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________________ बनगार भ २३६ वीतराग देव निग्रंथ गुरु चार प्रकारका संघ और दयामय धर्म उसका फल मोक्ष आदि इनमें ख्याति यश लाभ पूजा आदिकी अपेक्षा न रखकर अनुराग रखनेको संवेगे कहते हैं । संसार शरीर भोगोपभोगके विषयोंमें वीतरागता -रागद्वेषके परित्यागको निर्वेद कहते हैं। अपनेसे किसी प्रकारके दुवृत्त-अपराध होजानेपर आचार्यके सामने, उसके पश्चात्ताप करनेको निंदा और उसके कथन करनेको-अपने किये गये उस अपराधको आचार्यके सामने ज्योंका त्यों कहदनेको गर्दा कहते हैं । अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि कषायोंके अनुद्रेक - अस्थिरताको उपशम कहते हैं। अर्हत सिद्ध आचार्य आदि पंच परमेष्ठी तथा और भी जो । पूज्य वर्ग हैं उनकी पूजा स्तुति विनय आदि करनेको भाक्त कहते हैं। अपने साधर्मी भाइयोंपर आई हुई विपत्तियों व क्लेशोंका निरसन करनेको वात्सल्य कहते हैं । भूख प्यास आदि बाधाओंसे पीडित प्राणियोंको देखकर मनमें दयासे भीगजानेको अनुकंपा कहते हैं। भावार्थ-ये ही संवेगादिक आठ गुण हैं जो कि सम्यग्दर्शनको बढाते और पुष्ट करते हैं। अत एव मुमुक्षुको इनका भी संग्रह करना चाहिये । विनय गुणको प्राप्त करनेका उपदेश देते हैं:धर्मार्हदादितच्चैत्यश्रुतभक्त्यादिकं भजेत् । दृग्विशुद्धिाववृद्धयर्थ गुणवद्विनयं दृशः ॥ ११ ॥ जिस प्रकार सम्यग्दशनकी विशुद्धिवृद्धिकेलिये उपगूहन आदि गुणोंको धारण किया जाता है उसी प्रकार-सम्यग्दर्शनमें शंकादि मलोंका निरास होजानेसे जो निर्मलतारूप विशुद्धि उत्पन्न होती है उसकी अध्याय १-ग्रन्थान्तरोंमें संसारसे भारुताको संवेग कहा है।
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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