्यने उनको आहार भी न दिया" ऐसा भाव रखकर जो वसतिका और बाहारका दान किया जाता है वह ग्रहण न करना चाहिये । क्योंकि ऐसा होनेते अत्यंत उपकारिताके कारण
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संयमियोंको स्नेहका भाव उत्पन्न हो सकता है। जिससे कि अनेक दोष और भी लग सकते हैं।
बचार
कितने ही ग्रन्थकारोंने शय्याधाविण्डोज्झाकी जगह श्य्यागृहपिण्डोझा ऐसा पाठ दिया है। उसका खुलासा इस प्रकार किया जाता है कि रास्तेमें कहींको जाते हुए रात्रिको जिस गृह-वसतिमें ठहरना या शयन आदि क्रिया करनी पडे वापर दूसरे दिन आहार न करना चाहिये । अथवा वसतिका संबन्धी द्रव्य के निमित्तसे जो भोजन आदि तयार हुआ हो उसको ग्रहण न करना यही शय्यागृहपिण्डोज्झाका अभिप्राय है। .
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चौथा स्थितिकल्प गुण राजकीयपिण्डोज्झा है। इसमें राजशब्दका अर्थ इक्ष्वाकु कुरु उग्रनाथ हरि आदि कुल, अथवा प्रकृति-प्रजाको पालन पोषण आदिके द्वारा अनुरंजित करनेवाला, यद्वा उसके समान् ऋद्धि के धारण करनेवाला होता है। ऐसे व्यक्तियों के घर जाकर भोजन ग्रहण न करना इसको राजकीयविण्डोज्या कहते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि-ऐसे घरी जो नानाप्रकारके भयंकर कुत्ते आदि जान्वर स्वच्छन्द रूपसे फिरते रहते हैं उनके द्वारा उन घरों में प्रवेश करनेपर संयमीका अपघात हो सकता है । मुनिके स्वरूपको देखकर वहां घोडे गाय भैस आदि पशु बिजुक सकते हैं। और बिजुक कर स्वयं त्रासको प्राप्त हो सकते अथवा दयरों को भी त्रास दे सकते हैं, यद्वा संयमीको भी उनसे त्रास हो सकता है । गर्वसे उद्धत हुए वहांके नौकर चारो द्वाग साधुका उपहास हो सकता है । अथवा महलोमे गेककर क्खी हुई और थुनमज्ञा- रमण करनेकी इच्छासे पीडित रहनेवाली, यद्वा पुत्र आदि संततिकी अभिलाषा रखने वाली स्त्रियं अपने साथ उपभोग करने केलिये उस संयमीको जबर्दस्ती अपने घरमें ले जा सकती सुवणे कल अथवा उनके बने हुए भूषण जो इधर उधर पडे हों उनको कोई स्वयं चुराकर लेजाय और यह हल्ला करदे कि यहाँपर मुनि आये थे और तो कोई आया नहीं, ऐसी अवस्थामें मुनिके ऊपर चोरी का आरोप उपस्थित हो सकता है। यहांर ये साधु आते है सो कहीं ऐसा नोकिमहाराज इनपर विश्वास कर बैठे और इनकी बातोंमें आकर राज्यको नष्ट करदें, ऐसे विचारोंसे क्रोधादिके वशीभूत हुए दीवान मंत्री आदिक द्वारा संयमीका वध धादिक भी हो सकता है। इनके सिवाय ऐसे स्थानों में आहारकी विशुद्धि मिलना कठिन, दुध आदि विकृतिका सेवन और लोमश अमूल्य
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रत्न आदिकी चोरी तथा परस्त्रियोंको देखकर रागभावका उद्रेक एवं वहांकी लोकोत्तर विभूतिको देखकर उसकेलिये निदान भावका हो जाना भी संभव है । इत्याद अनेक कारण है कि जिनके निमित्तसे राजपिण्डको वयं बताया है। अत एव जहाँपर ये दोष संभव न हों, अथवा दुपरी जगह आहारका लाभ असंभव हो, तो श्रुतमें विच्छेद न पडे इसकेलिये राजकीयपिण्डका मी ग्रहण किया जा सकता है। अर्थात् ऐसी अवस्थामें संयमी जन अपने तप संयम और भ्यान स्वाध्याय आदिके साधनको कायम रखनेकेलिये राजापेण्डको मी ग्रहण कर सकते हैं। क्योंकि उसको वयं जो माना है सो उपयुक्त दोषोंकी संभावनासे ही माना है।
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पांचवां स्थितिकल्प गुण कृतिकर्म है। पूर्वोक्त छह आवश्यकोंका पालन करना अथवा गुरुजनोंका विना यकर्म करना इसको कृतिकर्म कहते हैं । इसका स्वरूप पहले लिखा जा चुका है।
व्रतोंके आरोपण करनेकी योग्यताको छहा स्थितिकल्प गुण समझना चाहिये । इसकेलिये जो आचेलक्यमें स्थित है, तथा औद्देशिक आदि पिण्डका त्याग करनेमें उद्यत रहता है, गुरुजनोंकी भक्ति करनेवाला तथा विनयशील है उसको व्रतारोपणके योग्य समझना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि
आचेलके य ठिदो उद्देसादीय परिहरवि दोसे ।
गुरुभत्तिमं विणीदो होदि वदाणं स अरिहो दु । जो उत्पत्तिकी अपेक्षा माता और पिता अर्थात् जाति और कुलके सम्बन्धमें महान हैं, जो वैभव प्रताप और कीर्तिकी अपेक्षा गृहस्थोंमें भी महान रहे हैं, जो ज्ञान और चर्या आदिमें उपाध्याय तथा आर्थिका आदिसे भी नहान हैं, एवं क्रियाकर्मके अनुष्ठान द्वारा भी जिनमें श्रेष्ठता पाई जाती है उन आचार्यों को स्थितिकल्प सातवें ज्येष्ठतागुणसे युक्त समझना चाहिये। आठवां स्थितिकल्पगुण प्रतिक्रमण है। इसका स्वरूप पहले बताचुके हैं।जो इस के करने और करानेवाले हैं उनको इस आठवें गुणसे युक्त समझना चाहिये । नौवां स्थितिकल्प गुण मासैकवासि ता है। अर्थात् जिनके तीस दिनरात्रितक एक ही स्थानमें या ग्राम आदिमें रहनेका व्रत हो उनको इस गुणसे युक्त
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समझना चाहिये । साधुओंको एक ही स्थानमें अधिक दिनतक रहनेसे अनेक दोष लग सकते हैं। यथा-उद्गम आदि दोषोंका परिहार नहीं किया जा सकता, उसी स्थानसे प्रतिबन्ध होजाता है-वहाँके निवासियोंसे या उस स्थानले ही राग होजाता है। गौरवमें कमी आती अथवा लघुता प्राप्त होती है, आलस्य-प्रमादकी उत्पत्ति
और बृद्धि होती है, शरीर अथवा मनमें सुकुमारताका भाव जागृत होता है, भावनाका अभाव और ज्ञातमिक्षाका ग्रहण होता है, इत्यादि अनेक दोष एक स्थानपर निवास करनेसे जो प्राप्त हुआ करते हैं उनका खुलासा मृलाराधनाकी टीका किया गया है, वहांसे जानना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
पडिबंधो लहुयत् ण जणुवयारो ण देसविण्णाणं ।
णाणादीग अबुद्धी दोसा अविहारपरिकम्हि॥ किंतु मूलाराधनाकी टिपणीमें मासैकवासिताका अर्थ वर्षा योगको ग्रहण करनेके पूर्व तथा उसके समाप्त होनेपर उसी स्थानमें जहां चातुर्मास किया हो एक महीनेतक रहना किया है।
दशवां स्थितिकल्प गुण योग-वर्षायोग है। वर्षों कालमें चार महीने तक एक ही जगह रहना इसको योग कहते हैं। उन दिनोंमें पृथ्वी स्थावर और जंगम जीवोंसे व्याप्त हो जाती है। अत एव उन दिनों में भ्रमण करनेसे संयममें अत्यधिक बाधा उपस्थित हो सकती है। जलवृष्टि तथा शीतलवायुके लगनेसे अपनी मी विराधना हो सकती है। वावडी आदिम पतन हो जाना भी संभव है। एवं जल और कीचड आदिके द्वारा अथवा उनमें छिपे हुए . लकडी इंठ काटे आदिके द्वारा भी वाधा होना संभव है। इत्यादि कारणोंसे चातुर्मासमें एकसौ बीस दिन तक एक जगह ही रहना, यह उत्सर्ग मार्ग बताया है। अपबाद मार्गकी अपेक्षासे कोई विशेष कारण उपस्थित होने पर अधिक अथवा कम दिन तक भी निवास किया जासकता है। अधिक प्रमाणमें आषाढ शुक्ला दशमीसे लेकर कार्तिक शुक्ला पूर्णमासीके ऊपर तीस दिनतक और भी निवास कर सकते हैं ऐसा समझना चाहिये। अत्यधिक जलवृष्टि, शास्त्र-उपदेशरूप श्रुतका विशिष्ट लाभ, शक्तिका अभाव, और किसीकी यावृत्य करने आदिका प्रसंग आ उपस्थित होना, इन प्रयोजनों के उद्देशसे एक स्थानमें अधिक दिनतक निवास किया जा सकता है। यह उत्कृष्ट कालका प्रमाण बताया है। हीन कालका प्रमाण चार दिनका है। अर्थात् महामारी, दुर्भिक्ष, ग्राम नगर प्रान्त आदिमें
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राज्य क्रान्ति आदिके निमित्तसे भागदौड मचजानेपर, ये उस क्षेत्रको छोडनेके निमित्त उपस्थित होनेपर वहाँस अन्यत्र-दूसरे ग्राम या देशको चले जाना चाहिये। क्योंकि नहीं तो वहां रहनेपर रत्नत्रय धर्मको विराधना हो सकती है । ऐसी अवस्थामें आषाढ शुक्ला पूर्णमासीको व्यतीत करके प्रतिपदा आदि तिथिको वहांसे जा सकते हैं। इस अपेक्षासे चार दिनका जघन्य काल बताया है । इस प्रकार स्थितिकस्पके दशवें भेदका स्वरूप समझना। किंतु मूलाराधनाकी टिप्पणी में यह दशा भेद पाद्य नामसे बताया है। उसका अभिप्राय ऐसा है कि दो दो महीनेसे निषिद्धिकाओंको देखना चाहिये । यथा:
. आचेलक्यौदेशिकाय्यागृहराजपिण्डकृतिकर्म ।
___ज्येष्ठत्रतप्रतिक्रममासं पाद्यः श्रमणकल्पः ॥ इन उपर्युक्त स्थितिकल्प सम्बन्धी दश गुणों में जो निष्ठा धारण करनेवाले, जिनकी इनमें मले प्रकार तत्परता सिद्ध हो चुकी है। एवं अनेक क्षपकों-समाधिमरण करनेवालोंका उद्धार करनेसे जिनकी विशाल कीर्ति सम्पूर्ण पृथ्वीपर फैलगई है, तथा संसारको छोडकर परलोक यात्रा करनेवाले कोका क्षपण करनेमें उद्युक्त साधुओंको जो समाधिमरणकेलिये प्रेरित करनेवाले हैं, ऐसे ही निर्यापक-आचार्य उन क्षपकोंको विशुद्धिलाम करा सकते हैं । उसके मार्गमें लगाकर उसकी यथोक्त चर्याको बता सकते हैं । जैसा कि कहा मी है कि
एतेषु दशसु नित्यं समाहितो नित्यवाच्यतामीरुः ।
क्षपकस्य विशुद्धिमसौ यथोक्तचर्या समुद्दिशति । प्रतिमायोगको धारण कर खडे हुए मुनिकी क्रिया विधि बताते हैं:
लघीयसोपि प्रतिमायोगिनो योगिनः क्रियाम् ।
कुर्युः सर्वेपि सिद्धर्षिशान्तिभक्तिभिरादरात ॥ ८२॥ सबेरेसे सायंकालतक दिनभर सूर्यकी तरफ मुखकरके कायोत्सर्ग मुद्रा धारण कर खडे रहनेको प्रतिमा
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योग कहते हैं। इसको धारण करनेवाले योगी यदि दीक्षाकी अपेक्षा उम्र में छोटे हों तो भी सम्पूर्ण साधुओंको अत्यंत आदरभावसे उनका क्रियाकाण्ड सिद्धभक्ति योगिभक्ति और शांतिमक्तिको बोलकर पूर्ण करना चाहिये। जैसा कि कहा मी है कि:
प्रतिमायोमिनः साघोः सिद्धानागारशांन्तिभिः।
विधीयते क्रियाकाण्ड सर्वसंधेः सुभक्तितः॥ दीक्षा ग्रहण करने और केशलोंच करनेकी क्रियाकी विधि बताते हैं:
सिद्धयोगिबृहद्भक्तिपूर्वकं लिङ्गमर्प्यताम् ।
लुश्चाख्यानाग्न्यपिच्छात्म क्षम्यतां सिद्धभक्तितः॥८३॥ ... केशलुश्चन, नामकरण, सर्वथा नग्न दिगम्बर अवस्था, और पिच्छी इनके समूहको जिनलिङ्गका स्वरूप समझना चाहिये । आचार्यको यह लिंग बृहत् सिद्धमक्ति और वृात योगिक्ति बोलकर सुमुक्षुमें अपेण करना चाहिये । तथा यह लिङ्गार्पणका विधान सिद्धभक्ति के द्वारा समाप्त करना चाहिये । दीक्षा दानके अनन्तर क्या कर्तव्य है सो दो पद्योंमें बताते हैं:
व्रतप्तमितीन्द्रियरोधाः पञ्च पृथक् क्षितिशयो रदाघर्षः । स्थितिसकृदशने लुश्चावश्यकषट्रे विचेलताऽस्नानम् ॥ ८४ ॥ इत्यष्टाविंशति मूलगुणान् निक्षिप्य दीक्षिते ।
संक्षेपेण सशीलादीन गणी कुर्यात्प्रतिक्रमम् ॥ ८५ ॥(युग्मम् ) मुनियाक मूलगुण अहाईस हैं। यथा-अहिंसादिक पांच महाव्रत, ईर्यासमिति आदिक पांच समिति, | और पांचो इन्द्रियों का अपने २ विषयोंसे निरोध, ये पन्द्रह मेद हुए, इनका विशेष स्वरूप पहले लिखा जाचुका
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है । इनके सिवाय एक भूमिशयन, १ दांतोंका घर्षण - दन्तधावन न करना, १ दिनमें एकवार भोजन करना १ खडे होकर भोजन करना, १ विधिपूर्वक केशोंका उत्पाटन करना, ६ पूर्वोक्त छह आवश्यकों का पालन करना, १ सर्वथा वस्त्ररहित नग्न दिगम्बर अवस्था धारण करना, और १ तेल आदिका उद्वर्तन तथा जलमें अवगाहन आदि स्वरूप स्नान न करना । ये सब मिलाकर अट्ठाईप भेद होते हैं। इनके सिवाय चौरासी लाख उत्तर गुण और अठारह हजार श्रीलकं भेद और भी हैं। दीक्षा लेनेवाले साधु आचार्यको संक्षेपसे इन उत्तर गुणों और शील के भेदों के साथ २ सम्पूर्ण उक्त मूलगुणोंका स्थापन करके व्रतारोपण सम्बन्धी प्रतिक्रमणं करना चाहिये । जहाँतक हो सके यह प्रतिक्रमण उसी दिन करना चाहिये; किंतु उसदिन उत्तम मुहूर्त आदि न बनता हो तो कुछ दिन बाद भी वह किया जा सकता है ।
दीक्षाग्रहण के समय को छोडकर अन्य समय में जो केशोंका लुंजन किया जाता है उसके कालका प्रमाण और उसकी क्रिया करनेकी विधि बताते हैं: -
लोचो द्वित्रिचतुर्मासैर्वरो मध्योऽधमः क्रमात् । लघुप्राग्भक्तिभिः कार्यः सोपवासप्रतिक्रमः ॥ ८६ ॥
केशोंका उत्पादन तीन प्रकारका हुआ करता है, -उत्तम मध्यम और जघन्य । दो महीने के अनंतर किया जाता है वह उत्कृष्ट, और जो तीन महीने के अनंतर किया जाता है वह मध्यम, तथा जो चर महीना पीछे किया जाता है वह जघन्य समझना चाहिये। साधुओं को अपनी शक्तिके अनुसार इनमें से कौनसा भी लोच अवश्यही करना चाहिये। जिस दिन लोच करना हो उस दिन उपवास और उस क्रियासम्बन्धी प्रतिक्रमण भी करना चा हिये । तथा लोच का प्रतिष्ठापन लघु सिद्धभक्ति और लघु योगिमक्ति बोलकर, एवं निष्ठापन केवल सिद्धभक्तिके द्वारा करना चाहिये। जैसा कि कहा भी है कि
लोचो द्वित्रिचतुर्मासैः सोपवासप्रतिक्रमः ॥ लघुसिद्धर्षिभक्त्यान्यः क्षम्यते सिद्धभक्तितः ॥
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बध्याय
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सामायिक चारित्रकी उत्कृष्टता और वास्तविकता दिखाने के लिये यहां बताते हैं कि वस्तुतः चारित्र एक सामायिक ही है, महाव्रतादिके रूपमें जो चारित्रका वर्णन किया जाता है वह उसीका भेदरूपसे वर्णन है. सो इस प्रकारका वर्णन भी आदि तीर्थकर और अंतिम तीर्थकरने ही किया है, मध्यके अजितादि पार्श्वनाथ पर्यंत बाईस तीर्थकरोने नहीं । इसी बातको यहांपर स्पष्ट करते हैं, और साथ ही यह भी दिखाते हैं कि इस देशना के भेदका कारण क्या है । :
दुःशोधमृजुज्डरिति पुरुरिव वीरोऽदिशतादिभिदा । दुष्पालं वक्रजलैरिति साम्यं नापरे सुपट्टशिष्याः ॥ ८७ ॥
कर्मभूमि की आदि में मनुष्य परिणामोंके सरल किंतु मुग्ध - अज्ञानी हुआ करते हैं। अत एव वे सामायिक चारित्रको भले प्रकार समझ नहीं सकते और इसीलिये उसका अच्छी तरह पालन भी नहीं कर सकते । ast कारण है कि आदिनाथ भगवान्ने उनके लिये समायिक चारित्रको ही व्रतादिके मेद रूपसे बताया। इसी प्रकार अंतिम तीर्थकर के समय के मनुष्य वक्र और अज्ञानी हुआ करते हैं। वे या तो अपनी वक्रता के कारण अथवा अज्ञान ताके कारण सामायिक चारित्रके पालन करनेमें असमर्थ रहा करते हैं। उनसे उसका पालन होना अति कठिन रहता है । अत एव अंतिम तीर्थकर ने भी उसी सामायिकको व्रतोंके मेदरूपले उनको बताया। किंतु मध्यके बाईस तीर्थकरों के समय के मनुष्य योग्य और अच्छे समझू हुआ करते हैं । उनमें सरलता और जडता नहीं रहती । वे अपने विषय में भले प्रकार व्युत्पन्न रहा करते हैं। अत एव उन बाईस तीर्थकरोंने चारित्रको व्रतादिके मेदरूपसे न बताकर केवल सामायिक के ही रूपसे बताया ।
जिसको जिनलिंग की दीक्षा दीजाय उसमें किस किस प्रकारकी योग्यता होनी चाहिये सो बताते हैं:
सुदेश कुलजात्यङ्गे ब्राह्मणे क्षत्रिये विश ।
निष्कलङ्के क्षमे स्थाप्या जिनमुद्राचिंता सताम् ॥ ८८ ॥
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बनमार
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मच्याब
A
SANDARI
. जिनेन्द्र भगवान्की मुद्रा देवेन्द्र नरेन्द्र धरणीन्द्र और मुनीन्द्रोंके द्वारा भी पूज्य है । अत एव धर्माची. याँको जिस व्यक्ति में इस मुद्राका आरोपण करना हो उसमें उन्हें इस प्रकारकी योग्यता अवश्य देखनी चाहिये कि वह व्यक्ति प्रशस्त देश में उत्पन्न हुआ हो, मांसाहारी म्लेच्छों या वैसे ही आचरणवाले मील आदिकोंके दे. शमें उत्पन्न न हुआ हो। जिस पितासे उसकी उत्पत्ति हुई है उसका वंशानुगत आचरण शुद्ध हो । एवं जिस कुक्षिमें उसने जन्म धारण किया है वह मातृपक्ष भी निर्दोष हो तथा जिसका शरीर भी प्रशस्त हो, उसमें ऐसे कोई दोष न हों जो कि आगम में जिनलिंगको धारण करनेमें बाधक बताये हैं। और चातुर्वर्ण्य में से ब्रह्मण क्षत्रिय तथा वैश्य इन तनि उत्तम वर्णोंमें हो जो उत्पन्न हुआ है। इसी प्रकार जिसको कोई कलङ्क नहीं लगा है, ब्राह्मण स्त्री बाल गौ आदिकी हत्या आदि अपराधोंसे जो मुक्त है । और जो उस मुद्रा के धारण करने में समर्थ है, "जो अति बाल अवस्था या सुकुमार शरीरको धारण करनेवाला नहीं है, अथवा अतिवृद्धता के कारण जिसका शरीर जीर्ण और इसीलिये जिनर्लिंग के चारित्रको पालन करनेके लिये जो असमर्थ नहीं होगया है । अत एव ऐसा कहा मी है कि :
ब्राह्मणे क्षत्रिये वैश्ये सुदेशकुलजातिजे । अतः स्थाप्यते लिङ्गं न निन्द्य बालकादिषु ॥
अर्थात् तीन उत्तम वर्णोंके और प्रशस्त देश कुल जातिमें उत्पन्न होनेवाले ही पुरुषमें जिनलिंगकी स्थापना करनी चाहिये । जो ब्रह्महत्या आदि के कारण निन्द्य हैं अथवा बाल्यावस्था या वृद्धावस्था आदिके धारण करनेवाले हैं उनमें उस लिंगको स्थापित न करना चाहिये। इसी प्रकार:
पतितादेन सा देया जैनी मुद्रा बुधार्चिता । रत्नमाला सतां योग्या मण्डले न विधीयते
जो जाति आदिसे पतित हैं उनको यह विद्वानोंके और देवोंके द्वारा भी पूज्य जिनमुद्रा न देनी चाहिये। जो रत्नोंकी माला सत्पुरुषों के धारण करने योग्य हुआ करती है वह कुत्तेके गले में नहीं पहराई जाती । तथाः
नमं-
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न कोमलाय बालाय दीयते व्रतमार्चतम् ।
न हि योग्ये महोक्षस्य भारे वत्सो नियोज्यते ।। जिनका शरीर कोमल है या जिनका चित्त अति मृदु और इन्द्रियां विषय सेवनकी तरफ प्रबल हैं ऐसे बालकोंको जिनदीक्षाका त्रिलोकपूज्य व्रत न देना चाहिये । जिस बोझेको बडा बैल ही ढो सकता है उसमें छोटे पच्छेको जोतना ठीक नहीं।
यहांपर कोई शंका कर सकता है कि दीक्षाका देना कषायको उत्पन्न करने और उसको पुष्ट करनेका साधन है। क्योंकि उसमें शिष्योंका परिग्रह बढता है, और उसके सम्बन्धसे पुनः उनके पोषण रक्षण और व्यवस्था आदिकी चिन्ता भी हुआ ही करती है. अवस्थाके अनुसार उनका निग्रहानुग्रह भी करना ही पड़ता है। और क्षपण आदिके समय साधुओंको वैयावृत्य आदिके लिये प्रेरित भी करना पड़ता है । इत्यादि अनेक कारणोंसे मुमुक्षुओंका इस कार्य में पहना उचित नहीं प्रतीत होता । परन्तु यह शंका ठीक नहीं है। क्योंकि जिनका चारित्र सराग है उन्हीकेलिये आगममें इसका विधान किया है । जैसा कि कहा भी है कि
दसणणाणुवदेसो सिस्सग्गणं च पोसणं तेसिं ।
चरिया हि सरायाणं जिर्णिदपूजोवएसो य ।। । अर्थात्-सम्यग्दर्शनको दृढ करनेवाला और ज्ञानकी वृद्धि करनेवाला उपदेश देना, शिष्योंका ग्रहण करना, |
और उनका पोषण तथा रक्षण करना, एवं जिनेन्द्र भगवान्की पूजा आदिका उपदेश देना, यह सब सराग चारित्रके धारण करनेवाले मुनियोंका ही कार्य है। फिर इसके सिवाय ऐसा किये विना संघकी व्यवस्था और मोक्षमार्ग सुरक्षित नहीं रह सकते । अत एव यह कार्य भी किसी न किसीको करना ही पड़ता है।
जब तक महाव्रतोंको धारण न किया जाय तब तक केवल जिनलिंग-केशोत्पाटन दिगम्बरता और संज्ञा तथा पिच्छीके ग्रहण करनेसे ही आत्मामें लगे हुए दोषोंकी विशुद्धि नहीं हो सकती । इस बातको दृष्टान्त देकर स्पष्ट करते हैं:
पाष
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बनगार
१२.
महाव्रतादृते दोषो न जीवस्य विशोध्यते ।
लिङ्गेन तोयादूषेण वसनस्य तथा मलः ॥ ८९॥ जिस प्रकार वस्त्रको जबतक पानीसे न धोया जाय तब तक केवल उसमें क्षारमट्टी लगानेसे ही उसका मल दर नहीं हो सकता, उसी प्रकार जब तक महावत धारण नहीं किये जाते तब तक केवल चिन्हमात्र जिन लिंगके धारण करनेसे आत्मामें लगे हुए राग द्वेषरूपी कषायोंका मल दूर नहीं हो सकता।
किंतु जिनमुद्राके विना केवल व्रतोंका धारण करना भी कार्यकारी नहीं हो सकता। अत एव दृष्टान्त द्वारा इस बातको भी दृढ़ करते हैं कि जिनलिंगसे युक्त ही व्रताचरण कषायोंका विशोधन कर सकता है:
मद्यन्त्रकेण तुष इव दलिते लिङ्गप्रहेण गार्हस्थ्ये ।
मुशलेन कणे कुण्डक इव नरि शोध्यो व्रतेन हि कषायः ॥॥ मट्टीके बने हुए यन्त्रविशेषके द्वारा जब धान्यके उपरका छिलका उतारकर दूर कर दिया जाता है तमी उसके भीतरकी वारीक-पतली भुसी मृसलके द्वारा छरकर दूर की जासकती है, अन्यथा नहीं। इसी तरहसे जिनलिंग और व्रतोंके विषय में समझना चाहिये । अर्थात् व्रताको प्रकट कर दिखाने वाला चिन्ह-जिनलिंग जब धारण कर लिया जाता है तभी उसके द्वारा गृहस्थाश्रमका भाव निदलित होता और तभी मुपलके समान उन व्रतोंके द्वारा अन्तर्मल-कषायका शोधन किया जा सकता है।
मावार्थ-चावलके समान मनुष्यको और भुसीके समान कषायको तथा ऊपरके छिलके के समान गृह स्थाश्रमको एवं मट्टीके यंत्र के समान जिन लिंगको समझकर मूसलके समान व्रतोंके द्वारा उसका शोधन करना चाहिये।
भूमिशयन नामके मूलगुणकी विधि बताते हैं:
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अध्याय
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अनुचानोऽनवाङ् स्वप्याद्भुदेशेऽसंस्तृते स्वयम् । स्वमात्रे संस्तृतेऽल्पं वा तृणादिशयनेपि वा ॥ ९१ ॥
भूमिशयन मूलगुणको सिद्ध करनेकेलिये साधुओंको तृण घास आदिके आच्छादनसे रहित केवल भूमि• प्रदेश में ऊर्ध्वमुख अथवा अधोमुख न होकर दक्षिण अथवा वाम किसी भी एक पार्श्व भागले दण्डके समान लायमान होकर अथवा धनुषके आकारको धारण करके शयन करना चाहिये । अथवा अल्प आच्छादनसे युक्त भूमिपर भी शयन कर सकते हैं। किंतु यह आच्छादन जितनी भूमि में उन्हें सोना है उतनी में ही स्वयं करना चाहिये । अल्प आच्छादनसे प्रयोजन यह है कि जैसा गृहस्थ आदिकों का विस्तर हुआ करता है वैसा न होना चाहिये | भूमिके स्थानपर तृण आदि की बनी हुई चटाई यद्वा काष्टके बने हुए तख्त आदि अथवा पत्थरकी शि ला आदिके ऊपर भी शयन कर सकते हैं। इस विषय में मी अनाच्छादन और अल्प आच्छादनका सम्बन्ध लगा. लेना चाहिये । जैसा कि कहा भी है किं
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पासुअभूमिपदे से अप्पमसंथारिद् िपच्छण्णे । दंडवसेज्जं खिदिसयणं एयपासेण ॥
अर्थात् - प्राशुक और अल्पसंस्तरित अथवा असंस्तरित एवं एकान्त भूमि प्रदेश में दण्ड अथवा धनुषकी तरह एक पार्श्वमाग से सोना इसको क्षिति शयन कहते हैं ।
ऊर्ध्वमुख सोनेसे अधिकतर स्त्रप्रदर्शन होता है और अधोमुख सोनेसे प्रायः वीर्यस्खलन हो जाता है । इत्यादि दोषों के कारण पार्श्वभागले ही सोना बताया है। सो भी किसी एक ही विवक्षित पसलीकी तरफसे सोना चाहिये, अर्थात् करवट वगैरह न लेना चाहिये । निद्रा के कालका प्रमाण पहले बता चुके हैं।
खडे होकर भोजन करनेरूप मूलगुणकी विधि और उसके कालका प्रमाण बताते हैं:तिस्रोऽपास्याद्यन्त नाडीमध्येऽन्यद्यात् स्थितः सकृत् ।
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नगार
मुहूर्तमेकं द्वौ त्रीन्या स्वहस्तेनानपाश्रयः ॥ ९ ॥ दिनकी आदिकी और अंतकी तीन तीन घडी छोडकर बाकी दिनके मध्यमागमें एक बार खडे होकर दीवाल या स्तम्म आदिका सहारा न लेकर अपने हाथसे-अंजलिपुट बनाकर एक मुहूर्ने दो मुहूर्त अथवा तीन महूर्ततक आहार करना चाहिये।
भावार्थ-दिनके उदयकालकी तीन घडी और अस्तसमयकी तीन भ्रामरीकेलिये अयोग्य समय है। इस समयमें साधुओंको गोचरीकेलिये निकलना न चाहिये । और भोजन क्रियाका काल एकसे तीन मुहूर्त तकका है। इतने समयमें भोजन क्रिया समात करनी चाहिये । तथा भोजन करते समय साधुओंको किसीका सहारा न लेकर और दोनों पैरोंको घरापरमें जोडकर खडे होना चाहिये और भूमिके तीन स्थानोंकी शुद्धि देखकर दिनमें एक वार अंजलिका भेद न करके भोजन करनेको स्थितिमोजन कहते हैं । जैसा कि कहा भी है कि:
उदयस्थमणे काले णालीसियवज्जियधि मज्यसि । एकहि दुय तिए वा मुहूत्तकालेयमतं तु ॥ अंजलिपुडेण ठिकचा कुण्डाविविवज्जणेण समपायं ।
पडिसुद्धे भूमितिये असणं ठिविभीषणं णाम ॥ अर्थात् -उदय और अस्तका तीन तीन घडीका काल छोडकर बाकीके दिनके मध्यके समयमें एक दो या तीन मुहूर्ततक एक वार भोजन करना इसको एकमुक्ति कहते हैं। तथा अंजलिपुटके द्वारा, खडे होकर,
और मीत वगैरहका आश्रय न लेकर, पैरोंको बराबर रखकर, भूमित्रयकी शुद्धि देखकर भोजन करना इसको स्थि. तिभोजन कहते हैं।
इस विषयकी विशेष व्याख्या आवार टीकामें की गई है । उसका उपयोगी समझकर कुछ आशय यहां भी दिया जाता है।
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अभिप्राय यह है कि समपाद और अंजलिपुट ये एक मुहूर्त से लेकर तीन मुहूर्ततकका जो भोजनका समय बताया है उस सपके विशेषण नहीं किंतु मुनिके भोजनके विशेषण हैं। अतएव तीन मुहूर्तके भीतर जब जब भी वे भोजन करें तब तब ही उनको समपाद और अंजलिपुट के द्वारा ही भोजन करना चाहिये, ऐसा आप समझना । यदि ऐसा न माना जायगा और उनको- समपाद और अंजलिपुटको समयका ही विशेषण माना जायगा तो हस्त प्रक्षालन करनेपर भी उस समय जो जानूपरिव्यतिक्रम नामका अन्तराय बताया है सो । नहीं बन सकता। इसी प्रकार नामेरघोनिर्गमन अन्तसय जो बताया है वह भी नहीं बन सकता । इससे मालुम होता है कि तीन मुहर्तका जो समय बताया है उसमें एक जगह भोजन क्रियाका प्रारम्भ करके किसी कारणसे हाथोंको धोने के बाद मौन पूर्वक दूसरी जगह भोजनकेलिये जा सकते हैं। यदि वह अन्तराय एक स्थानपर भोजन करते हुएके होता है ऐसा माना जायगा तो अन्तरायका जानू गरियति कम यह विशेषण देना निरर्थक ही हो जायगा। उसकी नगह ऐसा ही फिर विशेषण देना चाहिये कि यदि बरावरमें रखे हुए पैर रंचमात्र मी चलायमान हो जायगे तो अंतराय हो जायगा। इसी प्रकार नाभरघोनिर्गमन नामका अंतराय भी दूरहीसे कैसे संभव हो सकता है ? नहीं बन सकता । अत एव अन्तरायको बचाने के लिये उसका ग्रहण करना भी निरर्थकही ठहरेगा। इसी प्रकार पैरसे कोई चीज ग्रहण करनेमें आजाय तो वह अंतराय माना है सो वह भी कैसे बनगा । इत्पादि अंतरायोंके स्वरूपको बतानेवाले अनेक सूत्र निरर्थक ही ठहरेंगे। इसी तरह यदि भोजन क्रिया प्रारम्म करनेके बाद अंजलिपुटका भेद होना न माना जायगा तो हायसे किसी वस्तुका ग्रहण होना जो अंतगय माना है या नहीं बन सकता । उसके स्थानपर ऐसा ही फिर कहना चाहिये कि कोई वस्तु ग्रहण करनेमें आवे या न आवे यदि अंजलिपुटका मेद होजाय तो अंतराय समझना चाहिये । इसी प्रकार जान्वधःपरामर्श नामका अन्तराय भी नहीं बन सकता । और भी अनेक अन्तराय इसी तरह नहीं बन सकते, यदि समपाद और अंजलिपुटको एकदो तीन महूतेप्रमाण भोजनके कालका विशेषण माना जाय । अत एव यह स्पष्ट है कि ये दोनों ही भोजनके विशेषण हैं न कि कालके ।
भावार्थ-यह पात पहले बता चुके हैं कि प्रायः करके अंतराय सिद्धमक्तिके अनंतर ही हुआ करते हैं।
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ऐसी अवस्थामें यदि समपाद और अंजलिपुटको मोजनके कालका विशेषण माना जाय तो उपर्युक्त कोई भी
अंतराय नहीं बन सकता । अत एव उने भोजनकाही विशेषण मानना चाहिये । अर्थात् जब २ भी तीन महत 'कालके भीतर भोजन क्रियाको मुनि प्रारम्भ करें तब २ ही उन्हे समपाद और अंजलिपुटके द्वारा भोजन करना
चाहिये. इससे यह बात भी सिद्ध होती है कि किसी कारणके वश एक जगह भोजन क्रिया प्रारम्भ करके हस्त प्रथालनके अनंतर ही दूसरी जगह भी भोजन के लिये जा सकते हैं।
समपादका अभिप्राय यह है कि दोनों पैरों में चार अंगुलका अंतर रखकर दोनोंको एक सीधमें रखना । और भूमित्रयकी शुद्धि देखनेकेलिये जो कहा है उसका तात्पर्य यह है कि जहांपर आहार देनेके समय दाता खडा होता है, और जहाँपर आहार लेनेको पात्र खडे होते हैं, एवं दोनोंके मध्यमें उच्छिष्ट का जहां पतन होता है वे तीनों ही स्थान शुद्ध होने चाहिये। खडे होकर भोजन करने का प्रयोजन क्या है सो बताते हैं:
यावत्करौ पुटीकृत्य भोक्तुमुद्भः क्षमेऽद्मयहम्।।
तावन्नेवान्यथेत्यागूसंयमार्थ स्थिताशनम् ॥ १३ ॥ ... जबतक मैं खडे होकर और अपने हाथोंको जोडकर या उनको ही पात्र बनाकर उन्हीके द्वारा भोजन कर नेकी सामर्थ रखता हूं तभीतक मोजन करने में प्रवृत्ति करूंगा, अन्यथा नहीं । इस प्रतिज्ञाका निर्वाह और इन्द्रि य संयम तथा प्राणिसंयमका साधन करनेकेलिये मुनियोंको खडे होकर भोजन करने का विधान किया है।
भावार्थ-खडे होकर भोजन करनेके, प्रतिज्ञाका बोधन और निर्वाह, तथा आहारकी शुद्धि और दोषों. की निवृत्ति, एवं संयमकी सिद्धि, इस प्रकार अनेक प्रयोजन है। जैसा कि आचारटीमें भी बताया है, उसका आशय इस प्रकार है:
जा तक मेरे हाथ और पैर परस्परमें सम्बद्ध होने की शक्ति रखते हैं तभी तक मुझे आहार ग्रहण करना
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योग्य है, अन्यथा नहीं, इस भाव या प्रतिज्ञाका बोधन करानेकेलिये मुनिजन खडे होकर और अपने हाथोंसे भोजन करते हैं, यह पहला प्रयोजन | इसीके साथ दूसरा प्रयोजन यह भी है कि “ मैं बैठकर या पात्रके द्वारा अथवा अन्य व्यक्ति के हाथ से भोजन न करूंगा" इस प्रतिज्ञाका निर्वाह होता है। तीसरा प्रयोजन यह है कि भी जनकी शुद्धि पलती है। क्योंकि इसके लिये अपना हाथ सबसे अधिक शुद्ध हुआ करता है और अपने हाथ में रक्खे हुए भोजनका दृष्टि पूर्वक बहुत अच्छी तरह शेधिन किया जा सकता है। चौथा प्रयोजन दोषोंकी निवृत्ति है । अर्थात-अपने हाथसे भोजन करने कदाचित् अन्तराय आजाय तो अधिक भोजन का त्याग नहीं करना पडता । अन्यथा बहुतसी मोज्य सामग्रीसे मरी हुई सबकी सब थाली छोडनी पडेगी। और ऐसा होनेपर अवद्यदोष उपस्थित होंगे। पांचवां प्रयोजन संयमकी सिद्धि है। अर्थात इन्द्रियोंकी लोलुपताका कर्षण होकर और सूक्ष्म जीवोंकी या अपने चेतना प्राणकी रक्षा होकर इन्द्रिय संयम और प्राण संपमका पालन होता है । इन कारणांस ही खडे होकर और अपने हाथोंसे ही भोजन करनेका विधान किया गया है। यही बात औरों ने भी कही है, यथा:
यावन्मे स्थितिमोजनेस्ति दृढता पाण्योश्च संयोजने, भुञ्ज तापदईरहाम्यथ विधावेषा प्रतिज्ञा यते। कायेप्यस्पृहचेतसोन्यविधिषु प्रोल्लासिनः सन्मते.
ने बतेन दिवि स्वितिर्न नरके संपद्यते तद्विना । खडे होकर भोजन करनेकी विशेष विधि बताते हैं:
प्रक्षाल्य करौ मौनेनान्यत्रार्थाद् व्रजेद्यदैवाद्यात् ।
चतुरंगुलान्तरसमक्रमः सहाञ्जलिपुटस्तदेव भवेत् ॥ १४॥ भोजन के स्थानपर यदि कोडी आदि तुच्छ जीव जंतु चलते फिरते अधिक नजर पडें, या ऐसा ही कोई दूसरा निमित्त उपस्थित हो जाय तो संयमियों को हाथ धोकर वहांसे दूसरी जगहकेलिये आहारार्थ मौनपूर्वक चलेजाना चाहिये । इसके सिवाय जिस समय वे अनगार ऋषि भोजन करें उसी समय उनको अपने दोनों पैर
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उनमें चार अंगुलका अंतर रखकर समरूपमें स्थापित करने चाहिये। तथा उसी समय दोनों हार्थोकी अंजलि भी बनानी चाहिये । एक भक्त और एक स्थानमें क्या मेद है सो वताते है:
शुढे पादोत्सृष्टपातपरिवेषकभत्रये ।
भोक्तुः परेप्येकभक्तं स्यात त्वेकस्थानमेकतः ॥ १५ ॥ जहाँपर भोजन क्रियाका प्रारम्भ किया है वहाँपर और उसके सिवाय दूसरी जगह भी, जहां पर रखकर आहारके लिये खडे होते हैं, और जहां उत्सृष्ट गिरता है, एवं जहां खड़े होकर परिवेशक-परोसकर देने वाला दाता आहार देता है इन तीनों ही शुद्ध-जीववधादि दोषोंसे रहित स्थान पर खडे होकर मोजन करनेवाले अनगारके एकमक्त समझना चाहिये । और दूसरी जगह न जाकर जहां भोजन क्रिया प्रारम्भ की है वहीं पर उक्त तीन भूमियोंकी शुद्धि देखकर भोजन करनेवाले के एक स्थान समझना चाहिये।
भावार्थ-भूमित्रयकी शुद्धि देखना तो दोनों में ही समान है। किंतु विशेषता यह है कि जहाँपर एक जगह भोजन क्रियाका प्रारम्भ करके किसी कारणसे वहां भोजन न कर दूसरी जगह जाकर किया जाता है वहां एक भक्त तोपरन्तु एक स्थान नहीं है। और जहांपर भोजन क्रियाका प्रारम्भ किया है वहीं भोजन करने में एक स्थान भी है और एक भक्त भी है।
इसके सिवाय एकमक्त तो अट्ठाईस मूलगुणों से एक है और एकस्थान यह उत्तर गुण है, इस अपेक्षासे भी दोनोंमें अंतर है । इसी बातको यहां बताते हैं:
अकृत्त्वा पादविक्षेपं भुञ्जानस्योत्तरो गुणः । एकस्थानं मुनेरेकभक्तं त्वनियतास्पदम् ॥ ९६ ॥
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. पैरोंका विक्षेप न करके अर्थात् दूसरी जगह भोजन के लिये न जाकर उस एक ही स्थानपर भोजन करनेवाले मुनिके एकस्थान नामका उत्तर गुण समझना चाहिये । और जिनका स्थान नियत नहीं है अर्थात् जो अनेक स्थानोंपर संचार करके एक जगह भोजन करते हैं उनके एकभक्त नामका मूलगुण समझना चाहिये । केशोत्पाटन नामके मूलगुणका लक्षण और फल बताते हैं:
नैःसङ्गयाऽयाचनाऽहिंसादुःखाभ्यासाय नाग्न्यवत् ।
हस्तेनोत्पाटनं श्मश्रुमूर्धजानां यतेर्मतम् ॥ ९ ॥ अपने हाथसे अपनी दाढीके और अपने शिरके बालोंका उखाडकर दूर करना इसीको संयमी साधुओंका परमागम-सूत्रमें केशलुंचन नाम का मूलगुण माना है। नम्रताके समान इसके भी चार फल मुख्यतया बताये हैं। यथा-नि:सङ्गता, याचना, अहिंसा और दुःखाम्यास ।
भावार्थ-मोक्षका आराधन करनेवाले अपनी आत्माको पूर्ण तया स्वायत्त बनानेका ही प्रयत्न किया करते हैं। अत एव उनकी कोई भी क्रिया ऐसी नहीं होती जो उन्हें पराधीन अवस्थाकी तरफ उन्मुख कर दे। इसी लिये वे वस्त्रादिका रंचमात्र भी परिग्रह धारण नहीं किया करते । रुपया पैसाका सम्बन्ध भी उनसे दूर ही रहता है। यदि वे स्वयं केशोत्पाटन न करके नाई आदिसे हजामत बनवावें तो उसके लिये उन्हे पैसा आदिका परिग्रह भी रखना ही पडेगा। ऐसी अवस्थामें उनकी निःसङ्गता कायम नहीं रह सकती । यदि वे नाईसे यों ही प्रार्थना करें तो लघुता प्राप्त होती है तथा याचनाके पर्थ जानेपर मानभग और अयाचक वृत्तिमें वाधा आदि अनेक दोष उपस्थित होते हैं। अपने भक्त पुरुषोंसे यदि याचना की जाय तो भी ये दोष आवेंगे। यदि केशोंका उत्पाटन न करके उनको यों ही कायम रखकर जटा बढाली जाय तो उनमें अनन्त सूक्ष्म बादर सम्मूर्छन जीवोंकी उत्पत्ति
और हिंसा होती है। और केशको निकालनेके लिये अपने पास कैंची छुरा आदि अस्त्र रक्खे जाय तो भी हिंसा साधन पास में रखने से अपरिग्रहतामें अपूर्णता और मावहिंसादिमें प्रवृत्ति होती है। सो अहिंमा महाव्रतके पालन करने वाले करुणा की मूर्ति दिगम्बर संयमियोंके लिये कैसे उचित हो सकता है। इसके सिवाय स्वयं ही केशोंका
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लुंचन करनेसे, दुःखोंके सहन करनेका अभ्यास होता है । जिससे कि परीषह और उपसर्गों के जीतने की कठिनता दूर होती है । और कायक्लेश आदि तपकी सिद्धि होकर शरीर में पूर्ण निर्ममताका भाव जागृत व दृढ होता है । अतएव जिसप्रकार नग्नतामें ये और इनके सिवाय दूसरे मी अनेक गुण बताये हैं उसी प्रकार केशोत्पाटन नामक मूलगुण में भी समझने चाहिये । अतएव ऐसा कहा भी है कि:
काकण्या अपि महो न विहितः क्षौरं यया कार्यते, चित्तक्षेपकृदस्त्रमात्रमपि वा तत्सिद्धये नाश्रितम् । हिंसाहेतुर हो जायपि तथा यूकाभिरप्रार्थने, बैंगग्यादिविवर्धनाय यतिभिः केशेषु लोचः कृतः ॥
अर्थात् - निर्वाण पथिक माधुजन अपने पास एक कौढी भी नहीं रखते जिससे कि औौरकर्म कराया जा सकता है। स्वयं क्षौर कर्म करनेके लिये अपने पास अख भी नहीं रखते । क्योंकि उससे चित्तमें विक्षेप उत्पन्न होता है । जटा बढाना इसलिये ठीक नहीं कि वह जूं आदि के द्वारा हिंसाका ही साधन है । अत एव सर्वोत्तम उपाय यही हाथोंसे उनका उत्पाटन कर दिया जाय जिससे कि उल्टी वैराग्य आदि गुणोंकी वृद्धि ही हुआ करती है:अस्नान नामके मूलगुणका समर्थन करते हैं:
न ब्रह्मचारिणामर्थो विशेषादात्मदर्शिनाम् । जलशुद्धयाथवा यावदोषं सापि मतार्हतैः ॥ ९८ ॥
जो ब्रह्मचर्य व्रत के पालन करनेवाले हैं उनके अशुद्धिका कारण ही नहीं रहता । अत एव उसको दूर करनेकेलिये उन्हे जलशुद्धि - स्नान करनेकी भी क्या आवश्यकता है ? उससे उनका कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । तथा खासकर जो आत्मदर्शी-योगी है--जो ज्ञान ध्यान स्वाध्याय और तपस्या तथा ब्रह्माचरण में ही रत रहते हैं, और इसी लिये जिनका शरीर स्वयं पवित्र है उनके लिये तो यह स्नान किम प्रयोजनका ! हां, यह वात अवश्य है कि यदि कदाचित् अस्पृश्यका स्पर्श आदि दोष उपस्थित हो जाय तो उसकी शुद्धिकेलिये उसकी
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उन्हे आवश्यकता है । सो इसकेलिये जैनाचायाँने भी ब्रह्मचारियों व योगियोंकेलिये जलशदि मानी ही है। जैसा कि श्री सोमदेव सूरीने भी कहा है कि:
ब्रह्मचर्योपपन्नानामध्यात्माचारचेतसाम् । मुनीनां स्नानमप्राप्तं दोषे त्वस्य विधिर्मतः ।। सङ्गे कापालिकात्रेयीचण्डालशवरादिमिः । आप्लुत्य दण्डवत्सायाज्जपेन्मन्त्रानुपोषितः।। एकान्तरं त्रिरात्रं वा कृत्वा स्नात्वा चतुर्थके। .
दिने शुध्यन्त्यसंदेहमृतौ व्रतगवाः स्त्रियः ।। अर्थात जो ब्रह्मचारी हैं, और जिनका आत्मा अपने ही में रमण करनेवाला है उन मनियोकेलिये स्नान अनावश्यक है। किंतु दोष उपरिपत होनेपर उसकी विधि मी मानी है। जैसे कि कापालिक आत्रेयी चण्डाल और भील आदिसे स्पर्श हो जानेपर अपने शरीरको अच्छीतरह भिगोकर दण्डस्नान करना चाहिये, और उपवासपूर्वक मंत्रका जप करना चाहिये । जो व्रतिक स्त्रिया हैं वे एकान्तरसे या तीनरात्रि के बाद निःसंदेह शुद्ध समझी जाती हैं। इसी प्रकार और भी कहा है कि:
रागद्वेषमदोन्मताः स्त्रीणां ये वशवर्तिनः ।
न ते कालेन शुद्ध्यन्ति नावास्तीर्थशतैरपि । अर्थात-जो रागद्वेष आदि कषायमदसे उन्मत्त रहनेवाले और स्त्रियों के वशीभूत रहनेवाले-अब्रह्म के सेवन करने वाले हैं वे सैकडों तीर्थों में स्नान करके भी कमी शुद्ध नहीं हो सकते ।
अंतमें इस अध्यायका उपसंहार करते हुए बताते कि यहांपर जो नित्य और नैमिनिक क्रियाओंका स्वरूप बताया है उनका यथावत् पालन करनेसे क्या फल प्राप्त होता है:
नित्या नैमित्तिकीश्चेत्यवितथकृतिकर्माङ्गवाह्यश्रुतोक्ता,
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भक्त्या युङ्क्ते क्रिया यो यतिस्थ परमः श्रावकोन्योथ शक्त्या। स श्रेय:पवित्रमाप्रत्रिदशनासुखः साधुयोगोज्झिताङ्गो,
भव्यः प्रक्षीणकर्मा व्रजति कतिपयैर्जन्मभिर्जन्मपारम् ॥ ९९ ॥ पूर्वोक्त रीति इस अध्यायमें जिन नित्य और नैमित्तिक क्रियाओंका वर्णन किया गया है वे सब सत्यभूत कृतिकर्म नामके अङ्गबाह्य श्रुतमें अच्छी तरह बताई हैं। उसीके आधारसे यहांपर भी ये बताई गई है। अत एव सर्वथा प्रमाणभूत है । जो संयमी साधु अथवा उत्तम श्रावक-दशवीं ग्यारहवीं प्रतिमाका धारक देशसंवमी, यद्वा मध्यम-सातवीं आदि प्रतिमाका धारक, अथवा जयन्प-छही प्रतिमा तकके व्रतोंको धारण करनेदाला श्रावक भक्तिपूर्वक और शक्तिके अनुसार इन नित्य नैमित्तिक क्रियाओंका मले प्रकार पालन करता है वह भव्यात्मा आयुके अंत में समाधिपूर्वक शरीरका अच्छी तरह त्याग करके संचित महान् पुण्य कर्मके उदयसे देवगति अथवा मनुष्यगति के प्रधानभूत आम्युदयिक सुखाको मोगता है और परंपरासे ज्ञानावरणादि सम्पूर्ण काँको निरवशेषतया निर्माण करके कमसे कम दो तीन भव में और ज्यादेसे ज्यादे सात आठ भवमें ही संपारका अंत कर शास्वतिक शिवसुखका अनुभव किया करता है। जैसा कि कहा भी है कि
आराहिऊण केई चउब्धिहाराहणाए संसार, उव्वरियसेसपुण्णा सव्वत्थणिवासिणो हुंति ॥ जेसिं होज्ज जहण्णा चउन्विहाराहणा हु खवयाणं ।
सत्तभंवे गंतु तेविय पावंति णिव्याणं ।। इस ग्रंथमें जिस मुनिधर्मका वर्णन किया गया है वह जिन भगवान्के प्ररूपित आगमसे उद्धत करके ही किया है। अत एव वह सर्वात्मना प्रमाण है और श्रद्धेय है। मुमुक्षुओंको उसका निरंतर यथावत् पालन करना चाहिये । ऐसा करनेसे ही उन्हे संसारके सर्वोत्कृष्ट अभ्युदय तथा परम निम्श्रेयस पदकी प्राप्ति हो सकती है। इसी बात को ग्रंथकर्ण ग्रंयके अंतमें आना और ग्रंथका नाम प्रकट करते हुए बताते हैं:
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इदं सुरुचयो जिनप्रवचनाम्बुषेरुद्धृतं, सदा य उपयुञ्जते श्रमणधर्मसारामृतम् । शिवास्पदमुपासितक्रमयमाः शिवाशाधरैः,
समाधिविधुतांहप्तः कतिपयैवैर्यान्ति ते ॥ १..॥ ऊपर जिस अनगारधर्मका इस ग्रंथमें वर्णन किया गया है वह अपूर्व अमृतके समान है, जो कि श्री जिनेन्द्र भगवान्के प्ररूपित आगमरूपी समुद्रसे उद्धृत किया गया है। जो निर्मल सम्यक्त्वके धारण करनेवाले इस धर्मके अन्तस्तत्वका सुधाके समान सदा सेवन किया करते हैं, अतएव जिनके चरणयुगलकी इन्द्रदिक मी आराधना किया करते हैं, अथवा आत्मिक क्षेप-साक्षात् मोक्षकी आकांक्षा धारण करनेवाले मुनिगण और अन्य महान् पुरुष जिनके क्रम-आनुपूर्वी और यम-संयमकी उपासना किया करते हैं, जिन्होने समाधि-धर्मध्यान अथवा शु. क्लध्यानके द्वारा शुभ और अशुम कोंका अपनी आत्मासे पृथक्करण करदिया है, वे भव्यात्मा कुछ ही मवमें-कम से कम दो तीन या ज्यादेसे ज्यादे सात आठ मवमें शास्त्रतिक शिवसुखका सम्पादन किया करते है।
केवल शिवसुख-मोक्षकाही अभिप्राय रखका जिपने भन्यो-मुनियों अथवा देवोंकी तृप्ति के लिये जिनभगवान् के आगमरूपी क्षीर समुद्रका मंथन करके इस धर्मामृतको उध्दत किया है वे श्रीमान् आशाधर सदा जयवंते रहो । एवं वे मव्यात्मा हरदेव भी इस ग्रंथको वृद्धिंगत करते हुए सदा आनंदित रहे कि जिनके उपयोग के लिये उन्ही श्रीमान् आधाधरने इस टीकारूपी शक्तिकी सुखपूर्वक रचना की है।
इस तरह श्री आशाधर विरचित धर्मामृत ग्रंथके अनगार धर्म नामक पूर्व मागकी भव्यमदचंद्रिका नामकी स्वोपज्ञ टीकामें नित्य नैमित्तिक क्रियाओंका जिसमें वर्णन किया गया है ऐसा नौवो अपाय पूर्ण हुआ। इस प्रकार धर्मामृत ग्रंथके अनगार धर्मामृत नामक पूर्वार्षको टोका पूर्ण हुई।
मद्रम् ।
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ग्रंथकर्ताकी प्रशस्ति.
__ एक सपादलक्ष नामका देश था जो कि त्रिवर्गसम्मति से युक्त और लवणसमुद्रका भूषणरूप था। उसमें लक्ष्मी के क्रीडागृहके समान मंडलकर नामका एक महान् दुर्ग था। वहीं पर निर्मल व्याघ्रवाल जातिके श्री सल्लक्षण पिता और श्रीमती रस्नीबाई माताकी कुक्षिसे श्री जिनेन्द्र भगवान् के प्ररूपित सिद्धान्तमें श्रद्धा रखनेवाले आशाधरका जन्म हुआ था। उन्होने जिस प्रकार अपनेको सरस्वती-वाणोके गर्भसे उत्सम किया था उसी प्रकार सरस्वती नामकी अपनी स्त्रीसे लाइड नामके पुत्रको उत्पन्न किया था, जो कि अत्यंत गुणवान् था और जिसने मालवाके अधिपति श्री अर्जुन देवको अपने ऊपर अनुरंजित कर रक्खा था!
कवियों अथवा विद्वानोंके मित्र श्री उदयसेन मुनिने अत्यंत प्रीतिपूर्वक जिन बाशापरका यह कहकर अभिनंदन किया था कि----
व्याघेरवाळवरवंशसरोजहंसः काव्यामृतीघरसपानसुतृप्तगात्रः ।
सल्लक्षणस्य तनयो नयविश्वचक्षुरानाधरो विजयते कलिकालिदासः ।। अर्थात-जो व्याघरवाल नामके निर्दोष वंशरूपी सरोज-कमलको हंसके समान है, जिपका परीर काव्यरूपी अमृत के समूहका रसपान करनेसे अत्यंत तुम हो चुका है, जो नीति अथवा न्यायशास्त्र के द्वारा सम्पूर्ण संसारको देखनेवाला है, अथवा जिसका न्यायशास्त्र संसार केलिये चक्षु के समान है, एवं जो इस कलिकाल में कालिदासके समान है वह सल्लक्षणका पुत्र आशाधर सदा जयवंत रहो।
१-० भाशावर जो की सरस्वतीपुत्र ऐसी पदवी था।
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इसी प्रकार उन आशाधर के विषयमें श्री मदनकीर्ति नामके यतिपति - आचार्यने भी ये प्रज्ञापुंज हैं ऐसा प्रशंसावाक्य कहा है ।
ही आशाधर जब तुरुष्कराज साहबुद्दीनने सपादलक्ष देशपर अपना अधिकार किया तब उसके त्रास से अपने सदाचार एवं चारित्र में क्षति पडती हुई देखकर मालवा देश में आकर प्राप्त हुए, जहां पर कि विन्ध्यनरेश के बाहुबल, अन्तः सार तथा उत्साहके प्रसादसे त्रिवर्गका ओज-बल स्फुरायमाणहो रहा था। इस मालवाकी धारा न. गरी में अपने बडे परिवारको साथ लेकर आशाघरने निवास किया । यहीं पर वादिराज पंडित श्री घरसेन के शिष्य पंडित महावीर से आईत प्रमाण शास्त्र और जैनेन्द्र व्याकरणका अध्ययन किया ।
जिस आशाधरके विषय में विन्ध्यनरेशके महासांधिविग्रहिक मंत्री और कवियोंके शिरोमणि विद्वान् विहणने इस प्रकार कहा है कि
आशारत्वं मयि विद्धि सिद्धं निसर्गसौदर्यमजर्यमार्य । सरस्वतीपुत्रतया यदेतदर्थे परं वाच्यमयं प्रपञ्चः ॥
अर्थात् - आर्य ! सरस्वतीपुत्रत्वकी अपेक्षा मुझमें स्वाभाविक सौंदर्य-सहोदरता - मातृमावसे युक्त तथा अजर्य - मैत्रीभावरूप आशावरत्व सिद्ध होगया समझा।
ये आशावर जिनधर्मको उद्योतित करनेकेलिये जहां पर अर्जुनवर्मा राजाका राज्य था और श्रावकों की वस्ती बहुत अधिक थी उस नलकच्छपुरमें आकर रह ।
उन्होने पंडित देवचन्द्र प्रभृति किन श्रोताओंको थोडे ही समय में व्याकरण समुद्र के पार नहीं कर दिया, एवं उनसे समीचीन न्यायशास्त्ररूपी उत्कृष्ट अस्रको पाकर वादीन्द्र विशालकीर्ति आदिकर्मसे ऐसे कौन हैं कि
१ - विल्हणकी माताका नाम सरस्वती था और पं. आशाधरजी की सरस्वतीपुत्र उपाधि थी । २ दूसरे पक्ष में सौंदर्य अर्थ भी हो सकता है । ३ पक्षान्तरमें कभी नष्ट न होनेवाला ऐसा भी अर्थ हो सकता है ।
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जिन्होने प्रति पक्षी वादियों को आक्षिप्त-पराजित नहीं किया है । तथा जिनके जिनवचनरूपी दीपकके ग्रहण करानपर भट्टारक देवभद्र विनयमद्र आदिकमेंसे ऐसे कौन हैं कि जो मोक्षमार्गमें अस्खलित रूपसे नहीं चलने लगे,-निरातचार चारित्रका आचरण नहीं करने लगे। इसी प्रकार जिनके पास काव्यरूपी अमृतका पान करके बालसरस्वती महाकवि मदन आदिमसे ऐसे कौन हैं कि जिन्होने सहृदय विद्वानों के बीच में प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं की है।
जिसके निरवद्य पद्योंसे मानों अमृतका पूर ही बहता है, जिससे स्यावाद विद्याका प्रसाद विशदरूपसे प्राप्त होता है, ऐसा प्रमेयरत्नाकर नामका इन्होंने एक तकग्रन्थ बनाया है। इसी प्रकार जिन आशाधरने केवल आत्म. कल्याणके लिये सिद्धिका है अंक-चिन्है जिसका ऐसा भरतेश्वराम्युदय नामका उत्तम काव्य बनाया और उसकी टीका भी बनाई जो कि विद्य-न्याय व्याकरण सिद्धान्तके जाननेवाले कवीन्द्रों को प्रमुदित करने वाला है। तया जिनागमका सार भूत, स्वयंकी बनाई हुई ज्ञानदीपिका नामकी टीकासे रमणीय, धर्मामृत नामका शास्त्र बनाकर मुमु. क्षु विद्वानोके आनन्दसे परिपूर्ण हृदयमें विराजमान किया। नेमीश्वरके नामका अनुवर्तन करने वाला राजीमती विलम्म-अर्थात् नेमीश्वर राजीमती विप्रलम्म नामका खण्डकाव्य बनाया और उसकी स्वयं टोका भी बनाई। पिताकी आज्ञानुसार अध्यात्मरहस्य नामका शास्त्र भी बनाया जो कि प्रसत्तिगुणसे युक्त रहने के कारण साटिति अर्थका बोधन करता है और अर्थतः गम्भीर है-जिसका अर्थ समझने में दूसरे शास्त्रों की अपेक्षा पडती है, तथा जो आरब्धयोगियों को अत्यंत प्रिय है । मूल चार भगवती आराधना इष्टोपदेश आराधनासार भूपालचतुर्विशतिका आदि ग्रंथों के ऊपर टीका बनाई है और अमरकोषके ऊपरभी क्रिया कलाप नामकी विशिष्ट टीका रची है। रुद्रट आचार्यके काव्यालंकार की टीका की और अरहतो-अनन्त तीर्थंकरों का स्तवन रूप सटीक सहस्रनाम बनाया। जिनमगवान्की प्रतिमाकी प्रतिष्ठाकी विधि बतानेवाला जिनयज्ञकल्प नामका प्रतिष्ठाशन बनाया और उसकी जिनयज्ञकरपदीपिका नामकी टीका भी बनाई । इसी प्रकार त्रिषष्ठिम्मृति नामका सटीक संक्षिप्तशास्त्र भी बनाया जिसमें कि वेसठ शलाका पुरुषोंका विषय बताया गया है । जिनमगवान्का
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१-प्रत्येक सर्गके अंतमें सिद्धि यह शब्द आता है। .
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अभिषेक शास्त्र नित्यमहोद्योत नामका बनाया जो कि मोहरूपी अंधकारको दूर करनेकेलिये सूर्य के समान है, और जिसमें महाभिषेक पूजाकी विधि बताई गई है । तथा रत्नत्रयविधानकी पूजा और उसके माहात्म्यका जिसमें वर्णन किया गया है ऐसा रत्नत्रयविधान नामका शास्त्र जिसने बनाया है, और जिसने वाग्मट संहिताका अभिप्राय व्यक्त करनेकेलिये उसके ऊपर आयुर्वेद के विद्वानोंको अभीष्ट अष्टाङ्गहृदयोद्योत नामकी टीका बनाई है। वही मैं आशाधर हूं कि जिसने अपने ही पहले बनाये हुए धर्मामृत ग्रंथमें निरूपित यति धर्मका अभिप्राय प्रकाशित करने वाली यह टीका बनाई है, जो कि मुनियोंको अतिशय प्रिय है। यदि इसके लिखते हुए कहीं अज्ञानिताके कारण स्खलन होगया हो तो धर्माचार्य तथा विद्वानोंको उसका संशोधन करके पठन करना चाहिये। . नलकच्छ नामके नगरमें उत्कृष्ट जैनधर्मका पालन करनेवाला श्रावकोंमें अग्रणी तथा देवपूजा आदि गुणों के संग्रह करने और विवेकके धारण करने एवं करुणादानके करनेमें जो सदा तत्पर रहा करता, विनय सरलता मद्रता उदारता दया और परोपकारपरता आदि गुणोंसे युक्त तथा खंडेलवाल जातिरूपी सुवर्ण माणि क्य-पद्मरागमणिके समान था ऐसा अतिशय सजन एक श्रेष्ठी रहता था, जिसका नाम तो पाप था परन्तु वस्तुतः वह पापसे सदा पराङमुख रहा करता था। उसके दो पुत्र थे एक बहुदेव दूसरा पद्मसिंह । पहला पिताके भारको धारण करनेमें समर्थ था, और दूसरेके शरीरको लक्ष्मीने आलिंगित कर रखा था । बहुदेवके तीन पुत्रथेएक हरदेव जिसमें कि अनेक गुण स्फुरायमाण थे और दूसरा उदयी तथा तीसरा स्तम्भदेव । ये तीनों ही भाई त्रिवर्गका सेवन करनेवाले गृहस्थोंके द्वारा सम्मानित थे।
एकवार हरदेवने यह प्रार्थना की कि “साधु महीचन्द्र ने मन्दज्ञानियों को प्रबोधित करने के लिये आपके धर्मामृत ग्रंथके सागारधर्म प्रकरणकी टीका आपसे ही करवादी है। परन्तु अभीतक उसके अनगार धर्म भागकी टीका नहीं बनी है। वह तीक्ष्ण बुद्धिके धारण करनेवाले विद्वानोंके लिये भी अत्यंत दुर्वाध है, विना टीकाके उसका अर्थ उनकी भी समझमें नहीं आ सकता। अत एव आप उसकी भी टीका बनाने का अनुग्रह करें। " इसके सिवाय धनचन्द्रने भी इसके लिये आग्रह किया । इसी परसे पं. आशाधरने यह टीका बनाई है जिसमें कि धर्मामृतोक्त यतिधर्मके विषयमें अच्छी तरह विचार किया गया है। विद्वानों ने इसका नाम भव्य कुमदचन्द्रिका
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रक्खा है। क्योंकि यह निकट मध्यजीव रूपी कमलोंको चांदनी के समान आल्हादित करनेवाली है। धर्मामृत ग्रंथके सागार अनगार इन दोनों ही मागोंकी टीका मुमुक्षु विद्वानोंके द्वारा चिन्तनामें प्रवृत होती हुई कल्पकाल पर्यन्त स्थिर रहे।
जिस समयमें परमार वंशरूपी समुद्रको वृद्धिंगत करनेवाले चन्द्रमाके समान महाराज देवपालके औरस पुत्र श्रीमान् जैतुगि देव अपने खनके बलसे मालवाका भले प्रकार शासन कर रहे थे उसी समयमें नलकच्छ नामके नगरमें श्रीमन्नेमिनाथ भगवान्के चैत्यालयमें विक्रमसम्बत् १३०० कार्तिक सुदि पंचमी सोमवारको शुभ लग्नमें यह टीका पूर्ण की । अनुमानसे इस टीकाका प्रमाण अनुष्टुप् छन्दकी अपेक्षा १२२०० है। पथा-पहले अभ्यायमें १६०० दूसरेमें १४२७ तीसरेमें ३१८ चौथे में २६१५ पांच ६०९ छ?में १७५५ सातवेंमें १२.६ आठवेंमें १५४५ और नौवेंमें १०७५ ।
सुख और उसके कारणोंकी प्राप्ति रूप अथवा दुःख और उसके कारणों के निवारणरूप यद्वा उनके भी कारण प्रतिकारणरूप शांति और कल्याण समस्त संसारकेलिये श्री शतिनाथ भगवान् सदा विस्तृत करो । धर्मका सेवन करनेवाले भव्य प्राणियों के साथ अम्युदय और मोक्षरूप लक्ष्मी सदा आलिंगन करे । जगत नीतिका प्रयोग सदा बढता रहे । पृथ्वीका शासन करनेवाला राजा अग्रणी और बलवान् हो । करिजन समीचीन विद्याके रसको प्रकट करनेवाली ही कविता किया करें । संसारमें पापका नाम भी न रहे । अथवा क्या २ और कितनी प्रार्थना की जाय, अत एव अंतमें एक ही प्रार्थना है.कि परमनिश्रेयसका साधनरूप जिनमगवान्का शासन सदा जयवंत रहो।
इस प्रकार महापंडित आशाधररचित और मव्यात्मा हरदेव द्वारा अनुमोदित अनगार धर्मामृतकी टीका समाप्त हुई।
शुभम् ।
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