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________________ विवृद्धि-उसको विशेष रूपमें बढानेके आभिप्रायसे मुमुक्षको उचित है कि वह सम्यग्दर्शनके उस विनय गुणका भी सेवन करे जो कि धर्मादिक विषयोंमें की गई भक्ति आदिके द्वारा अभिव्यक्त होता और उसमें माहात्म्य उत्पन्न करनेका अद्वितीय उपाय है । अनगार २३७ भावार्थ-विनय गुण भी अन्य उपगृहनादि गुणोंकी तरह सम्यग्दर्शनकी विशुद्धि-वृद्धिका कारण है । अत एव इसको सम्पन्न करनेकेलिये मुमुक्षुओंको धर्मादिक नव देवोंका भक्ति पूजा आदि पांच प्रकारसे अनुष्ठान करना चाहिये । धर्म रत्नत्रयरूप है जैसा कि पहले कहा जा चुका है । अर्हतादिक-अर्हत सिद्ध आचार्य उपाध्याय साधु ये पंच परमेष्ठी भी प्रसिद्ध हैं। चैत्य शब्दका अर्थ अहंतादिककी मूर्ति है । किंतु यहांपर चैत्य शब्द उपलक्षण है, इसलिये उससे चैत्यालय-मन्दरका भी ग्रहण करलेना चाहिये। श्रुत शब्दका अर्थ जिनागम या जिनवचन है । अस्पष्ट तर्कणाको श्रुत कहते हैं । इसके दो भेद हैं-द्रव्यश्रुत और भावश्रुत । पहला अक्षरात्मक-लिापरूप है और दूसरा शब्दात्मक है। जिसके कि दो भेद हैं; एक अंगप्रविष्ट दूसरा अंगबाह्य । इस प्रकार इन नव देवोंकी-पंच परमेंष्ठा चैत्य चैत्यालय धर्म और श्रुतकी भक्ति आदि पांच प्रकारसे उपासना करनी चाहिये । परिणामोंके विशुद्धियुक्त अनुरागको भक्ति कहते हैं। पूजा दो प्रकारकी है; एक द्रव्य दूसरी भाव । अर्हतादिकको उद्देश कर गंधाक्षतादि समर्पण करनेका नाम द्रव्यपूजा है। भावपूजा तीन प्रकारसे होती है-मन वचन और काय । मनसे अर्हतादिके गुणोंका स्मरण करना, वचनसे स्तुति करना और कायसे उनकी विनयकेलिये खडे होना प्रदक्षिणा देना प्रणाम करना इत्यादि भावपूजा है । उपासनाका तीसरा उपाय वर्णोत्पत्ति है-लोकमें अथवा विद्वानोंकी सभा आदिमें इन नव देवोंके यशोजनन --गुणकीर्तनको वर्णोत्पत्ति कहते हैं। चौथा उपाय अवर्णवादका नाश है,--इसके अनुसार, मिथ्यादृष्टि या अज्ञ लोकोंके द्वारा इन देवोंक विषयमें किये गये असद्भूत दोषोंके उद्भावनका निराकरण करना चाहिये । पांचवां उपाय आसादनाका परिहार है । जो कोई इन देवोंकी अवज्ञा या तिरस्कार अथवा अविनय करे उसका परिहार करना चाहिये। २३७ अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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